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* नीतिवाक्यामृत *
तथा धर्मकी रक्षा नहीं करता और ऊपरी नीति-विरुद्ध बातोंमें धनकी यादी करके कीर्तिभाजन बनता है उसकी वह कीर्ति निन्छ समझनी चाहिये- अर्थास् वह अपकीर्ति है। संसारमें गंगा, लक्ष्मी और पार्वती (पर्वतसम्बन्धी स्थानविशेष) की तरह पदार्थोकी प्रसिद्धिका कारण दूसरा ही है सामान्य त्याग नहीं; क्योंकि दान लेनेवाले पान होगा शान्त प्रमिड और सता रहने वाले नहीं होते।
भावार्थ : मूर्ख और कुकर्मी नास्तिक लोग अपने अधीन रहनेवालोंको कष्ट देकर और स्वयं मद्यपान और परस्त्रीसेवन-श्रादि कुकृत्योंमें फँसकर धर्मको जलाञ्जलि देकर जो कीर्ति प्राप्त करते हैं उनकी यह कीर्ति अपकीर्ति समझनी चाहिये ।
विदुर' नामके विद्वान्ने भी लिखा है कि 'मूर्खलोग अपने अधीनोंको सताकर धर्मको दूर छोड़कर जो कीर्ति प्राप्त करते हैं उनकी उस अधिक कीर्तिसे भी क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं' ।।शा
'जुआरी और शराबी लोग जिसकी प्रशंसा करते हों एवं न्यभिचारिणी स्त्रियाँ जिसकी प्रशंसा करती हों उसकी कीर्ति अपकीर्ति ही समझनी चाहिये ।।२।। सूत्रकी उक्त दृष्टान्तमालाका समर्थन :
लोकमें गंगा, लक्ष्मी और पर्वतका प्रदेश साधारणत्याग (क्रमशः निर्मलजल देना, धनादिक देना और पान्धोंको विश्राम आदि देना) से प्रसिद्ध नहीं हैं किन्तु उस त्यागके साथ२. उनमें आभितोंकी रक्षा और पवित्रताके कारण धार्मिक उन्नलिमें सहायकपन पाया आता है। इसलिये वे प्रसिद्ध है। उसी प्रकार मनुष्य भी जब अपने अधीनोंका पालन और धार्मिक प्रगति करता हुआ दान धर्ममें प्रवृत्ति करता है तब वह वस्तुतः कीर्तिभाजन होता है। सामान्य त्यागसे मनुष्यकी कीर्ति नहीं होती; क्योंकि दान । लेने वाले पात्र विशेषप्रसिद्ध और चिरस्थायी नहीं होते।
अतएव नैतिक और विवेकी मनुष्यको चन्द्रवनिर्मल कीर्ति प्राप्त करने के लिये पात्रदानके साथ २ अपने अधीनोंकी रक्षा करते हुए धार्मिक प्रगति करनी चाहिये ।।१४।। मा हपथके धनकी आलोचना करते हैं :--
स खलु कस्यापि माभूदों यत्रासंविभागः शरणागतानाम् ॥१५॥
अर्थ :-जिस धनके द्वारा शरणमें भाये हुए पाभितोका भरण पोषण नहीं किया जाता पह कृपणका धन व्यर्थ है ॥१४॥
१ तथा च विदुर :प्राभित्तान् पीड़यित्वा च धर्म त्यक्त्वा सुदूरतः । या कीर्तिः क्रियते मुद्देः किं तयारि प्रभूतया ।।३।। कैतवा ५ प्रशंसन्ति र्य प्रशंसन्ति मद्यपाः । यं प्रशंसन्ति बन्धक्यो कीर्तिः साकीर्तिसपियो ।।२।।