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________________ भारतीय परम्परा में ध्यान [११] एवं परमात्मा के स्वरूप में लीन हो जाता है।... श्रीमद् भगवद्गीता में ध्यान:- श्रीमद् भगवद्गीता एक अनुपम ग्रन्थ है जिसे सारा संसार आदर की दृष्टि से देखता है, अगर इसे हम विश्व साहित्य का सर्वोत्तम ग्रन्थ कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। गीता में योग' शब्द बहुत बार आया है। इसके अट्ठारह अध्यायों का नाम 'योग' है। गीता का प्रत्येक अध्याय ऊतत्सदिति श्रीमद् भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुन संवादे...योगो नाम....अध्यायः' इन शब्दों के साथ समाप्त होता है। इसी कारण गीता को 'योगशास्त्र' के नाम से भी पुकारा जाता है। विभिन्न शास्त्रों में योग की परिभाषा भिन्न भिन्न मानी गयी है । गीता में स्वत: सिद्ध समता के स्वरूप वाली स्थिति को योग कहा गया है। इसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, शक्ति योग एवं ध्यानयोग आदि का उल्लेख किया गया है। ध्यानयोग की चर्चा करते हए इसमें कहा गया है कि जो समता कर्मयोग से प्राप्त होती है वही समता ध्यानयोग से भी प्राप्त होती है। गीता के छठे अध्याय में श्लोक १० से ३२ तक ध्यान योग का ही वर्णन किया गया है। ध्यान योग को करने के लिए साधक को एकान्त में बैठकर मन एवं इन्द्रियों को वश में करना चाहिये ।* जिसका ध्येय, लक्ष्य केवल परमात्मा में लगने का ही है अर्थात् जो परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही ध्यान योग करने वाला है उसको यहाँ योगी कहा गया है। ध्यान के लिये आसन बतलाते हुए कहा गया है कि शुद्ध भूमि .... नावर्तन्ते पुनः पार्थ मुक्ता संसारदोषतः जन्मदोष परिक्षीणाः स्वभा वेपर्यवस्थिताः । (महाभारत, शान्तिपर्व, १५९/३) .x. योगस्थः कुरु कर्माणि सड्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। ' सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। (श्रीमद् भगवद्गीता २/४८) * योगो युजीत सत्ततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीर परिग्रहः ॥ (वही ६/१०)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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