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श्रीमसोमदेवसरि-विरचित
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(हिन्दी अनुवाद-प्रस्तावना प्रभृति-अलंकृत)
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-: अनुवादक :पं. सुन्दरलाल शास्त्री जैनन्याय-प्राचीनन्याय-काव्यतीर्थ
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-: प्रकाशक/प्रकाशन :आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र
ब्यावर (राज.) श्री १००८ दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र
नारेली-अजमेर (राज.) 5 %% %% %%% % %%
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सम्पादकीय . . . . . (प्रथम संस्करण से साभार)
श्रीमत्सोमदेवसृरि के 'यशस्तिलकन्नम्यू' च प्रस्तुत प्रन्थरत्न के अध्ययन-मनन से | हमारी मनोभूमि में उनकी बहुश्रुत, सार्वभौम व अगाध विद्वत्ता के प्रति गाढ़ श्रद्धा का | बीज अङ्कुरित एवं पल्लवित हुआ । अभिप्राय यह है कि हम श्रुतवाङ्मय की पवित्रतम् सेवा, आचार्य के प्रति गाढ़ श्रद्धा एवं समाज राष्ट्र के नैतिक जीवन स्तर को उच्चतम बनाने की सदभावना से प्रेरित होकर अपनी विचारधारा का परिणाम स्वरूप यह हिन्दी अनुवाद पाठकों के कर कमलों में भेंट कर रहे हैं । इस क्लिष्ट ग्रन्थ की उलझी हुई गुत्थियों के सुलझाने में हमे इसकी महत्वपूर्ण संस्कृत टीका का तथा भाषानुवाद को पल्लवित । विस्तृतरूप देने में यशस्तिलकचप्पू, आदिपुराणा, कौटिल्य अर्थशास्त्र, कामन्दकीथ नीतिसार. चरक संहिता-आदि ग्रन्थों तथा संस्कृत टीकाकार के उद्धरणों का आधार मिला । इसकी संस्कृत टीका में वर्तमान गर्ग आदि नीतिकारों के उद्धरण जिन स्थानों में अशुद्ध, त्रुटित व अधूरे मुद्रित थे, उन्हें संशोधित, परिवर्तित करके उनका हिन्दी अनुवाद किया है, परन्तु विस्तारभय से कुछ छोड़ दिया गया है । 1 संशोधन एवं उसमें उपयोगी प्रतियां
इसका संशोधन एक मुद्रित मृल प्रति, एक सरस्वती भवन आराकी ह. लि. सं. टी. 3 प्रति तथा तीन ह. लि. मूल प्रतियों, (१ दि., जैन पंचायती मन्दिर मस्जिद खजूर दिल्ली 2
3 भाण्डार गवर्न, लाईब्रेरी पूना से प्राप्त) के आधार से किया गया है । अर्थात् हमने मुद्रित सं. टीका पुस्तक से अन्य प्रतियों में वर्तमान अधिक पाठ व पाठान्तर को कतिपय स्थलों में शामिल और कुछ स्थलों में टिप्पणी में उल्लखित चिन्हित करके उसका अनुवाद भी कर ] दिया है। ज्ञातव्य व उल्लेखनीय
इसके सातवें त्रयी समुद्देश के पहले सूत्र के, वेदा, का अर्थ हमने आईदर्शन को | अपेक्षा से प्रथमानुयोग-आदि चार वेद बता करके उसके समर्थक आर्ष प्रमाण भी टिप्पणी
में दिये हैं, परन्तु यह नैतिक ग्रन्थ सार्वभौम दृष्टिकोण से लिखा गया है, अत: यह अर्थ भी 卐 उपयुक्त मालूम होता है कि वैदिक संस्कृति के आधार चार वेद हैं, १ ऋग्वेद, २ यजुवेंद, 卐
३ सामवेद व ४ अथर्ववेद । क्योंकि अहद्दर्शनानुयायी श्रुति (वेद) व स्मृति ग्रन्थों का उतना म अंश प्रमाण मानते हैं, जिसमें उनके सम्यक्तव व चारित्र की शक्ति नहीं होती। इस ग्रन्थ का
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संस्कृत टीकाकार राजनैतिक विषय का प्रकाण्ड व बहुश्रुत विद्वान था, क्योंकि उसने सोमदेव सूरि के प्रायः सभी सिद्धान्त भारताय व प्राचीन नांतिकारों के उद्धरणों द्वारा अभिव्यक्त किये हैं, परन्तु आर्हद्दर्शन से संबधि कतिपय विषयों का उसने भ्रान्त अर्ध किया है और कतिपय | विषयों में तो स्वरूचि से नये सूत्र रचकर मूलग्रन्थ में घुसेड़ने की निरर्थक चेष्ठा की है। जैसे विद्यावृद्ध समुद्देश के 22 से 24 व 26 वां सूत्र । इनमें महस्थ वानप्रस्थ व यत्तियों के ! भेद व लक्षण किये है, जिग्न अहद्दर्शन से समन्वय नहीं होता । उक्त सूत्र किसी भी मु. व ह, लि. मूल प्रतियों में नहीं पाये जाते, प्रत्युत ग्रन्थकार ने यशस्तिलक चम्पू में उनका निरसन (खंडन) भी किया है, जिसका टिप्पणी में उल्लेख है । इस ग्रन्थ में सभी नैतिक विषयों का विवेचन है, केवल धर्म का ही नहीं, अत: पाठकवृन्द इसका मधुर अमृतपान नैतिक दृष्टिकोण से करते हुए अनुगृहीत करें ।
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प्रकृत श्रुत-सेवा का सत्कार्य निम्नलिखित सज्जनों के साहाय्य से सुसम्पन्न हुआ है, अत: उनके प्रति हम कृतज्ञता एवं आभार प्रदर्शन करते हैं । श्रीमान् पूज्य गुरुवर्य्य 105 श्री क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी न्यायाचार्य, श्री के. भूजबली, शास्त्री, आरा, पूना गवर्न. लायब्रेरी के प्रबन्धक व वहाँ से प्रति मंगाने में सहयोग देने वाले श्री बा. नेमिचन्द्र जी वकील तथा श्री बा. विशालचन्द्रजी बी. ए. एल एल. बी. ऑनरेरी मजिस्ट्रेट सहारनपुर , पत्र द्वारा अनुवाद | की सामग्री प्रदर्शन करने वाले श्री. श्रद्धेय. प. नाथुरामजी प्रेमी बम्बई, श्री ला, बाबूराम जी दिल्ली, उचित सलाह देने वाले पं. श्री दरबारीलालजी न्यायाचार्य दिल्ली, श्री पं. चन्द्रमौलिजी शास्त्री प्रचारक अनाथाश्रम दिल्ली. श्री पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर, श्री प्रूत राजेन्द्रकुमार | जी शास्त्री न्यायतीर्थ महामन्त्री दि. जैन संघ मधुरा, मेरी अनुपस्थिति में प्रूफ संशोधन करने वाले व उसमें सहयोग देने वाले श्री पं. अजितकुमार जी शास्त्री, दिल्ली एवं वणी संघ को दिल्ली लाने वाले, शास्त्र मर्मज्ञ व विद्वानों के प्रति सहानुभूति रखने वाले एवं हमें बहुत साय तक स्थान आदि की सुविधाएँ देकर अनुगृहीत करने वाले श्री धर्म, बा. राजकिशनजी व उनके | सुपुत्ररत्न श्री बा. प्रेमचन्द्र जी दरियागज दिल्ली श्री चिन्तामणि देवी कलकत्ता एवं श्री दा. सिधई कन्दनलालजी सागर आदि ग्राहक महानुभाव एवं श्री धर्मबा. इन्द्रचन्द्र जी लील्हा कलकत्ताआदि ।
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दरियागंज दिल्ली 9 नवम्बर 1950 दीपमालिका-पत्र
सुन्दरलाल शास्त्री प्राचीन न्याय काव्यतार्थ
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प्रकाशकीय चिरंतन काल से भारत मानव समाज के लिये मूल्यवान विचारों की खान बना हुआ है।। है| इस भूमि से प्रकट आत्मविद्या एवं तत्व ज्ञान में सम्पूर्ण विश्व का नव उदात्त दृष्टि प्रदान कर 1.|उसे पतनोमुखी होने से बचाया है । इस देश से एक के बाद एक प्राणवान प्रवाह प्रकट होते|
|रहे । इस प्रणावान बहलमून्य प्रवाहों की गति को अविरलता में जैनाचार्यों का महान योगदान | 卐 रहा है । उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विश्व की आदिम सभ्यता और संस्कृति
के जानने के उपक्रम में प्राचीन भारतीय साहित्य की व्यापक खोजबीन एवं गहन अध्यनादि | कार्य सम्पादिक किये गये । बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक प्राच्यवाङ्मय की शोध, खोज व अध्ययन अनुशीलनादि में अनेक जैन-अजैन विद्वान भी अग्रणी हुए । फलत: इस शताब्दी | के मध्य तक जैनाचार्य विरचित अनेक अंधकाराच्छादिक मूल्यवान ग्रन्थरत्न प्रकाश में आये| | इन गहनीय प्रन्थों में मानव जीवन की युगीन समस्याओं को सुलझाने का अपूर्व सामर्थ्य है। विद्वानों के शोध-अनुसंधान-अनुशीलन कार्यों को प्रकाश में लाने हेतु अनेक साहित्यिक संस्थाए| उदित भी हुई, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं में साहित्य सागर अवगाहनरत अनेक विद्वानों द्वारा नवसाहित्य भी सजित हआ है, किन्त जैनाचार्य-विरचित विपल सा के सकल ग्रन्थों के प्रकाशनार्थ/अनुशीलनार्थ उक्त प्रयास पर्याप्त नहीं हैं । सकल जैन वाङ्मय के अधिकांश ग्रन्थ अब भी अप्रकाशित हैं, जो प्रकाशित भी हो तो सोधार्थियों को बहुपरिश्रमोपरान्त भी प्राप्त नहीं हो पाते हैं । और भी अनेक बाधायें/समस्याएं जैन ग्रन्थों के शोध अनुसन्धानप्रकाशन के मार्ग में है. अत: समस्याओं के समाधान के साथ साथ विविध संस्थाओं-उपक्रमों के माध्यम से समेकित प्रयासों की आवश्यकता एक लम्बे समय से विद्वानों द्वारा महसूस को | जा रही थी।
राजस्थान प्रान्त के महाकवि ब्र. भूलामल शास्त्री ( आ. ज्ञानसागर महाराज) की जन्मस्थली 卐एवं कर्म स्थली रही है। महाकवि ने चार-चार महाकाव्यों के प्रणयन के साथ हिन्दी संस्कृत |
में जैन दर्शन सिद्धान्त एवं अध्यात्म के लगभग 24 ग्रन्थों की रचना करके अवरुद्ध जैन साहित्य
भागीरथी के प्रवाह को प्रवर्तित किया। यह एक विचित्र संयोग कहा जाना चाहिये कि रससिद्ध 卐कवि की काव्यरस धारा का प्रवाह राजस्थान की मरुधरा से हुआ । इसी राजस्थान के भाग्य
से श्रमण परम्परोन्नायक सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सुशिष्य जिनवाणी |.. के यर्थाथ उद्घोषक. अनेक ऐतिहासिक उपक्रमों के समर्थ सूत्रधार, अध्यात्मयोगी युवामनीषी | पू. मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज का यहाँ पदार्पण हुआ । राजस्थान की धरा पर राजस्थान |
के अमर साहित्यकार के समग्रकृतित्व पर एक अखिल भारतीय विद्वत/संगोष्ठी सागानेर ।
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में दिनांक 9 जून से 11 जून, 1994 तथा अजमेर नगर में महाकवि की महनीय कृति "वीरोदय" महाकाव्य पर अखिल भारतीय विद्वत् संगोष्ठी दिनांक 13 से 15 अक्टूबर 1994|
तक आयोजित हुई व इसी सुअवसर पर दि. जैन समाज. अजमेर ने आ. श्री ज्ञानसागर के सम्पूर्ण 4|24 ग्रन्थ मुनि श्री के 1994 के चार्तुमास के दौरान प्रकाशित कर/लोकार्पण कर अभूतपूर्व ऐतिहासिक卐
काम करके श्रुत की महत् प्रभावना की । पू. मुनि श्री सानिध्य में आयोजित इन संगोष्ठियो। |में महाकवि के कृतित्व पर अनुशीलनात्मक-आलोचनात्मक, शोधपत्रों के बाचन सहित विद्वानों 21 द्वारा जैन साहित्य के शोध क्षेत्र में आगत अनेक समस्याओं पर चिन्ता व्यक्त की गई तथा शोध छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करने, शोधार्थियों को शोध विषय सामग्री उपलब्ध कराने, ज्ञानसागर | वाङ्मय सहित सकल जैन विद्या पर प्रख्यात अधिकारी विद्वानों द्वारा निबन्ध लेखन- प्रकाशनादि | | के विद्वानों द्वारा प्रस्ताव आये । इसके अनन्त मास 22 से 24 जनवरी तक 1995 में ब्यावर
र राज. में मुनिश्री के संच सानिध्य में आयोजित "आचार्य ज्ञानसागर राष्ट्रीय संगोष्ठी" में पूर्व | प्रस्तावों के क्रियान्वन की जोरदार मांग की गई तथा राजस्थान के अमर साहित्यकार सिद्धसारस्वत महाकवि ब, भूरामल जी की स्टेच्यू स्थापना पर भी बल दिया गया, विद्वत् गोष्ठिी में उक्त कार्यों के संयोजनार्थ डॉ. रमेशचन्द जैन बिजनौर और मुझे संयोजक चुना गया । मुनिश्री के आशीष से ब्यावर नगर के अनेक उदार दातारों ने उक्त कार्यों हेतु मुक्त हृदय से सहयोग प्रदान करने के भाव व्यक्त किये।
पू. मुनि श्री के मंगल आशिष से दिनांक 18.3.95 को त्रैलोक्य महामण्डल विधान के शुभप्रसंग पर सेठ चम्पालाल रामस्वरूप की नसियाँ में जयोदय महाकाव्य (2 खण्डों में) के प्रकाशन | सौजन्य प्रदाता आर. के. मार्बल्स किशनगढ़ के रतनलाल कंवरीलाल पाटनी श्री अशोक कुमार माजी एवं जिला प्रमख श्रीमान् पुखराज पहाड़िया, पीसांगन के करकमलों द्वारा इस संस्था का | श्रीगणेश आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र के नाम से किया गया ।
आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र के माध्यम से जैनाचार्य प्रणीत ग्रन्थों के साथ जैन | संस्कृति के प्रतिपादक ग्रन्थों का प्रकाशन किया जावेगा एवं आचार्य ज्ञानसागर वाङ्मय का व्यापक मूल्यांकन-समीक्षा-अनुशीलनादि कार्य कराये जायेंगे । केन्द्र द्वारा जैन विद्या पर शोध
करने वाले शोधार्थी छात्र हेतु 10 छात्रवृत्तियों की भी व्यवस्था की जा रही है । केन्द्र का अर्थ ॐ प्रबन्ध समाज के उदार दातारों के सहयोग से किया जा रहा है । केन्द्र का कार्यालय सेठ चम्पालाल |
रामस्वरूप की नसियाँ में प्रारम्भ किया जा चुका है । सम्प्रति 10 विद्वानों की विविध विषयों पर शोध निबन्ध लिखने हेतु प्रस्ताव भेजे गये, प्रसन्नता का विषय है 25 विद्वान अपनी स्वीकृति प्रदान कर चुके हैं तथा केन्द्र ने स्थापना के प्रथम मास में ही निम्न पुस्तकें प्रकाशित की
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प्रथम पुष्प
द्वितीय पुष्प
तृतीय पुष्प
चतुर्थ पुष्प पंचम पुष्प
पिष्टम पुष्प
सप्तम पुष्प अष्टम पुष्प
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आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा रचित आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा रचित
मुनिश्री सुधासागरजी महाराज के प्रवचनों का संकलन
डॉ. श्रीमति विजयलक्ष्मी जैन डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर
-
डॉ. नरेन्द्रकुमार द्वारा लिखित - डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर
नवम पुष्प आदि ब्रह्मा ऋषभदेव
डॉ. श्रीमति विजयलक्ष्मी जैन बैस्टिर चम्पतराय जैन
दशम पुष्प
मानव धर्म
पं. भूरामलजी शास्त्री ( आचार्य ज्ञानसागरजी )
एकादशं पुष्प नीतिवाक्यामृत
श्रीमत्सोमदेवसूरि विरचित यह ग्रंथ प्रकाशित
किया जा रहा है। इस ग्रंथ में आचार्य महाराज ने राजा एवं राज्य व्यवस्था समाज एवं समाज व्यवस्था अर्थ एवं अर्थ व्यवस्था जीवन एवं जीवन व्यवस्था आदि जीवनोपयोगी जीवन चर्या 筑 का वर्णन नीतिवाक्यों को विद्या में उपदेशित किया है। इस ग्रंथ का स्वाध्याय राष्ट्र समाज परिवार एवं स्वजीवन को सुदृढ़ बनाने वाला है। इस ग्रंथ का प्रकाशन पूर्व में पं. सुन्दरलाल शास्त्री, देहली ने बहुत ही परिश्रम के साथ किया गया था । 筑
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इतिहास के पन्ने
हित सम्पादक
तीर्थ प्रवर्तक
जैन राजनैतिक चिन्तन धारा
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अञ्जना पवनंजयनाटकम् - जैनदर्शन में रत्नत्रय का स्वरूप
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बौद्ध दर्शन पर शास्त्रीय समिक्षा जैन राजनैतिक चिन्तन धारा -
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वर्तमान में यह ग्रंथ
प्राप्त है । देश समाज एवं वर्तमान जीवन के लिए इस ग्रंथ की महत्त उपयोगिता को देखते हुये यथावत पुनः प्रकाशित करके भव्य जीवों के करकमलों
में स्वाध्याय हेतु समर्पित किया जा रहा है ।
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अन्त में मैं पूर्व प्रकाशन, प्रकाशक एवं अनुवादक का आभार प्रदर्शित करता हूँ ।
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अरुणकुमार शास्त्री
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विषयानुक्रमणिका ক্লিখ
पृष्ठ-संस्था १--धर्म-समुद्देश
१से ४२ पृष्ठ सक ___ मलारण, धर्मका :
स्य क धर्मका विस्तृत विवेचन), अधर्म (मिम्पत्विप्रति) का दुष्परिणाम, धर्मप्राप्ति के उपाय, भागम-माहात्म्य, चसकी सस्यता, चंचमचित्त तथा व्य-विमुखकी हानि, पान-दान, तप, संयम एवं धर्म, विद्या व धनस पयसे लाभ तथा धार्मिक अनुत्साहसे हानि मानसियोंके मनोरथ, धर्म-पराङ्मुखता, स्वतः धार्मिक प्रवृत्ति व उसमें विघ्न, पापप्रवृत्तिको मुलभवा, पाप-निषेध, ठगोंके कार्य, कुसंग, परस्त्री-सेवन व पापका दुष्परिणाम एवं मकाम पुगपार्थको छोड़कर केवल धर्म-सेवन करनेवालेकी भालोचना, विवेकीका कप, अन्यायका दुष्परिणाम, पूर्वजन्ममें किये हुए धर्म-अधर्मेका प्रवक्ष व अकाट्य युक्तियों द्वारा समर्थन तथा भाग्य । २ अर्थ-समुद्देश
४३-४७ धनका लमण, धनिक होने का सपाय तथा धनके बिनाशक कारण। ३ काम-समुद्देश
४८-५७ . कामका लक्षण, सुख प्राप्तिका उपाय, केवल एक पुरुषाके सेवमसे हानि, विविध कष्ट महन पूर्वक धन संचयसे हानि सम्पतिकी मार्थकता, इन्द्रियोंको डाइमें न करनेसे पनि, इन्द्रियजयका स्वरूप व उपाय, कामी, स्त्री भासत पुरुष, नीति-विरुद्ध कामके दोष, एफ कालीन धर्म-मावि तीनों पुरुषार्थोमसे जिसका सेवन लाभदायक एवं जिस समय भर्षपुरुषार्थ मुरूप है। ४ परिषड्वर्ग समद्देश
५७-६२ 'अन्तरङ्ग शत्रुनों (काम-मादि) के नाम लवण-मादि ५ विद्यार-समुददेश
६२-१.. राजाका लक्षण, कतैन्य, राज्यका स्वरूप, वर्ण-भाभमके भेद, सम्य, उपायक, ठिक तथा सुपद प्रामवारियोंका स्वरूप सच्चा पुत्र, पुत्र-शून्यकी पति, शास्त्रका अध्ययन, ईश्वर भक्ति और लोक सेवा न करनेसे हानि, नैष्ठिक ब्राह्मचारीका माहाल्प, गृहस्थ व उसके निस्व. नैमित्तिक अनुष्ठान, जैनेतर गृहस्थ, वानप्रस्थ और यतियों का स्वरूप व भेद, राज्यका मख, इसी श्रीवृद्धि के उपाय, विनय, राय-वतिके कारण, राजनैतिक शान और पराक्रमी राजा, बुद्धिमान, केवल पराक्रमका परिणाम, नैतिक मानके सद्भाव-असद्भावसे नाम-हानि, मूर्ख-दुध राजा तथा राज-पुत्रको राम अधिकार और हानि, तथा राज्यपदके योग्य पुरुषद्रव्य,
गुणशून्य व अयोग्य पुरुषमं रास्यपदकी भयोग्यता, गुणाकृत पुरुष, बुद्धिक गुख-लसण, विद्यानांच स्वरूप, आन्वीक्षिकी-प्रादि राजविधाओंके भेद, उनके अध्ययनसे लाभ, 'मान्बोलिकी' में अन्य नीतिकारोकी मान्यता, उसकी समीक्षा (तभ्यनिर्णय), भान्वीक्षिको भादिका प्रयोजन, बनपा मान्यताएँ, जैन सिद्धान्तके अनुसार उनके लोक प्रचार पर ऐतिहासिक विमर्श ।
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[ २ ] विद्याध्ययन व विद्या-वृद्ध पुरुषों की संगति न करनेका दुष्परिणाम, शिप्ट पुरुषों की संगतिका माहात्म्य, राजगुरुओंके मद्गुण, शिष्टोंको विनयसे लाभ, राज-माहात्म्य, दुष्टसे विद्या-प्राप्तिका निषेध, शिष्यप्रकृति, कुजीन और सच्चरित्र शिवकोंका प्रभाव, हठी राजा एवं राजाके प्रति कर्तव्य ६ अान्वीक्षिकी समुद्देश
अध्यात्मयो। (धमध्यान), उसमें उपयोगी पार्थिवी-आदि धारणाओं का स्वरूप-जाभ, अत्मा के फोडास्थान, बाम-स्वरूप, उसका पुनर्जन्स, मन, इन्द्रिय, विषय, मान एवं सुखका साक्षण, सुख भी जिस समय दुःस्व समझा जाता है, सांसारिक सुखके कारण और उनका लक्षण, दुःखका स्वरूप, दुःस्व भी जिस स्थिति में सुख होता है, दुःखोंके भेद, उनके लक्षण, दोनों लो कॉम दुखी-धरुष १० इच्छाका स्वरूप, दोष-शुद्धिका उपाय, उत्साह, प्रयत्न और संस्कारका लक्षण, पुनर्जन्म साधक संस्कार भोर शरीरका लक्षण, नासिक दर्शनका स्वरूप व फल, मनुष्य-कर्तव्य में सर्वथा निर्दाताका अभाव, अधिक दया व शान्तिसे लौकिक हानि, राजकतब्ध (दुर्दानप्रद), निन्दाका पात्र, पराक्रमकीन पुरुषकी इति, धर्म-प्रतिष्ठा, दुष्ट-निग्रह न करनेसे हानि, राज्यपदका परिणाम, खलमैत्री सर्व स्त्रियों
पर विश्वास करनेका कटुकफल ७ त्रयी-समुददेश---
११६-१३० वेगी विद्याका स्वरूप, उससे लाभ, धर्मग्रन्योंका बदमें अन्तर्भाव, ब्राह्मण-आदि तीन वकि समान कर्तव्य, द्विजातिका स्वरूप, ब्राह्मण और क्षत्रियों के कतव्य, श्रीपेण राजाद्वारा अपने युवराज दीर पुत्र श्रीवर्मा (चन्द्रमम तीर्थङ्करको पूर्वपर्याय) के प्रति दिया हुआ क्षात्र धर्मका नैतिक मदुपदश, वैश्य घ शुद्र-कर्तव्य, प्रशस्त शुद्रोंका लक्षण, व उनमें ईश्वरोपासना-प्रादिकी पात्रता, ब्राह्मण आदि चारी वणीका समान धर्म तथा साधारण-विशेषधर्मका विश्लेषण साधुओं का कर्तव्य, उससे मयुत होने पर शुद्धिका उराय, अभीष्टदेवकी प्रतिष्ठा, श्रद्धा-होनी ईश्वरोपासनासे झानि, कतैव्य-यतकी शुद्धि, धर्म, अर्थ व काम पुरुषार्थकी प्राप्तिका उपाय, कर्तव्यमयत गजाकी कही मालोचना. कर्तव्य-च्यत प्रजाके प्रति राज-कर्तव्य, प्रजा-पालनसे लाभ, अन्य मतोंके तपस्वियों द्वारा राज सम्मान, -अनिष्टका निर्णय, मनष्य-कत्तव्य (विनय) सदान्त,
ब्राह्मण-मादिकी प्रकृति, उनकी क्रोध-शान्तिका उपाय, बरिणकोंकी श्रीवृद्धि-मादि १३८-५२८ ८ वार्ता समुदेश
१३६-१४८ वार्ता विद्या, उससे राजकीय लाभ, सांसारिक सुखके कारण, फसस के समय धान्य-ममह न करने, आमदनीक विना केवल खर्च करनेसे तथा राजाकी धनलिमामे हानि, गोरक्षा, विदेशस माल पानेमें प्रविबन्धका कारण, त्यापार-क्षतिक कारणा, व्यापारियों की गोल-माकीकी देखरेख, राष्ट्रके कण्टक, उनके निर्मूलनका उपाय, अन्न संग्रह द्वारा अकाल उत्पन्न करनेवाले व्यापारियोम
राष्ट्रकी हानि एवं उनकी कड़ी आलोचमा, तथा शरीर-रक्षार्थ मनुष्य-व्य व इप्टान्त १३६-१४८ ६ दंडनीति-ममुद्देश
१४६-१५२ दंड-माहात्म्य वरूप, अपराध निय, देहनातिका उददेश्य, छिद्रान्वी बंध और राजाकी कड़ी आलोचना, मनाद्रारा अगला धन, नित विधानका दुष्परिणाम १४-१५२
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[ ३ ] १० मत्री-समुद्देश
१५३-२०६ पाहायबुद्धि-युक्त राजाका स्वरूप पर्व उसका दृष्टान्तों द्वारा समर्थन, प्रधानमंत्रोके सदगण, हनके साय-असावसे लाभ-हानि, मंत्रपूर्वक प्रारम्भ किये हुए पाहगुल्य (सन्धि-विमहादि) को सफलता, मंत्र-लाभ, मंत्र अङ्ग, मन्त्रो-कर्त्तव्य व मन्त्रणाके विषय में विचारधारा (मन्त्रके अयोग्यस्थान, मन्त्र जानने के साधन, उसे गुप्त रखने की अवधि-आदि) प्राणियोंका शत्र, स्वर्य करने योग्य कार्यको दूसरों द्वारा करानेसे हानि, स्वामोकी उन्नति-अवनटिका सेवा पर असर, मन्त्रणाकालीन मन्त्री-कर्तव्य, मन्त्र-प्रयोजन मरणान्त. जिस प्रकारका मन्त्री राजार शन है, मन्त्रियोंके कत्र्तव्य, उनपर राजकीय स्थितिका प्रभाव, उनको असफलतामें वाधक कारण, मन्त्रियों को पातके सल्लङ्घनसे राजकीय हानि, मन्त्रणा-माहात्म्य, पराक्रम-शून्यको हानि, नैतिकप्रवृत्ति से साम, हित-प्राप्ति और हित-परिहारका उपाय, मनुष्य-कर्तव्य (कम्पमें विलम्ब न करना),
मधियों की संख्या सम्बन्धी विचार धारा, ईष्योल, बहुसंख्यक स्वच्छ मंत्रिोंसे हानि, १५-१७ · · राजा व मनुष्य-कर्मभ्य, मन्त्रियों की नियुक्तिमें सैद्धान्तिक तथ्य विचार, बहुसंख्यक मूर्ख मन्त्रिमनसे
हानि, बहु सहायकोंसे लाभ, अकेले मन्त्रोसे कार्य की सिदि, आपतिकालमें सहायकोंकी दुर्लभता महपान्त, सहायकोंकी प्रधानता, उन्हें धन दनेसे लाभ, कार्यपुरुषोका स्वरूप,मूर्ख में मन्त्रणाकी मधिकार , कीमता-श्रादि, मूर्ख मंत्रोसे काय-सिद्धि में असफलता, उसकी समर्थक दृष्टान्स माना, शास्त्रमान-शुम्म
मनसी महा-विमुखता तथा सम्पत्ति-प्राप्तिका साधन राजमुख का स्वभाव, मुर्ख मन्त्रीको रायभार सौंपनेसे हानि, कर्तव्य-च्युतके शाश्वमानकी निष्फलता, गुणहीनकी मालोचना, मन्त्रीके महत्वका कारण, मन्त्रणा अयोग्य व्यक्ति, क्षत्रियों की प्रकृति, गवे भने बाले पदार्थ, अधिकारीका लक्षण, धन-सम्पट राजमन्त्रीसे हानि, पुरुषोंकी रात, निर्दोषीको दुपा लगानेसे हानि, मित्रताके अयोग्य पुरुष सदृष्टान्त, स्नेह-नाराका कारण, रामोंके कार्य, काम.
से हानि सदृष्टान्त, मनुष्य को धनलिप्सा, लोभ, जितेन्द्रिय-प्रशंसा, संतोषीका कार्यारम्भ, महामी समयमपुरुषका कार्य, भय-शाका त्यागकरके कर्तव्यमें प्रवृत्ति-माद
१९६- ४ महापुरुषोंके गुण, माता व प्रियवपनोंसे लाभ, गुप्त रहस्यके प्रकाशको अवधि, महापुरुषांक बबन, नोप प्रकृति वाला मनुष्य और महापुरुषोंका स्वरूप, कार्य-सिद्धि न होने देनेवाला दोष, कुलोन पक्षण कांवरूप, अच्छी-बुरी वस्तु सदृष्टान्त , अत्यन्स क्रोध, विचार-शन्यता, परस्परकी गुबा प्रकट करनेसे हानि, शत्रु ओं पर विश्वास करना, चंचनचिच व स्वतन्त्र पुरुष-मादि
-07 होनशक्तिको बलिष्ठ शत्रुसे युद्ध करनेका कटुफल, आपत्ति कालीन राजधम सरष्टास, अभिमान हानि, पात्र -विनाशके उपायोंके मानसे लाभ सदृष्टान्त, नैतिकतम्य मरष्टान्त, निरर्थक वाणी पालन, मूल व जिहीको उपदेश देने और नैतिक प्रवृत्ति-शून्य उन्नतिसे ति, कृन सबकों की हानि, बोतम अपराधियों को मृत्युदंड देनेसे लाभ, चुम्धराजकर्मचारियोको भयकरता और उनको वश करने का तरीका, राजाका मंत्री-भावि प्रकृति के साथ बर्ताव, प्रकृतिके कुपित होनेसे हानि, अवघ्य अधिकारियों के प्रति राजकतन्य, कथा गोष्ठीके अयोग्य पुरुष, मनसे कथा-गोष्ठी करने का कटुकफन्न, क्रोधीक प्रति बर्तन, कोपीके समक्ष जानेसे हानि तथा जिसका गृह में प्रवेश निष्फल है।
०१-२
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[ ४ ] ११ पुरोहित समुन्देश
२१०-२२१ पुरोहित ( राज-गुरु ) का लक्षण या गुण, मंत्री-पुरोहितके प्रति राज-फत व्य, आपशियोंका स्वरूप व भेद, राजपुत्रको शिक्षा, गुरु-सेवाके साधन, विनय, और विद्याभ्यासका फल, शिष्यकर्तव्य, माता-पितासे प्रतिकूलयर्ती पुत्रकी कड़ी मालोचना, पुत्र कर्तव्य, गुरु, गुरुपत्ती, गुरुकुत्र और सहपाठीके प्रति शिष्यका वर्ताव, शिष्य-फर्तव्य, अतिथियोंस गुप्त रखने योग्य बात, परगृह में प्रविष्ट हुए पुरुषोंकी प्रवृत्ति, महापुरुषका लक्षण दूसरोंके कार्य साधनमें लोक-प्रकृति, राज कर्मचारीको प्रकृति, धनिक कपणोंके गुण-गानसे हानि राज-कर्मचारियोंमें पक्षपात-शून्य समष्टि, दरिद्रसे धन ग्रहण, असमर्थसे अपना प्रयोजन कहना, हठी, कर्तव्य-ज्ञान-शून्य व विचार-शून्यको नैतिक उपदेश देने और नीचफे उपकार करनेको निरर्थकता, मुर्खको समझानेमें परिश्रम करने, पीठ पीछे उपकार करने और बिना मौके की . घात कहनेको निष्फलता, चपकारको प्रकट करनेसे हानि, उपकार करने में असमर्थ पुरुषको प्रसन्न । करना, गुण दोषका निश्चय किये बिना अनुमह व निमत करना-मादिकी निष्फलता, झूठी बहादुरी मताने वालोंकी भौर कपणके धनकी कड़ी मालोचना एवं उदारकी प्रश'सा, ईर्ष्यालु गुरु, पिता, मित्र, तथा स्वामीकी कड़ी मालोचना
२१८-२२१ १२ सेनापत्ति-समुद्देश
२२२-२२३ ( सेनापतिक गुण-दोष-आदि) १३ दत-ममुद्देश
२२४-२३० दूतका लक्षण, गुण, भेद. दुत-कर्तव्य, निरर्थक विलम्बसे हामि, दूतास सुरता मष्टान्त, शत्र द्वारा भेजे हुए लेख और उपहार के विषयमें राजकर्तव्य सदृष्टान्त, दूतके प्रति राजाका पाक, दत-लक्षण एवं उसके वचनोको सुनना, शत्रका रहस्य जानने के लिये इतके प्रति राजाका कर्तन्य
एवं शत्र भूत राजाके पास भेजे हुए लेख के विषयमें विजिगीपका कर्तव्य १४ चार-समृद्देश
२३१-२३६ गुप्तचरोंका लक्षण, गुण, वेतन व फल, उनके वचनों पर विश्वास. गुप्तचर-रहितको हानि सदृष्टान्त, गुप्तचरों के भेद और लक्ष्य १५ विचार-समुदेश
२३६-२४१ विचार पूर्वक कर्तव्यमें प्रवृत्ति विचार व प्रत्यक्षका लक्षण, ज्ञान मात्रसे प्रवृति-निवृत्ति न करना, विचारशका लक्षण, विना घिनारे कार्य करनेसे हानि, राज्य, प्राप्तिके चिन्ह, अनुमानका लक्षण-फल, भवितव्यता प्रदर्शक चिन्ह, बुद्धिका असर, मागम व आप्तका स्वरूप, निरर्थक वाणी,
वचनोंकी महत्ता, कृपण के धनको कटु आलोचना और जन साधारण की प्रवृत्ति १६ व्यसन.समुद्देश
२४२-२४८ व्यसनका लक्षण, भेद, सहज व्यसनोंसे निवृत्तिका उपाय, शिष्ट पुरुषका लक्षण कृत्रिम व्यसनोंसे निवृत्ति, निजस्त्रीमें आसक्ति, मद्यपान, मृगया, दूत थौर शुन्य-मादि १८ प्रकार के व्यसनोका स्वरूप हानि ।
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१७ स्वामि-समुद्देश
२४१-२६५ राजाका लक्षण, अमात्य-प्रादि प्रकृतिका स्वरूप, असत्य व धोखा देनेसे हानि, लोकप्रिय पुडप, स्कृष्ट दाता, प्रत्युपकारसे काम व समचा परोपकार, प्रत्युपकार शून्यकी कुटु मालोचना, स्वामीी निरर्थक प्रसन्नता, जुद्र अधिकारियों वाले राजाको हानि, कृतघ्नता, मूर्खता, लोभ और बामपसे हानि, उत्साहीके गुण, भन्याय तर वाचारका भरणाम, वेश्यसका फल पत्रीय भाडाका सल्जवन न करना राज-कर्तव्य (भपराधानुरूप दर विधान), घामान्य गजाकी बटुभालोचना और मनुष्यकर्वन्य (सजा पाये हुए व्यक्तिका पक्ष न लेना) एवं पररहस्य २४-२५५
अपरीक्षित वेप व बर्ताव, राजकीय कोप व पापका दुष्प्रभाव, राजाद्वारा किंधे हुए तिरस्कार बसम्मानका असर, राजकर्तव्य (प्रजा कार्य की देखरेख-आदि ) व अधिकारियोंकी अनुमितजीविका, राजकतन्य (रिश्वत स्वोरोंसे प्रजाकी रक्षा), रिश्वतसे क्षति, वनास्कारपूर्वक प्रजासे धन महल करने वाले राजा व प्रजाको हानि, राजकीय, अन्यायकी सदृष्टान्त कड़ी पालोचना, मनुष्य जिसका सेवक है, बस्द्रिकी लघुता, विद्याका माहात्म्य, लोकव्यवहार-पटुता, बुद्धिके पार दशौ एवं कन्यका बोध न कराने वालों की आलोचना।
२५६-२६४ १८ अमात्य समद्देश---
२६५-२८१ सकि.माहात्म्य, उसके विना कार्यकी असिद्धि, लक्षण, सचिव-कर्तव्य, माय-व्यय, स्वामी, दन्त्र-मजण, मन्त्री-दोष, योग्य अयोग्य अधिकारी, अयोग्योंसे हानि, बन्धु सम्बन्धके भेद, बक्षण, मधिकारी, अर्धसचिव आदि होनेके अयोग्य व्यक्ति एवं चति
२६५-२७३ अधिकारियोंकी उन्नति, अयोग्योंसे कष्ट, उन पर विश्वास करनेसे हानि, सम्पत्ति-शासी अधिकारियोका असर, अमात्य-दोप, राजतंत्र (मंत्री भादि) की नियुक्ति, सनको स्वयं देख रेख, अधिकार, राजसंत्र, मीवी-बचणा, आय व्ययको शुद्धि एवं उसके विवादमें राज-कर्तव्य
२७४-९७७ रिश्वत-सम्बन्धी संचित धन के ग्रहण करनेका उपाय, अधिकारियोंको पन व प्रतिष्ठा-प्राप्ति, नियुक्ति, कार्य सिद्धि में उपयोगी गुण म उसका समर्थन, भधिकारीका कर्तव्य, राज-कर्तव्य (अचानक मिने र धनमें और अधिक मुनाफाखोर व्यापारियोंके प्रति), मधिकारियोंकी फूटसे और धनाध्य
अधिकारियोंसे राजकीय लाभ, संग्रहके योग्य मुख्य वस्तु व धान्यसंपका माहात्म्य मादि२९ जनपद-समद्देश--
२८२-२८८ देरॉली नाममाला, व्याख्या व गुण दोष, बहुत्रिय और ब्राह्मणवाले प्रामोसे हानि, परामें प्राप्त हुए स्वदेश वासीके प्रति राजकर्तव्य, शुल्क स्थानों के अन्यायसे इति, काची धान्य. फसल कटाने और पकी हुई में से सेना निकालनेका दुष्परिणाम, प्रजा पीरित करनेसे हानि, एवं पहिसे देख मुक प्रजाके प्रति राजकर्तब्य, मर्यादा मनसे हानि, प्रजाकी रचा, न्याय-युक्त शुकधामोरो लाभ, सेना व राजकोषकी वृद्धिके कारण, विद्वानों व प्रामणोंके देने योग्य भूमि,
भूमि दान और तालाब-दान आदिमें विशेषता अथवा वाद-विवाद के उपरान्त न्यायोचित निर्णय २. दुर्ग-ममुद्देश .
२८४-२६२ दुर्ग शब्दार्थ, भेद, दुर्ग-विभूति (गुण ), दुर्ग शून्य देशसे हानि, शत्र के दुर्गको नष्ट करनेका पाय पराजकतव्य ( दुर्गके बारेमें)
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[६] २१ कोश-समद्दश
२६२-२६६ शशब्दार्थ, गुण, राजकतव्य, क्षीणकोश राजाका भविष्य, कोश-माहात्म्प 4 ससमें हीन राजाके दुष्कृत्य, विजयश्रीका स्वामी, निधनको बालाचना, कुलीन होते परभी सेवा अयोग्य पुरुष, पन-माहात्म्य, कुशीनवा, चड़ापनकी ज्ञान एवं खाली खानेको वृद्धि का उपाय २२ बल-समद्देश
२४६-३०२ बल शब्दार्थ, प्रधान मैन्य, हाथी-माहात्म्य, उनको युद्धोपयोगी प्रधान शक्ति, प्रशिक्षित हाथियोंसे हानि, हाथियों के गुण, घोड़ोंकी सेना, उसका तथा उत्तम जातीय घोड़ोंका माहात्म्य, रथ, सैन्यका माहास्य, उत्साही सैन्य व उसके गुण, औत्सादिक सैन्य के प्रवि विजिगोषु कर्तव्य, प्रधान सैन्य-माहात्म्य, सेवकों को दिये हुए सन्मानका प्रभाव, सैन्य, विक्ति, उसकी देख देख न करनेका दुष्प्रभाव, दूसरों द्वार! न कराने योग्य कार्य, धन-वेतन न मिलने परमी सेवकोंका फस य, पण राजाके विषयमें दृष्टान्त, कटु आलोचता-योग्य स्वामी व विचारशून्य राजाकी ति २३ मित्र-समुद्दश
३०२-३०५ मित्र-लक्षण, भेद, गुण, दोष, मित्रता-विध्व'सक काय , निष्कपट मैत्रीका उज्वल दृष्टान्त, पसका आदर्श प्रत्युपकार की सोदाहरण दुर्लभता २४ राजरक्षा-समुदःश
३०५-३२३ राजकीय रक्षा परिणाम व उपाय, स्वामी-हीन प्रांत (अमात्य बानि) की हानि प्राय शून्य पुरुष द्वारा किये हुए प्रयत्नोंको निरफलता, राज-कतव्य ( आत्मरक्षा), स्त्रो-सुवार्थ लोक प्रति, जिसका धन संग्रह निष्फल है, स्त्रियों की प्रकृति, सुन्दर स्त्री की प्राप्तिका नाय, त्रियों की रक्षा इन्हें अनकूल रखने का उपाय, पतिकर्तव्य (विवाहित कुरूप स्त्रियोंके प्रति), त्रा-संवन का समय, ऋतुकालीन उपेक्षासे हानि, घोरक्षा, उनके प्रतिकृत्त होनेक कारण, उनकी प्रकृति, दुनीपन, स्त्री रक्षाका उहश्य, वेश्यासेबन का त्याग, राजाको स्त्री-गृह में प्रविष्ट होनका निषेध, उनके विश्यमें राजकस व्य, स्वच्छाचारिणी स्त्रियोंक अनथ, उनका इतिहास, स्त्री-माहात्म्य, उनकी सीमित स्वाधीनता, उनमें भनि प्रासक्ति प्रादिका कटु फल, पतिव्रता-माहात्म्य तथा मनुष्य-कत व्य । ३२५-३१३
वेश्या गमनके परिणाम, प्रकृति, कृतन कुम्बियोंके पोपण का फुफल, शारीरिक पौन्दर्य. कुम्धियोंका संरक्षण, स्वामीकी आज्ञा पालन, वैर विरोध करने वाले शनिशा जी पुत्रों व कुटुम्बियों का वशीकरण, वनता करने का दुष्परिणाम, अकुलीन माता-पिताका सन्तान पर कुप्रभाव एत्र' इत्तम पत्र-प्राप्तिका उपाय, निरोगी व दोध जीवी मन्ताम होने का कारगा, गज्य व दीक्षा के अयोग्य परुष, महीनोंको राज्याधिकारकी सीमा, विनयका प्रशव, पुत्रोंकी विनय व भिमामका अमछाबरा असर, पितासे द्रोह न करने वाले राजकुमार, नन्हें माता पिताकी भक्ति की शिक्षा, माता पिनाक अनावरसे हानि, उससे प्रात राज्यको निरर्थकता, पत्र-तनय पिन-मान दुपित राज्यलक्ष्मी, निरर्थक कार्य से हानि, राज्य योग्य उत्तराधिकारी तथा अपराधीकी पहिचान ।
३१४-३२ २५ दिवसानुष्ठान समुन्द्रेश
३२३-३३५ नित्यक्रतव्य, यथेष्ट व अयोग्य कालोन निद्रा लाभ-हानि, बीय मान-मूत्रादिक वेग रोकनेसे
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माख
[]
: शनि, शौच व गृहप्रवेश, व्यायामसे लाभ, निद्रा- लक्षण, लाभ, स्वास्थ्योपयोगी कर्तव्य, स्नानका उद्देश्यआदि, आहार संबंधी सिद्धान्त, सुखप्राप्तिका उपाय, इन्द्रियों को कमजोर करने वाला कार्य, वाजी इसे साम, निरन्तर सेवन योग्य वस्तु, सदा बैठने व शोक से हानि, शरीर गृहकी शोभ, अविश्व सनीय व्यक्ति, ईश्वर स्वरूप व उसकी नाममाला ।
_३२३-३३०
नियमित समय में विलम्ब से कार्य करने में क्षति, आत्मरक्षा, राज कर्तव्य, राजसभा में प्रविष्ट होने के यो Baf, विनय, स्वयं देखरेख करने लायक कार्य, कुसंगतिका त्याग, हिंमाप्रधान कामका निषेध, परस्त्रो के साथ मातृभगिनी-भाष, पुज्योंके प्रति कर्तव्य, शत्रुस्थान में प्रविष्ट होनेका उपासना के मादसवारी, अपरीक्षित स्थान आदि में जानेका निषेध, अगन्तव्य स्थान, स्म करने खाचक विद्या, राजकीय प्रस्थान, भोजन वस्त्रादिकी परीक्षा, कर्तव्य विष्णु-विनियां डाला, ईश्वरभक्तिका असर, कार्यसिद्धि के प्रतीक, गमन व प्रस्थान. ममद, राजीका जयमंत्र भोजनका समय, शक्ति-दीनका कामोद्दीपक आहार. की सफलता, इन्द्रियों को प्रसन्न रखने के स्थान, उत्तम बेंग-निरोधसे हानि, विषयभोगके प्रयोग्य काल क्षेत्र, कुलवधूके श्रीतिक वेष-भूषा व आचरण, अपरीक्षित व्यक्ति या वस्तुका 'वे सभी पर अविश्वाससे हानि ३३१-२३५
_३३६-३४५
न
धिक लोम, भासस्य व विश्वास से इति, बलिष्ठ शत्रु - कृत आक्रमण से बचाव, परदेशगत शेषवंश प्रतिष्ठा-हीन व्यक्तिकी हानि, व्याधि-पीड़ित व्यक्ति के कार्य, धार्मिक औषधि, भाग्यशाली पुरुष, मूबोंके कार्य भयकालीन कर्तव्य, धनुर्धारी व तपस्वीका फाइदाका दुष्परिणाम, हितकारक वचन, दुष्टोंके कार्य, लक्ष्मीसे विमुख एवं वंशवृद्धि में असमर्थ पुरुष, उत्तम दान, उत्साहसे लाभ, सेवकके पापकर्मका फल, दुःख का कारण, फुलंगका त्याग कविताका प्रम, उठावलेका पराक्रम, शत्रु-निग्रहका उपाय एवं राजकीय अनुचित क्रोध से शोकसे हानि, निन्ध पुरुष, स्वर्ग-च्युटका प्रतीक, यशस्वी की प्रशंसा, पृथ्वीरामका ३३६-३४१ साररूप सुखमामका उपाय (परोपकार), शरणागत के प्रति कर्तव्य आदि गुमान शून्य नरेश, कुटुम्ब संरक्षण, परस्त्री व परधनके संरक्षणका दुष्परिणाम, अनुरक्त सेवकके प्रति स्वामी व्यस्याज्यसेवक, न्यायोचित दडविधान, राजकर्तव्य, बाके बचन, व्यय, वेष-भूषा, स्थान, कार्य-भारम्भ सुखप्राप्तिका उपाय, श्रवमपुरुष, मर्यादा-पालन, दुराचार सदाचारसे हानि-लाभ, सर्वत्र संदिग्ध व्यक्तिकी हानि, उत्तम भोज्य रसायन पापियोंको वृत्ति, पराधीन भोजन, निवासयोग्य देश, अम्मान्ध, ब्राह्मण, निःस्पृह, दुःखका कारगा, उच्चपदकी प्राप्ति, सच्चा आभूषण, राजमंत्री, दुष्ट और यापकों प्रति कर्तव्य, निरर्थक स्वामी, राजकीय सत्ययज्ञ तथा सैन्य शक्तिका सदुपयोग ३४२-२४५ २७ व्यवहार-समुदेश३४६-३५७ अनिवार्य पालन पोषण के योग्य व्यक्ति, तीर्थ- सेवाका फल, तीर्थसेवक, मित्र, स्त्री, देश, बन्धु, गृहस्थ, दान, भाहार, प्रेम,
मनुष्योंका हृद् बन्धन, बासियों की प्रकृति, तिन्य स्वामी,
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[ ] आचरण, पुत्र, शान, सौजन्य, सम्पत्ति एवं उपकार तथा नियुक्ति अयोग्य व्यक्ति, पानकी हुई वस्तु निःस्युहवा, लसू- कर्तव्य, सत्कार, धर्मे ( दान पुण्य प्रभृति) प्रकाशित न करना, दोष-शुद्धिका उपाय, धनार्जन संबन्धी कष्टको सार्थकता, नोच पुरुषोंका स्त्ररूप बन्ध चरित्र-युक्त व्यक्ति, पीड़ा जनक कार्य तथा पंचमहापातकी । ३४६-३४२ प्रयोजन दश नीचपुरुषका संसर्ग, स्वार्थीकी प्रकृति, गृहदास्त्रीके साथ अनुराग करने व वेश्या संपइसे हानि, दुराचारियोंकी चित्तवृत्ति, एक स्त्रीसे लाभ, पर स्त्री व वेश्या सेवनका स्याग, सुखके कारण, कोभ व याचनासे हानि, दारिद्र्य दोष, धनाढ्यकी प्रशंसा, जलकी पवित्रता, उत्सव, पर्व, तिमि, तीर्थयात्रा, तथा पारिवत्यका अलङ्कार, चातुर्य व लोक व्यवहार- पटुता, सज्जनवा व धीरताका स्वरूप, भाग्यशाली पुरुष, सभाकी जघन्यता, हृदयहीनके अनुरागकी निष्फलता, निम्य स्वामी, arth पे लेख सत्यता, विश्वास न करने जायक लेख, तत्काल अनिष्ट करने वाले पाप, निके स्नाथ लड़ाई करनेसे तथा बलवानका श्राश्रय पाकर उससे उदण्डता करने से हानि, प्रवाससे होने वाला कष्ट तथा उसकी निवृत्तिका उपाय ३५२-३५० ३५८-३६६
२८ - विवाद - समुद्देश
राजाका स्वरूप, उसकी निष्पक्ष समटिका प्रभाव, विधान परिषत्के अधिकारियों या सभासदों का स्वरूप एक्जीक्यूटिव कौन्सिल या पार्लियामेन्ट के अधिकारियोंकी अयोग्यता, न्यायाधीश श्री पक्षपात दृष्टिसे होने वाली हानि वाद विवाद में पराजित हुए व्यकिके लक्षण, अयोग्य सभासदों के काम, वाद विवाद में प्रमाण, और उन प्रमाणको असत्य साबित करने वाले कारण कलाप, वेश्या व जुमारी द्वारा कही हुई बात को भी प्रमाण मानने का अवसर विवादकी निष्फदा, धरोहर सम्बन्धी विवादका निर्णय, गवाहीको सार्थकता, शपथके योग्य अपराधी व उसका निर्णय होने पर दंड विधान, शपथके अयोग्य अपराधी व वनको शुद्धिका उपाय, मुद्दईके स्टाम्प वगैरह लेस और साक्षी के संदिग्ध होने पर फैसला देनेका तरीका, न्यायाधीशके बिना निर्णयकी निरर्थकता, प्राम व नगरसम्बन्धी मुकद्दमा, राजकीय निर्णय व उसकी अवहेलना करनेवाले को कड़ी सजा । ३१८-३६२ -निग्रह, सरलतासे हानि, धर्माध्यक्षका राजसभा कालीन कर्तव्य, कलह के बीज व प्राणांके साथ आर्थिक क्षतिका कारण, वाद विवाद में ब्राह्मण आदि के योग्य शपथ, क्षणिक चीजें, वेश्या स्थाग, परिग्रह से हानि, सद्दष्टान्स, मूर्खका आम एवं उसके प्रति विवेकीका कर्तव्य-प्रादि ३६२--३६६ २६--पाड्गुण्य-समुद्देश ३६७-३८६
शम व उद्योगका परिणाम, लक्षण, भाग्य- पुरुषार्थ, धर्म-परिणाम व धार्मिक राजाकी प्रशंसा, राज कर्तव्य (दासीन प्रभृति राजमंडल को देखरेख), सदासीन, मध्यस्थ, विजिगीषु कर्तव्य, शत्रुओं के भेद, शत्रुता और मित्रताका कारण, मंत्रशक्ति, प्रभु शक्ति और उत्साह शक्तिके प मंत्र शक्ति-माहात्म्य ष दृष्टान्तमाला एवं शक्ति श्रयसे व्याप्त विजिगीषुकी श्र ेष्ठता, इनसे रहितकी. जघन्यता आदि तथा षाड्गुण्य (संधि-विग्रह-मदि) का लक्षण - आदि २६७-३७५ शक्तिहीन व अस्थिर के आश्रयसे हानि, स्वाभिमानीका कर्तव्य प्रयोजनवश विजिगीषु कर्तव्य, राजकीय कार्य में विलम्बका निषेध, द्वैधीभाव, दोनों बलिष्ठ विजिगीषुओं के मध्यवर्ती शत्र, सोमाधिपति के
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प्रति विजिगीपु-कर्तव्य, शत्र को भूमि फल (धाम्यादि उपज) और भूमि देने से लाभ-हानि, चक्रवती होनेका कारण, वीरतासे लाभ, साम-प्रादि चार उपाय, सम्म नीतिका भेद पूर्वक लक्षण, दान, भेद और पंछनीतिका स्वरूप, शत्रुके यहांसे पाये हुए दुनके प्रति राज-कर्तव्य सौर इसका शान्त, शत्रुके निकट सम्बन्धोके गृह प्रवेशसे हानि, उत्तम लाभ, भूमि लामकी श्रेष्ठता, मैत्री-भावको प्राप्त हुए शत्रके प्रति कर्तव्य, विजिगीपुको निन्दाका कारण, शत्रु-चेष्टा जानने का उपाय, शत्र सिमहके उपरान्त विजिगीपका कर्तव्य, प्रतिद्वन्दी पर विश्वाम करने के साधन, शत्रु पर बढ़ाई न करनेका अवसर, विजिगीषुका सर्वोत्तम लाभ, अपराधियों के अनुग्रह-निमहसे हानि-लाभ, नैतिक व्यक्तिका सभा फर्तव्य, श्रम सर. होनेसे हानि, सभाके दोष, गृह में पाये हुए धनके बारेमें, धनार्जनका अपाय, देव नीतिका निर्णय, प्रशस्त भूमि, राक्षसी वृत्तियाले या पर प्रणेय राजाका स्वरूप, माज्ञा पालन
योग्य स्वामो, प्राम-दुषित धन तथा धन प्राप्तिक भेद ३. युद्ध-समुदेश
३०६-४०५ मंत्री व मित्रके दूपण, भूमि रक्षार्थ विजिगीष की नैतिक व पराक्रम शक्ति, शस्त्र युद्धका मौका, बुद्धि युद्ध की सोदाहरण सलता, माहात्म्य, डरपोक, भतिक्रोध, युद्ध कालीन राज-कर्तव्य, भाग्य-माहात्म्य, पलिष्ठ शत्रु द्वारा प्राकान्त राज कर्तव्य, भाग्यकी अनुकूलता, सार-प्रसार सैन्यसे साभ-हानि, युद्धार्थ राज प्रस्थान, प्रतिग्रह स्वरूप, सप्रतिपद सैन्यसे लाभ, युद्धकालोन गृष्ठ भमि. जस माहात्म्य, शक्तिशालीके साथ युद्ध करनेसे हानि. राज-कर्तव्य ( सामनाति १ दृष्टान्त ) एवं म खंका कार्य सदृष्टान्त ।
३८-३६ - प्रशस्त व्यय, त्याग-माहान्य, बलिष्ठ शव को धन न देनेका परिणाम, उसे धन देनेका मरीका, शत्रु द्वारा आकान्त राजकीय स्थिति सरष्टान्त, स्थान-प्रष्ट राजा, मर्माप्ट-माहात्म्य, दौंड साय शत्र सदृष्टान्त, शक्ति और प्रताप-होन शन सदृष्टान्त, शत्र की बिकनी-चूण्डी बातों में पानेका निषेध, नौसिशास्त्र स्वरूप, अकेले विजिगीषु को युद्ध करने तथा अपरोक्षिप्त शत्र-भूमिम जाने मानेका निषेध, युद्ध और उसके पूर्व कालीन राजकतम्य, विजयश्री प्राप्त कराने वाला मंत्र, स्त्रक कुटुम्बियों को अपने पक्षमें मिलाना, शत्रु द्वारा शत्र के नाशका परिणाम ष दृष्टान्त व अपराधी सबके प्रति राजनीति व इष्टान्त
३१-३६ - विजय प्राप्तिका उपाय, शक्तिशाली विजिगीषु का कर्तव्य और इसकी उन्नति, सन्धि करने लायक शत्र, पराक्रम करने षाला तेज, लघु व शक्तिशाली विजिगीष का बलिष्ठसे युद्ध करनेका परिणाम व एष्टान्त, पराजित शा के प्रति राजनीति, शूरवीर शत्रुके सम्मानका दुष्परिणाम, समान और अधिक शक्तिशाजी के साथ युद्ध करनेसे हानि, धर्म, नरेभ व असुर विजयो राजाका स्वरूप, असुर विजयीके प्रामय से हानि, श्रेष्ठ पुरुषके सानिधानसे लाभ, निहत्थे शत्रु पर शस्त्रप्रहारकी कड़ी मालोचना, युद्ध भ मिसे भागने वाले शत्र भोंके प्रति राजनीति तथा शत्रु भूत राजामोकी भन्य बन्दीभूत राजाओंसे मेंट मनुष्य मात्रको बुद्धि-रूप नहीका बहाव, उत्तम पुरुषों के वचनोंकी प्रतिष्ठा, सत-असत् पुरुषों के व्यवहार का नया लोको प्रतिष्ठाका साधन, नैतिक वाणीका माहात्म्य, मिथ्या वचनोंका दुष्परिणाम, विश्वासगत व विश्वासघातीको कट अजोचना, झूठी शपथका दुष्परिणाम, मैन्यकी व्यूह रचना, उसकी
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[१०] स्थिरताका समय, युद्धशिक्षा, शत्र के नगर में प्रविष्ट हानेका अवसर, कूटयुद्ध और तूष्णीय द्धका स्वरूप, अकेले सेनाध्यक्षसे हानि, ऋणा राजा, चोरतास लाभ, युद्धस विमुखकी हानि, यु द्धार्थ प्रस्थित राजा व पर्ववनिवासी गुप्तका कऽय, सेनाके चोग्य स्थान, अयोग्यस हानि ष राम-कर्तव्य ३६९-४०४ ३१ विवाह-समुदेश
४०६४१. कामसेवनकी योग्यताका समय,विवाहका परिणाम,लक्षण, नाम और देव-आदि पार विवाहों के स्वरूप, सनकी श्रेष्ठता, गान्धर्व-प्रादि विवाहोंके लक्षण और उनकी उत्तमता आदि, कन्याके दूषण, पाणिग्रहण-शिथिलताका खोटा असर, नया बधूकी प्रचण्डताका कारण, उसके द्वारा तिरस्कार और हेष-पात्र पुरुष एवं उसके द्वारा प्राप्त होने योग्य प्रणय (प्रेम), विवाह योग्य गुण, उनके न होनेसे हानि कन्या के विषयम, पुनर्विवाहमें स्मृतिकारांका अभिमत, विवाह सबन्ध, स्त्रीसे लाभ, गृह-स्वरूप कुलवधूकी रक्षा, वश्याओंका त्याग और उनके कुलागत कार्य ।
४०६-४१० ३२ प्रकीर्णक समूद्देश
४११-४२५ ___ प्रकीर्णक व राजाका लक्षण, विरक्त-अनुरक्तके चित्र, काग्यके गुण-दोष, कवियोंके भेद, कवि होने से लाभ, संगीत (गीत, नृत्य तथा पाच) गुण, महापुरुष, निन्ध गृहस्थ, तात्कालिक सुखाभिलाषियोंके कार्य, दान-विचार, कर्जा देने के कटु फन । उसको लेने वाले के स्नेहादिको भवधि, सत्यासत्य निर्णय, पापियोंके दुष्कर्म, भाग्याधीन वस्तुए', रतिकालीन पुरुष-वचनोंको मीमांसा, दाम्पत्य प्रेमकी अवधि, युद्ध में पराजयका कारग, स्त्रीको सुस्ती रखनेसे लाय, जौकिक विनय-तत्परताको सोमा, अनिष्ट प्रतीकार, स्त्रियांक प्रति मनुष्य कर्तग्य, साधारण व्यक्तिसे भी प्रयोजन, लेख व युद्ध
४११-४२. स्वामी व दाताका स्वरूप, राजा, परदेश, बन्धुहीन तथा दरिद्रके विषयमें, निकट विनाश वालेको थुद्धि, पुण्यवान, भाग्यकी अनुकूलता, कर्मचांडाल, पत्रोंके भेद, दाय भागके नियम, मतिपरिचय, सेवक अपराधका दुष्परिणाम, महत्ताका दूषणा, रतिक्रिया मंत्र साधन व माहारमें प्रवृत्त हुए पुरुषके प्रति मनुष्य कर्तव्य, पशुओंके प्रति वर्ताव, मतवाले हाथी पर आरोहण व भत्यधिक अश्व (घोडा) क्रीदासे हानि, ण न चुकाने वाले की श्रालाचना, अत्यधिक व्याधि-प्रस्त शरीरकी मीमांसा, साधु जीवन युक्त महापुरुष, लक्ष्मी-मीमांसा, राजाभोंका प्रेम पात्र व नीष पुरुष- ४१५-४२२ मनुष्यकी महत्ता, महापुरुषों की मादर्श प्रकृति, सत असन संगका असर, प्रयोजनापीका कर्त्तम्म धनाढ्य के प्रति निर्धन-कर्तव्य, सत्पुरुषकी सेवाका परिणाम, प्रयोजनार्थीको दोष-दष्ट न रखनेका संकेत, पित्त प्रसन्न करने वाली वस्तुएं, राजाके प्रति मनुष्य कसैव्य, विधार पूर्वक कार्य न करने व भूण पाकी रखने से हानि, नये सेवकको प्रकृति, प्रतिका निर्वाह, निर्धन अवस्थामें नदारता, प्रयोजनार्णका कार्य तथा पृथक किये हुए सेवकका कर्तव्य
४२२-४२५ ३३-ग्रन्धकार प्रशस्ति, अन्त्यमंगल तथा प्रात्म-परिचय
४२६-४२५
नोट-दिपत्र ग्रन्थके अंतम देखिये। --सम्पादक
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प्राक्कथन श्रीमत्सोमोवसूरि-फत नोतियाक्यामृत' वि. की ग्यारहयो शताब्दी का रचा हुभा है । इम समय राजनीति फालानुसार परिपक्वावस्था को प्राप्त हो चुकी थी । यह साधारण धारणा कि 'मापीन युग में राजनीति को कोई स्थान नहीं था और न विद्वानों की इसमें ममिचि ही थी' कोई बजनहार उति. प्रक्षोस नहीं होती । निस्सन्देह हमारा देश धर्मप्रधान रहा है और इसलिये इतिहास के मादिकाल से जो भी क्रान्तियां समाज में हुई वे धार्मिक रूपमें धर्मावरण में तथा धार्मिक मंचसे ही हुई', मनके संचालक भी धार्मिक नेता के रूप में ही हमारे सन्मुख आये और क्रांतियों में फलीभूत होने पर पनकी देवताओं की भौति पूजा भी हुई। यदि प्राचीन क्रांतिकारियों को धार्मिक परमे से न देख कर शुद्ध लौकिक दृष्टि से देखें को यह वध्य साफ दिखाई देने लगेगा और फिर राम कृष्ण बुद्ध महाबोर व शराकार्य माद सब हमें समाजके क्रांतिकारीके रूपमें ही दीखने लगेंगे उसी प्रकार जिसप्रकार कि माज महात्मा गांधी जवाहरलाल
सुभाषचन्द्र बोस भावि दिखाई देते हैं। कि जिस समय उनका बहो संभ उस समय नोक नेताओं को चाहे थे समाज के किसी भी पहल को कुएं अषियों की उपवियोंसे विभूषित किया जाता था। यह उनकी विद्वत्ता का सही सम्मान था, क्योंकि उस समय जनता-जनादेन में संवाका जितना मुल्य था। सतना अर्थ संचय का नहीं । अथे विधा के चरणों में खोटता था बड़े से बड़ा धनवान विद्वान क परणस्पर्श कर.अपना कल्याण समझता था, ऐसे ही ऋषि मुनियों में उस समय भारत के विधान मिलते.थे, जिनकी एक एक कृति अनुपम, अलौकिक तथा मौलिक रचना-युक्त होती थी।
राजनीविसमाज-शास्त्र का ही भग सदेव से रहा है और माज भी इसे समाजशास्त्र (SociolOLy) से सम्बन्धित माना जाता है। अतः यदि समाज-व्यवस्था के भादि युग में शुद्धराजनीति का कोह प्रस्थ नहीं मिलता, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं, किन्त राजनीति पर चचा ही नहीं हुई हो, विद्वानों ने इस पर कोई विचार ही नहीं किया हो, सो बात नहीं है । अव से मानवन एक समाज रूप में सामकि जीवन बिताना प्रारम्भ किया, तभी से प्रत्येक व्यक्ति और समाज के बीच कत्तव्यों पर होने लगी सथा जब से राज्य कायम हुए सभी से 'राजन् के अधिकार तथा कर्तव्यों पर विवेचना शुरू हो गई, ऐसा प्राचीन ग्रन्थों के माधार पर कहा जासकता है। 'राजन' शब्द का प्रयोग राज्यो के गठन के साथ साथ ही प्रारंभ हुभा मालूम होता है । इतिहास के धुधले युग से जिसकी जानकारी के लिये हमारे पास माज भी उपयुक्त सामग्री नहीं है, हम 'राजन्' शब्द का प्रयोग देखते हैं। किन्तु हमारे पास आज इस 11* पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं, कि हमारे देश में राजतंत्र के समानान्तर गणराज्य भी बहुत प्राचीन काल में
है। ईसवी सम् से सैकड़ों वर्ष पूर्व भी हम को अपने देश में छोटे छोटे गणराम्य मिलते हैं। पूनान के . भाक्रान्ता सिकन्दर के भारत भारोहण के समय भी पंजाब में ही मालगिक, झुबक प्रादि कई गणराज्य
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थे। लिच्छिवी भेर समता चाहिये ।
स्वयं एक गणराज्य था किन्तु उस समय के गणराज्य और आज के गणतंत्र में कुछ
उस समय के गणराज्यों में अवश्य राजा नहीं होता था, परन्तु राज्यशासन राज्य के मुखिया द्वारा होता था। आज की भांति बालिग मताधिकार की प्रणाली से चुने हुए शासनकर्त्ताओं के बारे में कोई प्रमाण नहीं मिलता । ये गणराज्य संख्या में उस समय भी कम थे पर छोटे छोटे थे। समय युद्ध और संघर्ष का था। आजानि छोटे २ राज्यों की अपेक्षा बड़े २ संगठित र स्थापित करने की चिता में
श्री
राष्ट्रहित के लिये ही था। सिकन्दर के समकालीन भारतीय राजनीतिक आयें चाणक्य ने जब गएराज्यों में शिथिलता देखो, तो उसने स्वीकार किया कि 'यह जमाना गणराज्यों का नहीं है बल्कि भारत में एक संगठित राज्यकी स्थापना होनी चाहिये, और उनकी उत्तरी भारत के गणराज्य चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा समाप्त कर दिये गये। एक विशाल साम्राज्यको स्थापना की गई। उसके बाद तत्र राज्य हो दिखाई देने लगे। यदि कुछ गणराज्य ईसा की तीसरी चौथी शताब्दी में मिलते हैं ।
एकतन्त्र राज्य स्थापना से यदि यह हम समझने लगे कि 'राजा' को मनमाने अधिकार थे और वह परमात्मा का 'प्रतिनिधि माना जाता था तो हमारी यही भृत होगी। जिस काल का हम विवेचन कर रहे हैं उस समय 'राजन' के अविकार तथा कर्त्तव्यनियत थे । इन कर्त्तव्यों का पालन न करने पर वह राउत किया जा सकता था। और राजा का चुनाव योग्यता की कसौटी पर कसा जाता था धर्म गुप्त राज्य के अंत तक 'राजन' का बहुत निखरा हुआ रूप मिलता है । और एक तरह से 'जनतंत्र' प्रणाली की साक्षात्कार होता है।
श्री० चौधरी ने भारतीय इतिहास की भूमिका मे उस युग के शासनतन्त्र के विषय में लिखा है - "इस समय ( ई० को पहली शताब्दी ) में सरकारें लोकतन्त्रीय व सुसंगठित थीं। यह सही है कि तुम समग्र राजा तथा मंत्रियों के नियन्त्र रखने के लिये कोई केन्द्रीय धारा सभा ( पार्लियामेंट ) नहीं थी। किन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि कुछ समय से शासनतंत्र का विकेन्द्रीयकरण बहुत कुछ हो चुका था । और केन्द्रका बहुत सा काम प्रान्तीय शासन द्वारा होता था । भावों में केन्द्रीय अफसरों पर लोक सभाओं द्वारा नियन्त्रण क्या जाता था और सरकारी भूमि तक भी बिना लोक सभाओं की स्वीकृति के श्रेची नहीं जा सकती थी। माम शासन एक दम लोकतंत्रीय था, जहां शासन की सारी ग्यबस्था ग्राम पंचायतों द्वारा होती थी ।
केन्द्रीय शासनतंत्र पर नियंत्रण करने के लिये भी भार्यषालय के अनुसार 'जनपद सभाएँ होती थीं और राजा को इनके मत का आदर करना पड़ता था। आर्थिक संकट के समय समाहर्ता प्रयोजन बताकर पौरजानपद से धन मांगे। राजा पौरजानपद से पाचना करे | "
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नियम-निर्माण के लिये धारासभाओं का यदि कोई प्रमाण नहीं मिलता तो इससे वह नहीं समझना चाहिये कि राजा जो नियम चाहे रच्छा से बना ये । यद्यपि आज के समान लोकतंत्रीय धारासभायें नहीं थी, तथापि नियम-निर्माण का अधिकार राजा के हाथ में नहीं था। समाजयवस्था, धार्मिकव्यवस्था तथा • राजकीय व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्त रान उपे हुए, निःश्वार्थी तथा लोककल्याणा-कर्ता विद्वान ऋषि
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मुनियों द्वारा निश्चित होत थे, जिनके वचनों पर किसी को शंका ही न हो पाती थी। और उन सिद्धान्तो या नियमों का पालन राजा सहित नारे समाज को करना पड़ता था। शंमा का स्थान सिनिय नहीं रहना भाकि अधिभुनि विद्वानों की मानवागो स कवन वही आई निका सका ये नुसार एक प्रकार में समाज की प्रावात हात थे।
राजनीनिक महाराज मनु की मनुस्मृतिमा अतिप्राचीन ग्रन्थ है जिसमें राजा तथा प्रजा के कर्तव्य एवं अधिकारों का निरूपण है और जिम आज भी-हजारों वर्षों के बाद भी प्राप्तवाणी समझा जाता है इसके अतिरिन मविप्रवर शुक्राचार्य आदि अन्य पियों ने भी अपने प्रन्थों में समाजव्यवस्था पर प्रकाश डालता है। इनके सिद्धान्तों को एक प्रकार में लिखित रूप में भारतीय कनयंशन कहा जा सकता है। जम्मृनियों द्वारा निमापित नियमों के उलङ्घन का माहम शक्तिशाली से शक्तिशाली राजा को भोन्ही हापाता था। अत: राजा पर इस प्रकार का नियंत्रशु किसी भी आधुनिक लोकसमाम अधिक काम करन वाया था। इसका प्रत्यन प्रमाण हमें 'विदेहाजनकराजा दशरथ, भगवान् राम' आदि उदाहरम मिलता है जिनका प्रादर्श अपना नब कुछ त्याग कर जनता जनार्दन को सेवा के जिय राजमुकुट धारण मारना था।
भारत का राजा भगवान का प्रतिनिधि वनकर प्रज्ञा पर मनमाने अत्याचार करनवाला राजानती थारमारा श्रादर्शनासपिया। राजा हात हा भी त्यागीऋषि, जिसकी भारी वृत्तियां कही चितन में रमती थी, कि उसकी प्रजा अधिक से अधिक स्त्राव समृद्व केमही इसलिये राजा के लिये सिताजा पालक' प्रादि सम्मान मूचक शत्रहों का प्रयोग किया गया, किन्तु उसकी स्थिति की अनिर्यात कमा नही हानदी कि यह प्रजा पर अत्याचार कर सके । आचार्य कोटिल्य न राजा के लिये भी दण्ड का न्यवस्था की है।
यह लिन्यता है - निषि व्यक्ति को दण्ड देने पर राजा को उस दण्ड स तीस गुना दण्ड दिया जाय और यह दएका धन जल में बहकर बरुणदेवता के नाम से ब्राह्मणां कीद दिया जाय । एमा करने से ठाक दण्ड देने के कारण उत्पन्न हुअा राजा का पाप शुद्ध हो जाता है । (का- अ. ४-१३॥
आज जनतंत्रवार तथा साम्यवाद का युग है।माम्यबाद का आधारभूत सिद्धान्न आविसमा. नंता है। उसका प्राथमिक तथा अन्तिम लक्ष्य रोटो कंवल राटी है । जनतंत्रवाद (आधुनिक) का आधार. भूत सिद्धान्त है राज्यसत्ता में जनता का हाथ' दोनो ही भौतिक सुख के चश्मे न जनता का सुख दखत है यही भाज के जीवन का चरम लय है, किन्तु भारतीय परम्परा इसके विम है। भारत ने. शपियों द्वारा नियन्त्रित भारत ने-कभी भी आर्थिक तथा भौतिक सिद्धि का चरम लक्ष्य नहीं माना। भूपियों ने सदैव सन्तोष, अरिग्रह तथा परहित का पाठ पढ़ाया। एसे याविक काल में सा साज विश्वमं है कटोव को व्यवस्था के पूर्ण रूप से असफल होने का एकमात्र कारता यह है कि इन कामना में वह पल, व प्रभाव, वह कतव्यभावनावही है जो समृद्धिकागे की बायो में था और त प्राधिकर Gसी समस्या विकट रूप धारण नही करता था। कोई आर्थिक संकट या अकाल पड़ने पर राजा तयात्रा पहले कि हात थेइलाजलेर खेती को निकज चड्न थ । राजा जनक नया अधान का प्रमा
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निवारण में हम बेस साधना लोक प्रसिद्ध है। अभी अभी हमारे नेता राष्ट्रपति श्री राजगोपालाचार्य ने इन-फल संभालकर एक प्रकार से प्राज से सहखों वर्ष पूर्व राज्य-धर्म का हो साक्षात् कराया था। किसी भी स्मृतिकार ने राजा को जनता से अवग करने तथा बहुत अच्न पक्तिसमझने को व्यवस्था नहीं की। यदि रामानों के सम्मान की वर्षा भी हुई है तो वे ऐसे गजा है जिनके गुण झिमी भी साधु नपस्वी से कम नहीं है। राजा के जितने गुण, कर्तव्य, विवना पाग, जनकोर का जितना सदुपयोग प जितना श्रादर्श रहन-सहन प्राचीन भारतीय विधानों में चाहा गया था, भाज तो वह सपने को बात मी लगती है। ऐसे ही भारी राम-राग्य का स्म यो 'पाप' देखते थे। ऐसी ही श्रादर्श, मधुर राजनैतिक कल्पनामों के झले में हो 'बापू' भूलते झूलते चल बसे। आज को विश्व राजनीति सधा भारतीय परंपग में सबसे बड़ा भेद है कि भारतीयपरंपरा राजनीति चारित्रियादर्श तथा मात्विकता को अपेक्षा करतो है जबकि विश्व, मिकेविनी के सिद्धान्तों (झूठ, धोखा, और गा) को Fict (मत्य) या Dipleuncy (राजनीति)कहकर राजनैतिक महत्व देता है। महाभारतकार व्यास ने कौरव-पांडव युद्ध में अधिक से भधिक संकटकालीन परिस्थिति में होते हुए भी धर्मराज युधिष्ठिर को धम-संकट में डाल दिया, जबकि उनसे पह कहा गया कि वे मिफ इतना कह दें कि 'अश्वत्थामा मारा गया। इस प्रावरण की आज के गजनैतिक प्रचार विभाग से सुलना करें, तो पाकाश-पाताल का अन्तर मालम होता है। बाज तो "Everything is fair in love and war का सिद्धान्त हो प्रत्येक राज्य का धर्म सा होगया है। यही नी, प्रत्येक देश करोड़ों रुपयों का जाय केवल इसीनिये महन करता है कि उसका देश विश्व की प्रभार दौड़ में पीछे न रह जाय | चाणक्य ने भी प्रचारको आवश्यकता का अनुभव किया था और उसने गुप्त. घर विभाग को राज्य का एक मावश्यक ग माना था 1 इससे पूर्व के शास्त्रकारी ने इस कार्य को इतना महत्व नहीं दिया मालूम होता है । 40 में समय के अनुसार राजतंत्र का रूप बिगड़ा और राजा का वह श्रादर्श न रह पाया जिसकी कल्पना स्मृतिकारी ने की थी और इसीलिये राजतंत्र सर्वत्र घृणा की वस्तु बन गया । यूरोप में तो इसके प्रति इतनी घृणा बढ़ो कि कई राजाओं को अपना सर तक देना पड़ा और उन के बाद आधुनिक जनतंत्र को भाँपो बढ़ो सका प्रसार भी हुश्रा, म्यून की नदियां भी रही, लेकिन जनता में मुख य सन्तोष भाज भी नहीं है । भनेकों प्रणालियों के प्रयोग हुए और हो रहे हैं जिन्तु कोई नुरूप राम-वाण सिद्ध नहीं हुआ। कारण यह है कि
"प कुछ और है दवा कुछ और । ई विल का माजरा कुछ और" रोग के निशान में राजनीतिक को भूल मासूम पड़ती है। विश्व की प्रशांति के निराकरण का कुछ भाभास 'बापू' के निदान में मिलता है जो सौ फी सदो भारतीय नुस्खा है । प्रस्तुत शास्त्र अवश्य मार्ग प्रदर्शन करेगा, क्योंकि यह भारतीय ऋषि की भाप्तवाणी है । इसी दृष्टि से अनुवादक महोदय के परिश्रम को श्रेय है और उनकी बहन विद्वत्ता वमा प्रचुरसान का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है, कि मनुवार में मूलप्रकार की मारमा ज्योकी स्यों बनी हुईहै। भासा कि विश्व के सत्ताधारी राजनीतिज्ञ पुराने भाषायों की प्राप्तवाणी से इस माम गठाने की पेष्टा करेंगे।
गंगाप्रसाद सिंहल भाद्र शु.वि. २००७
एम.ए. [ ४ ]
ज्ञान
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प्रस्तावना । नौतियाक्यामृत और प्राचार्य श्रीमन्सोमदेवसरि ।
ग्रन्थ परिचय। 'नं तिवाक्यामृत संकृत वाङमय-वल्लरीका अनुपम व अतिशय सुगन्धित समन है । इसके रच. बिता भाचार्यप्रवर श्रीमत्सोमदेव मूरि है, जो कि उच्चकोटि के दार्शनिक, महाकवि, धर्माचार्य व राज. नैतिक बाभुत प्रकाएट विद्वान थे। इनका समय विक्रम की ११ वीं शताब्दो का प्रथम पाद है।
इस विशाल ग्रन्थरन में मानवीय जीवन स्तर को ऊंचे उठाने वाली धर्मनीति, अर्थनीति, समाजनौतिय विशेषरूप से विशुद्ध राजनीतिका विशद व मलित विवेचन है । अर्थात् मानव संसार को अपनी मर्यादाम स्थिर रखने वाले राज्य शासन एवं उसे पल्लवित, संवद्धित एवं सुरक्षित रखने वाले राजनैतिक
वों का इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गम्भीर विचार किया गया है, अतः मन्थन किये हुए नीति ममत कोइम सारभूत मुधा- ( अमृन ) पान से हमारे पाठक अवश्य सन्तान एवं आल्हादित होंगे। मंस्कृत गसमय व सत्र पद्धति मे लिग्ये हुये इस विशाल प्रन्थ में धर्म, अर्थ, काम वरिपडवर्ग-प्रभृति नाम पाले ३२ ममुद्दश-अध्याय है, एवं प्रत्येक समुदेश में 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ॥१॥ धर्म: अमरेसविपरीतफल:' ॥२॥ इत्यादि क्रम से ५०, ११, १७, ७, भादि सब मिलाकर १५४० मन्त्र
तथा समुदेशों के नामों के अनुसार विषय निरूपित है। : . घेसे महत्वपूर्ण संस्कृत नैतिक ग्रन्थ रत्न का हिन्दी में अनुवादित होना स्वाधीनता-प्राप्त भारतीय ! बाधुनों के लिये विशेष उपयोगी था, अतः समाज व राष्ट्र के नैतिक जीवन पुष्प को विकसित करने के
दश्य से मैं ६ वर्ष की कठोर माधना के पश्चात् इसका अभूतपूर्व, सरल. विस्मृत ललित एवं भावपूर्ण हिन्दी अनुवाद १२५ पृष्ठों में पाठक पाठिका को भेंट कर सका हूँ ।
प्राचीन राजनैतिक साहित्य-- . राजनैतिक ग्रन्थों में से 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' जिसे २२०० वर्ष पहिले मौर्यवंशज सम्राट चन्द्र ग लये पाय चाणक्य ने बनाया था, राजनैतिक तत्वों से भोतप्रोत है: नन्दवंशका मूलोच्छेद
र उसके सिंहासन पर चन्द्रगुप्तको भारूद कराने वाले मार्य चाणक्य बड़े भारी राजनीतिक थे, उनकी राजनैतिक बहुत विद्वत्ता का प्रदर्शक यह 'अर्थशास्त्र' है : चाणक्य के पश्चान-कालीन एक और प्राचीन कामन्दक का नोनिसार' प्रन्थ उपलब्ध है। यह श्लोकबद्ध है, इसमें भी राजनैतिक तत्वो का अच्छा विश्लेषण है।
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ककक के 'नोखिमार' के बाद हमारी धारणा के अनुसार यह 'नीतिवाक्यामृत' मन्थ हो ऐसा बनाया गया है, जो कि तक दोनों प्रन्थों की श्रेणी में रक्खा जा सकता है, क्योंकि इसमें युद्ध राजनैतिक teaन्सों का लजित निरूपण किया गया है ।
तिनको संस्कृत टांका में उल्जिखित वृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज व गर्ग आदि नीविकारोक उद्धरणों से प्रतीत होता है कि माचार्य श्री सोमदेवसूरेि के समय तत्कालीन समस्त नैतिक साहित्य उपअन्य था और उससे वे भार्या के समान परिचित थे तथापि न ये अनुभव व नयेत्वों का सम्मि किये जाने से इसमें प्रन्थकार की स्वतंत्र प्रतिभा व मौजिना प्रत्येक स्थान में प्रस्फुटित हुई प्रतीष होत्री है।
ग्रन्थकर्ता का परिचय -
नीतिवाक्यामृत के रचयिता भाषाय प्रवर श्रीमत्सोमदेव सूरि है, जो कि दि० सम्प्रदाय में प्रसिद्ध व प्रामाणिक चार संघों में से देवलंय के माचाय थे । नीतिवाक्यामृत की गद्यप्रशस्ति व यशस्व की प्रशस्ति से विदित होता है, कि सोमदेवसरि के गुरु का नाम नेमिदेव व दादागुरु का नाम यशोदर था एवं ये महेन्द्रवेष भट्टारक के अनुज थे। उक्त तीनों महात्माओं (यशोदेव नेविदेव व महेत्र दय पर्व सोमदेव की शिष्य परम्परा के सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक सामग्री ( उनकी रचना, शिक्षा लेख प्रभृति) उपलब्ध न होने से हम कुछ निर्णय न कर सके। प्रस्तुत प्रथकार के गुरु प्रकाशक दार्शनिक थे, क्योंकि उन्होंने ६३ या ५५ बादियों को परास्त कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी प्रकार महेन्द्रदेव भट्टारक की 'वादीन्द्रकाज्ञानक्ष' उपाधि उनकी दिग्विजयिनी दार्शनिकविद्वत्ता प्रकट करती है ।
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प्रकार की दार्शनिक विद्वता-
श्री सोमदेष सुदि अपने गुरु व अनुज के सदृश उद्भट दार्शनिक विद्वान् थे क्योंकि उन्होंने अपने यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य के प्रारम्भ में कहा है कि 'मेरी बुद्धिरूपी गायने आजन्म वर्करूरी शुष्क घास खाना, उसी से सज्जनों के पुश्य से अब यह काव्यरूपी दुग्ध उत्पन्न हो रहा है'। इसी से यह बाव प्रमाणित होती कि प्रस्थकर्ता के जीवनका बहुभाग दर्शनशास्त्र के अभ्यास में व्यतीत हुआ था। इसीप्रकार 'स्याद्वादसिंह' 'बादी पंचानन' व 'तार्किक चक्रवर्ती' उपाधियां उनकी दार्शनिक प्रतिभाको प्रतीक है।
सोमदेवसूरिका महाकवित्व, धर्माचार्यत्व एवं राजनीतिज्ञता
श्री सोमदेवसूरि द्वारा विरचित 'यशस्तिलक चम्पू' महाकाव्य उनके महाकवित्व का उपलम्य प्रमाण है। इसमें महाकाव्य के समान प्रसाद माधुर्य व भोज ये तीनों गुण वर्तमान हैं, इसका मैंने मातृसंस्था ( स्था० म० काशी में अध्ययन व मनन क्रिया है, यह बड़ा अद्भुत, महाविष्ट गद्य पद्यात्मक संस्कृत काव्य प्रम्भ है, इसका गद्य भाग कादम्बरी से भी क्लिष्ट है। यह सुभाषित नीति रस्तो का आकर है। इसमें ज्ञान की त्रिशाल निधि संग्रह की गई है। माथफाव्य के समान इसके पढ़ लेने पर संस्कृत भाषाका कोई नया शब्द भवशिष्ट नहीं रहता। इसमें कुछ शब्द ऐसे हैं जो कि वर्तमान कोशप्रन्थों में नहीं पाये जाये । अवहार-पटुना व विषययुत्पत्ति कराने में यह प्रन्थ अपूर्व है। इसके सिवाय
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सोमवसरिके 'काल्खोल पयोनिधि' 'कविराज कुकर' पर्व गद्य पद्य-दिवाकआदि विशेषण हमके महाकविध के दर्शक हैं एवं यशस्विजरचम्पू के अन्तिम दो आश्वास, जिनमें उपारकाध्ययन भावाचार का पिशव विवेचन किया गया है, एवं जिसके बहुभाग का मैले नीतिवाक्यामृत के धर्म समुदेश में हिन्दी अनुवाद भी किया है, उससे पाठक स्वयं उनकी धार्मिक बहुश्रुत-विद्वत्ता का अनुभव परमे।मेरी समझ में स्वामी समन्त भद्राचार्य के रत्नकरण्डश्रावकाचार के बाद श्रावकों का मापारसाव भभी तक ऐसी अज्ञाबद्ध ब्याख्यापूर्वक ऐसी उत्तमता के साथ किसी विद्वान द्वारा नहीं दिखा गदा । इसी प्रकार मोमदेव सूरि की राजनीतिज्ञाता राजनैतिक सिद्धान्तों से ओत प्रोत इस नीवि-वाक्या. सा से पर्व पतिलक के हरे पाश्चास द्वारा जो कि राजनैतिक तत्वोंसे भरा हुआ है, प्रमाणित होती है।
- अभी तक अनाचार्यो व विद्वानों में से सोमदेव सरि के सिवाय किसी भी विद्वान् व भाचार्य ने 'राजनीतिक विषय पर शास्त्र रचना नहीं की, अतः यह नीतिवाक्यामृत' जैन पाहमय में अद्वितीय है।
प्रस्तुत भाषार्य श्री की रन्थरचना
नीसिवाक्यामृत को प्रशस्ति' एवं 'दान पात्र' से विदित होता है कि सोमदेवरि ने १-नीति पावास, २-यशस्ति लकचम्प, ३ युक्तिचिन्तामणि (न्याय प्रन्य), ४ --त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प, स्वान्दोपनिषत् पचे अनेक सुभापित इस प्रकार ६ मन्यों की रचना की है। इनमें से शुरू के दो अन्य(मीविकायत और यशस्तिलक) उपलब्ध हैं, बाको के ग्रन्थों का अभी तक कोई पता नहीं । नीतिवापासून को मस्ति में आचार्यश्री ने उक्त प्रन्योंका हजेख किया है,अत; नोतिवाक्यामृत ही मन्तिम रचना
विशाल अध्ययन एवं विचारों की उदारता--
वीखिवाक्यामृत व यशस्तिनक के गम्भोर अध्ययन से विदित होता है कि सोमदेवसरि का अभ्य. बम केका जैन कामय में ही सीमित नहीं था, परन्तु इन्होंने उपजम्प समस्त न्याय, व्याकरण, काव्य, मीकि-बादि समस्त विषयों पर अपना अधिकार जमा रक्खा था, इनमें सार्वभौम विद्वत्ता थी। पशस्तिमा अन्तिम दो पाश्वास उन को जैन धर्म पर गाद श्रद्धा के प्रदर्शक है, वापि उन्होंने शान के मार्ग को सर्वसाधारण घास उपादेय बताकर असे संकीर्ण नहीं किया था। वे व्याकरण, न्याय दर्शनशात्र
हन, जैमिति, कपिल, कणपर चावोंक व शाक्यसिद्धान्त), कमाए छन्द प प्रमशररास्त्र को तीर्थमार्ग सशसाधारण समझते थे। x
समय र स्थान
बास्तिक्षक को प्रशस्ति में लिखा है, कि चैत्र शु० १३, शक सवत ८८ (विक्रम संवत् १-१६) को रिस समय श्री कृष्णराजदेव पाण्ड्य, सिंहल, चोल व धेर भावि राजाओं को जीतकर मेलपाटी मामक सेना शिविर में थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त दिन की-जो पालुक्यवंशीय
ति: सान्दोकारा: समयागमाः । सर्वसाधारसासर्भिस्तीमार्गादव स्मृताः | मशरनजक पूर्ण
श्लोक
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भरिकेसरी के प्रथम पुत्र थे-राजधानी गंगाधारामें यह काम्प समाप्त हुभा और नीतिवाक्यमृत यशस्तिनक से भी पीछे बना है, क्योंकि नीतिवाक्यामृत को प्रशस्तिमें ग्रन्थम्तो ने अपने को 'परास्विनक' महाकाव्यका कर्ता प्रकट किया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे यशस्तिनक को समाप्त कर चुके थे।
दक्षिण के इतिहास से विदित होता है कि उक्त कृष्णराजदेव (तृतीय कृष्ण ) राष्ट्रकूट या राठोर वंश के महाराजा थे और इनका नाम अकालवर्षय।। ये अमोघवर्षे तदीय के पुत्र थे। इनका राज्य काल कम से कम शक संवत् ८६७ से ८६४ (वि० सं० १००२ से १०२६) तक प्रायः निश्चित किया है। ये दक्षिण के सार्वभौम और बड़े प्रतापी राजा थे। इनके अधीन अनेक माण्डलिक या करद राज्य थे। कृष्णराज ने-जैसा कि सोमदेव सरिक यशस्तिलक को प्रशस्ति में लिया है-मिहल, चोज पांड्य और देर राजाओं को युद्ध में परास्त किया था। इसके समय में शान्तिपुराण का कता कनड़ो भाषा का सुप्रसिद्ध जैन कवि 'पान्न' हुआ है, जो कृष्णराजदेव द्वारा 'उभय भाषा कवि चक्रवर्ती' की उपाधि से विभूपित किया गया था ।
राष्ट्रकूटों द्वारा दक्षिण के चालुक्यवंशका सावभौमत्व अपहरण किये जाने के कारण वह निष्प्रभ होगया था। अतः जबतक राष्ट्रकूट सार्वभौम रहे, तब तक चालुक्य उनके प्राज्ञाकारी सामन्त या माएडलिक राजा बनवार रहे, अतः अरिकसरोका पुत्र 'वदित ' ऐसा हो एक सामन्त राजा था, जिसको गंगाधारा मामक राजधानीमें परिवलककी रचना समाप्त हुई है। अरिक तरी के समकालीन कनदो भाषा का सर्वश्रेष्ठ जैन कवि 'पम्प' हुआ है, जिसकी रचना से मुग्ध होकर अरिकेसरी ने नसे धर्मपुर नामका गाँव पारिवारिक में दिया था। उसके बनाये हुए दो अन्य १ आदिपुराणाचम्यू' और २ विक्रमार्जुनापजय' उक्त अन्य शक सं०८६३ (वि० सं०१६ )मे-यशस्तिज्ञक से १८ वर्ष पहिले–ममाप्त हुआ है। इसकी रचना के समय परिकेसरी राज्य करवा था, तब उसके १८ वर्षयाव-प्रर्थात् यशस्तिलक की रचना के समय इसका पत्र सामन्त 'बदिग' राज्य करता होगा, यह प्रमाणित होता है । अतः नीतिवाक्यामृत बालस्य गंशीय अरिकेसरी के पुत्र सामन्त वहिग की प्रेरणा से बनाया गया था, यह निर्णीत है।
उपसंहार-ऐतिहासिक नवीन अनुसन्धान व चिन्तन-आदि पुष्कल परिश्रम व समाश्रित होते है, अतः हम उक्त प्रस्तावना में ग्रन्थ व प्रन्यकता के विषय में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से संक्षिप्त प्रकाश दास सके, आशा है कि सहृदय पाठक इसे इसी दृष्टि से पढ़ेंगे। इति शम् #
..... भाद्र शुभ वि० सं००
परा० सा० सेट तोलाराम नथमल, । लादनू (मारवाद)।
-सुन्दरलाल शास्त्री
खम्पादक उक्त प्रस्तावना में प्राचार्य श्री की गय पद्यामिक प्रशस्ति के सिपाय धी. प्रदेश विद्वदूरर्ष ५० नाथूराम जी प्रेमी के 'जैनसाहित्य और इतिहास' का भी आधार लिया है, अत: हम अयप्रेमी जी के प्रभारी है -अनुशारक
[ ८ ]
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S
श्रीममन्तभद्राय नमः
श्रीमत्सामदेवसूनि चिरचित
नीतिवाक्यामृत
का
हिन्दी अनुवाद
१. धर्मसमुद्देश
01:05
* ग्रन्थकारका मङ्गलाचरण *
मोमं सोमममाकार सोमाभं गोमसंभवम् । श्रमदेवं मुनिं नन्वा नीतिवाक्यामृतं ॥१॥
R
अर्थ:-अशय कीर्तिमान्, चन्द्रमा कान्तियु अम्मरकुलम ( अनन्तदर्शन, अनन्तमा सुख और अनन्तवीर्यरूप आत्मिक लक्ष्मी ) और बहरलक्ष्मी ( समत्रमविभूति आदि ) मे अलङ्कृत, सोमवंश (चन्द्रवंश) में उत्पन्न होनेवाले और त्रिकालवर्ती अनन्तानन्न पदको हस्तक्
की तरह प्रत्यक्ष जाननेवाले ( स ) ऐसे भी चन्द्रप्रभ तीर्थङ्करको नमस्कार करके मैं नीतिवामृत शास्त्रका प्रतिपादन करता हूं ।
१ चारों वर्ण (ह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ) तथा चारों श्राश्रमों (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, रानप्रस्थ प्रति) मैं बर्तमान जनता जिसके द्वारा अपने अपने चामत्र्तयों) में स्थापित की जाती है उसे "नीति" कहते हैं अथवा
मी के
राजा को जो धर्म, अर्थ और काम से संयोग वे उसे "नीति" कहते है । उनी करनेवाले शास्त्र में विद्यमान है हम इसे ""कते है। प्रथम इस शास्त्र के अमृततुल्य वाक्यसमूह विजयी
राजादी
-- विवe, पान और अमन श्रादे) में उत्पन्न दुई भन्ने
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* नीतिवाक्याभूत *
के अनुवादकका मङ्गलाचरण * को है माघमार्गका नेता, अरु रागादिक जंता है। जिसके पूर्णज्ञान-दर्पण में, जग प्रतिभासित होता है ॥१॥ जिसने कर्मशत्रुविध्वंसक, नीतिमार्ग दर्शाया है।
उस श्रीपादिदेवको मन, शत शत शीश मुकाया है॥२॥ अब राज्यका महत्व बताते हैं :
धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः। अर्थ:-मैं उस राज्यको श्रादरकी राष्ट्रसे देखता हूँ जो प्रजाको धर्म, अर्थ, भौर काम इन तीन पुरु पायोंको उत्पन्न करने में समर्थ है। अव धर्मका लाइण बताते हैं:
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः॥१॥ अर्थ:-जिन सत्कर्तव्योंके अनुष्ठानसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है उसे धर्म कहते हैं। समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि जो प्राणियोंको सांसारिक दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख (मोक्ष) में धारण करता है उसे धर्म कहते हैं।
भाचार्य श्रीसोमदेवसूरिने यशस्सिलकचम्पूमै षष्ठ प्राधाससे लेकर अाम भारवासपयन्न इम विषम की विराव व्याख्या की है । उपयुक्त होनेके कारण उमे यहाँ सक्षेपसे लिखते हैं :--
जिससे मनुष्यों को भौतिक-सांसारिक एवं पारमार्थिक (मोक्ष) सुख की प्राप्ति होती है उसे प्रागम के विज्ञान धर्माचार्यों ने धर्म कहा है- ॥१॥
उसका स्वरूप प्रवृत्ति और निवृत्तिाप है -अर्थात् मोक्षके साधन सम्पदर्शन आदि में प्रवृति करना और संसारके कारण मिच्यादर्शन आदिमे निवृत्त होना-नका स्याग करना यही धर्मका स्वरूप है। यह गृहस्थधर्म और मुनिधर्मके भेवसे दो प्रकारका है ।।
- सम्यग्दर्शन, सम्यगान और सम्यकचारित्र इन तीनोंकी प्राप्ति मोक्षका मार्ग है और मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और मिथ्यातप ये संसारके कारण है ।शा - युक्तिसे सिजू पदार्थों ( जीवादि मात सत्वों ) का यथार्थ श्रद्धान करना सभ्यगदर्शन है एवं उक तत्वों कामदेह भ्रान्ति और अनभ्यवसायरहित यथार्थ ज्ञान होना सभ्यरसान है
और कर्मबंधके कारण हिमा, मैंठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पापक्रियामोंका त्याग करना सम्पाचारित्र है।
अब उक्त तीनों में से केवल सम्यग्दर्शन आदि मोक्षप्राप्तिका उपाय नहीं है इसे बसाते हैं।
१ देम्बो स्लपर
लोड ।।
वो यशस्निलक पृथ्म २६८-२६६ ।
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* नीतिवाक्यामृत .*
...ममा माणियोंको केवल तत्वाधोंकी अदा (मम्यग्दर्शन) मोज्ञमाप्रिमें समर्थ नहीं है। क्या भूले मन
या मारसे अमरफल पक जाने हैं ? अर्थान नहीं एकल । र भाषा:-जिस प्रकार भूपये मनुष्य की इच्छा मात्र असफल नी पकन; किन्तु प्रयत्न पकी है। कारवायोंकी श्रद्धामास मुक्ति नहीं होनी; किन्तु मम्यक चारित्रम्प प्रयत्नम मान्य है ॥६॥
इसीप्रकार शानमात्रसे पदार्थोका निश्चय हो जाता है; परन्तु अभिलषित वनु (मोक्ष) की प्रानि
सकती; अन्यथा “यह जल है" ऐमा ज्ञानमात्र होने पर प्यामकी शान्ति हानी चाहिये | है इसीप्रकार केवल चारित्रसे मुक्ति नहीं होती; जैसे कि जन्मस प्रन्या पुरुष अनार आदिकं वृक्षार
श्री जाये तो क्या उसे हायाको छोड़कर अनार आदि फस्त प्राम हो मकत है ? अर्थान नहीं हो । असी प्रकार जीवादि सात तत्वांक यथार्थनानक बिना कंचन पानगा मात्रम मुनिश्रीकी प्रापि सकसी
ने पुरुषको शान होने पर भी चारित्र (गमन) के बिना यह अभिनपिन स्थानमें नहीं पहुँन भाव अम्बा पुरुष शानके बिना कंबल गमनादिम्प किया करके भी अभिलपिन स्थानमें प्राप्त नहीं
वीरभदाहीन पुरुषकी क्रिया और नाम सिफल होते है। इसलिये मम्यादर्शन, मम्मरमान और रिख इन तीनोंकी प्राप्तिम मुकि होसी है ॥३॥ सम्पादर्शनसे मनुश्यको स्वर्गलक्ष्मीकी प्राप्ति होती है, मम्यामानम उम्मकी कीनिफीमुदीका प्रभार
और सम्पचारित्रसे उसकी इन्द्रादि द्वारा पूजा होती है तथा मभ्यग्दशन, मम्यमान और मम्यक ले मोषकी प्राप्ति होती है ॥१०॥
जो पात्मारूपी पारा अनादिकाल मिथ्यात्वानि कर कुधातुओंक, मम्बन्धम अशुद्ध हो गया है 1 पिशुद्ध करनेके लिये सम्बग्दर्शन, मम्मान और मश्यकचारिस अन्ठा माधन है-अर्थान से वियव करनेके लिये सम्यकचारित्र अग्नि है और मम्यज्ञान उपाय है नथा मभ्यग्दर्शन (चित्तकी विशुद्ध)
सौचषि (नीवुके रममें धुटा हुश्रा सिघ्रप) है-अर्थान पर तीनोंकी प्राप्रिम. या आत्मारूपी पारा
होकर सामरिक समम्त व्याधियों को यम करने और मोच प्रात्र करनमें समर्थ होता ॥१॥ ___ मनुष्यको मन्यादर्शनकी प्राप्तिके लिये अपने चिनको विशुद्ध बनाना चाहिये । मानलस्मीको प्राविक
सालोंका अभ्याम करना चाहिये एवं मम्यकचारित्रकी प्रानिक लिये शारीरिक ऋण महन का मा, भूड, गोरी, कुशील और परिग्रह इन पाप क्रियाओंका त्याग करना चाहिय एवं न्यायम भनिन सालिको पात्रदान आदि शुभ कार्योमें लगाना चाहिये ||१०|| परमम्मदर्शनका लक्षण कहते हैं :
प्राप्त-मत्याथ ईश्वर बागम और मोक्षोपयोगी जीचादि मान तत्वोंका लोकमढ़ना बाद ५
रेमो यशस्तिनक ६ठामाश्याम ४ २२।२१नो मलकपरश्याम पृ
.
