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________________ शुक्ल ध्यान (२१७) अतिनिर्मल ध्यान को प्राप्त करता है । + जब साधक की सूक्ष्म क्रिया की भी निवृत्ति हो जाती है, तथा जितने समय में वह अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच ह्रस्व स्वरों को बोलता है उतने समय में इस ध्यान से वह केवली शैलेशी अवस्था को प्राप्त करके पर्वत की भाँति निश्चल एवं अडिग हो जाते हैं । इस ध्यान को दूसरे शब्दों में व्यपरतक्रियानिवृत्ति भी कहा गया है क्योंकि इस ध्यान में श्वासोच्छ वास के प्रचार रूप सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है - और सम्पूर्ण कर्म की निर्जरा के बिना उससे लौटना सम्भव नहीं होता इसीलिए इसको व्यपरतक्रियानिवत्ति के नाम से भी जाना जाता है ।... इस प्रकार से इस ध्यान से योगी अयोगी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। + (क) तं पुण णिरुद्ध जोगो सरीर तियणासणं करेमाणो । सवण्ह अपडिवादी ज्झायदि ज्झाणं चरिमसुक्कं ।। (भगवती आराधना, वि. टी., १८८३) (ख) चारित्रसार २०६/३ (ग) तत्त्वार्थसार ७/५३-५४ को तुरीयंतु समुच्छिन्न-क्रियमप्रतिपाति तत् । शैलवन्निष्प्रकम्पस्य, शैलेस्यां विश्ववेदिनः ॥ (अध्यात्म सार ५/७६) (ख) लघुवर्ण-पचकोद्गिरण तुल्यकालमवाप्य शैलेशीम् । (योगशास्त्र ११/५७) (ग) सहस्वोच्चारावृत्ती: पञ्च स्थित्वा स्वकालतः । सिद्धि सादिरनन्ता स्पादनन्तगुणसन्निधिः ॥ (हरिवंशपुराण ५६/११०) । - विशेषणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद व्यपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद् व्युपरतक्रियनिवृत्ति संज्ञं चतुर्थशुक्ल ध्यानं । (वृहद्रव्यसंग्रह ४/२००/८) .... ध्यानशतक, विवेचन ८२/४४
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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