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________________ प्रथम परिच्छेद भारतीय परम्परा में ध्यान ध्यान की पद्धति का मूल स्त्रोत एवम् विकासः आर्य साहित्य के भण्डार को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा गया है-वैदिक, जैन एवं बौद्ध। ऋग्वेद वैदिक साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। उसमें आधिभौतिक एवं आधिदैविक का वर्णन मुख्य रूप से किया गया है लेकिन आध्यात्मिक भाव का ज्यादा वर्णन नहीं किया गया+, परन्तु थोड़ी सी मात्रा में ही वहाँ इसका इतना स्पष्ट, सुन्दर एवं भावपूर्ण वर्णन किया गया है कि उसको पढ़ने से ऐसा लगता है कि उस वक्त लोगों की दृष्टि केवल बाह्य नहीं थीx अपितु उनमें ज्ञान A, श्रद्धा =, उदारता..., ब्रह्मचर्य* आदि भावों का समावेश था जिससे उनके आध्यात्मिक होने का साफ पता चलता है। भारतीय साधनाओं में योगसाधना और योग-साधना के अन्तर्गत ध्यान-साधना का महत्व विशेष रूप से रहा है। ब्राह्मण धर्म के मूल में "ब्रह्मन्" शब्द है। "ब्रह्मन्' अर्थात् यज्ञ को केन्द्र में रख करके ही ब्राह्मण धर्म की परम्पराओं का विकास हुआ है। फिर भी यज्ञ से सम्बन्धित, वैदिक मन्त्रों और ब्राह्मण-ग्रन्थों में तप की शक्ति एवं महिमा के सूचक 'तपस्' शब्द का + 'भागवताचा उपसंहार' प० २५२ x (क) इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एक सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ (ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त १६४-४६) (ख) वही मण्डल ६, सूक्त (ग) पुरुष सूक्त, मण्डल १०, सू०६०) A ऋग्वेद, मण्डल १०, सक्त ७१ = वही, मण्डल १०, सूक्त १५१ .... बही, मण्डल ९०, सूक्त ११७ X वही, मण्डल १०, सूक्त १० त्वं तपः परितप्याजयः स्वः । (ऋग्वेद १०/१६७/१)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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