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(१६६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___इस लोक के सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खण्डित करके वज्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं और सभी द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर हैं।+ इस लोक में सात क्षेत्र भारतवर्ष, हेमवत वर्ष, हरिवर्ष, विदेह वर्ष, रम्यक वर्ष, हैराण्यवत वर्ष और ऐरावत वर्ष नाम से हैं और हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के छह पर्वत हैं । इस लोक के केवल अढाई द्वीपों में ही मनुष्य रहते हैं और उसी अढाई द्वीपों में अनेक खण्ड हैं जिनमें कुछ खण्डों में आर्य पुरुषों के रहने से उनका नाम आयखण्ड ओर कुछ खण्डों में म्लेच्छ लोगों के रहने से म्लेच्छ खण्ड नाम से उन्हें पुकारा जाता है । आर्य पुरुषों का आचरण उत्तम होता है और वे लोग उत्तम गुणों से युक्त होते हैं जबकि म्लेच्छ लोग निकृष्ट आचरण वाले एव निकृष्टतर गुणों वाले होते हैं।ऊर्ध्व लोक :
मध्य लोक के समाप्त होने पर सुमेरू पर्वत की चोटी से नाममात्र के अन्तर से ऊध्वं लोक को सीमा प्रारम्भ हो जाती है । यह लोक सात राजू प्रमाण १००४०० योजन तक फैला हुआ है। इस लोक को दो भागों में विभक्त किया गया है, शिखर से २१ योजन ४२५ धनुष तक तो स्वर्ग लोक है और उसके ऊपर सिद्ध लोक है। इस लोक में देवों के विमान रहते हैं वे चर और स्थिर भेद से दो प्रकार के हैं । चर विमान वे होते हैं, जो निरन्तर घूमते रहते हैं और कई विमान जो स्थिर होते हैं वे स्थिर विमान कहलाते हैं । = + चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जू परिमण दोह विक्खंभे।
चेठंतिदीवस्वहीएवकेवकं वेढिऊण हुट परिदो ।। (तिलोयपप्णत ५/६) भरतहैमवतहरि विदेहरम्यक है रण्यवतैरावतवर्षा: क्षेत्राणि । (तत्वार्थसूत्र ३/१०-११) -तत्रार्यम्लेच्छखण्डानि भूरिभेदानि तेष्वमी।
आर्या म्लेच्छा नराः सन्ति तत्क्षेत्रजनितैर्गुणैः ॥ (ज्ञानार्णव ३६/८६) = ततो नभसि तिष्ठन्ति विमानानि दिवौकसाम् । चरस्थिर विकल्यानि ज्योतिष्काणां यथाक्रमम् ।। (ज्ञानार्णव ३६/८८)