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[१०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
रखे, फिर पांचों इन्द्रियों सहित मन को ध्यान में एकाग्र करे ।+ साधक को धर्म के पालन करने को जरूरी बतलाते हुए कहा है कि सत्य ही धर्म है। अन्य धर्मों के अलावा योगी को अहिंसा का पालन करने के लिए कहा गया है, क्योंकि सत्य एवं अहिंसा के बिना समता एवं शांति नहीं आ पाती। योगी जब ध्यान का आरम्भ करता है तो पहले उसके द्वारा क्रमशः विचार, विवेक एवं वितर्क नामक ध्यान आते हैं। साधक को रोगादि विषयों को छोड़कर ध्यान में सहायक देश, कर्म, अर्थ, उपाय, अपाय, आहार, संहार, मन, दर्शन, अनुराग, निश्चय और चक्षुष इन बारह योगों का सहारा लेना चाहिये।= आश्वमेधिक पर्व में इन्द्रिय समुदाय को वश में करके एकाग्र चित्त से निर्जन वन में अपने अनत:करण में परमात्म तत्व का चिन्तन करने के लिए कहा गया है, क्योंकि इस प्रकार के ध्यान के द्वारा साधक का चित्त प्रसन्न हो जाता है और वह परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
रामचरित मानस में ध्यान के स्थान पर तप को ज्यादा महत्व दिया गया है। वहां तप को सुख देने वाला और दुःख दोषादि का नाश करने वाला कहा गया है ।* तप ही सारी सृष्टि का आधार है।४ तपस्या के द्वारा साधक अपने सभी अशुभ कर्मों का क्षय कर देता है एवं सांसारिक बन्धनों के भव से पार हो जाता है । ध्यान के द्वारा जीव अपने सभी दोषों को नष्ट करके मोक्ष पद को प्राप्त करता है + एवमिन्द्रय ग्रामं शनैः सम्परिभावयेत् । __ संहरेत क्रमश्चैव स सम्यक् प्रशमिष्यति ॥ (शांतिपर्व १६५/१६)
धर्म न दूसर सत्य समाना। ___ आगम निगम पुराण बखाना ।। (रामचरितमानस) = छिन्न दोषो मुनिर्योगान् युक्तोयुजीत द्वादश । देश कर्मानुरागार्थनुपायाप निश्चयो।। चक्षुराहारसंहारैमनसा दर्शनेन च ॥(महाभारत,शांतिपर्व २२६/५४) A संक्षिप्त महाभारत, आश्वमेधिक पर्व, पू० १५३६ *तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा । (रामचरितमानस, बालकाण्ड, पृ८४) x तप अधार सब सृष्टि भवानी । [रामचरितमानस, बालकाण्ड पृ० ८५)