________________
जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१२६) मषानेन्द रौद्रध्यान- असत्य, झूठी कल्पनाओं से ग्रस्त होकर दूसरों को धोखा देने और छल कपट से उन्हें ठगने आदि का चिन्तवन करना ही मषानन्द रौद्रध्यान है A दूसरों को ठगने में चतुर व्यक्ति दूसरों को ठगने के लिए अपनी पापमय दुर्बद्धि से मिथ्या वचन बोलते हैं, ऐसे व्यक्तियों को मृषानन्द नामक रौद्र ध्यान होता है।+ ऐसे व्यक्ति को अपत्य बोलने में ही आनन्द की प्राप्ति होती है और उसी में उसका चित्त विक्षिप्त हो जाता है। यदि व्यक्ति इस प्रकार से सोचे कि मैं अपने वचनों की कुशलता से अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरों को अनर्थ के संकट में डाल दूँगा ऐसा चिन्तन करना भी रौद्र ध्यान होता है। ऐसे ध्यान बाले मनष्य का चित्त हमेशा झठ फरेब आदि में लगा रहता है। वह अपना झूठ पकड़े जाने पर भी ढीठ बना रहता है। चौर्यानन्द रौद्र ध्यान_____चोरी सम्बन्धी कार्यों, उपदेशों तथा चोरी के कर्मों में चतुरता का दिखाना ही चौर्यानन्द रौद्र ध्यान है इसमें जीव चोरी के कार्यों A (क) असत्यकल्पनाजाल कश्मलीकृतमानसः ।
चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम् ॥ (ज्ञानार्णव
२६/१६) (ख) स्वबुद्धि विकल्पितयुक्तिभिः परेषां श्रद्धेयरूपाभिः परवञ्चनं
प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसानं मृषानन्द द्वितीय रौद्र म् ।।
(चारित्रसार १७०/२) + (क) पिसुणासम्भापब्भूय-भूय धायाइवयणपणिहाणं ।
माया विणोऽइसधणपरस्स पज्छन्नपाबस्स ॥ (ध्यान शतक २०) (ख) दुर्बुद्धि कल्पनायुक्त्यापरवचन हेतवे ।
ब्रूयते यन्मृषावादं परवंचनपंडितै ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०२७) छ तत्थेव अथिर-चित्तोसद्ध झाणं हवे तस्स । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा
४७६] - पातयामि जनं मूढं व्यसनेऽनर्थसंकटे ।।
वाक्कौशल प्रयोगेण वाञ्छितार्थप्रसिद्धये ॥ (ज्ञानार्णव २६/२१)