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४
* नीतिवाक्यामृत
दोसे रहित और निःशङ्कित आदि आठ अंगोसहित जैमाका तैसा - यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन जो कि प्रशम (कोधादि कपायोंकी मंदता) और संवेग (संसार से भय करना) आदि विशुद्ध परिणामरूप चिह्नोंसे जाना जाता है ॥१॥
अब आपका स्वरूप कहते है ——
आपके स्वरूपको जानने में प्रवीण शास्त्रकारोंने कहा है कि जो सर्वेश, सर्वलोकका ईश्वर-संसारका दुःखसमुद्रसे उद्धार करने वाला, सुधा और तृषा आदि १५ दोपोंसे रहित (धीतरागी) एवं समस्त प्राणियोंको मोहमा प्रस्पन्त उपदेश देनेवाला है उन ऋषभादि तीर्थकुरोको श्राप्त (समा ईश्वर) कहते हैं ||२||
* आमका स्वरूप और भेद कहते हैं :
-
जो शास्त्र मनुष्यको धर्म, अर्थ, काम और मोह इन चारों पुरुषार्थ में प्रवृत्ति कराने में समर्थ हो तथा हेय ('छोड़ने योग्य) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) का ज्ञान कराकर त्रिकालवर्ती पदार्थोंका यथार्थबोध कराने में प्रवीण हो उमे आगम कहते हैं ॥१॥
जिस प्रकार लोक में माता और पिताकी शुद्धि (पशुद्धि) होने पर उनके पुत्रमें शुद्धि देखी जाती है उसी प्रकार आपकी विशुद्धि (त्रीतरागता और सर्वज्ञता आदि) होने पर ही उसके कहे हुए आगम में विशुद्धता - प्रामाणिकता होती है अतः जो सीधेङ्करों द्वारा निरूपण किया गया हो उसे श्रागम कहा है | आगमके चार भेद हैं :
(१) प्रथमानुयोग (६) करणानुयोग (३) परणानुयोग (४) द्रव्यानुयोग
धार्मिक पुरुष जिससे अपने सिद्धान्तको भलीभाँति जानता है उस पुराण ( २४ तीर्थकुर आदि ६३ शलाका पृज्य महापुरुषों का चरित्रप्रन्थ) तथा किसी एक पूज्यपुरुषके परिभ्रमन्थको प्रथमानुयोग कहते है ||१||
जिसमें अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकका तथा नरक और तिर्यकच आदि चारों गतियाँका न किया गया है उसे करणानुयोग कहते हैं |य
"मेरा यह सदाचार ( अहिंसा और सत्य आदि व्रत ) है और उसकी रक्षा का क्रमिकविधान यह हूँ" इस प्रकार चरित्रनिष्ठ आत्मा चरणानुयोग आश्रित होती हैं ।
1, 2, kai sulmua as $jo go for + ३, देखो यशस्तिलका ६० २०६ ।
४- देखो यशस्तिक ०६०२७
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नातिवाक्यामृत *
: मीय, मजीव, धर्म अधर्म, बन्ध और मोक्षतत्वका यथार्थज्ञान होना द्रव्यानुयोगशास्त्रका फल है' शा अब पदार्थोंका निरूपण करते हैं:
जीप, अजीव, लोक ( चतुर्गतिरूपसंसार ) बन्ध तथा उसके कारण-मिथ्यात्व आदि मोक्ष और कारण (संबर और निजरा) ये पदार्थ श्रागममें निरूपण किये गये हैं। ॥१॥
क प्राप्त, आगम और पदार्थाका यथार्थ हा शरमा मादर्शन है !
साम्पमानका निरूपण करते हैं:..जो वस्तुके समस्तस्वासपको जैसाका तैमा, हीनाधिकता-रहित तथा संशय, विपर्यय और
सायरूप मिथ्याशानसे रहित निश्चय करता है एवं जो मनुग्योका तीसरा दिभ्यनेत्र है उसे : सममान कहते हैं ॥१॥
मह सभ्यहान पवित्र मनवाले मनुष्यको हितकारक और अहितकारक पदार्थोंका दिग्दर्शन कराता बाकतकी मानि और हितके परिहारमें कारण होता है इसलिये वह जन्मसे अन्धे पुरुष को लाठी
मतिमान (इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला मान ) देखे हुए पदार्थों में उत्पन्न होता है । अतहान एवथा बिना देखे हुए ( अतीन्द्रिय सुक्ष्म धर्माधर्मादि) पदार्थों में भी उत्पन्न होता है। अतएव यदि मनुष्यों का चित्त भयाभावसे दूषित नहीं है तो उन्हें तस्वज्ञानकी प्राप्ति कठिन नहीं है ॥३॥ ... बाधा रहित प्रस्तुमें भी जो बुद्धि विपरीत हो जाती है उसमें ज्ञाताका ही दोष है वस्तुका नहीं। * मन्द दृष्टि मनुष्यको एक चन्द्रमामें जो दो चन्द्रमाका भ्रम होता है वह उमद्दष्टि का ही दोष है
माया नहीं ॥४॥ ...जिस मनुध्यमें सम्यग्दर्शन नहीं है उसका शास्त्रज्ञान केवल उसके मुखकी खुजलीको दूर करता
है-मर्थान् वाद-विवाद करनेमें ही समर्थ, होना है। क्योंकि उसमें प्रात्मदृष्टि नहीं होती। एवं जिसमें शान
नहीं है उसका चरित्र धारण करना विधवा स्त्रीके आभूषण धारण करने के समान निरर्थक है ॥शा ... जो दूध जमा देनेसे दही हो चुका है, वह फिर दूध नहीं हो सकता उसी प्रकार जो आत्मा है. पानसे विशुद्ध हो चुकी है वह पुनः पापोंसे लिप्त नहीं होती ॥६॥
. शरीर अत्यन्त मलिन है और प्रात्मा अत्यन्त विशुद्ध है इमलिये वियफी मनुष्यको इसे शरीरसे लक और नित्य चितधन करना चाहिए" ॥॥
___ 'जिसकी पाणी व्याकरण, साहित्य, इतिहास और आगमोंको पढ़कर विशुद्ध नहीं हुई एवं जिसने ... नीतिशास्त्रों को पढ़कर अपनी बुद्धिको परिष्कृत और विशुद्ध नहीं बनाया वह केवल दूसरोंके सहारे रह
कर पवेश उठाना है और अन्धेक समान है ।
१, २, ३, ४, ५, ६, देखो यशस्तिलक श्रा० ६ पृष्ट ३२५ ॥
E,६, देखो वशस्तिजक श्रा०८ ३९९ | रिया शस्तक ६ ।
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* नीतिवाक्यामृत
er Harrant कथन किया जाता है.
·"
हिंसादि पापोंसे निवृत होना सम्यक्चारित्र है उसके भेद हैं।
(१) एकदेश (अणु) (२) सर्वदेश (महान)
प्रकृत के एकदेशचारित्रका निरूपण करते हैं :
श्रावकका एकदेशन्यारत्र दो प्रकारका है :- (१) मूलगुण (२) उन्नरगुण । मूलगुगा होते हैं। ar (शराब), मांस और मधुका त्याग तथा पांच नम्बर फलके भक्षणका त्याग करना ये शास्त्रों गृहस्थों के मूलगुण कहे गये हैं |१||
अत्र त्यागका विवेचन करते हैं :
मण पीने से शराबी के समस्त काम और कोधादि दोष उत्पन्न होते हैं और उसकी बुद्धि पर अज्ञानका पापड़ जाता है एवं यह मद्यपान समस्त पापोंमें अमर-प्रधान है ॥२॥
इससे हित और अहितका विवेक नष्ट होजाता है इसलिये शराबी लोग मंमार की जंगल में भटकाने बाले कौन-कौन से पाप नहीं करते ? अर्थात् सभी प्रकारके पाप करते हैं ||३||
शराब पीने से यदुवंशी राजा लोग और जुआ खेलने पांडव लोग नए हुए यह कथानक मन्त लोक में प्रसिद्ध है ||श्री
महुआ, गुड़ और पानी के मिश्रण से बनाई हुई शराब में निश्चयसे अनेक जीव उत्पन्न होते हैं और होते रहते हैं तथा शरारूप होजाते हैं। पश्चान वह शराब समय कर शराबियोंके मनको मुद्रित कर देती है ||५||
शराबकी एक बिन्दुमें इतनी जीवराशि वर्तमान है कि यदि उसके जीय स्थूल होकर संचार करने स्वर्गे तो निस्सन्देह समस्त लोकको पूर्ण कर सकते हैं ||६||
पान शराबीके मनको मूर्च्छित करना है और दुर्गनिका कारण है इसलिये सजन पुरुषको इसका सदैव त्याग कर देना चाहिये ||७||
अब दूसरा मूलगुण (मांसत्याग) का कथन करते हैं:
सजन पुरुष स्वभावसे अपवित्र दुर्गन्धित प्राणिहिंसायुक्त और दुर्गति कार मांगी किम प्रकार भक्षण कर सकते हैं ? नहीं कर सकते ||२॥
● संग्रहीत से |
जिसका मांस मैं यहाँ खाता हूँ वह मुझे भी जन्मान्तर में अवश्य ही जागा "हंसा मांस शब्दका अर्थ विद्वानोंने कहा है' ||१||
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हैं नीतिवाक्यामृत *
- जो लोग अहिसाधर्मक माहात्यम लोकमें सुखसामग्री का उपभोग करते हैं तथापि ये उससे और
त में यह उनका बड़ा अज्ञान है। क्योंकि कौन बुद्धिमान पुरुष इञ्छित वस्तुको देनेवाले कल्पवृत्तसे करता है ? अर्थान नहीं करता ।।
यदि बुद्धिमान पुरुष दोडामा कलेश उठाकर अपने लिये अच्छी तरह सुखी देखना चाहता है वो सस
यो कि जिस प्रकारफे व्यवहार (मारना विश्वासघात करना प्रावि) वह अपने लिये बुरा समझता से ज्यबहार दूसरों के साथ न कर ।।३।।
जा विक्की पुरुष दुमरीका उपधान (हिसा) न करके अपनी सुखसामग्रीका उपभोग करना पाहता
इस लोकमें सुख भोगता हुआ जन्मान्तरमें भी मुखी होता है ।।शा . .. . जिस प्रकार समस्त प्राणायाको अपना जीवन प्यारा है उसी प्रकार दूसरोंको भी अपना जीवन प्यारा । बुद्धिमान एरुषको जीवहिसा छोड़ देनी चाहिये ॥५॥
पुद्धिमान पुरुष शराबी और मामभदी मनुष्यों के गृहोंमें भोजन और पान न करे एवं उसके साथ मनसा (सलाह) भी न कर ॥३॥
जो मनुष्य अप्रतियां-(मांस आदिफा त्याग न करने वाले) से भोजनादि कार्योमें संसर्ग रखता है अमकी इसलोकमें निन्दा होती है और परलोक में भी उसे फटुफल भागने पड़ते हैं। . प्रती पुरणको मशक वगैरह चमड़ेकी चीजों में रक्खाहुआ पानी, चमड़ेकी कुप्पियों में रक्या हुआ धी और तहका भी उपयोग करना सदाके लिये छोड़ देना चाहिये । एवं वह अवती कन्या नोंसे विवाह प्रादि मंसर्ग न करे ।।८।।
. प्रात्मकल्याणके इछुक मनुष्योंको बौद्ध,सांख्य और चार्वाक आदिकी युनिशम्य मान्यता पर ध्यान नते हुए सदाफे लिये मांसभक्षणका त्याग करना चाहिये
निरषयसे एक प्रमच्छ जोकि स्वयंभूरमण नामके समुद्र में महामन्छके कर्णविलमें उत्पन्न हुमा था बह मांसभक्षण रूप प्रातभ्यानसे नरकमें उत्पन्न हुआ। अंग मधु और पाँच नम्बर फर्लोका त्याग बताते हैं:" .. सनन पुरुष, गर्भाशयमें स्थित शुक्ल और शोणितके सम्मिश्रणके तुल्य मालिकाले मधुको, जो कि शारकी मल्सियों तथा उनके छोटे-छोटे बचोंके घातसे उत्पन्न होता हैकिस प्रकार सेवन करते हैं ? नहीं कामकते ॥१॥
जिमके मध्यभागमें छोटे-छोटे मक्खियोंके बच्चे भिनभिना रहे हैं ऐसे शहदके छत्तेमें वर्तमान मक्खिायो भएटोंके खंडोंसे युक्त मधु बद्देलियों और चिड़ीमारोंके लिये प्राणों के समान प्रिय कैसे हो गया। यह मारपर्यकी बात है ।। पीचन, गूलर, पाकर, 4 और ऊमर इन पांच उनम्बर फोमें स्थूल अस जीव उपते हुए दिखाई
. .- .... --- यानक यशस्तिलक से जानमा बाहिये। २.सोशस्तिला
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* नीतिवाक्यामृत *
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देते हैं क्या अनेक सूक्ष्म जीय भी आगमप्रमाणमे मिद्ध पाये जाने हैं। इसलिए नैनिकरुप इनका यावतो. घन त्याग करे ॥३॥ अब भावकोंके उत्तरगुणोंका निर्देश करते हैं। :--
५अमानत (अहिंसा, मत्य, अनीम, ब्रह्मचर्य और परिप्रहपरिमाणाणुनत), ३ गुणन (दिन. देराकत, और अनर्थदंडवत) और ५ शिक्षाबत (मामायिक, प्रोपयोषवाम, भोगावभागरिमा और पात्रदान) ये श्रावकोंके १८. उत्तरगुण है, ॥१क्षा
उनमें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिप्रा इन पांच पापोंक एकदश त्यागको अगुवन कहते हैं ।सा
प्रशस्त कार्यों (अहिंसा आदि ) में प्रनि करना और अप्रशन्न कार्यो ( हिंमा आदि ) का स्याग करना उसे व्रत कहा गया है ।।३।।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिवार इन पाक्रिया में प्रवृनि कानंग इम लोकमे भयान'. दुःख और परलोकमें दुर्गेतिके दुःग्य भोगने पड़ने है । अब अहिंसाणुव्रतका कथन करते है :
काम और क्रोधादि कपायोंके वश होकर प्राणियोंक प्राणांका यान करना या उन्हें मानसिक पीड़ा पहुंचाना हिमा है । इसके विपरीत रागद्वेप और माह आदि कपायाको त्यागकर प्राणियोंकी पना करना और यत्नाचाररूर प्रवृनि करना अहिमा है ।।४॥
जो मनुष्य देवताओं की पूजा, अतिश्रमार, पितृकम गचं साटन और मामा श्रादिक मन्त्री लिय तथा औषधि सेवनमें और मयाम बचने के लिये किसी भी प्राणीकी हिंमा नहीं करना उमा २४ अहिंमानाम अगुवन है ।।६।।
दयालु पुरुप झामन, शय्या, माग, अन्न श्री जो कुछ भी मर पदार्थ है नई येथन कता.' भी बिना नंग्य शोध संबन न करे |
गृह के कार्य (कूटना और पीमना आदि) इन्त्रभाल करके करान चाहिय और ममम्न न पहा (दूध, घी, मेल और जलादि) कपड़ेसे छानकर उपयोगी जाने चाहिये ||
विवेक मनुष्य अहिंसातकी रक्षा के लिये और मृत्वगुणांकी विशुद्धिक लिये इस नोक, और पा. लोकमें दुःखदेनेवाले रात्रिभोजनका त्याग को ||
व्रती पुरुष अनेक जीवोंकी योनि अचार, पत्ता बाली शाम, घुणा हुआ अन्न, पुष्प, मूल और पद
पीपल आदि उनम्बर फलोंका सेवन न करे एवं प्रमगशिमे व्याव (मोना आदि ) का भक्षण न करे ॥१३॥ - कोई मी पदार्थ चाई यह अमित्र हो या मित्र याद बह अपने योग्य काल और पवित्र क्षेत्री मर्यादाको छोड़ चुका है तो वह अभय है ।।।।
देखो यानल प्रा. पृ.3:
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* नीतिवाक्यामृत
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जो व्यक्ति बहुत आरम्भ और परिग्रह रखता है, दूसरों को धोखा देता है और दुराचारी है वह हंस ( दयालु ) किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता ||१३||
शाकाने पुण्यको प्रकाशरूप और पापको अन्धकाररूप माना है इससे जिसके हृदयमें दयारूपी सूर्यका प्रकाश हो रहा है उसमें अन्धकाररूपपाप क्या रह सकता है ? नहीं रह सकता ||१४||
अहिंसा धर्म के माहात्म्यसे मनुष्य दीर्घजीवी, भाग्यशाली, धनाढ्य, सुन्दर और यशस्वी होता है ||१५|| अब सस्यागुतका' निरूपण करते हैं
सत्यवादी मनुष्य प्रयोजनसे अधिक बोलना, दूसरोंके दोषोंको कहना और असभ्य वचनोंका बोलना छोड़कर सदा उचकुलको प्रगट करनेवाले प्रिंथ, हितकारक और परिमाणयुक्त वचन बोले ॥१॥
ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिये जिससे दूसरे प्राणियोंको और उसे भयानक आपत्तियोंका सामना करना पड़े |२॥
सत्यवादीको सौम्य प्रकृतियुक्त, सदाचारी, हितैषी, प्रियवादी, परोपकारी और दयालु होना चाहिये ||३||
भेद ( दूसरोंके निश्चित अभिप्रायको प्रकाशित करना) परनिन्दा, चुगलीकरना, झूठे दस्तावेज आदि सिखाना और झूठी गवाही देना इन दुर्गा गोंको छोड़ना चाहिये क्योंकि इससे सत्यत्रत न होना है ||४||
जिस वाणी से गुरु आदि प्रमुदित होते हैं वह मिया होनेपर भी मिथ्या (झूठी नहीं समझी जानी ||५| सत्यवादी आत्मप्रशंसा और परनिन्दाका त्यागकर दूसरोंके विद्यमान गुणोंका घात न करता हुआ अपने विद्यमान गुणोंको न कहे ||६||
क्योंकि परनिन्दा और आत्मश्लाघा मे मनुष्यको नीचगोत्र और उसका त्याग करनेसे उच्चगोत्रका बंध होता है
जो व्यक्ति दूसरों के साथ सद्व्यवहार करता है उसे स्वयं वैसा ही व्यवहार प्राप्त होता है; अतएव fas मनुष्यको प्राणीमात्रके साथ कभीभी दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिये ||
जो मनुष्य दूसरे प्राणियों में अज्ञानविकारका प्रसार करते हैं वे स्वयं अपनी धमनियों में उसके प्रवाह सिवन करते हैं ॥६॥
लोकमें प्राणियों के चित्तरूपी वस्त्र जब दोषही जलसे व्याप्त होते हैं तब गुरु ( वजनदार - पानी) होजाते हैं। परन्तु जब वे गुरूपी गर्मीसे युक्त होते हैं तब लघु (सूक्ष्म- पुण्यशाली) हो जाते हैं ||१२||
सत्यवादी पुरुषको सत्यके प्रभावसे वचनसिद्धि प्राप्त होती है एवं उसकी वाणी मान्य होती है ।।११।। ओ मनुष्य अपनी इच्छा, ईर्ष्या, क्रोध और हर्षादिकके कारण झूठ बोलता है वह इस लोक में जिह्वाछेदन आदिके दुःख और परलोक में दुर्गेतिके दुःग्योंको प्राप्त होता है ||१२||
और धर्म free में प्रवृत्त हुए मनुष्य को इसलोक में अमिट अपकीति और परलोकमं चिरकालीन दुर्गतिके दु:ख होते हैं ||१३||
१ देखो यशस्तिलक श्र० ७ ।
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* नीतिवाक्यामृन
वमुराजाने पवंतनामक व्यनिहाथ डाला मागापर लिया था इससे वह भार अग्नि और भयमे व्याप्त नरक भूमिको प्राप्त हुभा ॥१४॥
इनि सस्यावनिरूपणम् अब अचौर्यायतका' निम्पण करते हैं।
मर्वसाधारणके उपयोग पानेवाले जल और मृण वगैरह पदार्थोको छोड़कर काम और क्रोधादि पाययश दुसरोके धन को बिना दिया हुचा ग्रहण करना चोरी है ॥१॥
कुटुम्मियोंकी मृत्यु हो जानपर उनका धन बिना दिया हुआ भी प्राह्म है। इसके विपरीत जो लोग जीवित कुटुम्मियोंके धनको लोभवश बिना दिया हुश्रा प्रहण करने हैं उनका अचौर्शणुव्रत नष्ट हो जाता है। ___बजाना और म्बानिका धन राजाको छोड़कर अन्यका नहीं हो सकमा; क्योंकि लोकमें जिम धनका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही समझा जाता है॥शा ___ मनुष्योंका स्वयं कमायाहुआ धनभी जब मंदिग्ध ( यह मेरा है अथवा दूसरेका है ? इस प्रकार संदेह युक) हो जाता है तब उम्मको दमरोंका ममझना चाहिये। अत: अचौर्या गुप्रती पुरुपको अपने कुटुम्बके धन को छोड़कर नरेफे धनको बिना निया हुआ ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥४॥
इसी प्रकार उसे मन्दिर, जल,मन और पहा आदि में पड़े हुए दूसरोंके धनको प्रहण नहीं करना चाहिये ॥४॥
नापने और नोलनेके बाँटोंको कमती या बदती रखना, चोरी करने का उपाय बताना, चोरोंके द्वारालाई हुई वस्तुका प्रहण करना और लड़ाई झगड़ाकर के धनका ममहकरना इनमें श्रचौर्यागुणत नष्ट होता है ||६||
जिनका अधौर्याणुप्रत विशुद्ध है उन रत्न, रमाङ्ग, स्नीरत्न, और रत्नजदित वस्त्रादिविभूतियां विना चितवन किय प्राप्त होती है | ___जो लोग नृष्णासे मलिनयुद्धियुन होकर दूसरोंकी चोरी करते हैं उन्हें ऐहिक और पारलौकिक फष्ट होने हैं।॥ ८ ॥ अन्य ब्रह्मचर्याणुव्रतका' कथनकरनेई :
. इति प्रचार्यायनिरूपणम् अपनी ग्त्रीको छोड़कर दूसरी समग्स स्त्रियों में माता, बहिन और पुत्रीकी मुसि होना प्राचर्यागुनत है ॥१॥
प्राथर्याणुव्रतकी रक्षाकी मानेपर अहिंसा और सत्य आदि गुण वृद्धिको प्राप्त होते है इसलिये इसे अध्यात्मविद्याविशारदोंने ग्रामचर्य कहा है ||२|| ___ प्रद्राचारीको कामोद्दीपक चरित्र, रस, और कामोद्दीपक शास्त्रों (काममूत्र प्रभृति) से अपनी आत्मामें कामविकारकी उत्पत्ति नहीं होनी देनी चाहिये ।।३।।
जिस प्रकार हयन करने योग्य हव्यों (पी और धूप आदि) से अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती एवं बहुत जलमे समुद्र मन्तुष्ट नहीं होता रमी प्रकार यह पुरुष भी मामारिक भोगों (स्त्री भादि) मे मंतुष्ट नहीं होना ।। १।।
१, २ ic ।
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* नीनिवाम्यामन *
- स्त्री प्राति पंचेन्द्रियोंके विषय विपफलक ममान नन्कालमें पुरुयोंको मां मातम पड़ने है परन्तु अन्न में विपतिरूपी फलोंको देते हैं: इलिये सजनाको इनमे क्यों श्रानान, दानी चाहिये ? अथान मी होनी चाहिये ॥५॥
अनन्तवीर्यको धारण करनेवाला यह मनुष्य अत्यन्न कामसवनम नमक हो जाताहै ॥६॥
अत्रक्क यह कामरूपी अग्नि मनुष्य के चित्तरूपी इंधनमें प्रदीप होता है तबतक उममें स्वाध्याय, अमध्यान और धार्मिक क्रियाएँ किम प्रकार उत्पन्न हो सकती है ? नहीं हो सकी है।
इसलिये कामतत्परताको छोड़कर न्यायमान भागोंको भोजनके ममान शारीरिक दाहकी शान्तिक हेतु और खोटे ध्यानको नए करनेक लिये सेवन करना चाहिये ।।८।। ... परस्त्रीक यहीं भान जाना, कामवनक निश्चित अङ्गीको छोड़कर दमा अङ्गामे कीड़ा करना, इसरोका विवाह करना, काममेबनमें नीनालमा रखना और विटल्य य पाँच ब्रह्मचर्यको नष्ट करने हैं ।।६।।
कामरूपी अग्निसे व्याप्त और परस्त्रीमें अनग्न नियोको इमलोकर्म तत्कालीन और परलोकभी भयानक विपत्तियाँ भोगनी पड़ती है ॥१०॥
. प्रापर्य के प्रभावसे श्राश्चर्यजनक श्वर्य, उदारना, बारला, धैर्य, मौन्दय और विशिमशान आदि गुप प्राप्त होते हैं ॥११॥
॥ इति ब्रह्ममयाणवतनिरूपणम् ।। अब परिमापरिमाणाणुमतका फशन किया जाना है :--- 1. बाब तथा श्राभ्यन्सर वस्तुओंमें "यह मेरी है। इस प्रकारकी मृगछा करना परिघट है उसमें मनुष्यको अपनी चित्तवृत्ति संकुचित-सीमित करनी चाहिय ॥६॥
क्षेत्र, धान्य, धन, गृह, कुप्य (तांबा आदि धातु ), शण्या, आमन, विपद, मनुष्पट ( पशु ) और भार, ये दराप्रकारके बाह्य परिमह हैं ।।२।। - मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, Kषेद, नपु'सकवेद, हाम्थ, रति, अनि, शोक, भय, जगुप्मा, क्रोध, मान, माया और खोम बह १५ प्रकारका अन्तरङ्ग परिग्रह है ३॥
___ जो लोग धनके लिये अपनी बुद्धिको प्रेरित कान हैं उन मनोरथ निष्फल होने हैं: क्योंकि निर्थक कार्याने प्रवृत्त हुई युद्धि फलार्थी पुरषोंकी कामनाका पूर्ण करनेवाली नहीं होती ।।५।। _जबकि माथ उत्पन्न हुआ यह शरीर भी नित्य रहनवाला नहीं है तत्र महापुरुषोंको धन, बच्च और नियोंमें नित्य रहनेकी श्रद्धा क्यों करनी चाहिय ? अर्थान नहीं करनी चाहिये ।।४।।
जो मनुष्य दानपुण्यानिधर्मके लिये और न्यायपास भोगों भोगना लिये धन नहीं कमाना यह नाग होकरके भी दरिद्र है, मनुष्य होकरके भी अधमकोटिका मनुष्य है।
जो लोग प्राप्त धनमें अभिमान नहीं करने तथा धनकी प्रामिमें चान्छा नहीं कान व दोनों लोकोम मामी थामी होते हैं
*
भनक पृ. ३१ में ।
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* नीतिवाक्यामृत *
जिनका मन याहा और श्राभ्यन्तर परिग्रहोंमें मृच्छोरहित है वे अगण्य पुण्यराशिसे युक्त होकर मयंत्र मुम्ब प्रान करते हैं |
जो उदार मनुष्य सत्पात्रोंको दान देता हुआ धनसंचय करना है वह अपने साथ परलोकमें धनको ले जाता है। इससे लोभियोम महालोभी है ।।१।।
जो लोभवश परिमाण किये हुए, धनसे अधिक धन संचय करता है उसका यह प्रत नष्ट हो जाना है ।।१।।
ओ मनुष्य जानो प्रकार परिग्रहामें लालसा नहीं रखते वे क्षणभरने स्वर्ग और मोजलक्ष्मीके केशपाश पकड़नेम या उसके पाश्वभागमें रहनको समर्थ होते हैं ।।१।।
धनकी अधिक श्राकाँक्षा रखनेवालोंका मन अवश्य ही पापोंका संचय करता हुआ उन्हें संसाररूपी भंवरों में फंसा देता है ।।१३।।
॥ इति परिग्रहपारमाणाणप्रतनिरूपणम् ।। श्रब ३ गुणवतोंका' निरूपण करते हैं :
गृहस्थतियोंके दिग्नान, देशत्रत और अनर्थदंडनत ये तीन गुणवत सजनोंने निर्दिष्ट किये हैं ॥११॥
गुणत्रती श्रावक "दशों दिशाओंमेंसे अमुक दिशामें और समस्त देशोंमेंसे प्रतिनियत देशमें ही मंग गमन होगा" ऐसा क्रमशः दिग्बत और देशबनमें नियम करता है ।।।।
इम प्रकार दिशा और देशका नियम करनेत्रालेका चित्त अधिसे बाहिरके पदामि हिमा, लोभ और उपभोग आदिका त्याग हानके कारण कायम हो जाता है ।।३।।
उक्त प्रतकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनेवाले प्रती श्रावकको परलोकमै प्राज्ञा और ऐश्वर्य प्राप्त होते है ।। अब अनर्थदंडननका निरूपण करते है :--
मयूर, मुर्गा, वाज, बिलाव, सर्प, नौला, विष, काँटे, शस्त्र, अग्नि, चाबुक, जाल और रस्सी इन हिमक प्राणियों के पालनेका और कप्रदायक चीजोंके रखनका पापयुक्त उपदेश देना, खोटा ध्यान करना, हिमाप्रधान क्रीड़ा करना, निरर्थक कार्य करना, दूसरोको कष्ट देना, चुगली करना, शोक करना और दुमगेको रुलाना एवं इसी प्रकारके दूसरे कार्य जो क प्राणियोंका बध, अंधन और संरोध करनेवाले है उनका करना, कषायोंकी वृद्धि करनेसे अनर्थदंड कहा गया है ॥१-६-३।।
अपने पापारको उत्तम बनानेकी युद्धियुक देशप्रती श्रावक निर्दयी जीवोंका पालन न करे एवं परशु और कृपाण प्रादि हिमाके उपकरणोंको न देवे ||
अती प्रावक इसके माहात्म्यसे अवश्य ही समस्त प्राणियोंकी मित्रता और उनके स्वामित्वको आन होता है ||शा
खोटा उपदेश देकर दुसरीको धोग्या देना, निर्थक, प्रारंभ और प्राणिहिसामें प्रवृत्ति करना, घोड़ों श्रादि पर अधिक बोझ लादना और अधिक कर देना ये पाँच कार्य अनर्थदंवतको नष्ट करते हैं ॥६॥
॥ इनि गुणवननिरूपणम् ||
१,२ यशस्तिलक प्राधारने
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* नीविवाक्यामृत के
१३
र शिक्षाप्रसोंका' निरूपण करते हैं :-- सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगनियम और पायदान यह चार प्रकारका शिक्षात्रत है ॥१॥
मामाकी उमति चाहने वाले श्रावकों को ईश्वर भक्तिका उपदेश "समय" कहलाता है एवं उसमें मारिज कियाकाण्ड (प्रस्तावना और पुराकर्म आदि) को शास्त्रकारोंने “सामायिक" कहा है।
लोकमें साक्षात् ईश्वर-तीर्थकरके न होने पर भी उसकी मूर्तिको पूजा पुण्यबंधके लिये होती है। माकी मूर्ति सर्पके विपकी मारण शक्तिको नष्ट नहीं करती ? अवश्य करती है ।।३।।
जो व्यक्ति देवपूजा और साधुओंकी सेवा न करके गृहस्थ होता या भोजन करता है वह उत्कृष्ट भामधिकारका भक्षण करता है ।।४।। अब मोषधोपकासका' निरूपण करते हैं:
स्पेक मासमें वर्तमान दो अष्टमी और दो चतुर्दशी पर्वोको "प्रोषध" कहते हैं । अती श्रावरको उनमें देवपूजा और उपवास आदि तोका पालन करके अपनी धार्मिक उन्नति करनी चाहिये ॥१॥ __उपवास के दिन उसे म्नान, गंध, अंगसंस्कार, वस्त्राभूषण और स्त्रीमें आसक्ति न करके समस्त भापलियामोंका त्यागकर चारित्र पालन करनेमें तत्पर रहना चाहिये ।
क्योकि जो पुरुप बहुत प्रारम्भमें प्रवृत्ति करता है उसका कायक्लेश हाथीके नानकी सरह दिया है ॥३॥ ... कायम्लेश (उपवासादि) के बिना आत्माकी विशुद्धि नहीं होती ! क्या लोकमें सुवर्णपाषाणकी विवाडि लिये अग्निको छोड़कर अन्य कोई साधन है ? अर्थात् नहीं है ॥४॥
जो पुष्पशाखी पुरुष अपने चित्तको चरित्रपालन द्वारा पवित्र बनाता है उसने अपने कर कमलों में चिन्तामणिरत्न प्राप्त कर लिया और दुःस्वरूपी वृक्षको जलानेके लिये दावानल अग्नि प्राप्त करती ॥५॥ अब भोगोपभोगपरिमाण-तका निर्देश करते हैं :
जो अन्न आदि पदार्थ एकबार भोगा जाता है उसे भोग और जो वस्त्र और स्त्री आदि पदार्थ पार र सेवन किये जाते हैं, उन्हें 'उपभोग कहते हैं ॥१॥
धार्मिक मनुष्यको अपने चित्तकी तृष्णाकी निवृत्तिके लिये उनका परिमाण करना चाहिये और प्राप्त और योग्य भोगोपभोगसामग्रीके सेवनका नियम समयकी मर्यादासे कर लेना चाहिये ।। ___ यावजीवन और परिमितकालपर्यन्त त्यागको क्रमसे यम और नियम कहते हैं ।।३।।
इसनतको पालनकरनेवाले पुरुषको इसलोकमें लक्ष्मी और परलोकमें स्वर्गश्री प्रान होती है और परचाह मुक्तिश्री भी दूर नहीं रहती ॥४॥ पात्रदानका निरूपण, इसी धर्मसमुद्देशके १० चे सूत्रमें किया जायेगा।
॥ इति शिवामत निरूपणम् ।। भब उम. सूत्रका युक्तिपूर्वक उपसंहार करते हैं :
१-२ यशस्निलक प्रा.
से|
* यशस्तिलक से।
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* नीतिवाक्यामन *
सत्वार्थश्लोकवानिक (धक ५० कारिका २४५-२४६) में प्राचार्यश्री विधानन्दि लिम्बने हैं कि जिम प्रकार आरके निदान-प्रतिनियतकारणों (वात, पित्त और कफकी विषमता आदि) का ध्वंस उसको नए करने वाली औषधिके सेवनसे होजाता है उसीप्रकार मुमुनु प्राणीमें भी मामारिक व्याधियोंके कारणों (मिथ्यात्य, अहान और असंयम) का ध्वस भी उनकी औषधि सेवनसे-अर्थान सम्यग्दर्शनझानचारित्रकी सामथ्र्यसे होजाता है । ऐसा होनेसे कोई भामा समान दलोंगी नियतिर मोनणय कर लेता है। इसलिये जिन सत्कर्तव्यों ( उक्त सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ) के अनुष्ठानसे मनुष्यको स्वर्गश्री और मुनिश्रीकी प्राप्ति होती है उसे धर्म कहा गया है ।। १ ॥ अब अधर्मका निर्देश करते हैं :
अधर्मः पुनरेतद्विपरीतफलः ॥२१॥ अर्थ :-जो दुष्कर्म (मिथ्यात्व, प्रज्ञान और अर्सयम-मद्यपानादि ) पारियों को स्वर्ग और मोहम विपरीत फल-नरफ और तिर्यञ्चगतिके भयानक दुःख उत्पन्न करते हैं उन्हें अधर्म कहा है। नारदने' भी उक्त बातका समर्थन किया है :
कौलों (नास्तिकों ) ने मद्यपान, मांसभक्षण और परस्त्रोमेवन आदि दुम्कोको धर्म माना है: परन्तु उनसे प्राणियोंको नरकोंके भयानक दुःख होते हैं अतएव विक्रियोंको उनसे दूर रहना चाहिये ।।२।। विशद विवेचन :
शास्त्रकारोंने' मिध्यात्य, अज्ञान और मसंयमरूप असत्प्रवृनिको ममस्त दुम्बाका मुलकारमा बताया है और यही अधर्म है; अतः उससे निवृत्त होनेके लिये उक्त मिथ्यात्वादिका क्रमशः विवेचन किया जाता है। (१) मिथ्यात्वका निरूपण:
भात, मागम और मोक्षोपयोगी तत्वों में श्रद्धान न करना सो मिथ्यात्व है। अथवा बानाय श्री यशस्सिलक में लिखते है-जिन रागी, द्वेषी, मोही और अज्ञानी अक्तियों में सत्यार्थ ईस्वर होनं शेय सद्गुण (सर्वज्ञता और वीतरागता आदि ) नहीं हैं उनको देव -श्वर मानना तथा मापान
१ तथा च नारद :--
मयमांसाशनासँगैर्यो धर्मः कौशसम्मतः । केवल नरकाय नस कार्यों विवेकिभिः ॥२॥ १ देखो रहनकरण श्लोक। २ देवे देवताइद्धिमत्रते बतभावनाम् ।
श्रतत्वे तत्वविज्ञानमतो मिथ्यात्वमसूजेत् ।।शा तथापि यदि मुहवं न त्यजेत् कोऽपि सर्वथा। मिन्यात्वेनानुमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दर माशा
-पशस्तितके मोमदेवसरिः ।
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* नीतिवाक्यामृत
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और मांसभक्षण चाहि दुराचारीको सदाचार समझना एवं प्रतीतिवाधित तत्वोंको मोक्षोपयोगी तत्व समझना यही मिध्यात्व है विवेकीको इसका त्याग करना चाहिये ॥१॥
तथापि जो इस मृदुताको नहीं छोड़ता वह मिध्यादृष्टि है उसे अपना सर्वनाश करना नहीं ||२||
उदाहरणार्थ:--नदी और तालाब आदिमें धर्म समझकर स्नान करना, पत्थरोंके ढेर लगाने में धर्म मानना, पहाड़से गिरने तथा अग्नि में जलमरने में धर्म मानना, राग, द्वेष और मोहयुक्त देवताओंकी पुत्रादिकी बाहसे उपासना करना, संसारमें घुमाने वाले दम्भी और पाखण्डियोंका सत्कार करना, महके समय सूर्य और चन्द्रमा श्रादिकी पूजा के निमित्तसे स्नान करना, गौको अनेक देवताओंका निवास मकर पूजना तथा उसके सूत्रको पीना, हाथी घोड़ा और रथादिककी पूजा करना, और पृथ्वी, यक्ष, और पहाड़ोंकी पूजा करना इसे मिध्यात्व समझना चाहिये। जो व्यक्ति उक्त मिध्यात्व में प्रवृत्त होता हम दोनों लोकोंके सुखोंसे वचित रहकर अपना सर्वनाश करता है।
(२) का कथन :
सिधर्मका निरूपण करनेवाले आगमप्रन्धों ( प्रथमानुयोग और करणानुयोगादि ) तथा और चारित्रको दूषित न करनेवाले लोकोपयोगी कलाओंके समर्थक शास्त्रोको छोड़कर मद्यपान असत्प्रवृतिके समर्थक शायका पद सुनना आदि अज्ञान है उसे महाभयानक
दुःखका कारण समझकर त्याग करना चाहिये । (1) असंयमका निरूपण :
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, यह असंयम है और यह प्राणीको इस लोक तथा परलोक में दुःख देनेवाला है। इसके ३ क्षेत्र है- (१) मानसिक, (२) वाचनिक और कायिक |
(१) मानसिक असंयम :--
अपनी मिता, पूजा, कुल, जाति और वन आदिका अभिमान करना, दूसरोंके गुणों या सम्पत्ति wife पड़ती देखकर उनसे ईर्ष्या करना और दूसरोंका बुरा चितवन करना आदि मानसिक ( मनसे पैदा होनेवाला ) असंयम है ।
(E) बावनिक असंयम :--
दूसरोंके मर्म को भेदन करनेवाले, असत्य, असभ्य और अप्रिय ( कठोर ) वचन बोलना या आगमसे विरुद्ध प्रलाप करना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा और खुगली करना आदि वाचनिक ( वचनसे पैदा होनेवाला) असंयम है।
(३) कायिक असंयम :
प्राणियों की हिंसा करना, कुशील, चोरी और जुआ खेलना आदिको कायिक असंयम कहते हैं । शास्त्राने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच पाप, प्रमाद ( कुशल क्रियाओं में
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र नीतिवाक्यामृत *
PROmni.
randu..
अनादर ) निदेयता, सृष्णावृद्धि और इन्द्रियों की इच्छानुकूल प्रवृत्तिको असंयम कहा है।
निष्कर्ष :--बिवेकी पुरुषको उत्तप्रकार मिथ्यात्व, अमान और असंयमका त्यागकर, नैनिक कर्तव्य पालन करना चाहिये ।।२।। अब धर्मप्राप्ति के उपायोंको बताते हैं :
श्रात्मवत् परत्र कृशलवृत्तिचिन्तनं शक्तितस्त्यागतपसो च धर्माधिगमोपायाः ॥३॥ - अर्थ :-अपने समान दूसरे प्राणियोंका हितचितवन करना, शक्तिपूर्वक पात्रोंको दान देना और शक्तिपूर्वक तपश्चर्या (समस्त इन्द्रियों तथा मनकी लालसाको रोकना) करना ये धर्मप्रापिके उपाय हैइनके अनुष्ठान करनेसे विवेकी मनुष्यका जीवन श्रादशं और धामिक होजाता है ॥३॥
नीतिकार शुक्रने लिखा है कि विवेकी मनुष्यको अपने धनके अनुसार दान करना चाहिये जिससे उसके कुटुम्बको पीडा न होने पावे ॥१॥
जो मूर्ख मनुष्य कुटुम्बको पीड़ा पहुँचाकर शक्तिसे बाहर दान करता है उसे धर्म नहीं कहा जाम. कता किन्तु वह पाप है; क्योंकि उससे दान करने वालेको अपना दंश छोड़ना पड़ता है ।।२।।
यथाशक्ति तप करनेके विषय में गुरु नामका विद्वान् लिखता है कि 'जो मनुष्य अपने शरीरको कष्ट पहुंचाकर व्रतोंका पालन करता है उसकी आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती इसलिये उसे श्रास्मसम्तोषके अनुकूल सपश्चर्या करनी चाहिये ॥३॥
१ अबतित्वं प्रमादित्वं निर्दयत्वमातृभता । इन्द्रियेच्छानुबनित्य सन्तः प्राहुरसयमम् ॥१॥
-यशस्तिलक श्रा०६। उक्तं च यतः शुक्रण :
२-आत्मवित्तानुसारेण त्याग: कार्यों विवकिना।
तेन येन नो पीडा कुटुम्बस्य प्रजायते ॥१॥ कुटुम्ब पोयित्वा तु यो धर्म कुरुते कुधीः ।
मधमो हि पापं तद्देशत्याय केवलं || ३-तथा च गुरु :
-शरीरं पौयित्वा तु यो प्रतानि समाचरेत् । न तस्य प्रीयते चात्मा तत्तुष्यातप आचरेत् ॥११॥
-
--
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* नीतिवाक्यामृत
meanemummonsum
समाचम सस्कर्तव्यका विवरण करते है :
सर्वसत्वेषु हि समता सर्वाचरणानां परमं चरणम् ॥४॥ -समस्त प्राणियों में समताभाय रखना-उनकी रक्षा करना यह सभी सत्कसंगों में सर्व मत्सव्य है। शास्त्रकारोंने लिखा है कि संसार में जितने भी दान, शील, जप और तप आदि पुण्य सर्वजन सबमें समता ( अहिंसा-प्राणिरक्षा) का स्थान सर्वश्रेष्ठ है; क्योंकि दयारूपी नदीके किनारे ल सर्वधर्म (दान और शीलादि ) तृण और घासकी तरह उत्पन्न होते हैं, इसलिये उसके सूख जाने अन्य प्रमं किसप्रकार सुरक्षित रह सकते हैं ? नहीं रह सकते।
रास्तिक में लिखा है कि जीवदयाको एक ओर रक्खा जाये और धर्मके सभी अवान्तर भेवोंको ली और बापित किया जावे, उनमें खेतीके फलकी अपेत्ता चिन्तामणिरत्लके फलकी तरह जीवदया
र फल होगा। जिसप्रकार चिन्तामणिरत्न मनमें चिन्तवन किये हुए अभिलपित पदाय समर्थ होने के कारण खेतीके फल (धान्यादि ) की अपेक्षा पुष्कल फल देता है उसीप्रकार
भी अन्य धर्म के अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा विशेष फल ( स्वर्गश्री और मुक्तिभी के सुख )
.. पूर्व में भी कहा जा चुका है कि अहिंसा धर्मके प्रभावसे मनुष्य दीर्घजीवी, भाग्यशाली, लक्ष्मीषान्
तिमान होता है' ||२||
ववेकी पुरुषको सबसे पहले पूक्ति मानसिक, वाचनिक और कायिक असंयम-अशुभ शामिको सागकर अहिंसा प्रत धारण करना चाहिये पश्चात् उसे दान और पूजा आदि पुण्यकार्य करना
. नीतिकार नारदने भी कहा है कि 'शिष्टपुरुषों को जूं, खटमल, डाँम, मच्छर आदि जीयोंकी भी
पाची सर रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि प्राणिरक्षा-सर्वश्रेषु है, इसके त्याग करनेसे वैरभाव का संचार होता है ।।शा
निष्कर्षः-उक्त प्रमाणोंसे प्राणि-रक्षा सर्वश्रेष्ठ है; अतः नैतिक पुरुषको उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिये || भा निर्दयी पुरुषोंकी क्रियाएं निष्फल होती है इसे बताते हैं:
न खलु भूतद्र हां कापि क्रिया प्रमूते श्रेयांसि । अर्थ:-प्राणियोंकी हिंसा करने वाले निर्दयी पुरुषों की कोई भी पुण्यक्रिया कल्याणों को उत्पन्न । स्यानदीमहातीरे सर्व धर्मास्तमाङ्कराः । तस्पा शोपमुपेताय क्यिन्नन्दन्ति ते चिरम् ॥३-संगी। १४, देखो यशस्तिलक उ.० ३३७ । था च नारद :पूछामकुणटशान्यपि प ल्यानि पुत्रवन् । एलदाचरण श्रेयत्यागो रसम्मकः ।
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के नीतिवाक्यामृत
नहीं करती-निर्दयी पुरुष कितनीभी शुभ-क्रियाएं करते हो तथापि उनसे उनका कल्याण नहीं हो सकता ॥
नीतिकार न्यासने' भी उक्त बातका समर्थन किया है कि 'जो व्यक्ति निरपराध प्राणियों का वध करता है वह निर्दयी है उसकी पुण्य क्रिया निष्फल होती है और उसकी आपत्तियाँ बढ़ती रहती है। ॥१॥
निष्कर्षः-अतः सुखाभिलाषी पुरुप कदापि जीवहिंसामें प्रवृत्ति न करे ।।५।। अब दयालु पुरुषोंका फथन करते हैं:
परत्राजिघांसुमनसा व्रतरिक्तमपि चित्तं स्वर्गाय जायते ॥ ६॥ अर्थ.-दूसरे प्राणियोंकी रक्षा करने वाले (दयालु ) पुरुषोंका चित्त प्रवाहित होकरके भी स्वर्ग के सुत्रोंको उत्पन्न करने में समर्थ होता है---जो धार्मिक पुरुष प्राणियों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं वे दूसरे व्रत और नियः न भी पास हो तो उन्हें समय सनोइ सुख प्राप्त होते हैं ॥६
__यशस्तिलक के चतुर्थ श्राश्यासमें भी प्राचार्य श्री लिखते हैं कि जो राजा दीर्घायु, शक्ति और ग्रारोग्यता चाहता है उसे स्वयं जीवहिंसा न करनी चाहिये और राज्य में प्रचलित जीवहिंसा को रोकना चाहिये ।
क्योंकि एक पुरुष सुमेरुपर्यततुल्य-विपुल सुवर्णराशिका या समस्त पृथ्वीका दान कर देता है परन्तु यदि कोई दूसरा ब्यक्ति एक प्राणीके जीवनकी रक्षा करता है तो इस जीव रक्षाके सामने उस महादान की तुलना नहीं हो सकती-अर्थात् अभयदान ( जीवरक्षा) करनेवालेको विशेष फल मिलेगा ||
___ जिस प्रकार लोग अपने शरीरको दुःख नहीं देना चाहते उसी प्रकार यदि दूसरोंको भी दुःख देनेकी इच्छा न करें तो उन्हें कभी किसी प्रकारका कष्ट नहीं होसकता ॥३॥
व्यासने भी उक्त यातका समर्थन किया है कि "जिनका चित्त दूसरों के घात करनेमें प्रवृत्त नहीं होता वे ( दयालु पुरुष ) दूसरे प्रतोंसे शुम्य होनेपर भी स्वर्गके सुखोंको प्राप्त करते हैं। ॥१॥
निष्कर्ष :-अतः सुखाभिलाषी शिष्टपुरुष सदा प्रारिणरक्षा में प्रवृत्ति करे ।।६।। अब शक्तिसे बाहर दान करनेका फल बताते हैं :
स खलु त्यागो देशत्यागाय यस्मिन् कुते भवत्यात्मनो दौःस्थित्यम् ॥७॥
अर्थ :- जिस दानके करनेसे दाताके समस्त कुटुम्बीजन दरिद्र होकर दुःखी होजाते हैं वह दान उसको देश त्याग कराने के लिये है।
१ तथा च ध्यास:अहिंसकानि भूतानि यो दिनस्ति स निर्दयः।
नस्य कर्मकिया ध्यर्था बद्धन्ते वापद: सदा ||१|| २ तथा च व्यास :येमा परविनाय नात्र चित्तं प्रबनते । श्रनतारने अत्याः सर्ग यान्ति दयान्विताः ॥
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SE
* नीतिबाक्यामृत *
वार्थ:-जो मनुष्य अपनी आमदनी आदि पर ध्यान न देकर शनिको उल्लङ्घन करके दान में प्रवत होता है उसका दान जघन्य कोटिका समझना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे वह ऋणमें साया है और उसका कुटुम्ब भी दुःग्यी होजाता है पुन: कुछ कालके पश्चात् उसे अपना देश छोड़ना गया है। अतएय विवेको पुरुषको अपनी आमदनीके अनुमार यशाशक्ति दानधर्म में प्रवृत्ति लावाहिये ।
मोतिकार शुक्रने' भी लिया है कि 'जो लय कि अपनी आमदनीसे अधिक दान करता है उसके अन्वी कर्जामें फैलकर दुःखी होनाते हैं, और अन्त में यह दाना भी कर्ज आदिके भन्यसे उस देशको र सरे रामें चला जाता है ॥१६॥ विगति आचार्यने सुभाषितरत्नमद्रोहमें लिया है कि जिनमनमें श्रद्धा रखनेवाला भव्य पुरुष नारा करने के उद्देश्यसे पात्र-दान करता है उसके प्रभावमे यह स्वर्गोमें देवाङ्गनाओंका स्वामी
साथ भोग भोगता है, पुनः वहांने चय करके उत्तम कुलमै मनोज्ञशरीर प्राप्रकरके जैनधर्म मानावरणादि कर्म शत्रुओंका नाशकर मोक्षसुम्बको प्राप्त होता है ।।१॥
ल:-उक्त प्रमाणमे पात्रदानका अनुपम और अचिन्त्य माहास्य होनेपर भी नैतिक पुरुषको अपनी आमदनीके अनुसार यथाशक्ति पात्रदानमें प्रवृत्ति करनी चाहिये जिससे उसके कुटुम्बी कट न
और उसके चित्तमें भी किसी प्रकारकी आकुलता न हो ||७ तिने मापना करने वाले (भिक्षुक) के विषयमें लिखते हैं :
स खल्बर्थी परिपन्थी यः परस्य दोस्थित्यं जाननप्यभिलपत्यर्थम् ॥८॥ अर्थ:-जो याचक दूसरेकी दरिद्रताको जानता हुआ भी उममे याचना करता है-अपने लिये
माँगवा है यह उसका निश्चयसे शत्रु है। क्योंकि उस याचफसे उस दरिद्र दानाको पीर होनी इसलिये वह भिक्षुक उस दरिद्र व्यक्तिका शत्रु हुआ | ..: मिष्कर्ष :-अतः याचकका कर्तव्य है कि जब वह दूसरेको दरिद्रताका विरचय करने तो उससे वापि वाचना न करे ।।८।।
पहस्पति' नामके विद्वानने भी सूत्रकारके अभिप्रायको व्यक्त किया है कि 'जो भिन्तुक दाताकी
१ तथा च शुक्र :
मागतेपधिक म्यागं यः कुर्यात् तत्सुतादयः । .इरियताः स्युः ऋणग्रस्ता: सोऽपि देशान्तरं मजेत् ॥१॥ रथा च हस्पति :प्रसवमपि यो सौल्याजानन्नपि च याचन । पापुः स तस्य शत्रुहि, यद्वानो दुःखश्चायच्छति ? 111
[ोट :-इस श्लोकका चतुर्थचरण बिलकुल श्रगुद्ध है, हमने उसकी निम्नयकार नवीन रचना करके मैश धित और परिवर्तित करते हुए अर्थमंगति टीककी है 1] अनुवादक :
असन्तमरि यो लोल्याजानन्मपि च याचने । साय: स तस्य शत्रुईि यदुःखेन प्रयच्छति ।।१॥ संशोधित और परिवर्तित ।
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* नीतिवाक्यामृत *
दरिद्रताको जान करके भी लोभके कारण उससे अविद्यमान धनादिककी याचना करता है वह उसका शत्रु है क्योंकि यह घेचारा कष्ट भोगकर उसे कुछ दे देता है ॥१॥ अत्र शक्ति के अनुसार प्रत नियम करने का निर्देश करते हैं:
तद्वतमाचरितव्यं यत्र न संशयतुलामारोहतः शरीरमनसी ॥६॥ अर्थ:-नैतिक पुरुप को ऐसे प्रत नियम करने चाहिये जिनमे उसके शरीर और मन क्लेशित न हो।
चारायण ' नामक विद्वान ने भी कहा है कि जो मनुष्य शरीर की सामर्थ्य का विचार न करके अस वा नियम करता है उसका मन संक्लेशित होता है पुनः वह पश्चात्ताप करने लगता है और इसमे उमे प्रतका शुभ फल नहीं मिलता' |२||
विशत्रिमश:-शास्त्रकारोंने वनके निम्नप्रकार दो लक्षगा किये है। न्यायग्राम भोगोपभोग मामग्री का कुछ कालकी मर्यादासे त्याग करना नत है तथा असत् ( नीति विरुद्ध.) कार्यों (हिमा, मठ, बोरी
और कुशीलादि) से निवृत्त होना और अहिंमा तथा सत्य आदि शुभ कमि प्रवृत्ति करना व्रत कहा गया है।
प्रकरणमें नैतिक व्यक्तिको असन् कायों ( मद्यपान, मांसभक्षण, और परकलत्र मेवन आदि) का जीवन पर्यन्तके लिये त्याग करना चाहिये एवं शुक्ल कार्य ( अहिंसा, मत्य और परोपकार आदि पुण्यकर्म ) में प्रवृत्ति करनी चाहिये । तथा न्यायप्राप्त मेवन करनेके योग्य इष्टसामग्रीका त्यागभी अपनी शारीरिक शक्तिके अनुसार करना चाहिये ताकि उसे मानसिक रोदके कारण पश्चात्ताप न करना पड़े ||६|| अय त्याग-दानधर्म का माहात्म्य वताते हैं:
ऐहिकामुत्रिकालार्थमर्थव्ययस्त्यागः ॥१०॥ अर्थ.-इसलोक और परलोक संबंधी मुखोंकी प्रापिके लिये पात्रोंको धनादिकका देना त्यागधर्म है।
अर्थात् दाताको जिम दामसे ऐहिक (इमलोकसंबंधी-कीर्ति, सन्मान, और कौटुम्बिक श्रीवृद्धि आदि ) और पारलौकिक ( परलोकसंबंधी स्वर्ग-आदि ) मुख प्राप्त हों उसे दान त्यागधर्म कहा है।
अभिप्राय यह है कि दान पात्रको देना चाहिये परन्तु जो व्यसनी पुरुष व्यसनोंमें फंसकर अपने धन को बर्याद करते हैं वह दान नहीं है किन्तु धनका नाशही है।
तथा चं चारायण :अशक्या यः शरीरस्य व्रतं नियममेव वा । करोत्यातॊ भवेत् पश्चान् पश्चात्तापात् फलच्युतिः ।।१।। २ संकल्पपूर्वकसेव्ये नियमो मतमुच्यते । प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सदमत्वामसंभवें ।।१।।
रारास्तिलक या."
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* नीतिवाक्यामृत
रावण' नामके विद्वान् ने कहा है कि 'नम्रतायुक्त धूर्तपुरुष, पहलवान, खोटाबंध, जुआरी, शठ, सहकार करने वाले चारण ( भाट ) और पोरोंको जो धन दिया जाता है. वह निष्फल है ।"
विशदविवेचनः
शास्त्रकारोंने लिखा है कि प्राणियों का मन प्रसन्न होने पर भी यदि तप, दान और ईश्वरादि की भक्ति 1) से शून्य है वो वह कोठीमें रकये हुए धान्यादिकके बीजके समान स्वर्ग एवं मोक्षरूप उत्सम फलोंको करने में समर्थ नहीं हो सकता । भावार्थ:-- जिस प्रकार धान्यादिकके बीज केवल कोठी में भरे हुए रक्खे हे मान्य करों को उत्पन्न नहीं कर सकते, परन्तु जब उन्हें खेत में बोया जावेगा और खाद्य अनी बादि सामग्री मिलेगी तभी वे धान्यादिकके अकुरोंको उत्पन्न करनेमें समर्थ होते हैं उसी प्रकार प्रशस्त मन भी जब तप, दान और ईश्वरभक्ति से युक्त होगा तभी वह स्वर्गादिके उत्तमसुखों को कर सकता है, अन्यथा नहीं ।
२१
आचार्य श्री यशस्तिलक में लिखते हैं कि विद्वानोंने अभय, आहार, औषधि और ज्ञानदानके भेद का दान पात्रों में भक्तिपूर्वक यथाशक्ति देनेका विधान बताया है ||१||
mer
we मत्येक दान का फल भी बताते हैं कि अभयदान ( प्राणियों की रक्षाकरना) से दावा को शरीर बाहारदानसे सांसारिक भोगोपभोग सामग्री, औषधिदानसे निरोगी शरीर और विधादान
पद प्राप्त होता है | ||२||
सबसे पहले विवेकी पुरुषको सदा समस्त प्राणियों को अभयदान देना चाहिये- अर्थात् उसे समस्त की रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि अभयदानसे शून्य व्यक्ति परलोकमें कल्याणकी कामनासे कितनी श्री शुक्रियाएं ( जप और तप प्रभृति ) क्यों न करे परन्तु वे सब निष्फल होती हैं ||३||
समस्त दानोंमें अभयदान श्रेष्ठ है इसलिये जो इसे देता है, वह दूसरे दान करता हो या न भी सरवर हो तथापि उसे उत्तम फल मिलता है |
जो व्यक्ति अभयदान देता है उसने समस्त आगम को पढ़ लिया और सर्वोत्कृष्ट तपश्चर्या कर श्री वा समस्त दान कर लिये ||५||
निष्कर्ष :- नैतिक पुरुषको ऐहिक और पारलौकिक सुख प्राप्ति के लिये पात्रदान में प्रवृति करनी हिये ॥१०॥
१ तथा च चारार्पण :
धूर्ते दिन महले च कुर्वेये कैतवे शठे ।
चरण चौरेषु दतं भवति निप्पलं ||१||
२ यशस्तिलक प्रा०८ से ।
३, ४, ५, ६, यशस्तिलक प्रा०८ से ।
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२२
* नीतिवाक्यामृत
अब अपात्र को दान देनेकी निष्फलता बताते हैं:--
भस्मनि हुतमिव पात्रेष्वर्थव्ययः ॥ ११ ॥
अर्थः:-अपात्र- - ( नीति और धर्म से शून्य) व्यक्तिको दान देना भरम (राख) में हवन करनेके समान निष्फल है ||२१||
नाव विद्वान' लिखता है कि 'खोटा नौकर, वाहन, शास्त्र, तपस्वी, ब्राह्मण और खोटा खामी इनमें धन खर्च करना भस्म में हवा के समाविष्ट है।
यशस्तिलक में लिखा है कि विद्वानों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से शून्य पुरुष को पात्र कहा है उसमें दिया हुआ अन वगैरहका दान ऊपर जमीनमें बीज बोने के समान निष्फल €11311
पात्र में दिया गया अनादिका दान श्रावकों की पुण्य वृद्धिका कारण होता है, क्योंकि बादलोंका पानी सीपमें ही मोती होता है ||२||
जिनके मन मिथ्यात्व से दूषित हैं और जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाप कियाओं में प्रवृत्ति करते हैं उनको दान देनेसे पाप बन्धही होता है जिस प्रकार सापको दूध पिलानेसे विष हो जाता है ||३||
अथवा यदि श्रावक दयालुतासे उन्हें कुछ देता है तो अन्न दे देना चाहिये परन्तु अपने गृह में भोजन नहीं कराना चाहिये ||४||
क्योंकि उनका सन्मानादि करनेसे श्रावक का सम्यग्दर्शन दूषित होता है; जिस प्रकार स्वच्छ पानी भी विषैले वर्तन में प्राप्त होनेसे विषैला होजाता है ||
निष्कर्ष :- इसलिये अपात्रोंको दान देना निरर्थक है ||११||
पात्रोंके भेद बताते हैं: -
पात्र च त्रिविधं धर्मपात्रं कार्यपात्र कामपात्रं चेति ॥ १२॥
अर्थ:- पात्रों (दान देने योग्य) के ३ भेद है ।
धर्मपात्र, कार्यपात्र और कामपात्र ।
(२) धर्मपात्र* : - जो बहुश्रुत विद्वान् प्रयन और निर्दोष युक्तियोंके द्वारा समीचीन धर्मका व्याख्यान करते हैं और माताके समान कल्याण करनेवाली शिक्षाका उपदेश देते हैं उन्हें साधुपुरुषोंने धर्मपात्र कहा है ||१||
1 तथा च नारद -
कुभृत्ये च कुयाने च कुशास्त्रे कुनः स्विनि । कुवि कुलनाथे व्ययो भस्मकृतं यथा ॥ ॥ २ देखो नीतिवाक्यामृत संस्कृत का पृ० ११ १
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* नीतिवाक्यामृत
(A) का पात्र':-- स्वामी के अनुकूल चलनेवाले, प्रतिभाशाली, चतुर और कर्त्तव्यमें निपुण सेवकोंको हा गया है ॥२॥
कामपात्र :- इन्द्रियजन्य सुखका अनुभव करनेवाले मनुष्यों का मन जिसके शरीरके स्पर्शसे सुख ता है ऐसी उपभोग योग्य कमनीय कामिनीको विद्वानोंने कामपात्र कहा है || ३ ||
के मुय कार्यपात्र लौकिक प्रयोजनोंकी सिद्धि और
४) बशिष्ट कहा है कि हाताको धर्म (अपनी स्त्री) दोनों लोकोंके सुख देता है ||४||
२३
विशद विषेचन :- इन्हीं आचार्यश्रीने यशस्तिलक में पात्रोंके पांच भेद बताये है जो विशेषहै!.
