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________________ [२४३] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ध्यान के द्वारा ही सिद्ध होता है। ज्ञान की एकाग्रता ध्यान से ही सिद्ध होती है। इसलिए ध्यान ही आत्मा का हित माना गया है।+ आत्मा स्वयं ही कर्ता-धर्ता एवं गुरु होती है। * सम्पूर्ण कमों के क्षय होने पर आत्मा स्वयं ही सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाती है तथा एक क्षण में ऊर्ध्वगमन कर लोकशिखर के अग्रभाग में पहुँच जाती है । जहां किसी भी प्रकार का राग भाव नहीं रहता ।= वहां आत्मा हमेशा समता भाव से परमानन्द का अनुभव करती हुई अचल रहती है ।- मुक्तावस्था में होने के कारण कर्मो के द्वारा आत्मा का शरीर निर्माण नहीं होता, .... लेकिन मुक्तात्मा का आकार प्रायः उस शरीर हो जितना रह जाता है जिसे त्यागकर वह मुक्त हुआ है और वह देह के प्रतिबिम्ब रूप रुचिराकार ही होता है । A + मोक्षः कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानातः स्मृतः। ध्यानसाध्यं मतं तद्धि तस्मात्तद्धितमात्मनः ।। (ज्ञानार्णव ३/१३) नयत्यात्मानमात्मेव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।। (समाधि तन्त्र७५) (क) कर्म बन्धन विध्वंसावत्र ज्या-स्वभावतः। क्षण नैकेन मुक्तात्मा जगच्चूडाग्रमच्छति।।(तत्त्वानुशासन २३१) (ख) तदन्तर मूवं गच्छत्यालोकान्तात् । तत्त्वार्थ सूत्र १०/५) = द्वेषस्याभावरूपत्वाद् द्वेषश्चैक एवहि। रागात् क्षिप्र माच्चातः परमानन्दसंभवः ॥ (पूर्वसेवाद्वात्रिशिक ३२) - मुक्त्युपायेष नो चेष्टामल नायैव यत्तः। (मुक्त्य द्वेषप्राधान्य द्वात्रिशिका१) .... शरीर न से गृहणाति भूयः कम व्यपायत: । कारणख्यात्यये कार्य न कुत्रापि प्ररोहति ॥[योगसारप्राभृत ७/१६] A (क) पुसः संहार-विस्तारौ संसारे कर्म निमितौ। मुक्तौ तु तस्य तो न स्तः क्षयात्तद्धेतु-कर्मणाम् ॥ ततः सोऽनन्तर-त्यक्त-स्वशरीर-प्रमाणतः ।। किचिदूनस्तदाकारस्तत्रास्ते स्व-गुणात्मकः ॥ [तत्त्वानुशासन २३२-३३] (ख) अन्याकाराप्तिहेतुर्न च भवति परो येन तेनाऽल्पहीनः ।। प्रागात्मोपात्त देहप्रतिकृतिरुचिराकार एवं ह्यमूर्तः ।। (सि. भ. पूज्यपादः तत्त्वानुशासन पृ० १६५)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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