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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (३६) लिए उन्होंने अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया।- यहाँ प्रत्याहार ध्यान, धारणा, प्राणायाम, अनुस्मति एवं समाधि योग के इन छ: अंगों में प्राणायाम को महत्व दिया गया है।
बौद्ध योग में 'समाधि' का महत्वपूर्ण स्थान है। इसको प्राप्त करने के लिए 'ध्यान' का प्रतिपादन किया गया है। + ध्यान चार प्रकार का बतलाया गया है १- वितर्क-विचार-प्रीति-सुख,एकाग्रतासहित, २- प्रीति-सुख-एकाग्रतासहित, ३- सुख एकाग्रता-सहित तथा ४- एकाग्रता सहित ।→ जब साधक साधना करते हुए ध्यान की तीसरी अवस्था को प्राप्त करता है तो इसमें सुख एवं एकाग्रता ही शेष रह जाती है। साधक ध्यान की इस अवस्था तक पहुँच जाता है तो उसके भीतर उपेक्षा का भाव जाग्रत होने लगता है, जिससे चित्त में सौम्यता एवं समता का भाव उदय होने लगता है। इन उपेक्षाओं की दस अवस्थायें-षडंग, ब्रह्मविहार, उदय बोध्यंग, वीर्य, संस्कार, वेदना विपश्यना, माध्यस्थ, ध्यान और परिशुद्धि होती है + साधक एक एक करके इन उपेक्षाओं को धारण करता जाता है, परन्तु इस अवस्था में आंशिक रूप से भौतिक सुख की अनुभूति बनी रहती है इसलिये उसके भीतर समाधि के प्रति उदासीनता का भय बना रहता है लेकिन साधक जब इस अवस्था को पार कर लेता है तो उसकी चतुर्थ अवस्था प्रारभ्भ हो जाती है और यह अवस्था ध्यान की चरम अवस्था है। इसमें केवल एकाग्रता ही शेष रह जाती है । ध्यान की एकाग्रता के लिए साधक को आचार-विचार एवं नीति - (क) संयुत्त निकाय ५, १० (ख) विभंग ३१७-२८ प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथधारणा। अनुस्मृति : समाधिश्व षडगयोग उच्यते ।। (शैकोद्देश टीका,
पृ. ३०) + दीघनिकाय, १/२, पृ० २८-२६ → मज्झिमनिकाय, दीघनिकाय, सामञलफलसुत्त, बुद्धलीलासार
संग्रह, पृ० १२८, समाधि मार्ग, पृ० १५ + विशुद्धिमग्गो, दीघनिकाय ।