समग्र जैन सिद्धान्तका विद्वान् चाहे वह गृहस्थ हो या सुनि ), श्रावक ( प्रतिमारूप चरित्रधमंको माता व श्रावक ), साधु (मुनिराज ), आचार्य और जैनशासन की प्रभावना करनेवाला विद्वान इस प्रकारके पात्र विद्वानों ने माने हैं ||१||
पाँचों पात्रोंको दान देनेका विधान किया गया है, परन्तु विस्तार के भय से हम लिखना
1
विषयमें दूसरोंका मत संग्रह करते हैं :
"एवं कीर्तिपात्रमपीति केचित् ||१३||
:- कुछ नीतिकारोंने उक्त पात्रोंके सिवाय कीतिपात्र ( जिसको दान देनेपर दाताको संसार में को भी दान देने योग्य पात्र बताया है ||१३||
[ नोट:
:- यह सूत्र नीति की संस्कृत टीका पुस्तक में नहीं है किन्तु मु० मूत्र पुस्तकसे संग्रह
है ]
भय जिन कारणों मे मनुष्यकी कीति दूषित होती है उसे बताकर कीर्तिके कारणका निर्देश करते हैं :किं तया की या वितान विभर्ति प्रतिरुद्धि वा धर्मं भागीरथी - श्री पर्वतवद्भावा. जामन्यदेव प्रसिद्ध : कारणं न पुनस्त्यागः यतो न खलु गृहीतारो व्यापिनः सनातनाश्च ॥१४॥
अर्थ :- मनुष्यकी उस कीतिसे क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं है - वह निन्ध है, जो पते अभि- अधीनमें रहनेवाले कुटुम्बियों तथा सेवकजनका पालन नहीं करती और धर्मको रोकती है- नष्ट करती है। आशय यह है कि जो मनुष्य अपने अधीन रहने वालोंका पालन पोषण
१, २ देखो नोतिवाक्यामृत संस्कृत टीका पृष्ठ ११, १२ ।
३ तथा च व शेष्ठ :
कार्यपात्रमि स्मृतं । कामाचं निजा कान्ता लोकद्वयप्रदायके ||२॥ ४ देखो पनि श्र० ८ पृ० ४०३ ।
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* नीतिवाक्यामृत *
तथा धर्मकी रक्षा नहीं करता और ऊपरी नीति-विरुद्ध बातोंमें धनकी यादी करके कीर्तिभाजन बनता है उसकी वह कीर्ति निन्छ समझनी चाहिये- अर्थास् वह अपकीर्ति है। संसारमें गंगा, लक्ष्मी और पार्वती (पर्वतसम्बन्धी स्थानविशेष) की तरह पदार्थोकी प्रसिद्धिका कारण दूसरा ही है सामान्य त्याग नहीं; क्योंकि दान लेनेवाले पान होगा शान्त प्रमिड और सता रहने वाले नहीं होते।
भावार्थ : मूर्ख और कुकर्मी नास्तिक लोग अपने अधीन रहनेवालोंको कष्ट देकर और स्वयं मद्यपान और परस्त्रीसेवन-श्रादि कुकृत्योंमें फँसकर धर्मको जलाञ्जलि देकर जो कीर्ति प्राप्त करते हैं उनकी यह कीर्ति अपकीर्ति समझनी चाहिये ।
विदुर' नामके विद्वान्ने भी लिखा है कि 'मूर्खलोग अपने अधीनोंको सताकर धर्मको दूर छोड़कर जो कीर्ति प्राप्त करते हैं उनकी उस अधिक कीर्तिसे भी क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं' ।।शा
'जुआरी और शराबी लोग जिसकी प्रशंसा करते हों एवं न्यभिचारिणी स्त्रियाँ जिसकी प्रशंसा करती हों उसकी कीर्ति अपकीर्ति ही समझनी चाहिये ।।२।। सूत्रकी उक्त दृष्टान्तमालाका समर्थन :
लोकमें गंगा, लक्ष्मी और पर्वतका प्रदेश साधारणत्याग (क्रमशः निर्मलजल देना, धनादिक देना और पान्धोंको विश्राम आदि देना) से प्रसिद्ध नहीं हैं किन्तु उस त्यागके साथ२. उनमें आभितोंकी रक्षा और पवित्रताके कारण धार्मिक उन्नलिमें सहायकपन पाया आता है। इसलिये वे प्रसिद्ध है। उसी प्रकार मनुष्य भी जब अपने अधीनोंका पालन और धार्मिक प्रगति करता हुआ दान धर्ममें प्रवृत्ति करता है तब वह वस्तुतः कीर्तिभाजन होता है। सामान्य त्यागसे मनुष्यकी कीर्ति नहीं होती; क्योंकि दान । लेने वाले पात्र विशेषप्रसिद्ध और चिरस्थायी नहीं होते।
अतएव नैतिक और विवेकी मनुष्यको चन्द्रवनिर्मल कीर्ति प्राप्त करने के लिये पात्रदानके साथ २ अपने अधीनोंकी रक्षा करते हुए धार्मिक प्रगति करनी चाहिये ।।१४।। मा हपथके धनकी आलोचना करते हैं :--
स खलु कस्यापि माभूदों यत्रासंविभागः शरणागतानाम् ॥१५॥
अर्थ :-जिस धनके द्वारा शरणमें भाये हुए पाभितोका भरण पोषण नहीं किया जाता पह कृपणका धन व्यर्थ है ॥१४॥
१ तथा च विदुर :प्राभित्तान् पीड़यित्वा च धर्म त्यक्त्वा सुदूरतः । या कीर्तिः क्रियते मुद्देः किं तयारि प्रभूतया ।।३।। कैतवा ५ प्रशंसन्ति र्य प्रशंसन्ति मद्यपाः । यं प्रशंसन्ति बन्धक्यो कीर्तिः साकीर्तिसपियो ।।२।।
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* नीतिवाक्यामृत *
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MAKARAMATAnima
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देव नामके विद्वानने' भी उक्त, यातका समर्थन किया है कि 'उस लोभीकी सम्पत्तिसे क्या से वह अपनी स्त्रीके समान केवल स्वयं भोगना है तथा जिसकी सम्पत्ति वेश्याके समान या पान्धोंके द्वारा नहीं भोगी जाती ||१|| पयोग बनाकर नैतिक व्यक्तिको अधिक लोभ करना उचित नहीं है इसका कथन करते हैं :अर्थिषु संविभागः स्वयमुपभोगश्चार्थस्य हि हे फले, नास्त्यौचित्यमेकान्तलुब्धस्य ।।१६||
-सम्पत्तिके दो ही फल है । (१) पात्रोंको दान देना और () स्वयं उपभोग करना। तिरुपको निरन्सर लोभ करना उचित नहीं ।।१६।।
नाम विद्वानने कहा है कि ब्राह्मण भी लोभके घश होकर समुद्र पार करता है और हिंसा
बामापण आदि पापी प्रवृत्ति करता है इसलिये अधिक मात्रा में लोभ नहीं करना चाहिये ।।१।। * सुभाषितरत्नभाण्डागारमें लिखा है कि कृपण (लोभी) और कृपाण (तलवार) इसमें केवल "श्रा" की माली भेद है अर्थात कृपण शब्दके "प" में हम्न "अ" है और “कृपाण" शब्दके “प।' विद्यमान है बाकी सर्व धर्म समान हैं; क्योंकि कृपण अपने धनको मुष्टि में रखता है और की मुट्ठी में धारणकी जाती है। पने कोप (खजाने) में बैठा रहता है और तलवार भी कोष (भ्यान) में रवायी जाती है । कृपण
है और तलषार भी मलिन (कालेरंगकी) होती है। इसलिये कृपण" और "कृपाण' में भावारका ही भेद है अन्य सर्व धर्म समान हैं। वार्थ:-जिसप्रकार तलवार घातक है उसी प्रकार लोभीफा धन भी धार्मिक कार्यो न लगनेसे
है, क्योंकि इससे उसे सुत्र नहीं मिलता उल्टे दुर्मतिके दुःख होते हैं ॥१॥ किनक्तिके सत्कर्तव्यका निर्देश करते हैं :HEानप्रियवचनाभ्यामन्यस्य हि सन्तोपोत्पादनमौचित्यम् ॥१७॥
मर्थ :-वान और प्रिय बपनोंके रा दूसरोंको सन्तुष्ट करना यह नैतिक मनुष्यका उचित
याच बरुमभदेव :- क तयर क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिच दिला । ...या न वेश्येव सामान्य। पयिकरुपभुज्यते ॥१॥
शोभात् समुद्र तरण लोभास् पारनिवर्ण । . माझयोऽनि करोत्यत्र तस्मात्तं नातिकारयेत् ॥1॥
सुभाषितरत्नभाण्डागारेच :-- ...दर निबद्धमुटे: कोपनिषण्णस्य सह जमलिनस्य ।
हास्य कृपाणस्य-च केवलमाकारतो भेदः ||
यह सूत्र संस्कृत टीका उस्तकमें नहीं है, नु० पू० पुस्तकले संकलन किया गया है।
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* नीतिघाक्यामृत *
अब सच्चे लोभीकी प्रशंसा करते हैं :
स खलु लुब्धो यः सत्सु विनियोगादात्मना सह जन्मान्तरपु नयत्यर्थम् ॥१८॥
अर्ध : जो मनुष्य सज्जनोंको दान देकर अपने साथ परलोकमै धन लेजाता है, वहीं निश्चयमे सच्चा लोभी है।
भावार्थ :-धनका लोभी लोभी नहीं है किन्तु जो उदार है उसे सच्चा लोभी कहा गया है क्योंकि पायदानके. प्रभावसे उसकी मम्पत्ति अजय होकर उसे जन्मान्तर--स्वर्गादिमें 'अक्षय होकर मिल जाती है ।।१।।
वर्ग' नामके विद्वान्ने भी कहा है कि 'इसलोकमें दाताके द्वारा दिया गया पात्रदान अक्षय हो जाता है जिससे उसके सभी दूसरे जन्मों में उसके पास रहता है ।।१।।' अय याचकको दूसरी जगह भिक्षा मिलने में जिस प्रकार यिघ्न होता है उसे बताते हैं :
अदातुः प्रियालापोऽन्यस्य लाभस्यान्तरायः ॥१६॥
अर्थ :-जो व्यक्ति याचकको कुछ नहीं देता केवल उससे मीठे वचन बोलता है वह उमे दुसरे : स्थानमें भिक्षा मिलनेमें विघ्न उपस्थित करता है; क्योंकि यह चारा उपके श्राश्वामनमें फैमकर इमरी जगह भिक्षा लेने नहीं जासकता ||
वर्ग नामके विद्वान्ने' भी लिखा है कि 'जो मनुष्य याचक्रको कुछ नहीं देता और स्पष्ट मनाई करके उसे लोड़ देता है, गदापि समस्या यापकली मात्रा भंग होजाती है परन्तु भविष्यमें उसे दुःम्म नहीं होता ॥१॥ अब दरिद्र की स्थितिका वर्णन करते हैं :
सदैव दुःस्थितानां का नाम बन्धुः ॥२०॥ अर्थ :-सदा दरिद्र रहनेवाले पुरुषोंका लोकमें कौन बन्धु है ? अर्थान् कोई नहीं।
भावार्थ :-जो लोग कृषि और व्यापार आदि साधनोंसे धन संचय नहीं करते और मदा आलस्यमें पड़े रहने से दरिद्र रहते हैं उनकी लोक में कोई सहायता नहीं करता ॥२०॥
जैमिनि नाम के विद्वान्ने लिखा है कि 'दरिद्र व्यक्ति यदि किसी गृहस्थके मकान पर उपकार करनेकी
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१ तथा च वर्ग:दत्तं पात्रेऽत्र यहानं जायते चाक्षय हि तत् । जन्मान्तरेषु सर्वेषु दानुश्चेवोपत्तिष्ठते ॥६॥ २ मु. मू० पुस्तक में "श्रदानुः प्रियालापोऽन्यत्र लाभान्तरायः" ऐठा पाठहै। ३ तथा च वर्ग :प्रस्याख्यानमदाता ना याचकाय करोति यः। तत्क्षणाच्चैव तस्याशा श्यान्नव दुःखदा 115) ४ तथा व जैमिनि :--- उपकमपि प्राप्तं नि:स्वं ष्टया मन्दिरे। गुतं करोति चात्माने गृहीचमाइया ।।51)
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नीतिवाक्यामृत *
5
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सा है सो यह उसे प्राता हुआ देख कर "कहीं यह मुझसे कुछ माँग ने ले।" इस आशङ्कामे
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कोपनिरूपण करने हैं :मार्गदमित्वमयमानात का नाम नहि जने ॥२१॥
सदा माँगनाले वाचकले कौन नहीं ऊब जाता ? मभी त्र जाते हैं ॥२१॥ मास' नामक बिद्वानन भी लिखा है कि कोई भी मनुष्य चाहं वह याच का मित्र या वैधु ही या सदा माँगनेवाले ने दुखी हो जाता है। उदाहरण में गाय भी अधिक दूध पीनेवाले बड़ेमे से जान मार देती है ।शा
यरूर बताते हैं :--- इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं तपः ।।२२।। :-पाँच इन्द्रिय ( स्पर्शन, रमना, घाण, धनु और श्रोत्र ) और मनको वशमें करना या लालसाओंको रोकना तप है ।।२।। भावार्य भी यशस्तिलक में लिखते हैं कि जो मनुष्य कायक्तेशरूप तप करता है, मंत्रोंका जाप जपना
ओंको नमस्कार करता है परन्तु यदि उसके चित्तमें सांसारिक विषयभोगोंकी लालसा लगी कापस्वी नहीं कहा जासकता और न उसे इस लोक और परलोक में मुग्ख मिल सकता है। शास्त्र कागें. या कि शिमप्रकार अग्निके यिना रसोई में चावल आदि नहीं पकाये जामकते, मिट्टी के चिना घट नहीं
ा तुओंके बिना वस्त्रकी उत्पत्ति नहीं होसकनी उसी प्रकार उत्कट तपश्चर्याके बिना कमौका
मझा स्वभाए फहते हैं :
पिदिनाचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः ॥२३॥ प: सत्यार्थशास्त्रनिरूपित सत्कर्तव्यों (अहिंसा और सत्य आदि) का पालन और शास्त्रनिषिद्ध ( हिंसा, और मिथ्याभापण प्रादि ) का त्याग करना नियम है ।।२३||
नारद नामके विद्वानने भी कहा है कि शास्त्रविहित व्रतों ( अहिंसा और सत्य आदि ) का गर्दिन परिपालन करना और मद्यपानादि शास्त्रनिषिद्धका त्याग करना नियम है ।।।'
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तथा च व्यास :मित्रे बन्धुवानो वातिप्रार्थमादितं कुर्यात् ? अपि यत्समतिविवन्त विषाणैरधिक्षिति धेनुः ।।।। देखो कस्लूीपकरएका तपं.दार । समानारत:यदः क्रियते सम्यगन्तरायविनितं। नभक्षयग्निविद्धयो नियमः स उदाहनः ||
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२८
* नीतिवाक्यामृत
अब आगम - शास्त्रका माहात्म्य बताते हैं :
विधिनिषेधा वैतिह्यायौ ॥२४॥
अर्थ :- विधि— कर्तव्यमें प्रवृत्ति और निषेध - अकर्तव्यसे निवृत्ति ये दोनों मत्यार्थं आगम ( शास्त्र ) के अधीन हैं अर्थात् यथार्थवक्ता कहे हुए आगममें जिन कर्त्तव्यों के करनेका विधान बताया विवेकी मनुष्यको उनमें प्रवृत्ति करनी चाहिये और उक्त आगम में जिनके करनेका निषेध किया गया है। उन्हें त्यागना चाहिये ।
भावार्थ:- श्रेयस्कर कर्त्तव्यमें प्रवृत्ति एवं ऐहिक और पारलौकिक दुःख देनेवाले अकर्तव्यों मे निवृत्तिका निर्णय आगम ही कर सकता है; जन साधारण नहीं ||२४||
भागुरि विद्वान्ने' कहा है कि 'शास्त्रविहित कर्तव्यपालन करनेसे प्राणीका अत्यन्त कल्याण होता है परन्तु शास्त्रनिषि कार्य भस्म में हवन करने के समान निष्फल होते हैं ॥१॥
जो मनुष्य पूर्व में किसी वस्तुको छोड़ देता है और पुनः उसे सेवन करने लगता है वह भूटा और पापी है ||२||
अब सत्यार्थ आगम-शास्त्रका निर्णय करते हैं :
तत्खलु सद्भिः श्रद्धेयमतिद्य यत्र न * प्रमाणबाधा पूर्वापरविरोधो वा ॥ २५ ॥
अर्थ :- जिसमें किसी भी प्रमाणसे बाधा और पूर्वापरविरोध न पाया जाता हो, वही आगम शिष्टपुरुषोंके द्वारा श्रद्धाकरनेयोग्य – प्रमाण मानतेयोग्य है ।
भाषार्थ :- जो आगम श्रेयस्कारक सत्कर्तव्योंकी प्रतिष्ठा करनेवाला और पूर्वापर के विरोधसे रहित हो वही शिष्टपुरुषों द्वारा प्रमाण मानने योग्य है। आचार्यश्रीने ' यशस्तिलक्रमें लिखा है कि 'जो शास्त्र पूर्वापर विरोध के कारण युक्ति से बाधित है वह मत्त और उन्मत्तके वचनों के तुल्य है अतः क्या यह प्रमाण होसकता है ? नहीं हो सकता ||१||
निष्कर्ष :- श्रीसराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी सीर्थङ्करों द्वारा भाषित द्वादशाङ्ग आगम श्रमधर्मा समर्थक होने से पूर्वापर विरोधरहित होनेके कारण अपने सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा करता है इसलिये शिष्ट पुरुषोंके द्वारा प्रमाण मानने योग्य है ||२५||
१ तथा च भागुरि :―
विधिना विदितं कृत्यं परं श्र ेयः प्रयच्छति । विधिना रहितं यच्च यथा भस्महुतं तथा ॥ | १ || निषेधं यः पुरा कृत्वा कस्यचिद्वस्तुनः पुमान् ।
देव सेवते पश्चात् सत्यहीनः स पापकृत् ॥ २शा
२ मु० म० पु० "स्वप्रमाण्वाध]" ऐसा पाठ है ।
३] पूर्वापर विरोधेन यस्तु युक्त्या च वाध्यते । मत्तोमत्वचः प्रख्यः स प्रमादं किमागमः ||१|| यशस्तिलके ।
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% नीतिवाक्यामृत ६
- सीनियर नारदने' भी लिखा है कि 'जो अपने सिद्धान्त के माहात्म्यको नष्ट न करना हो-उनकी ...ा हो, पूर्वापरके विरोधसे रहित हो ऐसे श्रागमकी शिष्ट पुरुप प्रशंसा करते हैं ।।१।।
विमानोंका विवरण करते हैं :स्तिस्नानमिव सर्वमनुष्ठानमनियमितेन्द्रियमनोवृत्तीनाम् ॥२६॥
-रिकी हनियाँ सजा का में नहीं है उनके समस्त सत्कार्य-दान, जप, तप और लानि हामीके स्नानकी तरह निष्कल हैं। जिसप्रकार हाथी स्नान करके पुनः अपने शरीर पर धूलि पीना प्रतएव उसका स्नान करना व्यर्थ है उनीप्रकार जो मनुष्य जितेन्द्रिय नहीं हैं उनके समस्त
म क्योंकि वे चंचलचित्तके कारण पुनः कुकार्योके गर्तमें गिर जाते हैं ।।२६| B :-शास्त्रकार लिखते हैं कि जो व्यक्ति इन्द्रियोंको वशमें किये बिना ही शुभध्यान
करनेकी लालसा रस्यता है वह मूर्ख अग्निके बिना जलाये ही रसोई बनाना चाहता है। नावा भुजाओंके द्वारा ही अगाध समुद्रको पार करना चाहता है एवं खेतोंमें बीजोंके बिना मायकी उत्पत्ति करना चाहता है।
न विसप्रकार अग्नि आदिके बिना रसोई श्रादिका पाक नहीं होसकता जसीप्रकार इन्द्रियोंको मा धर्मध्यान नहीं होसकता ॥१॥
कोई भी मनुष्य मानसिफ शुद्धिके बिना समस्त धार्मिक क्रियाएं करता हुआ भी मुक्ति नाम नहीं कर सकता। मला पुरुष अपने हाथमें शोशेको धारण करता हुआ भी क्या उससे अपनी आकृतिको जान
मही जान सकता ॥२॥ मोतिकार सौनकने कहा है कि 'अशुख इन्द्रिय और 'दु-चित्तवाला पुरुष जो कुछ भी सत्कार्य बार वह सब हाथीके स्नानकी तरह निष्फल है ॥१॥ जो शानदार होकरके भी शुभ कार्य में प्रवृत्त नहीं होता उसका विवरण करते हैं :
- दुर्भगाभरणमिव देहखेदावहमेव ज्ञानं स्वयमनाचरतः ॥२७॥ अर्थः-जो अनेक शास्त्रोंका ज्ञाता विद्वान् होकरके भी शास्त्रविहित सदाचार-अहिंसा और सत्यभाषण भादिमें प्रवृत्ति नहीं करता, उसका प्रचुरज्ञान विधवा स्त्रीके आभूषण धारण करनेके समान
रीरिक क्लेशको उत्पन्न करनेवाला-व्यर्थ है। If तथा प नारद :
स्वदर्शनस्य मादाय यो न हन्यात् स नागमः । पूर्वापा विरोधश्च शस्यते स च साधुभिः शा २ देखो कस्तूरीप्रकरणका इन्द्रिय और मनोद्वार ।
सौनक :अशुद्धन्द्रियचित्तो यः कुरुते कांचित् सक्रिया। हरितलानमिय व्यर्थ तस्य सा परिकीर्तिता ॥३॥
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३०
अर्थात् जिसप्रकार विधवा स्त्रीका पति के बिना श्राभूषण धारण करना व्यर्थ है, उसी प्रकार नैतिक और धार्मिक सत्कर्त्तव्यों से पराङ्मुख रहनेवाले विद्वान्का ज्ञान भी निष्फल हैं ||२७||
नीतिकार राजपुत्रने' भी कहा है कि 'शास्त्रविहित सत्कर्त्तव्यों में प्रवृत्ति न करनेवाले विद्वान्का ज्ञान विधवा स्त्रीके आभूषण धारण करने के समान व्यर्थ है' ||
* नीतिवाक्यामृत
we दूसरोंको धर्मोपदेश देनेवालोंकी सुलभता बताते हैं
——
अर्थः- दूसरोंको धर्मोपदेश देने में कुशल पुरुष कथायाचकोंके समान सुलभ हैं। जिसप्रकार स्वयं धार्मिक अनुष्ठान न करनेवाले कथावाचक बहुत सरलता से मिलते हैं, उसी प्रकार स्वयं धार्मिक कर्त्तव्योंका पालन न करनेवाले और केवल दूसरोंको धर्मापदेश देनेवाले भी बहुत सरलता से मिलते हैं ||२८||
सुलभः खलु कथक इव परस्य धर्मोपदेशे लोकः ॥२८॥
वाल्मीकि विद्वान्ने' भी कहा है कि 'इस भूतल पर कथावाचकोंकी तरह धर्मका व्याख्यान करनेवाले बहुत पाये जाते हैं, परन्तु स्वयं धार्मिक अनुष्ठान करनेवाले सत्पुरुष विरले हैं' ||१|| अब तप और दानसे होनेवाले लाभका विवरण करते हैं :
प्रत्यहं किमपि नियमेन प्रयच्छतस्तपस्यतो वा भवन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोकाः ||२६||
अर्थः- जो धार्मिक पुरुष प्रत्येक दिन नियमसे कुछ भी यथाशक्ति पात्रदान और तपश्चर्या करता है, उसे परलोक में स्वर्गकी उत्तमोत्तम सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं ||२६||
नीतिकार चारायण भी उक्त सिद्धान्तका समर्थन करता है कि 'सदा दान और रूपमें प्रवृत्त हुए पुरुषको वह पात्र ( दान देनेयोग्य त्यागी प्रती और विद्वान् आदि) और सपमें व्यतीत किया हुआ समय उसे सद्गति – स्वर्ग में प्राप्त करा देता है ||२||
संचय - वृद्धिसे होनेवाले लाभका कथन करते हैं :
१ तथा च राजपुत्र :
कालेन संचीयमानः परमाणुरपि जायते मेरुः ||३०||
अर्थ:- तिलतुषमात्र थोड़ी भी वस्तु ( धर्म, विद्या और धनादि ) प्रतिदिन चिरकाल तक संचय - वृद्धि की आनेसे सुमेरु पर्वत के समान महान् हो जाती है ||३०||
२ तथा च बाल्मीकि :
यः शास्त्रं जानमानोऽव तदर्थं न करोति च । तद् पर्थे तस्य विशेयं दुर्भगाभरणं यथा ॥१॥
सुता धर्मवकारो यथा पुस्तकवाचकाः । ये कुर्वन्ति स्वयं धर्मे विरलास्ते महोतले ||१||
३ तथा च चारायण :
नित्यं दानप्रवृत्तस्य तपोयुक्तस्य देहिनः ।
बाथ कालो वा स व्याद्येन गतिर्वरा ॥ ॥
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* नीतियाझ्यामृत *
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नीतिकार भागुरिने' लिखा है कि 'जो उद्योगी पुरुष सदा अपने खजानेकी वृद्धि कराता रहता है उमका खजाना-धनराशि सुवर्णके नित्य संचयसे सुमेरुकी तरह अनन्त-अपरिमित होजाता है ।।१।। अव धर्म, विद्या और धनकी दैनिक घृद्धि करनेसे होनेवाला लाभ घताते हैं :
___धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं लवोऽपि संगृह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिकः ॥३२॥
अर्थः-धर्म, विद्या और धनका प्रतिदिन थोड़ा २ भी संग्रह करनेसे समय पाकर ये समुद्रसे भी अधिक होजाते हैं ॥३॥
नीतिकार वर्ग भी उक्त मातकी पुष्टि करता है कि "जो व्यक्ति सहा धर्म, विद्या और धनका संग्रह करता रहता है उमकी वे सब वस्तुएँ पूर्वमें अल्प होने पर भी समय पाकर समुद्र के समान अनन्त होजाती हैं ॥॥ अब धर्मपालनमें उदोगशून्य पुरुषोंको संकेत करते हुए कहते हैं :
धर्माय नित्यमनाश्रयमाणानामात्मवंचन भवति ॥३२॥ अर्थः-जो व्यक्ति धर्मका आचरण नहीं करते वे अपनी प्रात्माको ठगते हैं।
वशिष्ठने कहा है कि जिसने मनुष्यजीयन प्राप्त करके धर्मका आश्रय नहीं लिया, उसने अपनी आत्माको नरकका पात्र बनाकर बड़ा धोखा दिया' ||१|| विशदविवेचन :--
शास्त्रकारोंने कहा है कि जिस प्रकार सुगन्धिसे शुन्य पुष्प, दांतोंसे रहित मुख और सत्यसे शून्य तथा च भागुरि :नित्यं कोपविदि यः कारयेद्यममास्थितः।
अनन्तता भवेतस्य मेरो नो यथा तथा ॥१॥ २ तथा च वर्म:
उपार्जयति यो नित्यं धर्मश्रुतधनानि च |
सुरलोकान्यायनन्तानि तानि स्युर्जलधिर्यय। ३ मु० मू० पु० में-"धर्माय निरयमजाप्रतामात्मपश्चनम्" ऐसा पाठ है, अर्थ भेद कुछ नहीं है। ४ तथा च पशिष्ठ :
मनुष्यत्वं समासाद्य यो न धर्म समाश्रयेत् ।
श्रारमा प्रयंचितस्तेन नरकाय निरूपितः ॥३॥ २उतच:
गन्धेन हीन कुसुम न भाति, दंतेन होनं वदन न भाति । सत्येन हीनं वचनं न भाति, पुण्येन हीनः पुरुषो न भाति ||१|| साल स्वर्गसदां हिनत्ति समिधे चूचोय चिन्तामणि । चन्दौ प्रक्षिपति क्षिणोति तर सीमेकस्य शलोकते ॥ दत्त देवगवीं स गर्दभवधूमाहाय गोगई। यः संसारसुखाय सूभितशिवं धर्म मानुज्झति ॥२॥
फस्नूरी प्रकरण से।
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* नीतिवाक्यामृत
वचन शोभायमान नहीं होता, उसी प्रकार धर्मसे शून्य मनुष्य भी शोभायमान नहीं होता ॥१॥
जो पुरुष सांसारिक सुखोंके लिये मोक्षसुख देनेवाले धर्मका त्याग कर देता है वह निंद्य उस मूर्सके सहश है जो लकड़ीके लिये कल्पवृक्षको काटता है, चूर्णके लिये चिंतामणिरत्नको अग्निमें फेंकता है, एक कोनेके लिये नौकाको नष्ट करता है और गधीको खरीदनेके लिये अपनी कामधेनुको दे देता है ।। अब एककालमें अधिक पुण्यसमूहके संचयकी दुर्लभता बताते हैं :
कस्य नामकदैव सम्पद्यते पुण्यराशिः ॥३३॥ अर्थ :-किसको एक ही समयमें प्रचुर पुण्यसमूह प्राप्त होता है ? नहीं होता।
भावार्थ:-लोकमें कोई भी व्यक्ति एफकालमें पुण्यराशिका संचय नहीं कर सकता किन्तु धीरे कर सकता है ।।३।।
नीतिकार भागुरिने' कहा है कि 'मनुष्योंको मत्यलोकमें सुख नहीं मिलता उन्हें सुखके बाद दुःख और दुःसके बाद सुख प्राप्त होता है क्रीड़ामात्रमें नहीं || अब आलसी पुरुषके मनोरथोंकी निष्फलता बताते हैं :--
अनाचरतो मनोरथाः स्वप्नराज्यसमाः ॥३४॥
अर्थ :-उद्योगशून्य पुरुषके मनोरथ (मनमें चिसयनकी हुई सुखकी कामनाएं.) स्थानमें राज्य मिलनेके समान व्यर्थ होते हैं। जिसप्रकार स्थप्नमें राज्यकी प्राप्ति निरर्थक है उसीप्रकार उद्योगशून्य भालसी मनुष्यकी सुखप्राप्तिकी कामनाएं भी व्यर्थ होती हैं।
निष्कर्ष :-इसलिये प्रत्येक व्यक्तिको धर्म, ज्ञान और धनादिके संचय करनेमें नीतिपूर्ण पुरुषार्थ करना चाहिये ॥३४॥
बल्लभदेव' नामके विद्वानने कहा है कि 'उद्योगसे ही कार्य सिद्ध होते हैं मनमें चाहने मात्रसे नहीं सोते हुए शेरके मुख में हिरण स्वयं नहीं प्रविष्ट होते' ।।१।। अब जो व्यक्ति धर्मके फलका उपभोग करता हुआ भी पापमें प्रवृत्ति करता है उसको कहते हैं :धर्मफलमनभवतोऽप्य धर्मानुष्ठानमनात्मज्ञस्य ॥३॥
.-- --...-- ---- - तथा च भागुरि:सुखस्थानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखं । न हेलया सुखं नास्ति मर्त्यलोके भवेन्नणां ।।१।। ५ मु० मू० पु. में "स्वयमनाचरतां मनोरथाः त्वान राज्यप्तमाः' ऐसा पाठ है, परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है। ३ तथा च वल्लभदेव :उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सिंहस्य सु-तस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।३।। ४ "मः" इति मु० मू० पुस्तक में पाठ है।
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* नीतिवाक्यामृत
अन्य धर्म के फल (मनुष्यजन्म, उच्चकुल, धनादियभव, दीर्घायु, विद्वत्ता और
उपभोग करता हुआ भी पापोंमें प्रवृत्ति करता है यह मूर्ख है। सोनवने कहा है कि 'पूर्वजन्म में किये हुए धर्मसे मनुष्योंफो सुख मिलता है इसे विद्वान् विमानते हैं परन्तु पाई जोग नहीं जानते मासे वे पापोंमें प्रथम होते हैं ॥१॥ ... हा है कि जो पुरुष धर्मसे उत्पन्न हुए फलों-पूर्वोक्त मनुष्यजन्म आदि को भोगता
सानो भगबुद्धियुक्त है-अर्थात् धर्ममें प्रवृत्ति नहीं करता, यह मूर्ख, जड़, प्रशानी और
साब या दूसरोंमे प्रेरित हुश्रा भी अधर्म-पाप करनेकी चेष्टा नहीं करता वह विद्वान्, न और वास्तविक पडिन है ।।२।। पान कहा है कि जो मनुष्य प्रज्ञानसे धर्मको नष्ट करके इतके फलों ( धनादिसम्पत्ति
का उपभाग करसे है वे पापी अनार और पाम आदिके वृनोंको जबसे उखाड़कर -अर्धान जिस प्रकार अनार आदि सुन्दर सृक्षोंको जड़ से उखाड़कर उनके फलों का etक इसमे भनिप्यमें उनके फलोमे यक्षित रहना पड़ता है उसी प्रकार धर्मको फल-गुम्बका भोगना भी महामूर्खता है। क्योंकि इससे भविष्यमें मुम्ब
-
भन्य प्राणी ! तुझे पूर्वजन्ममें किये हुए अहिंसामधान दान, शील और तपश्मयो धादि सो अनुष्ठानसे धनानि मुखसामग्री प्राप्त हुई है। इसलिये तुम धर्मका पालन करते हुए
मोगो। जिमप्रकार किसान धान्यादिकफे बीजसं विपुल धान्य पैदा करता है वह धाग्यके त्पादक बीजोको सुरक्षित रखकर धान्यका उपभोग करता है जिससे उसे
मा भौग्य संजायने नणा। ने महसन ते पापसेवका: 20
मा सोऽशः स पशुश्न सशोर । नविन माइमें भवति मन्दधीः ॥६॥
महामासः स धीमान् स च गए इनः । मान्यतो गावि नाथाय समीहने ॥२॥
यशस्लिम सोमदेवमूरि:विमा फलाम्मनुभवग्नि ये मोहा-|
र सन् मलात् 'पानि सपन्न ते पापाः ॥१॥ साविभवो धर्म प्रतिवल्य भोगमनुभन । मचाया कोयललम बीजमित्र ॥२॥
श्रात्मानुसासने शुम्भदाचार्यः ।
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में नीतिवाक्यामृत
भविष्यमै धान्य मिलती रहती है उमीप्रकार तुम्म भी मुखके माधन धार्मिक अनुष्ठानों को करन हुए न्याय प्राप्त भोगोंको भोगो; गेमा न करने पर तुम अज्ञानी समझे जाओगे ! अब वियेकी पुरुषोंको धर्मानुमान में स्वयं प्रवृत्ति करनका निरूपण करते हैं :
कः सुधीभैपजमिवात्महितं धर्म परोपराधादनु निष्ठति ॥३६॥
अर्थ :-कौन बुद्धिमान् पुरुष श्रीपधिके समान अपनी आत्माका कल्याणकानयाले धमका पालन दूमरोंके आग्रहसे करेगा ? नहीं करेगा।
___ भावार्थ :-जिसप्रकार बीमार पुरुष जब औषधिका सेवन स्वयं कग्ना है तभी निरोगी होता है उमीप्रकार बुद्धिमान पुस्पको दुःखोंकी निवृत्ति के लिये स्वयं धर्मानुष्ठान करना चाहिये। क्योंकि दमक आप्रहसे धर्मानुष्ठान करनेवाला श्रद्वाहीन होनेसे मुख प्राप्त नहीं कर सकता ।।३६॥
नीतिकार भागुरिन लिया है कि जो मनुष्य दृसरोक अाग्रहम अौषधि और धमका सेवन करता है उसे कमशः आरोग्य लाभ और स्वगके मुग्य प्राप्त नहीं होने ।।१।। अब धर्मानुष्ठान करते समय जो बात होती है उन धनान हैं :
धर्मानुष्ठाने भवत्यप्रार्थितमपि प्रातिलोम्य लोकस्य ॥३७|| अर्थ :-धर्मानुष्ठान करते समय मनुष्यों को अनिच्छित (बिना बाहे) विघ्न उपस्थित हो जाने है ।।३।।
नीतिकार वर्गने कहा है कि 'कल्याणकारक कार्यों में महापुरुषांशो भी विश्न उपस्थित होने ।। परन्तु पापोंमें प्रयुस हुए पुरुषोंके बिन्न न होजाते हैं । अब पापमें प्रवृत्त हुए पुरुषका कथन करते हैं :
अधर्मकर्मणि को नाम नापाध्यायः पुरश्चारी या ||३||
अर्थ :-पापकार्यमें प्रवृत्ति करनेवालेको कौन उपदेश देनेवाला अश्या अनेमर -अगुश्रानो होता ? सभी होते हैं ॥३८॥
भावार्थ :--लोकमें सभी लोग पापियों को पापकरने की प्रेरणा करते हैं और मैंने अमुक पापकार | किया है तुम भी करो ऐसा कहकर अग्रेसर होजाने हैं।
निष्कर्ष:-नैतिक मनुष्यको किसीके बहकानेमें आकर पापकार्यो प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये ॥३॥
। तथा च भागुरि :
परोपरोधतो धर्म भेषजं च करोति यः ।
श्रारोग्यं स्वर्गगामिन न तान्या संप्रजायते ॥३॥ ६ नशा च वर्ग :---
श्रेयामि बहुविनानि भवन्ति मनामी । अश्रेयसि प्रवृत्तान' यानि वाम विलीनन। ||२||
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के नीतिवाक्यामृत है
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..
...
ने कहा है कि 'पापीको पापका उपदेश देनेवाले लोग बहुत हैं जो स्वयं पाप
की प्राई नाशुभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः ॥३६॥ र पुरुषोंको प्राणों के कण्ठगत-मरणोन्मुख होने पर भी पापकार्यमें प्रवृत्ति नहीं
अवस्थाका तो कहना ही क्या है? पुरुष स्वस्थ अवस्थामें पापोंमें क्रिप्त प्रकार प्रवृत्ति कर सकते हैं १ नहीं
म भी उक्त यातका समर्थन करता है कि 'बुद्धिमानोंको अपने प्राणों के त्यागका अवसर
नहीं करना चाहिये; क्योंकि उससे इस लोकमें निन्दा और परलोकमें अधम
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स्वार्यवश धनादयोंको पापमार्गमें प्रवृत्त कराते हैं इसका कथन करते हैं :सम्यसनतर्पणाय धूतेंदुरीहितवृत्तयः क्रियन्ते श्रीमन्तः ॥४०॥ ग (ठग) अपने व्यसनों-खोटी आदतोंकी पूर्ति करनेके लिये अथवा अपनी आपत्ति मलयोको पापमार्ग में प्रवृत्ति कराते हैं।
ठग लोग धनाढ्यों को परस्त्रीसेवन और मनापान आदि पापकर्मों में प्रेरित कर देते हैं से पनादिककी प्राप्ति होती है, जिससे उनकी स्वार्थसिद्धि के साथ र आपत्तियाँ दूर
पाठ्य पुरुषोंको धूतोंके बहकायेमें पाकर पापमार्गमें प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये ||४|| सिका फल बताते हैं :--
खलसंगेन किं नाम न भवत्यनिष्टम् ॥४१॥ टोंकी संगतिसे मनुष्यको कौन २ से कष्ट या पाप नहीं होते ? सभी होते हैं ।।४।।
सस्य लोका: पारोपदेशका: । च ये पाप तदर्थ प्रेरयन्ति च ||५||
माधुर्म कर्म प्राणत्यागेऽपि संस्थिन। यतो निदा परलोकेऽधमा गतिः ॥१॥ किं नाम न करोति ?' ऐसा मा मृ०३० में पाट है परन्तु अर्थभेद कुछ नहा है।
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* नीतियाक्यामृत
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• बलभदेव' विद्वान्ने कहा है कि 'दुष्टोंको सङ्गतिके दोपसे सज्जनलोग विकार-पाप करने लगते हैं।। दुर्योधनकी सङ्गतिसे महात्मा भीष्मपितामह गायोंके हरण करनेमें प्रवृत्त हुए ॥१॥'
निष्कर्ष:-अतः विवेकी मनुष्य को दुनोंकी सजति छोड़नी चाहिये ॥४॥ अब दुनोंका स्वरूप बताते हैं :
अग्निरित्र स्वाश्रय मेघ दहन्ति दुर्जनाः ॥४॥ अर्थः-दष्टलोग अग्निके समान अपने प्राश्रय-कुटुम्ब को भी मष्ट कर देते हैं। पुनः अन्य शिा पुरुषोंका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् उन्हें अवश्य ही नष्ट करते हैं।
भावार्थ:-जिसप्रकार अग्नि जिस लकड़ीसे उत्पन्न होती है उसे सबसे पहिले जलाकर पुन: दूसरी बस्तुभोंको जला देती है, उसीरफार दुष्ट मी पूर्वमें अपने कुटुम्बका पश्चात् दूसरोंका हय करता है ।।२।।
वल्लभदेव' विद्वानने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि 'जिसप्रकार धूम अग्निसे उत्पन्न होता। और बह किसीप्रकार बादल होकर जलश्रृष्टिके द्वारा अग्निको ही बुझाता है उसीप्रकार दुष्ट भी भाग्यसे प्रतिछाको प्राप्त करके प्रार; अपने बन्धुजनोंको ही तिरस्कृत करता है ॥१॥ अत्र परस्त्री-सेवनका फल बताते हैं:
___ वनगज इच 'तदात्वसुखलुब्धः को नाम न भवत्यास्पदभापदाम् ? ॥४३॥
अर्थ :-परस्त्रीमेघनके सुखका लोभी कौन पुरुष जंगली हाथीके समान प्रापसियोंका स्थान नहीं। होता ? अथो सभी होते हैं।
भावार्थ :-जिसप्रकार जंगली हाथी हथिनीको देखकर उसके उपभोग करनेकी इच्छासे व्याकुजिक होकर बंधनका दुःख भोगता है उसी प्रकार परस्त्रीके सुखका इच्छक विविधभाँति के वध बंधनादि पहिर और नरकादिके पाररिक दुःख उठाता है ।। ४३ ॥
नीतिकार नारद ने भी कहा है कि 'कामले मत्त जंगली हाथी इथिनीके पर्शसुखसे बन्धनका
१ तथा व बामदेव:
असनां मंगदोषेण साधनो यान्ति त्रिक्रिया । दुर्योधनप्रसन भीमो गोहरणे गतः 11511 २ तथा च बलभदेवधूमः पयोधरपदं कथमन्यवा-य-- । घोऽवभिः शमयति ज्यमनस्य तेजः ।। देवावाप्य स्खलु नीचजना प्रतिष्ठा । प्रायः स्वयं बन्धुजनमेव तिरस्करोति ॥शा ३ तादाथि केसि' ऐसा मु• मू० पु० में पाठ है, परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है। ४ तथा च नारद:
करिशीपर्शसौख्येन प्रमत्ता बनास्तिनः। स्वमायान्ति तस्माच सदाब वर्जयेत् सुस्थम, 11 .
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* नोतियाक्यामृत
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4.
पौन सीने लैटिन नो परती का लगभोग संबंधी सुख छोड़ देना चाहिये ॥ १ ॥
उल्लंघन करनेफा फल निर्देश करते हैं:धर्मातिक्रमाद्धनं परेऽनुभवन्ति, स्वयं तु परं पापस्य भाजनं सिंह इव सिन्धुरवधात् ॥ ४४ ॥
अर्थ:-धर्म-न्यायका उल्लङ्घन करके मंचित किये हुए धनको कुटुम्बीजन ही स्वाते है और कमानेया कैचन पापका ही भागी होता है। जैसे शेर हाथी की शिकार करता है, उससे शृगाल वगैरहको ही .. भोजन मिलता है से कोई लाभ नहीं होता, वह केवल पापका ही मंचय करता है ॥१४॥ Im नीविकार विदुग्ने' कहा है कि 'यह जीव अकेला ही पाप करता है और कुटुम्बीलोग उसफा उपभोग करते हैं ये लोग तो छूट जाने हैं, परन्तु कर्ता दोपस लिन होना है-दुर्गतिके दुःख भोगता है ॥१॥ पापीकी हानि बताते हैं
बीजभोजिनः कुटुम्बिन इव नाम्यधार्मिकस्यायन्यां किमपि शुभम् ।। ४५ ।। • अर्थ-श्रीजस्यानघाल्ने कुटुम्ब युक्त किमानकी तरह पापो मनुष्य का उत्तरकाल-भविष्यमें कुछ भी कल्याए
नहीं होता। जिसप्रकार किमान यदि अपने खेत में चोनेलायक मंचितवीजराशिको बाजावे तो उमका आपमें कल्याण नहीं होता, क्योंकि बीजोंके बिना उमके अन्न उत्पन्न नहीं होगा उनीप्रकार पापी भी
कारल धर्मसे विमुख रहता है अतएव उसका भी भविष्यमें कल्याण नहीं होमकता ।। १५ ।। - भागुरि' विद्वान ने भी उक्तबातया ममर्थन किया है कि 'बीजवानेवाले किसानको जिम प्रकार विश्व सम्स और शरदऋतु प्राने पर मुख प्राप्त नहीं होना, नमी प्रकार पापीको भी परलोकमें सुख ही होसकता ॥ १॥ धाम और अर्थ को छोड़कर केवल धर्ममें प्रवृत्त हुन् व्यक्तिका कथन करते हैं
__ यः कामाविपढ्त्य धर्म मेयोपास्ते स पक्वक्षेत्रं परित्यज्यारण्यं कृपति ।। ४६ ॥ - अर्थ:-जो व्यक्ति काम-न्यायमा कामिनी श्रादि भोगोपभोग सामग्री और अर्थ-धनादिसम्पत्ति
बसके साधन कृषि और व्यापार आदिको छोड़कर केवल धर्मका ही सतत सेवन करता है वह पहुए .. फाटनेयोग्य धान्यादिके खेतको छोड़कर जंगलको जोतता है।
भाषार्थ जिमप्रकार पकीहई धान्यसे परिपूर्ण ग्बेतको छोड़कर पहाड़की जमीन जोतना विशेष सामदायक नहीं है इसीप्रकार काम और अर्थ ( जीविका ) छोड़कर फेवल धर्मका सेवन गृहस्थ के लिये
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तशा च वितुर:एकाकी कुरुले रापं फलं भुषा महाजनः । . भोकरी विप्रनुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥७॥ २ तया द मागुति:
पासक्तस्य नो सौख्यं परलोके प्रजायते। . बीमाशिहालिकस्येव वतन्त शरदि रिश्वत ।
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काजी तिवाक्यामृत *
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विशेष लाभदायक नहीं है। प्राशय यह है कि यद्यपि पहाइकी जमीनको जोतनेसे अतिवृष्टि आदि उपद्रवों के अभावमें धाम्यकी उत्पत्ति होसकती है तथापि पके हुए खेतको काटफर उसके फल खाना उत्तम है उसीप्रकार गृहस्थ श्रावकको धर्मरूपीक्षके फलस्वरूप काम और अर्थके साथ धर्मका सेवन करना उचित है।
रेय विद्वान् भी लिखता है कि 'काम और अर्थके साथ धर्मका सेवन करनेसे मनुष्यको लश नहीं होता । अतएष सुखाभिलाषी पुरुषको काम और अर्थसे सहित ही धर्मका सेवन करना चाहिये ॥१॥
प्राचार्य वादीभसिंहने भी लिखा है कि परस्परकी बाधारहित धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थों को सेवन किया जाये तो बाधारहित स्वर्गकी प्राप्ति होती है तथा अनुक्रमसे मोक्ष भी प्राप्त होता है ।।१।।
निष्कर्षः नैतिक पुरुष काम और अर्थ के साथ धर्मका सेवन करे ॥ ४६॥ अब बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्यनिर्देश करते हैं:
__स खलु सुधी योऽमुत्र सुखाविरोधेन सुखमनुभवति ॥ ४७ ॥ अर्थ:-निश्चयसे यही मनुष्य बुद्धिमान है जो पारलौकिक' सुख का घात न करता हुआ सुखोंका अनुभव करता है-न्यायप्राप्त भोगोंको भोगता है।
भावार्थ:-परस्त्रीसेवन और मद्यपान आदि दुष्कृत्य पारलौकिक स्वर्गसंबंधी सुखके घातक है, इस लिये उनको छोड़कर जो व्यक्ति न्यायप्राप्त सुख-स्वस्त्रीसंतोष और पात्रदान आदि करता है वही युद्धिमान है।
वर्ग" नामके विद्वामने कहा है कि 'बुद्धिमान पुरुषको कौल और नास्तिकों के द्वारा कहहुये धर्म(मद्यपान, मांसभक्षण और परस्त्रीसेवन-प्रादि ) में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस धर्माभास (नाममात्रका धर्म ) से निश्चयसे नरकगसिके भयङ्कर दुःख होते हैं ।। १ ।।' अब अभ्यायके सुखलेशसे होनेवाली हानि यताते हैं:
इदमिह परमाश्चर्य यदन्यायसुखलवादिहामुत्रचानवधिदु:खानुबन्धः ॥ ४८ ।।
१ तथा च रैम्यःकामार्थसहिसो धमों न क्लेशाय मजायते ।
तस्माचाभ्यां समेतस्तु कार्यएव सुस्वार्थिमिः ।१।। २ तथा च चादीभसिंह:-- परस्परविरोधेन त्रिदोयदि सेव्यते ।
अनर्गलमतः सौख्यमपत्रोंऽप्यनुक्रमात् | 111 ३ 'सुखी' ऐसा मु० मू० पु. में पाठ है, जिपका अर्थ:---वही मनुष्य सुखी है। ४ तथा च वर्म:
सेवनाअख्य धर्मस्य नरकं प्राप्यते ध्वं । घीमता तन्न कर्तव्यं कौलनास्तिककीर्तितम् ॥१॥
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मनुष्यको तेहिक और पारलौकिक निस्सीम - सीमारहित अनन्त को इसका ज्ञान नहीं होता यह संसार में बड़े आश्चर्य की बात है। 'भोग चोरी और ल-कपट आदि अन्याय करके धनसंचय करते हुए संसारमें है उन्हें इसका परिणाम महाभयङ्कर होता है। अर्थात् इस लोक में उन्हें राजदण्ड सम्बन्धी अनंत दुःख भोगने पड़ते हैं, इस बात को बुद्धिमान पुरुष भलीभाँति को इसका ज्ञान नहीं होता इसलिये आचार्यश्रीने आश्चर्य प्रगट किया है ॥४८॥ नने भी उस बातका समर्थन किया है कि 'मुखको अन्यायको कमाईसे कविन्मात्र, उत मुख्य होता है, परन्तु ऐसी दुष्प्रवृत्ति उन्हें ऐहिक और पारलौकिक महाभयकर यह बड़ा आश्चर्य है | ॥
तिक व्यक्तिको कदापि श्रन्याय में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये ||४||
* हुए धर्म और अधर्मका काय और वल युनियों द्वारा समर्थन करते हैं :सुखदुःखादिभिः प्राणिनामुत्कर्षापकर्षो धर्माधयलिङ्गम् ॥४६॥
म प्रायोंकी सुखमामग्री - धनादिवैभव और विद्वत्ता आदि से उन्नति और दुःखसूना आदि से अवनति देखी जाती है, यही उन्नति और अवनति उनके पूर्व जन्म में raat करानी है— अर्थात् लोक में प्राणियोंकी सामग्री उनके पूर्वजन्मकृतमी अधर्मका निश्चय कराती है ।
शिवा वशि:
में कोई राजा, कोई रक कोई धनाढ्य, कोई दरिद्र, कोई विद्वान और कोई मूर्ख कविताएँ (भेद) टिगोचर हो रही है. इससे निश्चय होता है कि जिस व्यक्तिने fear उसे सुप्री प्राप्त हुई और जिसने पाप किया था उसे दुःसामप्री
के विद्वानने लिखा है कि 'प्राणियोंकी सुबकी वृद्धि उनके पूर्वजन्म में किये हुए धर्मका, वृद्धि पापका प्रद निश्चय कराती है || ||
भद्राचार्य' भी कहा है कि 'संसार में प्राणियोंकी अनेकप्रकारकी मुखदुखरूप विचित्र
यदन्यायार्जनात् सुखं । विहीनं च मुः लोकद्वयं भवेन् ||१||
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उक्षः
कूतं यं प्राणिनां जायते स्फुटं । या सुखदु:खस्य चिह्ननेनन् तयोः ॥ १ ॥
चित्र:कर्मानुरूपतः ।
— मस्तीचे स्वामी समन्तभद्राचार्यः ।
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* नीतिवाक्यामृत *
सृष्टि-कोई राजा, कोई रक्त, कोई विद्वान और कोई मून्य आदि उनके पूर्वजन्ममें किये हुए पुण्य और पापकर्मके अधीन है। क्योंकि जिन कार्याम बिांचनता-भिन्नता होनीवभिन्न कारणा देखे जाते हैं। जैसे शाल्यमादिरूप विचित्रकायांक उत्पादक अतक प्रकार शालिवीजादिक उपलब्ध है। अर्थात शाल्यकर-धान्याकुकर के उत्पादक शालिबीज-धान्यत्रीज और गेट अंकोंके मादक गह बीज लोकमें उपलब्ध हैं उसीप्रकार सुखरूपष्टिका कारण प्राणियों परयकर्म और दाम्वरूप मएिका कारण पापकर्म युक्तिसिद्ध है; क्योंकि इसमें किसी भी प्रमाणामे बाधा नहीं आनी; क्योंकि कारणको एक मानने नकारनालाल दामना ।
निष्कर्ष :-मुग्धसामग्री द्वारा उत्कप चाहनवाले ग्रामीको सदा नैनिक और धार्मिक मस्कर्तव्यों का अनुशन करना चाहिये ।। अब धर्माधिष्ठाता-भाग्यशानी का माहात्म्य वर्णन करने है :
किमपि हि तद्वन्तु नास्ति यत्र नैश्वर्यमदृष्टाधिष्टातुः ।। ५० || अर्थ:-निश्चयसे संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे भाग्यशाली मात्र न कर सकता है।
भावार्थ:--भाग्यवान धार्मिक व्यक्ति को मनारमें सभी अभिलपित बार-(धनादि वैभव विद्वाना शादि) प्राप्त होती है ।। ५ ॥
भृगु' नामका विद्वान् लिखता है कि जिन प्राणीका कोई रक्षक नहीं है उमकी देंध-प्वजन्मकन पुण्य रक्षा करता है । परन्तु जिसका भाग्य फूट गया है-जिसका प्रायुकर्म बाकी नहीं है यह मुक्षित ( अन् । तरह रक्षा किया गया) होने पर भी नष्ट होजाता है। उदाहरण-अनाथ प्राणी भी भाग्यके अनुकूल होनेपर वनमें छोड़ दिया जानेपर भी जीवित रहता है परन्तु जिसका भान्य प्रतिकूल है उसकी गृहमें । अनेक उपायों द्वारा रक्षा की जाने पर भी जीवित नहीं रहता ।। १ ।।'
शास्त्रकारोंने लिखा है कि 'जिम मनुष्य के पूर्व जन्ममें किये हुए प्रचुर पुण्य का उदय है-भाग्यशाली
, तथा च भृगुः
अरक्षितं तिति देवरक्षित। सुरक्षितं देवनं विनश्यति ।। जीवस्यनायोऽपि वने विसर्जिनः। कृतप्रयत्नोऽपि गृहे न जीवति ||१|| २ तथा च भर्नु परि:
भीमं धनं भवति तस्य पुरं प्रधानं । सोंजनः मुजननाम्ययाति तस्य ।। कृला च भूभवति सनिधिगलपूर्ण। यस्मास्ति पूर्वसुकृतं विगुल नरस्य ।
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ॐनीतिधाक्यामृत *
४१
BIPI......
भयार बन भी प्रधान नगर होजाता है। सभी लोग उससे सजनताका व्यवहार करते हैं। व पपिपी उसे निधियों और रत्नोंसे परिपूर्ण मिलती है ॥ १॥
संसारी प्राणियोंको मनुध्यपर्याय, उच्चवंश, ऐश्वर्य, दीपोयु, निरोगीशरीर, सज्जनमित्र, सुयोग्य समामा-पतिम्रता स्त्री, तीर्थकरोंमें भक्ति, विद्वत्ता, सज्जनता, जितेन्द्रियता और पात्रों को दानदेना ये कारके सद्गुण (सुखसामग्री) पुण्यके बिना दुर्लभ हैं-जिसने पूर्वजन्म में पुरुषसंचय किया है उस गाली पुरुषको प्राप्त होते हैं ॥ २॥
यह धर्म धनाभिलाषियोंको धन, इञ्चित वस्तु चाहनेवालों को इच्छितयस्तु, सौभाग्यके इच्छुकोंको साम्य, पुत्राभिलाषियोंको पुत्र और राज्यको कामनाकरनेवालोंको राज्यश्री प्रदान करता है। अधिक क्या बावे संसारमें ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे यह वेनेमें समर्थ न हो, यह प्राणियोंको स्वगश्री और मुक्तिश्री भी देने में समर्थ है ॥शा 5. जैनधर्म, धनाविऐश्वर्य, सज्जनमहापुरुषोंकी सङ्गति, विद्वानोंकी गोष्ठी, वक्तृत्वकला, प्रशस्तकार्यपटुता,
लोकेसटा सुन्दर पतित्रता स्त्री, गुरुजनोंके चरणकमलोंकी उपासना, शुद्धशील और निर्मलबुद्धि ये सब मसाममी भाग्यशाली पुरुषों को प्राप्त होती है ॥१।।
भगवान जिनसेनाचार्य ने कहा है कि यह धर्म प्रात्माको समस्त दुःखोंसे छुड़ाकर शानावरणादि कर्मों
मानुप्य यवंशजन्म विभवो दीर्घायुरारोग्यता । Hot अनि मुसुतं सती प्रियतमा भक्तिश्च तीर्थङ्करे ।।
विद्वत्व सुजनस्वमिन्द्रियजयः सत्यामदाने रतिः । - पते पुण्यविना प्रयोदशगुणाः संसारिणां दुर्लभाः ॥२॥ धोऽयं धनवरुनमेषु धनदः कामाधिना कामदः । सौभाग्यार्थियु तम्प्रदः किमपरः पुत्रार्थिनां पत्रदः ॥ राज्यार्थियपि राज्यदः किमथवा नानाविकरूपणां । सर्वि न करोति किं च कुरुते स्वर्गापवर्गावपि ॥१॥
-संगहीत अनो धर्मः प्रगरविभव: संगतिः साधुलोके । विद्गोष्ठी वचनपटुता कोशल सक्रियाम् ।। सावी लक्ष्मी चरणकमलोपासना सद्गुरूणां । शुशील मति विमलता प्राप्यते भाग्यद्भिः ॥२१॥
-संगृहीत १ धर्मः पाति दुखेभ्यो धर्मः शर्म तनोत्ययं ।
दमों नेश्रेय मौख्यं दत्त कर्मक्षयोद्भवम् ।। धर्मादव सुरेन्द्रयं नरेन्द्रत्वं गणन्द्रता । पोतीर्थकरत्वं च परमानन्त्यमेव च ||२||
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निवान्यात
के क्षयसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षमुखको उत्पन्न करता है। इसके माहात्म्यसे यह प्राणी देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गणधर और तीर्थकरके ऐश्वर्यको प्राप्त करके पुनः अमृतपद-मोक्षपदको प्राप्त होता है ॥१-२॥
धर्म ही इस जीत्रका सचा बन्धु, मित्र और गुरु है। अतएव प्रत्येक प्राणीको स्वर्ग और मोक्ष देने वाले धार्मिक सत्कमोंके अनुधानमें अपनी बुद्धिको प्रेरित करनी चाहिये ।।३।।
धर्मसे सुख मिलता है और अधर्मसे दुःख इसलिये विद्वान पुरुष दुःस्योंसे छूटनेकी इच्छासे धर्म में प्रवृत्ति करता है |
जीवदया, सत्य, क्षमा, शौच, संतोप-(मूर्धाका त्याग) सम्यग्ज्ञान पोर वैराग्य ये धर्म हैं और इनके विपरीत हिंसा, झूठ, क्रोध, लोभ, मूर्छा, मिथ्याशान और मिथ्याचारित्र ये अधर्म हैं ।।१।।
जिसप्रकार' पागल कुत्ते का विप वर्षाकाल मानेपर प्राणीको दुःख देता है उसीप्रकार पाप भी समय आनेपर जीवको नरकगतिके भयानक दुःख देता है ।।२।।
जिसप्रकार अपथ्य सेवनसे ज्वर वृद्धिंगत होता हुआ जीवको लशित करता है उमीप्रकार मिध्याइष्टिका पाप अशुभाशयसे घृद्धिको प्राप्त होकर भविष्यमें नानाप्रकारके शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक दुःखौको देता है ॥शा
धर्मके प्रभाव से समुद्र का अथाह पानी स्थल और स्थत जलरूप होकर सन्ताप दूर करता है। धर्म आपत्तिकालमें जीवकी रक्षा करता है और दरिंद्रको धन देता हैं इसलिये प्रत्येक प्राणीको तीर्थङ्करोंके द्वारा निरूपण किये हुए धर्मका अनुदान करना चाहिए ॥४॥
जिनेन्द्रभक्ति, स्तुति और सपर्या–पूजा यह प्रथमधर्म या पुण्य हैं। लोभकायको त्यागकर पात्रदान करना यह दूसरा धर्म है। एवं यह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह इन पाँच व्रतोंके अनुष्ठानसे तथा इच्छानिरोधरूप तपसे होता है। अतः विषेकी और मुन्नाभिलापी पुरुषोंको सदा धर्म में प्रवृत्ति करनी चाहिये ॥५॥
निष्कर्ष:-नैतिक पुरुषको पापोंसे पराङ्मुख होकर नीतिपूर्ण पुरुषार्थ-बोगसे समस्त सुखोंको देनेवाले धर्म में प्रवृत्ति करते हुए भाग्यशाली बनना चाहिये; क्योंकि मानगरिक सभी मनोजतम बस्तुएं उसे प्राप्त होती हैं ।।५।।
॥ इति धर्शसमुश समात ॥
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धमा बंधुश्च मित्रं च धर्माऽयं गुरुरं गिनां । , तस्मादमें मति धत्स्व स्वर्मोक्षसुखदायिनि ||३|| धर्मात्सुस्वमधर्माच्च दुःखमित्यविमानतः। धर्मकपरतां धत्ते बुद्धोऽनर्थ जिदासया ||
-यादिपुराण पर्व १० १ धर्म प्रारिणदया सत्यं शान्तिः शोचं वितृप्तता । शानरैराग्यसंपत्तिरधर्मस्तद्विपर्ययः ।।
-श्रादिपुग्ण पर्य. २ अादिपुरा के प्राधार से।
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* नीतियाक्यामृत *
(२) अर्थसमुदेशः । समय के प्रारम्भ में अर्थ-धन का लक्षण करते हैं:
यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ॥ १ ॥ जिससे मनुष्यों के सभी प्रयोजन-लौकिक और पारलौकिक सुख प्रादि कार्य सिद्ध हों उसे
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माद
-उदार नररत्न का धन ही वास्तविक धन है, क्योंकि उससे उसके समस्त प्रयोजन-काये पान्तु कपणोंके द्वारा जमीनमें गाड़ा हुआ धन वास्तधिक धन नहीं कहा जासकता; क्योंकि यह
और पारलोकिक सुखरूप प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकता ॥१॥ देष' नामके विद्वान कहा है कि यदि गृह मध्य में गाढ़े हुए धनये ऋषणों को धनिक कहा का असके उसी धनमे हमलोग ( निधन ) धनिक क्यों नहीं होसकते ? अश्य होसकते हैं ॥१॥
मध्यम वर्तमान कृपणों द्वारा सुरक्षित धन न तो धार्मिक सत्कार्य ( पावदान ) में उपयोग और न सांसारिक भोगोपभोगमें । अन्तमें उसे चोर और राजा लोग स्वाजाते हैं ।। २॥'
STARE
रोहिक एवं पारलौकिक सुखकी प्राप्तिके लिये--अर्थ-धन अनूठा साधन है । विवेकी और इससे दानपुण्यादिधर्म, सांसारिकसुख और स्वर्गश्रीको प्राप्त कर सकता है। परन्तु दरिद्र विमा अपनी प्राणयात्रा-प्राणरक्षा ही नहीं कर सकता, पुनः दानपुण्यादि करना तो
क्योंकि जिस प्रकार पहाइसे नदियाँ निकलती है उसीप्रकार धनसे धर्म उत्पन्नहोता है। मन मनुष्य स्थूलकाय (मोटा-ताजा) होनेपर भी दुर्वल, और धनाहन शकाय-कमजोर माविष्ट समझा जाता है । ममार, जिसके पास धन है उसे लोग कुलीन, पण्डित, शास्त्रा, मालपता और मनोन मानते हैं, इसलिये शास्त्रकारों ने जीविकोपयोगी माधनों द्वारा न्यायसे
का उपदेश दिया है। मी समन्तभद्राचार्यने कहा है कि इतिहास के आदिकाल में जब प्रजाकी जीवनरक्षाके साधन मप्राय होचुके थे उस समय प्रजा की प्राणरक्षाके इच्छुक प्रजापति भगवान् ऋषभदेव तीर्थंकर ने मात उसे खेती और व्यापार आदि जाविकोपयोगी साधनोंमें प्रेरित किया था।
- कमलभदेवेनः
सध्यनिखातेन धनेन धनिनो यदि । भवामः किन तेनैव धनेन धनिनो वयम् ॥१॥
न धर्मस्य कृते प्रयुज्यत यन्न कामस्य च भूमिमध्यगम् । imia करपरिरक्षितं धनं चौरपार्थिवाहेषु भुज्यते ॥ २ ॥ गरतिषः प्रथम जिजीविषुः शशास त्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।
पृरत्स्वयंभूस्तोत्रे स्वामी समन्तभद्राचार्यः ।
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* नीतिवाक्यामृत *.
भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि उस समय भगवान ऋषभदेव ने प्रजाकी जीवनरक्षा के लिये उसे असि-शस्त्रधारण, मषि-लेखनकला, कषि-खेती, विद्या, वाणिज्य-व्यापार और शिल्पकला इन जीविफोपयोगी ६ साधनों का उपदेश दिया था।
नीतिकार काम का है कि "कोम-जन्म जाने मालाको धर्म और धनके लिये एवं भृत्यों के भरणपोपणार्थ और संकटोंसे बचनेके लिये अपने कोषकी रक्षा करनी चाहिये ॥१॥
उसे प्रमाणिक अर्थशास्त्री कुशलपुरुषोंके द्वारा अपने खजानेकी वृद्धि करनी चाहिये तथा धर्म, अर्थ, और काम पुरुषार्थोकी वृद्धि के लिये समय २ पर कोष में से सम्पत्ति स्वच करनी चाहिये ॥२॥
जिस प्रकार देवताओंके द्वारा जिसका अमृत पी लिया गया है ऐसा शरद ऋतुका चन्द्रमा शोभायमान होना है उसी प्रकार यह राजा भी जिसने अपना खजाना धर्मकी रक्षाके लिये खाली कर दिया है, शोभायमान होता ॥३॥
निष्कर्षे:-उक्त न्यायोचितसाधनों द्वारा संचित किये हुए उदार--स्वार्थत्यागी ब्यक्तिके धनको वास्तविक धन कहा गया है। क्योंकि उसमे उसके सभी प्रयोजन सिद्ध होते हैं ।। १॥ अब धनाड्य होनेका उपाय बताते है:
सोऽथंस्य भाजनं योऽर्थानुबन्धेनार्थमनुभवति ॥ २॥ अर्थ:-जो मनुष्य सदा सम्पत्तिशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार अर्थानुबन्ध-(ब्यापारादि साधनों से अविधमान धनका संचय, संचितकी रक्षा और रक्षितकी वृद्धि करना ) से धनका अनुभव करता हैउसके संचय आदि में प्रवृति करता है वह उसका पात्र-स्थान होता है-धनान्य होजाता है।
. धर्ग' विद्वान ने भी आचार्यश्रीके अभिप्रायको व्यक्त किया है कि 'निश्चयसे वह व्यक्ति कभी भी निर्धन-दरिद्ध नहीं होता जो सदा विद्यमान धनकी प्राप्ति, प्राप्त किये हुए धनकी रक्षा और रक्षा किये गये की वृद्धि में प्रयत्नशील रहता है ।।१।। अब अर्थानुबन्धका लक्षण करते हैं
अलम्धलाभो लब्धपरिरक्षणं रक्षितपरिवर्द्धनं चानुबन्धः ॥ ३ ॥ अर्थः-व्यापार और राम्यशासन आदिमें किये जानेवाले साम, दान, दंड और भेद आदि उपयों से अविद्यमान धनका कमाना और प्राप्त किये हुए धनकी रक्षा करना- पात्रदानपूर्वक कौटुम्धिक निर्वाह फरना, परोपकार करते हुए निरर्थक धन को वर्वाद न करना, आमदनीके अनुकूल खर्च करना और चोरोंसे बचाना आदि ) और रक्षा किये हुए धनकी व्याज आदिसे वृद्धि करना यह अर्थानुबन्ध है।
। असिमषिःकर्षािविद्या वाणिज्यं शिपमेय षा। कर्मातीमानि बोदा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥
प्रादिपुराणे भगवज्जिनसेनाचार्थः। २ देखो नीतिमार सर्ग ४ श्लोक ६४। २५, देखो नीतिसार पू. १३ श्वोर८६-८७ । ५ तथा च चर्ग:अर्थानुसन्धमार्गेश मोर्थ संसेवते सदा । सन मुश्यने ने कदाचिदिति निश्चयः ॥1॥
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* नीतिवाक्यामृत श्री
४५
-विक म्यक्ति को उक्त अप्राप्तधनकी प्राप्ति, प्रातकीरक्षा और तितकीवृद्धि करने में
मा बाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे वह उत्तरकालमें सुखी रहता है ॥ ३ ॥ अपमान धनको प्राप्त करनेके विषयमें नीतिकार हारीसने' कहा है कि 'जिसके पास कार्यकी
काला धन विधमान है उसे इस लोकमें कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है-उसे सभी इच्छित सकती है, इसलिये मनुष्यको साम, दान, दंड और भेदरूप उपायोंसे धन कमाना
रसा विषयमें व्यास' नामके विद्वान् ने कहा है कि 'जिसप्रकार पानीमें रहनेवाला
मादि जलजन्तुओंसे, जमीन पर पड़ा हुआ शेर वगैरह हिंसक जन्तुओंसे और मेषामा पत्तियों द्वारा खालिया जाता है उसीप्रकार धन भी मनुष्यों ( चोरों आदि द्वारा)
लिया जाता है ।।२।। पनि लिवक्षनामी दि के वियों गर्म पिता का है कि 'धनान्य पुरुषको धनकी वृद्धि करनेके से सदा पाज पर देदेना चाहिये, इससे वह बढ़ता रहता है अन्यथा नष्ट होजाता है ।। ३।। न के नाराका कारण बताते हैं:--
तीर्थमर्थेनासंभावयन् मधुच्छत्रमिव सर्वात्मना विनश्यति ॥ ४ ॥ जो लोभी पुरुष अपने धनसे तीर्थो-पात्रोंका सत्कार नहीं करता-उन्हें दान नहीं देता उसका
के समान बिल्कुल न होजाता है । जिसप्रकार शहदकी मक्खियाँ चिरकाल तक पुष्पोंसे ला करती है और भौरोंको नहीं खाने देती, इसलिए उनका राहद भीललोग छत्तको तोड़कर ले
सीप्रकार लोभीके धनको भी पोर और राजा वगैरह छीन लेते हैं। गर्ग नामके विद्वाम्ने लिखा है कि 'जो कृपण-लोभी अपना धन पात्रों के लिये नहीं देता वह उसी साल गजामों और पौरोंके द्वारा मार दिया जाता है ।। १ ।। ..... ... .. -------
- यतो शागतेनः--
नास्ति लोकेऽष यस्यार्य साधन परम् । PAHEOदिमिमायश्च तस्मादर्थमुपाजयेत् ॥ १॥
पापम्यासः
रामि यो मस्येच्यते श्वापदै नि । ___ भारी पविभिश्चैव तपार्थोऽपि च मानः ॥ २॥
कर तो गर्गेण:से परिवातव्यः सदापों पनिकेन च । बता सहिमावाति तं विना क्षयमेव च ॥ ३ ॥ यावर्ग:योन यति पात्रेभ्यः स्वधनं कृपणो जनः । तेने पालैश्चराये वो हन्यते ॥ ॥
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४६
ॐ नीतिवाक्यामृत
Marat
बाब तीर्थ-पान का लक्षण करते हैं
धर्मसमवायिनः कार्यसमवायिनश्च पुरुषास्तीर्थम् ॥ ५ ॥ अर्थः-धार्मिक कार्योंमें सहायक-त्यागी प्रती और विद्वान पुरुषों और व्यवहारिक कार्यो महायकसेवकजनोंको तीर्थ कहते हैं।
भावार्थ:-उक्त ोनों प्रकारके तीर्थी-पात्रोंको दान देनेसे नैतिक मनुप्यका धन बढ़ना है । परम्नु जो अपने धन द्वारा उक्त सीोंका सत्कार नहीं करना इसका भन दिल्ल कारमाना ।।।
यूहरुपसि' नामके विद्वानने कहा है कि 'धनाड्य पुरुपोंकी सम्पत्तियाँ तौथी-पात्रों को दी जानेमे पृद्धि को प्राप्त होती हैं ॥१॥
अब धनको नष्टकरनेवाले साधनों का निर्देश करते है.. तादात्रिक-मूलहर-कदर्येषु नासुलभः प्रत्यवायः ॥ ६ ॥
अर्थ:--तादाविक (जो व्यक्ति बिना सोचे समझे आमदनीसे भी अधिक धन वर्च करता है। मुलहर (पैतृक सम्पत्तिको उड़ानेषाला और बिल्कुल न कमानेवाला) और कार्य ( लोभी) इन तीनों प्रकारक मनुष्यो का धन नष्ट.होजाता है ।। ६॥
नीतिकार शुक्रने लिखा है कि 'विना सोचविचारके धनको खर्च करनेवाला, दमरॉकी कमाई हुई। सम्पतिको खानेषाला और लोभी ये सीनों व्यक्ति धनके नाशके स्थान हैं ।।।। मन वादाविकका लक्षण करते हैं:
यः किमप्यसंचिस्योत्पन्नमर्थ व्ययति स तादाविकः ॥ ७ ॥ मर्थः-जो मनुष्य कुछ भी विचार न करके कमाए हुए धनका अपव्यय-निष्प्रयोजनस्य करता है उसे 'वादारिखक' कहते हैं। अर्थात् जो यह नहीं सोचता कि मेरी इतनी प्राय है अतएव मुझे आवश्यक प्रयोजनीभूत और आमदनीके अनुकूल खर्च करना चाहिए परन्तु बिना सोचे समझे अामदनीसे अधिक धनका अपव्यय करता है उसे तादात्विक कहते हैं ।।७॥
शुक' नामका विद्वान् लिखता है कि 'जिस व्यक्तिकी दैनिक आमदनी चार रुपये और खर्च सादे पाँच रुपया है उसकी सम्पत्ति अवश्य नष्ट होजाती है चाहे वह कितना ही धनाढ्य क्यों न हो ।। १।।
१वषा पति:तीर्थेषु योजिता अर्था धनिनां दुद्धिमाप्नुयुः ।। २ तथा प शुक:अचिन्तितार्थमश्नाति योऽन्योपार्जितमतक। पणश्च वयोऽप्येते प्रत्यवायस्य मन्दिरम् ||| तथा च शुक्र:प्राग यस्य चत्वाशे निर्गमे सार्धपंचमः। तस्याः प्रक्षयं यान्ति सुप्रभूतोऽपि चेस्थितः ।
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मार्गदेश
* नीतिवाक्यामृत
करते हैं:
यः पितृपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः ||८||
व्यक्ति अपने पिता और पितामह ( पिताके पिता ) की सम्पत्ति को अन्याय ( जुवा (आदि) से भक्षण करता है—खर्च करता है और नवीन धन बिल्कुल नहीं कमाता उसे
गुरू' ने कहा है कि 'जो व्यक्ति पैतृक सम्पत्तिको त कीड़न ( जुना खेलना ) और सम्यायोंमें अध्यय करना है और नवीन धंन बिल्कुल नहीं कमाता वह निश्वयसे
का लक्षणनिर्देश करते हैं :
यो
हार्थं चिनोति स कदर्यः ||६||
पति सेवकों तथा अपने को कष्ट पहुँचाकर धनका संचय करता है उसे कदर्य - लोभी
जिसके पास बहुतसी सम्पत्ति है परन्तु वह न तो स्वयं उसका उपभोग करता है और कुछ देता है किन्तु जमीन में गाड़ देता है उसे 'कदर्य' कहते हैं, उसके पास भी धन क्योंकि अवसर पड़ने पर राजा वा चोर उसके धनको अपहरण --- ( डीन लेना) कर पश्चाताप करके रह जाता है ॥६॥
और मूलहरको होनेवाली हानि बताते हैं :
:--
तादात्विकमूलहरयोरायत्यां नास्ति कल्याणम् ॥१०॥
-वादाश्विक और मूलहर मनुष्यों का भविष्य में कल्याण नहीं होता ।
૭
- वादात्यिक (अपनी आमदनीसे अधिक धनका अपव्यय करनेवाला ) एवं मूलहर को अन्याय मार्ग में बर्बाद करनेवाला ) ये दोनों सदा दरिद्र रहते हैं इसलिये आपत्ति से नहीं कर सकते श्रतः सदा दुःखी रहते हैं ||१०||
गुरु:
पुत्र नामके विद्वान्ते लिखा है कि 'जो आमदनी से अधिक खर्च करता है एवं पूर्वजों के कमाये मण करता है और नयाधन बिल्कुल नहीं कमाता वह दुःखी रहता है ||१||
साममन्यायेनानुभवति स मूलहर:' ऐसा पाठ मु० म० पु० में है परन्तु भेद कुछ नहीं है।
विस व्यसनैर्यस्तु भक्षयेत् ।
किंचित् स दरिद्रो भवेद् नम् ॥१॥
करिपुत्रः
कुर्यायो व्ययं पश्च भक्षति । मान्यदर्जयेच्च स सीदति ||१||
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.
. air
* नीतिवाक्यामृत *
अथ लोभी के धन की अवस्था बताते हैं :
कदर्यस्यार्थसंग्रहो राजदायादतस्कराणामन्यतमस्य निधिः ॥११॥ अर्थ :-लोभीका संचित धन राजा, कुटुम्बी और पोर इनमें से किसी एक का है। भावार्थ :--सोमो के धन को अवसर पाकर राजा, अतुम्धी या घोर अपहरण कर लेते हैं। निष्कर्ष :-अतएव लोभ करना उचित नहीं ॥१२॥
बल्लमदेव' नामके विद्वाम्ने लिखा है कि पात्रों को दान देना, उपभोग करना और नाश होना इस प्रकार धनकी सीन गति होती हैं। जो व्यक्ति न तो पात्रदान में धनका उपयोग करता है और न स्ययं तथा फुटुम्बके भरण पोषणमें खर्च करता है उसके धन की तीसरी गति ( नाश ) निश्चित है अर्थात् उसका धन नष्ट होजाता है |शा' निष्कर्ष :-इसलिये नैतिक व्यक्तिको धनका लोभ कदापि नहीं करना चाहिये ॥११॥
इति अर्धसमुद्देश: समाप्तः ।
(३) कामसमुद्देशः। अय कामसमुद्देश के प्रारम्भमें काम का लक्षण करते हैं :---
- प्राभिमानिकरसानुविद्धा यतः सर्वेन्द्रियप्रीतिः स कामः ॥१॥
अर्थ:-जिससे समस्त इन्द्रियों-(सर्शन, रसना, प्राण, बक्षु, श्रोत्र और मन) में बाधारहित प्रीति उत्पन्न होती है उसे काम कहते हैं।
सदाहरण:-कामी पुरुष को अपनी स्त्री के मधुर शब्द सुननेसे श्रोबेन्द्रिय में, मनोज्ञेहपका अवलोकन करनेसे चक्षुरिन्द्रिय में, और सुकोमल अङ्गके स्पर्शसे स्पर्शनेन्द्रियमें बाधारहित प्रीति-(आझाद) अत्पन्न होती है इत्यादि । अतः समस्त इन्द्रियों में बाधारहित प्रीतिका उत्पादक होनेसे स्वस्त्री सम्बन्ध को कामपुरुषार्थ कहा है।
निष्कर्षः-परस्त्रीसेवन से धर्मका तथा बेश्यासेवन से धर्म और धनका नाश होता है। अत: वह कामपुरुषार्थ नहीं कहा जासकता। अतः नैतिक पुरुष को उक्त दोनों अनर्थों को छोड़कर कुलीन संतानकी उत्पत्तिके पापर्श से स्वस्त्रीमें सन्तुष्ट रहना चाहिये ।।
१ तथा च बल्लभदेव :-- दाने भोगो नारातिलो गतयो भवन्ति रितस्य । यो न ददाति नक्तं तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥१॥
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ॐ नीतिवाक्यामृत *
कि 'जिसके (अपनी सती स्त्रीके) उपभोगसे समस्त इन्द्रियों में अनुराग ना चाहिये, इसके विपरीत प्रवृत्ति-परस्त्री और वेश्यासेवन आदि कुचेष्टा
को मष्ट किये बिना ही स्त्रीका सेवन करता है उसकी वह कामक्रीड़ा अमानी चाहिये ।।२।। नियोंको सन्ताप उत्पन्न करनेवाला कामसेवन करते हैं उनका यह कार्य अन्धे
के सामने गीतगाने के समान व्यर्थ है ॥३॥' धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ततः' मुवी स्यात् ॥२॥ यक्ति धर्म और अर्थकी अनुकूलतापूर्मक-सुरक्षा करता हुआ कामसेवन करे बया नहीं ॥१॥ जिनसे धार्मिक और वैश्यासेपनस मानिक-धनको क्षति होती है अतः उनका ली में ही सतोप करमा चाहिये तभी मुम्य मिल सकता है |
त बावकी पुष्टि करता है कि जो मनुःय परस्त्री और वेश्यासेवनका त्याग ष-धार्मिक शति और धनका नाश नहीं हातः वथा सुख मिलता है ।।।।' सेवन करने की विधि बताते हैं:
समं वा त्रिवर्ग संवेत ॥३॥ तिक व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोको समयका समान विभाग
.
... मासान् यस्याः सेवनेन च ।
को यत्तदम्पद्विचेष्टितम || बासायं यः कश्चित् सेवते स्त्रियं ।
में नररूपस्य मोहनं ।।
न मोरन क्रियते जनः । मी नावं सुगौत सपिरस्य च ॥३॥
स्था' इस प्रकार मु मू• पुस्तक में पाठ है परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है ।
"
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पशु वैश्यां चैव सदा नरः । में रोष मुखिनो न पनन्नयः ।।
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4 नोतिषामान्य
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भावार्थ:-विवेकी मनुष्यको दिनके १२ घंटों में से एकत्रिभाग-४ घंटे धर्ममेवनमें, एकत्रिभाग अर्थपुरुषार्थ न्यायसे धनसंचय करनेमें और एकत्रिमाग कामपुरुषार्थ-(न्यायप्राप्त भोगोंको उदासीनता से मोगना) के अनुधानमें व्यतीत करना चाहिये । इसके विपरीत जो व्यक्ति काम सेवनमें ही अपने ममयके बहुभागको व्यतीत कर देता है, वह अपने धर्म और अर्थपुरुषार्थको नष्ट करता है। जो केवल सहा धर्म पुरुषार्थका ही सेवन करता है, वह काम और अर्थकी सावि करता है और जो दिनरात सम्पत्तिके मंचन करनेमें व्यग्र रहता है, वह धर्म और कामसे विमुख होजाता है। इस प्रकार के व्यक्ति अपने जीवनको सुखी बनानेमें समर्थ नहीं होसकते । अतएव सुखाभिलापी विवेकी पुरुष तीनों पुरुषायोको परस्परकी बाश रहित समयका समान विभाग करके सेवन करे।
विद्वान् नारद' मी आचार्यश्री की उक्त मान्यताका समर्थन करता है कि 'मनुष्यको दिनके तीन विभाग करके पहले विभागको धमांनुवानमें और दूसरेको धन कमानेमें एवं तीसरेको कामसेवन में उपयोग करना चाहिये ॥१॥ .. बादीमसिंहमूरिने कहा है कि यदि मनुष्यों के द्वारा धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्य परस्परकी बाधारहित सेवन किये जाँय तो इससे उन्हें बिना रुकावटके स्वर्गलक्ष्मी प्राप्त होती है और कमसे मोक्षसुख भी प्राप्त होता है ।शा'
निष्कर्षः-नैतिक व्यक्तिको धर्म, अर्थ, और काम पुरयार्थीको परस्परकी बाधारहित समयमा । समान विभाग करते हुए सेवन करना चाहिये ।।३।। अब तीनों पुरुषायोंमें से केवल एकके सेवनसे होनेवाली हानि बताते हैं:
एकोम'त्यासेवितो धर्मार्थकामानामारमानमिवरौ च पीरपति । ४॥ अर्थः-ओ मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषायों में से केवल एकको ही निरन्तर सेवन करता है और दूसरेको छोड़ देता है यह केवल उसी पुरुषार्थको वृद्धि करता है और दूसरे पुरुपयोंको ना कर गलता है।
भावार्थ:-जो व्यक्ति निरन्तर धर्म पुरुषार्थका ही सेवन करता है वह दूसरे पर्व और कामपुरुषायो । को नरदेवा है, क्योंकि उसका समस्त समय धर्मके पालनमें ही लग जाता है। इसी प्रकार देवास
तथापनारब:पार सषिमा प्रयम धर्ममाचरेत् । द्वितीय सतो पित्त' नृती कामसेवने ॥ २ परस्परविरोधेन विवों परि म्यते। मागतः गौम्पमरणयोंभवतुकयात्
बापूधामको साक्षी मसिहसटि मलम। ३ 'भस्यारक्याम प्रकार म. म. पाक में पाटो अर्थ प्रयन्त प्रासबिन में ।
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* नीतिवाक्यामृत
हवाला, धर्म और काम से और कामासक्त धर्म और धन से पराङ्मुख रहता है | अतएव केवल एक पुरुषार्थ ही अत्यन्त आसक्ति सेवन नहीं करना चाहिये ।
विमने लिखा है कि जिनकी चित्तवृतियाँ धार्मिक अनुष्ठानोंमें सदा लगी हुई हैं के विशेष विरत रहते हैं; क्योंकि धनसंचय करने में पाप लगता है ||१||
-नैतिक व्यक्तिको वास्तविक सुखकी प्राप्तिके लिये धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोंमें से केवल नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनेसे वह अन्य पुरुषार्थोके मधुर फलोंसे वंचित रह
धन कमानेवालेका कथन करते हैं :
परार्थ भावानि इवात्मसुखं निरुन्धानस्य धनोपार्जनम् ||५||
५१
जो मनुष्य अपने सुखको छोड़कर अश्यन्त कष्टों को सहकर धनसंचय करता है वह दूसरोंके
मनुष्य या पशुaी तरह केवल दुःखी ही रहता है। अर्थात् जिसप्रकार कोई मनुष्य या कार-धाम्यादि षोकको धारण कर लेजाता है किन्तु उसे कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि वह (उपयोग ( भक्षण आदि) में नहीं लाता, उसीप्रकार अनेक कष्ट्रोंको सहन करके धन कमाने भी दूसरोंके लिये कष्ट सहता है परन्तु उस सम्पत्तिका स्वयं उपभोग नहीं करता, अशरद नहीं होता।
मामके विद्वान ने लिखा है कि 'अत्यन्त कष्टों को सहकर धर्मको उल्लंघन करके एवं शत्रुओंको सम्पति संजय की जाती है। हे आत्मन् ! इसप्रकार की अन्याय और कपटसे कमाई चिको संचय करनेमें अपने मनकी प्रवृत्ति मत करो || १ || १
की सार्थकता बताते है:
इन्द्रियमनः प्रसादनफला हि विभूतयः ॥ ६ ॥
-
इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, प्राण, बहु और श्रोत्र ) तथा मनको प्रसन्न करना-यही सम्पत्तियोंका फल है। अर्थात् जिस सम्पत्तिसे धनिक व्यक्तियों की सभी इन्द्रियों और
-सुख उत्पन्न हो वही सम्पत्ति है।
क्याच इ.पतिः
मन कामे स्वात्सुविरागता । अचापि विशेषेध पत्रः समादधर्मः ॥१
१ तथा च व्यासः ----
प्रतिक्लेशेन ये पाय धर्मस्यातिक्रमेण च । शांतिनमात्मन् तेषु मनः कृथाः ||१||
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* नीतिवाक्यामृत *
निष्कर्षः-कृपण लोग सम्पत्ति प्राप्त करके भी अपनी प्रियतमा ( स्त्री) के स्पर्श, उसके सुन्दर रुपका अवलोकन और मिष्ठान्नका आस्वाद आदिसे बंचित रहते हैं, क्योंकि ये बहुधा धनको पृथ्वीमें गाइ देते हैं, अतः वे लोग अपनी इन्द्रियाँ और मनको प्रसन्न करने में असमर्थ है, इसलिये उनकी सम्पत्ति निष्फल है।
ज्यास' नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'जो धन पंचेन्द्रियोंके विषयों का सुख उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं है वह ( कृपणोंका धन ) नपुसफोंके यौवनकी तरह निष्फल है। अर्थात जिसप्रकार नपुंसक व्यक्ति जयानीको पाकर, प्रियतमाके उपभोगसे वंचित रहता है अतएव उसकी जवानी-युवावस्था पाना। निरर्थक है, उसी प्रकार कृपणों का धन भी सांसारिक सुखोंका उत्पादक न होनेसे निरर्थक है ॥१॥
पारायण' नामके विद्वानने लिखा है कि 'जो व्यक्ति धनाढ्य होकर दूसरों की नौकरी प्रादि करके। मानसिक कष्ट उठाता है उसका धन ऊपर जमीन को घर्षण करनेकी तरह निष्फल है ।।१॥' अब इन्द्रियोंको फायूमें न करनेवालोंकी हानि बताते हैं:
नाजितेन्द्रियाणां काऽपि कार्यसिद्धिरस्ति ॥ ७॥ अर्थ-जिनकी इन्द्रियाँ वश (कावू ) में नहीं है उन्हें किसी भी कार्यमें थोड़ी भी सफलता नहीं मिलती-उनके कोई भी सत्कार्य सिद्ध नहीं होसकते ।
___ भावार्थ:-जो व्यक्ति श्रोत्रेन्द्रियको प्रिय संगीतके सुननेका इच्छुक है वह उसके सुनने में अपना सारा समय लगा देता है इसलिए अपने धार्मिक और आर्थिक ( जोविका संबंधी) श्रादि आवश्यक कार्योंमें विलम्ब कर देता है, इसी कारण वह अपने कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । इसीप्रकार अपनी प्रियाओंके आलिंगनके इच्छुक या लावण्यवती ललनाओंके देखनेके इच्छुक तथा मिष्ठान स्वादके लोलुपी व्यक्ति भी उन्हीं में पासक्त होनेके कारण दूसरे भाषश्यकीय कार्यों में बिलम्म करते हैं, अतएव उनके सत्कार्य सफल नहीं हो पाते।
शुक्र' नामके विद्वानने लिखा है कि यदि मनुष्य उत्तम फलवाले कार्यको शीघ्रतासे न कर उसमें बिलम्ब कर देषे तो समय उस कार्यके फलको पी लेता है अर्थात् फिर यह कार्य सफल नहीं हो पाता : १॥
तथा च न्यास:यद्धन विषयाणां च नैवल्दारकरं परम् । तत्तयां निष्फल ज्ञेयं दानामिव यौवनम् ॥१॥ २ तमा च चारायणःसेवादिभिः परिक्लेशे विद्यमानधनोऽपि यः। सन्ताय मनसः कुर्यात्ततस्योपरकर्षणम् ॥१॥ तथा च शुक्र:यस्य तस्य च कार्यस्य सफलस्य विशेषतः । क्षिप्रमविमागस्य काल: पिबति तत्फलम् ॥ १ ॥
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* नीतिवाक्यामृत
करनेका उपाय बताते हैं :
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मामके विद्वानने लिखा है कि विषयोंमें श्रासक पुरुष अपने आवश्यक कार्योंमें इससे पता न करने से उन्हें उनका फल नहीं मिलता ॥ १ ॥
स्टेनसकिविरुद्धे चाप्रवृत्तिरिन्द्रियजयः ||८||
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विवेचनः नैतिक सज्जनको विषयरूपी भयानक वनमें दौड़नेवाले इन्द्रियरूपी हाथियों को विशुन्ध-व्याकुल करनेवाले हैं, सम्यग्ज्ञानरूपी अंकुशसे दशमें करना चाहिये। मुल्यतासे इन्द्रियों विषयों में प्रवृत्त हुआ करती हैं, इसलिये मनको वशमें करना ही जितेन्द्रियपन क्योंकि विषयों में अंधा व्यक्ति महाभयानक विपत्तिके गर्तमें पड़ता है ॥ ७ ॥
५३
MIHIN
-पदार्थ- प्रियवस्तु (कमनीय कान्ता आदि ) में आसक्ति न करनेवाले और विप्रकृति से प्रतिकूल वस्तुमें प्रवृत्त न होनेवाले व्यक्तिको जितेन्द्रिय कहते हैं।
यद्यपि पदार्थों का सेवन बुरा नहीं है परन्तु श्रसक्तिपूर्वक उनका अधिक सेवन करना विद्वान का भक्षण करना बुरा नहीं है किन्तु आसक्त होकर उसका अधिकमात्रा में सेवन
कारक है। अथवा अजीर्णावस्था में पथ्य न भी रोगवर्द्धक है। अतः इष्टपदार्थों में भीर प्रकृति तथा ऋतुके विरुद्ध या शिष्टाचार से प्रतिकूल पदार्थके सेवन में अज्ञान और तिम करना इन्द्रियजय है ।
-नैसिक और जितेन्द्रिय पुरुषको अपना कल्याण करनेके लिये इष्टपदार्थमें आम न प्रतिकूल पदार्थ में प्रवृत्ति न करनी चाहिये ||८||
विद्यते विषयासक्रचेतसः । हिमाषु तेषु तेषां न तत्फलम् ॥ १ ॥
जानने कहा है कि 'यदि मनुष्य शिष्ट पुरुषोंके मार्ग का पूर्ण अनुसरण - पालन न कर सके : अनुसरण करना चाहिये, इससे वह जितेन्द्रिय होता है ||१||
का दूसरा उपाय या उसका लक्षण करते हैं :--
मस्स्नं यदि न शक्यते । स्वयं येन स्यात् स्व विनिर्जयः ॥ १ ॥
अर्थशास्त्राध्ययनं वा ॥६॥
मनुष्यको इन्द्रियोंके जय करनेके लिये नीतिशास्त्रका अध्ययन करना चाहिये । अथवा हम्पयन ही इन्द्रियोंका जय - दशमें करना है।
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* नीतियाक्यामृत
नीतिकार वर्गने' कहा है कि जिसप्रकार लगाम के आकर्षण-पींचना आदि क्रियासे घे के वशमें कर लिये जाते हैं उसीप्रकार नीतिशास्त्रोंके अध्ययनसे मनुष्यकी चंचल इन्द्रियाँ वशमें होजाती हैं ।।१।। अब उक्त बात (नीतिशास्त्र के अध्ययनको ही इन्द्रियोंका जय कहना ) का समर्थन करते हैं:
कारणे कार्योपचारात् ॥१०॥ अर्थः–कारणमें कार्यका उपचार (मुख्यता न होने पर भी किसी प्रयोजन या निमित्तके वश वस्तुमें मुख्यकी कल्पना करना ) करनेसे नीतिशास्त्रके अध्ययनको ही 'इन्द्रियजय' कहा गया है।
भावार्थ:-जिसप्रकार चश्मेको ठमें सहायक-निमित्त होनेसे नेत्र माना जाता है उसीप्रकार नीतिशास्त्र के अध्ययनको भी इन्द्रियोंके जय-यश करनेमें निमित्त होनेसे 'इन्द्रियजय' माना गया है ।॥१०॥ अब कामके दोषोंका निरूपण करते हैं :
योऽनङ्गेनापि जीयतेल कार 'पुष्टाहारानी अा।।। अर्थः-जो व्यक्ति कामसे जीता जाता है—कामके वशीभूत हैं वह राज्य के अङ्गों-स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और सेना आदिसे शक्तिशाली शत्रओं पर किसप्रकार विजय प्राप्त कर सकता है ? नहीं कर सकता।
___ भावार्थ:-क्योंकि जब वह अना (अङ्गहीनताके कारण निर्वल काम देव ) से ही हार गया तब अङ्गों-अमात्य आदि से बलिष्ठ शत्रुओंको कैसे जीत सकता है ? नहीं जीत सकता ॥१॥
नीविकार भागुरिने भी वक्त बातकी पुष्टि की है कि 'कामके वशीभूत राजाओं के राज्य के मन (स्वामी और अमात्य श्रादि ) निर्बल-कमजोर या दुष्ट-विरोध करनेवाले होते हैं; इमलिये उन्हें और उनकी कमजोर सेनाओंको बलिष्ठ अङ्गों (अमात्य और सेना आदि ) वाले रामा लोग मार डालते हैं ॥१॥ निष्कर्ष:-विजयलक्ष्मीके इच्छुक पुरुषको कदापि कामके वश नहीं होना चाहिये ॥११॥
-...-... -. ..-.---- १ तथा च वर्ग:
नीतिश त्राएयपोते यस्तस्य दुष्टाभि स्वान्यपि । वशगानि शनास्ति कशापाते हया यथा ॥३|| २ उक्त सूत्र सं० टीका पुस्तक में नहीं है किन्तु मु. म. पुस्तक से संकलन किया गया है। । मु० मू० पुस्तक में 'पुष्टानादन्' ऐसा पाट है जिसका अर्थ बलिष्ठ मनुष्य आदिको होता है। ४ तथा च भागुरिः
ये भूपाः काम सक्ता निमराज्याजदुर्वला:।। दृष्टानास्तान् पराइन्युः पुष्ट का दुर्बलानि च ॥१॥
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नीतिवाक्यामृत*
अम कामी पुरुषकी हानिका निर्देश करते हैं:
कामासक्तस्य नास्ति चिकित्सितम् ॥१२॥ अर्थः कामी पुरुषको सन्मार्ग पर लाने के लिये लोकमें कोई औषधि (कामको छुपानेवाला हितो. पदेश आदि उपाय ) नहीं है क्योंकि वह हितैषियोंके हितकारक उपदेशकी अवहेलना-तिरस्कार या उपेक्षा करता है ॥१२॥
__ नीतिकार जैमिनिने' भी कहा है कि 'कामी पुरुष पिता माता और हितैषीके वचनको नहीं सुनता इससे नष्ट होजाता है ।।१।। भव स्वीमें अत्यन्त भासक्ति करनेवाले पुरुषकी हानि बताते हैं :
न तस्य धनं धर्मः शरीरं वा यस्यास्ति स्त्रीवत्यासक्तिः ॥१३॥ अर्थ:-स्त्रियों में अत्यन्त आसक्ति करनेवाले पुरुषका धन, धर्म और शरीर नष्ट होजाता है।
भावार्थः क्योंकि स्त्रियोंमें लीनरहनेवाला पुरुष कृषि और व्यापार आदि जीविकोपयोगी कार्योंसे षिमुख रहता है। अतः निधन पारिद्ध होजाता है। इसी प्रकार कामवासनाकी धुनमें लीन होकर दान पुण्य प्रावि धार्मिक अनुष्ठान नहीं करता इससे धर्मशून्य राता है। एवं अत्यन्त वीर्यके सरसे राजयरमासपेडिक भादि असाध्य रोगोंसे व्याप्त होकर अपने शरीरको कालकवलित करानेवाला-मृत्युके मुख में पहुँचानेवाला होता है ।।१३॥
निष्कर्षः-अतएव साम्पत्तिक-प्रार्थिक, धार्मिक और शारीरिक उन्नति पाहनेवाले नैतिक पुरुषको लियों में अत्यन्त प्रासक्ति नहीं करनी चाहिये ॥३।।।
नीतिकार कामन्दकने कहा है कि 'सवा स्त्रियोंके मुखको देखनेमें भासक्ति करनेवाले मनुष्योकी सम्पत्तियाँ जवानीके साथ निश्चयसे नष्ट हो जाती हैं ॥१॥
बल्लमदेव विद्वानने लिखा है कि 'जो कामी पुरुष निरन्तर अपनी प्यारी स्त्रीका सेवन करता है बते धृतराइके पिताके समान राजयश्मा-तपेदिक रोग होजाता है ॥१॥ १ तया च मिनिःनशणोति विश्वांस्य न मातुन हितस्य च। कामेन विजितो मयस्तो नारी प्रगश्चति ॥ २ सथा कामन्दक:निता संप्रसकाना बान्तामुखविलोकने । नाशमामान्ति सुव्यात यौवनेन समं शियः ॥ १॥ । तथा च पलामदेवःपः संसेवयते कामी कामिनी सतत प्रियाम् । तस्य संजायते यत्मा भूतराष्ट्रपितर्या
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अब नीतिशास्त्रसे विरुद्ध कामसेवनसे होनेवाली हानि बताते हैं:--
विरुद्धकामवृत्तिः समृद्धोऽपि न चिरं नन्दति ॥ १४ ॥ अर्थ:-जो मनुष्य नीतिशास्त्रसे विरुद्ध कामसेवनमें प्रवृत्त होता है-परस्त्री और बेश्यासेवन पादि अन्यायके भोगों में प्रवृत्ति करता है वह पूर्वमें धनाध्य होनेपर मी पश्चात् चिरकालतक धनाका नहीं हो सकता--सदा दरिद्रताके कारण दुःखी रहता है।
भावार्थ:-क्योंकि ऐसी असत् -नीतिविरुद्ध कामप्रतिसे पूर्वसंचित प्रधुरसम्पत्ति बर्वाद-लए हो. जाती है तथा व्यापार आदिसे विमुख रहने के कारण उसरकालमें भी सम्पत्ति नहीं प्राप्त होती अतः दरिद्रताका कष्ट उठाना पड़ता है।
निष्कर्षः-अतः नैतिक पुरुषको नीतिविरुद्ध कामसेवन-परस्त्री और बेश्यासवनका सदा स्यागकर देना चाहिये ।।१४॥
भूषिपुत्रकने' भी उक्त बात का समर्थन किया है कि 'लोकमें परस्त्रीसेवन करनेवाला मनुष्य धनराज्य होनेपर भी दरिद्र होजाता है और सदा अपकीर्तिको प्राप्त करता है ।। १॥
अब एककालमें प्राप्त हुए धर्म, अर्थ और काम पुरुषायों में से किसका अनुमान पूर्वमें करना चाहिये? इसका समाधान किया जाता है:
धर्मार्थकामानां युगपत्समवाये पूर्वः पर्षों गरीयान १ ..अर्थ:-एफकालमें कर्तव्यरूपसे प्राप्त हुए धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोंमें से पूर्वका पुरुणर्य ही श्रेष्ठ है।
मावार्थ:-नैतिक गृहस्थ पुरुषको सबसे प्रथम धर्म तत्परचान अर्थ और अन्तमें कामपुडवार्थका सेवन करना चाहिये ॥१५॥
भागरि विशम्ने लिखा है कि मनुष्यको दिनके तीन भागोंमेंसे एकमाग धर्मसाधनमें, एक भाग धनार्जनमें और एकमाग कामपुरुषार्थ में व्यतीत करना चाहिये ॥१॥ भब समयकी अपेक्षासे पुरुषार्थका अनुष्ठान बताते हैं
कामासात्वे पुनरर्थ एव ॥१६॥ अर्थः-समय (जीविकोपयोगी व्यापार भाविका फाल) का सहन न होनेसे दूसरे धर्म और १ सपा व ऋषिपुत्रक:परमारतो योऽत्र पुरुषः संप्रजापते । [बनायोऽपि दरिद्रः स्याम्फीति लमते सदा ॥] इस श्लोकका उत्तराई' संमतटोका पुस्तक में नहीं है अतः हमभे नवीन रचना करके उसकी पूर्ति की है। १ तथा म भागुरि:धर्मचिन्ता तृतीवाय दिवसस्य समाचरेत् । सतो विधाजने सावरमा कामाने तथा ॥१॥ १ मु.मू० पुस्तक में कालसहत्येपुनरर्थ एवं ऐसा पाठहैजिसका पः-धर्म और काम पूसरे धमयमें भी किये जासकते है, असल तीनोंमें अर्थ हो .
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* नीतिवाक्यामृत
कामपुरुषार्थकी अपेक्षा अर्थपुरुषार्थ (न्यायसे जीविकोपयोगी व्यापार और कृषि आदि साधनों द्वाग धनका संचय करना ) का अनुष्ठान करना ही श्रेष्ठ है।
भावार्थ:- शनि दिसी मनुष्य को न्यायसे धनसंचय करनेका अवसर प्राप्त हुआ हो और उसके निकल जानेपर उसे ऐसी आर्थिक क्षति होती हो, जिससे वह परिद्रताके कारण अपना कौटुम्बिक निर्वाह करनेमें असमर्थ होकर दुःखी होता हो, तो उसे धर्म और कामपुरुषार्थोकी अपेक्षा पूर्वमें अर्थपुरुषार्थका ही मनुष्ठान करना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि 'अर्थवालो धर्मो न भवति' अर्थात् धर्मके बिना धर्म नहीं होसकसा । अभिप्राय यह है कि गृहस्थ पुरुष दरिद्रताके कारण न धर्म प्राप्त कर सकता है और न सांसारिक सुख । मतः अर्थपुरुषार्थ मुख्य होने के कारण पूर्वमें उसका अनुष्ठान करना ही श्रेष्ठ है ॥ १६ ॥
__ नारद' विद्वान्ने भी उक्त बातकी पुष्टि की है कि दरिद्र पुरुषोंके धर्म और कामपुरुषार्थ सिद्ध नहीं होते; अतः विद्वानोंने धर्म और कामपुरुषार्थोकी अपेक्षा अर्थपुरुषार्थको श्रेष्ठ कर्तव्य बसाया है ।। १ ।।'
विमर्श:-धर्माचार्योने कहा है कि "विवेकी मनुष्यको पूर्वमें धर्मपुरुषार्थका ही अनुष्ठान करना पाहिये । उसे विषयोंकी लालसा, भय, लोभ और जीवरक्षाके लोभसे कभी भी धर्म नहीं छोड़ना चाहिये। परन्तु प्राचार्यश्रीका अभिप्राय यह है कि आर्थिक संकट में फंसा हुआ दरिद्र व्यक्ति पूर्व में अर्थ-जीविकोपयोगी व्यापार आदि करे, पश्चात् उसे धर्म और कामपुरुषार्थका अनुष्ठान करना चाहिये, क्योंकि लोककी धर्मरक्षा, प्राणयात्रा और लौकिकसुख आदि सब धन द्वारा ही सम्पन्न होते हैं ।।१६।। अब तीनोंपुरुषार्थोमें अर्थ पुरुषार्थकी मुख्यता बताते हैं :
धर्मकामयोरर्थमूलत्वात् ॥१७॥ अर्थः-धर्म, और काम पुरुषार्थका मूल कारण अर्थ है। अर्थात् बिना अर्थ (धन) के धर्म और कामपुरुषार्थ प्राप्त नहीं हो सकते ॥१७॥
इति कामसमुदशः समाः।
------- -- -- १ सपा व नारद:
अर्थकामी न सिध्येते दरिद्रासो कथंचन । तस्मादर्थोगुरुस्ताभ्यां संचिन्त्यो शायते बुधैः ।। 1 । १ न जातु कामास भयान पोमा-। बम खोजीवितस्यापि हेतोः ।।१।।
संगीत:१ पासून संस्कृत य. पुस्तक में नहीं है किन्तु मु. म. पुस्तक से संकलन किया गया है।
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ॐ नीतिवाक्यामृत * .
