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दिवसानुष्ठान समुहेश
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है ॥४॥ भोजन करने वाला व्यक्ति आहारको बेला ( ममय ) में अपनी थाली भोजन करनेवाले सहभोजियोंसे बेष्ठित रक्खे ॥४शा मनुष्य इसप्रकार-अपही जठराग्निकी शक्ति के अनुकूल-भोजन करे जिससे उसकी अग्नि शाम को वा दूसरे दिन भी मन्द न होने पावे ॥४२॥
भोजन की मात्रा-परिमाण के विषय में कोई निश्चित सिखाम्त नहीं है ।।४।।
निश्चय से मनुष्य जठराग्निकी कष्ट, मध्यम व अल्प शक्ति के अनुकूल उत्कृष्ट, मम्बम व सम्प-भोजन करे। अर्थात् भूखके अनुसार भोजन फरे।
चरक संहिता में भी आहारको मात्राके विषय में लिखा है कि माहारमात्रा पुनरग्निवलापेक्षिणी' अथात पाहारकी मात्रा मनुष्यकी जठराग्निकी उत्कृष्ट, मध्यम व अल्प शक्तिकी अपेक्षा करती है (उसके अनकूल होती है), भतः जठराग्नि की शक्ति के अनुकूल पाहार करना चाहिये ॥४४॥
भूखसे अधिक खानेवाला व्यक्ति अपना शरीर व जठराग्निको शोण करता है ४४ प्रदीन हुई अठराग्नि मुख्से थोड़ा भोजन करने से क
श क तो मिससे निक लानेवाले के भन्नका परिपाक बड़ी कठिनाई से होता है ॥४॥
परिश्रम से पीड़ित ग्यक्ति द्वारा सत्काल पिया हुमा बल व माण किया हुभा मनावर वा चमन पैदा करता है ।४.
मल-मूत्रका धेग व प्यासको रोकनेवाले व सम्वस्थ बिसवावे व्यक्तिको ससममय भोजन नहीं करना चाहिये क्योंकि इससे अनेक रोग उत्पन्न होजाते हैं; मतः शौचादिसे निवृत्त होकर सचित्तसे भोजन करे ॥४॥ भोजन करके तत्काल म्यायाम मषवा मैथुन करना चाचिजनक है I जीवन के शुल्से सेवन किया जानसे प्रकृति के अनुकूल हुमा विष भी सेवन करने पर पथ्य माना गया है ॥५॥ मनुष्याहों पूर्वकालीन अभ्यास न होनेपर भी पध्य-हितकारक-वस्तु का सेवन करना चाहिये, परन्तु पूर्वका अभ्यासी होने पर भी अपथ्य वस्तु का सेवन नहीं करना चाहिये || बापान ममुम्ब ऐसी पमझकर कि मुझे सभी वस्तुए' पथ्य हैं, विष का कदापि सेवन न करे |
क्योंकि विपकी शोधनादि विपिको जाननेवाला सुशिक्षित मनुष्य भी विषयसे मर ही जाता है इसलिये कदापि विषमण न करे ॥४॥
___ मनुष्य को अपने यहां गाये हुए अतिथियों और नौकरों के लिये राहार रेस मोमब भाना नाहिये
सुख-माप्तिका उपाय, इन्द्रियोंको शकिहीम करने वाला कार्य, पाजी हवामें घूमना न समर्थन, सदा सेवन-योग्य वस्तु, बैठने के विषय में, शोकसे हानि, शरीर-गृहकी शोमा, अविश्वसनीय मचि, ईश्वरस्वरूप बरसकी नाममाता
देवान् गुरून धर्म चोपचान्न व्याालमतिः स्यात् ॥६॥ व्यापथमनोनिरोपो मन्दयति सर्वाण्यपीन्द्रियाणि ॥७॥ स्वच्छन्दधिः पुनाया परम रसायनम् ॥८il पाकासमी