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नीसिवाक्यामृत
निप्रह-श्रादि) किसप्रकार होसकसी है ? नहीं होसकती । इसलिये राजमंत्री धन-लम्पट नहीं होना साहिये ॥१॥ पुरुषोंकी प्रकृति
तावव सर्वोऽपि शुचिनिःस्पहो यावत्र परवरस्त्रीदर्शनमर्थागमो वा ।। १०६॥ अर्थ-तब तक सभी मनुष्य पवित्र और निर्लोभी रहते हैं, जब तक कि उन्होंने दूसरोंकी उत्कृष्ट और कमनीय कान्ताओं (स्त्रियों) य धन प्राप्तिको नहीं देखा ॥ १०६ ||
वर्ग' विद्वान्ने कहा है कि 'जब तक मनुष्य दूसरेकी स्त्री और धनको नहीं देखता, तभी तक पवित्र और निर्लोभी रह सकता है, परन्तु इनके देखने से उसके दोनों गुण (पवित्रता व निर्लोभीपन) नष्ट होजाते है ।।१।। निर्दोषीको दूषण लगाने से हानि
प्रदष्टस्य हि दूषण’ सुप्तव्यालप्रयोधनमिव ।।११०॥ अर्थ-निर्दोषो पुरुषको दूषण लगाना,सोते हुए सर्प या व्याघ्रको जगानेके समान हानिकारक है। अर्थात् जिसप्रकार सोते हुए सर्प या व्याघ्रको जगानेसे जगानेवालेको मृत्यु होती है, उसीप्रकार निर्दोषीको दूषण लगाने मे मनुष्यकी हानि होती है; क्योंकि ऐसा फरमेसे निदाशी व्यक्ति व विरोध करके उसकी यथाशकि हानि करने में प्रयत्नशील रहता है ॥११०॥
गुरु' विद्वानने कहा है कि 'जो मुर्ख किसी निर्दोषो शिष्ट पुरुषको दूषण लगाता है, वह अपनी मृत्यु कराने के लिये सोते हुए सर्प या व्याघ्र को जगाने के समान अपनो हानि करता है ।।शा' जिसके साथ मित्रता न करनी चाहिये
येन सह चित्तविनाशोऽभूत, स समिहितो न कर्शयः॥१११॥ अर्थ-जिसके व्यवहार से मन फट चुका हो, उसके साथ मित्रता न करनी चाहिये ॥१११॥ वक्त पातका दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण
__ सद्विघटितं चेतः स्फटिकवलयमिय कः सन्धातुमीश्वरः।। ११२||
अर्थ-वरविरोधके कारण एकवार फटे हुए मनको स्फटिकमणिके कारण समान कौन जोड़नेमें समर्थ है १ कोई नहीं ॥११॥
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'मर्थाभिगमो का ऐसा म. मू० प्रतिमें पाठ है, परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं । सम्पादकवय वर्ग:-पावनुचिरडोमः स्यात् पावरनेत् परस्त्रियं । विश्व दर्शमात्ताभ्यां द्वितीयं तत् प्रचारयति । २ तथा च गुरु-सुलसुलमहि मूतो प्यानं वा यः प्रबोधयेत् । स साधोपणं दानिदोषस्यात्मभूत्यवे |१॥ ० उक्त सूत्र सं० टी० पुस्तकमे न होनेपर भी प्राकरणिक होने के कारण मु० मू. ३ . लि. मू० प्रवियों में
वर्तमान होने से संकसम किया गया है। सम्पादक--