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अथ अरिषड्वर्ग-समुद्देशः। अब राजाओंके अन्तर शत्रुसमूह-काम गौर सोधादिका निहारते है :
भयुक्तितः प्रणीताः काम-क्रोध-लोभ-मद-मान-होः क्षितीशानामन्तरङ्गोऽरिपड्वर्गः ॥शा
अर्थः-अन्यायसे किये गये काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष ये राजाओंके ६ अन्तरता शत्रुसमूह हैं ॥शा विशवविवेचन :
नीतिकार कामन्दक' लिखता है कि 'सुखाभिलाषी राजाओंको काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद इन ६ शत्रुवर्गोका सदा त्याग कर देना चाहिये ॥१॥
राजा दण्डको कामके वशीभूत होकर-शुक्राचार्यकी कन्याके उपभोगकी इच्छासे नन हुआ। राजा जनमेजय' ब्राह्मणोपर क्रोध करनेसे उनके शापसे रोगी होकर नष्ट हुआ। राजा ऐ लोभसे और वातापि' नामका असुर अपने अभिमानसे अगस्त्य द्वारा नष्ट हुआ ||२||
पुलस्त्यका बेटा रावण मानसे और दम्भोर राजा मदसे नष्ट हुआ। अर्थात् ये राजा लोग शत्रुषड्वर्ग-उक्त काम और क्रोधादि के अधीन होनेसे नष्ट होगये ॥शा
इसके विपरीत-काम और क्रोधादि शत्रुषवर्ग पर विजय प्राप्त करनेवाले जितेन्द्रिय परशुराम और महान् भाग्यशाली राजा अम्बरीषने चिरकाल तक पुष्पीको भोगा है ।।
जो राजा जितेन्द्रिय और नीतिमार्गका अनुसरण करनेवाला-सदाचारी है उसकी लपमी प्रकारामान और कीर्ति आकाशको स्पर्शकरनेवाली होती है || १ कामन्दकः मार:
कामः कोषस्तया जोमो इर्षो मानो महत्तया। पडवर्गमुत्सृजेवेनमस्मिन् त्यो मुखी नृपः दण्डको नति: कामात् कोषाच जनमेजयः । लोभादेलस्तु राजर्षिर्यातापिर्द पंतोऽसुरः २ पौलस्यो रक्षो मानान्मदारम्भोद्भवो नृपः । प्रयाता निधन में ते शत्रुषश्वगमाभिताः || शत्रुषावर्गमुस्मृज्य नामदग्न्यो जितेन्द्रियः।। अम्बरीषो महाभागो बुभुज ते चिरं महीम् I जितेन्द्रियस्य नृपते मन्तिमार्गानुसारिणः । भवन्ति क्वलिता पारम्यः कीर्तयश्च नभायराः III
कामन्दकीय नीतिसार पृ४ १२-१३॥ २, ३, ४, उस कथानक कामन्दकीय नीतिसार पृष्ठ पर से मान लेनी चाहिये ।
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* नीतिवाक्यामृत
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लिमिली राजाओं तथा सुखाभिलाषी मनुष्योंको अनुचित स्थान में किये जानेवाले उक्त वि-यानुवर्गों पर विजय प्राप्त करनी चाहिये, क्योंकि इनके अधीन हुए व्यक्तिको कापि
कि मुल प्राप्त नहीं होसकता ||१|| विषम करते हैं :. परपारगृहीतास्वनूढासु च स्त्रीषु दुरभिसन्धिः कामः ॥२॥ परस्त्रियों, वेश्याओं और कन्याओंसे विषयभोग करना यह कामरात्रु प्राणियोंको महादुःख
. विद्यममे लिखा है कि 'जो मनुष्य परस्त्री और कन्याका सेवन करता है उसकी यह मा बस दुस, बंधन तथा मरणको उत्पन्न करती है ॥१॥'
-उक्त नीतिविरुद्ध असत् काम-परस्त्री, वेश्या और कन्याका सेवनकरना दुःखदायक परन्तु धर्मपरम्पराको प्रचुरण चलानेके लिये कुलीन सन्तानोत्पत्तिके उद्देश्यसे अपनी स्त्रीका नाम नहीं है। अतश्य नैतिक व्यक्तिको प्रसस्-नीतिविरुद्ध कामसेवनका त्याग करना चाहिये ॥२॥ समाबुका निरूपण करते हैं :
___ अविचार्य परस्यात्मनो वापायहेतुः क्रोधः ॥३॥ वर्ष:-जो व्यक्ति अपनी और शवकी शक्तिको न जानकर क्रोध करता है, वह क्रोध उसके विनाशका
मारि' विद्वान्ने भी उक्त बासकी पुष्टि की है कि 'जो राजा अपनी और शत्रुकी शक्तिको बिना
कोर करता है वह नष्ट होजाता है ।शा बिरादविमर्श:-राजनीतिके विद्वानोंने विजिगीष राजाको अप्रातराज्यकी प्राप्ति, प्राप्तकी रक्षा और
द्धि करने के लिये तथा प्रजापीड़क कण्टकों-शत्रोंपर विजय पाने के लिये न्याययुक्त-अपनी मानसी शक्तिको सोचविचार कर तदनुकूल-उपयुक्त क्रोध करनेका विधान किया है तथा अन्याययुक्तका पकिया है। इसीप्रकार गृहस्थपुरुष भी चोरों आदिसे अपनी सम्पत्तिकी रक्षार्थ उचित-न्याययुक्त
सकता है, अन्याययुक्त नहीं। परन्तु धार्मिक आदर्शतम अधिसे शास्त्रकारोंने कहा है कि क्रोध
-बार गौतमः
मायामिता च यो नारी कुमाए वा निषेयते। वलमा प्रवासाय वाचाय मरणाय च ||||
मार:विचापात्मनः शक्ति परस्य च समुत्सुकः। को याति भूपालः स विनाशं प्रगम्छति ॥ .
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* नीतिवाक्यामृत के
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शात्र आत्माको पतनकी ओर लेजाता है। जिसप्रकार अग्नि ईधनको भस्म कर देती है उसीप्रकार को भी प्रत, तप, नियम और उपत्रास आदिसे उत्पन्न हुई प्रचुर पुण्यराशिको नष्ट करदेता है इसलिये जो महापुरुप इसके वशमें नहीं होते उनका पुख्य बढ़ता रहता है' ॥१॥
क्रोधो पुरुषके महीनों तक उपवास, सत्यभाषण, ध्यान, बाहरी जंगलका निवास, ब्रह्मचर्य गरण और गोचरीकृति आदि सब निष्फल हैं ॥२॥
जिसप्रकार खलिहानमें एकत्रित धान्यराशि अग्निकणके द्वारा जलावीजाती है उसीप्रकार नाना. प्रकारके प्रत, दया, नियम और उपवाससे संचित पुण्यराशिको क्रोध नष्ट कर देता है ॥३॥
अतएव जिसप्रकार कोई मनुष्य जिस समय दूसरोंके जलाने के लिये अग्निको अपने हाथमें धारण करता है उस समय सबसे पहले उसका हाथ जलता है उसीप्रकार यह क्रोधरूपी अग्नि जिसके उत्पन्न होती है उसकी आत्माके सम्यमान, सुख और शान्ति आदि सद्गुणोंको नष्ट करदेती है |
निष्कर्षः-अतः विवेकियों को क्रोध नहीं करना चाहिये ।।३।। श्रव लोभका लक्षणनिर्देश करते हैं:
___ दानाहेषु स्वधनाप्रदान परधनग्रहण या लोभः ॥ ४ ॥ अर्थ:-दानकरनेयोग्य धर्मपात्र और कार्यपात्र आदिको धन न देना तथा चोरी, छलकपट और विश्वासघात आदि अन्यायों से दूसरोंकी संपत्तिको प्रण (हड़प ) करना लोभ है ।।४।। १ पुण्य चितं व्रततपोनियमोपासैः । क्रोधः क्षणेन दहतीन्धनबधुताशः।। मलेति तस्य वशमेति न यो महात्मा। तस्याभिवृद्धिमुपयाति नरस्य पुर में था २ मासोपवासनिरतोऽस्तु तनोतु सत्यं । ध्यानं करोतु विदधात वहिनिवास ॥ ब्रझरतं घरतु भक्ष्यरतोऽस्तु नित्यं ।
रोष करोति यदि सर्वमनर्थक तत् ||२|| ३ दुःखार्जित खजगतं वक्षमीकृतं च । धान्य यया दहति बहिष्णः प्रविष्टः॥ नानाविधनतदयानियमोपयासः । रोषोऽर्जितं भयभृता पुश्पुरयराशिम् ॥३॥
सुभाषितरत्नसंदोहे अमितगत्याचार्यः । ४ दशेत् स्वमेव रोपाग्नि पर विषय ततः। कुष्यनिक्षिपति स्वाले वहिमन्यविषक्षय
क्षत्रचूडामणी वादीमसिहरिः। ५ 'दाना वधनाप्रदाममकारणं परवित्तमाणे या लोभः । पैसा म.मू. ३० में पाठ है परन्तु अभय कुछ नहीं।
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* नीतिषाक्यामृत १
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KAHAN
नने लिखा है कि 'जश्न धनाढ्य पुरुष तृष्णाके वशीभूत होकर दूसरोंके धनको ग्रहण करता है एवं दान करनेयोग्य पात्रोंको दान नहीं देखा उसे लोम का
पुरभिनिवेशामोक्षो यथोक्ताग्रहणं वा मानः ॥ ५ ॥ मार्गदर्शक : विश्व भतिकीम छोना-पापकार्यो प्रवृत्ति करना नथा आप्त-हितैषी पुरुषों
को न मानना इसे मान कहते हैं ॥५॥
ने कहा है कि पाप कार्योंका न छोड़ना और कहीहुई योग्य वातको न मानना उसे सि प्रकार दुर्योधनका मान प्रसिद्ध है अर्थात् उसने पाण्डवोंका न्याय प्राप्त राज्य न देकर
और विदुरजी आदि प्राप्त पुरुषोंसे कही हुई बातकी उपेक्षा की थी॥१॥ बार करते हैं:मालेश्वर्यरूपविद्यादिभिरात्माहकारकरणं परप्रकर्षनिबन्धन वा मदः ॥ ६ ॥
अपने कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप और विद्या प्रादिके द्वारा अहंकार (मद ) करना, मथवा गतीको रोकना, उसे मद कहते हैं ।। ६॥ नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'अपने फुल, वीय, रूप, धन और विद्यासे जो गर्व किया सरोंको नीचा दिखाया जाता है उसे मद कहते हैं ॥१॥ या किया जाता है:सामन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्यार्थसंचयेन वा मनःप्रतिरज्जनो हर्षः ॥ ७॥
दवा प्रयोजन दूसरोंको कष्ट पहुँचाकर मन प्रसन्न होना या इष्ट बस्नु-धनादि की प्राप्ति मारक प्रसन्नताका होना हर्ष है।
सं यत्तु तदनाक्यः समाचरेत् । वादानं स लोभ परकीर्तितः ॥१॥
संशोधित दिगो युक्तपरिवर्जनम्। लामिान स्यापथा दुर्योधनस्य च ॥१॥
सायों गर्यो शानमम्भवः । रोच्यतेऽन्यस्य येन था कर्षण भषेत् ॥१॥
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* नीतिवाक्यामृत
Here
मारवास' नामक विहामने लिखा है कि 'जो व्यक्ति बिना प्रयोजन दूसरोंको कप पहुँचाकर हर्षित होता है एवं अपनी इष्टवस्तुकी प्राप्तिमें किसी प्रकारका संदेह न होनेपर हर्षित होता है उसे विद्वानोंने हर्ष कहा है।
भावार्थ:-यापि नैतिक मनुष्यको अपने शारीरिक और मानसिक विकास के लिये सदा प्रसनवित्त-इर्षिय रहना उत्तम है परन्तु बिना प्रयोजन दूसरे प्राणियों को सताकर-कष्ट पहुँचाकर हर्षित होना इसे अन्याययुक्त होने के कारण त्याज्य बताया गया है, क्योंकि इससे केवल पापर्वध ही नहीं होता, किन्तु साथमें वह व्यक्ति भी (जिसको निरर्थक कष्ट दिया है) इसका अनर्थ करने सत्तर रहता है। एवं धनादि मभिक्षषित वस्तु के मिलने पर, अधिक हर्षित होना भी जुताका सूचक है, क्योंकि इससे नैतिक व्यक्तिकी गम्भीरता नष्ट होती है एवं लोकमें दूसरे लोक या करने लगते हैं, साथमें प्राध्यात्मिक ट्रिसे भी संपत्तिकी प्राप्तिमें हर्ष करना वहिरात्मबुद्धिका प्रदर्शन है।
हस्परिषद्वगंसमुपदेशः समाप्तः ।
अथ विद्यावृद्धसमुद्देशः। भब राजाका लक्षण करते हैं:---
योऽनुकूलप्रतिकूलयोरिन्द्रयमस्थानं स राजा ॥ १ ॥ अर्थ:-जो अनुकूल चलनेवालों ( राजकीय प्राशा माननेवालों ) की इन्द्र के समान रक्षा करता है तया प्रतिकूल पलनेवालो-अपराधियोंको यमराजके समान सजा देता है उसे राजा कहते हैं ।।१॥
भार्गव नामके विद्वान्ने भी कहा है कि 'राजा शत्रुओं के साथ कालके सहश और मित्रों के साथ इन के समान प्रवृत्ति (कमसे निग्रह और अनुग्रह का बर्ताव करना) करने वाला होता है, कोई पति केवल अभिषेक और पट्ट बंधनसे राजा नहीं होसकता-उसे प्रतापी और शूरवीर होना चाहिये । अन्यथा अभिपेक (जल से धोना) और पट्ट बंधन-पट्टी बाँधना भादि चिन्ह को प्रण-भावके भी किये जाते हैं उसे भी राजा कहना चाहिये ॥१॥ अप राजाका कर्तब्ध निर्देश करते है:
रामो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालन व धर्मः ॥ २ ॥ अर्थः-पापियों-अपराधियोंको सजा देना और सजन पुरुषों की रक्षाकरना, राजाका भर्म है।
१ तथा च मारदास:प्रपोजन बिना दुःख यो सत्यान्यस्य इभ्यति ।
मात्मनोऽनपसोस हर्षः प्रोगाते हुरैः ॥॥ २ तथा भार्गव:बर्तते योऽरिमिषाया यमेनाभः भूपतिः । घमिरेको अवस्थापि म्यान पामेवगा
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* नीतिवाक्यामृत से
हाल जिया है कि 'शिष्ठोंकी रक्षा करना और पापियो प्रजाकण्टको-अपराधियोंको सजा भावधर्म समझना चाहिये । इससे दूसरे कर्तव्य उसके लिये गौण कहे गये हैं ॥१॥ के नहीं होते उनका निरूपण करसे हैं:
न पुनः शिरोमुण्डन जटाधारणादिकम् ॥३॥ शरमाना और जटाओंका धारण करना आदि राजाका धर्म नहीं।
योकि राजाको प्रजापालनरूप सत्कर्तव्य के अनुष्ठानसे ही धर्म, अर्थ और काम इन तीनों होजाती है, अतएव उसे उस अवस्थामें शिरका मुण्डन आदि कर्तब्य नहीं करना
ने लिखा है कि प्रत नियम आदिका पालन करना राजाओंको सुखदायक नहीं है, तो प्रजाकी रक्षा और उसको पीड़ा पहुँचानेवालोंको नष्ट करना है ॥१॥ पण किया जाता है:
राशः पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्य ।।४।। का पृथ्वीको रक्षाके योग्य कर्म-पाइगुण्य (संधि, विप्रह, यान, मासन, संभय और राय कहते हैं। -राजालोग राज्यको श्रीवृद्धि के लिये दूसरे शत्रभूत राजाओंसे संधि-बलवान् शत्रको धनादि मित्रा करना, विग्रह-कमजोरसे लड़ाई करना, पान-शत्र पर पढ़ाई करना, भासन
ना, संभय-अात्मसमर्पण करना और धीमा-अलवामसे संधि और कमजोरसे शुरुषका यथोचित प्रयोग करते हैं, क्योंकि इन राजनैतिक सपायोंसे उनके राज्यकी भीवृद्धि
विषीकी रक्षा कारण उक्त पाइगुण्यके प्रयोगको राज्य कहा गया है ।। ४॥ मान्ने भी लिखा है कि 'काम विलास प्राविको छोड़कर पागुएय-संधि और विप्रहादि के ताराम कहा गया है ।।१।।
युद्ध
..
थियो धर्मः शिष्टानां परिपालन । पालाचीनां गौग्योऽन्यः परिकीर्तितः |
को पो न भूपानां सुखावहः । प्रदानेन प्रजासंरक्षणेन च ॥३॥
माविक यसप्रकम्यते । लिसाधतेन वाम कयरन || सिनेम विलासकमानाः सदा । तस्य सामं सोऽडिरेण प्रणश्यति ॥ संशोधित'
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ॐ नीतियाक्यामृत *
'जो राजा कामासक्त होकर विषयों का लोलुपी हुआ उक्त पाइगुण्यका चितवन-समुचित प्रयोग नहीं करता उसका राज्य तथा वह शीघ्र नष्ट होजाता है ॥२॥' अब पुनः राज्य का लक्षण करते हैं:
वर्णाश्रमवती धान्यहिरण्यपशुकुप्यवृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी' ॥ ५॥ अर्थः-वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र और आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यतिसे युक्त तथा धान्य, सुवर्ण, पशु और ताँबा लोहा आदि धातुओंको प्रचुरमात्रामें देनेवाली पृथिवीको राज्य कहते हैं परन्तु जिसमें ये बातें न पाई जावें वह राज्य नहीं ।
. भावार्थः- केवल उक्तपाडगुण्य-संधि और विग्रह आदिके यथास्थान प्रयोगको ही राज्य नहीं कहा जासकता, किन्तु जिसके राज्यकी पृथ्वी वर्ण और श्राश्नमधर्मसे युक्त तथा धान्य और सुवर्ण आदि इष्टसामग्रीसे सम्पन्न हो उसे राज्य कहते हैं ||५||
भृगु' नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'जिस राजाकी पृथ्वी वर्ण और आश्रमोंसे युक्त एवं धान्य और सुवर्ण आदि द्वारा प्रजाजनोंके मनोरथोंको पूर्ण करने वाली हो उसे राज्य कहते हैं। अन्यथा जहाँ पर ये पीजें नहीं पाई जावें वह राज्य नहीं किन्नु दुःखमात्र ही हैं ॥ १ ॥ अब वर्णोका भेदपूर्षक लक्षण करते हैं:
. प्रामणक्षत्रियवैश्यशूदाश्च वर्णाः ॥ ६॥ मर्थः- वर्ण चार हैं:-~प्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ।
विशदविवेचनः-भगवान् जिनसेनाचायने आदिपुराणमें लिखा है कि इतिहासके आदिकालमें भादि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेवने मनुष्य जातिमें तीन वर्ण-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र प्रकट किये थे और वे भागे कहे हुए क्षतत्राण---शस्त्रशक्तिसे प्रजाकी शत्रुओंसे रक्षाकरना आदि अपते २ गुणोंसे क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाते थे ।। १॥
, 'वर्णाश्रममती धान्य-हिरण्य-पशु कुम्य-विशिष्टफलदा च पृथिवी' ऐसा मु० मू: पु० में पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ
नहीं है। २ तथा च भृगुः-- वर्णाश्रमसमोऐता सर्वकामान् प्रयच्छति !
या भूमियते राज्यं प्रोक्ता सान्या निखम्बना ।। ३ 'ब्राह्मण : क्षत्रिया विशः शूदाश्च व:' ऐसा पाठ मु. मू० पुस्तक में है ३रन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ४ उत्पादितास्त्रयो तस्तदा तेनादिवेधसा ।
क्षत्रिया परिणजः शूद्राः तत्राणादिभि पैः ।।१।।
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* नीसिवाक्यामृत *
६४
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पत्रधारण कर जीविका करते थे ये क्षत्रिय और जो सोती, व्यापार और पशुपालन कर रिप कहलाते थे ॥२॥ या पैरयों की सेवा शुभषा कर जीविका करते थे वे शूद्र कहलाते थे, उनके भी २ भेद
कारू (२) अकार। धोबी और नाई वगैरह 'कार' और उनसे भिम 'प्रकार
TA
भी दो प्रकारके थे एक स्पृश्य--पर्शकरनेयोग्य और दूसरे अस्पृश्य-स्पर्शकरने के ने माग निवास करते थे ये अस्पृश्य और नाई वगैरह स्पृश्य कहलाते थे ||४|| बाई के लोग अपमा २ कार्य-जीविका करते थे । वेश्यका कार्य क्षत्रिय वा शूद्र नहीं करता म और शूद्रका कार्य कोई दूसरा करता था। विषाद, जातिसंबंध और व्यवहार ये सक मनकी भाज्ञामुसार ही सब लोग करते थे ॥५॥
भगवान ऋषभदेवने अपनी भुजाओंसे शस्त्रधारण कर क्षत्रियों की रचना की उन्हें बाई सो ठीक ही है। क्योकि ओ हायोंमें शस्त्रधारण कर दूसरे सबल या शत्रुके प्रहारसे
र बन्ने हो भत्रिय कहते हैं ।।६।। तर मगषामने अपने ऊरुओं-पैरों से यात्रा करना-परदेश जाना दिखलाकर बैरयोकी सृष्टि
दी है। क्योंकि समुद्र आदि जलप्रदेशोंमें तथा स्थलप्रदेशोंमें यात्रा करके व्यापार करना दिया है
जीवितमनुस्य तद ऽभवन् । राश्च कृषिवाणिज्यपशुपाल्योपजीविनः ॥२॥ तेषां शुभषणाटाते द्विधा कार्यकारवः । कारवो रअकायाः स्युस्ततोऽन्ये म्युरकारवः ॥३॥ कारवोऽपि मता देधा स्पृश्यास्पृश्यवि कल्पतः । तत्राश्याः प्रजामायाः स्पृश्याः स्युः कर्तकादयः ४॥ यथावं वोचित कर्म प्रजा ध्युरसकर । विवादशातिसंयंधव्यवहाररच तम्मतं ॥५॥ स्वहोम्यो धारयन् शस्त्र क्षत्रियानसुविभुः। चतत्राये नियुका हि क्षत्रियाः शास्त्रपाययः ma जाम्यां दर्शयन् यात्रामलादीबगिजः प्रभुः । जलस्यतादियात्राभिस्तदासियोतया यतः १७||
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ॐ नीतियाक्यामृत के
__ सदा नीच कामोंमें तत्पर रहनेवाले शूद्रोंकी रचना भगवान्ने अपने पैरोंसे ही की, सो ठीक ही है। क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तमवों के पैर दावना, सवप्रकारसे उनकी सेवाशुश्रूषा करना और उनकी श्राज्ञाका पालन करना श्रादि शूद्रोंकी आजीविका अनेक प्रकारकी कही गई है ||८||
इसप्रकार तीनों वर्गमा सृष्टि तो नयम ही होकी यो, उसके बाद भगवान् ऋषभदेवके पुत्र महाराज भरत अपने मुखसे शास्त्रोंका अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणोंकी रचना करेंगे और पढ़ना, पढ़ाना, दानदेना, दानलेना और पूजा करना कराना श्रादि उनकी आजीविकाके उपाय होंगे |
उक्त वर्षों के विषयमें प्राचार्यश्रीने लिखा है कि प्रतोंके संस्कारसे ब्राह्मण, शस्त्रधारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक द्रव्य कमानेसे वैश्य और नीचधृत्तिका श्राश्रय करनेसे शूद्र कहलाते हैं ।। १० ।।
इसप्रकार इतिहासके आदिकालमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र इन चारों वोंकी सृष्टि हुई थी अत: आचार्यश्री सोमदेवसूरिने भी उक्त चारों वणोंका निरूपण किया है ।। अब आश्रमों के भेदोंका वर्णन करते हैं:
ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिरित्याश्रमाः ॥७॥ अर्थ-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यत्ति ये चार आश्रम हैं ।। ७ ।।
विशदण्याख्याः --अन्य जैनाचार्याने' भी लिखा है कि उपासका ययन नामके सप्तम अङ्गमें ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चार पाश्रमोंका निर्देश किया गया है।।१।।
यशस्तिलकमें उक्त आश्रमोंके निम्नप्रकार लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं:
जिस पुरुषने सम्यग्ज्ञान, जीवदया-प्राणिरक्षा और कामका त्यागरूप ब्रह्म-स्त्रीसेवनादि विषयभोगका त्यागरूपमा-को भले प्रकार धारण किया है वह ब्रह्मचारी है ॥१॥
न्यावृत्तिनियताम् शूद्वान् पयामेवासृजत् सुधीः । वर्णोचनेषु शुभषा नवृत्तिनै कया स्मृता ॥८॥ मुखतोऽव्यापयन शास्त्र भरतः लक्ष्यति द्विजान् | अधोत्यध्यापम दानं प्रतीत्यज्येति तस्क्रिय!: 11 ब्राझरम तसंस्कारात क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । कागजोऽथामाभ्याथ्यात् शूदा न्यावृत्तिसंश्रयात् ॥१०॥
आदिपुराणे भगवजिनसेनाचार्य:--१६ वा पर्व । बहाचारो गास्थश्च वामप्रस्थश्च भितकः । इस्याश्रमास्तु जैनाना सप्तमाङ्गाद्विनिस्ताः ॥७॥
-सागारधर्मामृने । २ ज्ञानं ब्रह्म दयाना ब्रा कागविनिग्रहः ।
सम्यमत्र वसन्त्रात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः ॥१॥
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* नीतिवाक्यामृत
मनुष्य क्षमारूप स्त्रीमें आसक्त, सम्यज्ञान और अतिथियों-- दान देने योग्य त्यागी और घनी में अनुरागयुक्त और मनरूपीदेवताका साधक - दशमें करनेवाला - जितेन्द्रिय है वह
है ||२||
माम्य-प्रामीण पुरुषों की अश्लीलता — नीतिविरुद्ध सत् प्रवृत्ति, वाह्य - धन धान्यादि परिग्रह - कामक्रोधादि कषायका त्यागकर संयम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और आदि परित्र धर्मको धारण किया है उसे 'वानप्रस्थ' समझना चाहिये परन्तु इसके विपरीत टुम्बयुक्त होकर वनमें निवास करता है उसे वानप्रस्थ नहीं कहा जासकता ॥ ३ ॥
महात्माने सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिसे अपनी मानसिकचिशुद्धि, चरित्रपालनद्वारा शारीरिक दीति, पालनद्वारा जितेन्द्रियता प्राप्त की है उसे 'तपस्वी' कहते हैं, किन्तु केवल बाह्यभेष धारण तपस्वी नहीं कहा जा सकता ॥ ४ ॥
बोकी ११ प्रतिमाओं — चारित्रपालनकी श्रेणियों में से प्रारम्भसे ६ प्रतिमाओंके चारित्रको गृहस्थाश्रमी, सातमी से नवमी तकके चरित्रपालक 'ब्रह्मचारी' और दशमी और ग्यारहवी कि 'ataver' कहे गये हैं और उनसे आगे सर्वोत्तमचरित्र के धारक महात्मा 'मुनि' - ५॥
मचारीका लक्षण कहते हैं :
स उपकुर्वाणको ब्रह्मचारी यो वेदमधीत्य स्नायात् ॥ ८ ॥
जो वेद-हिसाधर्मका निरूपण करनेवाले निर्दोष शास्त्र - पढ़कर विवाहसंस्कार करता ब्रह्मचारी कहते हैं ॥ ८ ॥
वि वर्तमान स्नान शब्दका अर्थ क्रिया जाता है :
स्नानं विवाहदीक्षाभिषेकः ॥६॥
विवाहसंस्काररूप दीक्षा से अभिषिक होना स्नान है ॥ ६ ॥
ફ
तयोः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । भवेन्नूनं मनोदेवतसाधकः ५२॥ सारान्तर्यः परित्यज्य संयमी ।
विशेयो न धनस्थ कुटुम्बवान् ॥ ३॥ सैनिथमेरिन्द्रियाणि च । मानिस तपस्वी न वेपत्रान् ॥ ४ ॥
सो शेवालयः स्यु' प्रचारिणः ।
हीरा निर्दिष्ट ततः स्यात् धर्मतो यतिः ॥ ५ ॥
-पशस्तिलक श्र० ८ सोमदेव सू
विद्याविशेष:' इस प्रकार मु० मू० पुस्तक में पाठ है परन्तु अर्थमेव कुछ नहीं है।
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६८
* नोतिवाक्यामृत
भब नैष्ठिक प्रचारीका लक्षणनिर्देश करते हैं :
स नैष्ठिको ब्रह्मचारी यस्य प्राणान्तिकमदारकर्म ॥ १० ॥ अर्थ:-जो जीवनपर्यन्त विषाह न करके कामयासनासे विरक्त रहता है उसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी
, भारताज' नामके विद्वानने लिखा है कि जिस ब्रह्मचारीका समय जीवनपर्यन्त स्त्रीरहित कष्टसे यसीत होता है वह नैक्षिक प्रह्मचारी है ॥१॥
भावार्थ:- जैनाचार्योने उपनय ब्रह्मचारी और नैष्ठिक प्रचारी आदि ५ प्रकारके ब्रह्मचारी निर्दिक किये हैं, उनमें से नैष्ठिक ब्रह्मचारीको छोड़कर पायी चार प्राले प्रभावी सानो मायले पश्चात् विवाह करते हैं।॥ १० ॥ भब पुत्रका मतणनिर्देश करते है :
य उत्पनः पुनीते वंश स पुत्रः ॥ ११ ॥ अर्थः-जो उत्पन्न होकर नैतिक सदाचारहप प्रवृत्तिसे अपने कुलको पवित्र करता है वही । सचा पुत्र है।
भागुरि' विज्ञामने लिखा है कि 'जो माता पिताकी सेवामें तत्पर होकर अपने सदाचाररुप ! धर्मके पालनसे कुलको पवित्र करता है वहीं पुत्र है ।।१।।
शास्त्रकारोंने कहा है जो अपना पालन पोषण करनेवाले माता पिताका सुविधि" राजाके केशव' नाम पुत्रकी तरह उपकार ( सेवा भक्ति आदि ) करता है वही सचा पुत्र है-और जो इससे विपरीत चलता है उसे पुत्र के बल बहाने से शत्रु समझना चाहिये ॥१॥
, तथा च भारद्वाज:कलवाहितस्यात्र यस्य कालोऽतिवर्तते ।।
कण्टेन मृत्युपर्यन्तो ब्रह्मचारी स नैष्ठिकः ॥१॥ १ तथा चोक्कमा:प्रथमामिणः प्रोता ये पंचोपनयादयः । तेऽधीय शास्त्रं स्वीकुयु दोशनन्यत्र नैष्ठिकात् ॥१॥ ३ तथा च भागरि:
कुल पाति समुत्यो यः स्वधर्म प्रतिशतयेत् । पुनीते स्वकुल पुत्रः पितृमातृपरायणः॥॥ ४ पुत्रः पुषोः स्वामान मुविधरेव केशवः । य उपस्कुरुते वप्तरस्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥ १ ॥
-सागारधर्मामृत। ५-६ देखो प्रादिपुराण 1 वां पर्व ।
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* नीतिवाक्यामृत ..........................................................................................................
तः पुत्रको माता पिता और गुरुजनोंकी आज्ञाको पालनेवाला, सदाचारी और वंशकी होना चाहिये ॥ ११ ॥ तारीका लक्षणनिर्देश करते हैं :
. कृतोद्वाहः ऋतुप्रदाता कुतुपदः ॥ १२ ॥ की विवादित होकर केवल मन्सान की प्रापिके लिये नुकाल-चतुर्थदिनमें स्नान करने के स्त्रीका उपभोग करता है उसे 'कृतुपद' ब्रह्मचारी कहते हैं ॥१॥ ने भी कहा है कि 'जो कामवासनाकी पूर्तिको छोड़कर केवल सन्तान प्राप्तिके लिये सेवन करता है वह उत्तमोत्तम और सब बासोंको जाननेवाला 'कृतुपद' ब्रह्मचारी है ।।१।। मापारी या पुरुष जिस प्रकारका होता है उसे बताते हैं :
अपुत्रः ब्रह्मचारी पितृणामृणभाजनम् ॥ १३ ॥ वैदिक ब्रह्मचारी-बालब्रह्मचारी को छोड़कर दूसरे ब्रह्मचारी पुत्रके बिना अपने पिताओं के
मा
.
रम. प्रत्येक मनुष्य अपने माता पिताके अनन्त उपकारसे उपकून होता है। अतएष वह मा औषनपर्यन्त उनकी सेवा शुश्रूषा करता रहता है, तथापि उनके उपकारका बदला नहीं
पह उनके ऋणसे मुक्त नहीं होपाता। इसलिये उसके उस अत्यन्त प्रावश्यकीय जसका उत्तराधिकारी पुत्र पूरा करता है - उनकी पवित्र स्मृति के लिये दानपुण्य आदि यशस्य साभा अपने कुलको उज्वल बनाता है। अतः वह पुत्रयुक्त पुरुष अपने पैतृक ऋणसे छुटकारा इसके फलस्वरूप लोकमें उसकी चन्द्रनिर्मल कोर्तिकौमुदीका प्रसार होता है। परन्तु पुत्रशून्य सपकार न करने के कारण अपने पिताओंका ऋणी बना रहता है।
- सद्गृहस्थ पुरुषको पैतृक ऋणसे मुक्त होने एवं वंश और धर्मकी मर्यादाको अनुरण भाजयुक्त होना चाहिये ॥१३॥ मध्वयन न करनेवाले पुरुषको हानि बताते हैं :
अनध्ययनो अक्षणः ॥ १४ ॥ म.पु. में नही है, केवल से टी० पु. में है। .
स्लामाबम कामाय य: त्रिय कामयेटतो।
सर्वेषामुत्तमोत्तमसर्व वित् ॥1॥ मापितणामृगामाजनम्' ऐसा पाठ मु० मू० पुस्तक में है जिसका अर्थ यह है कि पुत्रशून्य पुरुष रितामा एबी दोसा है। [नोट:-यह पाठ संस्कृत टीका पुस्तक के पाठ से अच्छा प्रतीत होता है। -सम्पादका नायो प्रमाणाम्' इसप्रकार मु.पु. में पाठ है जिसका अर्थ यह है कि जो मनुष्य शास्त्रोका अध्ययन मागणवरादि ऋषियोका ऋणी है।
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* नीतिवाक्यामूस *
अर्थः-जो मनुष्य शास्त्रका अध्ययन नहीं करता वह तिब्रह्मा-ऋषभदेव तीर्थर-का ऋणी है।
ऋषिपुत्रक' विद्वानने कहा है कि 'जो ब्रह्मचारी अज्ञानसे वेदोंका अध्ययन नहीं करता उसका ईश्वरऋण ब्याजयुक्त होनेसे बढ़ता रहता है ॥ १ ॥' ।
भावार्थ:-ऋषभादिमहावीरपर्यन्त चतुर्विशति-२४ तीर्थकरोंकी दिव्यध्वनिके आधारसे ही द्वादशा-अहिंसाधर्मका निरूपण करनेवाले शास्त्रों की रचना हुई है, श्रतएव उन्हें मनुष्यजातिको सम्यग्ज्ञाननिधि समर्पण करनेका श्रेय प्राप्त है। इसलिये जो उनके शास्त्रोंको पढ़ता है यह उनके ऋणसे मुक्त होजाता है और जो नहीं पढ़ता वह उनका ऋणी रहता है।
निष्कर्षः-यश्चपि उक्त निरूपण लौकिक व्यवहाररूप है। तथापि श्रेयकी प्राप्ति, ऋषभादित्तीर्थकरोंके प्रति कृतज्ञताप्रदर्शन करने और अज्ञाननिवृत्ति के लिये प्रत्येक व्यक्तिको निर्दोष-अहिंसाधर्मनिरूपकशास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिये ॥ १४ ॥ अब ईश्वरभक्ति न करने वालेकी हानि बताते हैं:
अयजनो देवानाम् ॥ १५॥ __ अर्थ:-जो मनुष्य देवों-अषभादिमहावीरपर्यन्त चौबीस तीर्थङ्करों-की भक्ति-पूजा - नहीं करता यह उनका ऋणी है।
भावार्थ:-आचार्यश्री विद्यानन्दिने' श्लोकवार्तिकमें कहा है कि प्रात्यन्तिक दुःग्योंकी नियुक्ति-- मोजकी प्राप्ति-सम्यग्ज्ञानसे होती है और यह-सम्यग्ज्ञान-निर्दोप द्वादशाङ्गके अध्ययनसे प्राप्त होता है एवं उन द्वादशाङ्ग शास्त्रोंके मूल जन्मदाता (आदिवक्ता ) ऋषभादिमहावीरपर्यन्त चतुर्विशति तीर पूज्य है; क्योंकि सज्जन लोग किये हुए उपकारको नहीं भूलते। अत: उन्होंने मनुष्योंके हृदय मन्दिरोंमें सद्बुद्धि और सदाचारके दीपक जलाकर उनका अनन्त और अपरिमित्त उपकार किया है ॥११॥
इसलिये जो व्यक्ति मूर्खता या मदके घशमें होकर उनकी भक्ति-पूजा-नहीं करता वह उन तीर्थकरोंका ऋणी है।
१ तथा च ऋषिपुत्रक:
ब्रह्मचारी न घेदं यः पठते मौढ्यमास्थितः । स्वायंभुवमृणं तस्य वृद्धि याति कुगीदकम् ||१|| २ 'अयजमानो देवानाम्' इसप्रकार मु० म० एस्तक में पाट है परन्तु अर्धभेद कुछ नहीं है। ३ अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः ।
प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिरामात् || इति प्रभवति स पूज्यस्त्वत्प्रसादमबुदध । न हितमुपकार साषवो विस्मरन्ति शा
श्लोकवार्तिक पृष्ट ३ विद्यानन्दि-प्राचार्य ।
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HI 10-14
* नीतिवाक्यामृत
...--.--...
free:--- प्रत्येक मनुष्यको देवऋण से मुक्ति छुटकारा एवं श्रेयकी प्राप्तिके लिये ईश्वरभक्ति करनी
करनेवाले मनुष्यकी हानि बताते है:
-
अन्तकरो मनुष्याणाम् ॥ १६ ॥
को शोक उत्पन्न न करनेवाला मनुष्योंका ऋणी है --अर्थात् जिसकी मृत्यु होजाने पर सम्मान – थोड़ासा भी - शोक उत्पन्न न हो बाड़ मनुष्यजातिका ऋणी है। अथवा इस भी होसकता है कि जो मनुष्य दूसरोंको दुःखी देखकर 'इन्त' इस प्रकार खेदसूचक शब्द - दूसरोंके दुःखमें समवेदना प्रकट नहीं करता - वह मनुष्यों का ऋणी है।
-शोकने दो प्रकारके मनुष्य होते हैं । उत्तम - स्वार्थत्यागी और अयम स्वार्थान्ध । अपने जीवनको कविकी शीशीके समान क्षणभंगुर समझकर स्वार्थको ठुकराकर जनता यह और अपने जीवनको विशुद्ध बनाते हैं, अतः उनकी लोकमें चन्द्रवन्निर्मल कीर्ति होती हैं। पालन- लोकसेवा--से जनता के ऋणसे मुक्त होजाते हैं, क्योंकि उसके फलस्वरूप जनता होमाने पर शोकाकुल होती है । परन्तु दूसरे स्वार्थान्ध पुरुष परोपकार नहीं करते और तेरें, अतः उनके मरजाने पर भी किसीको जरा भी शोक नहीं होता, इसलिये वे लोग ऋणी समझे जाते हैं ।। १६ ।।
वारी पुत्रशून्य होने पर भी ऋणी नहीं होता इसे बताते हैं :----
आत्मा वै पुत्रो नैष्टिकस्य ॥ १७ ॥
- मैटिक मशचारीका आत्मा ही पुत्र समझा जाता है ।
विद्वान्ने लिखा है कि 'जो नैष्ठिक ब्रह्मचारी अपनी आत्मामें परमात्माका प्रत्यत्त कर शास्त्र पद लिये, ईश्वरभक्ति करली और पुत्रके मुखको भी देख लिया अर्थात् वह पितृ ऋण से हैवाया है ॥ १ ॥
नैष्ठिक ब्रह्मचारी – जन्मपर्यन्त ब्रह्मचर्य से रहनेवाला होता है अतः उसे पुत्रकी कामना उसे मुक्त होने की आवश्यकता नहीं रहती ।। १७ ।।
यष्टं च पुत्रस्यामकिर्त मुखं । मते यस्तु परमात्मानमात्मनि ॥ १ ॥
पारीका महत्व बताते है:
अमारमात्मानमात्मनि संदधानः परां पूतत सम्पद्यते ॥ १८ ॥
[सं० टी० पु० में नहीं है किन्तु मु० मू० पुस्तक से संकलन किया गया है।
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* नीतिवाक्यामृत
अर्थः- :- यह नैष्ठिक ब्रह्मचारी - श्रात्माके द्वारा आत्माको आत्मस्वरूपमें प्रत्यक्ष करता हुआ अत्यन्त विशुद्धिको प्राप्त करता है ॥ १८ ॥
नविन भी शिया है कि जिस नैष्ठिक ब्रह्मचारीको श्रात्माका प्रत्यक्ष होजाता है उसे समस्त प्रकार के ब्रह्मचर्य के फल स्वर्गादि प्राप्त होजाते हैं ।। १ ।। '
निष्कर्ष: नैष्ठिक ब्रह्मचारीका पद उच्च और श्रेयस्कारक है क्योंकि वह कामवासनासे विरक-जितेन्द्रिय, आत्मदर्शी और विशुद्ध होता है ॥ १८ ॥
अब गृहस्थका लक्षण निर्देश करते हैं :--
Shappa
नित्यनैमित्तिकानुष्ठानस्थो गृहस्थः ॥
१६ ॥
अर्थ :- जो व्यक्ति शास्त्रविहित निस्य अनुष्ठान - सत्कर्तव्य ( १ इज्या' - तीर्थकुर और महर्षियोंकी पूजाभक्ति, २ वार्ता' - न्यायवृत्तिसे असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन जीविकोपयोगी कार्योंको करना ३ दत्ति - दयादन्ति, पात्रवृत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति, ४ स्वाध्याय - निर्दोष शास्त्रोंका अध्ययन मनन आदि, ५ संयम' अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और तृष्णाका त्याग, इन प्रतोंका पालन करना तथा ६ तप अनशन आदि तपकरना) और नैमित्तिक अनुष्ठान (वीर जयन्ती आदि निमित्तको लेकर किये जानेवाले धार्मिक प्रभावना आदि सत्कार्य ) का पालन करता है उसे गृहस्थ कहा है ॥ १६ ॥
भार' विद्वान ने कहा कि 'जो मनुष्य उत्कृष्ट श्रद्धासे युक्त होकर नित्य और नैमित्तिक सत्कर्तव्यों का
१ तथा च नारवः
श्रात्मावलोकन यस्य जायते नैष्ठिकस्य च ।
ब्रह्माचर्याणि सर्वाणि यानि तेषांफलं भवेत् ॥१॥र
२ तथा चोकमा - कुलधर्मोऽय मिस्येषामई त्पूजा दिवन” पूज्य वार्ता च दत्ति व स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपाठ सूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥१॥ ३ वार्ता विशुद्धस्या स्यात् कुष्यादीनामनुष्ठिविः । निर्मर्षिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणमनि षोढ़ा स्युः प्रजानीवनहेतवे ॥१७३॥ पर्य १६ चतु वणितादतिर्द यापात्रसमन्यये ॥ ३ * 'स्वाध्याय: श्रुतभावमा'
६-७ ' तपोऽनशनवृत्यादि संयमो तर
इति श्रादिपुराणे भगवान् जिनसेनाचार्यः वर्ष ३८
८ तथा च भागुरि:
नित्यनैमित्तिकपरः श्रद्धया परया युतः गृहस्थः प्रोच्यते सद्भिरशृङ्गः पशुरम्यथा ॥१॥
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* नीतिवाक्यामृत
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करता है उसे विद्वानोंने गृहस्थ कहा है किन्तु इससे विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाला विना सींगोंका
सोमवाचार्य ने लिखा है कि जिनेन्द्रभक्ति, गुरुओंकी उपासना, शास्त्रस्वाध्याय, संयम-अहिंसा,
आदि प्रयोका धारण-अनशनादि तप और पात्रदान ये ६ सत्कर्तव्य गृहस्थोंके प्रत्येक दिन
-रमाई
यो मानव मारूपस्त्रीमें प्रासक्त, सम्यग्ज्ञान और अतिथियों--पात्रों में अनुरागयुक्त और
है उसे गृहस्थ कहते हैं ।। २॥ निष्कप:-पेडिक और पारलौकिक सुस्त चाहनेवाले गृहस्थ व्यक्तिको उक्त नित्य और नैमित्तिक नयों के पालन करनेमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये ।। १६ ।। शस्यों के नित्य अनुष्ठान-सदा करनेयोग्य सत्कार्य का निर्देश करते हैं:
ब्रमदेवपित्रतिथिभूतयज्ञा हि नित्यमनुष्ठानम् ॥ २० ॥ अर्थ:-बाया-ब्रापिंगणधरोंकी पूजा, देवयज्ञ-ऋषभादिमहावीरपर्यन्त तीर्थकर देवोंका न पूजन, खति, जप और ध्यान आदि, पितृयज्ञ-माता iसाको आशामा बालन और उनकी सेवा
भादि, अतिथियक्ष-अतिथि सत्कार और भूतयझ-प्राणीमात्रकी सेवा करना ये गृहस्थ के नित्य सोम्ब सत्कार्य है ।। २० ॥ मितिक-सीडरोंकी जयन्ती श्रादिके निमित्तको लेकर किये जानेवाले–सत्कार्योंका निर्देशकरते हैं:
दर्शपौर्णमास्याद्याश्रयं नैमित्तिकम् ॥२१॥ भ:-ममावस्या और पूर्णमासी आदि शुभतिथियों में कियेजानेवाले धार्मिक उत्सब श्रादि प्रशस्त को नैमित्तिक अनुष्ठान कहते हैं। - भावार्थ-जिन शुभतिथियों में धर्मतीर्थके प्रवर्तक ऋषभादि तीर्थक्करोंके गर्भ, जन्म, तप, मान और
याणक हुए हों या पूज्य महापुरुषोंका जन्म हुआ हो उनमें धार्मिक पुरुष जो महावीरजयन्ती आदि मत्सव करते हैं उसे नैमित्तिक अनुष्ठान कहते हैं ॥२॥
बसेबा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चैध गास्थानां षट कर्माणि दिने दिने ॥१॥ धान्द्रियोषिति यो सक्तः सम्पशानातिथिपियः । यहस्यो भन्नूनं मनोदेवतसाधकः ॥ २
यसस्तिलके सोमदेवसरिः।
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* नीविवाक्यामृत
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अब अन्यमतोंकी अपेक्षासे गृहस्थोंके भेद कहते हैं:
वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽधोरो गृहस्था:' ॥२२॥ अर्थः-गृहस्थ चार प्रकार के हैं:-धैवाहिक, शालीन, जागापर गौर अघोर' ॥२२॥
जो गृहमें रहकर श्रद्धापूर्वक केवल गाईपत्य अग्निमें ही हवन करता है उसे 'वैवाहिक' समझना चाहिये ।।शा
जो पूजाके विना केवल अग्निहोत्र करता हुआ पांचों अग्नियोंकी पूजा करता है उसे 'शालीन' जानना चाहिये ॥२॥
जो एक अग्निकी प्रथषा पांचों अग्नियोंकी पूजा करनेमें तत्पर है और जो शुद्रको भनादि षस्तुको महण नहीं करता वह सात्विक प्रकृतियुक्त 'जायावर' है ।।३।।
जो दक्षिणा-दान-पूर्वक अग्निष्टोम आदि यज्ञ करता है वह सौम्यप्रकृतियुक्त और रूपवान 'अघोर' कहा गया है | अब परमतको अपेक्षा वानप्रस्थका लक्षण निर्देश करते है:
यः खलु यथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहार ष परित्यज्य सकलत्रोऽकलंत्रो वा बने प्रतिष्ठते स वानप्रस्थः ॥२३॥
अर्थ:-जो शास्त्रकी आशाके अनुसार लौकिक आहार-नागरिक या मामीण पुरुषोंका पान भाविका तथा सांसारिक व्यवहार-गाय, भैस पुत्र और पौत्रादि-का त्याग करके स्त्रीसहित पा स्त्रीरदिए होकर धनको प्रस्थान करता है उसे वानप्रस्थ कहते हैं।
१ चक्क सूत्र न तो मु• मू. पुस्तकमें और न गवर्न लायरी पूनाको हस्तलिखित मनपतियों में है किन्तु मेरा से०टी० पुस्तकमें पाया जाता है।
सम्पादक:५ [नोट:-जेनसिद्धान्तमें उक्त गहस्योंके भेद नहीं पाये जाते परन्तु इस ग्रन्थमें प्राचार्यभीने जिसरकार इस स्थलोंमें अन्य नीतिकारों की मान्यताओका संकलन किया है उसीपकार यहां भी अन्यम्तोकी अपेक्षा हत्योंके मेद संकलन किये हैं। प्रयया उल सूत्र किसी भी मूलप्रतिमें न होने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रश्यका संका टीकाकर चैन विधान पा; इसलिये उसने अपने मसकी अपेक्षासे कुछ सूत्र अपनी करिसे रचकर मूलमन्यमें शामिल कर दिये है, अन्यथा यही प्राचार्यश्री यशस्तिलकमें गुस्पका लक्षण (शान्तियोषिति यो सातः सभ्यशानातियिप्रियः । स गास्यो मान्सून मनोदेवतसाधकः || ||) 'हमारूमस्त्रीमें प्रासत, सम्पन्शान और अतिथियों में अनुरागया और मितेनिय' न करते। ]
। देखो नीतियास्यामृत संस्कृत टीका •re |
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* नीतियाक्यामृत *
विशेष विमर्श:--इन्हीं आचार्यश्रीने' यशस्तिलकचम्पूमें कहा है कि जो प्रामीण पुरुषोंकी नीतिविरुद्ध प्रवृत्ति और धनधान्यादि वाह्य तथा कामक्रोधादि अन्ताङ्ग परिग्रहका त्याग कर अहिसा और सत्य आदि संयमधर्मको धारण करता है उसे वानप्रस्थ समझना चाहिये । परन्तु इसके विपरीत जो स्त्री श्रादि कुटुम्बयुक्त होकर वनमें रहता है उसे वानप्रस्थ नहीं कहा जासकता ।। १ ।।
चारित्रसाग्में ग्यारहवीं प्रतिमाके चरित्रको पालनेवाले क्षुल्लक और ऐलकको 'वानप्रस्थ' कहा है । विरजेषण और परीक्षण:--
उक्त प्रमाणोंमे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि उक्त लक्षण जैनसिद्धान्तको अपेक्षा नहीं है। अतः आचार्यश्रीने परमतफी अपेक्षामे बानप्रस्थका लक्षण संकलन किया है अथवा अन्यमनानुयायी मेम्कन टीकाकारने ऐसा किया है। क्योंकि यशस्तिलकमें वानप्रस्थको स्त्रीसहित इनमें रहनेका स्पष्ट निषेध किया गया है ।।३।। भब परमतकी अपेक्षासे वानप्रस्थके भेद कहते हैं:
वालिखिन्य प्रौदपरी वैश्वानराः सद्यःप्रचल्यकरचति वानप्रस्थाः' ॥२४॥ वानप्रस्थ धार प्रकारके है:-बालिखिल्य, प्रौदम्बरी, वैश्वानर और सदाःप्रक्षल्यक' ।
जो प्राचीन गाईपत्य अग्निको स्यागकर केवल अरणी--समिविशेष—को साथ लेजाकर विना स्त्रीके धनको प्रस्थान करता है यह वनमें रहनेवाला 'वालिस्विल्य' है ॥२॥
जो स्त्रीसहित वनमें रहकर पांचों अग्नियोंसे विधिपूर्वक पांच यज्ञ-पितृयज्ञ, देवया, ब्रह्मयज्ञ, अतिथिया और ऋपिया- करता है उसे विद्वानोंने 'श्रौदुम्बर' कहा है ॥२॥
जो यमपूर्वक त्रिकाल स्नान करता है और अतिथियों की पूजा करके उन्हें खिलाकर-कंदमूल और फलों का भक्षण करता है वह 'यैश्यानर' कहा गया है ।।३।।
। ग्राम्यमर्थ पश्चिान्तर्यः परित्यज्य संयमी । पानप्रस्पः स विशेयो न वनरूया कुटुम्बयान ||१||
यन्तिनके मोमदेवरिः श्रा० - २ 'वानप्रस्या अपरिगृहीतजिनल्या वस्त्रखण्डधारिणो नितिशयतप:समुद्यता भवन्ति'-चाग्निसारे । अर्ध:--मुनि मुद्रा-दिगमार अपस्पा को धारण न करके, वस्त्र या खंडवस्त्रको धारण करनेवाले (खेडचादर और मंगोटाके पारक दुरुसक और केवल लंगोटीके धारक ऐलक) महात्माश्रोको जोकि साधारण तपश्चर्याम प्रयत्नशील उन्हें 'वानास्प कहते है।।
उक्त सत्र न तो मु० मू० पुस्तकमे और न हस्तलिखित गवर्न• लायब्ररी पुनः को दोनों पुस्तकोमें पाया जाता है किन्तकृत टीका पुस्तकमें है।
४ मोर- यनका भी जैन सिद्धान्तमे समन्वय नहीं होता; अतएव संस्कृत टोकाफार की रचना या भाचार्यश्रीका परमतको अपहासे संकलन जानना चाहिये।
-सम्पादक।
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* नीतिवाक्यामृत
जो केवल खानेमात्रको धान्यविशेष और घृत का संग्रह करता है और अग्निकी पूजा करता है उसे 'सद्यःप्रक्षालक" कहते हैं ||२४||
अब यति-साधुका लक्षणनिर्देश किया जाता है:---
यो देहमात्रारामः सम्यग्विद्यानौलाभेन तृष्णासरिचरणाय योगाय यतते यतिः ॥ २५ ॥
अर्थः- जो शरीरमात्रसे अपनी आत्माको सन्तुष्ट रखता है- शरीरके सिवाय दूसरे बहिरङ्ग - धन-धान्यादि और अन्तरङ्ग — काम-क्रोधादि — परिप्रहका त्याग किए हुए हैं एवं सम्यग्ज्ञानरूपी नौकाफी प्राप्तिसे तृष्णारूपी नदीको पार करनेके लिए ध्यान करनेका प्रयत्न करता है उसे 'यति' कहते हैं।
हारीत" विद्वान्ने भी उक्त बात की पुष्टि की है कि 'जो आत्मा में लीन हुआ विद्याके अभ्यास में तत्पर है और संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये ध्यानका अभ्यास करता है उसे यति कहते हैं ॥ १ ॥'
स्वामी समन्तभद्राचार्यने' भी कहा है कि जो पंचेन्द्रियोंके विषयों की लालसासे रहित, कृष्यादि आरंभ और बहिरङ्ग ( धन धान्यादि) एवं कोवापरिग्रहका त्यागी होकर ज्ञान, तपश्चर्या में लीन रहता है उसे यति-तपस्वी - कहते हैं ।। १ ।। ध्यान और
इसीके जितेन्द्रिय, क्षपणक, आशाम्बर, नग्न, ऋषि, यति, तपस्वी और अनगार आदि अनेक गुणनिष्पन्न सार्थकक-नाम यशस्तिलक में आचार्यश्रीने व्यक्त किये हैं परन्तु विस्तारके भयसे हम उनका संकलन करना नहीं चाहते ॥ २५ ॥
अब अन्य मतकी अपेक्षासे यतियोंके भेद बताते हैं:
'कुटीचर व व्होद कहंस परमहंसा यतयः ॥ २६ ॥
अर्थ:-यति- साधु - चार प्रकारके होते हैं:-कुटीचर, यव्होदक, हंस और परमहंस जो त्रिदडी (ऐसे दंडविशेष को धारण करनेवाला जिसमें चोटी और जनेऊ बँधे हुए हों अथवा न भी बँधे हुए हों ), शिरपर केवल चोटी रखनेवाला, यज्ञोपवीत — जनेऊ – का धारक, झोपड़ी में रहनेवाला और जो एकबार पुत्रके मकान पर स्नान करता हो तथा मोपड़ी में निवास करता हो उसे 'कुटीचर' कहते हैं ||१||
जो झोपड़ी में रहकर गोधरीवृत्तिसे आहार करता हो और विष्णु की जाप जपनेमें तत्पर हो उसे 'बम्होदक' कहते हैं ॥२॥
१ देखो नीति संस्कृत टीका पृष्ठ ५० २ तथा च हारीत:
श्रमाराम भवेद्यस्तु विद्यासेवनतत्परः । संवारतरणार्थाय योगभाग् य तिरुच्यते ॥ १ ॥ विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिषदः । शानध्यानतपोरतस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥ २ ॥
४ – उक्त सूत्र भी मु० सू० पुस्तक में और गर्न लायब्रेरी
केवल संस्कृत टीका पुस्तक में है।
रत्नकरण्डे स्वामी समन्तभद्राचार्यः । पूना की हस्तलिखित मू० दोनों प्रतियों में नहीं है
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* नीतिवाक्यामृत *
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जो गाँधोंमें एकरात और शहरों में तीनरात तक निवास करता हो और धूप और 'अग्निसे शून्य ब्राह्मणों के मकानों में जाकर थाली आदिमें या हस्तपुट में स्थापित किये हुए श्राहारको ग्रहण करता हो एवं जिसे शरीर और इन्द्रियादि प्रकृतिसे भिन्न पुरुषतत्व-- आत्मतत्व-का बोध उत्पन्न हुआ हो उसे 'हंस' समझना चाहिये ॥३॥
जो अपनी इच्छासे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णोका गोचरीत्तिसे आहार ग्रहण करता हो, दंड विशेषका धारक, समस्त कृषि और व्यापार आदि प्रारंभका त्यागी और वृक्षोंके मूलमें बैठकर भिक्षा द्वारा लाये हुए आहारको प्रहण करता हो उसे 'परमहंस' कहते है ।। २६ ।' अब राज्यका मूल बताते हैं:
राज्यस्य मूले क्रमो विक्रमश्च ॥ २७॥ अर्थः-पैतृक-वंश परम्परासे चला पाया राज्य या सदाचार और विक्रम-मैन्य और खजानेकी शक्ति-ये दोनों गुण राज्यरूपी वृक्षके मूल हैं. इन दोनों गुणोंसे राज्यको श्रीवृद्धि होती है।
___ भावार्थ:--जिसप्रकार जलसहित वृक्ष शास्त्रा, पुष्प और फलादिसे वृद्धिको प्राप्त होता है उसीप्रकार राज्य भी क्रम सदाचार तथा पराक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होता है-हस्ति, अश्वादि तथा धनधान्यादिसे समृद्धिशाली होजाता है ॥२७॥
शुक्र विद्वान्ने' भी लिखा है कि 'जिसप्रकार जसहित होनेसे वृक्षकी वृद्धि होती है उसीप्रकार क्रम--सदाचार और विक्रम गुणोंसे राज्यकी वृद्धि-उन्नति होती है और उनके विना नष्ट होजाता है ।।
निष्कपः- राजाका कर्तव्य है कि वह अपने राज्य (चाहे वह वंशपरम्परासे प्राप्त हुआ हो या अपने पुरुषार्थसे प्राप्त किया गया हो) को सुरक्षित, वृद्धिंगत और स्थायी बनानेके लये कम-सदाचारलक्ष्मीसे अलंकृत होकर अपनी सैनिक और खजानेकी शक्तिका संचय करवा रहे, अन्यथा दुरापारी और सैन्यहीन होनेसे राज्य नए हो जाता है ।। २७ ॥.
१ नोट:--उक्त सूत्रमें जो चार प्रकारके यतियों का निर्देश किया गया है उसका जैनसिद्धान्तसे समन्वय नहीं होता,यो. कि जैनाचार्यों ने 'पुलाकवकुशकुशीलनियस्मातकाः निम्रन्थाः' श्राचार्य उमास्वामीकृत मोक्षशास्त्र अा-अर्थात् एलाक, वकुश, कुशील, निर्गन्ध और स्नातक इसप्रकार यतियों के ५ भेद निर्दिष्ट किये है और उनके कर्तव्योंका भी पृथक् २ निर्देश किया है। एवं स्वई इन्ही प्राचार्यश्री ने यशस्तिलको यतियोंके जितेन्द्रिय,क्षरएक, भूषि, यति श्रादि गुण निष्पन-सार्थक न मौकी विशव्याख्या की है, अतएव इनको अन्य सांख्य योग श्रादि दार्शनिकों की मान्यताओं का संग्रह समझना चाहिये । इसमें प्राचार्यश्री की राजनैतिक उदारदृष्टि या संस्कृत टीकाकारके अजैन होनेसे उसके द्वारा की हुई अपने मतकी अपेक्षा नवीन रचना हो कारण है।
सम्पादक:२ राज्यमूलं क्रमो विक्रमश्च' इस प्रकार मु. मूळ पुस्तकमें पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ३ तथा च शुक्र:-- कमविक्रममृजस्थ राज्यस्य तु यथा तरोः। समूलस्य मवेदृद्धिस्ताभ्यां हीनस्य संक्षयः ॥ १॥
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अब राज्यकी वृद्धिका उपाय बताते हैं:
आचारसम्पत्तिः क्रमसम्पत्ति करोति ।। २८ ॥ अर्थ:-सदाचारलक्ष्मी वंशपरम्परासे या पुरुषार्थसे प्राप्त हुई राज्यलक्ष्मीको चिरस्थायी बनाने में कारण है।
शुक्र' विद्वान ने लिखा है कि जो राआ अपने भविकज्ञानको पार करके लोकव्यवहारमें निपुण होता है इससे उसके वंशपरम्परासे चले आये राज्यकी श्रीद्धि होती है ।। १॥
निष्कर्षः--नीतिविरुद्ध असत् प्रवृत्ति-दुराचार-से राज्य नष्ट होजाता है; अतएव जो राजा अपने राज्यको चिरस्थायी बनानेका इच्छुक है उसे सदाचारी होना चाहिये ।। २८ ॥ अब जिस गुणसे एराक्रम सुशोभित होता है उसका वर्णन करते हैं:
अनुत्सेकः खलु विक्रमस्यालङ्कारः ॥ २६ ।। अर्थ:-विनय अभिमान न करने से पराक्रम सुशोभित होता है।
गुरु' विद्वान्ने लिखा है कि 'मनुष्य सुवर्णादिके आभूषणोंसे रहित होने पर भी यदि बिनयशील है तो यह विशेष सुशोभित होता है, परन्तु घमण्डी पुरुष अनेक आभूषणोंसे अलंकृत होनेपर भी लोकमें ईसीका पात्र होता है॥१॥
जो राजा 'मैं ही बड़ा शूरवीर हूँ ऐसा समझ कर अभिमानके यश होकर अपने अमात्य, गुरुजन और बन्धुजनोंका सत्कार नहीं करता वह रावणकी तरह नष्ट होजाता है ॥ २॥'
निष्कर्षः-अत: नैतिक पुरुषको कदापि अभिमान नहीं करना चाहिये ॥२॥ अब राज्यकी शातिका कारण बताते हैं:
क्रमरिक्रमयोरन्यतरपरिग्रहेण राज्यस्य दुष्करः परिणामः' ॥३०॥ अर्थ:--.. राजा क्रम (सदाचार और राजनैतिक झान) और पराक्रम सैनिकशक्ति इनमेंसे केवल एक ही गुण प्राप्त करता है उसका राज्य चिरस्थायी नहीं रहता-लष्ट हो जाता है। १ तया च शुक्र:
पौकिक व्यवहार य: कुरुते नयवृद्धितः । तद्ध्या वृद्धिमायाति राज्यं तत्र क्रमागतम् ॥१॥ २ तषा च गुरु:भूषणेरपि संस्यक्तः स विरेने विगर्वकः । सगर्यो भूषणादयोऽपि लोकेऽस्मिन् हास्यता बजेत् ॥ ३ ॥ योऽमात्यान् मन्यते गर्वान्न गुरून् न च बांधवान् ।
शरोऽहमिति विशेयो म्रियते रावणो यथा ॥२॥ ३ 'क्रमविक्रमयोरन्यतमपरिग्रहेण राज्यस्य दुःकरः परिणाम:' ऐसा मु. ० पुस्तकमें पाट है र अर्थ मेव च नहीं है।
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आगार्थ:- पैतृक राज्यके मिल जानेपर भी जो राजा भीक होता है-पराक्रम नही करता-सैनिकशक्ति संगठित शक्तिशाली नहीं बनाता उसका राज्य नष्ट होजाता है । इसीप्रकार जो पराक्रमशक्ति सैनिक
से राज्य संपादन कर लेता है परन्तु राजनैतिक ज्ञान-संधि, विग्रह, यान और भासन भाविका खान, देश और कालके अनुसार प्रयोग करना-नहीं जानता उसका राज्य भी नष्ट होजावा है। एक विद्वानने लिखा है कि 'जो राज्य जलके समान (जिसप्रकार पातालका अल यंत्र द्वारा खीर जाता है) पराक्रम-सैनिक शक्ति से प्राप्त कर लिया गया हो परन्तु बुद्धिमान् राजा अब उसे नष्ट हुमा देले सब उसे राजनीति (संधि, विग्रह, यान और प्रासन आदि उपाय) से उस राज्यको पूर्णकी सुरक्षित रखनेका प्रयत्न करना चाहिये ॥१॥ मार' नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'जो राजा पराक्रमसे शून्य होनेके कारण संप्राम-युद्ध-से होजाता है-सैनिक शक्तिका समुषित प्रयोग नहीं करता-इसका भी कुलपरम्परागत राज्य नष्ट हो
निष्कर्षः-कोई भी राजा केवल आचार सम्पत्तिसे अपने राज्यको नष्ट होनेसे बचा नहीं सकता, कि माचारवान्-शान्तराजाको शलोग आक्रमण करके पराजित कर देते हैं। मय प्रातराज्य सचिव रखने के लिये उसे प्राचार सम्पसिके साथ २ अपनी सैनिक रातिको मजबूत बनाकर पराक्रम
होना चाहिये। इसीप्रकार केवल पराकम-सैनिकशक्ति से ही कोई साम्राज्य चिरस्थायी नहीं रह ... क्योंकि सदा पराक्रम दिखाने वाले–हमेशा, वीरण दंड देने वाले राजासे सभी लोग द्रोहरने
मतः उससे समस्त प्रजा बुन्ध होजाती है और ऐसा होने से उसका राज्य नष्ट होजावा ॥३०॥ कौनसा राजा राजनैतिक ज्ञान और पराक्रम का स्थान होता है ? इसका समाधान किया जाता :
क्रमविक्रमयोरधिष्ठान बुद्धिमानाहार्यबुद्धिर्वा ॥ ३१ ॥ :-पही राजा राजनीति और पराक्रमका स्थान हो सकता है जो स्वयं राजनैतिक दानमा हो यो अमात्यके द्वारा साये हुए राजनीतिक सिद्धान्तोंका पालन करने वाला हो।
विद्यानने लिखा है कि जो राजा स्वयं बुद्धिमान है अथवा जो अमात्यकी पुखिके अनुस याप गुरु:रादि सलिलं यादलेन समाहतम् । भूगोलि तमोऽध्येति पम्बाकालस्य संक्षयम् ? ॥१॥
याब नम:-- अपामयुतो यस्ता राजा संग्रामकातरम्।
विमाग तस्य नाश राज्य प्रगति ॥॥ वारक
यो राजा नीतिौर्यगा भवेत् । कामादिल इदिसनो विनश्पति ||
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प्रवृत्ति करता है बद्दी राजनीति और पराक्रमका स्थान है । परन्तु जिस राजामें राजनैतिक ज्ञान नहीं है यह नम्र हो जाता है— अपने राज्यको खो बैठता है ॥ १ ॥
निष्कर्ष:-- राजाको राजनीति और पराक्रमी प्रातिके लिये या तो स्वयं बुद्धिमान होना चाहिये अथवा उसे मन्त्री द्वारा कही हुई बातको माननी चाहिये । उसे कापि दुराग्रही नहीं होना चाहिये ||३१|| अब बुद्धिमान् राजा का लक्षण निर्देश किया जाता हैः
यो विद्याविनीतमतिः स बुद्धिमान् ॥ ३२ ॥
अर्थ:- जिसने नीतिशास्त्रोंके अभ्यवनसे राजनीतिज्ञान और नम्रता प्राप्त की है उसे बुद्धिमान् कहते हैं ।
गुरु' विद्वानने लिखा है कि 'जिसकी बुद्धि नीतिशास्त्रोंके अध्ययनसे विशुद्ध है वह बुद्धिमान है परन्तु जो नीतिशास्त्र के ज्ञानसे शून्य और केवल शूरवीर है वह नष्ट हाजाता है-अपने राज्यको खो बैठता है ॥ १ ॥ '
अब शास्त्रज्ञान से शून्य केवल शूरवीरता बसानेवाले राजाकी अवस्था बताते है:
सिंहस्येव केवलं पौरुपावलम्बिनो न चिरं कुशलम् ॥ ३३ ॥
अर्थः- जो राजा नीतिशास्त्रके शानसे शून्य है और केवल शूरवीरता ही दिखाता है उसका सिंहकी तरह चिरकाल तक कल्याण नहीं होता - अर्थात् जिसप्रकार आक्रमण करनेवाला सिंह मार डाला जाता है उसी प्रकार नीतिज्ञान से शून्य और केवल तीक्ष्ण दंड देने वाला राजा भी दुष्ट समझ कर मार दिया जाता है
शुक* विद्वान्ने लिखा है कि 'केवल आक्रमण करनेके कारण मृगों के स्वामी- शेर को मनुष्य 'हरि' ( हन्यते इति हरिः - मार डालने योग्य) कहते हैं उसीप्रकार नीतिशास्त्र के ज्ञानसे शून्य केवल क्रूरता दिखानेवाला भी नाशको प्राप्त होता है ॥ १ ॥
नीतिशास्त्र के ज्ञान से शून्य पुरुषकी हानि बताते हैं:
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शस्त्रः शूर इवाशास्त्रः प्रज्ञायानपि भवति विद्विषां वशः ॥ ३४ ॥
अर्थ:- जिसप्रकार बहादुर मनुष्य भी हथियारोंके बिना शत्रुओंसे पराजित कर दिया जाता है।
३ तथा च गुरुः
शाखानुगा भत्रेनुद्धिर्यस्याशय बुद्धिमान् ।
शास्त्रया विहीनस्तु शौर्ययुक्तो विनश्यति || १ |
२ तथा च शुक्रःपौरुषमृगास्तु: स प्रोभ्यते जनैः ।
शास्त्रबुद्धिविहीनस्तु यतो नाशं स गच्छति ॥ १
३'नर इवाशास्त्रः प्रशावानपि भवति सर्वेषां गोचर:' इस प्रकार मु० हैभेव कुछ नहीं है।
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नीतिवाक्यामृत *
समान मनुष्यभी नीतिशास्त्रके ज्ञान के बिना शत्रुओंके घश होजाता है. उनके द्वारा पजित
...
में लिखा है कि 'जिसप्रकार बलवान मनुष्य भी शस्त्रों-हथियारों से रहित होनके
मार दिया जाता है उसीप्रकार बुद्धिमान मनुष्य भी नीतिशास्त्रका ज्ञान न होनेसे मासे मार डाला जाता है ॥शा'
एष नीतिशास्त्रका ज्ञान होना मनुष्यमात्रको अत्यन्त आवश्यक है ॥३४।। हानसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं:
प्रलोचनगोचरे ह्यर्थे शास्त्र वृतीयं लोचनं पुरुषाणाम् ॥३॥ से पदार्थ या प्रयोजन नेत्रोंसे प्रतीत नहीं होता उसको प्रकाश करने के लिये शास्त्र मनुष्योंका
ANSE
..
किसीभी कतव्य अथवा उसके फल में यदि संदेह उपस्थित होजावे कि यह कार्य योग्य है ? । इसका फल अच्छा है या बुरा ? तो उसको दूर करने में शास्त्रज्ञान ही समर्थ हो सकना
ध नहीं कर सकती ॥३५॥ नने लिखा है कि 'जो कार्य चक्षुओंके द्वारा प्रतीत न हो और उसमें संदेह उपस्थित मानसे उसका निश्चय कर उसमें प्रवृत्ति या निवृत्ति करनी चाहिये ।' ले शून्य पुरुषका विवरण किया जाता है:
अनधीतशास्त्रश्चक्षुष्मानपि पुमानन्ध एव ॥३६॥ बड पुरुभने शास्त्रोंका अध्ययन नहीं किया वह चक्षुसहित होकरके भी अन्धा ही हैर मनुष्यको सामने रखे हुए इष्ट और अनिष्ट पदार्थका ज्ञान नहीं होसकता उसी प्रकार ले पस्य-मूर्खमनुष्य-को भी धर्म और अधर्म-कर्तव्य और अकर्तव्य-का ज्ञान नहीं
मार भी उक्त बातका समर्थन करता है कि, "जिसप्रकार अंधा मनुष्य सामने रक्खी हुई
को नहीं देख सकता उसीप्रकार शास्त्रज्ञानसे हीनपुरुष-मूर्य-भी धर्म और अधर्म
सस्ता |
"नालयामविहीनो यः प्रजावानपि हन्यते ।
पर: छत्रविहीनस्तु चौरा रवि वीर्यवान् ॥११॥ १ अरश्यो निजचजुयी कार्य सन्देहमागते ।
शास्त्रेण निश्चयः कार्यस्तवर्षे च किया स्तः :१॥ ३ तथा च भागुरि:शुभाशुभ न पश्येच यथान्धः पुरसः स्थितं । शास्त्रहीनत्तया मल्यों पौधों न विन्दति ॥१॥
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८२
मूर्ख मनुष्यकी हीनता बताते हैं :--
* नीतिवाक्यामृत
न ज्ञानादपरः' पशुरस्ति ॥ ३७ ॥
अर्थ:-संसार में मूर्खको छोड़कर दूसरा कोई पशु नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार पशु पास आदि भक्षण करके मलमूत्रादि क्षेपण करता है और धर्म-अधर्म-कर्तव्य - अकर्तव्य को नहीं आना उसीप्रकार मूर्ख मनुष्य भी खान-पानादि क्रिया करके मलमूत्रादि क्षेपण करता है और धर्म-अधर्म-कर्तव्यअकर्तव्य को नहीं जानता ।
मूर्खोग शास्त्रशानसे पराङ्मुख – रहित - दोनेके कारण धर्म और अधर्मको नहीं जानते इसलिये बिना सींगों के पशु हैं ॥ १ ॥'
टिभीका है कि
..............................4
नीतिकार महात्मा भर्तृहरिने कहा है कि 'जिसे साहित्य और संगीत आदि कलाओंका ज्ञान नहीं हैजो मूर्ख है - यह विना सींग और पूँछका साक्षान- यथार्थ - पशु है। इसमें कई लोग यह शङ्का करते हैं कि यदि मूर्ख मनुष्य यथार्थमें पशु हैं तो वह घास क्यों नहीं खाता ? इसका उत्तर यह है कि वह घाम न arकरके भी जीवित है, इसमें पशुओंका उत्तम भाग्य ही कारण है, नहीं तो यह घासभी खाने
लगता ।। १ ।।'
rses : - इसलिये प्रत्येक व्यक्तिको कर्तव्यबोध और श्रेय की प्राप्तिके लिये नीतिशास्त्र आदिका शान प्राप्त करना चाहिये ||३७||
जिसप्रकारके राजासे राज्यकी क्षति होती है उसे बताते हैं:
चरमराजकं वनं न तु मूर्खो राजा ॥ ३८ ॥
अर्थ:- पृथ्वीपर राजाका न होना किसी प्रकार अच्छा कहा जासकता है परन्तु उसमें मूर्ख राजाका होना अच्छा नहीं कहा जा सकता ।
भावार्थ:- जिस देशमें मूर्ख राजा का शासन होता है वह नष्ट हो जाता है ॥३
१ श्रभ्य:' इसप्रकार मु० मू० पुस्तक में पाठ है किन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है।
२ तथा च वशिघ्रः---
मर्त्या मूर्खतमा लोकाः पशवः शृङ्गवर्जिताः ।
धर्मो न जानन्ति यतः शास्त्रपराङ्मुखाः ||१||
३ तथा च भर्तृहरि:-- साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षाशुः पृच्छविद्यायहीनः । तू न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥१॥
तसे |
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ॐ नीतिषाक्यामृत
ट
गुरु' विद्वानने भी कहा है कि 'संसारमें जिन देशों में राजा नहीं होते वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करते रहते हैं परन्तु जिनमें राजा मूर्ख होता है ये नष्ट होजाते हैं ॥१॥ अब युवराज होने के अयोग्य राजपुत्र का कथन करते हैं:
असंस्कार रत्नमिव सुजातमपि राजपुत्रं न नायकपदायामनन्ति साधवः ॥३६॥ ___ अर्थ:-जो राजपुत्र कुलीन होनेपर भी संस्कारों-नीतिशास्त्र का अध्ययन और सदाचार आदि सद्गुणों-से रहित है उसे राजनीति के विद्वान् शिष्टपुरुष संस्कारहीन-शाण पर न चढ़ाये हुए-रत्नके समान युवराज-पदपर आरूढ़ होने के योग्य नहीं मानते ।
सार्थ:-जिसपर समुः प्रादि उसन स्थासे उत्पन्न हुअाभी रत्न शाण पर धरणादि क्रियासंस्कार के विना भूषण के योग्य नहीं होता, उमीप्रकार राजपुत्रभी जबतक राजनीतिज्ञ बहुश्रुत शिष्ट पुरुषोंके द्वारा किये गये नैतिक ज्ञान और सदाचार आदि संस्कारों से सुसंस्कृत नहीं होता तबतक वह युवराजपदके अयोग्य समझा जाता है।
। निष्कर्षः-राजपुत्र को राजनैतिक ज्ञान और सदादाररूप संस्कारों से सुसंस्कृत होना चाहिये जिस से वह युवराजपदपर आरूढ़ होसके |३|| अब दुष्टराजा से होनेवाली प्रजाकी क्षति बताते हैं:
न दुर्विनीताद्राज्ञः प्रजानां विनाशादपरोऽस्त्युत्पातः' ॥४०॥ अर्थः- दुष्ट राजासे प्रजाका विनाश ही होता है, उसे छोड़कर दूसरा कोई उपद्रव नहीं होसकता |
भावार्यः-लोक में भूकम्प आदि से भी प्रज्ञाकी क्षति होती है परन्तु उससे भी अधिक क्षति दुष्ट राजा से हुश्रा करती है ।
___ हारीत विद्वान ने भी कहा है कि 'भूकम्पसे होनेवाला उपद्रव शान्तिको-पूजन, जप और हवन आदि-से शान्त होजाता है परन्तु दुष्ट राजासे उत्पन्न हुआ उपद्रव किसी प्रकार भी शान्त नहीं हो सकता था
१ तथा च गुरु:
अराजकानि राहाणि रक्षन्तीह परस्परं । मूखों राजा भवेद्य पां तानि गछन्तीद संक्षयं ॥ १ ॥ २ 'अकृतमस्कार' ऐसा मु० मू० पुस्तक में पान है परन्तु अर्थमद कुछ नहीं है। ३ न पुन बिनीतादाश: प्रजाविनाशायापरोऽस्युल्लाता'
इसप्रकार मु. और हस्तलि. मूलमतियों में पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ४ तथा च हारीत:
उत्यातो भूमिकम्पादः शान्तिकैयोति सौम्यतां । नृवस: उत्पातो म कथंचित् प्रशाम्यति ।। ।।।
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* नीतियाक्याभूत १
अब दुष्ट राजाका लक्षणनिर्देश करते हैं:
यो युक्तायुक्तयोरविवेकी विपर्यस्तमतिर्वा स दुविनीतः' ॥४१॥ अर्थ:-जो योग्य और अयोग्य पदार्थों के विषय में ज्ञानशून्य है अर्थात् योग्य को योग्य और अयोग्य को अयोग्य न समझकर अयोग्य पुरुषों को दान और सन्मानादि से प्रसन्न करता है और योग्य व्यक्तियों का अपमान करता है तथा विपरीतबुद्धि से युक्त है अर्थात् शिष्ट पुरुषों के सदाचार की अवहेलना करके पार कर्मों में प्रवृत्ति करता है उसे दुष्ट कहते हैं ।।शा
नारद' विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो राजा योग्य और अयोग्य के भेद को नहीं जानता और विपरीत बुद्धिसे युक्त है-शिष्टाचारसे विरुद्ध मद्यपान आदि में प्रवृत्ति करता है उसे दुत्त-दुष्ट-कहते
अब राज्यपदके योग्य वषयका सवश माते हैं: ...
यत्र सद्भिराधीयमाना गुणा संक्रामन्ति तद्रव्यं ॥४२॥ अर्थः-जिस पुरुषद्रव्यमें राजनीतिज्ञ विद्वान् शिष्टपुरुषों के द्वारा नीति, आचारसम्पत्ति और शूरता आदि प्रजापालन में उपयोगी सद्गुण सिखाये जाकर स्थिर होगये हों----जो इन सदगुणों से भलंकृत होगया हो-वह पुरुष राजा होनेके योग्य है ॥४॥
____ भागुरि विद्वान्ने भी लिखा है कि 'वही पुरुषद्रव्य राजा होने के योग्य है जिसमें राजनीतिज्ञ विद्वानों के द्वारा सद्गुण-नीति, सदाचार और शूरता आदि-स्थिर होगये हो । ॥१॥
अब द्रव्यप्रकृतियुक्त--राज्यपदके योग्य राजनैतिक ज्ञान, आचारसम्पत्ति और शूरवीरता आदि सद्गुणोंसे युक्त-पुरुष जब अद्रध्य प्रकृति युक्त अर्थात् उक्तगुणोंसे शून्य और मूर्खता, विषयलम्पटता और कायरता श्रादि दोषोंसे युक्त होजाता है उससे होनेवाली हानि बताते हैं:
___ यतो द्रव्याद्रव्यप्रकृतिरपि कश्चित् पुरुषः सङ्कीर्ण गजवत् ॥४३॥ अर्य:--अब मनुष्य द्रव्यप्रकृति-राज्यपदके योग्य राजनैतिफहान और आधारसम्पधि भाषि सद्गुणों से अद्रव्यप्रकृति-उक्त सद्गुणोंको त्याग कर मूर्खता, अनाचार और कायरता
१ 'युक्तायुक्तयोगवियोगयोरविवेकतिर्वा स दुविनीतः' इसप्रकार मु. मू और • निम्। प्रतियोंमें पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है।
२ तथा च नारदःयुनायुक्तविषेक यो न जानाति महीपतिः। दुनः स परिशेयो यो वा वामभतिभवेत् ॥१॥ । तथा च भागुरि:योज्यमाना उपाध्याययंत्र सि स्थिराश्च ते ।
भवन्ति नरि द्रव्यं तत् प्रोच्यते पार्थिवोचितम् ॥१॥ ४ उक्त सूत्र मु० और हस्त लि. मूलप्रतियोंसे संकलन किया गया है क्योंकि स टी. सक* 'स्तो ब्रम्मातिर स्ति पुरुषः संकीर्णगजवत्' ऐसा अपूर्ण सूत्र होने से उसका अर्थमी क्या मही होता था। समार:
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* नीतित्राक्यामृत है
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को आम हो जाता है तब वह पागल हाथीकी तरह राज्यपदके योग्य नहीं रहता-अर्धा जिस हाथी जनमाधारणको भयंकर होता है उसी प्रकार जब मनुष्यभे राजनैतिक ज्ञान, प्राचार
धीरता आदि गुण नष्ट होकर उनके स्थानमें मुर्वता अनाचार और कायरता आदि दोष - सबबह पागल हाथीकी तरह भयंकर होजानमे गज्यपाह के योग्य नहीं रहना ! ४ ॥
मदेव विद्वानने लिखा है कि 'राजपुत्र शिष्ट और विद्वान् होने पर भी यदि उसमें द्रव्य (राज्य
मे अद्रव्यपन-मूर्खता अनाचार और कायरता आदि दोष-होगया हो तो वह मिश्रगुणमरश भयंकर होने कारण राज्यके योग्य नहीं है ॥२॥।' हितामने कहा है कि 'जो मनुष्य समस्त गुणा(राजनैतिकज्ञान, सदाचार और शूरता आदि)म में राजद्रव्य कहते हैं-उसमें राजा होने की योग्यता है-चे गुण राजाओंको समस्त सत्कर्तव्योंमें र करते हैं ॥१॥
गुरूप का वर्णन करते हैं:.::. ... द्रव्यं हि क्रियां विनयति नाद्रव्यं ॥४४॥
म-गुणों से अलंकृत योग्य पुरुष-राज्यपदको प्राप्त कर सकता है निर्गुण-मूर्स-नहीं। SHI सिप्रकार अच्छी किस्मके पत्थर शाण पर रक्खे जानेसे संस्कृत होते हैं साधारण नहीं, परवान और कुलीन पुरुष ही राज्य आदि उत्तम पदके योग्य है मूर्ख नहीं ॥४४
विद्वान् ने लिखा है कि 'प्रायः करके गुणवान पुरुषोंके द्वारा राजाओंके महान कार्य सफल मूबसे छोटासा कार्य भी नहीं हो पाता ॥शा सब और उनके लक्षणोंका कथन करते हैं:सपा-श्रवण-ग्रहण-धारणाविज्ञानाहापोह तत्वाभिनिवेशा बुद्धिगुणाः॥४॥
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सामाभोव:
जो शिवम्योऽनि म्यादन्यस्वभावकः । musभो गजो मित्रगुणो यथा
॥
गुगोपेतो राजद्रयं तदृश्यते । सानां तदई त्यसाधनम् ॥१॥
सायं भूपतीनां प्रमिड्यति । सामायी निगुणैरपि नो लघु ॥ १ ||
देषिया' इति बुद्धिगुणाः' इसप्रकार म० ए० में पाद है किन्नु अर्थभेद कुछ नहीं है।
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* नीतिवाक्यामृत स
८६
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४६॥
श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा ॥४६॥ श्रवणमाकर्णनम् ॥४७॥ ग्रहणं शास्त्रार्थोपादानं ॥४॥ धारणमविस्मरणम्' ॥४॥ मोहसन्देहविपर्यासन्युदासेन ज्ञान विज्ञानम् ।।५० ॥ विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु व्याप्त्या तथाविधवितर्कणमूहः ॥५१॥ उक्तियुक्तिभ्यां विरुद्धादर्थात् प्रत्यवायसंभावनया व्यावर्तनमपोहः ॥५२॥ अथवा ज्ञानसामान्यमूहो ज्ञानविशेषोऽपोहः ॥५३॥ विज्ञानोहापोहानुगमविशुद्धमिदमित्थमेवेति निश्चयस्तत्वाभिनिवेशः । ५४।।
मर्थः-शुश्रूषा-शास्त्र और शिष्टपुरुषों के हितकारक उपदेशको सुननेकी रया, श्रवण-हितकारक अपदेशको मुनना, प्रहण-शास्त्रके विषयको ग्रहण करना, धारण-मधिक समय तक शास्त्रादिके विषय को याद रखना, विज्ञान-संशय, विपर्यय और अनभ्यवसाबरूप मिथ्याशानसे रहित पदार्पका पवार्य निश्चय करना, अह-व्याप्तिज्ञान अर्थात् निश्चय किये हुए धूमादि हेतुरूप पवाओंके पानसे अग्नि पारि साध्यरूप पदार्थोंका शान करना, अपोह-शिष्टपुरुषों के उपदेश तथा प्रबल युक्तियोंसे प्रकृति, तु और शिष्टाचारसे विरुद्ध पदाथोंमें अपनी हानि या नाशफा निश्चय करके उनका त्याग करना और स्वामिनिबेराउक्तविज्ञान और ऊहापोह भादिसे हितकारक पदार्यका छ निश्चय करना-भाठ बुखिके गुपnur अब शास्त्रकार स्वयं सक्त गुणोंका लक्षण करते हैं:
मर्थः-शास्त्र या महापुरुषों के हितकारक उपदेशको प्रवण करनेकी इच्छा करना यह 'सुभगाई।४।। हितकारक मासको सुनना यह श्रवण' है ॥४॥ शास्त्र आदि के हितकारक विषयको प्रहण करना महण' है।॥४॥ शास्त्र भादि के विषयको ऐसा याद रखना जिससे कि बहुत समय तक मूल न सकें इसे 'पारण' गुण कहते हैं | all मोह-अनिश्चय, सन्देह (संशय मर्थात् एक पदार्यमें दो प्रकारका ज्ञान होना जैसे स्थातु-:वह ४ है ? या पुरुष है । इसप्रकार भनेक कोटिका ज्ञान होना) और विपरीशान इन मिथ्यावानोंसे रहित यथार्थ ज्ञान होना इसे 'विज्ञान' कहते हैं ॥१०॥
भारणं कालान्तरेश्वविस्मरणम् इसप्रकार मु.मू. पुस्तकमे और पूना बाकी कावान्तरादविस्मयम् ऐसा पाठ है, पर अर्पभेद नहीं है।
मलित प्रतिमें पर
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* नीतिवाक्यामृत
किये हुए पदार्थों-धूम आदि हेतुरूप वस्तुओं के आधारसे उनका ज्ञान होने से -- (निका पूर्वनिश्चित धूमादि साधनोंके साथ अविनाभाव संबंध है ऐसे अग्नि आदि साध्यरूप प्रकार निश्चय करना उसे 'ऊह' कहते हैं ॥५१॥
८७
महापुरुषोंके उपदेश और प्रबल युक्तियों द्वारा प्रकृति, ऋतु और शिष्टाचारसे विरुद्ध पदार्थों-अनिष्टभोजन और परस्त्रीसेवन आदि विषयों में अपनी हानि या नाशकी संभावना - निश्चय करके उनका त्याग करना यह 'अपोह' नामका बुद्धि गुरु है।'
मात्रार्थ:- परस्त्रीसेवन आदि दुष्कृत्य आगम और अनुमान प्रमाणसे विरुद्ध है; क्योंकि इनमें प्रवृत्ति करनेवाला मनुष्य रावण आदि की तरह ऐहिक - राजदंड आदि और पारलौकिक नरकादिके भयङ्कर दुःखोंको भोगता है, अत एव नैतिक पुरुष इनमें अपनी दानि या नाशका निश्चय करके उनका त्याग करता है यह उसका 'अपोह' नामका बुद्धिगुण है ॥५२॥
अथवा किसी पदार्थ के सामान्यज्ञानको ऊह और विशेषज्ञानको अपोह कहते हैं, उदाहरण में जलको देखकर 'यह जल है' इसप्रकारके साधारण ज्ञानको 'क' और इससे प्यास बुझती है इसप्रकारका विशेष ज्ञान होना 'अपोह' है ।। ५३ ।।
उक्तविज्ञान, ऊह और अपो आदिके संबंधसे विशुद्ध हुए 'यह ऐसा ही है अन्य प्रकार नहीं है' इसप्रकारके दृढ़ निश्चयको 'तत्वाभिनिवेश' कहते हैं || ५४ ||
भगवज्जिनसेनाचार्यने' भी उक्त आठ प्रकार के श्रोताओंके सद्गुणोंका उल्लेख किया है कि शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, स्मृति, कह, अपोइ और निर्णीति ये श्रोताओंके गुण जानने चाहिये ||१|| अब विद्याओंका स्वरूप बताते हैं:
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याः समधिगम्यात्मनो हितमबैत्यहितं चापोहति ता विद्याः ॥ ५५||
अर्थ :- मनुष्य जिन्हें जानकर अपनी आत्माको हित-सुख और उसके मार्गकी प्राप्ति तथा महितदुःख और उसके कारणों का परिहार – याग — करता है उन्हें विद्याएँ कहते हैं ।
निष्कर्ष:- ओ सुख की प्राप्ति और दुःखोंके परिहार करनेमें समर्थ है उसे सत्यार्थं विद्या समझनी चाहिये और जिसमें उक्तगुण नहीं है वह अविद्या है ||५५६
१ शुभूषा भवणं चैन महणं कारणं तथा ।
स्मृत्यू हापोह नियती भोतुरही गुन्दान् विदुः ॥ १ ॥
श्रादिपुराण पर्व १ श्लोक १४६ ।
२ 'यां समधिगम्य' इसप्रकार सु० सू० वाड*● प्रतियों में पाठ है परन्तु श्रर्थभेद नहीं है, केवल एकवचन बहुवचन का ही मेद है।
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भागरि विद्वानने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि जो विद्वान विद्याको पदकर अपनी आत्माको सुखमें प्रवृत्त और दुःखोंसे निवृत्त करता है उसकी बे विद्याएँ है और इससे विपरीत ओ विद्याएँ है वे केवल कष्ट देनेवाली मानी गई हैं ॥शा' मग राजविद्यानों के नाम और संख्याका कथन करते हैं:
भान्वीचिकी प्रयी वार्ता दण्डनीतिरिति चतस्रो राजविधाः । ५६।। अर्थः-राजविद्याएँ चार है, भान्धीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति ।
भान्वीक्षिकी जिसमें अध्यात्मवत्व-यात्मतत्व तथा उसके पूर्वजन्म और अपर जन्म आदिको अमान कियों का निशि की गई उसे 'पान्तसिजी विद्या कहते हैं इसे दर्शनशास्त्र-न्यायशास्त्र भी कहते हैं।
त्रयी:-(परणानुयोग शास्त्र)जिसमें प्रामण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्षों तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चार भाभमोंके कर्तव्योंका निर्देश किया गया हो एवं धर्म और अधर्मका स्वरूप वर्णन किया गया हो उसे 'त्रयी' विधा कहते हैं इसका दूसरा नाम 'घाचारशास्त्र' भी है।
वार्ता:-जिस लौकिक शास्त्रमें प्रजाजनके जीविकोपयोगो (जीवननिर्वाहके साधन-असि-सागधारण करना, मषि-लेखनकला, कृषि खेतीकरना, विद्या,वाणिज्य व्यापार और शिल्प-चित्रकला-) कर्तव्योंका विवेचन किया गया हो उसे 'वार्ता' विद्या कहते हैं।
पएनीति:-जिसमें प्रजाजनोंकी रखाके लिये दुओं-प्रजापीबक भावतापियों के निमह (बड देने)का विधान हो इसे 'दरसनीति' कहते हैं।
इसप्रकार भान्वीक्षिकी, त्रयी, बार्ता और दण्डनीति ये चार राजविद्याएं हैं ॥१६॥ प्रय भान्वीक्षिकी विद्या पढ़नेसे होनेवाले लाभका निरूपण करते हैं:
भधीयानो सान्दीपिकी कार्याकार्याणां बलाबलं हेतुभिर्विचारयति, व्यसनेषु न विपति, नाम्पुदपेन विकार्यते समधिगच्छति प्रज्ञावास्यवैशारणम् ॥७॥
भर्षः-भान्वीक्षिकी विद्या-पर्शनशास्त्र का वेचा विद्वान् प्रवल युक्तियों के द्वारा कक्षम्य (महिसा और ब्रह्मचर्य भावि)को प्रधान या हितकारक और अकर्मन्य (मद्यपान भौर परकमत्रसेबन भावि) को भानपान-सुखको उत्पन्न करनेकी शक्तिसे रहिस-पर्वात् अहितकारक निरषय करता है एवं विपत्तिमें विषाद-सद-और सम्पत्ति विकार--मद और हर्ष-नहीं करता तथा सोचने विधारने और बोलने चतुराई प्राप्त करता है . तपाच मारि:यस्तु विद्यामधीत्याच हितमात्मनि संचयेत् ।
प्रतिं नाशयेद्विचःस्वारचान्याः क्लेण्डाः मता: 10 १ 'समधिगच्छति च प्रज्ञावान् बेसार इसप्रकार मु० मू• पुस्तक और गबन जायगे पूनाको .लि.. दोनों पुस्तकोंमें पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि प्रायोशिकी विद्याका विद्वान् चतुराई प्राप्त करता है।
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* नीतिघाक्यामृत *
अब यी विद्याके पढ़नेम होनेवाले लाभका निरूपण करते हैं:__ यी पठन् वर्णाश्रमाचारष्वतीव प्रगल्भते, जानाति व समस्तामपि धर्माधर्मस्थितिम् ॥५८।।
अर्थ:--त्रयीविद्या-चरणानुयोग शास्त्र-फा येत्ता विद्वान् वर्ण (प्रामण और क्षत्रिय आदि ) और पाश्रमों (ब्रह्मचारी और गृहस्थ आदि) के ज्ञान प्राप्त करनेमें समर्थ होता है तथा समस्त धर्म-अधर्म अर्थान कर्तव्य अकनन्यकी मर्यादाको भलीभाँति जानता है ॥५८।।
भब वार्ता विद्यामें निपुणता प्राप्त करनेसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं:
युक्तितः प्रवर्तयन् वार्ता सर्वमपि जीवलोकमभिनन्दयति लभते च स्वयं सर्वानपि कामान् ।।६।।
अर्थः-लोकमें वार्ताविधा-कृषि आदिकी शिक्षा की समुषित प्रवृत्ति-प्रचार--करानेवाला राजा प्रजाको सुखी बनाता है तथा स्वयं भी समस्त अभिलपित्त भौतिक सुखोंको प्राप्त करता है ।। ५६ ।।
अब देउनीतिमें प्रवीण राजाको होनेवाले लाभका निरूपण करते हैं:
यम इवापराधिषु दण्डप्रणयनेन' विद्यमाने राज्ञि न प्रजाः स्त्रमर्यादामनिक्रामन्ति प्रसीदन्ति च त्रिवर्गफला: विभूतयः ॥६०॥ . अर्थः-राजाको यमराजके समान कठोर होकर अपराधियोंको दंडविधान करते रहने पर प्रजाके लोग अपनी २ मर्यादा ( कर्तव्य-पालनकी सीमा ) को उल्लधन नहीं करते-मर्थान् अपने २ वर्णाश्रम धर्म पर भारूड होकर दुष्कृत्योंमें प्रवृत्ति नहीं करने, अतः उसे धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थीको उत्पन्न करनेवाली विभूतियाँ प्राप्त होती हैं ।। ६०॥ ...
