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(६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
उपनिषदों में ध्यान:
उपनिषद् के काल में ध्यान की साधना वेदों से बीज रूप में अंकुरित होकर विकसित अवस्था को प्राप्त हो गई थी । श्वेताश्वतरोपनिषद् में ध्यान का प्रचुर मात्रा में स्पष्ट वर्णन किया गया है। इसमें साधना करने के बाद ही ध्यान रूप मन्यन से अग्नि की भांति अपने हृदय में छुपे हुए परम देव परमेश्वर के दर्शन का उपदेश दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि जिस प्रकार से तिलों से खेल, दही में घी एवं अरणियों में अग्नि छिपी रहती है उसी प्रकार से परमात्मा हमारे हृदय में छिपे रहते हैं । वे परमात्मा तब ही प्राप्त होते हैं जब साधक विषयों से विरक्त होकर सदाचारी बनकर संयमरूपी तपस्या के द्वारा उनका निरन्तर ध्यान करता है।- यहां पांच मन्त्रों में ध्यान की सिद्धि के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की गई है कि हमारे मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रकाश फैला रहे । निद्रा, आलस्य और अकर्मण्यता आदि दोष हमारे ध्यान में बिघ्न न कर सके । A वरुण ने अपने पुत्र भगु को तप का महत्व समझाते हुए कहा है कि-तू तप के द्वारा ब्रह्म के तत्व को समझने की कोशिश कर । यह तप ब्रह्म का ही स्वरूप है। उपनिषदों मो ध्यान, योग एवं तप आदि शब्द समाधि के अर्थ में
स्वदेहमरणि कृत्वा प्रणवं चोतरारणिम् । ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढ़वत् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद
१/१४) - तिलेष तैलं दधनीव सपिरायः स्त्रोतः स्वरणीष चाग्निः । एवमात्माऽऽ मनि गृहयते असौ, सत्येनैनं तपसा योऽनुपश्यति । (श्वेताश्वतरोपनिषद् १/१५) A युक्त्वाय मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम् ।
वृहज्ज्योति: करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान् ॥ (वही २/३) * तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति । (तैत्तिरीयोपनिषद्