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________________ (२४१) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन मोक्ष कहलाती है ।+ जब आत्मा का चतुर्गतियों में भ्रणमरुक जाता है तब समस्त कर्मो का आवागमन रुक जाता है और आत्मा स्वभावत: निजस्वरूप में स्थित हो जाती है। संवर के द्वारा आत्मा में नये कर्मों का प्रवेश तक रुक जाता है और निर्जरा से इकट्ठे हुए कर्मों का पूरी तरह से क्षय हो जाता है । तब आत्मा अनन्त सुख का अनुभव करती है। जैन आचार्यों ने मोक्ष के अनेक भेद किये हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने व्यतिरेक, अन्वय एवं सुख की प्रधानता से मोक्ष को तीन प्रकार का माना है।- जबकि देवसेनाचार्य ने द्रव्य एवं भाव के भेद से उसे दो प्रकार वाला कहा है ।= धबला में भी मोक्ष के तीन भेद कहे गये हैं ।x १-जीव मोक्ष, २-पुद्गल मोक्ष एवं ३जीव पुद्गल मोक्ष । सामान्यतः मोक्ष एक ही प्रकार का होता है, + (क) निः शेष कर्मसम्बन्ध परिविध्वंसलक्षणः । जन्मनः प्रतिपक्षो यः स मोक्षः परिकीर्तितः ।। [ज्ञाना र्णव ३/६] (ख) निखशेषनिराकृत कर्ममलकलंङ कस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादिगुणमब्याबाध सुखात्म्यान्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति । [सर्वार्थसिद्धि ९/१ की उत्थानिका १/८] (ग) .......निर्विकल्प समाधिस्थानां परम योगिनां रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणातीन्द्रियम् ॥ (वृहद्रव्यसंग्रह, टी० ३७/१५४/५] (ध) परमात्मप्रकाश, मूल २/१० भणिदे मणुवावारे भमंति भूयाइ तेसु रायादी। ताण विरामे विरमदि सुचिरं अप्पा सरूवम्मि ।। (ज्ञानसार ४६) - ज्ञानार्णव ३/६-८ = तं मुक्खं अविरुद्धं दुविहं खलु दव्वभावगदं । (नयचक्र वृहद् १५६) x सो मोक्खो तिविहो-जीव मोक्खो पोग्गलमोक्खो जीवपोग्गल मोक्खो चेदि । (धवला १३/५/५/८२३/४८/१)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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