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[४२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
चारित्र के पालन से ही आध्यात्मिक विकास होता है। इसके नौने अध्याय में ध्यान का विस्तृत वर्णन किया गया हैं । मोक्षपाहुड़:___इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द हैं । इनका समय अनुमानतः ई०पू० द्वितीय शताब्दी के आसपास है।+ यह एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें जैन योग सम्बन्धी बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का वर्णन हैं । इसको गाथा संख्या १०६ है । इसमें आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा ऐसे तीन भेद, तथा उनके स्वरूप को समझाया है और बताया है कि मिथ्यात्व के कारण जीव की कैसी दशा होती है । बिना कषायों पर विजय प्राप्त किये मनुष्य मुक्ति अथवा परमपद प्राप्त नहीं कर सकता। आत्मध्यान में प्रवृत्त होने से ही कषायों का पर्दा हटता है क्योंकि इसमें सभी आस्त्रवों का निरोध होता है। एवं संवर तथा निर्जरा से समस्त संचित कर्मो का नाश होता है । मुनि के लिए पाँच महाग्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि चरित्र का भी वर्णन है। बहुत से योगीजन विषय एवं वासनाओं से मोहित होकर अपना तप भ्रष्ट कर देते है, अतः योगी मुनि को ध्यान-साधना में सावधान रहने के लिए कहा है । मोक्षपाहुड़ पर श्रुतसागरसूरि की टीका भी उपलब्ध हैं। समाधि तन्त्र:___ इस ग्रन्थ के रचियता श्री पूज्यपादाचार्य है । इसमें इन्होंने आत्मा के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। मनुष्य में ज्ञान का होना जरूरी बताया गया है तथा आत्मज्ञान के बिना तप व्यर्थ है उससे मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती इसका उल्लेख किया है ।= आचार्य पूज्यपाद का समय विक्रम की पांचवी छठी शती है । इस लघुकाय, किन्तु महत्वपूर्ण ग्रन्थ में ध्यान तथा समाधि द्वारा आत्म-तत्व को पहचानने के उपायों का सुन्दर विवेचन किया गया है। + स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, प्रस्तावना, पृ०७० - जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ. ६४ = समाधि तन्त्र, गाथा ३३ A इष्टोपदेश, पृ०६
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