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निरोध है उसे अन्यत्र न जाने देना ध्यान है । परिस्पन्द से रहित जो एकाग्र चिन्ता का निरोध है-एक अवलम्बन रूप विषय में चिन्ता का स्थिर करना है उसका नाम ध्यान है और वह निर्जरा (संचित कर्मो का आंशिक क्षय) और संवर(नये कर्म के आने के निरोध का कारण) का कारण है।
ध्यान के योग और समाधि दो नाम सुप्रसिद्ध हैं। जिनसेन आचार्य के महापुराण में इनके साथ धीरोध, स्वान्त निग्रह और अंत: संलीनता को ही ध्यान के पर्यायवाची नाम बतलाये गये हैं। प्रसख्यान नाम मुख्यतः योग दर्शन का है । 'प्र' और 'सम' उपसर्ग पूर्वक ख्या' धातु से 'ल्यूट' प्रत्यय होकर इस शब्द की व्युत्पत्ति हई है । 'ख्या' धातु गणना तत्त्वज्ञान और ध्यान जैसे अर्थों में व्यवहृत होती है । यहाँ प्रसंख्यान से अभिप्राय तत्त्वज्ञान और ध्यान से है । "हरः प्रसंख्यान परोबभूव' यह कुमार सम्भव का वाक्य है। यहाँ प्रसंख्यान शब्द ध्यान और समाधि का वाचक है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्यानुसारिणी सिद्ध सेन गणि विरचित टीका में वचन, काय और चित्त के निरोध का नाम ध्यान है।(तत्त्वार्थाधिगम भाष्य सिद्ध सेन,वृत्ति:/२०) महर्षि कपिल ने राग के विनाश को तथा निविषय मन को ध्यान कहा है । इस प्रकार ध्यान का विविध निरूपण हुआ है । ध्यान में एकाग्र चिन्ता निरोध आवश्यक है । ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है । ध्यान के च्युत होने पर जो चित्त की चेष्टा होती है उसे अनुप्रेक्षा कहा जाता है । भावना और अनुप्रेक्षा से भिन्न जो मन की प्रवत्ति होती है वह चिन्ता कहलाती है। एक वस्तु में चित्त के अवस्थान रूप उस ध्यान का काल अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है । इस प्रकार का ध्यान अल्पज्ञ जीवों के होता है। केवलियों का ध्यान योगों (मन, वचन, काय की प्रवृत्ति) के निरोध रूप है। ध्यान चार प्रकार का होता है-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान मौर शुक्लध्यान। इनमें से प्रारम्भ के दो ध्यान दुर्ध्यान हैं तथा अन्तिम दो ध्यान शुभ ध्यान हैं। जैन ग्रन्थों में इन ध्यानों का विस्तृत निरूपण प्राप्त हैं । ध्यान के समान यहाँ ध्याता और ध्येय का भी निरूपण किया गया है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध को लिखने में मुझे जिन्होंने सहयोग दिया है