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ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२४२)
द्रव्य, भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से अनेक प्रकार का है ।+
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग की प्रवृत्ति ये सब संसार के बन्धन के कारण माने गये हैं और इन्हीं कारणों के कारण जीव अपनी विवेक शक्ति को खो देता है और संसार की सभी बस्तुओं को भ्रान्तिवश अपनी समझने लगता है उसकी यही अवस्था संसार में भ्रमण करने का कारण है। मोहनीय कर्म के क्षय से एवं ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के क्षय से जोव को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जैनाचार्यों ने केवलज्ञान की इस अवस्था को जीव की अरिहन्त दशा माना है। इस अरिहन्त अवस्था में मन, वचन एवं काय के योग में से सूक्ष्म काय योग का व्यापार चलता रहता है । तेरहवे गुणस्थान वाले इस ध्यान में श्वास क्रिया के शेष रहने के कारण जीव को केवलज्ञान की ही प्राप्ति होती है लेकिन मुक्ति नहीं होतो । = मुक्ति प्राप्त करने के लिए उसे चारों धातिया कर्मो का क्षय करना पड़ता है और उसकी जो श्वास प्रश्वास की क्रिया है उसका भी निरोध करना पड़ता है तब उसकी आत्मा के प्रदेशों में किसी भी प्रकार की हलचल शेष नहीं रहती वह अयोग केवली अवस्था को प्राप्त कर लेता है।- मोक्ष को प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र की एकरूप परिपूर्णता जरूरी होती है। - मोक्ष कर्मों के क्षय से ही होता है। कर्मों का क्षय सम्यग्ज्ञान से ही होता है और सम्यग्ज्ञान + सामान्यादेको मोक्षः द्रव्य भावभोक्तव्य भेदादनेकोऽपि । (राजवार्तिक १/७/१४/४०/४२) मोहक्षयाज्ज्ञानदशनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । (तत्त्वार्थसूत्र १०/१) = वृहद्रव्यसंग्रह, टी. ४८/२.. - ध्यानशतक, विवेचन, ८२/४४ x (क) सम्यग्ज्ञानादिकं प्राहुजिना मुक्तेनिबन्धनम् ।
तेनैव साध्यते सिद्धिर्यस्मात्त दथिभिः स्फुटम् ॥ (ज्ञानार्णव
३/११) (ख) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । (तत्त्वार्थसूत्र १/१)