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[२३३] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३-श्लेष्मौषधि : (खेलोसहि)___ इस लब्धि के प्रभाव से योगी का श्लेष्म यदि कुष्ठी के शरीर पर मला जाये तो उसका कुष्ठ रोग भी समाप्त हो जाता है । ४-जल्लौषधि-लब्धि : (जल्लोसहि)
इस लब्धि के प्रभाव से योगी के कान, मुख, नाक आदि के मैल से समस्त रक्त रोग समाप्त हो जाते हैं । ५-संभिन्न स्रोत :(संभिन्न श्रोत)
इस लब्धि के प्रभाव से योगी शरीर के प्रत्येक अड़.ग द्वारा सुनने में समर्थ हो जाता है अर्थात् एक ही इन्द्रिय से पांचों ही इन्द्रियों के के विषयों का ग्रहण किया जा सकता है। ६-सर्वोषधि-लब्धि : (सव्वोसहि)___इस लब्धि के द्वारा मलमूत्रादि, नख, केश आदि में सुगन्ध आती है और रोग उपशमन की शक्ति प्राप्त होती है। ७-अवधि लब्धि :
__ अवधिज्ञान-रूपी (रस, स्पर्श, गन्ध वाले) पदार्थों के भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालों की पर्यायों को जानने की क्षमता योगी में आ जाती है। ८-ऋजुमति-लब्धि :
यह लब्धि मनःपर्यय ज्ञानी योगी को प्राप्त होती है, जिससे साधक दूसरों के मनों के भावों को जान लेता है।
६-विपुलमति-लब्धि :__ यह लब्धि भी मनःपर्ययज्ञानी योगी को प्राप्त होती है, जिससे योगी संज्ञी जीवों के मन के भावों को सहजता से जान लेता है। १०-चारण लब्धि:___इस लब्धि के दो प्रकार हैं-१- जंघा चरण तथा २-विद्या चारण इस लब्धि के द्वारा योगी को आकाश में गमनागमन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। इस लब्धि को आकाशगामिनी लब्धि भी कहते हैं।