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नीतिवाक्यामृत
विजिगीष अपनी सेना की प्रसन्नता का ख्याल रखते हुए ( उसे दानमानादि द्वारा सुखी बनाते इए) शत्र ओं से युद्ध करने अपनी सेना के साथ प्रस्थान करे ।। ५१ ।। विजिगीषु शत्रु राष्ट्र में प्रविष्ट हुआ अपनी फौज से विशेष मुसाफिरी न करावे, क्योंकि लम्बी मुसाफिरी से ताड़ित खिन्न (थकी हुई) फौज शत्रुओं द्वारा मरलता से जीती जा सकती है ॥५२॥ विजिगीष शत्र के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलावे, artfear मिलाने के सिवाय दूसरा कोई शत्रु सेना को नष्ट करने वाला मंत्र नहीं || ४३ ||
शुक्र ने भी शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाना बताया है ॥१॥
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विजिगीषु जिस शत्रु पर चढ़ाई करे, उसके कुटुम्बियों को साम-दानादि वा द्वारा अपने पक्ष में मिलाकर उन्हें शत्रु से युद्ध करने के लिये प्रेरित करे । उसे अपनी सैन्य क्षति द्वारा शत्रु को नए नहीं करना चाहिये, किन्तु कांटे से कांटा निकालने की तरह शन द्वारा शत्र को नष्ट करने में प्रयत्नशील होना चाहिये। जिस प्रकार बेल से फाड़े जाने पर दोनों में से एक अथवा दोनों फूट जाते हैं, उसी प्रकार जब विजिगोषु द्वारा शत्रु से शत्रु लड़ाया जाता है, यवनमें से एक का अथवा दोनोंका नाश निश्चित होता है जिससे विजिगोषु का दोनों प्रकार से लाभ होता है । ५४-५६ विजिगीषु का कर्तव्य है कि शत्रु ने इसका जितना नुकसान किया है उससे ज्यादा की हानि करके उससे सन्धि कर ले। ५७ ।।
गौतम ने भी इसी प्रकार उक्त बात का समर्थन किया है ॥ १ ॥
जिस प्रकार ठंडा लोहा गरम लोहे से नहीं जुड़ता, किन्तु गरम लोहे ही जुड़ते हैं, उसी प्रकार दोनों कुपित होने पर परस्पर सन्धि के सूत्र में बंधते हैं || ४= 1
शुक विद्वान के उद्धरण से भी यहां प्रतत्त होता है ॥ १ ॥
विजय प्राप्ति का उपाय, शक्तिशाली विजिगीषु का कर्तव्य व उसकी उन्नति सन्वि के योग्य शत्र पराक्रम कराने वाला तेज, लघु व शक्तिशाली विजिगीषु का बल से युद्ध करने का परिणाम व दृष्टान्त, पराजित 'शत्रु के प्रति राजनाति, व शुग्वोर शत्रु के सम्मान का दुष्परिणाम -
aat ft सन्धाकारं नापराधस्य क्षान्तिरुपेचा वा ।। ५६ ।। उपचीयमानघटेनेवारमा होनेन विग्रहं कुर्यात् || ६० ॥ त्रानुलोम्यं पुण्यपुरुषोपचयोऽप्रतिपक्षता च विजिगीषोरुदयः ॥ ६० ॥ पराक्रमकर्कशः प्रवीरानीकश्चेदीनः सन्धाय साधूपचरितव्यः ॥ ६२ ॥ दुःखामर्षजं तेजो विक्रमयति ॥ ६३ ॥ स्वजीविते हि निराशस्याचायों भवति वीर्यः ॥ ६५ ॥ लघुरपि सिंहशाम इत्येव दन्तिनम् ॥ ६४ ॥ न चातिभग्नं पीडयेत् ॥ ६६ ॥ शोकधनस्योपचारो मनसि तच्छागस्येव पूजा || ६७ ॥
1 सा च शुक्रः -- न दायादार पसे वैरी विद्यतेऽत्र कथंचन । श्रभिचारकमंश्च शत्रुसैन्यनिषूदनं ॥ १ ॥
२ तथा च गौतम :- यावन्मानोऽपराधस्य शत्रणा हि कृतो भवेत् । तावत्तस्याधिकं कृत्वा समिध: कार्यो बलान्वितैः
३ तथा च शुक्रः—द्वाभ्यामपि सहाय लोहस्य च यथा भवेत् । मूमियानां च विज्ञेयस्तथा सग्धिः परस्परं ॥