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(१८ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
किया गया है। इसी स्कन्ध के १५ में अध्याय में अणिमा आदि अटठारह सिद्धियों का वर्णन, अध्याय १६ में यमनियमादि का वर्णन, अध्याय २६ वे में ज्ञान योग एवं भक्तियोग के साथ अष्टाड्.ग योग का विशद वर्णन किया गया है। इसमें कथाओं के माध्यम से योग की क्रियाओं एवं साधनाओं का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया हैं जिनमें योगसम्बन्धी शब्दों के अनेक संकेत प्राप्त होते हैं, जैसे मनः प्रणिधान...., आसनX, भगवान में अपना मन भक्तिपूर्वक लगाना, मन, वचन एवं दुष्टि की वृत्तियों से अपनी आत्मा को एकाग्र करके अन्त: श्वास लेना तथा अन्तिम बार श्वास को भीतर खींचकर ब्रह्मरन्ध्र से प्राण त्याग करना आदि।
श्रीमद् भागवत में ध्यान योग के वर्णन में कहा गया हैं कि प्रत्यय की जो एकतानता हो, ('यत्रैकतानता ध्यानम्') उसे ध्यान कहते हैं। ध्यान करने की विधि में साधक सब ओर फैले चित्त को एक स्थान में स्थिर करे तथा फिर भगवान् के पैर के ध्यान से आरम्भ कर ऊपर मुख को मन्द मुस्कान के ऊपर अपना ध्यान जमा दे ।A इस विधि ... तस्मिन्निर्म नजयंरण्ये पिप्पलोस्थ आस्थितः ।
आत्मनाऽऽत्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ।। ध्यायतश्चरणाम्भोजः भावनिजित चेतसा। औरकण्ठ्याश्रु कुलाक्षस्य ह्रद्यासीन्मे शनैहरि ॥ (भागवतपुराण १/६ १६-१७) x तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासौ बदरीषण्डमण्डिते।
आसीनोऽथ उपस्पृश्य प्रणिदभ्यो मनः स्वयम् ॥ (श्रीमद् भागवत पुराण १/७/३) * कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टि वृत्तिभिः ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तश्वास उपागमत् ।। (वही १/६/४३) A तत सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् । नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।। (वही ११/१४/४३) तस्मिल्लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् । विलक्ष्यकत्र संयुज्यादड्.गे भगवतो मुनिः ॥(भागवत पुराण ३/२८/२० एवं २१)
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