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युगवीर-निवन्धावलो
हरिवंशपुराणमे ऐसा उल्लेख किया है कि राजा सुमुखने वीरक सेठके जीते-जी उसकी स्त्री 'वनमाला' को अपने घरमे डाल लिया था, कृष्णजी रुक्मिणीको हर कर लाये थे, और अमोघदर्शन राजाके पुत्र चारुचन्द्रने 'कामपताका' नामकी वेश्याके साथ अपना विवाह किया था। यदि सचमुच ही इन घटनाओके उल्लेखमात्रसे श्रीजिनसेनाचार्य, समालोचकजीकी समझके अनुसार, वैसी इच्छाके अपराधी ठहरते हैं तो लेखक भी जरूर अपराधी है और उसे अपने उस अपराधके लिये जरा भी चिन्ता तथा पश्चात्ताप करनेकी जरूरत नही है। और यदि समालोचकजी जिनसेनाचार्यपर अथवा उन्ही जैसे उल्लेख करनेवाले और भी कितने ही आचार्यों तथा विद्वानोपर वैसी प्रवृत्ति चलानेका आरोप लगानेके लिये तैयार नही है-उसे अनुचित समझते हैं-तो लेखकपर उनका वैसा आरोप लगाना किसी तरह भी न्याय-सगत नही हो सकता। वास्तवमे यह लेख न तो वैसे किसी आशय या उद्देश्यसे लिखा गया है और न उसके किसी शब्दपरसे ही वैसा आशय या उद्देश्य व्यक्त होता है जैसा कि समालोचकजीने प्रकट किया है। लेखका स्पष्ट उद्देश्य उसके शिक्षाशमे बहुत थोडे-से जचेतुले शब्दो द्वारा सूचित किया गया है, और उनपरसे हर एक विचारशील यह नतीजा निकाल सकता है कि वह जाति-विरादरीके आधुनिक दण्ड-विधानोको लक्ष्य करके लिखा गया है।
जाति-पंचायतोंका दण्ड-विधान आजकल, हमारे बहुधा जैनी भाई अपने अनुदार विचारोंके कारण जरा-जरा-सी बातपर अपने जाति-भाइयोको जातिसे च्युत अथवा बिरादरीसे खारिज करके उनके धार्मिक अधिकारोमे भी हस्तक्षेप करके उन्हे सन्मार्ग से पीछे हटा रहे हैं और इस तरहसे