Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 345
________________ राजरज्ञा समुदंश . .dalu+++4..... पस निरर्थक राज्य से क्या नाम है जिसकी प्राप्तिाने भावजीवन अत्यन्त लोकनिन्नासे दूषित होता हो ७ शुक' विद्वान ने भो लोकनिन्दायुक्त राज्य प्राप्ति को निरर्थक बताया है ।।१।। पत्रको किसीभी कार्यमें पिताकी प्राज्ञा उल्लंघन नहीं करनी चाहिये । 2014 लोक प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा उक्त बातका समर्थन, पुत्रके प्रति पिताका कर्तव्य और मशुभकर्म करने किन्तु खलु रामः क्रमेण विक्रमेण वा हीनो यः पितुराज्ञया वनमाविवेश ॥१॥ यः खनु पुत्री मनसितपरम्परया लम्यते स कथमपकर्तव्यः ॥२॥ कर्तव्यमेवाशुभ कर्म यदि हन्य. मानस्य विपद्विधानमात्मनो न भवेत् ।।३।। अर्थ-क्या निश्चयसे महात्मा रामचन्द्र राजनैतिक-शान अथवा अधिकारीकम तथा शूरवीरता से ही थे जिन्होंने अपने पिता ( राजा दशरथ ) की आज्ञानुमार वनवास को प्रस्थान किया। सारांश यह है कि लोकमें यह राजपुत्र अपनी पैतृक राज-गहीका अधिकारी नहीं समझाजाता जोकि क्रम (राजनैतिकजान, सदाचार व लोक व्यवहार पटुता-आदि) एवं शरवीरसासे हीन हो अथवा उक्त गुण होने पर भी ज्येष्ठ न हो, परन्तु राजा दशरथके ज्येष्ठ पुत्र महात्मा रामचन्द्रमें पेक राज्यश्रीकी शप्ति के लिये यथेष्ट पाजनेतिक-झान, लोकव्यवहार-पटुता राज्य शासन-प्रवीणता एवं लोकप्रियक्षा-मादि सद्गुण थे। वे पराक्रगशाला थे और ज्येष्ठ होने के नाते कानूनन राजगही के अधिकारी थे। पदि बेचाहते तो अपने पराक्रमी भाई लरमणकी सहायतासे अपनी सौतेली मा ( कैकयों) को कैदकरके उसके फैदे में फंसे हुए अपने पिताको नीचा दिखाकर स्वयं राजगहो पर बैठ जाते। परन्तु उन्होंने ऐसा अनर्थ कहीं किया और अपने पिताको कठोरतम आक्षा का पालन कर १५ वर्षे तक बमधाम के कष्ट सहे। अतएवं सम्यक्त्व और सदाचारको सुरक्षित रखसे हुए पुओंको अपने पिताको कठोरतम भी साझाका पालन करना पाहिये ||शा मओ पुत्र माता-पिता द्वारा भनेक प्रकारके मनोरयों या ईश्वर-भादिसे की हुई पावनाओं द्वारा बड़ी कठिनाई से मिलता है, ऐसे दुर्लभ पुत्र के विषय में उसके माता-पिता किसमकार अनि चितवन र सकते हैं ? नहीं सकते ॥२॥ गुरु' विद्वान के उद्धरणका भी पुत्र रक्षा के विषय में यही अभिप्राय है ॥१॥ क्योंकि निरपराध मारे जानेवाले पुरुषके वध-धनादि स्वयं हिसकको भोगने पड़ते हैं, इसलिये क्या बुद्धिमान पुरुषों को ऐसा भनिध सोहा-काये करमा चाहिने नहीं करना चाहिये ॥३॥ , तथा शुक्र:-जनापायसहित' यग्राम्यमिद कीस्वते । प्रभूतमपि सम्मिया तापापाव राजसंस्थिते ॥१॥ । तथा च गुरु:-अपवाचितसंचालैः कृषी व प्रखम्वत । तस्मादायमस्य नो पाप चिन्तनीयं न .

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