'अप्रणयिनि राज्ञिरेसा मु. मू० और १० ल० मूल प्रतियोंमें पाठ है परन्तु अर्थ मेन कुछ नहीं है।
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* नोतिषाक्यामृत *
.PAPurintoutauraakarsansarran"
अब अन्य-नीतिकारों की मान्यताके अनुसार आन्वीक्षिकी विद्या प्रतिपादन करनेवाले दर्शनोंका निरूपण करते हैं:. सांख्यं योगो लोकायतिकं चान्वीक्षिकी चौद्धाहतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् (नान्वीविकोत्वम्) इति . त्यानि मतानि' ॥ ६१॥
अर्थः--सांस्य, योग और चावोकदर्शन-नास्तिकदर्शन-ये मान्धीक्षिकी -अभ्यारम विधाएँ-. हैं अर्थात् अध्यात्मविद्या प्रतिपादक दर्शन हैं। प्रौद्ध और पाईरान-जैनदर्शन-वेदविरोधी होने के कारण अध्यात्म विद्याएँ नहीं हैं, इसप्रकार अन्य नीतिकारों की मान्यताएँ हैं।
विशदविमर्श:-यहाँपर प्राचार्यश्री ने अन्य नीतिकारोंकी मान्यता-मात्रका उल्लेख किया है। क्योंकि अध्यात्म-विधाका समर्थक पाईदर्शन वेदविरोधी होनेमासे प्रान्धीक्षिकी विद्यासे बहिर्मूस नहीं होसकता, अन्यथा उनके ऊपर प्राप्त हुआ अतिप्रसादोष निवारण नहीं किया जासकता अर्थात् सांस्य और नैयायिक
आदि दर्शन भी भाईदर्शन-जैनदर्शन के विरोधी होनेके कारण आन्वीक्षिकी विद्यासे पहिस समझे जासकते हैं। किसीके द्वारा निरर्थक निन्दा कीजाने पर क्या शिष्टपुरुष निन्वाफा पात्र होसकता है ? नहीं होसकता । इनहीं प्राचार्यश्रीने अपने यशस्तिनकचम्पूमें प्राचीन नीतिकारों के प्रमाणों द्वारा माईदर्शनको अध्यात्मविद्या-पान्यीक्षिकी-सिद्ध किया है। . या सूत्र केवल मुस० टी० पुस्तक में नहीं है परन्तु अन्य मभी पुस्तको घरस्वसी भवन प्राकी .लि.. टी• पुस्तक, गवनं० लायनरी पूनाकी ४० कि० मू. दो पुस्तकें और मु.पू. पुस्तक में वर्तमान है। इसलिये हमने उक्त प्रतियों से संकलन किया है। उक सूत्रके पाठ के विषयमें स्पीकरण:(क) सख्यं योगो लोकावतं चान्बोक्षिकी बौडाईवो: अतः प्रतिरक्षिवात्' ऐसा पाठ भावडारम रिसर्च गवर्न.
शायरी पूनाको हस्तलिखित मू० प्रति [न.७३७ जो कि सन् १८७५-७६ में लिखी गई में है। (ख) 'साख्यं योगो लोकायतं चान्धीक्षिकी शैवाईतोः भुने प्रतिपक्षत्वात् ऐसा पाठ पूना मायरोकी.
लि.मू. प्रति-[नं. 1011जो कि सन् १८८७ से 11 में लिखी ग11में। (ग) 'सांख्य योगो लोकायत चाम्पीक्षिकी बौदाईतोः श्रुतेः प्रतिपक्षस्यात् इति नैयानि मतानि' ऐसा पाठ
सरम्पतीभवन श्राराकी हस्तलिखित संस्कृत टी. पस्तक है। (4) सांख्ययोगी लोकायत चान्वीक्षिकी बौदाईतो भुतेः प्रतिपक्षम्यात' ऐसा पार मु. . तक है जोकि
गम्बाके गोपालनारायण प्रेसमें मुद्रित हुई एवं अधेय प्रेमीनीने प्रेक्ति की। २ साल्य योगी कोकायतं चान्यीविकी, तस्यां स्यावस्ति स्थान्नास्तीति नम्नभमणक पति परस्पतिलास पास्त समय कर्ष प्रत्यवतस्थे ? (यशस्तितके सोमदेवरिया...)
अर्थात् यशोधर महाराज अपनी माता चन्द्रमती पा जैनधर्म पर किये हुए भाक्षे (यह अभीक्षामा इत्यादि) का समाधान करते हुए अन्य नीतिकारों के प्रमाणोंसे उसकी प्राचीनता सिद्ध करते कि 'गल्प, योग और चार्वाकदर्शन ये प्रान्वीक्षिकी विद्याएं हैं और उसी प्रान्धीक्षिकी--अध्यात्मविद्या-में अनेकान्त (वस्तु अपने स्वरूपादि पतुष्टयकी अपेक्षा रुद्रूप-विद्यमान है और परचदृष्टयकी अपेक्षा असर-अविधमान-१ इत्यादि ) का समर्थक
.( शेष अगले पृष्ठ पर)
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* नीतिवाक्यामृत १
Meenetra.....
लापिन-अध्यात्मविद्या (पर्शनशास्त्र)के शानसे होनेवाले लाभका निरूपण करते हैं:--
सो हि राजा सत्वमवलम्बते रजःफल चापलं' च परिहरति तमोमि मिभ्यते ।।६२॥ -ति-शरीर और इन्द्रियादिक स्थूल तथा कानावरणादि कर्मरूप सस्मप्रकृति और पुरुष
सतपको जाननेवाला-भेदशानी-राजा सात्विक प्रकृतिको धारणकर रजोगुणसे होने वाली --काम और कोषादि विकारोंसे होनेवाली उच्छ खलता (नीतिविरुद्धप्रवृत्ति) का त्याग कर देता वासिकमावों-अज्ञानादि भावों से पराजित नहीं होता। सामानशास्त्रका अध्ययन मनुष्यको अज्ञानांधकारसे पृथक्कर मानके प्रकाशमें लाता है समावि राजसिकमावोंसे होनेवाली दानवताको नष्टकर सात्विकप्रकृति द्वारा शुक्नकर्म-संसार
म सेवा प्रादि-करनेके लिये प्रेरित करता है जिससे वह सच्ची मानवताको प्राप्त कर लेता है । शिक:-अत एव प्रत्येक मनुष्यको उक्त सद्गुणोंसे अलंकृत होने के लिये एवं राजाको भी शिष्ट
और हनिमहमें उपयोगी आन्वीक्षिकी विद्या-दर्शनशास्त्र का वेत्ता होना चाहिये ॥६॥ ET विधाओंका प्रयोजन बताने है:
विपन्यात्मविषये, प्रयी-वेदयज्ञादिषु, वार्ता कृषिकर्मादिका, दण्डनीतिः शिष्टपालनme ॥६॥ ई-बाम्बीतिकी-दर्शनशास्त्र-आत्मवत्वका, यी-घेद (अहिंसा धमके प्रतिपादक द्वादशा
और शादि-ईश्वरभक्ति, पूजन, हवन, जप आदि अहिंसामय क्रियाकाण्ड मादि-का,वातोमादकषि, विया, वाणिज्य और शिल्प आदि जीविकोपयोगी कर्तव्योंका, और दण्डनीतिविगा सा और होका निमहरूप राजधर्मका निरूपण करती है।
-सारसन (जैनदर्शन) भी अंतर्भूत-शामिल है। इस प्रकार वृहस्पति--सुराबार्यने इन्द्र के मद उस काय कायक जेनरर्शनको कैसे समर्थन किया ? अर्थात् यदि जैनदर्शन नवीन प्रचलित--अभीक चला हुमा-होता
मोरासतिने इन्द्र के समक्ष उसे प्रान्वीक्षिकी विद्यामें स्वीकार किया ? ... निका-प्राचार्यभीके उक्त प्रमाणसे यह मात निर्विवाद प्रमाणित-सत्य-सिद्ध होती है कि अन्यनीतिक
दिनादिनदर्शनको मान्वीक्षिकी-अध्यात्मविद्या- स्वीकार करते हैं।
म:-अमृत में प्राचार्यश्री काते है कि केवल वेदविरोधी होने के कारण कुछ नीतिकार बौद्ध और जैनदर्शन दिली मिया नहीं मानते । परन्तु श्राचार्यश्री यशस्तिलकके श्राधारसे सिबकि अन्य निष्पक्षनीतिकारोंने भी
शादीक्षिकी विना स्वीकार किया है।
हल टी० पुस्तक में नहीं है किन्तु मुमू और गर्न लायवेरो पूनाकी १० लि. दोनो मूल प्रतियों . : (2003 और नं.७१) में से संकलन किया गया है। PROF.और उस पूनाशाय रोकी न. ७३७ की ह. लि. मूलप्रति में भी 'चाफल' ऐसा प्रशुर पाठ पा
प्रा . पूनाको न.1012 में 'पापल ऐता शुद्ध पाठ मिल गया जिससे सन्या दूर हुत्रा । सम्पादक:पल मु मोर १. शिक्षक किसी भी मू० प्रतिमें नहीं है परन्तु संकत टी• पुस्तक से संकलन किया गया है।
सम्पादक:
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* नीतिवाक्यामृत
गुरु' विद्वान भी कहा है कि 'आन्वीक्षिकीविद्यामें आत्मज्ञानका, त्रयीमें धर्म और अधर्मका, वार्तामें कृषि करनेसे होनेवाले उत्तम फल और न करने से कुफलका एवं दण्डनीति में नीति और अनीति अर्थात् सन्धि और विग्रह आदि षाड्गुण्यके औचित्य और अनौचित्यका प्रतिपादन किया गया है ॥१॥
उक्त विद्याओं पर अन्य लोगों की मान्यता और ऐतिहासिक विमर्श:
मनुके अनुयायी त्रयी, वार्ता और दंडनीति, वृहस्पति के सिद्धान्तको माननेवाले वार्ता और नीति तथा शुक्राचार्यको मानने वाले केवल दंडनीति विद्याको मानते हैं, परन्तु आचार्यश्री श्रन्वीक्षिकी त्रयी, वार्ता और दंडनीति इन चारों विद्याओंको मानते हैं। क्योंकि वे भिन्न २ विपयोंको दीपककी तरह प्रकाशित करती हुई लोकका उपकार करती हैं। आर्य चाणक्य को भी उक्त चारों विद्याएँ अभिमत है; क्योंfeat कहता है कि 'विद्याओंकी वास्तविकता यही है कि उनसे धर्म-अधर्म (कर्तव्य - अकर्तव्य) का बोध हो' ।
श्रागमानुकूल ऐसिय-इतिहास - प्रमाण से विदित होता है कि इतिहासके आदिकाल में भगवान ऋषभदेवने प्रजामें उक्त चार विद्याओं में से वार्ता - कृषि और व्यापार श्रादिकी जीविकोपयोगी शिक्षा - का प्रचार किया था । श्रादिपुराण में भगवज्जिनसेनाचार्य ने लिखा है कि भगवान ऋषभदेव तीर्थङ्करने इतिहासके श्रादि काल में अत्र कि प्रजाक जोवननिर्वाहके साधन कल्पवृक्ष नष्ट हो चुके थे, अतएव जीविका के बिना प्रजाके लोग मृत्युकी आशङ्का त्राहि २ कर रहे थे, उस समय उनकी जीविका के साधन अति, मरि, कृषि, विद्या वाणिज्य और शिल्प आदिकी शिक्षा दी थी। समन्तभद्राचार्यने भी यही बात लिखी है। क्योंकि जिस प्रकार ऊपर जमीनमें बाय पैदा नहीं होतीं उसी प्रकार जीविकाके बिना भूखी और व्याकुल जनता भी धान्वीक्षिकी और त्रयी आदि ललित कलाओं को मीखकर अपनी उन्नति नही कर सकती ।
इसलिये जय जाके लोग आजीविका निश्चिन्त हुए तत्र भगवान् ऋषभदेवने उनकी योग्यता तथा शरीर जन्म की दृष्टि उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों की स्थापना की। पश्चान् उनके जीविकोपयोगी भित्र २ कर्तव्य निर्देश किये। इसके बाद धार्मिक आचार-विचारकी दृष्टिसे उनमें ग्यासकर प्राण, क्षत्रिय और वैश्य इन त्रिवर्णों में ब्रह्मवारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चारों आश्रमोंकी व्यवस्था कर उन्हें उनके धार्मिक सत्कर्त्तव्य पालन करनेका उपदेश दिया |
१ तथा च गुरुः
आन्वीक्षिक्यात्मविज्ञानं धर्माधर्मी त्रयीस्थिती |
तु वार्तायां दण्डनीत्यां नयानयाँ ॥ १॥
६२
२ देखो कॉटिलीय अर्थशास्त्र पृष्ठ ८ से ३ तक | ३ सिमंत्रिः कृषिविद्यावाणिज्यं शिल्पमेव वा । कर्मामानि पोटा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥ ५ ॥
आदिपुराणे भगवजिनसेनाचार्यः पर्व १६
४ प्रजापतिः प्रथमं जिजीविषुः । शरास कृप्यादिषु कर्मसु प्रजाः ॥ ३ ॥
स्वयंभू स्तोत्रे समन्तभद्राचार्यः ।
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* नीतिवाक्यामृत
भगवाम्ने वर्ण और श्राश्रमोंके कर्त्तव्यों को निर्देश करनेवाली 'त्रयी' विद्याका प्रजामें
पान कृषि और व्यापारादिसे संचित सम्पत्ति श्रादिकी रक्षार्थ एवं वर्णं और आश्रमोंके सुरक्षित, पृद्धिंगत और पल्लवित करनेके लिये 'दंडनीति' का प्रचार किया गया । और स्वापार आदि से उत्पन्न होनेवाली मायका कुछ (१६ वां) हिस्सा राजकोषमें दिये जानेका इसके द्वारा संचित कोषकी शक्तिसे सैनिक संगठन किया गया, इस प्रकार दंडनीति विद्याका
इसे शत्रुवर्गसे रक्षा होनेलगी एवं त्रयीविद्या भी वृद्धिंगत और सुरक्षित होनेलगी। दंडनीतिले असड़क और भततायी दुष्टपुरुषोंको दंड (सजा) दिया जानेलगा अर्थात् शिष्टपालन और
ध, विमा, यान और आसनादि षाड्गुण्यका प्रयोगरूप राजनीतिका प्रादुर्भाव हुआ । स्वात् भगवान्ने प्रजामें आन्वीक्षिकीविद्याका प्रचार किया - वर्ण और आश्रमों में विभाजित अपने कर्तय पथमें आरूढ़ करने और अन्यायी प्रजापीड़क आततायियोंसे उसकी रक्षा करने के - कौजदारी और दीवानीके कानून बनाये गये । इस प्रकार व्यवहारोपयागी आन्वीक्षिकी प्रचार किया गया।
. इसके साथ कर्तव्य कर्म करने और अकर्तव्यको त्यागने में प्राणीका शाश्वत कल्याण क्यों १. शरीर और इन्द्रियादिक प्रकृतिसे भिन्न स्वतन्त्र आत्मदव्य है। वह पूर्वजन्म और अपर [करता है और अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोंके अच्छे और बुरे फल भोगता है इत्यादि पर अनेक प्रवल और अबाधित युक्तियोंका प्रचार किया, इसप्रकार प्रभुने प्रजामें सर्वविद्याओं मम्मीक्षिकीविद्या का प्रचार किया ।
पर इसी आन्वीक्षिकीविद्याकी विस्तृत व्याख्या केवलज्ञान उत्पन्न होने पर की हिंसा, कर्म और ईश्वर-विषयक उत्कृष्टविचार तथा ६ पदार्थ आदि विषयों पर अपनी दिव्यद्वारा अबल एवं अकाट्य - श्रबाधित- युक्तियों से परिपूर्ण दिव्य संदेश दिया- युक्तिपूर्ण भाषण दिये vaints प्रचारका मक्षित इतिवृत्त - इतिहास है । इनका बेत्ता विद्वान् कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र और उद्धार करने में समर्थ होता है ॥ ६३ ॥
चिकी- दर्शनशास्त्र - मे होनेवाले लाभको बनाते हैं:'चेतयते' च विद्यावृद्धसेवायाम् ॥ ६४ ॥
अर्थः मान्वीक्षिकीविद्यामें निपुण मनुष्य विश्वाओं के अभ्यास और बहुश्रुत विद्वान् पुरुषों की सेवा होता है ।। ६४ ।।
भावार्थ:- उत्तसूत्रमें जो वृद्ध शब्द आया है उससे राजनीति और धमनीति आदिके विद्वानको है न कि केवल सफेद बालोंवाले बुढों को ।
- विवेकी पुरुष और राजाका कर्तव्य है कि वह विद्याओं के अध्ययन और विद्वानों स्वा स प्रयत्नशील रहे ॥ ६४ ॥
''पेसा गट सु० और १०० प्रतियों है ।
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६५
* नीशिवाण्यामृत
-rrroshetatute.
नीतिकार नारव' ने कहा है कि 'केवल शिरपर सफेद बालोंके होजाने से मनुष्य को पृद्ध नहीं कहा जाता किंतु जो जवान होकरके भी विद्याओंका अभ्यास करता है उसे विद्वानोंने स्थविर-वृद्ध-कहाहै ॥१॥ अब विधाओं का अभ्यास और विद्वानोंकी सजति न करने वालेकी हानिका निरूपण करते है:
प्रजातवियासयोगो हि राजा निरङ्गशो गज' इव सद्यो विनश्यति ॥ ६ ॥
अर्थः-जो राजा न तो विद्याभोंका अभ्यास करता है और न विद्वानोंको सङ्गति करतापर निश्पयसे उम्मार्गगामी होकर विना अकुशके हाथी के समान शीघ्र ही नष्ट होजाता है।
ऋषिपुत्र विद्वान्ने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि "विवाओंको न जानने वाला और फूलोंज्ञानवृक्षों (विद्वानों) की सङ्गति न करने वाला राजा विना अकुशके हाधीके समान उम्मागेगामी होकर सीम नाशको प्राप्त होजाता है ॥१॥
निष्कर्षः-प्रत एक ऐहिक और पारलौकिक श्रेय-कल्याण–पाइने वाले पुरुषों को राजाको वि. पाओका अम्पास तथा बहुभुत विद्वानोंकी सजति करनी चाहिये ||६५ भव शिष्टपुरुषों-सदाचारी विद्वानों-की सकसिसे होने वाले लाभका निर्देश करते हैं:
अनधीयानोऽपि विशिष्टजनसंसर्गाद पर व्युत्पत्तिमवाप्नोति ॥६६॥ अर्थः-विद्यानोंका अभ्यास न करने वाला-मूर्ख मनुष्य-भी विशिष्टपुरुषों-पिसानों-की सारिसे उत्तमज्ञानको प्राप्त कर लेता है-विद्वान् होजाता है।
विधान म्यासने भी लिखा है कि जिसप्रकार चन्द्रमाकी किरणोंके संसर्गसे जहरूप-अमरूप१ तथा च नारदानसेन दो भवति येनास्य पवितं शिरः।
यो युवाप्यधीयान रेवा: स्यविरं विदुः ॥१॥ २ 'वनगज इस ऐसा पाठ मु. और १० लि. मूल प्रतियों में पाया जाता है जिसका अर्य:--'अंगको हापोंके समान है, विशेष अर्यभेद नही।
तथा अषिपुनःयो रिचर्चा वेति नो राजा पवाग्नदोपसेवते । .स शीर्ष नारामायाति निरंकुश व विपः ॥१॥ ४ 'नधीपानोऽयान्वीविकी विशिषर्मसात् परां व्युत्पत्तिमवाप्नोति' ऐसा पाउ मु. और .लि. प्रतियोंमें । जिसका प्रमः-प्रवीमिंकी-नासको न पढ़नेवाला भी है।
तबारबा:विषेत्री सामान जोऽपि हि मनायते। चम्बायसेवनानून बरच कमदारः ।।१।।
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मार्गदर्श
* नीतिवाक्यामृत
को प्राप्त हो जाता है उसीप्रकार जड़ - मूर्ख मनुष्य भी निश्चयसे शिष्टपुरुषोंकी सङ्गतिसे है ॥१३॥
:- Wave उक्त आधीक्षिकी और त्रयी आदि विद्याओंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये प्रत्येक धमकी सङ्गति करनी चाहिये ||६६ ||
" द्वारा बातका समर्थन किया जाता है:
६५
अन्यैव काचित् ' खलु वायोपजलतरूणाम् ||६७||
जिसप्रकार जलके समीप वर्तमान वृक्षोंकी छाया निश्चय से कुछ अपूर्व विलक्षण (शीतल (क) ही होजाती है उसीप्रकार विद्वानोंके समीप वर्तमान पुरुषोंकी कान्ति भी अपूर्व - विलमी है- अर्थात् वे भी विद्वान् होकर सुशोभित होने लगते हैं ।
मिर्ग:- इस लिये प्रत्येक मनुष्यको व्युत्पन्न - विद्वान - होनेके लिये विद्वज्जनोंका संसर्ग करना
गुरुमोंके सद्गुण मठाते हैं:
भदेव विद्वानने भी कहा है कि 'जो राजा मूर्ख होनेपर भी शिष्टपुरुषोंकी सङ्गति करता है कान्ति जलके समीप रहनेवाले वृक्षके समान अपूर्व होजाती है ॥१॥
वंशवृत्तविद्याभिजनविशुद्धा हि राशानुपाध्यायाः ||६८ ||
क
- जो वंश परम्परासे विशुद्ध हों - जिनके पूर्वज - पिता आदि - राजवंशके गुरु रह चुके होंस्वार(महिला, सत्य और अचौर्य आदि चरित्र धर्म) विद्या--राजनैतिक तथा धार्मिक आदि विविध ज्ञान और कुलीनता- उपकुलमें उत्पन्न होकर सत्कर्तब्योंका पालन- इन सद्गुणों से अलंकृत विवाद निश्चयसे राजानके गुरु हो सकते हैं ||६८
'भौतिकार नारवने" भी वक्त सिद्धान्तका समर्थन किया है कि 'जिनके पूर्वज राजवंशमें अध्यापक रद्द जो सदाचारी, विद्वान और कुलीन हों वे ही राजाओं के गुरु होसकते हैं ||१||'
( ० और इ० मिलित प्रतियों में 'काचित्' शब्द नहीं है और उसके न होने पर भी अर्थभेद कुछ नहीं होता । देव:अजायते शोभा मुफ्त्यानि अात्मनः ।
शस्य सलिला दूरवर्तिनः ॥ १ ॥
नारद:
पूर्वेका पाठका येषां पूर्वजा वृत्तसंयुताः । विधाता नृपाणां गुरवश्च ते ॥ १५
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* नीतिवाक्यामृत
अत्र शिष्टोंके साथ नम्रताका वर्ताव करने वाले राजाका लाभ बताते है:
शिष्टानां' नीचैराचरमरपतिरिहलोके स्वर्गे च महीयते ॥६६|| अर्थ:-जो राजा शिष्टपुरुषों के मानताका महाकवा है हा सापाने और स्वर्ग में पूजा जाता है ॥६॥
हारीत' विद्वानने भी लिखा है कि 'जो राजा शिष्टपुरुषोंकी भक्ति करने में सत्पर है वह परलोको मा हात्म्य-बड़प्पन-को प्राप्त होकर स्वर्गमें देवों और इन्द्रादिकोंसे पूजा जाता है । अब राजाका माहात्म्य बताते हैं:
राजा हि परम दैवतं नासौ कस्मैचित् प्रणमत्यन्यत्र गुरुजनेम्यः ||७०॥ अर्थ:-राजा अत्यन्त भाग्यशाली होता है, इसलिये यह पूज्यजनों (देव, गुरु, धर्म और मावा पिताआदि)के सिवाय किसीको नमस्कार नहीं करता। ____ भावार्थः-शास्त्रकारों ने कहा है कि पूज्योंकी पूजाका उल्लङ्घन करनेसे कल्याणके मार्ग में रुकावट श्रा जाती है इसलिये देव, गुरु और धर्म तथा माता-पिता आदि गुरुजनोंकी भक्ति करना प्रत्येक प्राणीका कर्तव्य है ।।७।। अब दुष्टपुरुषसे विद्या प्राप्त करनेका निषेध करते हैं:
परमज्ञानं नाशिष्टजनसेवया विधा ॥७॥ अर्थः-मनुष्यको मूर्ख रहना अच्छा है परन्तु दुष्ट पुरुषकी सेवा करके विद्या प्राप्त करना अच्छा नहीं है ॥७॥
हारीत' विद्वानने कहा है कि 'जिसके संसर्गसे राजा पापी हो जाता है ऐसे दुटकी संगसिसे विद्वत्ता प्राप्त करना अच्छा नहीं उसकी अपेक्षा मूर्ख रहना अच्छा है ॥१॥ १ 'शिष्टषु नीचराचरनरपतिरिह परन च महीयते ऐसा पाठ मु० और १० लि. म. मतियोंमें है परन्तु विशेष अर्ष
भेद कुछ नहीं है। २ तथा चारीत:
साधुपूजापरो राजा माहात्म्यं प्राप्य भूतले । स्वर्गगतस्ततो देवैरिन्द्राद्यैरपि पूज्यते ॥१॥ ३ 'परम दे। ऐसा पाठ पूना क्षायबेरी की है. लि० मा प्रतिमें है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ४ भगवजिनसेनाचार्यः प्राह:प्रतियध्नाति हि यः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः
. श्रादिपुरायासे ५ तथा च हारीत:पर जनस्य मूखस्व नाशिजनसेमया । पांडित्यं यस्य संसर्गात् पापात्मा जायते नुगः ।।।।।
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अब प्रधान्त द्वारा उक्त बातका समर्थन करते हैं
___ अल तेनामृतेन यत्रास्ति विषसंसर्गः ।। ७२ ॥ अर्थः-जिसमें जहर मिला हुआ हो उस अमृनसे क्या लाभ है ? कोई लाभ नहीं।
भावार्थ:-जिसप्रकार विष-मिश्रित अमृतके पीनेसे मृत्यु होती है उसीप्रकार अमृतके समान विद्या भी दुष्ट पुरुषसे प्राप्त की आनेपर हानिकारक होती है उससे शिष्यको पारलौकिक कष्ट भोगने पड़ते हैं।
नारद विद्वानने कहा है कि 'शिष्य नास्तिकोंके सिद्धान्तको अमृतके समान मानता है परन्तु यदि वह उसे परलोकमें विषकी तरह घासक और दुःखदायक न होता तब उसका उसे अमृतके सुल्य प्रिय-- लामदायक-मानना उचित था ॥१॥
निष्कर्षः-नैतिक मनुष्यको विष-मिश्रित अमृतके समान दुष्ट पुरुषसे विद्या प्राप्त नहीं करना चाहिये अथवा नास्तिकों-चार्वाक मावि-के हानिकारक मतको स्वीकार नहीं करना चाहिये ।। ७२ ।। अब शिष्य गुरुजनोंके अनुकूल होते हैं इसका विवेचन करते हैं
गुरुजनशीलमनुसरन्ति प्रायेण शिष्याः ।। ७३ ॥ अर्थ:-शिष्यलोग बहुधा अपने गुरुजनोंके शील-प्राचार-विचार-का अनुसरण करते हैंअर्थात यदि शिक्षक नैतिक, सदाचारी और विचारवान होता है तो उसका शिष्य भी उसके अनुकूल प्रवृत्ति करनेवाला नैतिक सदाचारी और विचारवान् होजाता है। परन्तु यदि वह नीसिविरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाला, दुराचारी और मूर्ख होगा तो उसका शिष्य भी वैसा-दुराचारी आदि-होगा।
वर्ग:विद्वान्ने भी कहा है कि जिस प्रकार वायु जैसे-सुगन्धि या दुर्गन्धि देशको स्पर्श करती है उसीके अनुकूल सुगन्धि या दुर्गन्धिको प्राप्त कर लेती है उसीप्रकार मनुष्य भी जैसे शिष्ट या दुष्ट पुरुषकी सेवा करता है उसकी वैसी ही–सस् या असत्-अच्छी या बुरी--प्रवृत्ति होजाती है ।। १।।'
निष्कर्ष:-प्रतएव शिक्षक-रुजनविद्वान् , नीतिज्ञ, सदाचारी और भद्रप्रकृति-युक्त होने चाहिये जिससे उनके शिष्य भी तदनुकूल-उनके समान होकर संसारकी सर्वोत्तम सेवा करते हुए ऐहिक एवं पारत्रिक सुख प्राप्त कर सकें ।। ७३ ॥ अब कुलीन और सदाचारो शिक्षकोंसे होनेवाला लाभ यताते हैं:
नवेषु मृवाजनेषु लग्नः संस्कारो अक्षणाप्यन्यथा कतुं न शक्यते ॥ ७४ ।।
अर्थ:-जिसप्रकार नवीन मिट्टीके वर्तनों में किया हुआ संस्कार-रचना-झाके द्वारा भी बदला नहीं जासकता उसीप्रकार पोंके कोमल हृदयोंमें किया गया संस्कार भी बदला नहीं जासकता। । तथा च नारद:नास्तिकानां मतं शिष्यः पीयूषमिव मन्यते । दुःखाई परे कोके नोचेद्विषमिव स्मृतम् ।।।।। २ तथा घ वर्ग:यारवान् सेवते मपस्तारक चेष्ठा प्रजायते । पारशं स्वशते देश वायुस्तद्गन्धमावहेत् ॥ १॥
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ΕΞ
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* नीतिवाक्यामृत
ahaladdupp
भावार्थ:-याल्यकाल में बालकोंके हृदय नवीन मिट्टीके बर्तनोंकी तरह अत्यंत कोमल होते हैं, इस लिये उनके मानसिक क्षेत्रमें जैसे- प्रशस्त या अप्रशस्त ( अच्छे या बुरे ) संस्कारोंका बीजारोपया किंवा जाता है वह स्थायी अमिट होता है, अतएव उनके शिक्षक – गुरुजन - उत्तमसंस्कार - युक्त सदाचारी, कुलीन और विद्वान् होने चाहिये ।
वर्ग' विद्वान् ने भी कहा है 'जो मनुष्य बाल्यकालमें जिस प्रकार की अच्छी या बुरी विद्या पढ़ लेता है यह उसीके अनुकूल कार्योंकी करता रहता है और पुनः किसी प्रकार उनसे निवृत्त नहीं होता ॥ १
225-14441222÷ÅÅÅÅÅÅÐ ÞÝÐAÐIHALLIMŲ
निष्कर्षः - भवः उत्तम संस्कार-युक्त - भद्रप्रकृति (सदाचारी) होनेके लिये शिष्यों के शिक्षक – गुरुजनकुलीन, सदाचारी और विद्वान् होने चाहिये ॥ ७४ ॥
अब दुरामही हठी -- राजाका होना अच्छा नहीं है इसे बताते हैं:
अन्ध इव वरं परप्रणेयो' राजा न ज्ञानलबदुर्विदग्धः ॥ ७५ ॥
अर्थः- जो राजा जन्मान्ध- जन्मसे अन्धे पुरुष – के समान मूर्ख हैं परन्तु यदि वह दूसरे मन्त्री और अमात्य आदि द्वारा कर्तव्य मार्ग-सन्धि विग्रह यान और आसन आदि पागुरुय में प्रेरित किया जाता है तो ऐसे राजाका होना किसीप्रकार अच्छा है । परन्तु जो बोसे राजनैतिक ज्ञानको प्राप्तकर दुराग्रही- छठी-है- अर्थात सुयोग्य मन्त्री और श्रमात्य आदिकी समुचित सलाहको नहीं मानता उसका राजा होना अच्छा नहीं है - हठी राजासे राज्यकी क्षति होनेके सिवाय कोई लाभ नहीं ।
गुरु' विछानने कहा है कि 'मूर्ख राजा मंत्र - सलाह- में कुशल मंत्रियोंके द्वारा राजनैतिक कर्तव्योंसन्धि और विग्रह आदि बाहुगुण्य में प्रेरित कर दिया जाता है, इसलिये वह कुमार्ग में प्रवृत्त नहीं होता परन्तु थोडेसे ज्ञानको प्राप्त करनेवाला राजा उसमें प्रवृत होजाता है || ११
निष्कर्ष:- राजाका कर्तव्य है कि वह राजनीतिके विज्ञान और कुशल मन्त्रियोंकी उचित सप्ताहको सदा माने और कदापि दुराग्रह न करे ॥ ७५ ॥
अब मूर्ख और दुरामही राजाका वन करते हैं:
नीलीक्से वस्त्र इव को नाम दुबिंदग्धे अर्थ :- मूर्ख और दुराग्रही - हठी- राजाके बगल में समर्थ होसकता है ? कोई नहीं ।
१ तथा च वर्ग:
कुविद्या वा सुविधां वा प्रथमं यः पठेः । तथा कृत्यानि कुक्षणो न कर्मचिभिवर्तते ॥ ७
३ तथा च गुरुः-मंत्रिमंत्रकुशलैरधः चार्यते नृपः ।
कुमार्गे न याति स्वशानस्तु गच्छति ॥ १ ॥
राशि रागान्तरमाधसे ।। ७६ ।। अभिप्रायको नीले रंगले रंगेहुए वस्त्र के समान कौन
२० भू० प्रति परमप्राशो' और गवर्न• सायरी पूना की
यद कुछ नहीं, तथापि विचार करने से संस्कृत डी० पु० का पाठ सुंदर प्रतीत हुआ ।
लि. मू० प्रतिमें 'जायो' ऐसा पाठ है परन्तु
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ॐ नौविषाक्यामून
भावार्थ:-जिसप्रकार नीले रंगसे रंगे हुन् वस्त्रपर दुसरा रंग नहीं बढ़ाया जासकता उसीप्रकार मूब और हठी राजाका अभिप्राय-विधार-भी किसीके द्वारा बदला नहीं जा सकता।
नारद' विद्वानने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि 'नील रंगसे रंगे हुए वस्त्रके समान दुराग्रही राजाकी पास किसीके द्वारा बदली नहीं जा सकती ॥ १॥
___ निष्कर्षः-मूर्ख और दुरामही राजासे राष्ट्रको हानि-पाति होती है, क्योंकि वह पान-हिनेषीधुमयोंकी पथ्य-हितकारक-बातकी अबहेलना करता है जिससे राष्ट्रकी श्रीद्धि नहीं हो पाती ।। ७६ ।। अब पथ्य-हितकारक-अपदेश देनेवाले विद्वानों के प्रति संकेत करते हुए उन्हें कर्तत्र मार्ग बताते है:
यथार्थवादो विदुषां श्रेयस्करी यदि न राजा गुणप्रद्वेषी ॥ ७७ ॥
अर्थः-यहि राजा गुणोंमे दूर नहीं रखता-गुणाही है, तो उसके ममक्ष यथार्थ वचन बोलना-- तत्काल अप्रिय होने पर भी भविष्यमें कल्याणकारक बचन बोलना-विद्वानोंके लिये कल्याणकारक है, अन्यथा नहीं।
हारीत विद्वामने भी कहा है कि राजाके समक्ष विद्वानोंके द्वारा कहे हुए यथार्थवचन-पभ्यरूप उपदेश-उन्हें तब कल्याणकारक होसकते हैं जब राजा गुणोंसे द्वेष न करवा हो ॥१॥ अब स्वामी के प्रति विद्वानोंका कर्तव्य निर्देश करते हैं:
वरमात्मनो मरणं नाहितोपदेशः स्वामिषु ।। ७८ ॥
अर्थ:-शिष्ट पुरुषको एक बार मर जाना उत्तम है परन्तु उसे अपने स्वामी के प्रति अहितकारक मार्ग का उपदेश देना अच्छा नहीं || ८ || ____ म्यास' विरामने कहा है कि यदि राजा अपनी हिनकारक बातको ध्यान देकर नहीं भी मुनता हो, तथापि मधियोको डसे कर्वग्य-पथ पर पान करने के लिये हितकी मात समझाते रहना चाहिये।
१तमानारस:बुर्विदम्बस्व भूपस्य भावः शम्मत नाम्दया ।
कोंडप बम नीलारस्व बासमः ॥१॥ २ सपा बहसः--
भेवस्कराचि मास्यानि स्युसतानि यथार्थतः । विदिदि भूषाको गुलोमीन चेदयेत् ॥ ३॥ ३ तपारम्बास:अश्वयि योद्धव्यो मंषिभिः पृथिवीपतिः । रमात्मदोषनाशाय विदुरेवामिकासुतः ॥१॥
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क नीतिवाक्यामृत के
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...
उदाहरणार्थ:-जिस प्रकार महात्मा विदुरने धृतराष्ट्रको उसके दोषोंके नाश करने के लिये-अन्यायपूर्ण राज्य तृष्णाका त्याग करने के लिये-समझाया था' ॥१॥
इति विद्यावृद्धसमुहश समाप्त
, महात्मा विदुरने धृतराष्ट्रको अनेक बार उसे हितकारक उपदेश दिया था कि है राजन् ! अब पांडवों की वनवास श्रादिकी अवधि पूरी होगई है, अत: आप जनका न्याय प्राप्त राज्य लौटा दें, आपको अन्यायपूर्ण राग-मिमा शा तृष्णाहोद ली लगने सन्यथ! आपके करुवंसका भविष्य खतरे से खाली न रहेगा, तुम है अाप्त पुरुषों की बातकी अवहेलना न करनी चाहिये । मैं आपको तात्कालिक अप्रिय परन्तु भषियमें
हितकारक बात कर रहा हूँ इत्यादि रूपसे विदुरजीने उसे हितकारक वचन कहे थे, परन्तु उसने उनकी बात न . मानी इससे वह महाभारत के भयङ्कर युबमें सकृटुम्ब न होकर अपकीर्तिका पात्र बना।
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5:
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* नीतिवाक्यामृत
-
अथ चान्वीक्षिकी समुद्देशः ।
श्रम अध्यात्मयोग आत्म ध्यान का लक्षण निर्देश करते हैं:--
श्रात्ममनोम रुचत्वसमतायोगलक्षणो द्यध्यात्मयोगः || १ ||
+
अर्थ – आत्मा, मन, शरीर में वर्तमान प्राण वायु- कुम्भक (प्राणायामकी शक्तिसे शरीरके मध्य में प्रष्टि की बाली (उक्त विधिसे पूर्ण शरीरमें प्रविष्ट की जाने वाली हवा) और रेचक (उक्त विधिसे शरीर से बाहर की जाने वाली षायु) तथा पृथिवी, जल, अग्नि और वायु आदि तत्वोंकी समान और दृढ़ निश्चलता — स्थिरता को अध्यात्मयोग - आत्मध्यान (धर्मध्यान) कहते हैं।
ऋषिपुत्रक' विद्वान्ने कहा है कि 'जिससमय आत्मा, मन और प्राण वायुकी समानता - स्थिरताहोती है उससमय मनुष्यको सम्यग्ज्ञानका जनक अध्यात्मयोग प्रकट होता है ॥ १ ॥
१०१
व्यास ने भी लिखा है कि 'समस्त इन्द्रिय और मनकी चंचलता न होने देना ही योग-ध्यानकेवल पद्मासन लगा कर बैठना वा नासाग्र-दृष्टि रखना योग नहीं है ॥ १ ॥
उक्त अध्यात्मयोग--धर्मध्यान- के शास्त्रकारोंने' चार भेद निर्दिष्ट किये हैं। पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ।
fireer ध्यानमें विवेकी और जितेन्द्रिय मनुष्यको पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुपी और तत्त्ररूपबत्ती इन पांचधारणाओं- ध्येय तत्वों का ध्यान दुःखोंकी निवृत्तिके लिये करना चाहिये ।
पार्थिवी धारणा में मध्यलोकगत स्वयंभूरमण नाम समुद्रपर्यन्त तिर्यग्लोकके बरावर, निःशब्द, वरनों से रहित और वर्फके सदृश शुभ्र ऐसे क्षीरसमुद्रका ध्यान करें। उसके मध्य में सुन्दर रचना-युक्त अमित दीतिले सुशोभित, पिघले हुए सुवर्णके समान प्रभायुक्त, हजार पत्तोंवाला, जम्बूद्वीपके बराबर और मनरूपी भ्रमरको प्रमुदित करनेवाला ऐसा कमलका चितवनकरे। तत्पश्चात् उस कमलके मध्य में सुमेरुपर्वतके .: समास पीतरंगको कान्तिसे व्याप्त ऐली कर्णिकाका ध्यान करे। पुनः उसमें शरत्कालीन चन्द्रके समान शुभ्र और ऊँचे सिंहासनका चितवनकर उसमें आत्मद्रव्यको सुखपूर्वक विराजमान, शान्त और क्षोभरहित,
१ तथा ऋषिपुत्रकः—
आत्मा मनो मरुत्तरयं सर्वेषां समता यदा 1
तदा त्वध्यमयोगः स्याभरायां ज्ञानदः स्मृतः ॥ १ ॥
२ सभा च व्यास:
न पद्मासनतो योगो न च नासामवीक्षयात् । मनसश्चेन्द्रियाणां च संयोगो योग उच्यते ॥ १ ॥
३ तथा च शुभचन्द्राचार्य: (शाना ) पिंडस्थं पदस्थं च रूपस्थ रूपवर्जितम् ।
ध्यानमाख्या भव्यराजीव भास्करः ॥ १
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१०२
* नीतिवाक्यामृत
राग, द्वेष और मोह आदि समस्त पाप कलङ्कको क्षय करनेमें समर्थ और संसारमें उत्पन्न हुए ज्ञानावरण आदि कर्म समुहको नष्ट करनेमें प्रयत्नशील चितवन करें।
इति पार्थिवी धारणा |
आग्नेयी धारणा में निश्चल अभ्याससे नाभिमंडल में सोलह उन्नत पत्तोंवाले एक मनोहर कमलका और उसकी काशिकामें महामंत्र (हं ) का, तथा उक्त सोलह पत्तोंपर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, और अ: इन सोलह अक्षरोंका ध्यान करे ।
पश्चात् हृदयमें आठ पांखुड़ीवाले एक ऐसे कमलका ध्यान करें, जो अधोमुख -- उल्टा (ओवा) और जिसपर ज्ञानावरण और दर्शनावरण आदि ८ कर्म स्थित हों।
1
पश्चात् पूर्वचिन्तित नाभिस्थ कमलकी कणिका के महामंत्र की रेफसे मन्द २ निकलती हुई धुएकी शिखाका, और उससे निकलती हुई प्रवाह रूप स्फुलिङ्गोंकी पक्तिका पश्चात् उससे निकलती हुई' ज्यालाकी लपटों का चितवन करे । इसके अनन्तर उस ज्याला (अग्नि) के समूह से अपने हृदयस्थ कमल और उसमें स्थित कर्म -राशिको जलाता हुआ चितवन । इसप्रकार आठ कर्म जल जाते हैं यह ध्यानकी हा सामर्थ्य है ।
पश्चात् शरीरके वाह्य ऐसी त्रिकोण वह्नि (अग्नि) का चितवन करे जो कि बालाओंके समूहसे प्रज्व लित वडवानलके समान, अग्निबीजाक्षर 'र' से व्याप्त वा अन्त में साथियाके चिन्ह से चिन्हित, ऊर्ध्वं मण्डल से उत्पन्न, धूमरहिन और सुवर्णके समान कान्ति युक्त हो। इसप्रकार धगधगायमान फैलती हुई लपटोंके समू हसे देदीप्यमान बाहरका अग्निपुर अन्तरङ्गकी मंत्राग्मिको दग्ध करता है।
तत्पश्चात् यह अग्निमंडल उस नाभिस्थ कमल आदि को भस्मीभूत करके वाह्य जलाने योग्य - का अभाव होनेके कारण स्वयं शान्त हो जाता है ।
पदार्थ
इति आग्नेयी धारणा ।
मारुती धारणा में ध्यान करनेवाले संयमी पुरुषको आकाशमें पूर्ण होकर संचार करनेवाले, महावेगयुक्त, महायलवान्, देवोंकी सेनाको चलायमान और सुमेरुपर्वतको कम्पित करनेवाला, मेघोंके समूहको वरनेवाला, समुद्रको क्षुब्ध करनेवाला दशों दिशाओं में संचार करनेवाला, लोकके मध्य में संचार करता हुआ और संसार में व्याप्त ऐसे वायुमंडलका चितवन करे । तत्पश्चात् उस वायुमंडल के द्वारा कर्मों के दम्भ होनेसे उत्पन्न हुई भस्मको उड़ाता हुआ ध्यान करे। पुनः उस वायुमंडलको स्थिर चितवनकर उसे शान्त करे। इति मारुती धारणा |
वारुणी धारणा में ध्यानी व्यक्ति ऐसे आकाश तत्त्रका चितवन करे जो इन्द्रधनुष और विजलीकी गर्जनादि चमत्कारसे युक्त मेर्धोके समूहसे व्याप्त हो। इसके बाद अद्धचन्द्राकार, मनोज्ञ और अमृतमय जलके प्रवाहसे आकाशको बहाते हुए वरुणमंडल - जलतत्व का ध्यान करके उसके द्वारा उक्त कर्मोंके रायसे उत्पन्न होने वाली भ्रमको प्रक्षालन करता हुआ चितवन करे ।
इति वारुणी धारणा
तत्वरूपवती-धारणामें संयमी और ध्यानी पुरुष सप्तधातुरहित, पूर्णचन्द्र के सदृश कान्तियुक्त और सर्वज्ञ समान अपनी विशुद्ध आत्माका ध्यान करे। इसप्रकार अभी तक पिवम् ध्यानका संक्षिम विवेचन
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* नीतिवाक्यामृत
नात्मा - आत्मज्ञानी- राजाका लाभ बताते है:
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गा है, अग्य पदस्थ आदिका स्वरूप ज्ञानावि शास्त्र मे आनना चाहिये, विस्तारके भयसे हम विवेचन नहीं करना चाहते ॥ १ ॥
१०३
1. अध्यात्मशो हि राजा सहज - शारीर-मानसागन्तुभिर्दोषैर्न वाध्यते ॥ २ ॥
म:- ओ राजा श्रध्यात्मविद्याका विद्वान होता है यह सहज ( कषाय और अज्ञानसे उत्पन्न होने हासिक और तामसिक दुःख), शारीर (बुखार - गलगण्डादि बीमारियोंसे होने वाली पीड़ा), मानसिक (आदि की लालसा से होनेवाले कष्ट ), एवं आगन्तुक दुःखों (भविष्य में होने वाले - अतिवृष्टि, और शत्रुकृत अपकार आदि कारणोंसे होनेवाले दुःख ) से पीड़ित नहीं होता || २ ॥
इन्द्रियाणि मनो विषया ज्ञानं भोगायतन मित्यात्मारामः ॥ ३ ॥
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हारद
[' विद्वानने लिखा है कि 'अध्यात्म विद्याका जानने वाला राजा सहज राजसिक भोर वामआगन्तुक - भविष्य कालमें होनेवाले कष्ट, शारीरिक — बुखार आदि और मानसिक — परकलनसे होनेवाला कष्ट इत्यादि समस्त दुःखोंसे पीड़ित नहीं होता ॥ १ ॥'
आत्मा क्रीड़ा योग्य स्थानोंका विवेचन किया जाता है:
शुभ नारदः
हि महालो न दोषः परिभूयते । -६ प्राण-सुकैश्चापि शारीर मानवैस्तथा ॥ १ ॥ २ तथा विभियेकः
मिनो शानं विषय भोग एव च ।
विपस्य चैतानि क्रीडास्थानानि कृस्नयः ॥ १५
पाठ उत्तम है।
-पुत्रियाँ
रसना
और
ज्ञान और शरीर ये सब आत्मा की क्रीड़ाके स्थान हैं ॥ ३ ॥
निर्भिक विद्वान ने कहा है कि 'इन्द्रियाँ, मन, ज्ञान और इन्द्रियोंके स्पर्श आदि विषय तथा सब आत्माके क्रीड़ा करनेके स्थान हैं || १ | ' मार्क स्वरूपका कथन किया जाता है:यंत्राहमित्यनुपचरितप्रत्यथः स मारमा ॥४॥
,'
मन विषय ( स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और
जिस पदार्थ में 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ और में इच्छावान् हूँ' आदि वास्तविक प्रत्यय-ज्ञानचारा है। अर्थात् 'मैं सुखी हूँ या मैं दुःखी हूँ' इसप्रकार के ज्ञानके द्वारा जो प्रत्येक प्राणीको स्वसंवेदनद्वारा जाना जाये बही शरीर इन्द्रिय और मनसे पृथक, चैतम्यात्मक और अनादिनिधन आत्मद्रव्य है।
ऐसा पाट मु० मू० पुस्तक में है, भन्तु अर्थभेद कुछ न होनेपर भी सं० डी० पुस्तकका उक्त
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* नीतिवाम्यामृत के
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अब युक्तिपूर्वक आत्मद्रव्यकी शरीरादिकसे पृथक सिद्धि करते हैं:
असत्यात्मनः प्रेत्यभावे विदुषां विफलं खलु सर्वमनुठानम् ॥ ५ ॥
अर्थः-यदि पात्मन्यका पुनर्जन्म-परलोक (स्वर्गादि) में गमन न माना जावे तो मंसारमें विद्वानोंकी जो पारलौकिक धार्मिक कर्तव्यों (प्राणि रता, दान, तप और अपादि) में प्रवृत्ति होती है वह व्यर्थ-निष्फल-होगी। क्योंकि आत्माका परलोक-गमन न माननेसे उन्हें बागे जन्म में उक्त पारलौकित अनुष्ठानोंका स्वर्ग आदि सुखरूप फल प्राप्त न होगा । अतएव विद्वानोंकी पारलौकिक-दान-पुरुष प्रादि धार्मिक अनुष्ठानों में प्रवृत्ति प्रात्मद्रव्यके परलोक-गमनको सिद्ध करती है ॥५॥
'प्रेक्षापूर्वकारिणां प्रवृत्तेः प्रयोजनेन व्याप्तत्वात्' अर्थात् प्रेक्षापूर्वकारी-विद्वान मनुष्योंसकार्य-पारलौकिक दान-पुण्यादि-में प्रवृति निष्फल नहीं हो सकती-किन्तु सफा ही होती है, इस नियमित सिद्धान्तके अनुसार उनकी दीक्षा और प्रतादिमें देखी जानेवाली सत्प्रवृत्ति भात्मष्यका पुनर्जन्म परलोक गमन-सिद्ध करती है।
___ याज्ञवल्क्य' विद्वान्ने लिखा है कि सबकी भात्मा मरने के बाद अपने कर्मो के अनुसार नवीन शरीर को धारण कर पूर्व में किये हुए शुम और प्रशुभ कोंके अच्छे और बुरे फलोंको भोगवा है ।।१।। भब मनका स्वरूप बसाते हैं:
यतः स्मृतिः प्रत्यवमर्षणमूहापोहन शिक्षालापक्रियाग्रहणं च भवति तन्मनः ॥ ६ ॥
अर्थ:-जिससे प्राणीको स्मरण (मैने अमुक कार्य किया था और अमुक कार्य कहँगा इस्वादि पतिझान) व्याप्ति-भान (उदाहरणार्थ:-जैसे जिस २ मनुष्यमें व्यवहार कुशलता होती है उस २ में भवरण बुद्धिमत्ता होती है जैसे अमुक व्यक्ति । एवं जिस में बुद्धिमत्ता नही होती उसमें व्यवहार राक्षा भी नहीं होती जैसे अमुक मूर्ख व्यक्ति । इसप्रकार साधनके होनेपर साभ्यका होना और सायकी गैरमौजमगीम साधनका न होना इसे व्याप्ति शान कहते हैं), अह-(संदेह युक्त पदार्थका विचार), चपोह (संदिग्ध पदाच निश्चय), किसीके द्वारा दीजाने वाली शिक्षाका ग्रहण और किसीसे की हुई बातचीतका पानसे गुमनाये समशान होते हों उसे 'मन' कहते हैं ।।६।।।
... गुरु' विद्वानने भी कहा है कि जिससे मनुष्योंको अह-संदिग्ध पदार्यका विचार, अपोह-उसम निश्चय, चिन्ता-व्याटिमान और दूसरेके वचनोंको धारण करना ये शान उत्पन्न हों उसे मन भवे
१ सया च याज्ञवल्क्यामात्मा सर्वस्य लोकस्य सर्व भुसे शुभाशुभ। मृतस्यान्यत्समासाद्य स्वकर्माई करलेषरम् ॥ २ तश च गुरु:
जहागौ तथा चिन्ता परामरावधारमा । यत: संजायते स तन्मनः परिकीर्तितम् ।।।।।
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* नीतिवाक्यामृत *
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अब इन्द्रियोंका लक्षण निर्देश करते हैं:
आत्मनो विषयानुभवनद्वाराणीन्द्रियाणि ॥ ७ ॥ अर्थः-यह आत्मा जिनकी सहायतासे विषयों---स्पर्श, रस और गंधादि-का सेवनकरता है उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं ।। ७॥
भ्य' विद्वान्ने लिखा है कि 'जिसप्रकार स्वामी शिष्ट सेवकों की सहायतासे कार्य कराता है उसीप्रकार श्रात्मा भी इन्द्रियोंकी सहायतासे पृथक २ विषयोंके सेवनमें प्रवृत्ति करता है ।। १॥ प्रय इन्द्रियोंके विषयोंका निरूपण करते हैं:
शब्दस्पर्शरसरूपगन्धा हि विषयाः ॥ ८ ॥ अर्थः-शब्द, स्पर्श, सच, रूम और गायेन्द्रको निपल हैं।!। अब मानके स्वरूपका वर्णन करते हैं:
समाधीन्द्रियद्वारेण विप्रकृष्टसनिकृष्टावबोधो ज्ञानं ॥ ६ ॥ अर्थ:--ध्यान और इन्द्रियों के द्वारा क्रमशः परोक्ष (देश, काल और स्वभावसे सूरम-पदार्थ-जैसे सुमरु, राम-रावण तथा परमाणु वगैरह पदार्थ जो इन्द्रियों द्वारा नहीं जाने जासकते) और प्रत्यक्ष वस्तुओंसमीपवर्ती पदार्थों के जाननेको 'शान' कहते है। अब सुखका जमण करते हैं:
सुखं प्रीतिः ॥१०॥ मर्थ:-जिससे आत्मा, मन और इन्द्रियोंको बानन्ध हो उसे 'सुख' कहते हैं ॥ १० ॥
हारीत विद्वाम्ने लिखा है कि 'जिस पदार्थके देखने या भक्षण करने पर मन और इन्द्रियोंको श्रानन्द प्राप्त हो उसे 'सुख' कहा गया है॥१॥'
१ तथा चरेभ्यःइन्द्रियाणि निजान ग्राह्यविषयान् स पृथक् पृथः ।
प्रात्मनः संप्रयच्छन्ति सुभृत्याः सुप्रभोर्या ॥३॥ २ यशपर सं० टी० पुस्तकमें सूत्रों का प्राकरणिक एवं अम्बर-मानुपूर्वा-संकलन नहीं था, अतएव हमने मु. और ह• लि० मुल प्रतियों के आधारसे उनका क्रमबद्ध संकलन किया है।
म्पादक३ तथा च हारीत:__ मनसश्चेन्द्रियाणां च यत्रानन्दः प्रजायते ।।
हो वा भक्षिते वापि तत्सुख सम्प्रकीर्तितम् ॥१॥
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अब दुःखका लक्षण निर्देश करते हैं:
* नीतिवाक्यामृत
तमुखमप्यसुखं यत्र नास्ति मनोनिवृत्तिः ॥ ११ ॥
अर्थ:- जिस पदार्थ पुत्र कलादि में मन संतुष्ट न हो किन्तु उल्टा वैराग्य उत्पन्न हो यह सुख भी दुःख समझना चाहिये ।। ११ ।।
4
' ने कहा है कि 'मनकेसन्तुष्ट रहनेसे सुख मिलता है, अतः जिस धनान्य पुरुषका भी बॉलष्ट-यों स्त्री-पुषमै धारण करवा हो उनको नीतिबिरुद्ध प्रभुतिको देखकर उदास-खेद-विन रहता हो उसे दुःखी समझना चाहिये || १ || ' अब सुख प्रामिके उपायों का निर्देश करते हैं:
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अभ्यासाभिमान संप्रत्ययविषयाः सुखस्य कारणानि ॥ १२ ॥
अर्थः- अभ्यास ( शास्त्रोका अध्ययन और शास्त्रविहित कर्तव्योंके पालनमें परिश्रम करना ), अभिमान ( समाजसे अथवा राजा आदिके द्वारा भावर-सम्मानका मिलना ), संप्रत्यय ( व्यवहारज्ञानसे अपनी इन्द्रियादिककी सामर्थ्य से वाद्य - ( वीणा आदि ) आदिके शब्दों में प्रिय और अप्रिय का निर्णय करना) और विषय - ( इन्द्रिय और मनको संतुष्ट करनेवाले विषयों की प्राप्ति) ये चार सुखके कारण हैं ॥१॥ विद्वानों ने कहा है कि 'मनुष्यको शास्त्रोंके अभ्याससे विद्या प्राप्त होती है तथा अपने कर्तव्यों का reat afa परिश्रमपूर्वक पालन करनेसे वह धतुर समझा आता है, उससे उसका सरकार होता है, अतः वह सदा सुखी रहता है ॥ १ ॥
श्रावर के साथ होनेवाला थोड़ा भी धनादिकका लाभ, सुखका कारण है । परन्तु जहाँपर मनुष्यका श्रवर न हो वहाँपर अधिक धनाश्किका लाभ भी सज्जनोंसे प्रशंसा योग्य नहीं-- वह दुःखका कारण है। न fare हीन मनुष्य भी किसी चतुराई आदि गुण विशेषके कारण अपनी शक्तिसे प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेखा है ऐसा होने से उसको सुख मिलता है ॥ ३ ॥
sarai (शादि) का सेवन थोड़ी मात्रा में किये आनेपर सुखका कारण है परन्तु अधिक rain feasts सेवनसे दरिद्रता उत्पन्न होती है ॥ ४ ॥
१ तथा च वर्ग:--
समृद्धस्यापि मयस्य मनो यदि विरागकृत् । दुःखी परिशेो मनस्तुमुखं यतः ॥ १ ॥
:
अभ्यासविषये अभ्यासाच्च भवेद्रिया तथा च निजकर्मणः ।
तथा पूजामा नोति तस्याः स्यात् सर्वदा सुखी ॥ १४ मानविषये -- सम्मानपूर्वको नामः सुतोकोऽपि सुखावहः । मानहीनः प्रभूतोऽपि साधुभिर्न प्रशस्यते ॥ २ ॥
4
३ ॥
संप्रत्ययविषये - हारीत - श्रविश्रपि गुणाम्मार्थ: स्वस्था यः प्रतियेत् । रमुख जायते तस्य स्वयम् विषये सेवन विषयाणां यत्तमितं सुखकारणम् । श्रमितं च पुनस्तेषां वद्रिकारणं वरं ॥। ४०
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* नीतिवाक्यामृत
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PRISINDH...
भर अभ्यासका ला
क्रियातिशयविषाकहेतुरभ्यासः ॥ १३ ॥ अर्थ:-विद्याकी प्राणि आदि कार्यो में सहायक परिश्रम करना यह अभ्यास है ।। १३ ।।
हारीत' का कहना है कि शास्त्रों के अभ्यास-निरन्तर मन लगाकर पढ़ने-से विद्या प्राप्त होती है और इससे धन मिलता है एवं उसकी प्राप्तिसे मनुष्य सुखी होता है इसमें कोई सन्देह नहीं ॥ १ ॥ अब अभिमानका लक्षण निर्देश किया जाता है:
प्रश्रयसरकारादिलाभेनात्मनो यदुत्कृष्टत्वसंभावनमभिमानः ॥ १४ ॥ अर्थ:-शिष्ट मनुष्यको सम्जनोंके मध्य में उनके द्वारा जो विनय या सम्मान-सामाजिक था राजकीय आदर और धन्यवाद श्रादि प्रशंसावाचक शब्द मिलते हैं जिनसे वह अपनेको सुखी समझता है उसे 'अभिमान' कहते हैं ॥१४॥
नारद' ने कहा है कि 'आदरके साथ धोड़ा भी धनादिक मिलना सुख देनेवाला है, क्योंकि ऐसा होनेसे उस मनुष्यकी सज्जनोंके मध्य में प्रतिष्ठा होती है ॥ १।। पत्र 'संप्रत्यय' के लक्षणका निर्देश करते हैं:
अतद्गुणे वस्तुनि तद्गुणत्वेनाभिनिवेशः सम्प्रत्ययः ॥१५॥ अर्थ:-निर्गुण पदार्थमें नैतिक चातुर्य से परीक्षा करके उसमें गुणकी प्रतिष्ठा करना संप्रत्यय है ॥१५॥
उदाहरणार्थ:-वीणा आदिके शब्दों को सुनकर परीक्षा करके यह निर्णय करना कि वह सुन्दर है या नहीं। स्पर्शनेन्द्रियसे छूकर यह कोमल है? या कठोर है ? नेत्रोंसे रूपको देखकर यह प्रियरूप है या अप्रिय इत्यादि मानशक्तिके बलसे पदार्थ में गुणका निश्चय करना 'संप्रत्यय' कहा गया है॥१५ ।।।
नारस' विद्वान्ने लिखा है कि 'जो पदार्थ परोक्ष (इन्द्रियोंसे न जानने योग्य-राम, रावण, मुमेरु और परमाणु आदि) है वह भ्यानके द्वारा जाना जाता है एवं जो समीपवर्ती प्रत्यक्ष पदार्थ है वह इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है॥१॥
निष्कर:-प्रत्यक्ष भौर परोक्ष पहायों में मानशकिसे निर्गुण या सगुणका निश्चय करना वह 'संप्रत्यय' सुखका कारण है ।।१५।।
तथा व हारीत:अभ्यासादायी विद्या विद्यया लभ्यते धनम् । धनलाभारसुस्खी मस्यों जायतं नात्र संशयः ॥१॥ २ तथा नारद:सस्कारपूर्वको यो सामः स स्तोऽपि सुखावहः ।
अभिमानं ततो पत्ते साधुलोकस्य मध्यतः।।1। १ तथा च नारदःपरोन्ने यो भवेदः स शेयोऽत्र समाधिना । प्रयतश्चेन्द्रियः सर्वजिगावरमागतः ।। 1।
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* नीतिवाक्यामृत ..... ........... . श्रय विषयके स्वरूपका निर्देश करते हैं:
इन्द्रियमनस्तर्पणो भायो विषयः ।। १६ ॥ अर्थ:-जिस वस्तुसे इन्द्रियां और मन संतुष्ट हो उसे विषय कहते हैं ॥१६॥
शुक्र' विद्वानने लिखा है कि "जिस पार्थसे मन और इन्द्रियोंको संतोष होता है वह पदार्थ विषय कहा जाता है जो कि प्राणियोंको सुख देने वाला है ॥ १॥
निष्कर्षः-जिस पदार्थ-स्त्री पुत्रादि-से इन्द्रियाँ और मन संतुष्ट न हो वह सुखदायक नहीं होता किन्तु जिससे इम्भूियाँ और मन प्रसन्न हो--संतुष्ट हो वह सुखदायक होता है ।।१६।। अब दुःखके लक्षणका निर्देश करते हैं:
दुःखमप्रीतिः ॥ १७ ॥ अर्थ:--जिस वस्तुके देखने पर अप्रीति (संतोष न हो---वैराग्य हो) हो वही दुःस्व है ॥१७॥
शुक्र विद्वानने लिखा है कि जिस वस्तुके देखने पर या धारण करने पर प्रीति उत्पन्न नहीं होती वह वस्तु अच्छी होने पर भी प्राणियोंको दुःख देने वाली है ॥१॥ अब सुखका लत्तण निर्देश करते हैं:
तदुःखमपि न दुरान्वं यत्र न संक्लिश्यते मनः ॥१८॥ अर्थः—जिस वस्तुके देखने पर, मनको संक्लेश-का-न हो वह वस्नु दुःखद हो करके भी सुखकर है ॥१८॥ अब चार प्रकारके दुःखोंका निरूपण किया जाता है:
दुःखं चतुर्विधं सहज दोषजमागन्तुकमन्तरंग चेति ॥१६॥ सहर्ज क्षुत्तृषामनोभूभव चेति' ॥ २० ॥
' तथा च शुक्र:मनसश्चेन्द्रियाण म सन्तोषो येन जायते ।
भावो विषयः प्रोशः प्राणिनां सौख्यदायकः ।।१॥ २ तथा च शुक:यत्र नो जायते प्रीतिहरे वाच्छादिनेऽपि वा। तच्छ धमपि दुःखाय प्राणिनां सम्प्रजायते ॥ १ ॥ । 'सहज तर्प-पी) मनोमूमममिति' ऐसा पाठ म. और .शि.मप्रसियों में है परन्तु अर्थमेव कुछ मा
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* नीतिवाक्यामृत *
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Nowini10000000mm
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मला वातपित्तकफवैषम्यसम्भूतः ॥ २१ ॥
मन्तुक वर्षातपादिजनितं' ॥ २२ ।। वित्यते दरिद्र न्यकारजे' ॥ २३ ॥
रावनेच्छाविघातादिसमुत्थमन्तरजम् ॥ २४ ।।
सपार प्रकार के होते है:-सहज, दोषज आगन्तुक और अन्सर १ ॥ सभी वथा मानसिक भूमिमें पैदा होनेवाले ( काम-क्रोधादि विकारोंसे उत्पन्न परस्त्री-सेवनधामिका और उसका चितवन आदिसे उत्पन्न हुए) दुःखोंको 'सहज' दुःख कहते हैं ॥ २०॥
दिपाहार विहार करनेसे जो बात, पित्त और कफ कुपित्त-विकृत-होते हैं उससे बार-गलगंडाविरूप शारीरिक रोगोंको 'दोषज' दुःख कहा गया है ।। २१ ॥ अनापति, और आतप (गर्मी ) श्रादि आकस्मिक घटनाओंसे उत्पन्न होनेवाले दुःखों
बाद) मादि संवैधी पीड़ाओं-को 'आगन्तुक' दुःख कहा गया है ॥२२॥ विषम-मनुष्योंसे अनुभव किये जानेवाले और तिरस्कार आदिसे उत्पन्न हुए दुःखों-बध-बंधन
बास-जेलखाना-पादिकी सजासे उत्पन्न हुए कष्टों-को 'न्यक्कारज' दुःख कहते हैं। अर्थात् सामोरी वगैरह अपराध करनेसे जो राजदंड-जेलखानेकी सजा आदि-भोगते हैं, उनके उन
म जाति को-को न्यक्कारज-तिरस्कारसे उत्पन्न-दुःख कहा गया है ।। २३ ।। मार, और इच्छाविधात-अभिलषित बस्तु न मिलना-श्रादिसे होनेवाले दुःशको 'अन्त
हा गया है ॥२४॥ भ रका व्यक्ति दोनों लोकोंमें दुःखी रहता है उसका वर्णन करते हैं:नि यस्यैहिकमामुष्मिकं च फलमस्ति यः क्लेशायासाभ्यां भवति विप्लवप्रकृतिः ॥२शा
विसकी बुद्धि निरन्तर दुःख और स्त्रेदके द्वारा नष्ट होगई है उस मनुष्यको ऐहिक और पारप्राप्त नहीं होसफते ॥ २५॥
११ और २२ नं. के सूत्र मु.मू. और .. जि० मू० प्रतियोंमें नहीं है परन्तु स० टो• गुस्तकमें मन एवं प्रारणिक और कम प्राप्त भी है। मोर . २३ का सूत्र न तो मु० मू० प्रतिमें और न गरन लायब्ररी पूनाकी इ. लि. मूलमतियाँम है, .... . टी. पुस्तक में यर्तमान है। विमर्श:-उक्तस्त्रमें यक्कारब-तिरस्कारसे होनेवाले दुखोका
मक है, जिसे प्राचार्यश्रीने 'अन्तराज दुःखम अन्तर्भूत-शामिल कर दिया है एवं दुःखोंमें भी उक्त को स्वतन्त्र नहीं माना, तप या अप्राकरणिक और असम्बद्ध-मूत्र न मालूम कसे बीच में ना घुसा ? इससे हो सकाकारकी मनगान्त रचना अथवा लेखकोंकी असावधानीसे संस्कृत टीकाका कोई अउ जो कि भारय दलोंके निरूपण संबंधों है यहां लिखा हुमा प्रतीत होता है यह प्राचार्यश्रीका रचा हुन्छ। प्रतीत.
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सम्पादक
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११०
Gahannna
* नीतिवाक्यामृत *
ग्यास विद्वान्ने भी लिखा है कि 'ओ कुस्ति पुरुष दुःख और खेदपूर्वक जीवन व्यतीत करता है उसको इस मर्त्यलोकमें कोई सुख नहीं मिलता, पुनः कसे में किस प्रकार सुख मिल सकता है ? नहीं मिल सकता ॥ १ ॥'
अब कुलीन पुरुषका माहात्म्य तथा कुत्सितकी निन्दाका निरूपण करते हैं:
स किंपुरुषो यस्य महाभियोगे सुवंशधनुष इव नाधिकं जायते बलम् ॥ २६ ॥
अर्थ:- जिस मनुष्य में उत्तमांस वाले धनुषके समान युद्ध आदि आपत्तिकाल आनेपर अधिक पौरुष - वीरता शक्ति का संचार नहीं होता वह निन्द्य पुरुष है अर्थात् जिसप्रकार उत्तम वाँसवाले धनुष में वा-स्थापन काल में अधिक दृढ़ता- मजबूती - आजाती है उसीप्रकार कुलीन पुरुषमें भी आपत्तिकाल में अधिक वीरता -- शक्तिका संचार होजाता है। एवं जिसप्रकार खराब बांस वाला धनुष वाण स्थापन काल में टूट जाता है या शिथिल होजाता है उसीप्रकार कायर व्यक्ति भी युद्धादि आपत्तिकालमें कायरता धारण कर लेता है उसमें वीरता नहीं रहती ।। २६ ।
गुरु' विद्वानने भी लिखा है कि 'युद्धकालमें कुलीन पुरुषोंके वीरता - शक्तिकी वृद्धि होती है और जो पुरुष उस समय वीरता छोड़ देते हैं - युद्धसे मुख मोड़ लेते हैं- उन्हें नपुंसक समझना चाहिये || १ | अभिलाषा -- इच्छाका लक्षण निर्देश:
आगामिक्रिया हेतुरभिलाषो वेच्छा* ॥ २७ ॥
अर्थः- जो भविष्य में होनेवाले कार्य में हेतु है उसे अभिलापा या इच्छा कहते हैं ।। २७ ।। गुरु" विज्ञामने लिखा है कि 'जो भविष्य में होनेवाले कार्य में हेतु है उसे अभिलाषा कहते हैं, इच्छा और संधा उसीके नामान्तर है यह सदा प्राणियोंके होती है ॥ १ ॥ '
१ तथा च व्यासः -
जीयते क्लेशलेदाभ्यां सदा कापुरुषोऽत्रयः ।
न तस्य मध्ये यो लाभः कुतः स्वर्गसमुद्भवः ॥ १
Teddieldada
२स किम्युरुषः यस्य महायोगेष्वी धनुष इवाधिक न जायते बलम्' ऐसा मु० है, जिसका अर्थ यह है कि 'जिसप्रकार प्रचेतन - जड़-धनुष थोड़ी या अधिक शक्तिका संचार नहीं होता उसीप्रकार जिस पुरुषर्मे महान् कार्य-युद्ध दिप अधिक शक्तिका संचार नहीं होता वह निन्द्र है ।
या
३ तथा च गुरुः
युद्धका सुवंश्यानां वीर्योत्कर्ष: प्रजायते ।
ये च बीर्य हानि: स्पा क्षेत्र शेया नपुंसकाः
॥
४] ''इसप्रकार मु० ६० प्रतिमें पाठ है परन्तु मे कुछ नहीं है।
* तथाच गुवः
भाविकल्पस्य यो हेतुरभिः स उभ्यते ।
इच्छा वा तस्य सन्धा या भवेत् प्राणिनां सदा || स
और इ०
शि. मू० प्रतियोंमें पाठ
अधिक युद्ध-श्राविके अवसर पर
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* नीतिवाक्यामृत *
११
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रिका पाय बताते हैं:मनः प्रत्ययापेभ्यः प्रत्यावर्तनहेतुषोऽनभिलाषो वा ॥ २८ ॥ मात्मासे होनेवाले दोपोंको नाश करने के दो उपाय है। (१) अपनी निन्दा करना (२)
करने की इच्छा न करना। विजने लिखा है कि 'आत्मासे यदि अपराध होजावे तो विद्वानोंको उनकी निन्दा करनी भावना नको करनेकी कभी भी इच्छा नहीं करनी चाहिये ॥१॥ at avण निर्देश करते हैं:हितग्रातिपरिहारहेतुरुत्साहः ॥ २६ ॥ -जिस कर्तव्य करने में हिस-अभी-की माप्ति वा अहित-अनिक-का याग होता है हते हैं ॥ २६ ॥
मान्ने लिखा है कि जिस कर्तव्य करनेमें शुभकी प्राप्ति और पापोंका त्याग होकर रदयको पार से खरसाह कहते हैं ॥१॥
स्वरूपका विवरणःला परनिमिचको भाषः ॥ ३० ।। -मुझे इसका प्रमुफ कार्य अवश्य करना चाहिये' इसप्रकार दूसरोकी भलाई के लिये कीजाने
निरिषन प्रकृतिको प्रयत्न कहते हैं ।।३।। पूर्ण विद्वानने लिखा है कि के यमनोकी तरह 'दूसरोंकी भलाई करने में ओ निश्चय करके पित की जाती है उसे प्रयत्न कहते हैं । अर्थात् जिसप्रकार गर्ग नामके नीतिकार विधामकेपपन परोप
सीमकार शिष्ट पुरुष जो दूसरोकी भलाई के लिये अपनी मानसिक प्रवृत्ति करते हैं उसे 'प्रचन' पाहिये ॥१॥
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हो यदि होगाः स्युरले मिन्धा विबुधैः। या व कर्तमा बाबा तेषां कदाचन ।। १ ।।
शुभासित का जायवे पापवर्जनम् । इस पर शि: स उत्साः प्रकीर्तितः।।।। समाप गर्ग:
गये यश्चित्त निश्चित्य धार्यते । मानव र विशे यो गर्गस्य पवनं यथा ॥ १।।
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११२
* नीतिवाक्यामृत *
संस्कारका स्वरूप निर्देशः
सातिशयलाभः संस्कारः ॥ ३१ ॥
प्रथैः-सज्जन पुरुषों तथा राजा-आदिके द्वारा किये गये सन्मानसे जो मनुष्यकी प्रतिष्ठा होती है उसे 'संस्कार' कहते हैं ।। ३१ ।।
गर्ग' विद्वान्ने लिखा है कि 'राजकीय सन्मानसे' सज्जनोंके आदरसे तथा प्रशस्त भक्तिसे जो मनुष्य ! को सन्मान आदि मिलता है उससे उसकी प्रतिष्ठा होती है ॥१।।
संस्कार-ज्ञानविशेष-का लक्षण निर्देश:--- अनेककर्माभ्यासवासनावशात् सद्योजातादीनां स्तन्यपिपासादिकं येन क्रियत इति संस्कारः ॥३२॥
अर्थः-इस प्राणीने आयुष्य कर्मके आधीन होकर पूर्व जन्मोंमें अनेक बार दुग्धपानादिमें प्रवृत्ति की थी, उससे इसकी श्रात्मामें दुग्धपानादि विषयका धारणारूप संस्कार उत्पन्न होगया था । उस संस्कारकी पासनाके वशसे जो स्मरण---यह दुग्धपान मेरा इष्ट साधन है इस प्रकारका स्मृतिज्ञान-उत्पन्न होता है वही संस्कारसे उत्पन्न हुआ स्मरण उत्पन्न हुए बच्चोंको दुग्धपान आदिमें प्रवृत्त करता है ।। ३२ ।।
गौतम नामके दार्शनिक बिद्वान्ने भी अपने गौतमसूत्रमें कहा है कि यह प्राणी पूर्व शरीरको छोड़कर जब नवीन शरीर धारण करता है उस समय-उत्पन्न हुए बच्चेकी अवस्थामें- क्षुधासे पीड़ित हुत्रा पूर्वजन्म में अनेकवार किये हा अभ्यस्त आहारको ग्रहण करकेही दग्धपानाक्षिमें प्रवत्तिक इसके दुग्धपानमें प्रवृत्ति और इच्छा बिना पूर्वजन्म संबंधी अभ्यस्त आहार-स्मरणके. कदापि नहीं हो सकती क्योंकि वर्तमान समय में जब यह प्राणी सुधासे पीड़ित होकर भोजनमें प्रवृत्ति करता है उसमें पूर्व-दिनमें किये हुए आहार संबंधी-संस्कारसे उत्पन्न हुआ स्मरण ही कारण है ।। १ ।।" शरीरका स्वरूपः
भोगायतनं शरीरम् ॥ ३३ ॥ अर्थः-जो शुभ-अशुभ भोगोंका स्थान है वह शरीर है ।। ३३ ॥
हारीत विद्वानने भी कहा है कि यह प्राणी शरीरसे शुभ-अशुभ कर्म या उसके फल-सुख-दुखको भोगता है इसलिए इस पृथ्वीतलपर जितने सुख-दुःस्त्र कहे गये हैं, उनका शरीर गृह-स्थान है ||१|| १ तथा च गर्गःसन्मानाद्भूमिपालस्य यो लाभः संप्रजायते । महाजनान्च सद्भक्तेः प्रतिमा तस्य सा भवेत् ॥1॥ २ उक्त सूत्र मु० और ह. वि. मू०प्रतियोंसे संकलन किया गया है, क्योंकि सं० टी० पु. में नहीं है। ३ तथा च गौतमःप्रेत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात् ॥ १॥
गौतमसूत्र अ. ३ श्रा० १ सूत्र २२ वां । ४ तथा च हारीत:
सुरवदुःखानि यान्यत्र काम से घरणीतले । तेषां गृहं शरीरं तु यत: कर्माणि सेवते IOE
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* नीतिवाक्यामृत *
११३
मासिकदर्शनका म्यरूप:-- र परिकव्यवहारप्रसाधनपरं लोकायतिकम् ॥ ३४ ।। ब-शो केवल इस लोकसभी कार्यों पदापान और मांसभक्षमा आदि-का निरूपण नास्तिक-दर्शन कहते हैं।
नास्तिकमतके अनुयायी (माननेवाले) वृहस्पति--ने कहा है कि 'मनुष्यको जीवनपर्यन्त पाहिये-इच्छानकृन्त मद्यपान और मांसभक्षण आदि करते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत
कोई भी मृत्युसे बच नहीं सकता । भस्म हुए शरीरका पुनरागमन--पुनर्जन्म कैसे अर्थात् नहीं होसकता ॥९॥ निमें हवन करना, तीनों बेदोंका पढ़ना, दीक्षा धारणकरना, नग्न रहना, और शिर मुड़ाना गाई मूर्ख और बालसी पुरुषों के जीवन-निर्वाहके साधन है ॥२॥
-धन कमाना और काम-विषयभोग-ये दो ही पुरुषार्थ-पुरुषके कर्तव्य-है। शरीर ही
___.
भावार्थ:-नास्तिकदर्शन उक्तप्रकार केवल इसलोकसम्बन्धी कार्याका · निर्देश करता है, वह कि सस्कर्तव्यों-अहिंसा, परोपकार और सत्य आदिका निरूपण करनेमें असमर्थ होनेके गि पुरुषों के द्वारा उपेक्षणीय - त्याज्य--(छोड़नेयोग्य) है ॥ ३४॥ नासिक-दर्शनके शानसे होनेवाला राजाका लाभ:- .
कायतो हि राजा राष्ट्रकण्टकानुच्छेदयति ॥३५॥ पर्व:-जो राजा नास्तिक-दर्शनको भलीभाँति जानता है वह निश्चयसे राष्ट्रकण्टको-प्रजाको नेपाले जारपौर आदि दुष्टों को जड़-मूलसे नष्ट कर देता है। भावार्थ:-पयपि नास्तिकोंके सिद्धान्तको पढ़नेले मनुष्योंके हृदयमें क्रूरता-निर्दयता-उत्पन्न सोपारलौकिक सत्कर्तव्यों-दान-पण्यादि-से पहमख होजाते अतएव नास्तिक-दर्शन पाके धरा त्याज्य छोड़नेयोग्य-होनेपर भी राजाको उसका ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है।
सस सके हृदय में निर्दयता उत्पन्न होती है जिससे वह राष्ट्र के कल्याण के लिये अपनी विशाल समिसे प्रमा-पीड़क और मर्यादाका उल्लकन करनेवाले जार-चौर आदि दुष्टोंके मलोच्छेद करने में बाई और इसके फलस्वरूप वह अपने राष्ट्रको सुरक्षित एवं वृद्धिंगत करता है ।।३।।
का मुख जीपेत् नाति मृत्योरगोचरः। भिभूतरूप देहस्य पुनरागमनं कृतः ॥१॥
अमिहोत्र' प्रयो वेदाः प्रज्या नग्नमुण्डता। सीरवीनाना जीवितेन्दो मतंगुरुः ॥ २॥ कामाक्षेत्र पुरुषाथी', देहण्व प्रात्मा इत्यादि ।
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११४
* नीतिवाक्यामृत
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शुक्र' विद्वान्ने भो कहा है कि जो सजा देशको पीड़ित करनेवाले दुलोंपर दयाका वर्ताव करता है उसका देश निस्सन्देह नष्ट हो जाता है इससे वह अपने राज्यको भी खो बैठता है ॥१॥
मनुष्यों के कर्तव्य सर्वथा निर्दोष नहीं होते इसका निरूपणः
न खल्वेकान्ततो यतीनामप्यनवद्यास्ति क्रिया ॥३६॥
अर्थ:-जितेन्द्रिय साधु महापुरुषों के भी कर्तव्य-अहिंसा और सत्य आदि-सर्वथा निर्दोष नहीं होते-उनके कत्तेश्योंमें भी कुछ न कुछ दोष पाया जाता है, पुनः साधारण पुरुषोंके कत्तेच्योंका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् उनके कतव्योंमें दोष-टि-होना साधारण बात है ॥३६।।।
वर्ग विद्वान्ने भी कहा है कि 'साधुओंकी क्रिया-अनुष्ठान-भी सर्वथा निर्दोष नहीं होती; क्योंकि वे भी अपने कत्तव्यसे विचलित होजाते हैं ॥१॥
सर्वथा दयाका वतोव करनेवाले की हानिका निर्देश:
एकान्तेन कारुण्यपरः करतलगतमप्यर्थ रचितुन क्षमः ॥३७॥
अर्थ:-जो मनुष्य सदा केवल दयाका बर्ताव करता है वह अपने हाथ में रखे हुए धनको भी बचानेमें समर्थ नहीं होसकता ।।३७॥
शुक विद्वान्ने भी कहा है कि 'राजाको साधुपुरुषों और दुःस्वी प्राणियोंपर दशंका वाद करना चाहिये, परन्तु जो दुष्टोंपर दया करता है वह अपने पासके धनको भी खो बैठता है।॥१॥'
सदा शान्त रहनेवालेकी हानि:
प्रशमैकचित्र को नाम न परिभवति १ ॥३॥
१ तथा च शुक्र:
दयां करोति यो राजा राष्टसम्तारकारिणां ।
स रायन शमाप्नोति गिष्ट्रोच्छेदाद्यसंशयं ] Mm
नोट:- श्लोकका चतुर्थ-चरम सं. टी. पुस्तकमें 'राष्ट्रोच्छेदादिसंशयं ऐसा अशुद्ध था जिससे अर्थसमन्वय ठीक नहीं होता था अतः हमने उसे संशोषित एवं परिवर्तित करके अर्धसमन्यय किया है । सम्पादक:--
२ तया च वर्ग:
अनवद्या सदा तावन्न खल्वेकान्ततः किया । यतीनामपि विवेत नेषामपि यतश्च्युतिः ।।१।। ३ तथा च शुक्र:--- दया साधुष कर्तग्यां सीदमानेषु जन्तुषु ।
असाधुषु दया शुक्रः [स्ववित्सादपि अश्यति |
नोट:--उऊ श्लोवले चतुर्थ-चरण में स्वचित्तादपि भ्रश्यति। ऐसा अशुद्ध पाठ या जिससे अर्थ-समम्वर और नहीं होता था, अतणब हमने उक्त संशोधन और परिवर्तन करके भर्य-समम्चय किया है। सम्पावक--
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* नीतिवाक्यामृत *
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-सदा शान्तचित्त रहनेवाले मनुष्यका लोकमें कौन पराभव-सताना और अनादर करताप अर्थात सभी लोग उसका अनादर करते हैं ॥३८|| विद्वालने भी उक्त बाप्तकी पुष्टि की है कि जो मनुष्य सदा शान्तचित्त रहता है उसकी स्त्री भी
परणौका प्रहाल नहीं करती ॥२॥' मायका कर्तव्य निर्देश:
अपराधकारिषु प्रशमो यतीनां भूषण न महोपतीनाम् ॥३६॥ rit -अपराधियों-प्रजा-पीड़क दुष्टों-पर क्षमा धारण करना उन्हें दंड न देना---यह साधु
-शोभा देनेवाला- है, न कि राजाओंका । अतः दुष्टोंका निग्रह करना-अपराधके रना-राजाका मुख्य कर्त्तव्य है ।।३।। किसी नीतिकार ने कहा है कि 'जो राजा दुष्टोंका निग्रह करता है उन्हें अपराधके अनुकूल
यह सुशोभित होता है-उसके राज्यकी उन्नति होती है और जो दुष्टोंके साथ धमाका रखा है उसे महान दूषण लगता है--उसका राज्य नष्ट होजाता है ॥१॥ . . बिससे मनुष्य निंद्य समझा जाता है उसका निरूपण:---
शिक व पुरुष यस्यात्मशक्त्या न स्तः कोपप्रसादौ ॥४०॥
-जो मनुष्य अपनी शक्तिसे क्रोध और प्रसन्नता नहीं करता उसको धिक्कार है-वह सोय है ॥४॥
मास विद्वानने भी कहा है कि जिस राजाकी प्रसन्नता निष्फल है जो शिष्टोंपर प्रसन्न होकरके अनुमह नहीं करता एवं जिसका क्रोध भी निष्फल है-जा दुपीसे ऋद्ध हो करके भी उनका
क्या : मगुः-- ., [सदा तु गाम्नचित्तो यः पुरुषः सम्प्रजायते । .. तस्य भायोऽपि नो पादौ प्रक्षालयति कहिचित् ॥१॥ : मोट:- कोकके प्रथम चरण में 'सदा तु याचिरस्य' ऐसा अशुद्ध पाट था उसे हमने संशोधित एवं
अर्थ-समन्वय किया है। सम्पादक:१ तथा परचमीनिमित्:. बोरामा निग्रहं कुर्यात् दुष्टेषु विराजते ।
मादेष पतस्तेषां तस्य तद्दूषणं परम् ॥३॥
प्रसादो निमायो यस्य कोपरचासि निरर्थकः । जा भवामिछन्ति प्रजाः पपदमिव स्त्रियः ॥1
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* नीतिवाक्यामृत *
निग्रह नहीं करता-उसे प्रजा अपना स्वामी-राजा-महीं मानती, जिस प्रकार स्त्रियाँ नपुमकको पनि नहीं मानतीं ॥१२॥
शत्रु ओंका पराजय न करनेवालेकी कही बालोचना:
स जीवन्नपि मृत एव यो न विक्रामति प्रतिकूलषु ॥४१॥
अर्थ:-जो व्यक्ति शत्रुओंमें पराक्रम नहीं करता-उनका निग्रह नहीं करता-वह जाक्ति होगा हुआ भी निश्चयसे मरे हुएके समान है ।।४१॥
शुक्र विद्वान्ने लिखा है कि 'जो राजा शयाने पराक्रम नहीं करता, वह लुहारको छांकनीक समान साँस लेता हुमा भी जीवित नहीं माना जाता ||शा'
माधकविने भी कहा है कि जो मनुष्य लोकमें शत्रु ओंसे किये गये तिरस्कारके दुःयस ग्पिन्नदुःखी-होता हुआ भी जीवित है, उसका जीवित रहना अच्छा नहीं-उमका मरजाना ही उत्सम है। उत्पत्ति आदिके समय माताको कष्ट देनेवाले उस कायर मनुष्य की यदि उत्पत्ति ही नहीं होती नो अम्छा था '
पुनः पराक्रम-शून्यकी हानिका निर्देशः
भस्मनीव निस्तेजसि को नाम निःशः पदं न कुर्यात् ॥४२॥
अर्थः-पाश्चय है कि भस्म-राव-के समान तेज-शून्य-पराक्रम-हीन (मैनिक और ग्वजान की शक्तिसे रहित) राजाको कौन मनुष्य निडर होकर पराजित करने तत्पर नहीं होता ? अर्थात मी लोग उसे पराजित करने तत्पर रहते हैं।
अर्थान् जिस प्रकार अग्नि-शून्य केवल भस्मको साधारण व्यक्ति भी पैरोंसे ठुकरा देता है मो. प्रकार पराक्रम शून्य-सैनिक और खजानेकी शक्तिसे रहित--राजाकं साथ साधारण मनुष्य भी वगावस करने तत्पर हो जाता है।
शुक्र विद्वानने भी कहा है कि 'अग्नि-रहित भस्म के समान पराक्रम-हीन राजा निडर हुए साधारण
तथा शुक:परिवन्धिषु यो राजा न करोति पराक्रमम् । सलोइकारभस्त्रेव श्वसमपि न जीवति || २ तथा च माघकवि:
मा जीवन यः परावज्ञाद:खदग्धोऽपि जीवति । तस्थाजननिरेवा जननीक्लेशकारियः ॥१॥ ३ भस्मान वाम्नेजमे या को नाम निःश न दधाति पदम् । समकार मु. और १. लि. मूल अतियों में
पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ४ नधा च शुक:शौर्येस रहिनो राजा होनेरयभिभूयते । भस्मराशिर्यभानग्निनिश स्पृश्यतेऽरिभिः ||
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ॐ नीविवाक्यामृत *
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भाजित कर दिया जाता है ॥६॥
विजिगीषु राजाको अपनी राज्य-वृद्धि के लिये पराक्रमी-सैनिक और सजानेकी शक्तिसे
प्रतिष्ठाका निरूपण:
मपि न पापं यत्र महान् धर्मानुवंधः ॥४३॥ विस कार्य-दुष्ट-निप्रह-श्रादि-के करने में महान धर्म-प्रजाका संरक्षण-आदिबी है वह वाहसे पापरूप होकरके भी पाप नहीं समझा जाता किन्तु धर्म ही
रोपण विद्वान्ने भी कहा है कि 'नैतिक पुरुषको अपने वंशकी रक्षाके लिये अपना शरीर, ने अपना वंश, देशकी रक्षाके लिये ग्राम और अपनी रक्षाके लिये पृथिवी छोड़ देनी
राजा पापियोंका निग्रह करता है उससे उसे. उत्कृष्ट धर्मकी प्राप्ति होती है क्योंकि उन्हें म मादि पंड देनेसे उसे पाप नहीं लगता ॥२।' निहन करनेसे हानि-- अन्यथा पुनर्गरकस्य शाज्यम् ॥४४॥
-बो राजा दुष्टोंका निग्रह नहीं करता उसका राज्य उसे नरक लेजाता है। मना-प्रशाके कंटक-अन्यायी-आततायियोंका निग्रह न होनेसे उस राज्यकी प्रज्ञा सदा पए कायर राजा नरकका पात्र होता है ॥४४॥
पिवानने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि जिस राजाको सैनिक शक्ति शिथिलती है उसकी प्रजा दुष्टोंके द्वारा पीड़ित की जाती है और उसके फलस्वरूप वह निस्सन्देह
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तपा च पादरायणः-- स मस्या प्रामस्या कुलं त्यजेत् ।
नाम भनेपदस्या मामार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥
माना निमहे राजा पर धर्ममवाप्नुयात् । मोपवर्षास्तस्य पापं प्रजायते ॥२॥
पा पुमनरकान्त राज्य ऐसा म० और १ लि. म० प्रतियोंमें पाठ है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं है। माताराविमिनो यस्य शैथिल्येन प्रपोज्यते ।
नरक याति स राजा नात्र संशयः ॥३॥
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* नीसिवाक्यामृत के.
