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भारतीय परम्परा में ध्यान (१५) धन परमात्मा ही परिपूर्ण है, ध्यान योग से युक्त योगी सम्पूर्ण प्राणियों में अपनी आत्मा को और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने अन्तर्गत देखता है। यहां परमयोगी का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि जो ध्यान युक्त ज्ञानी महापुरुष अपने शरीर की उपमा को सब जगह अपने को समान रूप से देखता है एवं सुख-दुख को भी समभाव से देखता है वह परमयोगी कहलाता है ।*
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता एक रहस्यमयी ग्रन्थ है जिसमें एक-एक अध्याय अनुपम है। ये योग सम्बन्धी सामग्री से भरा पड़ा है इसको योगशास्त्र कहना गलत नहीं है। स्मृति ग्रन्थों में ध्यान:
_ 'स्मति' शब्द दो अर्थों में प्रयुनत हुआ है, एक अर्थ में वह वेद वाड्.मय से इतर ग्रन्थों, यथा पाणिनि के व्याकरण, श्रौत, ग्रह्य एवं धर्म सूत्रों, महाभारत, मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मति एवं अन्य ग्रंथों से सम्बन्धित है। किन्तु सकीर्ण अर्थ में स्मृति एवं धर्मशास्त्र का अर्थ एक ही है, जैसा कि मनु ने भी कहा है कि वेद एवं स्मति में कहे धर्म का जो मनुष्य पालन करता है उसको दोनों लोकों में कीर्ति की प्राप्ति होती है। श्रुति वेद है और धर्मशास्त्र स्मृति है। वे दोनों सम्पूर्ण अर्थों में निर्विवाद हैं। तैत्तिरीय आरण्यक में भी 'स्मृति' शब्द दो बार आया है (१.२) गौतम (९.२) तथा वशिष्ठ (१.४) ने स्मृति को धर्म का उपादान माना है। सम्पूर्ण स्मतिग्रन्थों को आचार-विचार की नीतियों का अमूल्य खजाना कहा जाता है । इन X सर्व भूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शिनः ॥ (वही ६/२६) * आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगि परमो मतः ।। (वही ६/३२) A श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः। इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखमं॥ श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । ते सर्वाथष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मे हि निर्वभौ ॥ (मनस्मृति २/६/१०)