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नीतिवाक्यामृत
गौतम' ने भी धर्माध्यक्ष का यही गींग निर्देश किया है ।।१।
धर्माध्यक्ष पपने स्मो का पक्ष लेकर सत्य असत्य बोलने वाले वादो के साथ लड़ाई-झगड़ा न करे |॥ २८ ॥
भागरि' ने भी बादी के साथ लड़ाई-झगड़ा करने का निषेध किया है ॥१॥
मापस में रुपये पैसे का लेन देन घ एक मकान में निवास करना ये दोनों कार्य कलह सत्पन्न करते हैं ॥ २६ ॥
गुरु' ने भी उक्त दोनों कार्य काहजनक बसाये हैं ॥१॥
अकस्मात मिला हुचा खजाना व अन्याय से प्राप्त हुआ धन ये दोनों वस्तुएं प्राणों के साथ साथ । पूर्व संचित धन को भी नष्ट कर डालती हैं ॥ ३० ॥
वापषियादमें ब्राह्मण भाविके योग्य शपथ-- बामणानां हिरण्ययज्ञोपवीतस्पर्शनं च शपथः ॥ ३१ ॥ शस्त्रात्नभूमिवाहनपल्याणानां तु चत्रियाणाम् ॥ ३२॥ श्रवणेपोतस्पर्शनात् काकिणीहिरण्ययोर्वा वैश्यानाम् ॥ ३३ ॥ शुद्राणां वीरवीजयोल्मीकस्य या ॥३४॥ कारूणां यो येन कर्मणा जीवति तस्य सत्कमोपकरणानां ॥ ३५ ॥ वतिनामन्येषां चेष्टदेवतापादस्पर्शनात् प्रदक्षिणादिव्यकोशात्तन्दुलतुजारोहणौविशुद्धिः ॥ ३६ ।। व्याधानां तु धनुर्लेघनं ॥ २७ ॥ अन्त्यवर्णावसायिनामाद्रचर्मावरोहणाम् ॥ ३८॥
अर्थ-वाद विवाद के निणयार्थ प्राक्षणों को सुवर्या व जनेक के छूने की, जत्रियों को शस्त्र, रत्न, पृथ्वी, हाथी, घोड़े आदि वाहन और पलाणकी, वैश्यों को कर्ण, बच्चा, कौड़ी, रुपया पैसा सुवर्ण के स्पर्श करने की, शद्रों को दृध, बीज 4 साप की बामी छूने की तथा धोबीचमार भादि कार घद्रों को उनके जीविकोपयोगी उपकरणों की थपथ ( कसम) करानी चाहिए ॥ ३१-३५॥
गुरु" विद्वान ने भी ब्राह्मण आदि में होने वाले वाद-विवाद के निर्णयार्थ उन्हें सपरोक्त शपय कराना अनिवार्य बताया है ॥ १५ ॥
इसी प्रकार प्रती व अन्य पुरुषों की शुद्धि उनके इष्ट देवता के चरणस्पर्श से प प्रदक्षिणा करानेसे ज्या गौतमः-धर्माधिकृतमान मिवेद्यः स्वामिनोऽखितः । विषादो न पया दोषः स्वस्म स्थान मादिनः रतमा भागरि-यो म कुर्वा न भयो म कार्पस्तेन विग्रहः । विप्रहेण यतो दोषो महतामपि जायते ।। । तथा च गुरु:- कुर्यादयसम्बन्ध तथैकगृहसस्थिति । तस्य युख विना कालः कश्चिदपि म प्रजेत् ।। ।। । तथा च गुरु:-हिरण्यस्पर्शन परप ब्रह्मसूत्रस्य वापरं । शपभोष मिर्दियो विजातीनां न चायः॥ ॥
शस्त्रामापानपल्यापपईनामवेत् । शपथः सनिपाणपंचाना या पथक् ॥ ५ ॥ रोपपो वैश्यजस्तीला स्पर्शभार वर्णवासपीः । काकिनीषांपोवापि भवति नाम्पा ॥ दुग्यस्यान्मस्प संस्पोरमीकस्म क म्यः शपषः यस विवाद निरपे ॥४॥ पो पेव कर्ममा जीवदानस्वरूप वधुन । कमोपकरण किंचित् पापांच्य ते हि सः॥५॥