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राज्यपदका परिणामः
वन्धनान्तो नियोगः ॥४५॥ अर्थः-राज्याधिकार अन्तमें बन्धनका कष्ट देता है ।। ४५ ।।
गुरु' विद्वानने मी लिखा है कि 'जन्मके साथ मृत्यु, उमति के साथ अपनति-पतन,योग (ध्यान) के साथ नियोग-विचलित होना और राज्याधिकार के साथ बन्धनका दुःख लगा रहता है ।। १॥
दुष्टोंकी संगतिसे होनेवाली हानिः--
विपदन्ता खलमंत्री ।। ४६ ॥ अर्थः-दुष्टोंकी संगति अन्तमें युःख देनेवाली है ।। ४६ ।।
पक्षभदेव' विद्वानने भी कहा है कि 'पूज्य' मनुष्य भी दुष्टों की संगतिसे परामव-तिरस्कारको प्राप्त होता है जिसप्रकार लोहेकी संगति करतेसे अग्नि जवदरत हथोड़ोंसे पीटी जाती है ॥१॥
स्त्रियों में विश्वास करनेसे हानिः
मरणान्सः स्त्रीषु विश्वासः ॥ १७ ॥ अर्थः-स्त्रियों में विश्वास करनेसे अन्तमें मृत्यु होती है ।। ४७ ॥
विष्णुशर्मा विद्वान्ने कहा है कि 'गरुड़के द्वारा लिये जानेवाले पुण्डरीक नामके नागने कहा है कि जो स्त्रियोंके समक्ष अपनी गुप्त बात प्रगट करता है उसकी मृत्यु निश्चित है ॥१॥
इत्यान्धीक्षिकीसमुद्दशः
१ तथा च गुरु:
म जन्म मृत्युना वास नोच्चैस्तु पतनं विना । न नियोगस्युतो योगो नाधिकारोऽस्त्यवचनः ।।१।। २ तथा च वलभदेवःअसत्संगात् पराभूति याति पूज्योऽपि मानवः। . लोहसंगाद्यतो वहिस्ताख्यते सुचनैर्धनैः ॥ १ ॥ ३ तथा च विष्णुशर्मा:नीयमानः खगेन्द्रेण नागः पौगरिकोशाषीत् । श्रीणां महामारज्याति तदतं तस्य जीवितम् ॥ ॥
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* नीतिवाक्यामृत के
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ImammMulentinue
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......
७ त्रयी-समुद्देशःबीवियामा रपमर:
बतारो वेदाः, शिवा कन्यो व्याकरणं निरुक्त छन्दो ज्योतिरिति पडझानीतिहासमीमांसा-न्याय-धर्मशास्त्रमिति चतुर्दशविद्यास्थानानि यी ॥१॥
-चार वेद हैं:-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग'। उमेदोंके निम्नप्रकार ६ अङ्ग हैं-इन छह अङ्गोंके शानसे उक्त पारों प्रकारके वेदोंका शान
सिवा २ कल्प ३ व्याकरण ४ निरुक्त ५ छन्द और ६ ज्योतिष । महा:-स्वर और भ्यन्जनादि वर्णोका शुद्ध उच्चारण और शुद्ध लेखनको बतानेवाली विद्याको
पः-धार्मिक श्राचार-विचार या क्रियाकाण्डों-गर्भाधान आदि संस्कारों के निरूपण शास्त्रको 'कल्प' कहते हैं। १ तथा चोक्तमाः: श्रुतं भुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषं ।
सोपदेशि यहास्य न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥1॥ परार्या धर्मशास्त्र व तत्स्यावधनिषेधि पत् ।
परदेशि यश शेयं धूर्त प्रणेतकम् ॥१॥ - ग्रादिपुरासे भगय जिमसेनाचार्य:पर्च ३६, श्लोक २२-२३॥
सर्व-निदोष-अदिसा धर्मका निरूपक अाचाराम-श्रादि द्वारशा अन-शस्त्र-जो कि उक्त प्रयम
अनुबोगों में विभाजित है उसे 'वेद' कहते हैं, परन्तु अणि-हिसाका समर्थक वाक्य 'वेद' नहीं कहा जा मायान्त-बाणी समझनी चाहिये ।। 5. होमकार जो माणिहिसा निषेध करनेवाले शास्त्र है वे ही पुराण और धर्मशास्त्र कहे जा सकते है,
के वियरत-जीक हिंसाके समर्थक शास्त्रों-को धूतीकी रचनाएं, समझनी चाहिये ॥२॥
तया चोरतमा:PAR किवास्त्रिधाम्नाता भावाप्यायसंग्रहे।
ष्टिभिरनुष्ठेया महोदः शुभावाः ॥1॥ RE: गोम्बयक्रियाश्चैव तथा दीक्षाम्बपक्रियाः। .. यक्रियाश्चेति साविधैवं बुधैर्मताः ।।२।।
चापानाथास्थिपंचावात् शेषाः गर्भावयक्रियाः। बारिशराष्टौ च स्मृता दीक्षान्वयमियाः ॥३॥
चपनियारचैव सप्त तज्जैः समुचिचाः । पास जयाकर्म नामनिर्देशोभ्यमनद्यसे ॥४॥ श्रादिपुराणे भगवजिनसेनाचार्या सर्व ३८ श्लोक १ से १३ ॥
रोष भगले पह पर)
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२०
* नीतिवाक्यामृत *
३ व्याकरण-जिससे भापाका शुद्धलिखना, पढ़ना और बोलनेका बोध हो।
४ निरुक्तः-यौगिक, रूढ़ि और योगरूढ़ि शब्दोंके प्रकृति और प्रत्यय-श्राविका विश्लेषण करके प्राकरणिक द्रव्यपर्यायात्मक या अनेक धर्मात्मक पदार्थके निरूपण करनेवाले शास्त्रको 'निरुक्त' कहते हैं।
___५ छन्दः-पयों-वर्णवृत्त और मात्रवृत्त छन्दों के लक्ष्य और लक्षण के निर्देश करनेवाले शास्त्रको 'छन्दशास्त्र' कहते हैं।
६ ज्योतिषः-प्रहोंकी गति और उससे विश्षके ऊपर होनेवाले शुभ और अशुभ फलोंको तथा प्रत्येक कार्यके सम्पादनके योग्य शुभ समयको बतानेवाली विद्याको ज्योतिर्विद्या कहते हैं। इसप्रकार ये ६ वेदार हैं।
इतिहास, पुराण, मीमांसा (विभिन्न और मौलिक सिद्धान्त.वोधक वाक्योंपर शास्त्राविरुद्ध युक्तियोंद्वारा विचार करके समीकरण करनेवाली विद्या), न्याय (प्रमाण और नयोंका विवेचन करनेवाला शास्त्र) और धर्मशास्त्र (अहिंसा धर्मके पूर्ण तथा व्यवहारिक रूपको विवेचन करनेवाला उपासकाध्ययन शास्त्र) उक्त १४ चौदह विधास्थानोंको 'त्रयीविद्या कहते हैं ॥१॥
प्रयी-विद्यासे होनेवाले लाभका निर्देशः
त्रयीतः खलु वर्णाश्रमाणां धर्माधर्मव्यवस्था ॥ २ ॥
अर्थः-त्रयी-विद्यासे समस्त वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा पाश्रमों-ब्रह्मचारी गृहस्थ, बानप्रस्थ और गति-में वर्तमान मनुष्योंके धर्म-अधर्म-कर्तव्य-अकर्तव्य-का मान होता है ॥२॥
यशस्तिलकचम्पूमें प्राचार्यश्री' ने श्रयी-वियाके विषयमें लिखा है कि जिस विद्याके द्वारा संसारका कारण जन्म, जरा और मृत्युरूप-त्रयी क्षय-नाश को प्राप्त हो उसे अयो-विशा' कहते हैं ।। १ ।।
निष्कर्ष:-वर्ण-पाश्रम में विभक्त जनता अब अपने २ कम्य-प्रकव्यका मान प्राप्त करके कर्तव्यमें प्रवृत्त और अकर्तव्यसे निवृत्त होजाती है, तब यह अन्म, जरा और मृत्युरूप सांसारिक दुःखोंसे छुटकारा पालेती है; अतः प्राचार्यश्री की उक्त मान्यता में किसीप्रकार का विरोध नहीं पाता ॥२॥
श्रयी-विद्यासे लौकिक लाभ:
स्वपक्षानुरागप्रवृत्या सर्वे समवायिनो लोकव्यवहारेवधिक्रियन्ते ॥ ३ ॥
अर्थात्--उपासकाभ्ययन अङ्गमें तीन प्रकारकी सियाएं- म्य, दीक्षान्मय और कर्षमयक्रियाएं(संस्कार) सम्यग्दष्टियों द्वारा अनुमान करनेयोग्य, उसमफलदात्री और कल्याण करनेवाली विद्वानों द्वारा कहीं गई ॥१२॥
गर्भान्वयक्रियाओंके गर्भाधानादि ५३, दीक्षान्वयक्रियानोंके ४८ और कत्रपक्रियानोंके ७ भेद गणधरोने निरूपण किये हैं। उनके नाम अनुकमसे को जाते है ।।३-४॥
. निष्कर्षः-श्रादि पुराणके उक्त संस्कार-निरूपक प्रकरणको 'क' कहा जासकता है, क्योंकि इसमें गापान संस्कारसे लेकर मोनपर्यम्त धार्मिक संस्कारों का विशद विवेचन प्राचार्य भीने किया है ।
। तथा च यशस्तिलके सोमदेवरि:
जातिर्जरा मृतिः पुसा त्रयी संसृतिकारणं । एषा त्रयी यतस्त्रया धीयते स सा प्रयी मता ॥1॥
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* नीतिवाक्यामृत
अर्थः- समस्त वर्ण और आश्रमों में विभक्त प्रजाके लोग इस त्रयी- विद्याके द्वारा। अपने २ सरक पूर्व प्रवृत्ति करनेसे नैतिक आचार-विचारोंके परिपालनमें प्रवृत्त किये जाते हैं ॥ ३ ॥
: स्मृतिग्रन्थों की प्रामाणिकता-निर्देश:--
धर्मशास्त्राणि स्मृतयो वेदार्थसंग्रहाद्वेदा एव ||४||
- धर्मशास्त्र - सिद्धान्तग्रन्थ श्रीर स्मृतियाँ - श्राचारशास्त्र -- इन सब में एक द्वादशाङ्गरूप संकलन किया गया है; अत एव द्वादशाङ्ग श्रवकी तरह वे भो प्रमाणीभूष-सत्य है ||४|| शिक्षक में आचार्यश्री अन्य लौकिक शास्त्रोंके विषयमें भी अपनी उदार नीतिका निरूपण के माननेवाले जैनोंने उन लौकिक समस्त आचार-विचारोंको तथा वेद अस्थाको उतने में प्रमाण माना है जितने अंशमें उनके सम्यक्त्व और चारित्रमें घाव - मे दूषित नहीं होते ।। १॥
हैक
''और वैश्योंके समानधर्म कर्त्तव्य का निर्देश:
अध्ययनं यजनं दानं च विप्रचत्रियवैश्यानां समानो धर्मः ॥ ५ ॥ क- शास्त्रों का पदना, देव, गुरु और धर्मकी भक्ति, स्तुति और पूजा क्षत्रिय और समान धर्म-समान-कर्त्तव्य हैं ॥ ५ ॥
10. -
1 तथा च यशस्तिल के सोमदेव सरि:---
कार कामन्दक भी उक्त घातकी पुष्टि करता है कि 'पूजा करना, शास्त्रांका पढ़ना और दानक्षत्रिय और वैश्योंका समान धर्म है ॥१॥
हिजैनानां प्रमा लौकिको विधिः ।
यानि न यत्र तदूषणम् ॥१॥
भुतिः शास्त्रान्तर' वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ॥ ॥
(स
विद्वाने भी कहा है कि 'वेदोंका अभ्यास, ईश्वर-भक्ति और यथाशक्ति दान करना यह कब और वैश्योंका साधारण धर्म कहा गया है ॥१॥
तथा चोक्तं कामन्दकेन
माध्ययनदानानि यथाशास्त्रं सनातनः । ब्रह्मक्षत्रियवियां सामान्यो धर्म उच्यते ।
कामकीयनीतिसार ४०१८ श्लोक १८ । हारीत:
दाम्यावस्तथा यशाः स्वशकथा दानमेव च । धर्मः साधारणः स्मृतः ॥११॥
तथा पात्रदान
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* नीतिवाम्यामूत
द्विजातियों का निर्देश:
प्रयो वर्णाः द्विजातयः ॥६॥ अर्थ:-ब्राहाण, क्षत्रिय और वैश्य ये वीनों वर्ण द्विजाति कहे जाते हैं।
भावार्थ:-उक्त सीनों वर्णोका शरीर-जन्मके सिवाय गर्भाधान-मावि मस्कारोंसे प्रात्म-जम्ममी होता है। अतएष भागममें इनको द्विजाति या द्विजम्मा कहा है ॥६॥
भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि एकवार गर्भसे और दूसरीधार गर्भाधान-श्रादि संस्कारोंसे इसप्रकार दो जन्मोंसे जो उत्पन्न हुअा हो उसे द्विजन्मा या द्विजाति कहते हैं, परन्तु जो इक्त गर्भाधानादिसंस्कारों और उनमें प्रयोग किये जाने वाले मन्त्रोंसे शून्य-संस्कारहीन-है वह देवल नाममात्रसे द्विजप्राह्मण है, वास्तविक नहीं ॥शा ब्राह्मणों के कर्तव्योंका विवरण:
अध्यापन याजनं प्रतिग्रहो ब्राह्मणानामेव ॥७॥ अर्थ:--प्रमाणोंका ही धर्म जीविकोपयोगी कम्य-शास्त्रोंका पदाना, पूजा कराना और वाम प्रहण करना हैजा
भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि शास्त्रोका पढ़ना, पढ़ाना, दान देना सेना और रिपरी पूजा करना ये मामणोंके कर्तव्य हैं।
नीतिकार कामन्दक ने भी कहा है कि 'ईश्वर-भक्ति कराना, शास्त्रोंकन पढ़ाना, और विशुद्ध-शिपुरुषसे पान प्रहण करना ये तीन प्रकारके ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्तव्य मुनियोंने कहे हैं ॥॥
। तथा च भगय जिनसेनाचार्य:द्विजोतो दिजिम्मेष्टः क्रियातो गर्भतश्च यः। क्रिपामंत्रविधीनस्तु केवल नामधारक:
प्रादिपुराण पर्व ३८ रोक ४८ । २ तथा च भगवन्जिनसेनाचार्य:अधीरपण्याने दान (
जिम्मेति वक्रिया: पादिपुषण पर्व परको
नोट:-उरलोकका दूसरा चरब प्रादिपुरायमें 'प्रविश्यायेति सतिया: ऐ गाना था, जिससे अर्थसंगति ठीक ना होती थी, अतएव हमने उसे संशोषित और परिवर्तित करके सिमामा
३ वषाच कामन्दक:-- माजनाप्यापन शुद्ध विशुदाय प्रतित्रा। विस्यमिद माहुनियो न्यायिनः ॥३॥
कामन्दकीय-नीतिसार ।
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* नीविवाक्यामृत
१२५
भगवजिनसेनाचार्य ने भी प्राणों के धार्मिक और जीविकोपयोगी कर्तव्योंका निम्नप्रकार निर्देश किया है कि महाराज भरतने उपासकाभ्ययन नामके अङ्गाके आधारसे उन प्राणों के लिये देवपूजा, वार्ताविशुद्ध परिणामसे कृषि और ध्यापार करना, पात्रोंको दान देना, शास्त्र-स्वाध्याय, संयम-सदापार और वपश्चयों करना इन ६ छह सत्कर्तव्योंका उपदेश दिया है ॥१॥
हारीत विद्वानने भी कहा कि 'ईशातिर i-ATEतारत गाना-पढ़ाना, पानदेनामेना ये ६ कत्र्तव्य ब्राह्मणों के हैं ॥२॥ क्षत्रियोंका कर्तव्यनिर्देश:
भूतसंरक्षर्ण शस्त्राजीवनं सत्पुरुषोपकारो दीनोद्धरणं रणेऽपलायन चेति पत्रियाणाम् ||८||
अर्थः-प्राणियोंकी रक्षाकरना, शस्त्रधारण करके जीवन-निर्वाह करना, शिष्ट पुरुषोंकी मलाई करना, अनाथ-अन्धे, लूले-लैंगड़े और रोगो भादि दीनपुरुषों का उद्धार करना और युद्धसे न मागना ये क्षत्रियोंके कर्तव्य हैं।
___ पाराशर विद्वान्ने भी कहा है कि 'सत्रिय वीरपुरुषको शस्त्र धारण कर उससे जीवन-निर्वाह करते हुए-सदा हिरणों की रक्षा, मनाथोंका उद्धार और सजन पुरुषोंकी पूजा-भलाई करनी चाहिये ॥शा
भगवजिनसेनाचार्य ने कहा है कि इतिहासके आदि कालमें आदिममा भगवान् ऋषभदेव तीर्थरने अपने हाथोंमें शस्त्र-धारण करनेवाले ऋत्रिय धीर पुरुषोंको अन्यायी (प्रातवायी) दुष्ट पुरुषों से प्रजाकीरता करनेके लिये नियुक्त किया था II
1 तथा प भगव जिनसेनाचार्य:इच्या वाती च ६ति स्वाध्यायं यमं तपः । अतोपासकलस्वात् स तेभ्या समुगादिशत् ॥१॥
प्रादिपुराण पर्व १८ लोक २४ । के माता पिशुवस्या स्यात् म्यादीनामनुमितिः
संयमो मतभारणं-मादिपुराणे २ सपा हारीतापरन पाजन चैप पठन पाठन तथा।
रानं प्रतिमहोपेत पटकमाणि विन्मना ! ३समा च पाराशर
चषियेण मृगाः पाण्याः स्वातेन नित्ययः । मनापोटरयं कार्य erनाप्रपूजनम् ||१५ तपा च भगवबिजनसेनाचार्य:पत्तत्राणे निका हिचत्रियाः शवपाध्ययः ।
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१२४
* नीखियास्यास
data-41Hniament
भगवान् ऋषभदेव राज्यशासन कालमें पत्रिय लोग शस्त्रोंसे जीविका करने वाले शास्त्र धा. रण कर सेनामें प्रविष्ट होनेवाले-हुए सा
विशद-विवेचनः
प्राचार्यश्री'ने यशस्तिलकचम्पूमें लिखा है कि प्राणियोंकी रक्षा करना क्षत्रियोंका महान् धर्म है परन्तु निरपराध प्राणियोंके वध करनेसे वह नष्ट हो जाता है। .
___ इसलिये जो युद्ध भूमिमें लड़ाई करने तत्पर हो अथवा जो राष्ट्रका कटक-प्रजाको पीड़ा पहुँचाने वाला बन्यायी-दुष्ट-हो उसीके ऊपर क्षत्रिय वीर पुरुष शास्त्र उठाते हैं उनका निग्रह करते हैं। गरीब, कमजोर और धार्मिक शिष्ट पुरुषोंपर नहीं ॥१॥
अवध निरर्थक जीय हिंसाका त्याग करनेके कारण क्षत्रिय वीर पुरुषोंको जैनाचार्योंने प्रोपार्मिक-माना है । इन्ही क्षत्रिय वीर पुरुषोंके वंशमें अहिंसा धर्मके मूल-प्रवर्तक और उनके अनुयायी महापुरुषों का जन्म हुआ है। क्योंकि २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, । नारायण, प्रतिनारायण और । बलभद्र ये ६३शलाका-पुरुष क्षत्रिय थे ।इन सभीने अपने २ राज्यशासन कालमें उक्त क्षत्रियोंके सत्कतेब्यो -प्राणियोंकी रक्षा, शस्त्रधारण और शिष्टपालन आदि-का पालन किया था। : श्रीषेण राजाने जिन्नदीक्षा धारणको प्रयाण-वेलामें अपने युवराज वीरपुत्र श्रीवर्मा-चन्द्रप्रम भगवान् की पूर्वपर्याय-फो निम्न प्रकार क्षात्रधर्मका उपदेश दिया था जिसे वीरनन्दि-प्राचार्यने' चन्द्रप्रभचरित्रमें ज्ञलित और मनोहारिणी पद्यरचनामें गुम्फित किया है प्राकरणिक और उपयुक्त होनेके कारण उसका निर्देश करते हैं:
हे पुत्र ! तुम विपत्ति-रहित या जितेन्द्रिय और शान्सशील होकर अपने तेज-सैनिक शक्ति और खजानेकी शक्ति से शत्रुओंके उदयको मिटाते हुए समुद्रपर्यन्त पृथ्वी-मंडलका पालन करो ॥१॥ सत्रियाः शस्त्रजीवित्वमनुभूय तदाऽभवन् !!
प्रादिगण पर्व । , तथा च यशसिल के सोमदेवमूरि:मय-भूनसंरक्षणं हि क्षत्रियाणां महान् धर्मः, स च निरपराधप्राणिष निराकृतः स्वात् । स्य-य: शस्त्रवृतिः समरे रिपुः स्यात् । वकण्टको मा निजमएडजस्म ||
प्रस्थाणि सव नृपा क्षिपन्ति ।
न.दीनकानीनशुभाशयेषु ! २ तथा च वीरनन्दि-प्राचार्य:भवानपास्तव्यसनो निजेन थाम्नाम्धिमयौदामिमामिदानीम् । माहीमशेषामपहस्तितारिखयोदया पाया प्रशान्तः
(शेष अगले पर
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* नीतिवाक्यामत के
१२॥
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जिस तरह सूर्य के उदयसे चक्रवाक पक्षी प्रसन्न होते हैं उसीतरह जिसमें लव प्रजा तुम्हारे अभ्युदन मे खेव-रहित-मुखी-हो, बद्दी गुप्तचरों-जासूसों के द्वारा देख जानकर करो | ||२||
हे पुत्र ! वैभवकी इच्छासे तुम अपने हितैषी लोगोंको पीड़ा मत पहुँचाना; क्योंकि नीति-विशारदोंने कहा है कि प्रजाको खुश रखना-अपने पर अनुरक्त बनाना अथवा प्रजामे प्रेमका व्यवहार करना ही मयका मुख्य कारण है। ॥३॥
जो राजा विपत्ति रहित होता है उसे नित्यही सम्पत्ति प्राप्त होती है और जिस राजाका सपना परिषार पशवर्ती है, उसे कभी विपत्तियों नहीं होती । परिवारके वशयी न होने से भारी विपत्तिका सामना करना पड़ता है ॥४॥
परिवारको अपने वश फरनके लिये तुम हताहता-सद्गुणका सहारा लेना । कुतन्न पुरुषों और सब गुण होने परभी वह सब लोगोंको विशेशी बना लेता है !!
हे पुत्र ! तुम कलि-दोष जो पापाचरण है उससे बचे रह कर 'धर्म की रक्षा करते हुए 'अर्थ' और 'कामको पढ़ाना । इस युक्तिसे जो राजा त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम-का सेवन करता है, वह इसलोक और परलोक दोनोंमें सुख प्राप्त करता है । ॥६॥
सावधान रहकर सक्षा मंत्री-पुरोहित आदि बड़े ज्ञान-वृद्धोंको सलाहस अपने कार्य करना । गुरु (पकपल उपाध्याय और दूसरे पक्षमें बृहस्पति) की शिक्षा प्राप्त करके ही नरेन्द्र सुरेन्द्रकी शोभा या वैभव को प्राप्त होता है ॥७॥
प्रजाको पीदित करनेवाने कर्मचारियों को दंड देकर और प्रजाके अनुकूल कर्मचारियोंको दान-मानादिसे तुम बढ़ाना । ऐसा करनेसे पन्दीअन तुम्हारा कीर्तिका कीर्तन करेंगे और उससे तुम्हारी कीर्वि विधिगन्तरमें व्याप्त होजायगी।
पपा भवस्यम्मुदित जनोऽयमानन्दमायाति निरस्तखेदः ।
सररमाविष चकवाको इन तदेवाचर चारचक्षुः ॥२॥ वाब्धिमूती पाम भाषा मोदीविनय मनमात्मनीनम् । जनानुरागं प्रथम हितासा निबंधन नीतिविदो बदन्ति ।।३।। समागमो निष्येसनस्य रामः स्यात् संपदा निर्व्यसनवमस्य 1 परये स्वकीय परिवार पर तस्मिनावश्ये व्यसन गरीयः । विधिस्मरेन दविहात्मवश्यं शतायाः समुपैहि पारम् । गुरुतोश्यपः इतनः उमस्तमु जयते हि लोकम ||५| पाविरोधेन नयस्त्र परिवमर्षकामी कलिदोषमुकः । मुसया विवर्ग हि निषेत्रमाणो खोकायं पापयति क्षितीराः ||६१ स्वानुमत्या सकले स्वकार्य मदा विधेहि हतप्रमाः । विनीयमानो गुरुग्ण ह नित्य सुरेन्द्रजीला लभवे नरेन्द्र ७) निपडतो वापरामजाना पत्यांततोऽण्यामपसोऽभिषादिम् । गतिस्तवादिगन्तरराणि म्याप्नोत परिवर्तनस्य या
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* नीतिवाक्यामृत और
तुम सदा अपनी चित्तवृत्ति-मानसिक अभिलषित कार्यको छिपाये रखना । काम करनेसे पहले यह न प्रकट हो कि तुम क्या करना चाहते हो ? क्योंकि जो पुरुष अपने मन्त्र-सलाह- को छिपाये रखते है
और शत्रुओंके मन्त्रको फोड़-फाड़कर जान लेते हैं वे शत्रुओंके लिये सदा अगम्य (न जीतने योग्य) रहते हैं।
जैसे सूर्य तेजसे परिपूर्ण है और सब आशानों-दिशाओं-को ज्यान किये रहता है तथा भूमा जो पर्वत हैं उनके शिरका अलङ्कार रूप है उसके कर-किरणें-बाधाहीन होकर पृथ्वीपर पड़ती हैं, वैसे ही तुमभी तेजस्वी होकर सबकी प्राशाओंको परिपूर्ण करो और भूभृत् जो राजा लोग हैं उनके सिर-ताज पनो, तुम्हारा कर-टेक्स-पुथ्वीपर वाधाहीन होकर प्राप्त हो – अनिवार्य हो ॥१०॥
इस प्रकार राजाने उक्त नैतिक शिक्षाके साथ साम्राज्य-सम्पत्ति अपने पुत्र-श्रीवर्मा को दी । उसने भी पिताके अनुरोधसे बसे स्वीकार किया । सुपुत्र वही है जो पिताके अनुकूल कार्य करे ॥११॥
निष्कर्षः-५ स्प्रमें निर्दिष्ट शास्त्रोंका अध्ययन, ईश्वर-भक्ति और पात्रदान के साथ २ सक्त प्राणि रक्षा आदि सत्कर्तध्य तधियोंके जानने चाहिये ।।८।। वैश्योंका धर्मनिर्देशः
चार्ताजीवनमावेशिकपूजनं सत्रप्रपापुण्यारामदयादानादिनिर्मापणं च विशाम् ॥६॥
अर्थः-वैश्योंका धर्म-खेती, पशुओं की रक्षा, व्यापार द्वारा जीवन-निर्वाह करना, निष्कपट माबसे ईश्वरकी पूजा करना, सदा अम-विसरण करनेके स्थान-सदायत पानी पिलाने के स्थान--प्याऊ-बनधाना, अन्य पुण्य-कार्य-शिक्षामन्दिर, कन्या विद्यालय और विधवाश्रम प्रावि-बनाना, जनता विहारफे लिये बगीचे बनवाना और प्राणियोंकी रक्षाके लिये दानशालाएं आदि स्थापित करना है।
काः सदा संवृतचित्तवृत्तिः फलानुमेयानि निजेहितानि । गूढात्ममन्त्रः परमन्त्रमेदी भवत्याम्यः पुरुषः परेषाम् ॥६॥ तेजस्विनः परयतोऽखिलाशा भूभूखिराशेरखरता गतस्य । दिनाभिवस्येव सवाऽपि भूयात् करप्रपातो भुवि निर्वियम्भः ॥१०॥ इति क्षितीशः सह शिष्यासी विमाणयामास सुताय लक्ष्मीम् । सोऽनि प्रतीयेच गुरूपरोधात् पितुः सुपुत्रो मनुकूलपतिः ॥१॥
चन्वयमचरिते वीरनन्दि-भाचार्यः ४ था सर्ग श्योक ३४ से ४५. , पण्यवार्ताजीयनं वैश्यानाम्' ऐसा पाठ मु. और १ लि. म. प्रतियों में है जिसका अर्थ-व्यागर, कृषि और गो-पासन द्वारा जीवन-निर्वाह करना ये वैश्यों के समय है।
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* नीतिवाक्यामृत
१२७
-Intername
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...
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भगवजिनसेनाचार्य ने कहा है कि तीर्थरों-श्रादिकी पूजा करना, विशुद्ध कृत्तिस खेती, पशुपालन भोर व्याशर द्वारा जीविका करना, पान्नदान, शास्त्र-स्वाध्याय, सदाचार-अहिंसा, सत्य, अघीय, प्रा. पर्य और परिप्रह-परिमाण तथा तपश्चर्या करना ये वेश्योंक कर्तव्य उपासकाध्ययन के आधारमे निर्दिष्ट किये गये हैं।
पैश्योंका कर्तव्य कृषि, व्यापार और पशुपालन द्वारा जीवन निर्वाह करना है ।।
शुका विद्वान्ने भी कहा है कि ऋपि-खेती, गो-रक्षा, निष्कपट भावसे ईश्वरको पूजा करना भापि तथा बन्न चाँटनेके स्थान-सदावत आदि बनवाना एवं अन्य पुण्यकाय-बानशालाई संस्थापित करना ये वैश्योंक कत्तव्य कहे गये हैं ॥११॥
निष्कर्ष:-येश्यों के उक्त फतव्योमें खेती, पशुपालन और व्यापार ये जीवन-निर्वाहमें उपयोगी है एवं अन्य नैतिक और धार्मिक समझने चाहिये ||६|| शुगोंके कत्तव्य:त्रिवर्णोपजीवनं कारकुशीलवकर्म पुण्यपुटवाहन च शूद्राणां" ॥१०॥
अर्थः-शूद्रोंका अपना धर्म-प्रामण, क्षत्रिय और वैश्योंको संवा शुभषा करना, शिल्पकला-चित्रकला आदि, गीत, नृत्य और वादिन-गाना, नाचना और बजाना भौर भाटपारण भादि का कार्य रना एवं भिलुकोंकी सेवा करना है ॥१०॥
पाराशर विद्वाम्ने भी कहा है कि प्रामण, क्षत्रिय और वैश्य इन सोनों वर्गों की सेवा-राणा, शिल्पकला, गाने, नाचने और बजाने से जीयिका करना भौर भिनुकोंकी सेवा करना एवं अन्य रान-पु. पवावि कार्य करना शुओंको विरुद्ध नहीं है ।।१॥
१ तपाच भगवविजनसेनाचार्य:हम्पा माता च दवि स्वाध्यायं संयम तपः । मुतोपाटकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुशादियत् ॥१॥ पेश्याच कृषियाणिन्यपशुपाल्योपजीविनः ।
धादिपुराबखे। २व्या शुकः
कृषिकर्म गवा रक्षा यज्ञा दम्भवजितम् । पुराणानि सर्वाणि रेश्मनिरुदाहृता ।।१॥
३ कारकुशीलवकर्म शकटोपधान RAEE पेक्षा पाठ R० और tren. प्रतिभा पलमान लिमका अर्थ:-भिनेकी सेवाके रपान में बैल-गाडीसे वोमा दोकर जीविका करना यह विशेषनाको खबर ।
. तया च शरायर:सर्वात्रमस्य शुम मा बीचबारवकर्म । मिच्या सेवन पुरुष सहावा न विश्वगते
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* नीतिवाक्यामृत
भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णोंकी सेवा-शुभवा करना और शिल्पकला - चित्रकला - श्रादिसे जीविका करना इत्यादि शूद्रोंकी जीविका अनेक प्रकार की निर्दिष्ट की गई है |
प्रशस्त - - उत्तम-शूका निरूपण:--
सकृद परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्राः || ११||
अर्थ:- जिनके यहाँ कन्याओं का एकबार ही विवाह होता है--पुनर्विवाह नहीं होता से सम्-प्रशस्त (उत्तम) शुद्र कहे गये हैं।
विमर्शः -- भगवजिनसेनाचार्य ने शूद्रोंके दो भेद किये हैं १ कारु २ अकारु । धोबी, नाई और चमार श्रदि कारू और उनसे भिन्न अकारु । कारु भो दोप्रकार के हैं १ दृश्य - स्पर्श करनेयोग्य और २ अ श्य-स्पर्श करने के योग्य । प्रजासे अलग रहने वाले चमार और भंगी आदि - अस्पृश्य और नाई are स्पृश्य कहे जाते हैं ।
यद्यपि उक्त भेदोंमें सत्-शूद्रोंका कहीं भी उल्लेख नहीं है, परन्तु श्रचार्यश्री का अभिप्राय यह है कि स्पृश्य- शूद्रों-नाई वगैरह में से जिनमें पुनर्विवाह नहीं होता उन्हे सत्-शूद्र समझना चाहिये । क्योंकि पिंडशुद्धि के कारण उनमें योग्यता अनुकूल धर्म धारण करनेकी पात्रता है ||११|| प्रशस्त राष्ट्रों में ईश्वरभक्ति - श्रादिकी पात्रता :
याचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः
करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् ॥१२॥
अर्थः- सदाचारका निर्दोष पालन - भद्यपान और माँस-भक्षणादिको त्यागकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य और परिप्रहपरिमाण इन पाँचों व्रतोंका एकदेश- श्रब्रव रूपसे - पालन करना, गृहके बर्तन और वस्त्रादिकों की शुद्धि-स्वच्छता और शारीरिक शुद्धि-अहिंसा आदि व्रतोंका पालनरूप प्रायश्वित विधि शरीरको विशुद्ध करना ये सद्गुण प्रशस्त शूद्रको भी ईश्वर भक्ति तथा द्विल--त्राह्मण और तपस्वि यी सेवा योग्य बना देते हैं।
निष्कर्ष::- उक्त ११वें सूत्रमें आचार्यश्रीने प्रश-वशूद्रका लक्षण -निर्देश किया था। १२ सूत्रद्वारा निर्देश करते हैं कि उनमें उक्त आचार-विशुद्ध और गृह के उकरणों की शुद्धि आदिका होना अनिवार्य है तभी वे ईश्वर, द्विजाति और तपस्थयों की सेवा के योग्य हो सकते हैं; अन्यथा नहीं । यह आचार्यश्री का अभिप्राय है ॥१२॥
१ तथा च भगवजिनसेनाचार्य:
शुभ पातद्बुद्धि का स्मृता ॥३॥ • श्रादिपर्व १६:
२ देवी आदिपुराण पर्व १६ या नीतिवाक्यामृत पृष्ठ ६५ यो
३ श्राचाराश्नवचत्वं शुचिकरस्वरः शरीरशुद्धि
ऐसा पाठ ० ० पुस्तक में है परन्तु
कति जानपि देव हमास उपस्थि परिकर्मसु बोम्पान् मेद कुछ नहीं है।
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* नीतिवाक्यामूस*
१२६
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Him नामके विद्वानने लिखा है कि मकानके वर्सनोंकी गुद्धि, प्राचारकी पवित्रता और
गुरु सात् शूद्रको भी देवादिकी सेवाके योग्य बना देते हैं ।।१।।" पारों कणों के समान धर्मका निर्देश:-- समपामाषित्वं परस्वनिवृत्तिरिच्छानियमः प्रतिलोमाविवाहो' निषिद्धासु च स्त्रीषु रवि सर्वेणी समानो धर्मः ॥ १३॥
समस्त प्राणियोंपर दया करना, सत्यभाषण, अचौर्य, इच्छाओंको रोकना, स्वजातिमें गोत्रको बहसबंध और परस्त्रियोंमें ब्रह्मचर्य-मातृ-भगिनी-भाव यह ब्रामण, क्षत्रिय, वैश्य और शव
का समान धर्म है ॥१३॥ र विदामने लिखा है कि 'समस्त प्राणियों में दयाका बर्ताव, सत्य बोलना, चोरीका
का नियम (रोकना), स्वजातिमें विवाह करना और परस्त्री सेवनका त्याग करना यह बाल करपाण करनेवाला समान धर्म है ॥शा' ने या विशेष धर्मका मिश:माहित्यावखोकनवत् धर्मः खलु सर्वसाधारणो विशेषानुष्ठान तु नियमः ॥१४॥ --पूर्वोक्त साधारण धर्म-अहिंसा, सत्य और भयौर्य-आदि-सूर्य के देखने की तरह समस्त गाव-जिसप्रकार सूर्य का दर्शन सभी योंके लोग करते हैं, इसीप्रकार उक्त धर्म भी सभी नयोको समान रूपसे पालन करना चाहिये, परन्तु प्रत्येक वर्षे और पाश्रमके विशेष कत्तव्य
OM.
निधान्ने लिखा है कि 'महर्षियोंने जिस वर्णके जो कर्तव्य निर्देश किये हैं उन्हें उस वर्णवा. मा चाहिये। केवल सर्वसाधारण धर्मका पालन करके ही सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये ।।
सामावि शुदानि व्यवहारः सुनिर्मक्षः । Pापक करोत्येव योग्यं देवादिए जने ||
माविलोम्याविया ऐसा पाठ मु०म० पुस्तकमें है परन्तु अर्थभेद कुछ नही है।
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रहा सलमचौर्य च नियमः स्वविवाहकम् ।
वन कार्य धर्म: सार्वः प्रकीर्तितः ॥१॥
नोट:- श्लोकके चतुर्थचरणमें 'घमः सर्वैः रितीरता पेसा मशुर पाट म. टी. पु.में । उसे क्यरचना करके संशोधित एवं परिवर्तित किया है। सम्पादक--
मारदःनईख यत् प्रक्रमनुष्ठान महर्षिभिः । पालवं विशेषोऽयं तुभ्यधर्मो न केवलं ।।।
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* नीतिवाक्यामृत
निष्कर्ष:-- श्रहिंसा और सत्य श्रादि साधारण धर्म सभी वर्णवाले पुरुषोंको पालन करना चाहिये, परन्तु विशेष धर्म में यह बात समझनी चाहिये कि शास्त्रकारोंने जिस वर्ण या जिस आश्रमके जो २ विशेष कर्त्तव्य बताये हैं वे कत्तंव्य उस वर्ण और को विशेष-पालने योग्य है, को नहीं ||१४||
साधुओं का कर्तव्य:
निजागमो मनुष्ठानं यतीनां स्वो धर्मः
||१५||
अर्थः- अपने शास्त्र - आचारशास्त्र में कड़े हुए कर्त्तव्यों का पालन करना मुनियोंका अपना ध है ।। १५ ।।
चारायण "विद्वान् ने लिखा है कि अपने आगम में कहे हुए कर्त्तव्यों का पालन करना साधुओंका धर्म कहा गया है, इससे भिन्न अधर्म है ||१|| कर्तव्यच्युत होनेपर साधुका कर्तव्य:
स्वधर्मव्यतिक्रमेण यतीनां स्वागमोक्तं प्रायश्चित्तम् ॥१६॥
अर्थ :- यदि मुनि लोग अपने कर्तव्यसे च्युत हों तो उन्हें अपने श्रागम - प्रायश्चित शास्त्र में कहा हुआ प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये ||१६||
श्रभीष्ट देव की प्रतिष्ठाका निर्देश:
यो यस्य देवस्य भवेच्छ्रद्धावान् स तं देव प्रतिष्ठापयेत् ॥१७॥
अर्थ :- जो मनुष्य जिस देवमें श्रद्धायुक्त है उसे उसकी प्रतिष्ठा-उपासना करनी चाहिये ।
बिमर्श: --- यथपि आराध्य देव के विषय में कही हुई उक्त बात राजनैतिक उदार दृष्टिकोण से अनुकूल होनेपर भी धर्म-नीति से कुछ असम्बद्ध- प्रदर्शनसे प्रतिकूल (विरुद्ध) प्रतीत होती है; क्योंकि इसमें भाराज्य – – देवके वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी आदि सद्गुणों की उपेक्षा की गई है। परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि आचार्यश्रीने भागे दिवसानुष्ठान समुद्देशके ६६ वें सत्र 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामू : पुरुषविशेषो देवः' में स्पष्टोकरण किया है, कि ऐसे पुरुषश्रेष्ठको देव- ईश्वर कहते हैं; जोकि समस्त प्रकार
१ तथा च चाराय
स्वागमोक्त मनुष्ठानं यत् स धर्मों निजः स्मृतः ।
लिङ्गिनामेव सर्वेषां योऽन्यः सोऽधर्मलक्षणः ॥१॥
२ 'धर्मव्यतिक्रमे यतीनां निजागमोक्रमेव प्रायमिचलन' देशा मु० सू० पुस्तक में पाठ है परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है।
३ यो यस्मिन् देवे श्रद्धां स खलु तं देवं प्रतिपत्' पेसा मु० ० और ६० लि० मू० प्रतियों में पाठ है तुर्थभेद कुछ नहीं ।
आचार्यश्रीने यह बात अपने राजनैतिक उदार दृष्टिकोण से कही है कि जिन का व्यक्ति जिस देवमें श्रद्धा रखता है उसे उसकी उपासना करनी चाहिये। ऐसा होनेसे उदार-युक्त राजा के द्वारा प्रजा वर्ग के किसी व्यक्तिको ठेस नहीं पहुंच सकती ।
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* नीतिवाक्यामृत *
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पररणादि दुःखोंसे, ज्ञानापरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धातिया माम उदयसे होने वाले राग, द्वष और मोह-आदि भाव कर्मोंसे एवं पापकर्मोकी काबार सर्षक तथा संसारको दुःख समुद्रसे उद्धार करने वाला हो।
लिखक सम्पू'में भी श्राचार्यश्रीने लिखा है कि प्राप्त ईश्वर के स्वरूपको जाननेमें प्रवीण .. कि को सर्वश, सर्व लोकका ईश्वर-संसारका दुःख समुद्रसे उद्धार करनेवाला-जुधा .. दोषोंसे रहित (वीतराग ) एवं समस्त प्राणियोंको मोक्षमार्गका प्रत्यक्ष उपदेश
ने सीकर प्रभुको सत्यार्थ 'ईश्वर' कहते है ॥१॥ -- मोरका सर्वह होना नितान्त आवश्यक है, क्योंकि यदि अश-मूर्ख-मोक्षमार्गका
पचनोंमें अनेक प्रकारके विरोध आदि दोष होंगे । इसलिये इससे भयभीत सज्जन सवालको खोज करते हैं एवं उसके द्वारा कहे हुए वचनोंको प्रमाण मानते हैं ॥२०॥
र प्रभु मोक्षोपयोगी तत्वदेशनासे संसारके प्राणियोंका दुःख-समुद्रसे उद्धार करता है; परकमलों में तीनों लोकोंके प्राणी नम्र होगा ३ वह सर्जन का ई बन्दी नहा।
पिपासा, भय, प, चिन्ता, अज्ञान, राग, जरा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, भी विषाद ये १८ दोष संसारके समस्त प्राणियोंमें समान निसे पाये जाते हैं, अतः इन १८ मिरचन-पापकर्मोकी कालिमासे रहित (विशुद्ध) और केवलज्ञानरूप नेत्रसे चुक्त ( सर्वज्ञ) काम होसकता है एवं वही द्वादशाङ्ग शास्त्रोंका वक्ता होसकता है ॥४-५-६।। उक्त असाधारण मादि-महाबीरपर्यन्त तीर्थकरोंमें वर्तमान हैं; अतएव आचार्यश्रीके उक्त प्रमाणोंसे हम इस
लोकेश सर्वदोषयिवर्जितम् । सहित प्राहुराप्तमाप्तमतोचिना; ॥१॥
मम्पग्पते कैश्चित्तदुक्त प्रतिपद्यते । महोपदेशकरणे विप्रलम्भनशक्तिभिः ॥२॥ मापदेशनादुःखबारुबरते जगत् ।
न सर्वतोकेयः प्राहीभूतजगत्त्रयः ।।३।।
पामा मयं दोपश्चिन्तन मूदतागमः । महोबा वा मृत्युः क्रोधः वेदो मदो रतिः ॥
स्सियो जनन निद्रा विषादोऽष्टादश भुवाः । विगतमूताना दोषाः साधारणा हम II मिदोविनिमः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । स हेतुः पतीना केवलशानलोचनः ।।५।। पशास्तिक के सोमदेवरि-श्रा०६
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* नीतिवाक्यामृत *
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तथ्यपर पहुंचे हैं कि उक्त ऋषभदेवसे लेकर महावीरस्थामी पर्यन्त चतुर्विशति-२४ तीर्थरोंमें से जो मनुष्य जिम तीर्थकुरमें श्रद्धा रखता है उसे उसकी प्रतिष्ठा--भक्ति, पूजा या उपासना करनी चाहिये ऐसा प्राचार्यश्रीका अभिप्राय है ॥१७॥ पिना भक्तिके उपासना किये हुए देवसे हानि:
अभक्त्या पूजोपचारः सद्यः शापाय' ||१८|| अर्थः-प्रबाके बिना की हुई ईश्वर-भक्ति तत्काल अनिष्ट करनेवाली होती है।
भावार्थ-जिस प्रकार विना श्रद्धाके सेवन की हुई औषधि अरोग्यता न करके उल्टी बीमारीको बढ़ाती है, उसी प्रकार विना श्रद्धाके उपासना किया हुश्रा देष भी अनिष्ट कारक होता है। क्योंकि उसमे भसके मानसिक क्षेत्रमें विशुद्ध भावनाओंका बीजारोपण नहीं होता अत: उसे कोई लाभ नहीं होता || वर्ण-आश्रमके लोगोंके कर्तव्य ज्युस होनेपर उनकी शुद्धिका निर्देशः
वर्णाश्रमाणां स्वाचारप्रच्यवने" प्रयीतो विशुद्धिः॥१६॥ अर्थ:-जब प्राण-श्रादि वर्णो के तथा ब्रह्मचारी और गृही-आदि आश्रमों के मनुष्य अपने २ धर्मकर्तव्य से विचलित होने लगे तो उनको उपडे । बर्मशास्त्र--प्राचारशास्त्र-संबंधी प्रायश्चित्तविधान द्वारा अपनी विशुद्धि कर लेनी चाहिये ॥१६॥
राजा और प्रजाको त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम-की प्राप्तिका उपाय:
स्वधर्माऽसंकरः प्रजानां राजानं त्रिवर्गणोपसन्धत्ते ॥२०॥
अर्थ:-जिस राज्यमें अपने धर्मका संकर--एक वर्णवाले मनुष्योंके धर्ममें दूसरे वर्णवाले मनुष्यों के धर्मका मिश्रण ( मिलावट ) नहीं होता अर्थात् समस्त प्राणादि वर्णोके मनुष्य अपने २ धर्मका पालन स्वतन्त्र रीतिसे करते हैं, यहाँ राजा और प्रजाके लोग धर्म, अर्थ और काम पुरुषायोंसे अलकत होते हैं ॥२०॥ .
नारद' विद्वान्ने लिखा है कि 'जिसके राज्यमें प्रजाके धर्ममें वर्णसंकरता-क वर्णवाले कर्तव्यमें दूसरे वर्णवालेके कर्तव्योंकी मिलाक्ट नहीं है, उसको धर्म, अर्म और काम पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं ।।शा'
, प्रभाकतः पूजोपचारः सद्यः शापाय भवतिः ऐसा मु, म, प्रतिमें पाठ है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं । २ 'स्वाचारप्रयुती' ऐसा मु०म० पुस्तकमें पाठ है अर्थमेद कुछ नहीं। ३ स्वस्वधर्माऽसङ्करः प्रजा राजानं च त्रिवर्गुणोपसन्धते' ऐश। मु. म. पुस्तकमें पार है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं। सम्पादकतथा च नारदः :-- न भूयाद्यत्र देशे तु प्रजानां वर्णसंकरः। तत्र धर्मार्थकामं च भूपतेः सम्प्रजायते ||
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* नीतिवाक्यामृत *
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मयुत राजाकी कड़ी आलोचनाः
सकि राजा यो न रचति प्रजाः ॥२१॥ को अपनी प्रमाको रक्षा-पालन-नहीं करता, वह राजा निध है। मास विहान्ने भी लिखा है कि 'ओ राजा विषयभोगोंमें आसक्त होकर अपनी प्रजाका पालन
नहीं करता, वह राजा नहीं किन्तु कायर पुरुष है ॥१॥ निकाय:-राजाको अपनी प्रजाफी रक्षा भलीमा परनी चाहिये । ले ९ धर्मका उल्लंघन करनेवालोंके साथ राजाका कर्तव्यःधर्ममतिकामतां सर्वेषां पार्थिवो गुरुः ॥२२॥
यदि प्रामण-आदि वर्ण और ब्रह्मचारी-आदि आश्रमके सर लोग अपने २ धर्मका उल्लेपन स समय उनको रोकने के लिये राजा ही समर्थ होता है ।।२२।। विज्ञामने लिखा है कि 'जिस प्रकार महावत उन्मत्त हाथीको अंकुशकी शक्तिसे उन्मार्गपर नेता है उसी प्रकार राजा भी लोगोंको उन्मार्गपर जानेसे रोक लेता है-२४ शक्तिमे उन्हें पर मारूद कर देता है ॥शा प्रजाका पालन करनेवाले राजाका धार्मिक लाम--
परिपालको हि राजा सर्वेषां धर्मषष्टांशमवाप्नोति ॥२३॥
-जो राजा समस्त वर्णाश्रम-धर्मकी रक्षा करता है वह उस धमेके छठे भागके फलको वा ॥॥
'विद्वान्ने लिखा है कि जो राजा समस्त वर्णाश्रम-धर्मकी रक्षा करता है-जुम ना होनेसे - उस धर्म के छठवें अंशके फलको निरमंदेह मान होता है ।।१।।'
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तवा म्यासा:१. योमरामा प्रजाः सम्यामोगासक्तः प्ररक्षति । : राजा नैव रामा स्यात् स र कापुरुषः स्मृतः ॥१॥
या समगुः:- . म यया नाम महामन्तो निचारयेत् । मागेण मगच्छन्तं तच्चैव जन पः ॥३॥ परिपालको वि राजा सवा धर्माशा बहाशमाप्नोति साम, म. स्नक में पाट है, परम्नु अर्थ-भेद
नहीं। सदाय मनुः :
पोभमाया यो धर्म नश्यन्तं च प्ररक्षति । । तस्य श्मस्वस प्राप्मोति न संशयः ॥1॥
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१३४
* नीतिवाक्यामृत *
अन्यमतोंके तपस्वियों द्वारा राजाका सम्मानः
यदाह वैवस्वतो मनुः 'उञ्छषड्भागप्रदानेन वनस्था अपि तपस्विनो राजानं सम्भावयन्ति । २४॥
तस्यैव तद्भूयात् यस्तान् गोपायति' इति । २५॥ अर्थ:-वैवस्वतमनु* हिन्दू-धर्मका शास्त्रकार-ने कहा है कि वनवासी तपस्वी लोग भी जो कि स्वामीरहित एवं निर्जन पर्षस-प्रादि प्रदेशोंमें बर्तमान धान्यादिके कणोंसे अपना जीवन-निर्वाह करते हैं, राजा को अपने द्वारा संचित धान्य-कणोंका छठवाँ भाग देकर अपने द्वारा किये हुए तपके छठवें भागसे उसकी उन्नतिकी कामना करते हैं, एवं अपनी क्रियाके अनुदान के समय यह संकल्प करते हैं कि 'जो राजा तपस्वि. योंकी रक्षा करता है उसको हो हमारे द्वारा आचरण किया हुआ तप या उसका फूल प्राप्त होवे।
भावार्थ:-वैष्णव सम्प्रदायके तपस्वी गण भी न्यायवान राजाकी उन्नतिके इच्छुक होते है। जिसके फलस्वरूप वे स्वसंचित धान्य कणोंका छठवां हिस्सा राजाको देकर संकल्प करते हैं कि जिसकी छत्रछाया में हम लोगोंका संरक्षण होता है उसे हमारी तपश्चर्याका फल प्राप्त हो ।।२४-२५॥ कौन बस्तु इष्ट है ? और कौन अनिष्ट है ? इसका निर्णय:
__ तदमंगलमपि नामंगलं यत्रास्यात्मनो भक्तिः ॥२६॥
अर्थ:-जिस पदार्थमें जिसे प्रेम होता है, वह अनिष्ट-अमालीक (अशुभ) होनेपर भी इसके लिये इप-मंगलीक है।
___ भावार्थ:-उदाहरशमें लूला-काणा ब्यक्ति कार्गके प्रारम्भमें अमङ्गलीक समझा जाता है, परन्तु जो उससे प्रेम रखता है वह उसके लिये इष्ट ही है।
भागुरि विद्वान्ने भी कहा है कि 'जो पदार्थ जिसके लिये प्रिय है वह अप्रिय होने पर भी यदि उस के कार्य के प्रारम्भमें प्राप्त होजावे, वो इष्ट समझा जाता है, क्योंकि उससे उसके कार्यकी सिद्धि हो जाती है ।शा
निष्कर्ष-जो पवार्थ जिसके मनको प्रमुदित-हर्षित या संतुष्ट करते हैं वे उसके लिये मासीक हैं ॥२६॥ मनुष्यों के कर्तब्यका निर्देशः
संन्यस्ताग्निपरिग्रहानुपासीत ॥२७॥
। 'पदाह वैवस्वतो मनुः' यह पाठ सं० टी० पुस्तकमें नहीं है, किन्तु मु• और भूः प्रतियोंसे समान किया गया है।
नोट:-हिन्दू-धर्मकी मान्यताके अनुसार १४ मन होते हैं उनमें से चा वैरत्वव मनु " जिसका प्राचार्यभीमे उल्लेख किया है। सम्पावकः
, तपाच भागरिः
पद्यल्प वल्लभ वस्तु तन्वेदमे प्रयास्यति । कृत्यारम्मेष तस्य सुनिम्यमपि सिरिदम् ।।
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* मीधिवाक्यामृत
१५
MAnitoriuminountrian Barahinarani.+Prem
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मनुष्वको साधु महात्माओं एवं विद्वान् गृहस्थाचार्योकी उपासना-सेवा करनी चाहिये । भार:-साधु महात्मा और विधान गृहस्थाचार्य बड़े सदाचारी, स्वार्थस्यागी और बहुश्रुत विद्वा।। प्रववव इनकी सेवा-भक्ति-से मनुष्य गुणवान् एवं पारत्रिक कल्याणका पात्र होजाता है ॥२७॥
सामदेव 'विद्वाम्ने शिस्खा है कि मनुष्य जिसप्रकारके पुरुषों के वचनोंको सुनता है और जैसों की
संपति करता है, वैसी ही प्रवृत्ति करने लग जाता है, अतएव नैतिक मनुष्यको साधु पुरुषोंकी भरली पाहिये ।
र मनुष्यका कर्तव्यः
स्नात्वा प्रान्देवोपासनान कंचन स्पृशेत् ॥२८॥ मी.-मनुष्यको स्नान करके ईश्वर भक्ति करनी चाहिये, उसके पहले उसे किसी अस्पृश्य-न
स्तुका स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥२८॥ - विद्वानने लिखा है कि मनुष्यको स्नान करने के पश्चात् इश्वर भक्ति और अग्निमें हवन करना पाल यक्षा शक्ति पान देकर भोजन करना चाहिये ।।१।।' मदिरमें क्या करना चाहिये ? उसका वियरण:---
देचागारे गतः सर्वान् यतीनास्मसम्बन्धिनीर्जरती:पश्यत् ॥२६।।
--मनुष्योंको मन्दिर में जाकर ईश्वरभक्तिके पश्चात् समस्त साधुजनों और योवृद्ध कुलको बायोग्य नमस्कार करना चाहिये ॥२६॥ र वारीत विहामने कहा है कि मनुष्य मन्दिर में प्रविष्ट होकर उसमें वर्तमान साधुओंको तथा
बोको भक्ति पूर्वक नमस्कार करे ॥१॥ पूर्वोक्त सिखाम्सका समर्थन करनेवाली दृष्टान्तमाला:-- .1 तार स्तमदेव:
परमाणां शृणोत्या याक्षारयाव सेवते ।
धारो .भमत्यस्तस्मात् साधन समाश्रयेत् ।। १ तथा च वर्ग:--
लावा त्वम्पर्धयेद् देवान् वैश्वानरमतः परं ।
हो वान यथाशक्त्या दवा भोजममाचरेत् ।।१।। Pा पारीत:
स्वायतने व गत्या सर्वान् पश्येत् स्वभक्तिः । " सत्रामिवान् यतीन् पश्चात्ततो वृद्धाः कुलस्त्रियः ।।३।।
.. नोट- पद्म-रलोक-का प्रथम चरण अशुद्ध या शत: 'चायतन च गया इसप्रकार संशोधित रामबारे। सम्पादक:
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* नीतिवाक्यामृत *
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देवाकारोपेतः पाषाणोऽपि नावमन्येत तत्किं पुनर्मनुष्यः १ राजशासनस्य मृत्तिकायामिव लिंगिषु को नाम विचारो यतः स्वयं मलिनो खलः प्रवर्धयत्येव धीर धेनूनां, न खलु परंपामाचारः स्वस्य पुण्यमारभते किन्तु मनोविशुद्धिः ॥३०॥
अर्थः-ईश्वरके आकारको प्राप्त हुआ पाषाण-प्रतिष्ठित देवमूति - भी जब तिरस्कार करने योग्य नहीं है तो क्या मनुष्य तिरस्कार करने योग्य है ? अर्थात् नहीं है।
भावार्थ:-जिस प्रकार प्रतिष्ठित देवमूर्तिकी भक्ति की जाती है उसी प्रकार नैतिक मनुष्यको गणो पुरुषोंकी यथा योग्य विनय-सेवा-शुश्रुषा करनी चाहिये।
राजाकी मिट्टीकी मूर्तिके समान नैतिक मनुष्यको साधुजनोंके वेशमें विचार नहीं करना चाहियेउनके वाह मलिन वेषपर दृष्टि नहीं डालनी चाहिये-ध्यान नहीं देना चाहिये।
भावार्थ:-जिस प्रकार राजाकी मूर्ति में मिट्टी और मलिनता-पादिका विचार न करके प्रजाजनोंको उसकी आज्ञाका पालन अनिवार्य और मोवश्यक है, उसी प्रकार नैतिक और धार्मिक व्यक्सिको साध महापुरुषोंके वाब मलिन वेषपर विचार न करके उनके त्याग, तपश्चयो, सदाचार और पहुश्रत विचा श्रादि सद्गुणोंसे लाभ उठाना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि तिली आदिका खल मलिन–काला होनेपर भी गायोंको खिलाये जानेपर उनके दूधकी वृद्धि करता है, उसी प्रकार राजाका शासन
आज्ञा-मलिन-कठोर होनेके कारण राजसिक भाषोंसे युक्त होनेपर भी वर्णाश्रम धर्मकी मर्यादाका स्थापनरूप विशुद्ध कार्यको उत्पन्न करता है। इसी प्रकार साधुका मलिन बाझ वेष भी मानसिक विशुद्धिका कारण होनेसे पुण्य कार्यको उत्पन्न करता है-प्रसन्न मनसे उपासना किये गये साधुजन भी हमारे पुण्यकी वृद्धि करनेमें समर्थ होते हैं।
क्योंकि दूसरोंका आचार-बाल साफ-सुथरा रहन-सहन आदि-हमारे पुण्यको उत्पस नहीं करता किन्तु मानसिक विशुद्धिसे वास्तविक शुक्ल पुण्यका अंध होता है ॥३०॥
आक्षण, क्षत्रिय, वणिक और कृषकोंकी प्रकृति-स्वभाव का क्रमशः निरूपण:दानादिप्रकृतिः प्रायेण ब्रामणानाम् ॥३१॥ बलात्कारस्वभावः क्षत्रियाणाम् ॥३२॥ निसर्गतः शाट्य किरातानाम् ॥३३॥ ऋजुवक्रशीलता सहजा कृषीवलानाम् ३४॥
१उन मन्त्र मु०म० पुस्तकसे संकलन किया गया है, संकटी पुस्तकों तथा गर्न लायरी पनाकी .. लि. म० प्रतिमें 'दीना हि प्रकृतिः प्रायेय ब्राह्मणानाम् ऐसा पाठ है जिसका अर्थ:--निश्चयसे प्रायः करके--अधिकता सेबामणोका स्वभाष दीन-सीधा-साधा (अल-कपट-आदिसे रहित ) होता है।
२ 'किरातकानाम् ' ऐसा पाठ मु. मा. प्रतिमें वर्तमान है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं है। स्मोकि कीर्यो. धनानि एभिस्ते किरताः। त एवं 'किरातका विणिजइत्यर्थ: । अर्थात् जो व्यापार-श्रादि उपायोसे पन-संचय करते हो उन वणिजनोंको 'किरात' कहते है। सम्पादक:
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* नीतिवाक्यामृत
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मार्गदर मौका स्वभाषा फरके की अपेक्षा करना, ईश्वर- श्रादिकी पूजन करना और मात्रिका होता है। अथवा दान --शुद्धि, दया और दाक्षिण्य आदि करनेका होता है।
1 )♠♠♠--
'दान' शब्द 'देप शोधने' धातुसे निष्पन्न होनेके कारण शुद्धिको तथा दानार्थक 'दर' होनेसे दान को भी कहता है; अतः उक्त दोनों अर्थ होते हैं ||३१|| या स्वभाव दूसरों पर बलात्कार करनेका होता है ||३२||
दकिकी प्रकृति स्वभावसे छल-कपट करनेकी होती है ||३३|| नपा के सरलता और कुटिलता स्वाभाविक ही होती है ॥३४॥ -शान्तिका उपाय:
दानावसान: कोपो ब्राह्मणानाम् ||३३||
काकोध दानपर्यन्त रहता है-दान मिलनेसे शान्त होजाता है । - माँगी हुई वस्तुके मिल जानेपर ब्राह्मणोंका क्रोध नष्ट हो जाता है ||३५||
विज्ञानने लिखा है कि 'जिसप्रकार सूर्यके उदय होनेपर रात्रिका समस्त अंधेरा तत्काल नष्ट सीमकार लोभी वाझणका क्रोध भी दान मिल जानेसे शांत हो जाता है ॥१॥
- शान्तिका उपायः -
प्रथमासान: कोपो गुरूणाम् ||३६||
गुरुजनोंका कोष प्रणाम करने पर्यन्त रहता है, परन्तु प्रयोग करनेके पश्चात् नष्ट होजाता
को शान्तिका उपायः —
प्रायादसानः कोप: क्षत्रियाणाम् ||३७||
विद्वान्ने लिखा है कि 'जिसप्रकार दुडके माथ किया हुआ उपकार नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार प्रयाम करनेसे नष्ट होजाता है ।।१।।'
क्रोध-शांतिका उपाय:
प्रियवचनावसानः कोषो वणिग्जनानाम् ||३६||
-क्षत्रियोका कोध मरण पर्यन्त - चिरकाल तक रहता है। अथवा उनका क्रोध प्राणीको होता है।
- क्योंकि क्षत्रिय जिस मनुष्षपर क्रुद्ध होजाता है तो वह उसके मारणहरण किये बिना
॥
वाक्यात टी० पृष्ठ ३१ ।
तथाच गर्गः - दुर्जने सुकृतं यत्कृतं याति च संज्ञयं । तद्वत् कोनो गुरु वामन प्रणश्यति॥१॥ निधिकः कोनो वाणिजिकानाम्' ऐसा ० ० पुस्तक राठ है, पर अर्थ मेद कुछ नहीं ।
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१३८
* नीतिवाक्यामृत है
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अर्थ:--वणि कोका क्रोध प्रियभाषण पर्यात होता है-ये लोग मीठे बचनों द्वारा क्रोधको त्यागकर संतुष्ट होजाते हैं।॥३॥
गर्ग' विद्वानने लिखा है कि जिसप्रकार इष्ट वस्तुके वियोगसे उत्पन्न हुआ दुःख उसके मिल जानेपर नष्ट होजाता है, उसीप्रकार पणिोंका क्रोध उनसे मीठे वचन बोलनेसं नष्ट होजाता है ॥१॥ वैश्योंकी क्रोध-शान्तिका पाय:
वैश्यानां समुद्धारकप्रदानेन कोपोपशमः ॥३६॥ अर्थः-जमींदार वैश्योंका क्रोध उनका कर्जा चुका देनेसे शांत हो जाता है ॥३५॥
भृगु विद्वान्ने लिखा है कि यदि जमींदारके पिताका भी वैरी हो, जो कि उसे कुपित कर रहा हो परन्तु यदि यह उसके कर्जाको चुका देता है तो वह शांत होजाता है ।।१।। वणिकोंकी श्री-वृद्धिका उपायः
निश्चलैः परिचितश्च सह व्यवहारो वणिजां निधिः ॥४०॥ - अर्थ:---वैश्य लोग उन्हीं के साथ कर्जा देने का व्यवहार करते हैं, जिनके पास मकान और खेत आदि होते हैं और जो एक जगह स्थायी रीतिसे रहते हैं एवं जिनकी आमदनी और खर्च-मादिसे परिचित होते हैं। ऐसा करनेसे-विश्वस्तोंको कर्जा देनेसे-भविष्यमें कोई खतरा (धन बनेकी शंका ) नहीं रहता किन्तु उनसे उन्हें प्रचुर धन मिलता है ॥४०॥ नीच जातिके मनुष्योंको वश करनेका उपाय:
दण्डभयोपघिभिवंशीकरणं नीच जात्यानाम् ॥४१॥ अर्थ:-नीच पुरुषोंका वशीकरणमंत्र दंडका भय ही है ॥४||
गर्ग विद्वान्ने लिखा है कि 'समस्त नीचजाति वालोंको अब तक इंसफा भय नहीं दिखाया जाता सब तक ये वशमें नहीं होते; अव एव उन्हें दण्डका भय दिखाना चाहिये ।।२।।
इति त्रयी-समुशः।
१ तथा च गर्ग:-यथा प्रियेण रटेन नश्यति प्याधिवियोगजः | प्रियाज्ञापेन तद्वइणिजो नश्यति पुर) २ 'उद्धार प्रदान कोपोपशमो वैश्यानाम्' इस प्रकार म. म. पुस्तक में पाठ है, परन्तु अर्थभेद कुछ नी । ३ तया च भूगु:-अपि चेत् पैत्रिको वैरो विश कोपं प्रजायते । उधारकालाभेन निःशेषो विलयं व्रजेत् ।।१।।
४ "विश्वस्तैः सह व्यवहारो पणजो निषिः' ऐसा सै० टोका पुस्तक में पाठ है, परन्तु उन पाठ मु. मू. प्रतिने संकलन किया गया है, अर्थभेद कुछ नहीं।
५ 'दण्डभयोधि वशीकरणं नीचाना' ऐसा नु० म० पुस्तकमें पाट , परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं । ६ तथा च गर्ग:--सर्वेषां नीचजात्याना याचनो दर्शगन भयम् । नायनो वशमायान्ति दर्शनीयं ततो भयम् ॥१॥
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* नीतिवाक्यामृत *
Pleasemuner
-नार्ता माद्दशः म स्वरूप या वैश्योंकी जीविकाः--
कृषिः पशुपालने वणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् * ॥१॥ -ोती, पशुपालन और व्यापार करना यह वैश्योंकी जीविका-जीवन-निर्वाहका माधन है। समापार-भगवजिनसेनापार्य ने कहा है कि इतिहामके आदिकालमें भगवान् ऋषभदेव तीर्थसाधी सीवन रक्षाके लिये उसे असि-शस्त्र-धारण, मषि-लेखनकला, कृषि-ग्येती, विद्या, वामापार और शिल्पकला इन जीविकोपयोगी ६ माधनोंका उपदेश दिया था ||१|| क-क्त जीवन-निर्वाहक साधनों में में कृषि, पशुपालन और ध्यापार यह पैश्य-वर्णको
दिक साधनोंकी उन्नतिसे राजाको होनेवाला लाभ:
वार्तासमृद्धौ सर्वाः समृद्धयो गज्ञः ||२|| वर्ष-जिस राजाके राज्यमें वार्ता-कृषि, पशुपालन और व्यापार-श्रादि प्रजाके जीविकोपयोगी नों-की उमति होती है, यहाँपर उसे ममन विभूतियाँ ( हाथी-घोदे और सवर्ण-मादि) प्राण
बिहामने लिखा है कि 'जिस राजाके राज्यमें शरत और भीम ऋतुम खेतीकी फसल अच्छी और व्यापारको उन्नति होती है, उसे असंख्यात धर्म, अर्थ और भोगोपभोग प्राप्त होते हैं ॥१॥
सांसारिक मलोंके साधनः4 तस्य खलु संसारसुख पस्थ कृषिर्धेनवः शाकबाटः समन्युदपाने च ॥३॥
-बिस गृहस्थ के यहां खेतर, गाय-भैंसें, शाक-तरकारीके लिये मुन्दर बगीचा और मकानमें पानी से परिपूर्ण-भरा हा फुभा है उसे सांसारिक सुख प्राप्त होता है ||
विहानने लिखा है कि 'जिस गृहस्थ के यहाँ खेती, गाय-भैंसें, शाक-तरकारीको बगीपा और मीका हुआ है, इसे स्वर्गके सुखोंसे क्या लाभ ? कोई लाभ नहीं ॥१।'
इमिः पशुपालन गणिज्या पति यातामा पाट मु. म. प्रनिमें है उमका अर्थ है कि कपि, पशुपारम. स्पायर के प्रजाके जीवन-
निर्वाइके साधन है। अधिकिपिर्विद्या बागिन्य शिल्पमेव का। कोणीमान योदा स्युः प्रजाजीवनातवे |
आदिपुराणे भगवजिनमेनाचार्यः । मानसा मु मा प्रतिमें पाट है परन्तु एकवचन बहुवचनके सिवाय कोई अर्थ-मेव नहीं है। *बाशुका+षियं रशियाश्च यस्य स भवम्त्यमी । धमीर्षकामा म्पत्य नस्य सः संख्यया विमा.10 बार शुक:-कृषिगोशाकवाटारन जलाश्रयममन्त्रिता । हो यस्य भवन्स्येने वर्गलोकेन तस्य पिम् ||१||
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* नीतिवाक्यामृत
बेतीकी फसल के समय धान्य-संग्रह न करने वाले राजाकी हानि:
[ गावां
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विसाध्यराज्ञस्तत्रपोषणे नियोगिनामुत्सवो महान् कोशक्षयः ||all
अर्थः- जो राजा सैनिकोंके भरण-पोषण करनेके लिये खेतीकी फसलके मौकेपर धान्यादिका संग्रह नहीं करता, उसके राजकीय कर्मचारियों-मंत्री आदि को विशेष आनन्द होता है ये लोग धान्यारि खरीदकर उसे बहुत तेजभावका बताकर गोलमाली करके बहुत धन हड़प कर जाते है तथा राजाका विशाल खजाना नष्ट होजाता है ।
नारद' बिद्वानने लिया है कि 'जो राजा शरद और मीष्म ऋतु अनकी दोनों फसलोंके समय - सैना वगैरह के निर्वाह के लिये मन्त्रका संचय नहीं करता, किन्तु स्वा मोल खरीदता रहता है उसका खजाना नष्ट होजाता है गा
निष्कर्ष :- इसलिये नीतिज्ञ राजाको विशाल सेनाके भरण-पोषण के लिये फसल के मौकेपर धान्यका संग्रह कर लेना चाहिये ||४||
आमदनी के बिना केवळ सदा सर्व अवाले मनुष्यकी छात्र
free freeport मेरपि चीयते ||५||
सफा
अर्थ:- जो हमेशा संचित धन खर्च करता रहता है परन्तु नया धन बिल्कुल नहीं कमाता, विशाल भी खजाना धीरेर नष्ट होजाता है। खजाना तो दूर रहे परन्तु विशाल सुमेरु पर्वत में से भी हमेशा सुवर्ण निकाले जानेपर वह भी नष्ट हो जाता है फिर राज-कोशका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् वह तो निश्चित ही नष्ट होजाता है ||५||
शुक्र विज्ञानने किया है कि 'जिस मनुष्यको चार मुद्राओं रुपयोंकी दैनिक आमदनी है और साढ़े पाँच मुद्राओंका खर्च है, वह धन-कुवेर होनेपर भी दरिद्रताको प्राप्त होता है ||११|
धान्य-संग्रह न करके अधिक व्यय करनेवाले राजाकी हानि :---
रात्र सदैव दुर्भिक्षं यत्र राजा विसाधयति || ६ ||
अर्थः-- जो राजा अपने राज्यमें धान्यसंग्रह नहीं करता और अधिक व्यय करता है, उसके यहाँ सदा अकाल रहा करता है। क्योंकि उसे अपनी विशालसेना के भरण-पोषण करनेके लिये अधिक की आवश्यकता हुआ करती है; इसलिये जब वह राज्यमेंसे धान्य खरीद लेता है, तब उसकी प्रजाको अकाल का दुःख भोगना पड़ता है।
1 तथा च नारदः :- श्री शरदि यो नान्यं संगृह्णाति महीपतिः । नित्यं मूल्येन गृक्रांति तस्य कोशक्षयो भवत् ॥१॥ २ तथा व शुक्र :- श्रागमे यस्व चवारि निर्गम सापंचमः । स दरिद्रत्वमाप्नोति वियोगी स्वयं यदि ॥3॥
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ॐ नीतिवाक्यामृत *
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मारद' विधान्ने लिखा है कि जिस देशमें राजा अकाल पड़नेपर अपने खजानेकी सम्पत्तिसे सरीषकर मजाको देता है, तब उसकी प्रजा अकाल के दुःखसे पीड़ित नहीं होती ॥१॥ निष्कर्ष:-इसलिये नीतिमान् राजाको अधिक धान्य-संग्रह करना चाहिये ।।६।। राबाको धनकी लालसा होनेसे हानिः
समुद्रस्य पिपासायां कुतो जगति जलानि ? ॥७॥ भर-समुद्रको प्यासे रहनेपर संसारमें जल किस प्रकार पाये जासकते हैं ? नहीं पाये जासकते ।
भाषा-शास्त्रों में उल्लेख है कि लवण समुद्र में गंगा और सिंधु आदि नदिए अपनी १४ हजार सावक वियों समेत प्रवेश करती हैं, ऐसी विशाल जल-राशिके होनेपर भी यदि समुद्र प्यासा रहे, तो
संसारमें जल ही नहीं रह सकते; क्योंकि समुद्रकी प्यासको दूर करनेके लिये इससे अधिक जलसोही पाई नहीं जाती। उसी प्रकार राजा भी यदि प्रचुर धन-राशिकी लालसा रखता हो-प्रजासे सकले भागसे भी अधिक कर ( टेक्स) लेनेकी लालसा रखता हो-तो फिर राष्ट्रमें सम्पत्ति किस भारदसती हैं। नहीं रह सकतो।
विमर्श:-अधिक टेक्स बदानेसे समस्त राष्ट्र दरिद्र होकर नष्ट-भ्रष्ट होजाता है। अतएव न्यायराणाको उचित रही प्रजासे नेना चाहिये जिससे राष्ट्रकी श्रीवृद्धि होती रहे ॥७॥
विद्वान्ने लिखा है कि जो राजा प्रजाकी आमदनीके ६ठे हिस्से भी अधिक कर (टेक्स) र प्रजासे धम महण की लालसा रखता है उसका देश नष्ट हो जाता है और पश्चात् उसका राज्य 'जावा ॥१॥
बादि की सा न करनेसे हानिःस्वयं बीवधनमपश्यतो महती हानिर्मनस्तापश्च क्षुत्पिपासाऽप्रतिकारात् पाएं च* ॥८॥
गाय-मैस-यादि जीविकोपयोगी धनकी देख-रेख न करने वाले पुरुषको महान् आर्थिक-तति नि उठानी पाती है एवं उनके मर जानेसे उसे अधिक मानसिक पीड़ा होती है तथा उन्हें भूखे-प्यासे ... महान् पाप-बंध होता है। अथवा राजनीतिके प्रकरण में गाय-भैंस आदि जीवन निर्वाहमें उप
सम्पतिकी रक्षा न करने वाले राजाको बढ़ी आर्थिक पति-धनकी हानि-उठानी पड़ती है एवं उन समका -साविध होने-मरजानेसे उसको मानसिक कष्ट होता है। क्योंकि गो-धनके भभाष से राष्ट्री उपि चौर व्यापार आदि जीविका नष्टप्राय होजाती है । जिसके फलस्वरूप प्रजाकी चासोर करने के उपाय-कृषि व्यापार-आदि नष्ट होजानेसे तसे महान् पाप-बंध होता है।
-
हा
नारवः:-दुर्भिक्षेऽपि समुत्पन्ने पत्र राजा प्रयच्छति । निजाण निजं सस्यं तदा कोको म यीपते ॥१६॥ पुर:-पहभागाम्मधिको दरडो यस्य राशः प्रतुष्टये । तस्य राष्ट्र चर्य याति राज्यं च तदनन्तरम् ॥१॥
प्रतीकात् पापं चेति' ऐसा मु. मू और १० कि० म० प्रतियोंमें पाठ है परन्तु अर्थमेद
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BOORAnd
* नीतिवाक्यामृत *
[वार्ता
शुक्र' विद्वानने कहा है कि 'जो मनुष्य गाय-भैंस आदि पशुओं की सँभाल- देख-रेख नहीं करता उसका वह गोधन नष्ट हो जाता है--अकालमें मृत्युके मुखमें प्रविष्ट होजाता है, जिससे उसे महान पाप-यंत्र होता है ||१||
निष्कर्ष – 5- राजाका कर्तव्य है कि वह राष्ट्रके जीवन-निर्वाहके साधन - कृषि और व्यापारोपयोगी गोधनकी सदा रक्षा करे ||८||
वृद्ध-वाल-व्याधित-क्षीणान् पशून् बान्धवानिष पोषयेत् ॥ ६ ॥
अर्थः- मनुष्यको अनाथ, माता-पिता से रहित, रोगी और कमजोर पशुओं की अपने धुनों की तरह रक्षा करनी चाहिये ॥६॥
कास' विद्वानने लिखा है कि 'जो दयालु मनुष्य अनाथ, माता-पिता से रहित, या लूले लंगड़े दोन व भूखसे पीड़ित पशुओं की रक्षा करता है, वह चिरकाल तक स्वर्गके सुखोंको भोगता है ॥१॥ पशुओं के अकाल मरणका कारण:
अतिभारो महान् मार्गश्च पशूनामका ले मरणकारणम् ॥ १८ ॥
अर्थः- अधिक बोझ लादनेसे और अधिक मार्ग चलानेसे पशु की अकाल मृत्यु हो जाती है ||१२|| हात विद्वान्ने लिखा है कि 'पशुओं के ऊपर अधिक बोझ लादना और ज्यादा दूर चलाना उनकी मौत का कारण हैं इसलिये उनके ऊपर योग्य वोमा लादना चाहिये और उन्हें थोड़ा मार्ग चलाना हिये ||१||
जिन कारणों में दूसरे देशोंसे माल माना बन्द हो जाता है:
शुल्कवृद्धिर्वलात् परयग्रहणं च देशान्तरभाण्डानामप्रवेशे हेतुः ||११||
अर्थः- जिस राज्य में दूसरे देशकी चीजों पर ज्यादा कर — टेक्स लगाया जाता हो तथा जहाँ के राज-कर्मचारीगण जबर्दस्ती थोड़ा मूल्य देकर व्यापारियोंसे वस्तुएँ छीन लेते हों, उस राज्यमें अन्य देशों माल आना बन्द हो जाता है ||११||
शुक्र विद्वानने लिखा है कि 'जहाँपर राजकर्मचारी वस्तुओं पर ट्रैक्स बढ़ाते हों और व्यापारियों के धनका नाश करते हों, उस देशमें व्यापारी लोग अपना माल बेचना बैंड फर देते हैं ||१||
उफ बातका दृष्टान्तद्वारा समर्थन:
काठपात्र्यामेकदेव पदार्थो रभ्यते ||१२||
१ तथाच शुक्रः - चतुष्वादिकं स स्वयं यो न पश्यति । तस्य तथाचमभ्येति ततः पापमवाप्नुयात् ॥॥॥॥ २ तथा व्यासः - अनाथान् विकलाइ दीनान् परीतान् पशूनपि । दयावान् पोषयेयस्तु स स्वर्गे मोदनं चिरम् ॥१॥ ३ तथा च हारीत:--प्रतिभारो महान् मार्गः पशूनां मृत्युकारणे । तस्मादभावेन मार्गेणापि प्रयोजयेत् ॥१॥ २ नाच शुक्रः--यत्र ग्रहन्त शल्कानि पुरुष भूपयोजिताः | अर्थानं न कुर्वन्ति तत्र नायाति क्रिया ॥१॥
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* नीतिवाफ्यामृत
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अकड़ीको हाँडीमें एक ही बार पदार्थ पकाया जासकता है दूसरी बार नहीं; क्योंकि फिर
भावार्थ:-सीप्रकार जिस राज्यमें दूसरे देशको वस्तुओंपर अधिक टैक्स लगाया जाता हो और भवाने थोड़ा मूल्य देकर लूट-मार करते हों, उसमें फिर दूसरे देशोसे माल नहीं पासकता ॥२॥
विद्वानने लिखा है कि जिस राज्यमें टेक्स बदाया जाता है और मूल्य घटा दिया जाता है, स्तुवनेषाने वणिक-जन स्वप्नमें भी प्रवेश नहीं करते ।।शा' Isस स्वाममें बाणिज्य--इयापार नष्ट होजाता है उसका यणेनः
तुलामानयोरव्यवस्था व्यवहार दूपयति ॥१३॥ जिस राज्यमें तराज, तोलने के बाँट ( गुञ्जादि) और नापनेके पात्र--द्रोणादि-योषित नही रखे जाते-जहाँपर वणिक जन इससे यस्तु खरीदने के लिये अपनी तराजू और बाँटोंको और ऐसे समय लोहे करते हैं, घडाँपर निष्प गयोमा व्यवहार—रखीवना-बेचना-नत्र होजाता है।
भावार्थ:-जहाँपर व्यापारीगण स्परीदत-बेचते समय अपने तराजू और पाँटों वगैरहको बड़ा बनते हैं, वहाँपर प्रजाको कष्ट होता है, इसलिये राजाको उनकी पूर्ण निगरानी रखनी चाहिये ॥१शा व विद्वान्ने लिम्या है कि 'जिस राज्यमें तराजू और तोलने नापनेके बॉट च-छोटे रकाये जाते पर व्यापार नहीं होता ||१|| भापारियों द्वारा मूल्य बढाकर संचित किये हुए धनसे प्रजाकी हानिः
___ बचिजनकृतोऽर्थः स्थितानागन्तुकाश्य पीड़यति ॥१४॥ -जिसके राज्यमें व्यापारी-गण वस्तुओं-पम-वस्त्रादिका मूल्य स्वेच्छापूर्वक बढ़ाकर करते हैं, इससे यहाँको प्रजाको और बाहरसे आये हुए लोगोंको कष्ट होता है-दरिद्र होजानेसे
भावार्थ:-जहाँपर व्यापारी लोग मन-माना मूल्य बढ़ाकर वस्तुओको बेचते हैं और कमसे कम खरीदते हैं, यहाँकी जनता दरिद्र होजाती है, अतएव राजाको इसकी ठीक व्यवस्था करनी शा ' विज्ञामने कहा है कि व्यापारियों द्वारा मूल्य बढ़ाकर संचित किया हुआ और राज
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यांच शुरू-शुरुकदिवे अत्र वलान्यं निपात्यते । स्यप्नेऽपि तत्र न स्थाने प्रविशेद् भाण्डविक्रयी ॥१॥ मनन वर्ग:-गुरुरूप च लघुत्न च तुलामानसमुद्भवम् । द्विप्रकार भवेद्यत्र पाणिज्यं तत्र नो भवेत् ॥७॥
'पिजमहतोऽर्थः' इत्यादि मु. मू० प्रतिमें पाट है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है तथापि या पाट • पाठसे उत्तम है क्योंकि इसने निस्सन्देद सीधा अर्थ-वस्तुश्चोका मध्य निकल पाता है। या हात:-णिजनकृतो योगाऽनुज्ञातश्च नियोगिभिः ।भूपर प पीयेत् मोऽन तत्स्थानागभानामि ।।१!!
