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विचरण करने लगे । सब वन में अकस्मात् वायु के वेग से बांस हिलने लगे । परस्पर बाँसों की रगड़ से दावानल प्रकट हुआ देखतेही देखते क्षण भर में वह दावानल सब जगह फैल गया। उसी अग्नि में ऋषभदेव का स्थूल शरीर भस्म हो गया।"
भगवान ऋषभदेव की परम्परा के जैन तीर्थंकरों की सब प्रति. माये ध्यानस्थ मुद्रा में प्राप्त होती है। जैन परम्परा में योग के स्थान पर ध्यान शब्द का प्रयोग बहुलता से विया गया है । यहाँ योग शब्द मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त हआ है । परवर्ती साहित्य में ध्यान के अर्थ में भी योग का प्रयोग मिलता है।
सिंधु घाटी की खुदाई में योगी की मूर्ति प्राप्त हुई है, इसे श्री रामप्रसाद चन्दा ने ऋषभ देव की मूर्ति होने की सम्भावना व्यक्त की थी। बिहार में पटना के पास लोहानीपूर से जो जैन मूर्ति मिली है, वह सिंधु घाटी की खुदाई में प्राप्त योगी की मूर्ति से मिलती-जुलत है । यह मूर्ति मौर्यकालीन है । ऋषभदेव के पुत्र भरत, जिनके नाम से यह देश भारतवर्ष कहा जाता है, घोर साधक थे। उनका वर्णन भी पुराणों में एक अवधूत साधक के रूप में है। अवधूत शब्द के साथ प्राचीन वाड.मय में जो भाव जुड़ा है, उसमें भोग-वासना के प्रकम्पन की दृष्टि प्रमुख है। जिसने तपोमय जीवन द्वारा एषणाओं को झकझोर दिया, वह अवधूत है । भागवत में ऋषभदेव का एक अवधूत साधक के रूप में चित्रण है ।१
जैन परम्परा में ध्यान साधना तप का एक भेद है । प्रायः प्रत्येक तप का ध्यान से सम्बन्ध है । धर्मध्यान का वर्णन तो किसी न किसी रूप में अन्य परम्पराओं में भी प्राप्त है, किन्तु शुक्लध्यान का जैसा वर्णन जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। शक्ल ध्यान के विविध सोपानों का वर्णन जैनों की अपनी निजी सम्पत्ति है । अन्य स्थानों पर जहाँ सध्यान का ही वर्णन है, वहाँ जैन परम्परा की यह भी विशेषता है कि यहाँ आर्त और रौद्र नामक खोटे ध्यानों का भी सविस्तार वर्णन है । आर्त, रौद्र, धर्म २-आस्था और चिन्तन पृ० १४०