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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१०६)
दोषों को दूर करके आत्मस्वरूप को जानना चाहिये ।- आत्मस्वरूप को जानना ही निश्चय दृष्टि से सम्यग्ज्ञान है । इसके पाँच भेद बतलाये गये हैं।+ १- मतिज्ञान, २- श्रुत ज्ञान, ३- अवधि ज्ञान, ४मनः पर्यंय ज्ञान, सश्यकचारित्र
सम्यग्दर्शन की उपलब्धि और सम्यग्ज्ञान की आराधना के बाद साधक का चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है। इसका कारण यह है कि दृष्टि शुद्ध और यथार्थ ग्राहिणी हो जाती है। साधक जितनी भी योग क्रियायें करता है, वे सब सम्यकचारित्र बन जाती है। ज्ञान को आचरण में लाना, यही चारित्र धर्म हैं तथा इसी का दूसरा नाम सम्यकचारित्र हैं । अज्ञानपूर्वक चारित्र का ग्रहण सम्यक कहा गया है।X श्रमण और श्रावक की अपेक्षा से सम्यकलारित्र के दो भेद किये गये हैं१. सकल चारित्र, २- विकलचारित्र । आगमों में इनके दो भेद - तातै जिनवरकथित तत्व अभ्यास करीजे। संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे ॥ (छहढाला ४/६)
आप रूप को जानपनौं सो सम्यग्ज्ञान कला है । (छहढाला ३/२ + (क) मति श्रु तावधिमन' पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । (तत्वार्थ सूत्र
१/६] (ख) मति श्र तावधिज्ञानं मनः पर्यय केवलम।
तदित्थं सान्वयभेदैः पञ्चधेति प्रकल्पितम् ॥ (ज्ञानार्णव
→ प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग ।
(समीचीन धर्मशास्त्र २, ४३-४६) x नहि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानान्तरमुक्तं, चारित्राराधनं तस्मात् ॥ (पुरूषार्थ सिद्धयुपाय
सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां, विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।। [समीचीन -धर्म शास्त्र ३/४/५०)