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(८) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
है।+ तप के द्वारा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है और वह ब्रह्मज्ञानी परमात्मा के स्वरूप को जान लेता है, जो परमात्मस्वरूप को जान लेता है वह संसार से मुक्त हो जाता है। - षडंगयोग के प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क, और समाधि के वर्णन में कहा गया है कि विषयों में लीन मन जीव को बन्धन में फंसाता है जबकि निविषय मन मुक्ति दिलाता है। इसलिए विषयासक्ति से मुक्त और हृदय में निरूद्ध मन जब अपने ही अभाव को प्राप्त होता है तब वह परमपद पाता है | इसीलिए कल्याणकारी साधक सांसारिक भागों की अनित्यता और दुःखरूपता को समझकर इनसे हमेशा विरक्त हो जाते हैं एवं परमगति को प्राप्त करके फिर कभी लौटकर नहीं आते हैं। इस परमगति की प्राप्ति के लिए आचार-विचार जरूरी है। + यथैव बिम्ब मृदयोपलिप्त
तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम् । तद्वाऽऽत्मतत्वं प्रसमीक्ष्य देही
एकः कृतार्थों भवति वीतशोकः ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद् २/१४) यः पूर्व तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत ।
गुहां प्रविश्यं तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत ॥ एतद्व तत् ।
(कठोपनिषद् २/६) - (क) वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्य वर्ण तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मत्यूमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ३/८) (ख) यदिदं किं च जगत्सवं प्राण एजति नि सृतम् ।
महद्स्यं वज्रमुद्यत य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ (कठोपनिषद
२/३/२] 1 प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा।
तर्कश्चंव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते ॥ (अमृतनादोपनिषद् ६) *निरस्तविषयासंगा सन्निरुद्धं मनोहृदि।।
यदा यात्युन्मनीभाव तदा तत्परम् पदम् ॥ (ब्रह्म बन्दूपनिषद् ४) x अथोन्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययाऽऽत्मानमन्विष्यादित्यमभिजायन्ते । (प्रश्नोपनिषद् १/१०)