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________________ शुक्ल ध्यान (२१५) आ जाने के कारण तीनों योगों में मनोयोग एवं वचनयोग का पूरी तरह से निरोध हो जाता है लेकिन काययोग स्थूल काययोग से बदल कर सूक्ष्म रूप में रह जाता है जो श्वासोच्छवास की क्रिया के रूप में विद्यमान रहता है । यह सब क्रियायें तेरहवे गुणस्थान के अन्तिम काल में होती हैं और जब तेरहवें गुणस्थान का समय समाप्त हो जाता है तो योगनिरोध पूरी तरह से हो जाता है और चौदहवाँ गुणस्थान प्रारम्भ हो जाता है। X 1.00 समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शुक्ल ध्यान : जिस वक्त श्वास-प्रश्वास आदि क्रियाओं का भी निरोष हो जाता है और आत्मा के प्रदेशों में किसी भी प्रकार का कम्पन नहीं. होता तब वह ध्यान समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति कहलाता है, क्योंकि यह ध्यान वितर्क रहित और वीचार रहित होता है, तथा इसमें अनिवृत्ति है, क्रिया से रहित होने के कारण शैलेशी अवस्था को प्राप्त है एवं योग रहित है । इस ध्यान में सूक्ष्मकाय योग-काय(क) निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । ... सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपाति तृतीयं कीर्तितं शुक्लं । । [ योगशास्त्र ११ / ८ ) (ख) कीययोगे ततः सूक्ष्मे स्थिति कृत्वा पुनः क्षणात् । योगद्वयं निगृहीति सद्यो वाक्चित्तसंज्ञकम् ॥ ( ज्ञानार्णव ४२/५०) (ग) तदो अतोमुहतेण सुहुमकायजोगेण सुहुम उस्सासणिस्सासं णिरुभदि । तदो अन्तत गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरु भमाणो इमाणि करणाणि करेदिपढमसमए अपुब्वफद्दयाणि करेदि पुत्वफद्दयाण हेट्ठदो । (षट्खण्डागम, धवला टी० १३/५/४/२६/८५/३) (घ) सूक्ष्मक्रियानिवृत्याख्यं तृतीयं तु जिनस्यतत् । अर्धद्धांगयोगस्य, रुद्धयोगद्वयस्य च ॥ ( अध्यात्मसार ५ / ७८ ) X वृहद्रव्यसंग्रह, टी. ४८/२०० + (क) अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि । 1 ज्झाणं निरुद्धजोगं अपच्छिम उत्तमं सुक्कं || ( षट्खण्डागम, ध. टी. १३/५/४/२६/७७) (ख) तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिष्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियम पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ।। (ध्यानशतक ८२
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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