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(१८२)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___इन मन्त्रों को समझने के लिए उनके विषय में जानकारी का होना अत्यन्त आवश्यक है । अत: इन मन्त्रों का यहाँ संक्षेप में वर्णन किया जाता हैणमो अरिहंताणं :
“णमो अरिहंताणं" पद में सात अक्षर हैं । इन मन्त्र के विषय में कहा गया है कि इसे गुरु के उपदेश से मूख के सात रन्ध्रों-छिदो में स्थापित करके उसी ध्याता को ध्याना चाहिये जो दूर से सुनने, दर से देखने, दूर से सघने और दूर से रसास्वादन की शक्ति को प्राप्त करना चाहता हो । + सात छिद्रों में दो अक्षर कानों के छिद्रों में दो अक्षर आँखों के छिद्रों में, नाक के दोनों नथनों में दो अक्षर तथा एक अक्षर रसनालयका में स्थापित माना गया है। मगर कौन सा अक्षर कौन से छिद्र में स्थित है इसका प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है यह विषय अभी तक रहस्यमयी है। परन्तु रामसेनाचार्य ने इस सम्बन्ध में अपना मत प्रगट करते हए यह कहा है कि जहाँ तक मुझे “इच्छन दूरश्रवादिकम्"पदों पर से यह आभास होता है कि सुनने की शक्ति के विकास को पहले कहा गया है, तब "आदि" शब्द से देखने, सूघने एवं रसास्वाद की बात बाद में आती है, अत: कानों के रन्ध्रों में पहले दो अक्षर बाँये से दाँये की ओर अर्थात बाँयी ओर "ण" और दांये कर्ण में “मो" स्थापित होना चाहिये । नेत्र के रन्ध्रों में तृतीय एवं चतुर्थ अक्षर, नासिका के दोनों छिन्द्रों में पञ्च एवम् षष्ठम अक्षर तथा सातवें अक्षर 'ण" की स्थापना रसना इन्द्रिय के रन्ध्र मार्ग में की जानी चाहिये ऐसा प्रतीत होता है लेकिन इन्होंने अपनी इस कल्पना को ठोस रूप से प्रगट नहीं किया है मात्र अपना विचार प्रगट किया है । * अगर इस मन्त्र को तत्व की दृष्टि से देखा जाये तो "ई" और "र" अग्नि बीज हैं, "अ" और "ता" वायु बीज हैं, 'ह', 'मो' और 'ण' आकाश बीज हैं । अर्थात् इस पद में अग्नि, वायु और आकाश तीनों + सप्ताक्षर महामन्त्रं मुख-रन्ध्रेषु सप्तसु।। ___ गुरूपदेशतो ध्यायेदिच्छन-दूरश्रवादिकम् ।। (तत्त्वानुशासन १०४) * वही पृ० १०४