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• बलभदेव' विद्वान्ने कहा है कि 'दुष्टोंको सङ्गतिके दोपसे सज्जनलोग विकार-पाप करने लगते हैं।। दुर्योधनकी सङ्गतिसे महात्मा भीष्मपितामह गायोंके हरण करनेमें प्रवृत्त हुए ॥१॥'
निष्कर्ष:-अतः विवेकी मनुष्य को दुनोंकी सजति छोड़नी चाहिये ॥४॥ अब दुनोंका स्वरूप बताते हैं :
अग्निरित्र स्वाश्रय मेघ दहन्ति दुर्जनाः ॥४॥ अर्थः-दष्टलोग अग्निके समान अपने प्राश्रय-कुटुम्ब को भी मष्ट कर देते हैं। पुनः अन्य शिा पुरुषोंका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् उन्हें अवश्य ही नष्ट करते हैं।
भावार्थ:-जिसप्रकार अग्नि जिस लकड़ीसे उत्पन्न होती है उसे सबसे पहिले जलाकर पुन: दूसरी बस्तुभोंको जला देती है, उसीरफार दुष्ट मी पूर्वमें अपने कुटुम्बका पश्चात् दूसरोंका हय करता है ।।२।।
वल्लभदेव' विद्वानने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि 'जिसप्रकार धूम अग्निसे उत्पन्न होता। और बह किसीप्रकार बादल होकर जलश्रृष्टिके द्वारा अग्निको ही बुझाता है उसीप्रकार दुष्ट भी भाग्यसे प्रतिछाको प्राप्त करके प्रार; अपने बन्धुजनोंको ही तिरस्कृत करता है ॥१॥ अत्र परस्त्री-सेवनका फल बताते हैं:
___ वनगज इच 'तदात्वसुखलुब्धः को नाम न भवत्यास्पदभापदाम् ? ॥४३॥
अर्थ :-परस्त्रीमेघनके सुखका लोभी कौन पुरुष जंगली हाथीके समान प्रापसियोंका स्थान नहीं। होता ? अथो सभी होते हैं।
भावार्थ :-जिसप्रकार जंगली हाथी हथिनीको देखकर उसके उपभोग करनेकी इच्छासे व्याकुजिक होकर बंधनका दुःख भोगता है उसी प्रकार परस्त्रीके सुखका इच्छक विविधभाँति के वध बंधनादि पहिर और नरकादिके पाररिक दुःख उठाता है ।। ४३ ॥
नीतिकार नारद ने भी कहा है कि 'कामले मत्त जंगली हाथी इथिनीके पर्शसुखसे बन्धनका
१ तथा व बामदेव:
असनां मंगदोषेण साधनो यान्ति त्रिक्रिया । दुर्योधनप्रसन भीमो गोहरणे गतः 11511 २ तथा च बलभदेवधूमः पयोधरपदं कथमन्यवा-य-- । घोऽवभिः शमयति ज्यमनस्य तेजः ।। देवावाप्य स्खलु नीचजना प्रतिष्ठा । प्रायः स्वयं बन्धुजनमेव तिरस्करोति ॥शा ३ तादाथि केसि' ऐसा मु• मू० पु० में पाठ है, परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है। ४ तथा च नारद:
करिशीपर्शसौख्येन प्रमत्ता बनास्तिनः। स्वमायान्ति तस्माच सदाब वर्जयेत् सुस्थम, 11 .