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नीविषाक्यामृत
[ समुश
कर्मचारियों द्वारा रिश्वतमें इकट्ठा किया हुआ धन वहाँकी जनता और वाहरसे आयेहुए लोगोंको निर्धनदरिद्र बना देता है ।।शा बस्तुओंका मूल्य निर्धारित करनेके विषय में
देश-काल-भांडापेक्षया या सर्वार्षो भवेत् ॥१५॥ अर्थ:-समस्त वस्तुओं अन्न, वस्त्र और सुवर्ण-आदि पदार्थों का मूल्य देश, काल और पानेमानकी पोशार होगः नाहिये
भावार्थ:-जो राजा यह जानता है कि मेरे राज्यमें या अमुक देशमें प्रमुफ षस्तु उत्पन्न हुई है ? या नहीं ? इसे 'देशापेक्षा' कहते हैं । एवं इस समय दूसरे देशोंसे हमारे देशमें अमुक वस्तु प्रविष्ट हो सकती है अथवा नहीं ? इसे 'कालापेक्षा कहते हैं। राजाका कर्तव्य है कि वह उक्त देश-कालादिकी अपेक्षाका झान करके समस्त वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करे, जिससे व्यापारी लोग मन-चाहा मूल्य बढ़ाकर प्रजाको निधन-दरिद्र न बना सकें ॥१० व्यापारियोंके छल-कपटपूर्ण व्यवहार में राजाका कर्सन्यः
• पण्यतुलामानवृद्धौ राजा स्वयं जागृयात् ।।१६।।
अर्थः-राजाको उन व्यापारियोंकी जाँच-पड़ताल करनी चाहिये, जो कि बहुमल्यवाली वस्तुओंमें अल्प मूल्यथाली वस्तुओं की मिलावट करते हों, दोप्रकारकी तराजुएं रखते हों तथा नापने-तोलनेके बाँटों श्रादि (प्रस्थ और गुञ्जादि ) में कमी-वेशी करते हों।।
शुक्र चिद्वानने लिखा है कि 'यणिक लोग बहुमल्यवाली वस्तुमें अल्पमूल्यवाली वस्तुकी मिजावट करके दो प्रकारकी वराजुएं रखकर तथा नापने-तोलनेके आँटों आदिमें कमी-अशी करके भोले भाले मनुष्यों को ठगते रहते हैं । अतएव राजाको उनकी देख-रेख-जांच पड़ताल करनी चाहिये ॥१॥
निष्कर्षः-राजाको व्यापारियोंके द्वारा किये जानेषाले छल-कपट-पूर्ण व्यवहारों-बेचने या खरी पनेकी वस्तुओंको विविध उपार्योसे कमती-बढ़ती देना आदि के संशोधन करनेमें सदा सावधान रहना पाहिये जिससे प्रजाको कष्ट न हो ॥१६।। राजाको वणिक लोगोंसे सावधान न रहनेसे हानिः
न पणिग्भ्यः सन्ति परे पश्यतोहराः ॥१७॥ अर्थः-वणिक लोगोंको छोड़कर दूसरे कोई प्रत्यक्ष चोर नहीं हैं।
भावार्थ:-वास्तविक चोर तो पीठ-पीछे चोरी करते हैं, परन्तु वणिक लोग लोगों के सामने नापनेतोलनेके गज और बाटोंमें कमी-वेशी करके और बहुमूल्यवाली वस्तुमें अल्पमूल्यषाली वस्तुकी मिलावट करके ग्राहकोंको ठगते हैं; इसलिये प्राचार्यश्रीने उन्हें प्रत्यक्षचौर' कहा है, अतएव राजाको उनकी कड़ी निगरानी रखनी चाहिये ॥१७॥
१ उक्त पाठ मु म पुस्तकसे संकलन किया गया है; क्योंकि सं० टी० पुस्तकमें दशकालभाडापेक्षया यो घाइयों भवेत्' ऐसा गट है जिसका अर्थ-समन्वय औक नहीं होता था। समादक:
२ तथा च शुक:-भाएइसंगासुलामानादीनाधिस्यावाणिग्जनाः । वंचयन्ति अन मुन्ध तद्धि शेयं महीभुजा ॥३॥
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bibillion
tfsareanमृत
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विद्वानने लिखा है कि 'वणिक लोग नापने - तोलने के बाटोंमें गोलमाली करके, वस्तुओंका उदार और चतुराईसे विश्वास दिलाकर लोगों के धनका अपहरण करते रहते हैं, अतएव यं मध्य प्रत्यक्ष चोर कहे गये हैं ||१||
लोगों द्वारा परस्परकी ईर्षासे वस्तुओं का मूल्य बड़ा देने पर राजाका कर्तव्यः
स्पर्द्धया मूलवृद्धिर्भाएउंषु राज्ञो यथोचितं मूल्यं विक्र ेतुः ॥१८॥
-यदि व्यापारी लोग परस्परकी ईर्षा वश वस्तुओंका मूल्य बढ़ा देवें- अपनी वस्तुओं को अधिमासे बेचने लगे--उस समय राजाका कर्तव्य है कि वह उस बढ़ाये हुए मूल्बको व्यापारी वर्गसं और व्यापारियोंको केवल उचित मूल्य ही देवे ||१८||
मूल्य राजाका
विज्ञानमे लिखा है कि 'व्यापारी बर्गके द्वारा स्पर्द्धासे बढ़ाया हुआ वस्तुओंका और बेचनेवाले व्यापrist केवल उचित मूल्य ही मिलना चाहिये ||१|| नि बहुमूल्य वस्तुको अल्पमूल्य में खरीदनेवाले व्यापारीके प्रति राजाका कर्तव्यः — अल्पद्रव्येण महाभाण्डं गृहणतो मूल्याविनाशेन तद्भाएड राज्ञः ||१६|| यदि किसी व्यापारी वस्तु सुबर्ण आदि को धोखानेकर थोड़े मूल्य में "मी हो, तो राजाको खरीदने वाले की वह बहुमूल्य वस्तु जब्त कर लेनी चाहिये परन्तु बेचने वालेमल्पमूल्य जितना उसे खरीदारने दिया था दे देना चाहिये ||१६||
विद्वान भी उक्त बातका समर्थन करता है कि 'जब चोर या मूर्ख मनुष्योंने किसी व्यापारीको ..बस्तु - सुवर्ण आदि - अल्पमूल्य में बेंच दी हो, तो राजाको उसका पता लगाकर खरीदने वाले की मुल्य बस्तु जस्त कर लेनी चाहिये और बेचनेवालेको अल्पमूल्य दे देना चाहिये ||१|'
उपेक्षा करने से हानि: --
न्यायोपेक्षा सर्व विनाशयति ॥ २० ॥
पर्व : जो राजा राष्ट्र में होनेवाले अन्यायोंकी उपेक्षा करता है - अन्याय करनेवाले चोर आदिको दंड नहीं देता उसका समस्त राज्य नष्ट होजाता है ||२||
विज्ञाने लिखा है कि 'जिस देशमें राजा क्षमा-धारण करके सन्याय करनेवालोंका निग्रह - नहीं करता उसका वंश-परंपरा से प्राप्त हुआ भी राज्य न होजाता है ॥१॥"
भदेवः मानेन किचिन्मूल्येन किंचितलवाऽपि किमित्यापि किचित् ।
किचि किच गृहीतुकामाः प्रत्यक्षचौरा वणिजो नराणाम् ॥१॥
स्वयं' या निहित मूल्य भारहस्याप्यधिकं च यत् । मूल्यं भवति तद्वाशोचितुमानम् ॥ १ ॥ - ई० टी० पृ० ६६ ।
शुकः अभ्यायाम् भूमियो यत्र न विषेश्वतम। तस्य राज्यं च याति व िस्यात् क्रमानम् ॥ २ ॥
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वार्वास मुद्देश ।
400000. In
I+HI14
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राष्ट्रके शत्रुओका निर्देश करते हैं:
___ चौर-चरट-मप-धमन-राजवल्लभाटविकतलारावशालिकनियोगिग्रामकटवाई षिका हि राष्टस्य कण्टकाः' ॥२१॥
अर्थः-चोर, देशसे घर किाले मारी, खेतोको कान पौरहकी नाप करनेवाले, व्यापारियोंकी वस्तुका मूल्य निश्चय करनेवाजे, राजाके प्रेमपात्र, जंगल में रहनेवाले मील वगैरह या जंगलकी रक्षामें नियुक्त किये गये अधिकारी, स्थानकी रक्षामें नियुक्त किये गये कोहपाल या पुलिस वगैरह, जुभारी या सेनापति, राज्यके अधिकारी वर्ग, पटवारी, बलवान् पुरुष तथा प्रम-संग्रह करके अकाल दुर्मिज्ञकी कामना करने वाले व्यापारी लोग ये राष्ट्र के कण्टक-शत्रु हैं।
भावार्थः-चोर प्रजाका धनादि अपहरण करनेके कारण तथा अन्य लोग रिश्वत वगैरह लेकर या मौका पाकर बगावत करनेके कारण एवं अन्न संग्रह करके अकाल चाहनेवाले व्यापारी भी प्रजा को पीड़ित करनेसे राज्यके कण्टक-शत्रु कहे गये हैं ; क्योंकि ये लोग साम, दान, दण्ड और भेद
आदि उपायों से राष्ट्र में उपद्रव करते हैं; अतएव राजाको इनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये-यथासमय उनकी देख-रेख रखनी चाहिये और इनको अपराधानुकूल दंड देते रहना चाहिये ।। २१ ॥
गुरु विद्वान्ने लिखा है कि जो राजा चोर वगैरहको प्रत्यक्ष देख लेने पर भी उनसे अपने देशकी रक्षा नहीं करवा--उनका निप्रह करके अपनी प्रजा की रक्षा नहीं करता उसका कुल-परम्परासे चला आया राज्य भी नष्ट होजाता है ॥१॥ जिसप्रकारके राजाके होनेपर राष्ट्र-कण्टक नहीं होसे:
प्रतापवति राशि निष्ठुरे सति न भवन्ति राष्ट्रकण्टकाः' ॥२२॥ अर्थ:-जिस देशमें राजा प्रतापी (पुण्यशाली, राजनीसिविद्यामें कुशल और तेजस्वी) तथा कठोर शासन करनेवाला होता है, उसके राज्यमें राष्ट्रकपटक-प्रजाको पीड़ित करनेवाले अन्यायी पौर वगैरह नहीं होते ॥२२॥ १ 'चौर-पाटाऽन्वयधमन-रानवल्लभाविक-तलार-किराताक्षशालिक-नियोगि-ग्रामकूट-बादुषिका हिराष्टकण्टका: इस प्रकारका पाठ मु. म. और भाएडारकर रिसर्च गवर्न० लापये पूनाकी .. लि. दो प्रतियों में वर्तमान है। इसका भर्य:-चोर, गुजपूत-जो नानाप्रकारकी वैर-भूषा और भाषा श्रादि के द्वारा अपने को गुप्त रखकर देय, नगर, प्राम और गादि में प्रविष्ट शेकर वहाँ के गुप्त-वतान्त को राजा के लिये निवेदन करते हो,
अन्वर-धमन--4 को फोति-गान करनेवाले चारण गैरस, राजा के मेम-पात्र, पाटविक-जंगलोंकी रखाके लिये नियुक्त किये हुए अधिकारी गण, तसार-छोटेर स्थानों में नियुक्त किये हुए अधिकारी, भील, कुमारी, मंत्री और अमात्य-मादि अधिकारीगण, मामट-पटवारी बोर अन्नका संग्रह करनेवाले व्यापारी ये " व्यकि राष्ट के कण्टकसौ-कांटों के समान राष्ट्र में उपद्रव करने वाले है। २ तथा च गुरु:-चौरादिक्रेभ्यो भ्यो यो न राष्ट्र प्ररक्षति | तस्य तन्नाशमायाति यदि स्यापितृपैसकम् ॥ ३-'मतापयति कण्टकशोधनाधिकरवाशे राशि न प्रभवम्ति' ऐसा मुऔर पूनाको इ० लि० मूल प्रतियोंमें पाठ है
निसका अर्थ यह है कि पूर्वोक चोर वगैरह राष्ट्र एक-एता और कएटको प्रयापी और माततायियोंनिग्रह करनेके उरायोको जाननेवाले राजाके होनेपर नहीं होते।
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नीतिवाक्यामृत
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मास विद्वानने लिखा है कि 'जिस देशमें राजा राजनीति-विद्या में निपुण और विशेष प्रतापी उसका वह देश चोर आदि अभ्याथियों द्वारा पीड़ित नहीं किया जाता ||१' द्वारा देश में अकाल पैदा करनेवाले व्यापारियों से हानि:
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अन्यायवृद्धितो घालू पिकास्तंत्र' देशं च नाशयन्ति ॥ २३ ॥
- पूर्वोक्त राष्ट्र-कष्टों में से अनका संग्रह करके दुर्भिक्ष - अकाल-पैदा करनेवाले व्यापारी अथायी वृद्धि करते हैं, इससे वे राष्ट्रके समस्त तंत्र- व्यवहार या चतुष्पद-आदि (गायपशुओं आदि) तथा समस्त देशको नष्ट कर देते हैं।
विद्वान् भी उक्त बातका समर्थन करता है कि 'जिस देशमें वार्द्ध पिक अन्न संग्रह द्वारा वि पैदा करनेवाले व्यापारी लोग अनीति से अधिक संख्या में बढ़ जाते हैं, वह देश नष्ट हो
बांके गाय-भैंस आदि पशुओं की भी विशेष क्षति - हानि होती है ॥ १ ॥ ' .
मिष्कर्ष::- अतः राजाको ऐसे अन्याथियोंकी कदापि उपेक्षा नहीं करनी चाहिये जिससे वे राष्ट्र में न कर सकें ॥ २३ ॥
-संग्रह द्वारा राष्ट्र में अकाल पैदा करनेवाले व्यापारियोंका कड़ी आलोचना:
कार्यकार्ययोर्नास्ति दाक्षिण्य वार्द्ध पिकानाम् ॥ २४ ॥
बाषिकों-लोभवश राष्ट्रका श्रम मंग्रह करके दुर्भिक्ष पैदा करनेवाले व्यापारियों के कर्तव्य में लज्जा नहीं होती अथवा उनमें मरलता नहीं होती -- वे कुटिल प्रकृतिवाले होते हैं । श्रमावार्थ:- अम-संप्रहकर्ता व्यापारियोंके साथ यहि उपकार भी किया जावे - उन्हें इंडिस न (सा- तो भी वे कृतघ्नताके कारण लोभ-वश अपनी अन्न संग्रद्दकी प्रकृतिको नहीं छोड़ते । एवं यदि साम अपकार किया जावे- उन्हें दण्डित किया जावे तो भी वे निर्लज्ज होने के कारण अपनी अन कतिको नहीं छोड़ते ; अतएव राजाको उनकी कदापि उपेक्षा न करनी चाहिये- उन्हें इसतरह से करमा चाहिये ताकि भविष्य में ऐसा नीतिविरुद्ध कार्य न कर सकें ॥ २४ ॥
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हारीस विज्ञानूने भी उक्त बातकी पुष्टि की है कि 'अन-संग्रह द्वारा दुर्भित पैदा करनेवाले या जवाज लेनेवाले व्यापारियोंके साथ असंख्यातवार उपकार-अनुपकार भी किये जावें, तो भी वे सरल नहीं होते अर्थात् दण्डित न किये जाने पर कृतन और दण्डित किये जाने पर ये है ॥ १ ॥
म्यासः यथोक्रनीतिनिपुणो यत्र देशे भवेन्नरः । समतापो विशेषे चौराई नेस पडते ॥१ अन्याययो वा विकास्तं कोशं देशं विनाशयति' इस प्रकार सुत्र इ० लि० मू० प्रतियों में पाठ
अर्थ-भेद कुछ नहीं है।
[ बाद पिका देशं
नीत्या बुद्धिमाययुः । सर्वलोकक्षयस्तत्र तिरश्चां च विशेषतः ॥ १ ॥
- बाट प्रिकस्य दाक्षिएवं विद्यते न कथंचन । कृत्याकृत्यं तदर्थ च कृतैः संख्यविश्वजितैः ॥ १ ॥
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धातासमुद्देश।
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शरीर-रचार्थ मनुष्य-कर्तव्यः
अप्रियमप्यौषधं पीयते ॥ २५ ॥ अर्थ:-शारीरिक स्वास्थ्य-रक्षा के लिये विवेकी मनुष्योंके द्वारा करवी औषधि भी --फदवेक्वाथ(काई) आदि भी पीजातो है, पुनः मीठो औषधिके बारेमें सो फहना ही क्या है ? अर्थात् बह वो अवश्य सेवन की आती है। . भावार्थ:-शिष्ट-पुरुष जिस प्रकार लोकमैं अपने शारीरिक स्वास्थ्य-तन्दुरुसोके लिये कड़कों भौषधिका भी सेवन करते है.मीप्रकार उन्हें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अनसिके लिये एवं ऐहिक तथा पारलौकिक सुख-प्राप्तिके लिये धर्म, अर्थ और काम इन सोनों पुरुषार्थोका अनुहान परस्पर की बाधा-रहित करना चाहिये ।। २५॥
मीतिकार षादीभसिंह सूरि' ने भी कहा है कि यदि धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोका परस्पर की बाधारहित सेवन किया जाय तो उससे मनुष्योंको वाधारहित सुखकी प्राप्ति होती है और ऋमसे मोक्षसुख भी प्राप्त होता है ।।१।।
मर्ग विद्वान्ने भी उक्त मान्यताका समर्थन किया है कि विद्वाम् मनुष्यको सुख-सम्पतिकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी औषधियोंकी तरह धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थका अनुष्ठान करना चाहिये। पूर्वोक्त सिद्धान्तका समर्थन:--
___ अहिदष्टा सामाजिरपि दिया।
अर्थः-वह अंगुलि भी जिसमें सर्पके द्वारा उसी काटी-जानेसे जहर चंद गया है, शेष शरीरको रक्षाके लिये काउ दीजाती है। .
भावार्थ:-जिसप्रकार विरैली अंगुलि काट वेनेसे शरीर स्वस्थ रहता है, उसीप्रकार अनुचित तृष्णा-जिससे राजदंद-आदिका खतरा हो ऐसा लोभ-त्याग से ही शरीर स्वस्थ और मन निश्चित रहता है ॥२६॥
किसी विद्वान् नीतिकार ने भी कहा है कि 'पुद्धिमान पुरुषों को शरीरकी रक्षाके लिये वृष्णासालम--- नहीं करनी चाहिये । क्योंकि शरीर के विद्यमान रहनेपर धन प्राप्त होता है, परन्तु अन्यायका धन क्रमानेसे शरीर स्थिर नहीं रहता-राजय भाषिके कारण नष्ठ होजाता है ॥११॥
इति भाता-समुहश:
। 'नामयमान्यौषधं यते' इसप्रकार मुख मा प्रतिमें अशुद्ध घाट है, मालूम पड़सा है कि लैग्नकको असमानीसे ऐसा हुआ है, इसीसे अर्थ समन्वय टीक नहीं होता । यदि इसके स्थानमें 'श्रामयेनाप्यौषधं पीयते। ऐसा पाठ होता, तो अर्थसमन्वय व्याकरण और सं. टी० पुस्तकके अनुकूल होसकता या कि रोगी द्वारा भी तरह की कड़की
और मोटी-मौषधि पाजाती है। सम्पादक:२ तथा व वादीमसिंह सहि:-परस्परविरोधेन त्रियो यदि सेदयते । अनर्गलमतः सौम्यमवयनुक्रमात् ॥१ ३ तथा च पर्ग:-धर्मार्थकामपर्वश्च भववि विपि । यथा सौख्यार्षिक पश्येतथा कार्य विपश्चिता ॥१॥ ७ तथा परिचनोतिकार: शरीराथें म तृष्णा व कया विश्वगः । शारीरेण समा विस सभ्यते मदनभने।"
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* नीतिवाक्यामृत
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६ दण्डनीति-समझेश । में माहात्म्य * चिकित्सागम इन दोपविशद्धिहेतुदण्डः ॥ १ ॥
निसमकार आयुर्वेद-शास्त्रके अनफूल औषधि सेवनसे रोगीके समस्त विश्वत दोष-वात, मादिका विकार एवं उससे होनेवाले बुखारभालगण्डादि समस्त रोग-विशुद्ध-शाम्त (नष्ट)
सीप्रकार अपराधियोंको दंड देनेसे उनके समस्त अपराध विशुद्ध नष्ट होजाते हैं। रहा विवानने भी कहा है कि 'अपराधियोंको दंड देनेसे राष्ट्र विशुद्ध-अन्यायके प्रचारमे जाता है, परन्तु दंड-विधानके विना देशमें मास्यम्याय--पड़ी मछलीके द्वारा छोटी मछलीका
वनमाम् व्यक्तियों द्वारा निर्वलोका सताया जाना-श्रादि भम्यायका प्रचार)की प्रचि हाने सगती है ॥१॥ म:-समस्त राजतंत्र-राज्यशासन-दंडनीतिके आश्रयसे संचालित होता है । इसका भकटक-प्रजापीक अन्यायो-माततायियों (दुधौ) को संशोधन-निग्रह करना है। प्रायः योग पंरके भयसे ही अपने ९ कर्तव्यों में प्रवृत्त और अकर्तव्यों से निवृत्त होते हैं। इससे प्रजामें मालपम्बायका प्रचार नहीं होपाता और इसके परिणामस्वरुप अमातराज्य-बादिकी प्राप्ति,
या संरक्षितको घृद्धि और वृद्धिंगत इष्ट पदार्थोको समुचित स्थानमें लगाना होता है। निक:-अतः राष्ट्रको प्रजा-कराटकोंसे सुरक्षित रखना, प्रजाको धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थीका की साधारहित पालन कराना, उसे कर्तव्यमें प्रवृत्त और अकर्शव्यसे निवृत्त करना, विशाल गान द्वारा समाप्त राज्यादि की प्राप्ति, प्राप्तकी रक्षा, रक्षितकी वृद्धि-प्रादि देखनीतिका प्रधान नीतिकार चाणक्य ने भी उक्त बातको स्वीकार किया है ।। १ ।।
रूपनिर्देरा:: पपादोष दयामायने दंडनीतिः ॥२॥ -अपराधीको उसके अपराध के अनुकूल दगा देना दण्डनीति है--जिस व्यक्तिने जैसा अफ
से उसके अनुकूल दण्ड देना वही दंडनीति है । उदाहरण में-जैसे जुर्माना योग्य अपराधीको रापानल अर्माना करना न्यायोचित दंडनीति है और इसके विपरीत काराबास-जेलखाने-की मन पायापयुक्ततोरण देर है इत्यादि।
पराधिधु यो दण्ड स राष्ट्रस्य विशुदये । विना येन न सन्देदो] मास्यो न्यायः प्रत्रतते ॥" करलोकका तीसरा चरण "विना येन च सन्देहो ऐसा सं. टी० पुस्तक में संकलित था जिसका अर्थ
ही होती थी, अतः इमगे उक्र संशोधन करके भर्थ-समन्वय किया है । सम्पादक:-- त्रिस्य अर्थशास्त्र दंदनीति प्रकरण ११ १२-९३ अ. मित्र ६-१४
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दण्डनीतिसमुद्देश।
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गुरु'विद्वान् ने कहा है कि 'राजाको स्मृतिशास्त्रमें निर्देश किये हुए के अनुसार अपराधियोंको जनके अपराधानुकूल बंडदेना चाहिये, जो राजा 'इलो न्यूनाधिक-मी-बहती देता है, बदनापराधियों के पारोंसे लिप्त होजाता है। अतः वह विशुद्ध नहीं होता ।। १॥
विशद-विमर्शः नीतिकार चाणक्य ने भी कहा है कि 'राजाका कर्तव्य है कि यह पुत्र और शत्रु को उनके अपराधके अनुकूल पक्षपात-रहित होकर दंड देवे। क्योंकि अपराधानुकूल-न्यायोचित देख ही इसलोक और परलोककी रक्षा करता है । पंसनीतिके आश्रयसे उसे प्रजाके धर्म, व्यवहार और चरित्रकी रक्षा करनी चाहिये । यद्यपि न्यायालय में न्यायाधीश-जज-के सामने मुकदमें में वादी और प्रतिवादी दोनों ही अपने २ पक्षको सच्चा कहते हैं एवं वकीलोंके द्वारा अपने २ पचको सत्य सिद्ध करने में प्रयत्न शील रहते हैं। परन्तु उनमें से सच्चा एक ही होता है। ऐसी अवस्थामें दोनों पक्षोंको ठीक २ निर्णय करने वाले निम्न लिखित हेतु हो सकते हैं।
१ दृष्टदोष-जिसके अपराधको देख लिया गया हो, २ स्वयंवाद--जो स्वयं अपने अपराधको स्वीकार कर लेवे, ३ सरलता पूर्वक न्यायोचित जिरह, ४ कारणोंका उपस्थित कर देना । ५ शपथकसम दिलाना । उक्त पापों हेतु यथावश्यक अर्थके साधक हैं अर्थात् अपराधीके अपराधको समर्थन करने वाने हैं। वादी-प्रतिषादियोंके परस्पर विरुख कथनका यदि उक्त हेतुओं से निर्णय न होसके तो साक्षियों और खुफिया पुसिसके द्वारा इसका अनुसन्धान कर अपराधीका निश्चय करना चाहिये।
निष्कर्षः-उक्त प्रबल युक्तियों द्वारा अपराधियोंके अपराधका निर्णय करके यथादोष दंडविधान करनेसे राष्ट्रकी सुरक्षा होती है, अतःअपराधानुरूप दंड विधानको 'दंडनीति' कहा गया है ।।२।। पंज-विधानका उद्देश्यः
प्रजापालनाय राज्ञा दंडः प्रणीयते न धनार्थम् ॥३॥ मर्थ:-राजाके द्वारा प्रजाको रक्षा करने के लिये अपराधियोंको दंविधान किया जाता है, धन प्राप्तिके लिये नहीं।
, तथा ५ गुरु:स्मृयुक्तवचनैर्दण्ड होनाधिक्यं प्रपातयन् । अपराधकपनि लिप्यते न विशुद्धयति । । । २ तथा च चाणक्यःदण्डो हि केवलो लोकं पर चेमं च. रक्षति । राशा पुग्ने च शत्रौ च ययादोषं समं धृतः ।। १॥ अनुशासादि धर्मेण व्यवहारेण संस्थया। न्यायेन च चतुर्थेन चतुरस्ता मही जयेत् ॥ शा परदोषः स्वयंवा स्वपक्षपरपक्षयोः। अनयोगार्जन इतः शपथवार्थसाधका ॥ पूर्वोत्तरार्थव्याघाते साक्षिवातम्यकारये। चारहस्ताच्च निष्याते प्रदेष्टव्यः पराजयः ॥ ४ ॥
कौटिलीय अर्थशास्त्र धर्मस्थानीय तृ• अधि०
।।
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नीतिवाक्यामृत
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गुरु 'विद्वामने भी कहा है कि 'जो राजा धनके लोभसे हीनाधिक-फमती-बढ़ती-जुर्माना करता सके राज्यकी वृद्धि नहीं होती और इसके परिणामस्वरूप उसका राज्य नष्ट होजाता है ॥१॥'
निक:-राजाको प्रजा-कएटकों-दुओं से राष्ट्र को सुरक्षित रखनेके लिये अपराधियोंको सोसवेना चाहिये, धनादिके लोभसे नहीं ॥३॥ जय विद्रान्वेषी वैप और राजाकी कड़ी आलोचना
सकिं राजा वैद्यो वा य: स्वजीवनाय प्रजासु दोषमन्वेषयति ॥४॥ वर्ष-जो राजा अपने निर्वाहके लिये प्रजाजोंमें दोषों-अपराधों का अन्वेषण करता है-धनके नये साधारण अपराधोंमें भी अधिक जुर्माना-आदि करता है, वह राजा नहीं किन्तु प्रजाका शत्र है।
प अपने निर्वाहके लिये जनताके रोगोंका अन्वेषण करता है-रोगोंको बढ़ाने पौषधियों देता है-वह वैध नहीं किन्तु शत्रु है ॥४॥
* नाम विद्वानने लिखा है कि 'जो राजा दूसरोंके कहने से प्रजाको दण्ड देता है उसका सपनाह होजाता है, इसलिये उसको सोच-समझ कर दंड देना चाहिये ॥१॥
राजाको सैनिक शक्तिका संगठन प्रजामें अपराधोंका अन्वेषण करने के अभिप्राय से नहीं करना SE बोंकि ऐसा करनेसे प्रजा उससे असन्तुष्ट होकर शत्रुता करने लगती है और इसके
साप सका राज्य नष्ट होजाता है ॥२॥
के सारा बनाम–उपयोगमें न आने योग्य-धनः-- 4 दंड-बूत-मृत-विस्मृत-चौर-पारदारिक-प्रजाविप्लवजानि द्रव्याणि न राजा स्वप.
अधः-राजाको अपराधियोंके जुर्मानेसे आए हुए, जुप्रामें जीते हुए,लडाईमें मारे हुए, नवी, वाताव रावा प्रादिमें मनुष्योंके द्वारा भूले हुए धनका और धोरोंके घनका नया पति-पुत्रादि अटुम्दीसे रहित सावित्रीका धन या रक्षकहीन कन्याका धन और गदर बगैरह के कारण जनताके द्वारा टेक मतोमा
उपमग महीं करना चाहिये।। " भावार्थ:-क्त प्रकारके धनको राजा स्वयं उपभोग न करे, परन्तु उसे लेकर उसका समाज और
पर युग-यो राजा धनशोमेन ीनाधिकारभियः । तस्य राष्ट्र जेम्नाशं न स्यात् परमवृद्धिमत् || ॥ एक-पो राजा परवाक्येन सजाड प्रयच्छति। तस्य राम:म माति तस्मामास्वा प्रदए येत् ।।
विदान्वेषणाशिनेन नृपस्तंभ न पोषयेत् । तस्य तम्नाशमन्येति तस्मात्य नारिता - सहस्सोक का नु जरा हमले संशोषित सयं परिवर्तित किया है। पोंकि संरी पुस्तक में अगर सलामा सम्पादक
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दण्डनीतिसमुद्देश |
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राष्ट्रकी रक्षा में उपयोग करे ||५||
शुक' नाम के विद्वान्ने लिखा है कि 'जो राजा चोर वगैरहके खोटे धनको अपने खजाने में जमा करता है उसका तमाम धन नष्ट होजाता है ||१||
अन्याय पूर्ण दडसे होनेवाली हानिका निर्देश:
दुष्प्रणीतो हि दंड: कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वविद्वेषं करोति ॥ ६ ॥
अर्थ :- जो राजा अज्ञानता पूर्वक काम और क्रोध के वशीभूत होकर दंडनीति शास्त्रकी मर्यादा -- अपराधके अनुकूल पात्रादिका विचार करके दंड देना- को उल्लंघन करके अनुचित ढंगसे दंड देता है उसमें समस्त प्रजाके लोग द्वेष करने लगते हैं । ६ ॥
अपराधियों को दंड विधान न करनेसे हानिः---
शुक्र" नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'जिसप्रकार खोटे मित्रकी संगति समस्त सदाचार नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार अन्याय युक्त दंडसे - अनुचित जुर्माना आदि करनेसे – मिला हुआ राजाका तमाम धन नष्ट होजाता है ||१|| इसलिये विवेकी राजाको काम, कोध, और अज्ञानसे दिये गये दंड द्वारा संचित पापपूर्ण धनका खोटे मिश्र की तरह त्यहा कर देना चाहिये ||२||
तो हि दण्डो मात्स्य न्यायम् त्यादयति, वलीवानल प्रसति इति मात्स्यन्यायः ॥ ७॥
अर्थः- यदि अपराधियों को दंड-प्रयोग सर्वथा रोक दिया जाय, तो प्रजामें मारयन्याय- बड़ी मछली के द्वारा छोटी मछलीका खाया जाना उत्पन्न हो जायगा । अर्थात जिसप्रकार बड़ी मछली छोटी मछलीको खाजाती है उसीप्रकार बलवान् पुरुष निर्वलोंको कष्ट पहुँचाने में तत्पर होजावेगा ।
भावार्थ:- इसलिये न्यायवान् राजाको अपराधके अनुकूल - न्याय युक्त-दंड देकर प्रजाकी श्रीवृद्धि करनी चाहिये ||७||
गुरु' विद्वानने लिखा है कि 'जो राजा पापयुक्त दंड देता है परन्तु दंड देने योग्य दुष्टों अपराधियोंको नहीं करता, उसके राज्यको प्रजा में मात्स्यन्यायका प्रभार होजाता है-सबल निर्जलको सतान लगता है और ऐसा होनेसे सर्वत्र अराजकता फैल जाता है ||१||
इति दंडनीति समुद्देशः ।
१ तथा च शुकः -- दुष्प्र होतानि च्याणि कोशे मिति यो नृपः । स याति धनं गृह्यगृहानिधिर्यथ। ११॥ २ तथा शुक्रः यथा कुमित्रसंगेन सर्व शोल विनश्यति । तथा पापोन मिश्रं नश्यति तद्धनं ।
चित्कामेन क्रोधेन किंचित्किचिच्च जाग्रतः । तस्माद्दूरेण मत्याज्यं पापवि कु. मित्रवत् ॥ २॥ ३ तथा गुरुः- दण्ड्यं यतिसमन्वितः । तस्य राष्ट्रोन सन्देश मात्स्य न्याय: प्रतिः॥१॥
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१० मंत्रि - समुद्द ेशः
- मंत्री आदिकी सलाह माननेवाले - राजाका निर्देश:
मंत्रि-पुरोहित- सेनापतीनां यो युक्तमुक्त' करांति स श्राहार्यबुद्धिः ॥ १ ॥
:- जो राजा मंत्री, पुरोहित और सेनापतिके कहे हुए धार्मिक एवं आर्थिक सिद्धान्तोंका पालन महायुद्ध-युक्त कहते हैं ।
- इसलिये राजाको अपने राज्य की श्रीवृद्धिके लिये उक्त तीनोंकी योग्य बात माननी
विद्वानने लिखा है कि 'जो राजा मंत्री, पुरोहित तथा सेनापतिके हितकारक वचनों को नहीं दुर्योधन (धृतराष्ट्रका बड़ा पुत्र ) राजाकी तरह नम्र होजाता है ||१||
माझबुद्धियुक्त प्रधानमंत्री आदिके हितकारक उपदेश (सलाह) को माननेवाले - होनेके लिये समर्थन: •
असुगन्धमपि सूत्रं कुसुमसंयोगात् किमारोहति देवशिरखि
पुष्पमाला श्राकारको प्राप्त हुए तंतु सुगन्धि-रहित होने पर भी पुष्पोंको संगति-संयोगताओंके सिर पर धारण नहीं किये जाते ? अवश्य किये जाते हैं। भावार्थ:- जिसप्रकार लोकमें निर्गन्ध तंतु भी पुष्पों के संयोगसे देवताओंके मस्तकपर धारण किये सरकार मूर्ख एवं असहाय राजा भो राजनीति विद्यामें निपुण और सुयोग्य मंत्रियों को अनुकू· ́
द्वारा अजेय होजाता है ।
- प्रायः राजाकी बुद्धि कामविलासके कारण नष्टप्राय और विभ्रम-युक्त होती है; अतरव विष यान, आसन और द्वैधीभाव आदि षाड्गुण्य-नीतिके प्रयोगमें गस्ती करने लगता है, यह मंत्री, पुरोहित और सेनापतिकी उचित सम्मतिको मान लेता है, तब यह ठीक रास्तेपर है और ऐसा होनेसे उसके राज्यको श्रीवृद्धि होती है ||२||
अन्तभदेव विज्ञानने लिखा है कि 'साधारण मनुष्य भी उत्तम पुरुषों की संगहिसे गौरव - महत्व ये हैं, जिसकार तंतु पुरुष-माता के संयोगले शिर पर धारण कर लिये जाते हैं ||१||' अम्बिका रटान्स द्वारा समर्थन: -
महद्भिः पुरुषः प्रतिष्ठितोऽश्मापि भवति देवः किं पुनर्मनुष्यः ||३||
-प्रचेवन और प्रतिमाको आकृति युक्त पाषाण भी विद्वानोंके द्वारा प्रतिष्ठित होनेसे देव हो -देवकी तरह पूजा जाता है । तब 'सचेतन पुरुषका महापुरुषोंकी संगति से उन्नत हो जाना' इसे क्या है ? अर्थात् श्रवश्य उन्नत होजाता है ॥३॥
यो राजा मंत्रियां न करोति हितं वचः । स शीघ्रं नाशमायाति यथा दुर्योधनो नृः ||१|| देवन्तमानां प्रस ेन लघवो यान्ति गौरवं । पुनमाजाप्रत न सूत्र शिरसि धार्यते ॥ १n
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मन्त्रि-ममुरेश
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हारीत विद्वानने लिया है कि 'उनम पुरुषों में स्थापित या प्रतिष्ठित पाषाण भी देव होजाता है, सब क्या उनकी मंगतिसे मनुष्य उत्तम नहीं होसकता ? अवश्य होसकता है ।।१।
निष्कर्ष:-इसलिये राजाको या सर्व साधारण मनुष्योंको महापुरुषोंकी बात माननी चाहिये ॥३|| मुक्त सिद्धान्तका ऐतिहासिक प्रमाण द्वारा समर्थन:
तथा चानुश्रयत विष्णुगुमानुग्रहादनधिकृतोऽपि किल चन्द्रगुप्तः साम्राज्यपदमवारेति ॥४॥
अर्थ:-इतिहास बताना है कि चन्द्रगुप्त मौर्य (मम्राट् नादका पुत्र) ने स्वयं राज्यका अधिकारी न होने पर भी विष्णुगुन-चाणिक्य नामके विद्वानके अनुमहसे साम्राज्य पदको प्राप्त किया * ||४||
शुभनामके विद्वानने लिखा है कि जो राजा राजनीतिमें निपुण महामात्य-प्रधान मंत्री-की नियुक्ति करनेमें किसी प्रकारका विकल्प नहीं करता, वह अकेला होनेपर भी राज्यश्रोको पाम करता है। जिमकार चन्द गुन सोरी में प्रोले होने वो समय मापके विद्वान् महामात्यको सहायतासे राज्यभीको प्राप्त किया था ॥१॥' प्रधान मंत्री सद्गुणोंका निर्देश:
.---. --.. -... -. .------ १ तथा च हारीत:--पाषाणोऽपि च विवुध: समापितो यः प्रजायने । उत्तमैः पुषस्तैस्तु कि म त्या मानुषोऽपरः ॥३॥
* इतिहास बताता है कि ३२२ ई.पू. में नन्द वंशका राजा महापद्मनन्द मगधका सम्माद था | नन्दवंश के राजा अत्याचारी शासक थे, इसलिये उनकी प्रजा उनसे श्रप्रसन्न होगई और अन्त में विषागुम-चाणक्य नाम ब्राह्मण विद्वान्की सहायतासे गुम यश के अन्तिम गाजाको उसके सेनापति चन्द्रगुप्त मौर्यने १२२ ई. पू. में गद्दी मे उतार दिया और स्वयं राजा बन बैठा। मेगास्थनीज नामक यूनानी राजदूतने जो कि चन्द्रगुप्तके दरवार में रहता था, चन्द्रगुप्तके शासन प्रयस्थ की बड़ी प्रशंसा की है। इसने २५ वर्ष पर्यन्त नीतिन्यायपूर्वक राज्य शासन किया। कयामरितसागर में भी लिखा । कि नन्द राजा के पास बE करोड़ सुवर्ण मुद्राएं, थी । अतएव इसका नाम ननंद था। इसी नंदको मरवा कर चाणक्यने चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध की राजगद्दी पर बैठाया । किन्तु इतने विशाल साम्राज्य के अधिपति की मृम्युके बाद मरलनासे उक्त माम्राज्यको हस्तगत करना जरा देई वीर थी। नंदके मंत्री राक्षस-यादि उसकी मृत्यु के बाद उसके बशजोको राजमवी पर बिठा कर मगध साम्राज्यको उमी बंगमें रखने की चेष्टा करते रहे । इन मंत्रियोंने चायक्य तथा चन्द्रगतिकी मिलित शक्तिका विरोध बट्टी हटुतामे किया । कवि विशाखदत्त मुद्राराक्षमम लिखते हैं कि शक,यवन, कम्बोज व पारमीक श्रादि जाति के राजा चमगुप्त और पर्वतश्वरको सहायता कर रहे थे। करीब ५-६ वर्षों तक चन्द्रगुप्तको नन्दवंशके मंत्रियों ने पाटलिपुत्र में प्रवेश नहीं करने दिया, किन्तु विष्णुगुप्त-चाणक्य (कौटिल्य) की कुटिल नीति के सामने इन्हें सिर मुकांना पहा । अन्तम बिजयी चन्द्रगुप्तने चाणक्य की सहायतासे नन्दवंशका मूलोच्छेद करके सुगांगप्रासादमें बड़े सामागेह के साथ प्रवेश किया।
निष्कर्ष:-चाणक्यने विपकन्या के प्रयोगये नंदोंको मरवाकर अपनी प्राज्ञाके अनुसार चलनेवाले चत्रगुप्त मौर्यको मगधमान्तके साम्राज्य पद पर आसीन किया। इसका पूर्ण व साम पाटकों को कात्रि विशाखदत्तके, मुबाराबसमे तथा अन्य कथासरितमागर श्रादि प्रमथ से जान लेना चाहिये । विस्तारके भयसे अधिक नहीं लिखना चाहते।
२ तथा शुक्र:-महामाश्य यये राजा निर्विकल्प करोति यः । एकशोऽपिमही लेमे दीनोमि दलो यथा ॥5॥
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नौतिषाक्यामृत
प्रामसत्रियविशामेकतम स्वदेशजमाचाराभिजनविशुद्धमव्यमनिनमयभिचारिणमधीता महारत्रमस्त्रहमशेषोपाधिविशुद्ध च मंत्रिय छवीत ॥५॥
बुद्धिमान् गजा था प्रजाको निम्नप्रकारके गणोंसे विभूषित प्रधान मंत्री नियुक्त करना दिन-बामण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णोमें से एक हो किन्तु शूद्र न हो, अपने देश आर्यावर्भ यी हो, किन्तु विदेशका रहनेवाला न हो, सदाचारी अर्थात् दुष्कर्मों में प्रवृत्ति करनेवाला न हो पीत्र प्रापरणवाला हो । जो कुलीन हो--जिमके माता और पिताका पज्ञ (वंश) विशुद्ध हो (जो कि
मन वर्णवाने माता पितास रत्पन्न हो)। जो जुआ खलना, मद्यपान करना और पास्त्रीसेवन समासेदर हो।जो टोह करनेवाला नहो-जो दसरे राजासे मिला हश्रा न होकर केवल अपने मायुक्त हो । व्यवहार विद्यामें निपुण-नीतिज्ञ ( जिसने समस्त व्यवहार शास्त्रों-नीतिशास्त्रों
अध्ययन किया हो)। युद्ध विद्यामें निपुण तथा शत्रु-चष्ट्राकी परीक्षामें निपुण हो अथवा प्रबारके छल-कपदसे रहित हो अर्थात दूसरेके कपटको जाननेवाला होने पर भी स्वयं कपट करने
भावार्थ:-
राल मंत्री दिल, योगरमाही मदानारी, कुलीर, व्यसनोंसे रहित, म्वामीमे करनेवाला, नीतिम, युद्ध-विधा-विशारद और निष्कपट, इन नौ प्रकारके गुणोंसे विभूषित होना
मी उसके राज्यको चन्द्रवत् उन्नति (वृद्धि) होसकती है अन्यथा नहीं ॥५॥ मात्र गुणों में से 'स्वदेशवासी' गुणका समर्थन:म. समस्तपक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान् ॥६॥
समस्त पक्षपातोंमें अपने देशका पक्षपात प्रधान माना गया है। ही' नामके विद्वानने लिखा है कि 'जो राजा अपने देशवासी मंत्रोको नियुक्त करता है, वह
मानेपर उससे मुक्त होजाता है ॥ १॥ भावार्थ:-राजमश्रीके उक्त ६ गुणोंमें से 'अपने देशका रहनेवाला' बह गुण मुख्य माना गया
कि दूसरे देशका मंत्री अपने देशका पज्ञ करनेके कारण कभी राज्य का अहित भी कर सकता सन मन्त्रीको अपने देशका निवासी होना आवश्यक है ।
कर्ष:-जहाँपर 'दूसरे देशका रहनेवाला मनुष्य राजमंत्री नहीं होसकता' इस बातका समर्थन सहापर सरे देशका रहनेवाला व्यक्ति जो कि प्रजाके प्राचार-विचारसे शन्य है, शासक-- कार हो सकता है? एवं उसके शासन में रहनेवाली प्रजांको किस प्रकार सुखका लेश
१म्पोंकि दूसरे देशका निवासी शासक अपने देशके पक्षपातरूपी पिशाच वतीने के कारण अपनी प्रजाका क्या हित कर सकता है ? अर्थात नहीं कर सकता। ME पाठक स्वयं सोच सकते हैं ।। ६॥
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हाम:-स्वदेश जममात्यं यः कुने मिती: । ग्रासकलेन सभ्यामन सनन विचर ।।।।
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दुराचारसे होने वाली हानिका निर्देश:--
मन्त्रिसमुद्देश
30-00---------
विषनिषेक व दुराचारः सर्वान् गुणान् दूषयति ॥ ७ ॥
अर्थ:-- दुराचार - खोटा आचरण (कुत्सित और निद्य कमोंमें प्रवृत्ति) समस्त गुण नाश कर देता है, जिसप्रकार विषका भक्षण जीवन न अकार दुराचार भी दिया, कला और नीतिमत्ता, आदि मानवोचित गुणोंको अथवा रक्षा करनेवाले संधि और विम आदि षाड्गुण्यको नष्ट कर देता है।
दुष्परिजनो मोहेन कुतोऽप्यपकृत्य न जुगुप्सते ॥ ८ ॥
-------4 MI
अत्रि विद्वान्ने भी कहा है कि 'जो राजा दुराचारी मंत्रीको नियुक्त करता है, वह उसकी खोटो सल्लाह से अपने राजोचित सवगुणों-संधि-विग्रह आदि बाड्गुण्य को खो बैठता है- नष्ट कर डालता है ॥ १ ॥ निष्कर्ष::- राजाका प्रधान मंत्री सदाचारी होना चाहिये, अन्यथा उसके दुराचारी होनेपर राज्यवृक्षका मूल (राजनैतिक ज्ञान) और सैनिक संगठन आदि सदगुणों के प्रभावसे राज्यकी क्षति सुनिश्चित रहती है || ७॥
प्रधान मंत्रीके कुलीन - उपकुलवाले न होनेसे हानिः -
राजासे द्रोह करनेवाले मंत्रोका स्वरूपः
विष भक्षणको तरह कर देता है उसी राज्यकी वृद्धि और
अर्थ:- नीच कुलवाला मंत्री राजामे द्रोह करके भी मोह के कारण किसी से भी लज्जा नहीं करता । यमाने भी कहा है कि स्वामी के साथ द्रोह जड़ाई-झगड़ा करने पर भी नीच कुलवालेको नहीं होती; अतः युद्धिमान् राजाको नीच कुलका मंत्री नहीं बनाना चाहिये ॥ १ ॥
भावार्थ:-- कुलीन पुरुष अज्ञानवश यदि कुछ दोष- अपराध करता है तो उसे सजा होती है, परन्तु नीच कुलवाला निर्लज्ज - बेशर्म होता है; इसलिये राजाको उच्च कुलका मंत्री बनाना चाहिये || मद्यपान - भादि व्यसनोंमें भासक मंत्री से होनेवाली हानि
सम्पसन सचिव राजारूदव्यालगज इव नासुलभोऽपायः ॥ ६ ॥
अर्थ :- जिस राजाका मंत्री जुश्रा, मद्यपान और पर कलत्रसेवन आदि व्यसनों में फसा हुआ है, वह राजा पागल हाथीपर चढ़ े हुए मनुष्य की तरह शीघ्र नष्ट होजाता है ॥ ६ ॥
किं तेन केनापि यो विपदि नोपतिष्ठते ॥ १० ॥
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तथा च अत्रि :- दुराचारममात्यं यः कहते पृथिवीपतिः । मृगस्तस्य मंत्रेगा गुयान् सर्वान् प्रगाशयेत् ॥ १ ९ तथा च यमः — अकुलीनस्य नो लज्जा स्वामित्रो क्रने सति । [ मंत्रि कुलीनं च तस्मान स्थापयेधः ] ॥ १ ॥ नोट: - इस श्लोक का तीन चरण संशोधित एवं परिवर्तित किया गया है तथा ४ चरणकी रचना हमने स्वयं की है क्योंकि सं० टी० पुस्तक में अशुद्ध पा हुआ था | सम्पादकप्रतियों में है; परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं है ।
३ 'सुलभाषाय:' ऐसा पाठ ० और इ० लि.
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नीतिवाक्यामृत
צד
--इस मंत्री, मित्र या सेवकसे क्या लाभ है ? जो विपत्तिके समय अपने स्वामी या मिश्रकी भी करता किन्तु उल्टा उससे द्रोह करता है, चाहे वह कितना ही विद्वान् और व्यवहार क्यों न हो। मार्ग मार्ट
राजमंत्री को राजद्रोही नहीं होना चाहिये ॥ १० ॥
१५७
करनेवाले मंत्री और सेवकों का रखना निरर्थक है; अतएव
* वामने कहा है कि 'जो विपत्ति पड़नेपर द्रोह करता है, उस मंत्री से राजाका क्या लाभ समस्त गुणोंसे विभूषित ही क्यों न हो || १ !”
समर्थन:
३
मोन्येऽसम्मतोऽपि हि सुलभो लोकः * ॥। ११ ॥
पर्क:ह--यह निश्चित है कि भोजनको वेला में बिना बुलाये आनेवाले लोग बहुत हैं। अर्थात् सुखके सभी लोग सहायक होजाते हैं किंतु दुःखमें कोई सहायक नहीं होता। अतएव विपत्ति में सहायता मेवाला पुरुष राजमंत्री पदके योग्य है अन्य नहीं ।। ११ ।।
•देव विद्वान्ने कहा है कि 'धनादिक वैभवके प्राप्त होनेपर दूसरे लोग भी कुटुम्बियोंको अपहार करते हैं; अतः राजाओंको विपत्तिके समय सहायता करने वाले मंत्रीका मिलना दुर्लभ है। कला को क्यों न हो ॥१॥
सहार कुशलता के रहस्यको न जाननेवाले मंत्री का दोष:
किं तस्य भक्त्या यो न वेत्ति स्वामिनो हितोपायमहितप्रतीकारं वा ॥ १२ ॥
-भो मंत्री अपने स्वामी की उन्नति के उपाय (कोष-वृद्धि- आदि) और दुःखोंका प्रतीकार- शत्रु रादि को नहीं जानता, किन्तु केवल भक्तिमात्र दिखाता है 'उस मंत्रीकी केवल भक्तिसे क्या
कोई लाभ नहीं ||१२||
भावार्थ:-को व्यक्ति राजाका हित साधन और श्रति प्रतीकारके उपायोंको नहीं आनता, किन्तु उसकी भक्तिमात्र करता है, उसे राजमंत्री बनानेसे राज्य की श्रीवृद्धि नहीं हो सकती, इसलिये राजा विद्यामै प्रषोण एवं कर्तव्य निपुण पुरुषको मंत्री पद पर नियुक्त करना चाहिये ||१२||
-कि तेन मंत्रिणा यो म्यसने समुपस्थिते । व्यभिचारं करोत्येव गुणैः सर्वैयुतोऽनि वा ॥ १ ॥ हि सुलभ लोक' इसप्रकारका पाटात मु० एवं द० लि० मु० प्रतियों में वर्तमान है, जिसका अर्थ नेत्र की सभा में बहुत से मनुष्य सरता से प्रविष्ट दोजाने हैं। साश यह है कि सुखके समय है, पर संकट के समय उनका मिलना दुर्लभ है।
नि:- प्रश्न विषसिमें महायक पुरुष श्र ेष्ठ हो प्रधानमंत्री पद के योग्य है ।
देव-समृद्धिकाले प्राप्त परी
वजनायते । अकुलीनोऽनि चामायो दुर्लभः स महा ||१|
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१५८
मंत्रि-समुद्देश |
गुरु' विद्वान्ने कहा है कि 'जो व्यक्ति राजाकी धन प्राप्तिके उपाय और उसके शत्रु नाश पर ध्यान नहीं देखा, उसके आने हुए शिष्टाचार और नमस्कार आदि व्यवहारोंसे क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं ॥१॥
शस्त्रविद्यामें निपुण होकरके भी भीरुता दिखानेवाले मंत्रीका दोष:--
कि सेन सहायेनास्त्रज्ञ ेन मंत्रिणा यस्यात्मरक्षणेऽप्यस्त्र ं न प्रभवति ॥ १३ ॥
अर्थ:- जिसका शस्त्र - खड्ग और धनुष-बादि - अपनी रक्षा करनेमें भी समर्थ नहीं है ऐसे शस्त्र विद्या प्रवीण सहायक मंत्रीसे राजाका क्या लाभ होसकता है ? कोई लाभ नहीं हो सकता ।
भावार्थ:- जो व्यक्ति युद्ध कला में प्रवीण होकर के भी बोररस पूर्ण बहादुर है, वही राज मंत्री होने के योग्य है । परन्तु जो केवल शस्त्र विद्यासे परिचित होकर कायरता दोपसे अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता वह (डरपोक) राजमंत्री होनेका अधिकारी नहीं है || १३||
उपभा— राम्रनेकी पनि
धर्मार्थकामभयेषु व्याजेन
परीक्षणपधा ॥१४॥
अर्थ- शत्रुके धर्म, अर्थ, काम और भयकी जानकारी के लिये--अमुक शत्रुभूत राजा धार्मिक है ? अथवा अधार्मिक है ? उसके खजानेमें प्रचुर सम्पत्ति है, अथवा नहीं ? वह कामान्ध है ? अथवा जितेन्द्रि म ? बहादुर है ? या डरपोक ? इत्यादि ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से गुप्तचरोंके द्वारा छलसे शत्रु- चेष्टा की परी - करना, यह 'उपधा' या 'उपाधि' नामका राज मंत्री का प्रधान सद्गुण है ।
भावार्थ:-- राजनीतिमें निपुणा मंत्री का कप्तव्य है कि शत्रुभूत राजाकी धर्म-निष्ठा या धर्म-शून्यता के ज्ञानके लिये धर्म-विद्या में निपुण गुप्तचरको उसके यहाँ भेजकर उसकी राजपुरोहितसे मित्रता कराये और गुप्तचरसे कह रक्खे कि उसकी धार्मिकता या पापनिष्ठाकी हमें शीघ्र खबर हो । सदनम्तर शत्रुभूत राजाकी धार्मिकताका निश्चय होनेपर मंत्रीको अपने राजासे मिलकर उस शत्रु राजासे साध कर लेनी चाहिये । यदि वह पापी प्रतीत हो तो उससे विमह-युद्ध करके अपने राज्य की श्री-वृद्धि कर लेनी चाहिये। यह मंत्रीकी 'धर्मोपधा' शक्ति है।
अर्थोपधा - इसीप्रकार मंत्री अर्थ में निपुण गुप्तचर को अपने देशकी वस्तुएँ लेकर बेचने के बहाने से शत्रु के देश मैं भेजे । वह वहाँ जाकर रात्र राजा के कोषाध्यक्ष से मित्रता करके कोष की शुद्धि का निश्चय करे। पश्चात् वापिस आकर मंत्री को सूचित कर देवे। यदि शत्रु राज के पास कोष-धन-रशि अधिक है, तो मंत्रो को उससे संधि कर लेनी चाहिये, यदि शत्रुका खजाना खाली हो रहा हो, तो उससे विग्रह करके राज्य की वृद्धि करनी चाहिये ।
, तथा च गुरुः कि तस्य पत्रद्वारा विशातैः शुभकैरपि यो न विलयने राशो धनोपायं चिमं ॥ १ ॥
२. मू प्रति में 'अशेन' यह पद नहीं है।
'कामनपव्याजेन परिचितपरोक्षरध' ऐसा मु. एवं छ. लि. भू. प्रति में पाठ है, रन्तु अर्थ-भेद नहीं।
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नीतिवाक्यामृत
१५६.
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कामोपधा-इसी प्रकार काम शास्त्र में प्रबोगा गुप्तचर को भेजकर उनकी कंचुकीके साथ मित्रना कराके काम शुद्धिका निश्चय करे । यदि शत्र राजा कामी हो-शत-क्रीड़न परकला नवन-प्राप्ति व्यसनोमें फंसा हुश्रा हो तो उससे युद्ध करना योग्य है । यदि जितेन्द्रिय हो तो संधि करने के योग्य है। ___भयोपचा-- इसी प्रकार भत्रीको शत्र, राजाके यहाँ शूरवीर और युद्धकलामें प्रवीण गुप्तचर भजकर उसकी शत्र के सेनापतिमे मित्रता करवाकर शव राजाकी बहादुरी या डरपोकपनका निश्चय करे । यदि शत्र, गजा डरपोक हो तो मंत्रीको उसके साथ युद्ध छेड़ना चाहिये और यदि बहादुर हो तो उसमें मंधि कर लेनी चाहिये ।।
निस्कर्ष-इस प्रकार मंत्रीका चतुर. गुप्तचरोंद्वारा शत्र भूत राजाओंकी धार्मिक, आर्थिक, कामिक और भय सम्बन्धी शुद्धि का निश्चय करते रहना चाहिये । ऐसा करने वाला ही मनी पाजगुण्य-मधि, विमह, यान और थामन-आदि) का उचित स्थानपर प्रयोग करके अप्रामराज्यको प्रापि, प्रातकी सुरक्षा और रक्षितराज्य की वृद्धि करनेमें समर्थ होता है ॥१४॥
शुक्र' विद्वानन कहा है कि राजमंत्रीको अपने-अपन विषयों में प्रवीण गुमचरोंको शत्रभूतराजाके यह भेजकर उनके पुरोहित से उसकी धर्म-शून्यता, कोषाध्यक्षसे निधनता, काचुफीसे विषयलम्पटता और पनातिम डरपोकपन का निश्चय करके अपने राजासे सलाह करके उसके साथ विग्रह या युद्ध करना चाहिये ।।१।। नांचकुलवाले मंत्रियों के दोषः -
___ अकुलीनेषु नास्त्यपवादाद्भयम् ।। १५ ।। अर्थः - नीचकुस्नखाले मंत्री अदि अपनी अपकीर्ति-लोक में होनेवाली निन्दा-से नही उरते।
भावार्थ:-नीन कुलका मंत्री लेोकमें होनेवाली अपनी निन्दासे नही परसा, इसलिये वह कभी राजाका मन भी कर सकता है। अतएव राजाको कुलीन मंत्री रखना चाहिये। ॥१२ -
___ बलभदेष विद्वान्ने कहा है कि 'नीच कुमका व्यक्ति अपनी अपकीर्तिपर ध्यान नहीं देता। इसलिये गजाकी उम मंत्री नहीं बनाना चाहिये ॥१॥' पक्ति वातका विशेष समर्थन:
अलर्कविषवत् कालं प्राप्य वियते विजातयः ॥ १६ ॥ अर्थ:-नीचकुलयाले राजमंत्री वगैरह पुरुष कालाम्पर में (राजाके ऊपर भापशि भामेपर) पागल कुनेके षिषकी तरह यिद होजाते हैं।
। नया न शुभः–जावाचरैयः कथितोऽरिंगम्यः धार्थहीनो विषयी सभीकः । पुरोहिताधिपतेः सकाशान् , स्वीकात्
भैन्य तःम कार्य: ॥१॥ २ राधा च यलमदेव..-वपिनासन पनि यसअजितः । मानुगमजा कायों मभी न मलामतः ।।
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१६०
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भावार्थ:-जिमप्रकार पागल कुत्ते के दाँतका विष काटे हुये मनुष्यको उसी समय विकार पैदा नहीं करता; किन्तु वर्षाकाल आनेपर उसे कष्ट पहुँचाता है, उसी प्रकार कुलहीनमंत्री भी राजाके ऊपर आपत्ति पड़नेपर उसके पर्वकृत दोषको स्मरण करके उससे विरुद्ध होजाते हैं; अतएव नोचकल पाने मंत्रियोंका रखना राजाको अनुचित है ।। १६ ।।
यादरायण' विद्वानने भी उक्त सिद्धान्तका समर्थन किया है कि 'जिस राजाके मंत्री नीचकुलके होते हैं, वे गजाके ऊपर विपत्ति आनेपर उसके द्वारा किये हुए पहले दोपको स्मरण करके उससे विरुद्ध होजाते हैं ॥१॥ कुलीनमंत्रीका स्वरूप:
तदमृतस्य विषत्वं यः कुलीनेषु दोषसम्भवः ।। १७ ॥ अर्थः-कुलीन पुरुषों में विश्वासघात-भादि दोषोंका होना अमृतका विष होनेके समान है। अर्थात् जिस प्रकार अमृत विष नहीं हो सकता, उसी प्रकार उच्च कुलवालोंमें भी विश्वामघात आदि दोष। नहीं हो सकते ॥ १७ ॥
भ्य विद्वान्ने कहा है कि 'अदि अग्नि शीतल-ठंडी, चन्द्रमा उष्ण और अमृत विष होसके तब कहीं उच्च-फुलबाला में भी विश्वासघात--आदि दोष होसकते हैं। अर्थात् जिस प्रकार अग्नि ठंडी नहीं हो सकती, चन्द्रमा गरम नहीं होसकता और अमृत विष नहीं होसकता, उसीप्रकार कुलीन पुरुष भी आपत्तिके समय अपने स्वामी-श्रादि से विरुद्ध होकर विश्वासघात-आदि दोष नहीं कर सकते ॥क्षा' ज्ञानी मंत्रीका झान जिसप्रकार व्यर्थ होता है:
घटप्रदीपबत्तज्ज्ञाने मंत्रियों यत्र न परप्रतियोधः ॥१८॥ अर्थ:-जिस ज्ञानके द्वारा दूसरोंको समझा कर सन्मार्ग पर न लगाया जाये, वह मंत्री या विद्वान् का ज्ञान पदमें रक्खे हुये दीपकके समान व्यर्थ है। अर्थात् जिसप्रकार उजालकर घड़े में स्थापित किया हुचा दीपक केवल घड़े को ही प्रकाशित करता है, परन्तु बाह्य वेशमें रहनेवाले पदार्थीको प्रकाशित नहीं
सलिये वह व्यर्थ समझा जाता है, उसीप्रकार मंत्री अपने राजाको और विद्वान् पुरुष दुमरों को समझाने की कलामें यदि प्रवीण नहीं है, तो उसका ज्ञान निरर्थक है।।१॥
वर्गविद्वान्ने कहा है कि जो मंत्रो अनेक सद्गुणों से विभूषित होने पर भी यदि राजा को समझाने की कलामें प्रवीण-चतुर नहीं है, तो उसके समस्त गुण घटमें रक्खेहुए दीपकके समान व्यर्थ है ।।१६' शास्त्र ज्ञान की निष्फलता:तेष शस्त्रमिव शास्त्रभषि निष्फलं येषां प्रतिपक्षदर्शनाद्भयमन्वयन्ति चेतांसि ॥१६॥
.-..---- ..---- -- १ तथा च कादरायण:-अमात्या कुलहीना ये पाश्रिवस्य भवन्ति ते । आपतकाले विरुध्यन्ते स्मरन्तः पूर्व दुष्कृतम् ॥ २ तथा परंम्यः--धाद स्यारशीतलो बन्दि: सोणास्तु रजनोपतिः। प्रमृतं च बर्ष मावि तत्कुलीनेषु बिक्रिया या ३ तथा च वर्ग:-सुगरणादयोऽपि यो मत्री नृपं शक्ता न बोधिनम् [निरर्थका भवात्यन्त गणा घटप्रदीपसन ||१|| नोट:-उक्त श्लोकक तीसरे चराका पद्य-रचना हमने स्वयं की है क्योंकि सं.टी पलक में ना था। सम्पादक
करता, इस
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मन्त्रि-समुई श
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अर्थ:-जिन वीर पुरुषोंकि चित्त शत्रुओंको देख कर भयभीत होते हैं ललया शस्त्र-कारण जिसप्रकार व्यर्थ है, जानीप्रकार जिन विद्वान पुरुषोंक मन वादियों-विरुद्ध सिद्धान्सका समर्थन करनेवाले पुरुषों-को देखकर भयभीत होते हैं, उनका शास्त्रज्ञान भी निरर्थक है ॥१६॥ ____षादरायण' विद्वानने भी कहा है कि जिमप्रकार शस्त्र-विद्या में प्रवीगा योद्धा पुरुष याव शत्रुओं से डरता है, तो उसकी शस्त्रकला निरर्थक है, उसी प्रकार विद्वान पुरुष भी यदि वादियों के साथ शास्त्रार्थ-पादि करने से डरता है, तो उसका शास्त्रज्ञान भी निरर्थक है ॥१॥' जिस स्थिति में शस्त्र व शास्त्रज्ञान निरर्थक होता है :
तच्छम्ब शाम्ब वात्मपरिभवाय यन्न हन्ति परं पां प्रसरं ॥२०॥
अर्थ-जिस वीर पुरुष का शम्त्र शत्रओं के बढ़ते हुए बंग-आक्रमण को नष्ट नहीं करता, उसका शस्त्र धारण करना उसके पराभव-पराजय (हार) के लिये है । एवं जिम विद्वान पुरुष का शास्त्रज्ञान वादियों के बढ़ते हुए वेग को नहीं रोकना, उसका शास्त्रज्ञान भी उसके पराजय का कारण होता है।
निष्कर्षः-इसलिये चीर पुषको शस्त्रधारणका और विद्वान् पुरुष को शास्त्रज्ञानका क्रमशः उपयोग (शत्रु निमा और प्रबल युक्तियों द्वारा अपने सिद्धान्तका ममर्थन और परपत-खंडन आदि)करना चाहिये अन्यथा-सा न करनेसे उन दोनोंका पराजय अवश्यम्भावी है। ॥२०॥
नारद' विद्धानने भी कहा है कि जो योद्धा शत्रके बढ़ते हुए अाक्रमण को अपनी शस्त्र-कलाकी शक्तिसे नष्ट नहीं करता, वह लघुताको प्राप्त होता है। इसीप्रकार जो विद्वान वादियोंके बंगको अपनी विताकी राक्तिसे नहीं रोकता, यहभी लघुताको प्राप्त होता है ॥१॥ कायर व मूर्ख पुरुषमें मंत्री-आदि पदकी योग्यता:
न हि गली वलीपर्दो भारकर्मणि केनापि युज्यते ।।२१।।। अर्थः-कोई भी विद्वान् पुरुष गायके बछड़े को बोझा ढोनेमें नहीं लगाता ।
भाषा:-जिमप्रकार:- बधाई को महान बोका ढोनेमें लगाने से कोई लाभ नही, उसीप्रकार कायर पुरुषको युद्ध करने के लिये और मुख पुरुषको शास्त्रार्थ करने के लिये प्रेरित करनेसे कोई लाभ नहीं होता। इसलिये प्रकरण में मंत्री को यद्धविद्या-प्रवीण व राजनीतिज्ञ होना चाहिये । कायर और मूर्ख परुष मंत्री परके योग्य नहीं ।
तशाच पादरायणः-पथा शस्त्रस्य शस्त्र पर्षे रिपुकसान भयात् । शास्त्रशस्य तथा सर्व प्रतिवादि भयात् भवेत् ॥
मतवस्त्र शत्वं वा, प्रात्मपरिभवाभावाय यन्न हस्ति परेषा प्रसरमा पट मु.व.लि. मू० प्रतियोमें बर्तमान है, जिसका अर्थ यह है कि जिसकी शस्थ और शास्त्रकना क्रमसः शन्न यो पगवियों के प्रमर (हमला और रिन) को मार नहीं कर सकती, उसकी वह सम्व-शास्त्रकमा भनुपयोगी झेनेमे उसके पराजय को नहीं रोक सकतीउससे उसको विजयसम्मी प्राप्त नहीं होमकती।
सथान नारदः-शनोई वादिनो वाऽपि शास्त्रगंवायुभेन बा। विनामानं न हन्यायो म जयुमा बजे ।
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निष्कर्षः-अपरिपक्व होनेके कारण यहाई से बोभा दुवाना जिस प्रकार निरर्थक है, उसी प्रकार कायर और मूर्ख पुरुष को मंत्रीपर नियुक्त करना निरर्थक है ॥२१॥ राजाओं को पाड्गुण्य-संधि व विग्रह आदि राजनैतिक कार्य---जिस विधि से करना चाहिये:
मंत्रपूर्वः सर्वोऽप्यारंभः क्षितिपतीनाम् ।।२२।। अर्थः-राजाओं को अपने समस्त कार्या ( मंधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव )का । प्रारम्भ मंत्रपूर्वक-सुत्रोग्य मंत्रियों के साथ निश्चय करके करना चाहिये ।
शुक्र' विद्वान ने कहा है कि जो राजा मंत्री के माथ विना निश्चय किये ही संधिविग्रह थान और आसन-पादि कार्य करता है, उसके ब कार्य नए सक-त्री के संभोगकी तरह मिष्फल होजाते हैं।' मंत्र-मंत्री-श्रादि को सलाह से होनेवाला लामः
अनपलब्धस्य ज्ञानं, उपलब्धस्य निश्चयः, निश्चितस्य बलाधान, अर्थस्य द्वैधस्य __ संशयच्छेदनं, एकदेशलब्धस्याशपोपलब्धिरिति मंत्रसाध्यमेतत् ॥२३॥ .अर्थः–सन्धि व विप्रह-यादि में उपयोगी एवं अज्ञात-विना जाने हुए या अप्राप्त (विना प्राम किये हुए) शत्र सैन्य वगैरह कार्य का जानना या प्राप्त करना । जाने हुए कार्यका निश्चय करना अथवा प्राप्त किये हुए को स्थिर करना। मिश्चित कार्यको दृढ़ करना या किसी कार्य में संदेह उत्पन्न होनेपर उसका निवारण करना । उदाहरणमें शत्रुभूत राजा के देश से आये हुए पहले गुप्तचरने शत्रु सैन्य-श्रादि के बारे में कुछ और कहा तथा दूसरे ने उससे विपरीत कह दिया ऐसे अवसर पर तीसरे विश्वासपात्र गुप्तचर को मंजकर उक्त संशय का निवारण करना अथवा अमुक शत्रु भत राजा से सन्धि करना चाहिये। अथवा विग्रह---धादि करना चाहिए ? इस प्रकार का संशय उत्पन्न होनेपर प्रवल प्रमाणों से उसको निवारण करना और एक देश प्राप्त किये हुए भूमि-श्रादि पदार्थों को पूर्ण प्राप्त करना अथवा एक देश जाने हुए कार्यके शेष भाग को भी जान लेना ये सब कार्य राजाको मंत्र-मंत्री आदि की सलाह से सिद्ध करना चाहिए। अथवा उक्त मंत्रसे इन सब कार्यों की सिद्धि होती है।
गुरु' विवान ने कहा है कि राजनीतिके विद्वान् राजा को धिना जानी हुई शत्र -सेना को गुमचरों के द्वारा जान लेनी चाहिये और जानने के पश्चात् यह निश्चय करना चाहिये कि हमारा कार्य (सन्धि और विग्रह-आदि) सिद्ध होगा ? या नहीं ? ||शा
निष्कर्ष:-विजिगीषु राजा को अप्राप्त राज्यादि की प्राप्ति और सुरक्षा-आदिके लिये अत्यन्त बुद्धिमान् व राजनीतिके धुरन्धर विद्वान् और अनुभवो मंत्री-मण्डलके साथ बैठकर मंत्र का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है ॥२३॥
१ तथाच शुक्र:---अ मंत्रमचिः माई यः कामं कुरुते नृपः । तस्य तन्निकल भावि पदस्य सुरत यथा ||5| २ उक्त मूत्र मु० मू पुस्तक से मंकलन किया गया है, मं० टोपु. में भी ऐसा ही पात्र है, परम्नु उसमें संधिसहित है और कोई पार्थक्य नहीं है । मग्पादक३ तथा न 15:-अजान शत्रच वय यिश्चिना । तस्य विशातपयकार्य सिर नवेति |
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मंत्रि-समुदेश
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मण या कर्तव्य:नाममारब्धस्यापम दुष्टि विशेष विनियोगसम्पदं च ये कुयुस्ते मंत्रिणः ॥२४||
यो बिना प्रारम्भ किये हुए कार्यों का प्रारम्भ करें, प्रारम्भ किये हुए कार्यों को पूरी करें और होचुके हों उनमें कुछ विशेषता लावें तथा अपने अधिकार का उचित स्थान में प्रभाव दिखावें नाहते हैं ॥ ४॥
सिवान ने कहा है कि जो कुशल पुरुष राजाके समस्त कार्यों में विशेषता तथा अपने अधिकारका सरवानिमें प्रवीण हो, वे राजमंत्री होने के योग्य हैं, और जिनमें उक्त कार्य करनेकी योग्यता नहीं है, असा योय नहीं हैं ॥१॥ सों के साथ किये हुए विचार--के अङ्गःर कर्मणामारम्भोपायः पुरुपद्रव्यसंपदेशकालविभागो विनिपातप्रतीकारः कार्यसिद्धि.. श्चेति पंचांऽगो मंत्रः ॥२॥
-त्रके पांच अङ्ग होते हैं। १ कार्य के प्रारम्भ करने का उपाय, २ पुरुष और द्रव्यसम्पत्ति, और काल का विभाग, ५ विनिपात प्रतीकार और ५ कार्यसिद्धि । धा। कार्य प्रारम्भ करनेका उपाय -जैसे अपने राष्ट्रको शत्रओंले सुरक्षित रखने के लिये उसमें खाई हा और दुर्ग-प्रावि निर्माण करनेके माधनौका विचार करना और दूसरे देशमें शत्रुभूत राजाके यहां
निमह-श्रादिके उद्देश्यसे गुपचर व दूत भेजना-आदि कार्योंके साधनोंपर विचार करना यह मरहमा का है।
मी मीतिकारने कहा है कि जो पुरुष कार्य-प्रारम्भ करनेके पूर्व ही उसको पूर्णताका उपाय-साम माहि-नहीं सोचता, उसका यह कार्य कभी भी पूर्ण नहीं होता ॥१॥
इष षषसम्पत्ति अर्धाम्-यह पुरुष अमुक कार्य करने में निपुण है, यह जानकर उसे उससनिक करना तथा द्रव्य सम्पत्ति कि इतने धनसे अमुक कार्य सिद्ध होगा,यह क्रमशः 'पुरुष सम्पन्'
मा सम्पत्' नामका दूसरा मंत्राङ्ग है। अथवा स्वदेश-परदेश की अपेक्षासे प्रत्येकके दो भेद हो जाते हैं। बहरणार्थ:-पुरुष-अपने देशमें दुर्ग आदि बनाने में अत्यंत चतुर बदई और लुहार-आदि और बी, पत्थर आदि | दूसरे देश में पुरुष, संधि आदि करनेमें अशल दत्त नथा सेनापति और द्रव्य
.
किसी नीतिकार ने कहा है कि जो मनुष्य अपने कार्य-कुशल पुरुषको उसके करनेमें नियुक्त नहीं
उस कार्य के योग्य धन नहीं लगाता, उसमे कार्य-सिद्धि नहीं होपाती ।।'
प्रचार शुभ-नां यन्ति विशेष ये सर्व कर्मसु भूरतः । स्वाधिकारप्रभाय च मंत्रिणस्नेऽन्यथा परे ॥१॥ या कश्चिन्नोतिविन्:--- कायारम्भ नोगायं सतिद्धयर्थ' च चिन्तयेत् । यः पूर्व नस्य नो मिद्धि तत्कार्य
वर योन समर्थ म कस्य पदई' च नया धनन् । यो ज येत्-यो न कृत्ये तत्मिदि तम्य नो ब्रजेत् ।।१।।
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नीतिवाक्याभूत
३ देश और कालका विभाग - अमुक कार्य करने में अमुक देश व अमुक काल अनुकूल देश और काल प्रतिकूल है। इसका विभाग (विवार) करना मंत्रका तीसरा अङ्ग है, अथवा अपने दे देश (दुर्ग आदि बनाने के लिये जनपद के बोचका देश) और काल - सुभिक्ष-दुर्भिक्ष तथा यथा । ए दूसरेके देश में सम्धि आदि करनेपर कोई उपजाऊ प्रदेश और काल -- आक्रमण करने या न करने का समय कहलाता है, इनका विचार करना यह देश-काल विभाग नामका तीसरा मन्त्राङ्ग कहलाता है ।
किसी विद्वान् ने कहा है कि जिसप्रकार नहीं की मछली जमीनपर प्राप्त होनेसे नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार राजा भी खोटे देशको प्राप्त होकर नष्ट होजाता हैं ||१|| '
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जिसप्रकार की रात्रि के समय और उल्लू दिन के समय घूमता हुआ नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार राजा भी वर्षा काल आदि खोटे समयको प्राप्त होकर नष्ट होजाता है। अर्थात् वर्षा ऋतु आदि समयम लड़ाई करनेवाला राजा भी अपनी सेनाको निस्सन्देह में डाल देता है || श
४ विनिपात प्रतीकार - आई हुई आपत्तियां नाशका उपाय चितवन करना । जैसे अपने दुर्ग-आदिपर आनेवाले या आये हुये विघ्नों का प्रतीकार करना यह मंत्रका 'विनिपात प्रतिकार' नामक चौथा है। किसी विद्वान् ने कहा है कि जो मनुष्य श्रापत्ति पड़ने पर मोह (अज्ञान) को नहीं होता और यथाशक्ति उद्योग करता है कि
५ कार्यसिद्धि - उन्नति, अवनति और सम अवस्था यह तीन प्रकारकी कार्य सिद्धि है। जिन सामा दि उपायों से विजिगीषु राजा अपनी उन्नति, शत्रुकी अवनति या दोनोंकी सम अवस्थाको प्राप्त हो. यह का सिद्धि नामका पांचवाँ मंत्रा है ।
किसी विद्वान ने कहा है 'कि जो मनुष्य साम, दान, दंड व भेद उपायोंसे कार्य सिद्धि चितवन करता है और कहीं पर उससे विरक्त नहीं होता, उसका कार्य निश्चयसे सिद्ध होजाता है ||१
निष्कर्षः - विजिगीषु राजाको समस्त मंत्री-मंडलसे या एक या दो उक्त पंचाङ्ग मंत्रका विचार वा तदनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिये ||२५||
मंत्र - सलाह के योग्यस्थान:
आकाश प्रतिशब्दवति चाश्रये मंत्र न कुर्यात् ॥ २६ ॥
अर्थः-जो स्थान चारों तरफ से खुला हुआ हो ऐसे स्थानपर तथा पर्वत व गुफा आदि स्थानों में जहाँ पर प्रतिध्वनि निकलती हो, राजा और मंत्री आदिको मंत्रणा नहीं करनी चाहिये ||२६|| भावार्थ:- गुप्त मंत्रणा का स्थान चारों ओरसे ढका हुआ और प्रति ध्वनि रहित होना चाहिये
१ उक्तं च यतः — यथास्थमत्स्य विनश्यति । शीघ्रं तथा महीपालः कुदेषां
यथा काको निशाकाले कौशिकश्च दिवा चरन् । विनश्यति कालेन तथा भूयः॥२॥ । धर्म कुन
२ उक्तं च यतः प्राक्का तु सा यो न मोईन
३ तथा चोक्तं ---- सामादिभिरुपैयाँ कार्यसिद्धि प्रचिनयेत् । न मिलति
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मन्त्रि समु
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आपकी बातचीत का शब्द बाहर न आसके ||२६||
'विद्यामने कहा है 'सिद्धि चाहनेले राजाको खुले हुए स्थल मंत्रणा नहीं करनी जिस स्थान में मंत्रणाका शब्द टकराकर पतिध्वनि नहीं होती हो, ऐसे स्थानमें बैठकर हियें ॥१॥ १
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"मुख विकारकराभिनयाभ्यां प्रतिच्चानेन वा मनः स्थमप्यर्थमभ्युद्यन्ति विचक्षणाः ||२७|| लोग मंत्रणा करनेवालों के गुरु के विकार से हस्तादिके संचालन से, तथा प्रतिध्वनिरूप शब्दसे म अभिप्रायको जान लेते हैं ।
- चतुर दूत राजाके मुखकी प्रकृति और हस्त आदि अंगों के संचालन आदि से उसके हृदयजाते हैं, मतएव राजाको दूतके समक्ष ये कार्य नहीं करने चाहिये । अन्यथा मंत्र प्रकाशित हो
विदारको सुरक्षित रखनेकी अवधि :---
| कार्यसिद्धेरचितव्यो मंत्रः ||२८||
देव" विद्वान्ने कहा है कि 'मुखको आकृति, अभिप्राय, गमन, चेष्टा, भाषण और नेत्र तथा असे मन में रहनेवाली गुप्त बाद जान लीजाती है ॥ १
अर्थ:- अबतक कार्य सिद्ध न होजाये तब तक विवेकी पुरुषको अपने मंत्र की रक्षा करनी चाहिये । प्रकाशित नहीं करना चाहिए, अन्यथा कार्य सिद्ध नहीं हो पाता । ||२८||
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विद्वान ने कहा है कि 'विष-मक्षण केवल खानेवाले व्यक्तिको और खड्ग आदि-शस्त्रभी एक मारते हैं। परन्तु धर्मका नाश या मंत्रका भेद समस्त देश और सारी प्रजा सहित राजाको न कर RIP
स्थानमें मंत्रणा करनेसे हानि:
दिवा et asurer मंत्रयमाणस्याभिमतः प्रच्छन्नो वा भिनत्ति मंत्रम् ॥२६॥ अर्थः- यो व्यक्ति दिन या रात्रिमें मन्त्रणा करने योग्य स्थानकी परीक्षा किये विनाही मंत्र करता है मंत्र प्रकाशित होजाता है, क्योंकि छिपा हुआ आत्मीय पुरुष उसे सुनकर प्रकाशित कर देता है ।। २६॥ द्वारा उक्त बातका समर्थन:---
दिल रजन्यां वटवृक्षे प्रच्छलो चररुचिर-प्र-शि- खेति पिशाचेभ्यो वृत्तान्तमुपश्रुत्य चतुरक्षरायें: लोकमेकं चकारेति ॥ ३० ॥
सब गुरुः- निराश्रयप्रदेशे तु मंत्र: कार्यो न भृभुजा । प्रतिशब्दो न पत्र स्योम्मंत्रसिद्धि प्रवाम्छता ||१|| भदेवः--थाकारैरिगित गया चेष्टया भाषणेन च नेत्रविकारेण गृपतेऽन्तर्गतं मनः ||२॥ विदुः [एवं विषरसो दस्ति ] शस्त्र कश्च वध्यते । खराष्ट्र ं सहजं इन्ति राजानं धर्मः || ||
नोट:- उपलका प्रथम चरण संशोधन किया गया है सम्पादक:---
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तोलियायल
वररुचि का संक्षिप्त इतिवृत्त हुआ है, मन्त्री था।
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अर्थः - इतिहास प्रमाण में वृद्धपुरुषोंके मुखसे सुना जाता है कि एक समय विशाच लोग हिरण्यगुप्त संबंधी वृत्तान्तकी गुम मंत्रणा कर रहे थे, उसे रात्रिमें वटवृक्ष के नीचे छिपे हुए वररुचि नामके मनुष्य (राज मंत्री) ने सुन लिया था; अतएव उसने हिरण्यगुप्तके द्वारा कहे हुए श्लोकके प्रत्येक पाद संबंधी एक अक्षरोंसे अर्थात् चारों पादोंके चार अक्षरों - ( अ-प्र-शि-ख) से पूर्ण (चारों पाद) श्लोककी रचना करनी । यह नन्द नामके राजाका जो कि ३२२ ई० पू० में भारतका सम्राट
एक समय नन्दराजाकः पुत्र राजकुमार हिरण्यगुप्त बनमें कीड़ा करनेके लिये गया था। उसने रात्रिमें सोते हुए पुरुषको जो कि इसका मित्र था, खड्ग से मारडाला । उस पुरुषने भरते समय 'अ-प्र-शि-ख' यह पद उच्चारण किया, उसे सुनकर अपने प्रिय मित्रको धोखे से मारा गया समझकर हिरण्यगुप्त मित्रके साथ द्रोह करने के पापले ज्ञान-शून्य, किंकर्तव्यविमूढ़ और अधिक शोकके कारण पागलकी तरह ब्याकुल होकर कुछ काल तक स्वयं उसी जंगल में भटकता रहा । पश्चात् राज-कर्मचारियों द्वारा यहाँ-वहाँ ढढे जानेपर मिला और इसलिये वे उसे राजा नंद के पास लेगये । यह राजसभा में लाया गया । वहाँपर शोकसे पीड़ित होकर 'अ-प्र-शिख' प्रशिख अक्षरोंका वार-बार उच्चारणकर तुन्ध होरहा था, नंदराजने उसके अर्थको न समझ कर मंत्री पुरोहित और सदस्योंसे पूछा कि इसके द्वारा उच्चारण किये हुए अ-प्र-शि-ख पदका क्या अर्थ है ? परन्तु उसका अर्थ न समझने के कारण लोग चुपकी साथ गये। पर तु उनमें से वररुचि नामका मंत्री बोला कि राजन् एक दो दिनके पश्चात् मैं इसका अर्थ बतलाऊँगा । ऐसी प्रतिज्ञा करके वह रात्रि में उसी बनमें बढके वृक्ष के नीचे जाकर छिप गया। वहाँपर उसने पिशाचोंके द्वारा उक्त वृत्तांत (हिरण्यगुम- राजकुमार के द्वारा रा सोते हुए पुरुषका खडसे सिर काटा जाना) को सुना। पश्चात् प्रकरणका ज्ञान होजाने से उसने उक्त श्लोक के प्रत्येक चरणके एक र अक्षरसे अर्थात् चारों चरणोंके चार अक्षरोंसे राजसभानें जाकर निम्न प्रकार श्लोक बना दिया।
वररुचि' रचित श्लोकका अर्थ:--' इसी तुम्हारे पुत्रने अर्थात्-नंद राजा के पुत्र हिरण्यगुप्तनं वनमें सोते हुए मनुष्य की चोटी खींचकर खड्गसे उसका शिर काट डाला ||१|| मंत्र:- गुप्त सलाह के प्रयोग्य व्यक्ति
न तैः सह मंत्रं कुर्यात् येषां पक्षीयेष्वपकुर्यात् ॥३१॥
अर्थ :- राजाने जिनके बंधु आदि कुटुम्बियोंका अपकार - अनिष्ट ( वध बंधनादि ) किया है, उसे न विरोधियों के साथ मंत्र - गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये, क्योंकि विरोधियोंके साथ मंत्रणा करने से उसके भेदका भय रहता है-मंत्र प्रकाशित होजाता है ||३१||
शुक विद्वान्ने उक्त बातका समर्थन किया है कि 'राजाको उनके संबंधियोंके साथ कदापि मंत्र नहीं
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१ वररुचिरचितः श्लोकः श्रनेन तव पुत्र ेण प्रसुप्तस्य वनान्तरे । शिखामाकम्य पादेन ख ेनोपहतं शिरः |१| नोट:- यह पाठ सु० सू० पुस्तक से संकलन किया है सं० टी० पुस्तक में रहा नाट है देखो सं. डी. पु. ११ २ तथा च शुक वधादिकं कुर्यात्पार्थिवश्व विरोधिनां । तेषां संबंधिभिः सार्धं मंत्र: कार्यो न कहिंचित | ११
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मन्त्रिसमुरेश
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auruun.
