SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन - पर सुविधाजनक कुशा आदि का आसन बिछाकर चित्त एवं इन्द्रियों को वश में करके मन को एकाग्र करके काया, ग्रीवा और शिर को सीधा करके केवल अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए योगी स्थिर होकर बैठे।+ गीता में योग के कुछ सामान्य लक्षणों का निर्देश करते हए व्यवहारिक योग के लक्षण विभिन्न प्रकार के बतलाये गये हैं जो इस प्रकार से हैं- कर्म फल में आसक्ति का न होना, विषयों के प्रति अनासक्ति-, समत्व योग, निष्कामता A, एवं सुखदुख एवं लाभ में समता आदि । उपयुक्त लक्षण अभावात्मक लक्षण कहलाते हैं, लेकिन इनके अतिरिक्त कुछ भावात्मक लक्षण भी कहे गये हैं, जैसे सभी कार्य भगवान को अर्पण करना , सब अवस्थाओं में अर्थात सुख-दुख होने पर भी समान रूप से संतुष्टि.... आदि।। + शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रिय क्रियः। उपविश्यासने युज्याद्योगमात्मविशद्वये ।। समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं एवं दिशश्चानवलोकयन् ॥ (श्रीमद् भगवद्गीता ६/११-१३) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफल हेतुभूमौ ते संगोऽस्त्वकर्मणि। (गीता २/४७, ४/२०) - तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार । __ असक्तौ ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ (श्रीमद् भगवद्गीता ३/१९) A यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्प वर्जिताः । (गीता ४/१६) * सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो।। ततो युद्धाय जुज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ (श्रीमद् भगवद्गीता २/३८) x ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ (वही १२/६) मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति चं रमन्ति च ।। (वही १०/६)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy