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________________ (२१६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्रिया भी समाप्त हो जाती है अतः कोई भी योग नहीं रहता और केवलज्ञानी अयोगकेवली बन जाते हैं क्योंकि इस समय आत्मा में किसी भी प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, मानसिक, वाचिक, कायिक व्यापार नहीं होते । A यह अति उत्तम ध्यान चौदहवें अयोगी गुणस्थान में प्रारम्भ होता है जिसमें केवली भगवान् अन्त समय से पहले समय में अर्थात् उपान्त्य में ७२ कर्मप्रकृतियों को तथा इसी गुणस्थान की अबशिष्ट तेरह कर्मप्रकृतियों को भी नष्ट कर देते हैं । + अयोगकेवली जब काययोग का निरोध करके औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों का नाश करता है तभी वह इस उत्तम और A ( क ) स्वप्रदेशपरिस्पन्दयोगप्राणादि कर्मणाम् । समुच्छिन्नतयोक्तं तत्समुच्छिन्नक्रियाख्यया ॥ सर्वबन्धास्रवाणां हि निरोधस्तत्र यत्नतः । अयोगस्य यथाख्यात चारित्रं मोक्षसाधनम् ॥ ( हरिवंश पुराण ५६/७८-७९ ) (ख) येन ध्यानेन चायोगी मिष्क्रियो योगवर्जितः । यातिमुक्तिपद शुक्लं तच्चतुर्थं क्रियातिगम् || (मूलाचार प्रदीप ६ / २०८४) (ग) ततस्तदनन्तरं समुच्छिन्न क्रियानिर्वत्तिध्यानमारभते । समुच्छिन्नप्राणापानप्रचार सर्वकायवाङ् मनोयोग सर्वप्रदेश परिस्पन्दन क्रिया व्यापारत्वात्समुच्छिन्ननिवृत्तीत्युच्यते ॥ ( सर्वार्थसिद्धि ९ / ४४/४५७/६) + द्वासप्ततिविलीयन्ते कर्मप्रकृतयो द्रुतम् । उपान्त्ये देवदेवस्य मुक्ति श्री प्रतिबन्धकाः ॥ तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगि परमेष्ठिनः ॥ (ज्ञानार्णव ४२ / ५२-५४ )
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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