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भारतीय परम्परा में ध्यान (१३) काम एवं क्रोध ही मनुष्य को पाप की ओर प्रेरित करते हैं एवं आत्मा को आवृत्त कर लेते हैं। काम इन्द्रियों के द्वारा सक्रिय होता है, परन्तु मन इन्द्रियों से परे है, मन से परे बद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है।... कुछ लोग ध्यान के द्वारा आत्मा को आत्मा से देखते हैं तो कुछ लोग आत्मा को सांख्य योग के द्वारा तथा कुछ कर्मयोग के द्वारा आत्मा को देखते हैं। जो लोग आत्मा को आत्मा के द्वारा देखते हैं, उन मनुष्यों को पूरी तरह से सन्तोष मिलता है और वे परमानन्द की अनभूति में लीन हो जाते हैं । भगवान में जो वास्तविक स्थिति है, जिसको पाने के बाद कुछ भी पाना बाकी नहीं रह जाता ऐसी सम्यक स्थिति वाली जो निर्वाण परमा शान्ति है, साधक ध्यान के द्वारा उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है *ध्यान योग में पहले निर्विकल्प स्थिति होती है फिर उसके बाद निर्विकल्प बोध होता है। इसी निर्विकल्प बोध को यहां निर्वाण परमशांति कहा गया है। जब ध्यान योग के द्वारा चित्त संसार से उपरम हो जाता है, तो योगी का चित्त से और संसार से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, और जैसे ही उसका संसार से सम्बन्ध विच्छेद होता है उसको अपने आप में ही अपने स्वरूप की अनुभूति हो जाती है। ध्यान योग में पहले 'मन को केबल स्वरूप में ही लगाना है' यह धारणा होती है । ऐसो धारणा होने के बाद स्वरूप के सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा भी हो जाय, ... इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धैः परतस्तु सः ॥ [श्रीमद् भगवद्गीता
३/४२) x ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति के चिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। (वही १३/२४) * युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।। (वही ६/१५) A यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।। .., सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ [वही ६/२०-२१)