सामाहिये, जिन विरोधियोंका उसने वध-यधनादि मनिष्ट-बुरा किया हो ॥१॥
समय न आने योग्य व्यक्तिः1 अनायुक्तो मंत्रकाले न तिप्टेत् ॥३२॥
ति-कोई भी व्यक्ति राजाकी आझाके बिना मंत्रणाके समय विना बुलाया हुमा अस धान व मारे। अर्थात् जो पुरुष राजाको आज्ञाके अनुसार विचार करने के लिये युलाये गये हों, वे ही यहाँ
म्य (मिना बुलाये हुए) व्यक्ति न जावें।। भावार्थ:-राजाका प्रिय व्यक्ति भी यदि मंत्रणा-काल में पहुंच जाता है, वो राजा मंत्रभेदकी शंहासे न होकर उससे रुष्ट (नाराज) हो जाता है ॥३२॥
"विधारने भी कहा है कि जो व्यक्ति राजासी मंत्र-अलामें विना बुलाया हुभा पला आता है वह होने पर भी राजाका कोप-भोजन होजाता है ॥१॥ याको प्रकाशित करनेवाले दृष्टान्त:. तथा च श्रूयते शुकसारिकाम्यामन्यैश्च तियेभिर्मन्त्रभेदः कनः ॥३३॥
पः-बब पुरुषोंसे सुना जाता है कि पहिले कभी सोता मैना ने सथा दूसरे पशुओं ने राजाको गुम मा प्रकाशित कर दिया था। सिक:-मतः मंत्र स्थानमें पशु पक्षियों को भी नहीं रहने देना चाहिये ।।३३।।
शिव होनेसे कष्ट होता है :म मवमेदादुरपन्न व्यसनं दुष्प्रतिविधेयं स्यात् ॥३४॥
अर्थगुप्त मंत्रणाके प्रकाशित होजानेसे राजाको जो संकट पैदा होता है वह कठिनाईसे भी न नहीं मा:इसलिये राजा को अपने मंत्रकी रक्षामें सदा सावधान रहना चाहिये। क्योंकि मंत्रभेदका निवार होता है।
विद्वान्ने कहा है कि मंत्रके भेद होजानेसे राजाको जो संकट पैदा होता है, उसका मारा होना दिनमा वह कठिनाई से भी नष्ट नहीं होता ॥१॥ जिव धारणोंसे गुप्त मंत्रणा प्रकाशित होती है :
इस्तिमाकारो मदः प्रमादो निद्रा च मंत्रभेदकारणानि ॥३५ ।। पर्व-गतमंत्रका मेद निम्नप्रकार पाँच मातोसे होता है, अतएव उनसे सहा सावधान रहमा
(१) पति (गुप्त मंत्रणा करने वालेकी मुख चेधा), (२) शरीरकी सौम्ब या रो-भयंकर मारुति PM पीना [४] प्रमाद-असावधानी करना और (५) निद्रा । ।।३।।
विचार शुकः–यो राजा मंत्रचक्षायाममाहूतः गति । अतिप्रसादयुक्तोपि विनिमय जिपि सः ॥१॥ समापन:-मंत्रभेदाच भास्प व्यसने मनायने । तत्कृसाम्नाशमभ्येति परणा-यथवा म या ॥
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Pilling
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नीतिवाक्यामृत
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उक्त पाँचोंके क्रमशः लक्षण:-- इङ्गितमन्यथावृत्तिः || ३६ ॥ कोसादजनिताशरीनी विकार: ॥aygar पानस्त्रीसंगादिजनितो हर्षो मदः ||३८|| प्रमादो गोत्रस्खलनादिहेतुः || ३६ || अन्यथा चिकीर्षतोऽन्यथावृत्तिर्वा प्रमादः ॥ ४० ॥ निद्रान्तरितो' [निद्रितः ] ॥ ४१ ॥
अर्थ :- गुप्त अभिप्रायको अभिव्यक्त (प्रकाश) करनेवालो शरीरकी चेष्टा 'इङ्गित' है । अथवा स्वाभाविक क्रियाओं से भिन्न क्रियायोंके करनेको इङ्गित (चेना) कहते हैं ||३६||
क्रोध से होनेवाली भयंकर आकृति व प्रसन्नता से होनेवाली सौम्य प्राकृतिको 'आकार' कहते हैं । श्रथवा क्रोधसे होनेवाली मुखकी म्लानता एवं प्रसादसे होनेवालो मुखकी प्रसन्नताको 'आकार' कहते 1134 11
मद्यपान व स्त्रीसंभोगसे होनेवाले हर्षको 'मद' कहते हैं ।। ३८ ।
अपने या दूसरोंके नामको भूल जाना या उसका अन्यथा कहना आदि में कारण असावधानी को 'प्रभाव' कहते हैं ॥ ३६ ॥
इसी प्रकार करनेयोग्य इच्छित कार्यको छोड़कर दूसरे कार्यको करने लगना ऐसी असावधानतारूप प्रवृत्ति को भी 'प्रमाद' कहा गया है । ४० ॥
गाढ़ नीद में व्याप्त होनेको 'निद्रा' कहा है ॥ ४१ ॥
भावार्थ::- उक्त पांच बातें गुप्त मंत्रको प्रकाशित करती हैं ।
उदाहरणार्थ::- जब मंत्रणा करते समय राजा आदि अपने सुखादिकी विज्ञातोय (गुप्त अभिप्राथ को प्रकट करनेवाली) चेष्टा बनाते हैं, उससे गुप्तचर उनके अभिप्रायको जान लेते हैं। इसीप्रकार क्रोध से उत्पन्न होनेवाली भयंकर आकृति और शान्तिसे होनेवाली सौम्य आकृतिको देखकर गुप्सचर जान लेते हैं, कि राजाकी भयंकर आकृति 'विग्रह' को और सौम्य प्राकृति 'संधि' को बता रही है। इसी प्रकार शराब पीना, आदि 'प्रसाद' और निद्रा आदि भी गुप्त रहस्यको प्रकाशित करने वाले हैं, अतएब इनको छोड़ देना चाहिये || ३६-४१ ॥
1 यह सूत्र मु०३०लि० मूल प्रतियों में नहीं है किंतु सं० टी० पुस्तक में होने से संकलन किया गया है और वह भी अधूरा था, जिसे पूर्ण कर दिया गया है । संपादक:---
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विमर्श: संभवत: 'निंद्रा' प्रसिद्ध होनेसे श्राचार्यश्रीने उसका पृथक लगा-निर्देश करना उचित न समझा हो । टीकाकारने कम प्राप्त होनेसे उसका किया है ।
तितो इसमें यदि 'नितिः' दिखा 'इन' श्ययान्त और होता तो विशेष उत्तम थर । संसदक
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मन्त्रि-समुद्देश
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बांमष्ट' विद्वान ने भी कहा है कि राजाको मंत्ररणाके समय अपने मुखको प्राकृति शुभ और शरीरका प्रानि मौम्य रयनी चाहिये तथा निद्रा, मद और आलस्य छोड़ देना चाहिये || मंत्र (निश्चित विचार) को शोघ्र ही कार्यरूपमें परिणत करने का आदेश
उद्धनमन्त्री न दीर्घसूत्रः स्यात् ।।४।। अथवितिगी विचार निश्चित होजानेपर उसे शीघही कार्यरूपमें परिणत करनेका यत्न करे, इस में उस पालम्य नहीं करना चाहिए । सारांश यह है कि मंत्रमें विलम्ब करनेसे उसके फूटनेका भय रहता है जिमग कायमद्वि नही होपाती। अत: उमेश ही कार्यरूपमें परिणत करना चाहिये ।।४२॥
कौटिल्य ने भी कहा है कि 'अर्थका निश्चय करके उसको शीघ्र ही कार्यरूपमें परणित करना चाहिये, ममयको व्यर्थ बिनाना श्रेयस्कर नहीं ॥१॥
शुक' विद्वान ने कहा है कि जो मनुष्य विचार निश्चित करके उसी समय उसका आचरण नहीं वाना. उस मंत्र का फल (कायं निद्धि) प्राप्र नहीं होता ।।शा' निश्चित विचारक अनुमार कार्य न करने से हानि
अननुशान छात्रवत् कि मंत्र ख* ||४३॥ ___ अर्थ-विजिगीएको कर्तव्य-पालनके विना केवल निश्चित विचारसे आलसी विद्यार्थीको तरह 5.1 लाम नहीं होना-कार्य-मिद्धि नहीं होती। जिमप्रकार प्रालसी शिष्य गुरुसे मंत्र सीख लेता है, निदनकन जप वगैरह का प्राचरण नहीं करता, अतः उमका मंत्र सीखना निष्फल है, सीप्रकार जिनी मी यदि मंत्र के अनुकूल फतव्यमें प्रवृत्त नहीं होता तो उसकी मंत्रणा भी व्यर्थ है ॥३।।
शुक' विद्वानन कहा है कि 'जो विजिगीषु मंत्रका निश्चय करके उसके अनकूल कार्य नहीं करता, 'नगमका का मंच अानसी छात्र के मंत्री तरह व्यर्थ होजाता है ।।१।।'
न वानको दशान्त द्वारा पुनः समर्थन
न छोपधिपरिज्ञानादेव व्याधिशमः ॥४॥ अथ--कयल औषधिके शानमात्र रोगकी शांति नहीं होसकती। सारांश यह है कि जिस प्रकार केवल औषधक जानलेने मासे व्याधियोंका नाश नहीं होता किन्तु उसके सेवनसे दो होता है, उसी प्रकार विचार मात्र मन्धि य विमह आदि कार्य सिद्ध नहीं होसकत, किन्तु मंत्रणा अनुरुल प्रवृत्ति कान कार्य सिद्ध होते हैं ॥४४||
६ नया :- मंत्रांग्रस्था महीपेन कम्यं शुभचेष्टितम् । श्राकारश्य शुभः कार्यस्थास्या निधामदासाः ॥॥ २ तथा । कोरिय:-'अवानाधकाल नातिकमना-कौटिल्य अर्थशास्त्र मंत्राधिकार मा. : N. --पो मंत्र' मंपिया नु नानुयाम करोनि च । तरतणासस्य मंत्रस्य जायो नात्र संशयः ॥३॥ • मानचिना व नन कि मंग' इस प्रकार मु. व ६० लि. मूल प्रतियों में पाठ , उसका अर्थ यह है कि
+11 में गत विजिना चलनश्चित विचार में कोई लाभ नहीं। ..च गु+:- मं ।' मंगवा ] मन: करोनि च ! सनस्य पर्यत याति छात्रस्येव प्रमादिनः ॥३॥
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नारद' विद्वान्ने कहा है कि जिसप्रकार दयाई के जान लेनेपर भी उसके भक्षण किये बिना भ्याधि नष्ट नहीं होती, उसीप्रकार मंत्रको कार्य-रूप में परिणत किये बिना केषल विचारमात्रसे काये-सिम नहीं होता ॥शा' संसार में प्राणियों का शत्र
नास्त्यविवेकात् परः प्राणिनां शत्र:॥४५|| अर्थ-संसारमें नीतिशास्त्रके अज्ञानको छोड़कर प्राणियोका कोई दूसरा शत्रु नहीं है। क्योंकि नैतिक अमान ही मनुष्यको शत्रु से वध बंधनादि कष्ट दिलाता है माया जमसे सभी कार्य नष्ट होजार UK:
गुरु' विद्वान्ने कहा है कि 'अज्ञान (मूर्खवा) प्राणियोंका महाशत्र, है, जिसके कारण मनुष्यको वध-बंधनादिके कष्ट भोगने पड़ते हैं ।।१।।' स्वयं करने योग्य कार्यको दूसरोंसे करानेसे हानि
आरमसाध्यमन्येन कारयौषधमन्यादिव व्याधि चिकित्सति ॥४६॥ अर्थ-जो मनुष्य स्वयं करने योग्य कार्यको दूसरोंसे कराता है, यह केवल औषधिके मृत्य हानसे ही रोगका परिहार-नाश चाहता है। अर्थात् जिसप्रकार केवल दवाईकी कीमत समझ मेनेमाग्रमे बीमारी नष्ट नहीं होती, उसीप्रकार स्वयं करने योग्य कार्यको दूसरोंसे करानेमे वह कार्य सिव नही दोसा ॥४६||
भूगु विद्वान्ने कहा है कि 'जो मूर्ख मनुष्य स्वयं करने योग्य कार्य दूसरोंसे कराता है, वह दवाई के केवल मूल्य समझनेसे रोगका नाश करना चाहता है ॥१॥
स्वामी की उन्नति-अयनतिका सेवकपर प्रभाव
। यो यत्प्रतिवद्धः स तेन सहोदयव्ययी ॥४७॥
अर्थ-जो सेवक जिस स्वामीके आश्रित है वह अपने स्वामोकी उन्नतिसे उन्नतिशील और अवननि से अवनतिशील होता है । सारांश यह है कि संसारमें सेवकके ऊपर उसके स्वामीको मार्षिक-हानि और बाभका प्रभाव पड़ता है जो
भागुरि विद्वान् ने कहा है कि राजा तालाबके जल-समान है और उसका सेवक कम-समूहके समान है, इसलिये राजाको वृद्धिसे उसके सेषककी वृद्धि और हानिसे उसकी भी हानि होती है ॥१॥ - .... . ..........---........ .. - .- - - । तथा च भारदः-विलाते मेपणे पहा बिना मा म नरवति । ग्याधिस्तण व मंत्रेऽपि न सिविः इरपजिते । २ तथा च गुरु:-अविवेकः शरीरस्थो मनुयायी महारिपुः । पश्चानुहानमात्रोऽपि करोति पबंधनम् ॥१॥ । तथा च भृगुः-प्रारमसाध्य तु यस्का पोऽम्पपारान् सुमन्वधीः । कारापति मायाधि नपेद् भेषप्रमूम्पतः ॥ १।। : तपा - भागुरिः-मरस्तोयसमो राजा भृश्यः पसारोपमः | तबाबा वृद्धि मभ्मेति तहिना विनश्यति [14
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मन्त्रिसमुद्देश
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मापसे सेवकको लाभ --
स्वामिनाधिष्ठितो मेोऽपि सिंहायते ||४८||
अर्थ-साधारण (कमजोर) मेढ़ा भी अपने स्वामीसे श्रधिष्ठित हुआ शेर के समान श्राचरण करता सवान होजाता है, फिर मनुष्यका तो कहना ही क्या है । सारांश यह कि साधारण सेवकभी अपने सहायताको प्राप्तकर वीर होजाता है ॥४७॥
१
मंत्र- गुप्त सलाह के समय मंत्रियोंका कर्त्तव्य
मंत्रकाले विगृप विवाद: स्वैरालापश्च न कर्त्तव्यः ॥४६॥
'विज्ञान ने कहा है कि 'जिसप्रकार साधारण कुत्ता भी अपने स्वामीको प्राप्तकरके शेरके भर करता है, उसीप्रकार साधारण कायर सेवक भी अपने स्वामीकी सहायतासे वीर हो
धर्म-मंत्रियों को मंत्रणा के समय परस्पर में कलह करके वाद-विवाद और स्वच्छन्द बातचीत आदि) न करनी चाहिये। सारांश यह है कि कलह करने से वैर-विरोध और स्वच्छन्नशुन्य-वार्तालाप से अनादर होता है, अतएव मंत्रियोंको मंत्रकी वेलामें उक्त बातें न चाहिये ॥४६॥
विद्वान ने कहा है कि 'जो मंत्री मंत्र-वेला में वैर-विरोधके उत्पादक वादविवाद और हंसीमादि करते हैं उनका मंत्र कार्य सिद्ध नहीं होता ॥१॥
"प्रधान प्रयोजन—फल -
अविरुद्वैरस्वैरं विहितो मंत्रो लघुनोपायेन महतः कार्यस्य सिद्धिमंत्रफलम् ॥ ५० ॥
परस्पर वैर-विरोध न करनेवाले - प्रेम और सहानुभूति रखनेवाले और हंसी-मजाक (युक्ति व अनुभव-शून्य) वार्तालाप न करनेवाले (सावधान) मंत्रियोंके द्वारा जो मंत्रणा जाती है, उससे थोडेसे उपाय से उपयोगी महान कार्यकी सिद्धि होती है और यही (रूप उपायसे महान सिद्धि करना) मंत्रका फल या माहात्म्य है । सारांश यह कि थोडे उपायसे थोड़ा कार्य और महान से महान कार्य सिद्ध होना, यह मंत्रशक्तिका फल नहीं है, क्योंकि वह तो मंत्रणा के बिना भी हो
परन्तु थोडेसे उपाय द्वारा महान कार्यकी सिद्धि होना यही मंत्रशक्तिका माहात्म्य है ||५०|| भारत विज्ञानने कहा है कि 'सावधान (बुद्धिमान) राज मंत्री एकान्त में बैठकर जो षाड्गुण्ग-संधि
:-स्वामिनभिति भृत्यः परस्मादपि कातरः । स्वापि सिंहायते यक्षिजं स्वामिनमाश्रितः ॥२॥ - विरोधवाक्यस्यानिमंत्रकाल उपस्थिते । ये कुर्युर्मन्त्रिस्तेषां मंत्र कार्य न सिद्ध्यति ॥ १ ॥ -साभागाश्च मे मंत्रं चकुरेकान्तमाश्रिताः । साधयन्ति नरेन्द्रस्य कृत्यं क्लेशदिवसिंतम् म म विंग महतः कार्यस्य सिद्धि मंत्रफलम्' ऐसा मु० मूत्र व मित्र म्० प्रतियों में पाठ है, परन्तु विशेष अहीं है।
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नीतिवास्यामृत
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व विग्रह मादि-सम्बन्धी मंत्रणा करते हैं, उससे वे राजाके महान कार्य (संधि और विग्रह आदि पायगुण्य) को बिना क्लेश से सिद्ध कर डालते हैं। ॥१॥ उक्त वाक्यका दृष्टान्त द्वारा समर्थन
न खलु तथा हस्तेनोत्थाप्यते ग्रावा यथा दारुणा ॥१॥ अर्थ-जिसप्रकार पृथ्योमें गद्दी हुई विशाल पत्थरकी चट्टान तिरछी लकड़ीके यन्त्र विशेषसे शीघ्र ही थोड़े परिश्रमसे उठाई जासकती है (स्थानसे हटाई जाती है.), उसप्रकार हाथोंसे महान् परिश्रम करनेपर मी नहीं उठाई जा सकती । इसीप्रकार मंत्रशक्तिसे महान कार्य भी, थोड़े परिश्रमसे सिद्ध होजाते हैं, बिना मंत्रणाके कदाऽपि सिद्ध नहीं होसकते ॥५१॥
हारीत' विद्वान ने कहा है कि 'राजा जिस कार्य (अप्राप्त राज्यकी प्राप्ति-आदि) को युद्ध करके अनेक कष्ट उठाकर सिद्ध करता है उसका वह कार्य मंत्र-शक्ति रूप उपायसे सरलवासे सिद्ध होजाता है, अतश्व उसे मंत्रियोंके साथ अवश्य मंत्रणा करानी चाहिये ॥२॥ जिस प्रकारका मंत्री राजाका शत्रु होता है
स मंत्री शर्यो नृपेच्छयाऽकार्थमपि कार्यरूपतयाऽनुशास्ति ॥५२।। अर्थ-ओ मंत्री राजाकी इच्छासे-जसकी प्राज्ञाके अनुसार चलने के उद्देश्यसे--उसको अकर्तव्यका कसंख्यरूपसे उपदेश देता है, यह राजाका शत्रु है। सारांश यह है कि अकर्तव्यमें प्रवृत्त होनेसे राजाकी अत्यन्त हानि होती है, इसलिये अकसंख्यका उपदेश देनेवाले मंत्रीको शत्रु कहा गया है ।।२।।
भागुरि विद्वान्ने कहा है कि 'जो मंत्री राजाको अत्तव्यका कर्तव्य और कर्तब्यका अकर्तव्य बसा देता है, वह मंत्री के रूपमें शत्र, है ।।१।।' मंत्रीका कर्तव्य
वर स्वामिनो दःख न पुनरकार्योपदेशेन तद्विनाशः * ॥५३|| अर्थ-मंत्रीको राजाके लिये दुःख देना उत्तम है-अर्थात् यदि यह भविष्यमें हितकारक किन्तु
इसया पहारीत:-पत् कार्य साधयेद् राजा कोशैः संग्रामपूर्षकैः । मंत्रण सुखसाध्मं तसस्माभित्र प्रकायेत् ॥१॥ २समा भागरिः-प्रहस्प कृत्यरूम च सत्यं चाकृत्यसंहिता निवेदयवि भूपस्य स वैरी मंत्रिरूपाक ||
वर स्वामिनो मरमावदुःखं न पुनरकार्योपदेशेन विनाशः' ऐसा मु० मू.प० मि० मूल प्रसिौपाठान्तर है। जिसका अर्थ यह है कि सन्ने मंत्रीका कर्तव्य है कि वह अपने स्वामीको सदा तात्कालिक कठोर परन्तु मषिप्यमें
हिवकारक उपदेश दे । ऐसे अवसर पर राजाकी इच्छा के विरुद्ध उपदेश देनेसे कुछ हुए राजाके राससको .. मरण-संकट भी उपस्थित होजावे तो भी उत्तम है परन्तु राजाकी इखानुका अहितका उपदेश देकर इसे पतिहामि-पहुँचामा उसममाही।
-सम्पादक
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मन्त्रिसमुद्देश
प्रिय लगनेवाले ऐसे कठोर वचन बोलकर राजाको दुःखी करता है तो उसम है, परन्तु wor evदेश देकर राजाका नाश करना अच्छा नहीं- अर्थात् तत्काल प्रिय लगने वाले, किन्तु हानिकारक वचन बोलकर अकार्यका उपदेश देकर उसका नाश करना अच्छा नहीं ||५३|| are विद्वानने कहा है कि 'मंत्रीको राजाके प्रति भविष्य में सुखकारक किन्तु तत्काल पीड़ा-कारक बोलना wwar है, किन्तु तस्कrer प्रिय और भविष्य में भयानक बनोंका घोलना नहीं ॥११४
prakerSqUqU | 1343 14
मैत्रीको आग्रह करके राजासे जो कर्त्तव्य कराना चाहिये
पीयूषमपिवतो चालस्य किं न क्रियते कपोलहननं
१०३
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॥ ५४ ॥
अर्थ ---जब का माताके स्तनोंका दूध नहीं पीता, तब क्या वह उसके गालों में थप्पड़ लगाकर बूम नहीं पिलाती ? अवश्य पिलाती है । साराँश यह है कि जिसप्रकार माता बच्चे के हिसके लिये कालिक कठोर और भविष्य में हितकारक व्यवहार करती है, उसीप्रकार मंत्रीको भी राजाकी लिये refers तकारक और तत्कालमें कठोर व्यवहार करना चाहिये ||२४|
" विद्वान ने भी कहा है कि 'जिस प्रकार माता को ताड़ना देकर दूध पिलाती है, उसी फिर मंत्री भी खोदे मार्ग में जाने वाले राजाको कठोर वचन बोलकर सम्मान में लगा देता है ॥ मैदियों का फसव्य—
मंत्रिणो राजद्वितीयहृदयत्वाम केनचित् सह संसर्गे कुर्युः ॥५५॥
अर्थ- मंत्री लोग राजाके दूसरे हृदम रूप होते हैं-- राजारूप ही होते हैं, इसलिये उन्हें किसीके नेहादि सम्बन्ध न रखना चाहिये ||१५||
सिकार शुक्र ने भी कहा है कि 'मंत्री लोग राजाओं के दूसरे हृदय होते है; इसलिये उनको इसकी लिये दूसरेसे संसर्ग नाहीं करना चाहिये ||१||
राजाके सुख-दुःखका मंत्रियों पर प्रभाव-
राज्ञोऽनुग्रहविग्रहावेव मंत्रिणामनुग्रह चिग्रहो ॥५६॥
धर्म - राजाकी सुख-सम्पति ही मंत्रियोंकी सुख-सम्पति है एवं राजा के कष्ट मंत्रियोंके कष्ट
नारद:- पर पीड़ाकर पर परिणामसुखावई। मंत्रिया भूमिपालस्व म ह ममानकम् ॥१॥ पीपूरमपि पिचतः बालस्य किं क्रियते कपालहननम् । गेला मु० ब. इ० शि० भू० प्रतियोंमें पाठाम्वर है यह है कि बच्चा दूधको भी पो रहा और बरि वह दूध उसके किये अपथ्य — हानिकारक है, तो क्या नहीं किया जाता है अवश्य किया जाता है, उसीप्रकार मंत्रो भो
है
पीने पर माके द्वारा उसे मस्तक
के लिये भविष्य में हानिकारक उपदेश कदापि न देये । –सम्पादक गर्गः- जनमी वालक पद्धस्खा स्तम्यं प्रपाययेत्। एवमुम्भागंगो राजा भारमंत्रा रचि १ ॥ शुक्रः- मंत्रियः पार्थिवेन्द्रायां द्वितीय हृदय ततः । ततोऽन्येन न संसर्गः कार्यो नृपसुन्दये ॥१॥
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नोतिषाक्यामृत
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समझ जाते हैं। अथवा राजा जिस पुरुषका निग्रह (दंड देना) और अनुप्राह करता है, यह मंत्रियों . के द्वारा किया हुआ ही समझना चाहिये। अर्थात मंत्रियों को पृथक रूपसे उस पुरुषका निमा अनुग्रह नहीं करना चाहिये । अन्यथा (यदि मंत्री लोग, रामाकी अवज्ञा करके उस पुरुषका अलगसे निग्रह या अनुग्रह करेंगे) 'ये मेरे राज्याधिकारको छोकना चाहते हैं। ऐसा समझर राजा उसपर विश्वास नहीं करेगा ॥६||
हारीस' विद्वामने कहा है कि क्योंकि मंत्रीगण मदा राजाके हितैषी होते हैं। अतएव राजाने उन्नतिसे मंत्रियोंकी उन्नति होती है एवं राजाके ऊपर 3 पड़नेसे मंत्रियों को भी कष्ट उठाना पड़ता है या कर्तव्य-परायण मंत्रियोंके कार्योमें सफलता न होनेका कारण
स देवस्यापराधो न मंत्रिणां यत् सुघटितमपि कार्य न घटते ॥७॥
अर्थ-जो मंत्री राज-कार्य में सावधान होते हैं, तथापि उनके द्वारा अच्छी तरह मंत्रणापूर्वक किया हुआ भी कार्य अब सिद्ध नहीं होता, उसमें उनका कोई दोष नहीं, किन्तु राजाके पूर्वजन्म संबंधी भाग्यका ही दोष समझना चाहिये ।।५।।
भार्गव विद्वान ने कहा कि राजा के कार्यमें सावधान और हितैषो मंत्रियोंका जो कार्य सिद्ध नहीं होता, उसमें उनका कोई दोष नहीं. किन्तु भाग्यका ही दोष समझना चाहिये ।।१।। राजाके कन्यका निर्देश
स खलु नो राजा यो मंत्रियोऽतिक्रम्य वर्तत ॥५॥ अर्थ-जो राजा मंत्रियोंकी बातको उल्लकन करता है-न उनकी बात सुनता है और न पाचरण करता है, वह राजा नहीं रह सकता-वसका राज्य क्रमागत होने पर भी नष्ट हो जाता है ।।५।।
भारताज' विद्वान्ने कहा है कि 'जो राजा हितैषी मंत्रियों की बात को नहीं मानता, वह अपने पिता और पावासे चले आये क्रमागत राज्यमें पिरकाल तक नहीं ठहर सकता-उसका राज्य नष्ट हो जाता है । पुनः मंत्रणाका माहात्म्य
सुविवेचितान्मंत्रालवत्येव कार्यसिद्धिर्यदि स्वामिनो न दुराग्रहः स्यात् ।।५६॥ अर्थ-यदि राजा दुराग्रही-हठी न हो तो अच्छी तरह विचारपूर्वक किये हुऐ मत्रसे अवश्य कार्य-सिद्धि होती है। सारांश यह कि जब मंत्रिमंडल अपनी सैनिक शक्तिको हद और शव की सैनिक शक्ति चोख देखता है, एवं देश कालका विचार करके सन्धि-विप्रहादि कार्य प्रारम्भ करता है,
1 तथा रबारीत:-राज्ञः पुष्ट्या भवेत् पुष्टिः सचित्रानो महसरा । यमन म्यसनेनापि तेन तस्य हितार ॥शा २ तथा च भार्गव:-मत्रिणां सावधानानां यत्कार्य न प्रसिद्धपति । तत् स देवस्य दोषः स्थान तेषां मुहिवैषिणाम् । तभा भारद्वाज-यो गाजा मंत्रिणा वाग्यं न करोति हितैषिणा । न म निप्लेरिधरं राज्ये पिनपैतामहेपि ॥१॥
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मन्त्रिसमुद्देश
सब उसकी अश्य विजय होती है, परन्तु ऐसे अवसरपर राजाकी अनुमति होनी चाहिये, उसे दुरा
नहीं होना चाहिये ॥ ५६॥
Thembitoskromnakkusok).
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ऋषिपुत्रक विद्वान् ने कहा कि 'यदि राजा मंत्रीके साथ हठ करने वाला नहीं है, तर विचार किये हुऐ मंत्रसे कार्य की स्थायी सिद्धि होती है ॥१॥
पराक्रम शून्य राजाकी हामि -
अमिता राज्य विक्रयष्टिरिव ॥ ६० ॥
अर्थ -- जो राजा पराक्रम रहित है उसका राज्य वणिक अर्थात जिसप्रकार महार- क्रिया में कुशलता न रखनेवाले सेटका राजाका राज्य भी व्यर्थ है, क्योंकि इसे पराक्रमी पुरुष जीत लेते हैं ॥६८॥
नीति-
भारद्वाज' त्रिवान्ने कहा है कि 'पराक्रम शून्य राजाका कोई भी सम्धि-विमर्श का सेट के समान व्यर्थ है; क्योंकि वह शत्रु से पराजित होजाता है य
-- सदाचार प्रवृति से साभ
नीतिर्यथावस्थितमर्थमुपलम्भयति ॥ ३६१ ||
अर्थ - नीतिशास्त्रका ज्ञान मनुष्यको करने योग्य कार्य के स्वरूपका बोध करा देता है ||६||
ܪ܀:
व्यापारी के के समान व्यर्थ है । व्यर्थ है, उसीप्रकार पराक्रम शून्य
हित प्राप्ति और अहित स्थागका उपाय
विज्ञान ने कहा है कि 'माता भी मनुष्यका अहित कर सकती है, परन्तु अच्छी तरह विचार पूर्वक आचरणकी हुई मीति - सदाचार प्रवृत्ति-कदापि उसका अहित नहीं कर सकती। अनीतिदुराचाररूप प्रवृत्ति -- मनुष्य को खाए हुए विषफलके समान मार डालती है ।। १।।
हिताहितप्राप्तिपरिहारौ पुरुषकारापती ॥६२॥
अर्थ - हितकारक - सुख देने वाली - वस्तुकी प्राप्ति करना और अहित दुःख देनेवाली वस्तुओं को छोड़ना यह आत्मशक्ति पुरुषार्थके अधीन है। सारांश यह है कि जो वस्तु हितकारक होने पर भी दुर्लभ होती है उसे नैतिक मनुष्य पुरुषार्थ - आत्मशक्ति से प्राप्त कर लेता है । एवं जो वस्तु तत्काल में लाभदायक होनेपर भी अहित - फलकाल में दुःखदायक होती है, उसे यह जितेन्द्रिय होकर अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके प्रारमशक्तिले छोड़ देता है || ६२||
रायण विद्वान ने कहा है कि उद्योगी मनुष्य श्रात्मशक्तिले हितकारक वस्तु दुर्लभ होने पर भी
१ तथा ऋषिपुत्रकः - सुमंत्रितस्थ मंत्रस्य सिद्धिर्भवति शाश्वती । यदि स्याद्यास्वधाभाषी मंत्रिया सह पार्थिवः । २ तथा च भारद्वाजः – परेवा जायते साध्यो यो राजा विक्रमच्युतः । तेन समजते किंचिदखिना श्रेष्ठमो यथा ॥१॥ ३ तथा च गर्ग :-- मातापि विकृति पाति च भीतिः स्वनुष्ठितः । मीतिर्भसम्म क्रियाकमिव भचितम् ॥१॥ ४ तथा
वादिनं वाप्ययचानिए दुर्लभं सुलभं वा । चारमायामयान्मायों हितं चैव मुखा ॥१
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नीतिवाक्यामृत
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श्राम कर लेता है और अहितकारक सुलभ होनेपर भी छोड़ देता है एवं लाभदायक और हितकारक कार्य में प्रवृत्ति करता है ||१
मनुष्य-कर्त्तव्य ---
अकालसहं कार्यमद्यस्वीनं न कुर्यात् ॥ ६३॥
अर्थ --- जो कार्य विलम्ब करने योग्य नहीं है - शीघ्र करने योग्य है उसके करनेमें विलम्ब (दरी) न करना चाहिये ||३३||
चारायण विद्वान् ने कहा है कि 'विशेष सफल होनेवाले कार्यको यदि शीघ्र न किया जावे तो समय उसके फलको पीलेता है-विलम्ब करनेसे वह कार्य सिद्ध नहीं हो पाता ||१||
समय चुक जाने पर किये गये कार्यका शेष—
कालातिक्रमान्नखच्छेयमपि कार्यं भवति कुठारच्छेद्य ॥ ६४॥
अर्थ
-
जाने द्वारा
- सरलता से किया जानेवाला - कार्य भी कुल्हाड़े से काटने योग्य - अत्यन्त कठिन होजाता है । सारांश यह है कि जो कार्य समयपर किया जाता है वह थोड़े परिश्रम में सिद्ध-सफल - होजाता है, परन्तु समय चूक जानेपर उसमें महान् परिश्रम करना पड़ता है ||१४||
शुक विद्वान ने भी कहा है कि 'मामने उपस्थित हुए किसी कार्यको यदि उस समय न किया जाये तो थोड़े परिश्रम से सिद्ध होनेवाले उस कार्य में महान् परिश्रम करना पड़ता है ॥१॥१
नीतिज्ञ मनुष्यका कर्त्तव्य-
को नाम सचेतनः सुखसाध्यं कार्यं कृच्छ्रसाध्यमसाध्यं वा कुर्यात् ॥६५॥
अर्थ- कौन ऐसा बुद्धिमान पुरुष होगा ? जोकि सुखसे सिद्ध होनेयोग्य - सरल (धोड़े परिश्रम से मि होने) काय को दु:खमे सिद्ध होतेयोग्य (कठिन) या असाध्य ( विलकुल न सिद्ध होने योग्य) करेगा? कोई भी नहीं करेगा ||६||
गुरु विद्रान् ने भी कहा है कि 'बुद्धिमान पुरुषको सुलभ कार्य कठिन या दुर्लभ नहीं करना चाहिये ||१||
* 'अकालसहं कार्य यशस्वी विलम्पेन न कुर्यात् ऐसा पाठ ० ० लिक मू० प्रतियों में वर्तमान है, जो कि सं० टी० पुस्तक पाउने विशेष श्रद्धा है, उसका अर्थ यह है कि कीर्तिको कामना रखनेवाले मनुष्यको शीघ्र करने योग्य कार्य विलम्बमे न करना चाहिए।
१ तथा चारायणः - त्रस्य तस्य हि कार्यस्य सफलस्य विशेषतः । चित्रमक्रियमाणास्य कालः पिवति तत्फलम् ॥१॥ २ तथा शुक्रः- तत्कुणाचा यत् कुर्यात् किंचित् कार्यमुपस्थितम् । स्वल्पायामेन माध्यं चेत् कृच्छ प्रमिति ॥ १॥ ३ तथा गुरुः सुखसाध्यं च यत् कार्य कृष्णसाध्यं न कारयेत् । असाध्यं वा मतियस्य (भवेरिसले निरर्गला ॥१॥ संशोधित परिवर्तित सम्पादक
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मन्त्रि-समुहेश
मंत्रियों के विषयमें विचार और एक मंत्रीसे हानि
एको मंत्री न कर्त्तव्यः ॥६६॥
एको हि मन्त्री निखग्रहश्चरति मुह्यति च कार्येषु कृच्छे षु ॥ ६७ ॥ अर्थ-राजाको केवल एक मंत्री भी रखना चाहिये, मयोंकि मी स्वचत्र होते निराश होजाता है; इसलिये वह अपनी इच्छाके अनुसार राजाका विरोधी होकर प्रत्येक कार्यको कर गलता है, और कठिनतासे निश्चय करने योग्य कार्यों में मोह-अज्ञानको प्राप्त होजाता है।
प्राप्त'-प्रामाणिक-पुरुषोंने भी कहा है कि विद्वान् व्यक्ति भी अकेला कर्तव्यमार्ग में संदिग्ध रहता है, अतः राजाको एक मंत्री नहीं बनाना चाहिये ।। ६६-६७ ।।
नारद विद्वान्ने कहा है कि 'राजासे नियुक्त किया हुश्रा अफेजा मंत्री अपनी इच्छानुमार कार्यों में प्रवृत्ति करता है, उसे राजासे उर नहीं रहता तथा कठिन कार्य करनेका निश्चय नहीं कर सकता ॥१॥ दो मन्त्रियोंसे हानि
द्वावपि मैत्रिणी न कार्यों ।। ६८॥
द्वौं मंत्रिणी संहतो राज्यं विनाशयतः ॥ ६ ॥ अर्थ-राजा दो मंत्रियोंको भी सलाहके लिये न रक्खे, क्योंकि दोनों मंत्री आपसमें मिलकर राज्य को नष्ट कर सालते हैं ।। ६५-६६ ।।
नारद विद्वानने कहा है कि राजा यदि दो मंत्रियोंको सलाहके लिये रक्से, तो ये परस्परमें मिककर-सलाह करके-उसके धनको नष्ट कर डालते हैं ।।१।। दोनों मन्त्रियोंसे होनेवाली हानि
निगृहीतो तो ते विनाशयतः ।। ७० ॥ अर्थ-यदि दोनों मंत्रियोंका निग्रह किया जाता है, तो वे मिलकर राजाको नष्ट कर देते हैं 1104
गुरु' विद्वामने भी कहा है कि 'समस्त राज-कर्मचारी मंत्रियों के अधीन होते हैं मतः राजाके प्रतिद्वन्दी-विरोधी-मंत्री उनकी सहायतासे राजाको मार देते हैं ॥१॥' राजाको जितने मंत्री रखने चाहिये
अयः पंच सप्त वा मन्त्रिणस्तैः कार्याः ।। ७१॥
, 'शातसारोऽपि सरकः संदिग्धे कार्यवस्नुनि संगृहीत-- २ तथा च नारदः-एको मंत्री कृतो राज्ञा स्वेच्छपा परिवर्तते । न करोति भयं राज्ञः कृत्येषु परिमुवति ॥ ३ तथा च नारदः-मंत्रियां द्वितयं चेन् स्यात् कथञ्चित् पृथिवीपतेः । अन्योम्म मंत्रपिया करते विभवा ।।। * तथा व गुरुः-भूपते: सेवका ये स्युस्तेम्युःसनियसम्मताः । वैस्तैः सहायता नीतेई म्युस्तं प्राणवाइयात् ॥ ॥
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१५८
नीतिवाक्यामृच
अर्थ-राजाओंको तीन, पांच या सात मंत्री नियुक्त करने चाहिये। सारांश यह है कि विपम संख्यावाले मंत्रिस इलका परस्परमें एक मत होना कठिन है; इसलिये वे रास्यके विरुद्ध षड्यन्त्र गायन वगैरह--करने में असमर्थ रहत है; अतः राजाको तीन, पांच या सात मंत्री रखनेका निर्देश किया गया है १ ॥ परम्पर ईर्षा करनेवाले मन्त्रियोंसे हानि
विषमपुरुषसमूहे दुर्लभमैकमत्यं* ॥ ७२ ।। अर्थ-यदि राजा परस्परमें ईर्ण करनेवाले मंत्रि-मण्डलको नियुक्त करे, तो उसकी किसी योग्य राजकीय कायमें एक सम्मति होना कठिन है ।।७२ ।।
राजपुत्र' विद्वान्ने भी कहा है कि 'आपसमें ईर्षा करनेवालोंकी किसी कार्य में एक सम्मति नही होती; इसलिये राजाको परस्परमें स्पर्धा (ई) न करनेवाले पारस्परिक प्रेम ब सहानुभूतिसे रहनया-- मंत्रियोंकी नियुक्ति करनी चाहिये ॥१॥ बहुत मंत्रियोंसे होनेवाली हानि
यो मत्रिणः परस्परं स्वमतीरुत्कर्षयन्ति x ७३॥ अर्थ-परस्परमें ईर्षा रखनेवाले बहुतसे मंत्री राजाके समक्ष अपनी २ बुद्धिका महत्व प्रकट करके अपना २ मत पुष्ट करते हैं। सारांश यह है कि ईपालु बहुतसे मंत्री अपना २ मत पुष्ट करने में प्रयत्न शील होते हैं, इससे राज-कार्यमें हानि होती है ।।७।।
भ्य' विद्वान्ने कहा है कि 'जो राजा वहुतसे ईर्षालु मंत्रियोंको रस्ता है, तो ये अपने २ मतको उत्कृष्ट समझ कर राज-कार्यको नष्ट कर डालते हैं।' स्वेच्छाचारी मंत्रियोंसे हानि
स्वच्छन्दाश्च न विजम्भन्ते ॥७॥ अर्थ--स्वेच्छाचारी मंत्री अपसकी उचित सलाह नहीं मानते ॥७४||
अत्रि' विद्वान्ने भी कहा है कि 'स्वेच्छाचारी मंत्री राजाके हितैषी नहीं होते और मंत्रणा करते हुए उचित वातको नहीं मानते ॥१३॥
र उक्त पत्रका यह अर्थ भी होसकता है कि विषम मंत्रिमण्डत (सीन, पांच या सात) के रहनेपर उसका परस्पा मिसकर राजाका प्रतिबंदी (विरोधी) होना दुसम है, यह अर्थ भी प्राकरणिक है, क्योंकि ये सब द्वारा विषम
मंत्रिमंडल के रखनेका प्राचार्यश्रीने स्पष्ट निर्देश किया है। सम्पादक, तथा च राजपुत्रः-मिथः संस्पर्षमानानां मैफ संजायते मतं । स्पर्धाहीमा सस: कार्या मंत्रिणः पृथिवीभुजा ॥१॥ . x 'पहवो मंत्रिण: परस्परमतिभिस्कषयन्ति ऐसा मुमू० प्रतिमें पाठ है, परन्तु अभिप्राय दोनोंका एक है । संपादक २ तथा र रैम्पः-घडूश्च मंत्रियो गजा सम्पद्धाश् करोति यः । नन्ति स नृपकार्य यत् स्थमंत्रस्य कृता बराः ।। ६ तथा च अनिः-स्वरदा मंत्रिणा न न कुर्वशित योधिन । मंत्र मंत्रयमाणाश्च भूषम्याडमा: स्मृताः ||
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मन्त्रिमश
। राजा व मनुष्य-कर्तव्य
यबहुगुणमनपायबहुलं भवति तत्कार्यमनुष्टयम् ॥७॥
राजा या विवेकी मनुष्यको सम्पत्ति और कीर्ति-लाभ-प्रादि बहुत गुणों से युक्त (श्रेष्ठ) तथा सीत--निल्य य कल्याणकारक कार्य करना चाहिये ||५||
मनि विद्वानने भी कहा है कि 'महान् राज्यके इच्छुक राजाको को२ कार्य अधिक से और ससे रहित व कल्याणकारक हो उन्हें करना चाहिये ।।१।।
अनुष्य-कर्तव्यम तदेव भुज्यते यदेव परिणमति ।।७६।।
जिसका परिपाक (पचना) यच्छी तरहसे होसके, बही प्रकृति-ऋतुके अनुयूल भोजन करना है । सारांश यह है कि नैतिक मनुष्यको पचनेवाले (निरन्तर विशुद्ध, पुण्य, यशस्य, और न्याय.
भविष्य में कल्याण-कारक) सत् कार्य करना चाहिये । उसे न पचनेवाले समाज दंड और मावि बारा अपकीर्तिको फैलानेवाले अन्याय-युक्त असत् कार्योंसे सदा दूर रहना चाहिये । इसी
बाको भो राज्यकी श्रीवृद्धि में उपयोगी संधि और विमह आदि कार्य इसप्रकार विशुद्ध मंत्रणा समाचाहिये, जिससे उसका भविष्य उज्वल-श्रेयस्कर हो । उसे भविष्यमैं होनेवाली राज्य-क्षति कायों से सदा दूर रहना चाहिये ।।७६|| विसप्रकारचे मंत्रियों की नियुक्तिसे कोई हानि नहीं
यथोक्तगुणसमवायिन्येकस्मिन् युगले या मंत्रिणि न कोऽपि दोषः ॥७७॥ ई-पदि मंत्रीमें पूर्वोक्त गुण (पांचमें सूत्रमें कहे. हुए द्विज, स्वदेशवासी, मदाचारी, कुलीन सोंसे रहित आदि सद्गुण) विद्यमान हों तो एक या दो मंत्रियों की भी नियुक्ति करनेसे राजाकी मा होसकती । सारांश यह है कि पूर्वमें प्राचार्यश्री ने एक या दो मंत्रियों के रखनफा निषेध किया
मन यथार्थ सिद्धान्त प्रगट करते हैं कि पूर्वोक्त गुणों मे विभूषित एक या दो मंत्रियों के रखने में साथ कोई हानि नहीं होसकती ॥७॥ सबसे मूर्ख मंत्रियों के रखनेका निषेध---
न हि महानप्यन्धसमुदायो रूपमुपलभेत (१७८|| -पानसे भी मन्धों का समूह रूपको नहीं जान सकता | मारांश यह है कि जिसप्रकार
समुदाय हरित-पीतादि रूपको नहीं जान सकता, उसीप्रकार पूर्षोक्त अशासे शून्य व मूत्र भी राज्य-द्धिक डायो का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता। अतएष नीतिज्ञ राजाको मात्र नहीं रखना चाहिये ।।७८)
भिमा-याच्न उत्तर कृत्य सत्तस्कार्य महीभुजा । नोपालो भवे यन्त्र गज्यं विपुग्नमि छना ।।१।।
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१६०.
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नीतिवाक्यामृत
दोनों मंत्रियों के रखने से कोई हानि नहीं इसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन - किं महति भारे नियुज्यते ||७६||
वार्य
**********¶¶¶¶¶¶¶¶
अर्थ- दोनों बैल यदि अधिक बलिष्ठ हों, तो क्या वे दोनों महान बोझा ढोनेके लिए गाड़ी वर्गरह में नहीं जोते जाते ? अवश्य जोते जाते हैं। सारांश यह है कि उसीप्रकार दो मन्त्री भी यदि पूर्वोक गुणोंसे अलंकृत हों, तो वे भी राज्य-भारको वहन करने में समर्थ होसकते हैं; अतएव उक्त गुणोंसे युक्त दो मन्त्रियों के रखने में कोई हानि नहीं है ॥७६॥
बहुत से सहायकों से लाभ
बसहाये राशि प्रसीदन्ति सर्व एव मनोरथाः ||८०|l
अर्थ -- जिस राजा के बहुत से सहायक ( राज्य में सहायता देनेवाले भिन्न २ विभागोंके भिन्न २ प्रधानमन्त्री आदि) होते हैं, उसे समस्त अभिलषित पदार्थोंकी प्राप्ति होती है |
वर्ग' विद्वान ने कहा है कि 'जिसप्रकार मद-शून्य हाथी और दांतोंसे रहित सर्प सुशोभित 'व कार्य करने में समर्थ नहीं होता, उसीप्रकार राजाभी सहायकोंसे रहित होनेपर शोभायमान और राजकीय कार्य करने में समर्थ नहीं होता, इसलिये उसे बहुतसे सहायक रखने चाहिये ||१||
केवल मन्त्रीके रखने से हानि
एको हि पुरुषः केषु नाम कार्येष्वात्मानं विभजते ॥ ८१ ॥
अर्थ - अकेला आदमी अपनेको किन २ कार्यों में नियुक्तकर सकता है ? नहीं कर सकता। सारांश यह है कि राजकीय बहुत से कार्य होते हैं, उन्हें अकेला मन्त्री किसप्रकार सम्पन्न कर सकता है ? नहीं कर सकता, अतएब अलग-अलग विभागोंके लिये बहुतसे मंत्री आदि सहायक होने चाहिये ||८५१॥
:
जैमिनि विद्वान ने कहा है कि 'जो राजा अपनी मूर्खता से एक मन्त्रीको ही रखता है व दूसरे सहाको नहीं रखता, इससे उसके बहुत से राजकार्य नष्ट होजाते हैं ||१|| '
उक्त बातका प्रान्त द्वारा समर्थन
किमेकशाखस्य शाखिनो महती भवतिच्छाया X ॥८२॥
* 'अवायवीय हो कि महति भारे न नियुज्येते' ऐसा मु० म० पु० में पाठ है, जो कि सं० टो० पु० के पाटसे aj (ग्यावरचा अनुकूल) है, परन्तु सारांश दोनोंका एक सा है। संपादक
२
१ तथा च वर्गः – महीनो यथा नागो वंष्ट्राहीनो यथोरगः । श्रसद्दायस्तथा राजा तत् कार्या बद्दश्च से || १ || जैमिनिः-एकं यः कुरुते शआ मन्त्रियं मन्दबुनित । तस्य भूरीवि कार्याणि लीदन्ति तदाश्रयात् ||१|| संशोधित व परिवर्तित | सम्पादक
x किमेकशास्त्राशाखिनो मद्दतोऽपि भवािया? ऐसा मु० ०लि० मू० प्रतियोंमें पाठ है, परन्तु विशेष अर्थमेव नहीं है | सम्पादक
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मन्त्रिसमुद्देश
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समस्या केबल एक शाम्बावाले वृक्षसे अधिक छाया होसकती है ? नहीं होसकतो, उसीप्रकार सन मन्त्रीम गश्यके महान कार्य सिद्ध नहीं होमकते ॥८॥ । अनि विद्वान ने भी कहा है कि जिमप्रकार एक ही शाग्वा (डाली) वाले वृक्षसे छाया नहीं होती, कर अकेले मन्त्रीसे राम-कार्य सिद्ध तहीं होमकतं ।।१।।'
भापनिकालमें सहायकोंकी दुर्लभता- कार्यकाले दुर्लभः पुरुषसमृदायः ॥८॥
ध-बालिकाल पानेपर कार्य करनेवाले सहायक पुरुपोका मिलना दुर्लभ होता है । अतएव कि या राजा कार्य में सहायक पुरुपको पहले ही मंग्रह करे। सारांश यह है कि यपि भविष्य. वाली भारत्तसे बचाव करने के लिए पहलेसे सहायक पुरुषोंके रखने में अधिक धनराशिका व्यय का समापनातक पु+प उसकी परवाह न करे । क्योंकि धन-व्ययकी अपेक्षा सहायक पुरुषोंके संग्रहको सानिमन अधिक महत्व दिया है और इसोकारण विजिगीषु राजालोग भविष्यमें होनेवाले शत्रों के वारिसे राएको मुरक्षित रखने के लिये विशाल सैनिक-संगठन करने में प्रचुर धनराशिके व्ययकी ओर मान नहीं देते। क्योंकि आपत्तिकाल आनेपर उसीसमय सहायक पुरुषोंका मिलना कठिन होता है ।।३।।
किसी विद्वान् नीतिकार ने कहा है कि 'विवेकी पुरुषोंको आपत्तिसे छुटकारा पाने के लिये पहलेसे सहायक पुरुष रखने चाहिये, क्योंकि आपत्ति पढ़नेपर तत्काल उनका मिलना दुर्लभ होता है ।।१।।
पास ही सहायक पुरुषों का संग्रह न करनेसे हानि". दीप्ते गृहे क्रीदर्श कूपखननम् ।।८४||
अर्थ-मकानमें आग लगजानेपर उसे बुझाने को तत्काल पानीफे लिए कुत्रा खोदना क्या उचित है ? नहीं । मारांश यह है कि जिसप्रकार मकानमें लगी हुई पागको बुझाने के लिए उसी समय . कुत्रा ग्योदना व्यर्थ है, उसीप्रकार आपत्ति आनेपर उसे दूर करनेके लिए सहायक संग्रह व्यर्थ है ||४||
नीतिकार चाणिक्य ने कहा है कि 'नैतिक पुरुषको पहलेसे ही विपत्तिके नाशका उपाय चितवन करलेना पाहिए, अकस्माम् मकानमें आग लग जानेपर कुएका खोदना उचित नहीं ॥१॥ धन-व्ययको अपेक्षा सहायफ पुरुषों के संग्रहकी विशेप पयोगिता
न धनं पुरुषसंग्रहाबहु मन्तव्यं ॥८॥ अर्ध-सहायक पुरुषों के संग्रह की अपेक्षा धनको उत्कृष्ट नहीं समझना चाहिए । इसलिए धनाभि लापी एवं विजिगीष राजाओं को सहायक पुरुपोंका संमह करना चाहिए |
। तथा च अधिः-पासस्य माया प्रजायते । तपकमात्रणा राक्षः सिरिः कृत्येषु नो भवेत् ॥१॥ २ उन-अमे-माने मकन्याः सहायाः सुविकिभिः । भापलाशाय ते पस्माद् दुर्लभा म्यरमे स्थित ॥१॥ ३ साचापिय:-विपदाम प्रतीकारं पूर्वमेव प्रचिन्तयेत् । म पखनन युक्स' प्रदीप्ने सहसा योm
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नासिवाक्यामृत
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शुक्र' विद्वान्ने कहा है कि राजाको सहायक पुरुष-श्रेष्ठोंके बिना धन नहीं मिलता; इसलिये मम्पत्तिके अभिलाषी राजाओंको सदरा वीर पुरुषोंका संग्रह करना चाहिये ॥ १" उक्त यातका समर्थन-सहायक पुरुषों को धन देनेसे लाभ---
सत्क्षेत्रे धीजमिव पुरुषेयूप्त कार्य शतशः फलति * ॥ ८६ ॥ अर्थ--उत्तम उपजाऊ खेतमें बोए हुए पीक्षकी तरह सत्पुरुषों (महायक कार्यपुरुष-मंत्री, सेनापति और अर्थ-सचिव श्रादि) को दिया हुआ धन निस्सन्देह भनेक फल देता है-- अनेक प्रार्थिक लाभ-वगैरह प्रयोजनोंको सिद्ध करता है। सारांश यह है कि जिसप्रकार उपजाऊ पृथिवीमें घोर गये धान्यादिके शोज प्रचुर धान्य-राशिको उत्पन्न करने है, उमीप्रकार मंत्री, अमाम्य, पुरोहित और सेनापत्ति प्रादि सहायक पुरुषों को दिया हुआ धन भी प्रचुर धनराशिको उत्पन्न करता है। अप्तणय विजिगीषु राजा या नैतिक पुरुष सहायक सत्पुरुषों के संग्रहकी अपेक्षा धनको अधिक न समझे ।। ८६ ॥
जैमिन विद्वान्ने भी कहा है कि 'उत्तम मनुष्यको दिया हुआ धन और सौंपा हुआ कार्य उपजाऊ भूमिमें बोई हुई धान्य के समान निस्मन्देह सैकड़ों फल ( असंख्य धन-आदि) देता है ॥ १॥ कार्य पुरुषोंका स्वरूप
बुद्धावर्थे युद्धे च ये सहायास्ते कार्य पुरुषाः ॥ ७ ॥ अर्थ-बुद्धि, धन और युद्ध में जो सहायक होते हैं ये कार्य पुरुष है । सारांश यह है कि ग़जात्रों को राजनैतिक बुद्धि प्रदान करनेवाले प्रधान मंत्री और पुरोहित आदि, सम्पत्तिमें सहायक अर्ध-संधिव वगैरह और युद्ध में सहायक सेनाचिय-प्रादि इनको 'कार्यपुरुप' कहते हैं, अन्यको नहीं ।। ८७ ॥
शौनक' विद्वानने कहा है कि 'जो राजाको कर्तव्य (संधि-विप्रहादि) में अज्ञान होनेपर बुद्धि, संकट पाने पर धन एवं शत्रुओंसे लोहा लेनके समय सैनिक शक्ति देकर उसकी सहायता करते हैं, उन्हें (प्रधान मंत्रो, अर्थसचिव और सेनासचिव-श्रादि को) 'कार्यपुरुष' माना गया है ।। १ ।' जिस समयमें जो सहायक होते हैं..
खादनवारायां को नाम न सहायः ॥ ८ ॥ प्रथ-भोजन के समय कौन सहायक नहीं होता ? सभी सहायक होते हैं। सारांश यह है कि
। तथा च एका वा पुरुषेन्दारणा धन भूपस्य आयते । तस्माइमाविमा कार्यः सर्वदा वीरसंग्रहः ॥ .n * 'सुक्षेत्रेषु बोलमित्र कार्यपुस्यूतं धन शतशः कमति' इसप्रकार का मुन्मू० व हसिम• पतियोंमें पाठ है, सन्तु
अर्थ-मेर कुछ नहीं। । तथा जैमिनिः-सारे योजित कार्य धन र शतदा भवेत् । सुखेने वापिन यत् सस्थं शादर्सशर्थ ॥ {सा शौनकः--मोहे यन्ति ये बुद्धिमर्थे कृष्ट्र स्था धनं । रिसंघे पहायचं ते कार्यपुरुषा मला In * 'बादमवेखायो नको नाम *म्प न महाय, या मु. मूत्र पुस्तक में पाट है, परम्नु अर्ध-भेद कुछ नहीं।
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मन्धि-समुदेश
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सम्पत्तिके समय सभी पुरुष सहायक होजाते हैं. परन्तु अब मनुष्य के ऊपर आपत्ति पड़ती है तब कोई सहा. पता नहीं करता; इसीलिये आपत्ति आनेके पूर्व ही सहायक पुरुषों का संग्रह कर लेना श्रेष्ठ है ॥८॥
वर्ग' विद्वामने भी कहा है कि 'जव गृहमें धन होता है, तब साधारण व्यक्ति भी मित्र होजाता है, परन्तु धनके नष्ट होजाने पर बन्धु जन भी तस्काल शत्रुता करने लगते हैं ॥१॥ जिसप्रकारके पुरुषको मन्त्रणा करनेका अधिकार नहीं
भाद् इवाश्रोत्रियस्य न मंत्रे मूर्खस्याधिकारीस्ति ॥ ६ ॥ भर्थ-जो मनुष्य धार्मिक क्रियाकांडोंका विद्वान् नहीं है, उसको जिसप्रकार भाकिया (श्रद्धासे किया जानेवाला दान पुण्य) करानेका अधिकार नहीं है, इसीप्रकार राजनीसि-सानसे शूम्प-मूखे-मीको भी मंत्रणा (उचित सलाह) का अधिकार नहीं है ।। ८६ ॥ मूर्ख मन्त्रीका दोष
कि नामान्धः पश्येत् ॥ १० ॥ अथ-क्या श्रधा मनुष्य कुछ देख सकता है ? नहीं देख सकता। सारांश यह है कि इसीप्रकार अंधेके समान मूर्ख मन्त्री भी मंत्रका निश्चय नहीं कर सकता ।18.॥
शौनक विद्वानने भी कहा है कि 'यदि अंधा पुरुष कुछ घट-पटादि वस्तुओं को देख सकता हो, तब कही मूर्ख मंत्री भी राजाओंके मंत्र को जान सकता है ॥१॥ मूर्ख राजा और मूर्ख मंत्रीके होनेसे हानि
किमन्धेनाकृष्यमाणोऽन्धः समें पन्थानं प्रतिपद्यते ॥११॥ भर्ष - यदि अंधे मनुष्यको दूसरा अंधा जाता है, जो भी क्या वह सममार्ग (गटे और ककर पत्थरोंसे रहित एकसे रास्ते) को देख सकता है ? नहीं देख सकता। सारांश यह है कि खसीप्रकार पदि मुख राजा भी मूर्स मंत्रीकी सहायतासे संधि-विग्रहादि राजकार्यों की मन्त्रणा करे, तोया पर उसके का (विजयलक्ष्मी व अर्ध-जाभ-आदि) प्राप्त कर सकता है। नहीं कर सकता ॥१॥ -
शुक विद्वानने भी कहा है कि यदि अन्धा मनुष्य दूसरे अन्धेके द्वारा खोपकर मार्ग में लाया जाये, पवापि यदि वह (अन्धा) ठोक रास्तेको देख मके, तब कहीं मुखे राजाभी मूखे मंत्रीकी सहायता से मंत्रराजकीय उचित सलाह---का निश्चय कर सकता है। सारांश यह है कि उस दोनों कार्य असंभव इसलिये राज-मंत्रीको राजनीतिका विद्वान होना चाहिये था।
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। तथा च मर्ग:-बदा स्यान्मदिरे क्षमीसम्मोऽपि सुहसमेत् । विताये या पास्ताचार दुर्बनापते ॥ . चार शौनक:-अन्धो मीरवते (कंविर घई ना पामेव । तदा मोऽपि यो मंत्री मंत्र परवेत् स भमृताम् ।। 'न चाम्लाकृष्यमाणोन्यः समं पंथानं प्रविपचते' एला मु. .. . मतियोंमें पार, परन्तु वर्ष-मेर
पुष नहीं । संपादक। तथा च शुर-मन्भेनाहयमाणो दन्को मागंपीपक | भवेतन्यूपोऽपि मंत्रा बायज्ञमंत्रियः ॥१॥
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१८४
नीतिवाक्यामृत
मूर्ख मंत्री से कार्य सिद्धि निश्चित नहीं है, इसका दृष्टान्तों द्वारा समर्थन-
तदन्धवर्तकीयं काकतालीयं वा यन्मूर्खमंत्रात् कार्यसिद्धिः ||६२||
अर्थ- मूर्ख मंत्री मंत्रणा - सलाह से भी कभी किसी समय कार्य सिद्धि हो जाती है, परन्तु वह के हाथ आई हुई विशेष को न्याय के समान अथवा काकतालीय न्याय (ताड़ वृक्षके नीचेसे उड़कर जानेवाले कौएको उसीसमय उस वृत्तसे गिरनेवाले ताङ्गफलकी प्राप्ति रूप न्याय) के समान सार्वकालिक - सदा होनेवाली और निश्चित नहीं होती । अर्थात् – जिसप्रकार बन्धेके हाथों में कभी किसी समय भाग्योदय से वढेर पक्षी अचानक आ जाता है परन्तु उसका मिलना सदा व निश्चित नहीं है ।
10-11-19
अथवा जिसप्रकार ताड़वृक्षके नीचे से उड़कर जाने वाले कौए के मुखमें उसीसमय उस वृद्धसे गिरनेवाले ताङ्गफलका प्राप्त होना, कभी उसके भाग्योदय से होजाता है, परन्तु सार्वकालिक व निश्चित नहीं है, उसीप्रकार राजाको भी भाग्योदय से, मूर्ख मन्त्रीकी मंत्रणा कार्यसिद्धि होजाती है, परन्तु वह सदा और निश्चित नहीं होती ।
स्पष्टीकरण - अन्धेके हाथमें प्राप्त हुई वटेर न्याय - कभी टेर (चिड़िया विशेष) अन्धेके शिर पर बैठ जाती है। वह 'मेरे शिरपर क्या चीज श्रापड़ी' ? ऐना समझकर उसे अपने दोनों हाथोंसे पकड़ लेता है, यह 'बन्धे के हाथ में आई हुई वटेर न्याय' हैं प्रकरण में जिस प्रकार यद्यपि वटेरकी प्राप्ति चक्षुष्मान् ( श्रांखों वाले) पुरुषकी सरह अन्धे को भी हुई, परन्तु अन्धेकों उसकी प्राप्ति कदाचित् भाग्योदय से होती है, सदा व निश्चित रीति से नहीं। उसी प्रकार राजाको भी मूर्ख मंत्रीकी मंत्रणा से कदाचित् भाग्योदय से काय-सिद्धि होसकती है, परन्तु वह सार्वकालिक और नियत नहीं |
इसीप्रकार काकतालीयन्याय - साड़ वृक्ष में चिरकालसे फल लगता है और वह कभी ताड़ वृक्ष से टूट कर गिरते समय उसके नीचे मार्ग से जाते हुऐ कौए के मुखमें भाग्योदय से प्राप्त होजाता है उसे 'काकतालीयन्याय' कहते हैं। उक्त प्रकरण में जिसप्रकार लाइ वृक्षके फलकी प्राप्ति कौएको कभी भाग्योदय से होजाती है, परन्तु वह सार्वकालिक और नियत नहीं, उसीप्रकार मूर्ख मंत्रीकी मंत्रणासे राजाको भी कदाचित् भाग्योदय से कार्यसिद्धि हो सकती है, परन्तु सदा और निश्चित नहीं हो सकती ॥६२॥
गुरु' विद्वान भी कहा है कि 'मूर्खकी मंत्रणा से किसीप्रकार जो कार्य सिद्धि होती है, उसे भन्छे के हाथ में आई हुई वढेर-न्याय एवं काकतालीय न्यायके समान कदावित् और श्रनिश्चिव समझनी चाहिये !!'
मूर्ख मंत्रियों को मंत्रज्ञान जिसप्रकार का होता है
स घुणाचरन्यायो यन्मूर्खेषु मंत्रपरिज्ञानम् ॥६३॥
१ तथा च गुरुः-- धकमेवैतत् काकतालीयमेव च । यम्मूर्खमंत्रतः सिद्धिः कथंचिदपि जायसे ||
*म० मु० प्रति 'कार्यपरिज्ञान' ऐसा पाठ है, उसका अर्थ-कर्तव्य- निश्चय है, विशेष प्रर्थमे कुछ नहीं। क
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मन्त्रि-समुरेश
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-पूर्व मनुष्यको मंत्रणाका ज्ञान धुणाक्षरम्यायके समान कदाचित् होजाता है, परन्तु
सकरज-धुणाक्षरन्याय-घुण (कीड़ाविशेष) लकड़ीको धीरे २ खाता है, उससे इसमें विचित्र संजाती है, उनमेसे कोई रेखा कदाचित् अक्षराकार (क, ख-आदि अतरोंकी आकृतिवाली) होजाती
शपण्याय' कहते हैं । उक्त प्रकरणमें जिस प्रकार घुणसे लकड़ी में अक्षरका बनना कदाचित् होता निरिणत नहीं, उसीप्रकार मुस्खे पुरुषसे मंत्रणाका मान भी कदाचित् भाग्योदयसे होसकता है,
मा निश्चित व सदा नहीं हो सकता ॥३॥' है गुरु: विज्ञामने भी कहा है कि 'मूर्ख मनुष्यों को मंत्र (सलाह) का मान पुणापरन्यायके समान पारित होता है, परन्तु नियत न होनेसे उसे ज्ञान नहीं कहा जासकता था . मात्यानसे शूम्म मनकी कर्तव्य विमुस्खसा
मनालाक लोधनभिवाशास्त्र मना किया पश्चः ॥४॥ -शास्त्रानसे शून्य जडात्मक मन ज्योति-रहित नेत्रके समान कितना कर्तव्य-बोध कर सकता ही कर सकता। सारांश यह है कि जिस प्रकार अन्धा पुरुष ज्योति-हीन नेत्रोंके द्वारा पद-पदादि नहींस सकता, उसीप्रकार जिस मनुष्यका मन शास्त्रज्ञानके संस्कारसे शन्य है, वह भी व्यका निश्चय नहीं कर सकता ।१४||
विद्वान् ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार ज्योति-हीन बजु किसी भी घट-पटादि वस्तुको नहीं देख की इसीप्रकार शास्त्र मानसे शून्य' मन भी मंत्रणाका निश्चय नहीं कर सकता ॥१२॥ सम्पत्ति-प्राप्तिका उराय
स्वामिप्रसादः सम्पद जनयुति न पुनराभिजात्यं पांडित्य या ||६|| ई-स्वामीकी प्रसन्नता सम्पत्तिको पैदा करती है, कुलीनता व विद्वत्ता नहीं। पति-भाषित
ना ही विवाह और उच्य कुलका क्यों न हो, परन्तु यदि उससे उसका स्वामी प्रसन्म नहीं है, जो नापि धन प्राप्त मही होसकता ||६||
विद्या ने कहा है कि 'संसारमें बहुतसे कुलीन भौर विद्वान पुरुष दरि दिखाई देते हैं, किनर राजाकी रुपा है, वे मूर्ख व कुल-हीन होनेपर भी धनाव्य देखे जाते हैं ॥शा' पलामूखके स्वभावका दृष्टान्त द्वारा समर्थन
हरकण्ठलग्नोऽपि कालकूटः काल एव ।।६।।
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चम्मू परिशाम जायसे मंजस'भवम् । स हि पुलावरन्यावो न तज्ज्ञान प्रकीर्वितम् ॥ मा-बाबोकरहित नेत्रपका किंचित पश्यति । तया शास्त्रविहीनं बम्मनो मंत्र न परपति १॥
-सीमा पपिडता दुःस्था रमन्ते बहवो जमाः। मूर्खः कुलविहीनारच धनाडमा राजपलबमा HD
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१५६
नीतिवाक्यामृत
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अर्थ - शिवजोके श्वेत कठमें लगा हुआ भो वि विषही है। अर्थात् वह अपने नाशकारक स्वभावको नहीं छोड़ सकता अथवा कृष्णसे श्वेत नहीं होमकता । सारांश यह है कि जिसप्रकार विष शिवजीके अत्यन्त श्वेत कंठके आश्रयसे अपने प्राण घातक स्वभावको नहीं छोड़ सकता, उसीप्रकार वज्रमूर्ख मनुष्य भी राज मंत्री आदि ऊँचे पदोंपर अधिष्ठित होनेपर भी अपने मूर्खता पूर्ण स्वभावको नहीं छोड़ सकता ।। ६६ ॥
सुन्दरसेन' विद्वान् ने भी कहा है कि 'वस्तुका स्वभाव उपदेशसे बदला नहीं जासकता, क्योंकि जम भी गरम हो जानेपर पुनः अपने शीतल स्वभावको प्राप्त होजाता है ॥१॥ १२१
मंत्रियों को राज्यभार सौंपनेसे हानि
स्ववधाय कृत्योत्थापनमिव मूर्खेषु राज्यभारारोपणम् ॥६७॥
अर्थ - जो राजा मूखं मंत्रियोंको राज्य भार समर्पण करता है, वह अपने नाशके लिए की गई मंत्रसिद्धिके समान अपना नाशकर डालता है। साशश यह है कि जिसप्रकार कोई मनुष्य अपने शत्रु-वध करके उद्देश्यसे मंत्र विशेष सिद्ध करता है, उसके ोिजने के लिए एक दिन प्रगट होता है, परन्तु यदि शत्रु जप, होम और दानादि करनेसे विशेष बलवान होता है, तब वह पिशाच शत्रु को न मारकर सल्टा मंत्र सिद्धि करनेवाले को मार डालता है, उसीप्रकार राजाभी मूर्ख मंत्रीको राज्यभार सौंपने से अपना नाश कर डालता है ॥६७॥
शुक विद्वान् ने कहा है कि 'जो राजा अपना राज्य भार मूर्ख मंत्रियोंको सौंप देता है, वह अपना नाश करनेके लिये मंत्रविशेष सिद्ध करता है ||१|| '
कर्त्तव्य - विमुख मनुष्यके शास्त्रज्ञानकी निष्फलता
कार्यवेदिनः किंबहुना शास्त्र ेण ॥ ६८ ॥
अर्थ- जो मनुष्य कर्त्तव्य (हिन प्राप्ति व अहित परिवार) को नहीं जानता - चतुर नहीं है, उसकी बहुत शास्त्रोंका अभ्यास व्यर्थ है ॥६८॥
रैभ्य' विज्ञान ने भी कहा है कि 'जो व्यक्ति कर्त्तव्य परायण नहीं, उसका बढ़ा हुआ बहुत शास्त्रोंका अभ्यास भस्म में हवन करने के समान व्यर्थ हैं ||१||
१ तथा च सुन्दरसेन: - [ स्वभावो नोपदेशेन] शक्यते कर्तुं मन्यथा । सुतप्तान्यपि तोमानि पुनर्गच्छन्ति शीतलाम् ॥१ नरेड— उक्त श्लोकका प्रथम चरण संशोधित एवं परिवर्तित किया गया है; क्योंकि सं० टी० पुरुकर्मे म मुद्रित था । सम्पादक -
२ तथाच शुक्रः-- मूर्ख मंत्रिपु यो भार [राजोस्थं संप्रयच्छति] | आत्मनाशाय कृत्यां स उत्थापयति भूमिपः ||१|| नोट- उक्त पद्मका दूसरा चरण संशोधित किया गया है। सम्पादक
३ तथा च यः कार्य यो निज बेति शास्त्राभ्यासेन तस्म किं । [ बहुनाऽपि वृद्धार्थेन ] यथा मस्महुतेन च ॥ १ मोट --- उक्त पथका तीसरा चरण संशोधित किया गया है। सम्पादक
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मन्त्रिसमुदश
शाहीन मनुष्य की कड़ी आलोचना
गुरुहीन धनुः पिंजनादपि कष्टम् * Rel 4-सिप्रकार बोरी-शून्य धनुपको शत्र पर प्रहार करने के लिये चदाना व्यर्थ है, पसीप्रकार जो विकान, सदाचार और बीरता-प्रभृति गुणोंसे शून्य (मूर्स) है, उमको केवल स्वांस लेने मात्रसे शाम है। कोई लाभ नहीं-उसका जन्म निरर्थक है ॥ll
मनि विद्वान् ने भी कहा है कि 'गुण-शून्य राजा डोरी-रहित धनपके समान निरर्थक है ।।६।।' F -मंत्रोके महत्वका कारण
चप इव मंत्रिणोऽपि यथार्थदर्शनमेवात्मगौरवहेतुः ॥१०॥ -जसप्रकार नेत्रकी सूक्ष्मदृष्टि उसके महत्व प्रशंसाका कारण होती है, उसीप्रकार राज मंत्री पारिटि (सम्षि-विप्रह-आदि कार्य-साधक मंत्रका पधाज्ञान) उसको राजा द्वारा गौरव प्राप्त परख होती है ॥१०॥
विद्वान् ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार सूक्मणि-युक्त नेत्रोंको लोकमें प्रशंमा होती है, उसीपार्व मंत्रणा पतुर मंत्रीकी भो राजा द्वारा प्रशंसा कीजाती है ।।१।।' -समाहो अयोग्य पक्ति--
शस्त्राधिकारिणो न मंत्राधिकारिणः स्युः ॥१०॥ ई-स्त्र संचालन करनेवाले केवल वीरता प्रकट करनेवाले–हत्रिय लोग मंत्रणा करने की है ॥१०॥ मिनि विद्वान ने कहा है कि 'राजाको मंत्रणा निश्चय करने के लिये त्रियों को नियुक्त नहीं करना नोकि केवल युद्ध करनेकी सलाह देना जानते हैं ॥१॥'
बावका समर्थन
पवियस्प परिहरतोऽप्यायात्युपरि भंडन ॥१०॥ ह -नियको रोकने पर भी केवल कलह करना ही सूझता है, अतः उसे मंत्री नहीं
पाहिले १०२॥
बिमारपिकनिहप्टम् । पेसा पाठान्तर मु. ५० प्रतिमें है। बपि ईमेदब नहीं , की सं० से. पुस्तकका पाठ पड़ा है। सम्पादकनिल-गुबीनाव घो राणास म्परिकापरिषत् ॥३॥ -माबोकस्म मेनस पपा शंसा प्रजायते । मंत्रियोऽपि सुत्रस्य दयामा पसंभवा ।। -नाने मरम्माः त्रियाः पक्षिणीभुजा । यतस्ते पर मंत्र प्रपश्यन्ति स्पोजदम् ॥१॥
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नीतिवाक्यामृत
वर्ग
ने कहा है कि 'क्षत्रियका क्षात्रतेज रोकने पर भी प्राय: करके युद्ध करनेके लिये प्रवृत्त करता है; इसलिये उसे मंत्रणा के कार्य में नहीं रखना चाहिये || १ ||'
क्षत्रियोंकी प्रकृति
शस्त्रोपजीविनां कलहमन्तरेण भक्तमपि शुक्त' न जीर्यति ॥ १०३ ॥
अर्थ-शस्त्रों से जीविका करनेवाले (क्षत्रियों) को लड़ाई किये बिना स्वाया हुआ भोजन भी नहीं पचता; अतः हृत्रिय लोग मंत्री पद के योग्य नहीं ।। १०३ ।।
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भागुरि विद्वानने भी कहा है कि 'शस्त्रोंसे जीविका करनेवाले क्षत्रियों को किसी के साथ युद्ध किये बिना पेटका अन भी नहीं पच पाता ॥ ५॥
गर्व - अभिमान - करनेयरले पदार्थ -
- मंत्राधिकारः स्वामिप्रसादः शस्त्रोपजीवनं चेत्येकैकमपि पुरुषमुसेत्कयति किं पुनर्न
समुदायः ।। १०४ ॥
अर्थमंत्री पद की प्राप्ति, राजाकी प्रसन्नता व शस्त्रोंसे जीविका करना (क्षत्रियपन) इनमें से प्राप्त हुई एक २ वस्तु भी मनुष्यको उन्मत्त - अभिमानी बना देती है, पुनः क्या उक्त तीनों वस्तुओं का समुदाय उन्मत्त नहीं बनाता ? अवश्य बनाता है ॥ १०४ ॥
शुक विद्वानने कहा है कि 'राजाकी प्रसन्नता, मंत्री पदका मिलना और क्षत्रियपन इनमें से एक १ वस्तु भी मनुष्यको अभिमान पैदा करती है, पुनः जिसमें ये तीनों हों उसका तो कहना ही क्या है ? ॥ १ ॥ ' अधिकारी (मंत्री वगैरह ) का स्वरूपनालम्पटोऽधिकारी ॥। १०५ ।।
अर्थ- जो मनुष्य निःस्पृद्द (धनादिकी चाह नहीं रखनेवाला) होता है, वह अधिकारी (मंत्री आदि कर्मचारी) नहीं होसकता | सारांश यह है कि अमात्य भारि कर्मचारी अवश्य धनादिकी लाकसा रकलेगा ।। १०५ ।।
वल्लभदेव विद्वान्ने भी कहा है कि 'धनादिकी चाह न रखनेवाला व्यक्ति मंत्री आदि अधिकारी नहीं होता, बेष-भूषासे प्रेम रखनेवाला काम-वासनासे रहित नहीं होता, मूर्ख पुरुष प्रियवाही नहीं होता और स्पष्टवादी धोखेबाज नहीं होता ॥ १ ॥'
१ तथा च वर्ग:-- त्रियमाणमपि प्रायः छात्रं तेजो विवर्धते । युद्धार्थ तेन संस्याज्यः छत्रियो मंत्रकसंयि ॥ १ ॥ २ तथा च भाविः शस्त्रोपजीविनाममुदरस्थं न जीति । यावत् केनापि नो युद्धं साधुनापि समं भवेत् ॥ १ ॥ ३ तथा च शुक्रः— नृपप्रसादो मंत्रित्वं शस्त्रीभ्यं स्मयं क्रियात् । एकैकोऽपि नरस्यात्र किं पुनमंत्र से श्रयः ॥ १ ॥ * 'मम्पो अधिकारी भवति' ऐसा मु० मु० प्रति में पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि स्त्री व धनादिका क्षोभी पुरुष अधिकारी मंत्रो आदिके पदमें नियुक्त करने योग्य नहीं है।
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४ तथा च बल्लभद्देवः -- निःस्पृहो नाभिकारी स्वावाकामी मदतप्रियः । माविदुग्धः प्रियं मयात् स्फुटवक्ता न चकः । १
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मन्त्रिसमुदेश
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धन-लम्पट राज-मन्त्रीसे हानि
मैत्रिणोऽर्थग्रहणलालसायां मतौ न राज्ञः कायमों पा ॥ १०६ ।। अर्थ-जिसके मंत्रीकी बुद्धि धन ग्रहण करने में लम्पट-आसक्त होती है, उस राजाका न सो कोई कार्य ही सिद्ध होता है और न उसके पास धन ही रह सकता है ।। १०६ ॥
गुरु 'विद्वामने कहा है कि जिस राजाका मंत्री धन-ग्रहण करनेकी लालसा रखता है। उसका कोई भी राज-कार्य सिद्ध नहीं होता और उसे धन भी कैसे मिल सकता है ? नहीं मिल सकता ॥१॥ उक्त वातकी दृष्टान्त द्वारा पुष्टि
वरणार्थ प्रेषित इव यदि कन्यां परिणयति तदा वरयितुस्तप एव शरणम् ॥ १०७ ॥ अर्थ-जब कोई मनुष्य किसीकी कन्याके साथ विवाह करनेके उद्देश्यसे कन्याको देखने के लिये अपने संबंधी (मामा, बंधु, चाचा और दूत-आदि) को भेजता है और वह वहाँ जाकर स्वयं उस कन्याके साथ यदि अपना विवाह कर लेता है, तो विवाहके इच्छुक उस भेजनेवालेको तपश्चर्या करनी ही श्रेष्ठ है, क्योंकि स्त्रीके विना तप करना उचित है। प्रकरणमें उसीप्रकार जिस राजाका मंत्री धन-लम्पट है, उसे भी अपना राज्य छोड़कर तपश्चर्या करना श्रेष्ठ है; क्योंकि पनके बिना राज्य नहीं चल सकता और धनकी प्राप्ति मंत्री-आदिको सहकारितासे होती है ॥ १० ॥
शुक' विद्वान्ने कहा है कि 'जिस राजाका मंत्री कुचेके समान शाहित सञ्जनोंका मार्ग (टेक्स-श्रादिके द्वारा प्राप्त धनकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा-आदि) रोक देता है, उसकी राज्य-स्थिति कैसे रह सकती है १ नहीं रह सकती ॥१॥ उक्त पातका अन्य दृष्टान्त द्वारा समर्थन
स्थाल्येव भक्त चेत् स्वयमरनाति कुतो भोपसुतिः ।।१०८॥ अर्थ-यदि थाली अन्न-आदि भोजनको स्वयं खावे, तो खानेवालेको भोजन किसप्रकार मिल सकता है ? नहीं मिल सकता। उसीप्रकार यदि मंत्री राज्य-द्रव्यको स्वयं हड़प करने लगे तो फिर राज्य किसप्रकार चल सकता है ? नहीं चल सकता ।। १०८ ॥
विदुर विद्वान्ने कहा है कि 'जिस गायके समस्त दूधको उसके वचने वाला देकर पी वाला है, सब उससे स्वामीकी वृप्तिके लिये लांब फिसप्रकार उत्पन्न होसकती है, नहीं होसकतो. इसी प्रकार अब राज-मंत्री राजकीय समस्त धन हड़प कर लेता है, तब राजकीय व्यवस्था (शिष्टपालन-दुष्ट
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सया च गुरु:-यस्य संजायते मंत्री वित्त महणलालसा सस्य कार्य म सिदयेत् भूमिपस्य कुतो धनं." २वा व शुक्रा-मिस्पति सतां मार्ग सयमाभिस्य शंकिता खाकारः सधिको यस्य तस्य राज्यस्थितिः कुतः ३ तथा च विदुरः- दुग्धमाकम्प चाभ्येन पीतं वत्सेन गा यदा । तदा व वस्तस्माः स्वामिमस्याप्तये मकेतू ॥.
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नीसिवाक्यामृत
निप्रह-श्रादि) किसप्रकार होसकसी है ? नहीं होसकती । इसलिये राजमंत्री धन-लम्पट नहीं होना साहिये ॥१॥ पुरुषोंकी प्रकृति
तावव सर्वोऽपि शुचिनिःस्पहो यावत्र परवरस्त्रीदर्शनमर्थागमो वा ।। १०६॥ अर्थ-तब तक सभी मनुष्य पवित्र और निर्लोभी रहते हैं, जब तक कि उन्होंने दूसरोंकी उत्कृष्ट और कमनीय कान्ताओं (स्त्रियों) य धन प्राप्तिको नहीं देखा ॥ १०६ ||
वर्ग' विद्वान्ने कहा है कि 'जब तक मनुष्य दूसरेकी स्त्री और धनको नहीं देखता, तभी तक पवित्र और निर्लोभी रह सकता है, परन्तु इनके देखने से उसके दोनों गुण (पवित्रता व निर्लोभीपन) नष्ट होजाते है ।।१।। निर्दोषीको दूषण लगाने से हानि
प्रदष्टस्य हि दूषण’ सुप्तव्यालप्रयोधनमिव ।।११०॥ अर्थ-निर्दोषो पुरुषको दूषण लगाना,सोते हुए सर्प या व्याघ्रको जगानेके समान हानिकारक है। अर्थात् जिसप्रकार सोते हुए सर्प या व्याघ्रको जगानेसे जगानेवालेको मृत्यु होती है, उसीप्रकार निर्दोषीको दूषण लगाने मे मनुष्यकी हानि होती है; क्योंकि ऐसा फरमेसे निदाशी व्यक्ति व विरोध करके उसकी यथाशकि हानि करने में प्रयत्नशील रहता है ॥११०॥
गुरु' विद्वानने कहा है कि 'जो मुर्ख किसी निर्दोषो शिष्ट पुरुषको दूषण लगाता है, वह अपनी मृत्यु कराने के लिये सोते हुए सर्प या व्याघ्र को जगाने के समान अपनो हानि करता है ।।शा' जिसके साथ मित्रता न करनी चाहिये
येन सह चित्तविनाशोऽभूत, स समिहितो न कर्शयः॥१११॥ अर्थ-जिसके व्यवहार से मन फट चुका हो, उसके साथ मित्रता न करनी चाहिये ॥१११॥ वक्त पातका दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण
__ सद्विघटितं चेतः स्फटिकवलयमिय कः सन्धातुमीश्वरः।। ११२||
अर्थ-वरविरोधके कारण एकवार फटे हुए मनको स्फटिकमणिके कारण समान कौन जोड़नेमें समर्थ है १ कोई नहीं ॥११॥
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'मर्थाभिगमो का ऐसा म. मू० प्रतिमें पाठ है, परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं । सम्पादकवय वर्ग:-पावनुचिरडोमः स्यात् पावरनेत् परस्त्रियं । विश्व दर्शमात्ताभ्यां द्वितीयं तत् प्रचारयति । २ तथा च गुरु-सुलसुलमहि मूतो प्यानं वा यः प्रबोधयेत् । स साधोपणं दानिदोषस्यात्मभूत्यवे |१॥ ० उक्त सूत्र सं० टी० पुस्तकमे न होनेपर भी प्राकरणिक होने के कारण मु० मू. ३ . लि. मू० प्रवियों में
वर्तमान होने से संकसम किया गया है। सम्पादक--
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मन्त्रिसमुश
जैमिनि विद्वान ने कहा है कि जिसप्रकार लोकमें टूटा हुआ पाषाण-कण पुनः जुड़ नहीं सकता, असीमकार पूर्व के कारण दूपित-प्रतिकूलताको प्राप्त हुआ-शत्र का चित्त पुनः अनुराग-युक्त नहीं होसकता है। जिस कारण से स्नेह नष्ट होता है
न महत्ताप्युपकारेण चित्तस्य तथानुरागो यथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण ॥११३॥ अर्थ-महान् उपकारसे भी मनमें उतना अधिक स्नेह उपकारीके प्रति नहीं होता, जितना अधिक मन थोडासा अपकार (द्रोह आदि) करने से फट जाता है ॥११३॥
बादरायण' विधाम्ने भी कहा है कि 'लोकमें थोड़ासा अपकार करनेसे जैसा अधिक बैर-विरोध प्रस्पन्न होजाता है, वैसा बहुत उपकार करनेसे भो स्नेह नहीं होता ॥१॥ शत्रुनों के कार्य
सूचीमुखसवबानपकृस्थ विरमन्त्यपराद्धाः ॥११॥ अर्थ--शत्रु लोग दृष्टि-विषवाले सर्पकी तरह अपकार किये विना विभाम नहीं लेते ॥११४॥
भृगु' विद्वान ने कहा है कि जिस प्रकार दृष्टिविष-युक्त सर्प देखने मात्रसे अपकार (जहर पैदा करके मारना) पैदा करता है, उसीप्रकार सभी शत्रु लोग भी अपकारसे रहिस नहीं होते, अर्थात ये भी महान अपकार करते हैं ॥१॥ काम-धेग से हानि
अतिवृद्धः कामस्तभास्ति यत्र फरोति ॥११॥ पर्य-कामी पुरुष अत्यन्त बढ़ी हुई कामवासना के कारण संसारमें ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसे नहीं करता । अथात् सभी प्रकार के निंदनीय व धूणित कार्य करता है ।। ११५ ।। उक्त बातका पौराणिक दृष्टान्तमाला द्वारा समर्थन
श्रूयते हि किल कामपरवशः प्रजापतिरात्मद् हितरि, हरिगोपषधू प, हर: शान्तनु
कलत्रेषु, सुरपतिस्तमभार्यायां, चन्द्रश्च बृहस्पतिपरन्यां मनरचकारेति ॥११६|| अर्थ-पुराणों में प्रसिद्ध है फि माजी कामके वशीभूत होकर अपनी सरस्वती नामकी पुत्री में, उष्ण
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। तथा च जैमिनिा-पापाणघटितस्पात्र सन्धिर्भग्नस्य मो यया । कंकणस्पेच चित्तस्प तया दूषितस्य च ||15 २ तथा बादरायणः-न तथा जामते स्नेहः प्रभूतः सुकृतेः । स्वरुपेनाध्यपकारेण पगार प्रजायते ॥३॥ ३ तथा च भूगुः-पो शिविषः सर्पो एएस्तु विकृति भजेत् । तथापराधिमः सन शुविहतिवर्मियाः ॥१॥
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नीविवाक्यामृत
म्बार्लोकी स्त्रियोंमें, शिवजी गंगा मामकी शान्तनुकी स्त्रीमें, इन्द्र गौतमकी स्त्री अहल्या और चन्द्र शासनानी हरपतिकी श्री भासत हुए ।१६।। मनुष्योंकी धन-वाछाका दृष्टान्त द्वारा समर्थन--
अर्थेषपभोगरहितास्तर वोऽपि साभिलाषाः किं पुनर्मनुष्याः ॥११७|| अर्थ-जब कि वृक्ष अपने धन-पुष्प-फलादि का उपभोग नहीं करते, तथापि वे भी धनके इच्छुक होते हैं । अर्थात् स्वयं पुष्पं व फलशाली होनेकी इच्छा रखते हैं, पुनः धनका उपभोग करनेवाले मनुष्यों तो कहना ही क्या है ? वे तो अवश्य धनके इच्छुक होते हैं, क्योंकि उन्हें उसका उपभोग (शरीर-यात्रादि) करना पड़ता है ।।११७॥
जैमिनि विद्वानने कहा है कि 'जो वृक्ष अपने मनसे स्वयं उपभोग-रहित हैं, वे भी धनके इच्छुक देखे जाते हैं-वे भी पुष्प-फलादिकी वाञ्छा करते हैं, पुनः मनुष्योंका तो कहनाही क्या है ||शा' लोभका स्वरूप
कस्य न धनलामाल्लोभः प्रवर्तते ॥११॥ अर्थ-संसारमें धन मिलने से किसे उसका लोभ नहीं होता ? सभीको होता है ।।११।।
वर्ग' विद्वान्ने कहा है कि जब तक मनुष्योंको धनादि प्राप्त नहीं होते, सब तक उन्हें लोभ भी नहीं होता। अन्यथा-(यदि यह वात नहीं है, तो) वनमें रहनेवाला मुनि भी पान-ग्रहण न करे ॥१॥ जितेन्द्रियकी प्रशंसा
स सहप्रस्यवं देवं यस्य परस्वेष्विव परस्त्रीषु निःस्पृह चेतः ॥ ११६ ॥ अर्थ-जिस मनुष्यकी चित्तवृत्ति अन्य-धनके समान पर-स्त्रियोंके देखने पर भी लालसा-रहित है, वह प्रत्यक्ष देवता हैं मनुष्य नहीं, क्योंकि उसने असाधारण धर्म (परस्त्री परधनका स्यागरूप) का अनुष्ठान किया ॥ ११ ॥ .
वर्ग' विद्वान्ने कहा है कि जिस महापुरुषका मन पर-कलत्र व पर-धन देख लेनेपर भी विकारयुक्त नहीं होता, वह देवता है मनुष्य नहीं ॥१॥ संतोषी पुरुषोंका कार्यारम्भ
समायव्ययः कार्यारम्भो रामसिकानाम् ।। १२० ॥
उक्त कमानक भबन पुराब प्रन्थों से आगमी चाहिये । १ तथा च औमिनि:-अधै तेऽपि प पान्ति थे ना प्रारमचेतसा । उपभोगैः परित्यक्ताः किं पुनर्मभुधारक ॥१॥ २ वयाच वर्ग:-तापच जायते जोमो यावल्लाभो न विद्यते । मुनिय वि बनस्थोऽपि दानं गुरुवाति नान्यथा MM. ३सया :-परदग्थे कसनेयस्य महात्मनन मनो विकृति यातिदेवोपमानवः ॥..
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मार्ग
मन्त्रिसमुद्देश
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श्रर्थ- संतोष पुरुष जो कार्य आरम्भ करते हैं, उसमें उन्हें श्रमदनी व खर्च बराबर होता है। तथापि सन्तुष्ट रहते हैं ।। १२० ।।
हारीत 'विद्वान ने कहा है कि 'संतोषी पुरुष जिस कार्यमें आमदनी व सर्व बराबर है और यदि बह हाथसे निकल रहा है, तो भी वे उसे संतोष पूर्वक करते रहते हैं, फिरभी नहीं छोड़ते ॥ १ ॥
महामूर्खोका कार्य—
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बहुक्लेशेनाल्पफलः कार्यारम्भो महामूर्खाणाम् ॥ १२१ ॥
अर्थः—महामुर्ख मनुष्य जो कार्य आरम्भ करते हैं, उसमें उन्हें बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं और फल बहुत थोड़ा मिलता है ।। १२१ ॥
अब शङ्काका त्यागपूर्वक कर्त्तव्य-प्रति
Sarfara हा है कि 'लोक में महामूर्ख पुरुष अधिक क्लेश-युक्त और अल्पफलवाले कार्य करते हैं और उनसे के विरक्त नहीं होते ।। १ ।। "
प्रथम पुरुषोंका कार्यारम्भ
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१६३
कार्यायाः
काम् ॥ १२२ ॥
अर्थः-- कुस्मित-निय पुरुष दोषोंके भयसे (इस कार्यके करनेमें यह दोष है और अमुक कार्यमें वह रोष है इत्यादि दोषोंके खरसे) किसी भी कार्यको शुरू नहीं करते । सारांश यह है कि अधन पुरुष मानसी, दीन व वरपोक होते हैं; इसलिये वे दोनोंके डरसे कार्यारम्भ नहीं करते ।। १२२ ।।
मृगाः सन्तीति कि कृषिर्न क्रियते B || १२३ ॥
विद्वान ने भी कहा कि कुत्सित पुरुष भयभीत होकर कर्त्तव्यमें दोषोंका स्वयं चितवन करते हुए कार्य भी नहीं करते ।। १ ।। *
सूत्रका यह अर्थ भी होसकता है कि जो लोग क्रोबादि कषाथोंके आवेगमें आकर बिना विचारे कार्य करते हैं, पापारादि कार्यों में भामदनी और खर्च बराबर होता है । सम्पादक:--
| हारीत: प्रययौ समौ स्यातां यदि कार्यों विनश्यति । ततस्तोत्रेया कुर्वन्ति भूयोऽपि न त्यजन्तितम् ॥११॥
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- बहुकले शानि कृत्यानि स्वल्पभावानि चक्रतुः १ । महामुर्खेतमा बेन न निर्वेदं च ॥ १ ॥ शुभभाव कार्यानारम्भः कापुरुषाणाम्' इस प्रकार मु० व ६० कि० सू० प्रतियोंमें पाठ है, परन्तु अर्य-मेद कुछ नहीं । वर्ग:- कार्यशेषान् विधिन्वन्तो मशः का पुरुषाः स्वयं शुभं भाग्याम्यपि त्रस्ता [न कृत्यानि प्रकृति ] ॥१॥
पचका अब श्रमूत चूट (पूर्ण) परिवर्तन किया जाता, तब कहीं छन्दशास्त्रानुकूल होसकता था, परन्तु सं० टीकाकारके उद्धरणको ज्यों का त्यों सुरक्षित रखनेके अभिप्राय से केवल क्रियापद (पचक्रतुः ) का जो या परिवर्तन किया है और वाकीका ज्यों का त्यों संकलन किया सम्धीति किं कृषिमं कृष्यते' इसप्रकार मु० व ६० लि०० प्रतियोंमें पाठ है, परन्तु भर्थ भेद कुछ नहीं ।
| सम्पादक
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नीतिवाक्यामृत
अजीण भयात् कि भोजनं परित्यज्यते A ॥ १२४ ।। अर्थ-हिरणोंके डरसे क्या खेती नहीं कीजाती ? अवश्य कीजाती है। अओर्ण के इरसे क्या भोजन करना छोड़ दिया जाता है: नहीं छोड़ा जाता । सारांश यह है कि जिसप्रकार हिरणोंके हरसे खेती करना नहीं छोड़ा जाता और अजीर्ण के भयसे भोजन करना नहीं छोड़ा जाता, उसीप्रकार विघ्नोंके बरसे सजन लोग कतैय-पथको नहीं छोड़ते ॥ १२३-५२४ ॥
कार्यारम्भमें विन्नोंको विद्यमानतास खलु कोऽयीहाभूदस्ति भविष्यति वा यस्य कार्यारम्भेषु प्रत्यवाया न भवन्ति । || १२५ ॥
अर्ध–जिसको कार्यारम्भमें विघ्न नहीं होते, या लोकमें ऐसा कोई पुरुष हुपा है ? होगा ? या है ? न हुआ, न होगा, न है ।। १२शा
भागरि' विद्वानने कहा है कि 'उद्योगीको लछमी मिलता है। कुत्सित पुरुष-आलसी लोग-भाग्यभरोसे रहते हैं, इसलिये भाग्य को छोड़कर आत्म-शक्ति से उद्योग करा, तथापि यदि काय-सिद्धि नहीं होती, इसमें कत्र्तव्यशील पुरुषका कोई दोष नही किन्तु भाग्यका ही दाप है ।।१।। दुष्ट अभिप्राय-युक्त पुरुषोंके कार्य
आत्मसंशयेन कार्यारम्भा व्यालहृदयानाम् * || १२६ ।। अर्थ-सांप व श्वापद (हिंसक जन्तओं) के समान दुष्ट हुनय-युक्त पुरुष ऐसे निन्ध कार्य (चोरीवगैरह) प्रारम्भ करते हैं, जिनसे उन्हें अपने नाशकी संभावना रहती है ॥१९॥
शुक्र विद्वान्ने भी कहा है कि 'सर्प या श्वापद तुल्य दुष्ट हृदय-युक्त राजानोंके सभी कायें उनके घातक होत हैं ॥शा महापुरुषोंके गुण घ मृदुना लाभका क्रमशः विवेचनदुर्भारुत्वमासमरत्वं रिपो प्रति महापुरुषाणां ॥१२७॥
-.-- .. -.A 'मजीर्णभयाम्म खलु भोजनं परित्यज्यते' ऐसा मु... जि० म०प्रतियों में पाठ है, परन्तु अर्थ मेद पुष नहीं। B 'स स्खलु कि कोऽपोहामवस्ति भविष्यति वा यस्याप्रत्यवायः कार्यारम्भः' इसप्रकार
भु मिप्रतियों में पाठान्तर धर्तमान है, परन्तु पर्य-भेद कुछ नहीं । । तथा च भागु-यस्मोद्यमो भवति त सम्पति लमी, देवेन देवमिति कापुलला पन्त । देवं निहत्व र
पौरुषमारमात्या, पत्ले से पदि म सिनयति कोऽत्र वोकः ॥१॥ 'भामसंशयेन कार्यारम्भो वानरयानाम्। ऐसा मु०प०सि० म० प्रतियों में पाटावर है, जिसका अर्थ यह है कि जो मनुष्य परिपक्वबुद्धि-विचारसीस नहीं है बहें कार्य-भारम्भमें अपनी गा [यह कार्य मुझसे होगा।
नहीं ! इस प्रकारको पाशा हुआ करता है। २ तथा शुक्र:-ये प्यालहृदया भूपास्तेषां कर्माणि यानि च । प्रारमसन्देहकारीथि बारि म्युनिखिमानि ।
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मन्त्रिसमुश
. जलवन्माद वोपेतः पृथूनपि भूभृतो भिनत्ति ॥१२८॥
ई-महापुरुष दूरवर्ती शत्रु से भयभीत होते हैं उससे युद्ध नहीं करते, परन्तु शत्र के निकट ने पर अपनी बीरता दिखाते हैं ॥१२७॥ नीतिशास्त्र' में कहा है कि बुद्धिमान् पुरुष साभपूर्वक तपायांसे युद्ध करना छोड़े और कभी भाम्य करना पो. हि संकि रात मुकाबोर गोदशशार युद्ध करे ॥१॥ सन तक शत्र सामने नहीं आया, तभी तक उससे डरे और सामने आने पर निडर होकर पर प्रहार करे ॥२॥
जिसपकार कोमल जल प्रवाह विशाल पर्वतोंको उखाड़ देता है, उसोप्रकार कोमल राजा महायक्ति-शासी शत्रु राजाओंको नष्ट कर डालता है ।। १२ ।।
गुरु' विद्वानने भी कहा है कि 'मृदुता (नम्रता) गुण से महान कार्य भी सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रबाहके हारा कठोर पर्वत भी विदारण कर दिये जाते हैं ।। १।।" रिय रूपनों से लाभ, गुम रहस्य-प्रकाशकी अवधि व महापुरुषोंके वचन क्रमशः--
प्रिय बदः शिखीव सदर्पानपि द्विषत्सानुत्सादयति B ॥१२६॥ नाविज्ञाय परेषामर्थमनथं वा स्वहृदय प्रकाशयन्ति महानुभावाः ॥१३०॥
चीरकृषवत् फलसम्पादनमेव महतामालापः ॥१३॥ अयं-प्रियवादी पुरुष मोरके समान अभिमानी शत्रु रूपी सोको नष्ट कर देता है ।।१२।।
एक विद्वान्ने भी कहा है कि जिसप्रकार मयूर मधुर स्वरसे वर्ष-युक्त सोको नष्ट कर देता है, नीमकार मीठे वचन बोलनेवाला राजा भी अहंकारी शत्रु ओंको निस्सन्देह नष्ट कर डालता है ॥१॥
उत्तम पुरुष दूसरों के हृदयकी अच्छी या धुरी बात जानकरके ही अपने मनकी बात प्रगट
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जिन मावोपेतः इत्यादि मु० मू० प्रतिमें पाठान्तर है, परन्तु अर्थ-भेव कुछ नहीं ।
तो मीती-युवं परित्यजेत्रोमानुपायैः सामपूर्वक । कदाधिज्जायते वैवादीनेमापि वनाधिक भर परस्य मेवम्प मावको दर्शनं भवेत् । पर्शने सु पुनर्घाते प्रहसम्यमशंकित: ॥२॥ - गुरु-भावमापि सिबम्ति कार्याणि सुगरूपयपि । यतो जलेन भियते पर्वता अपि मिथुराः ॥१॥
पाठ शिस्त्री व पूना सायरोको ६० लि. मू० प्रसियोंसे संकलन किया गया है। प्रिय'पदः शिखीव दिवस संजापति पेसा सं० दी. पु० में पाठ है, इसका अर्थ भी पूर्वोक्त समझना चाहिये। संपादक
पात् फलामको महतामाखापा ऐसा उक्त मु. प्रतियों में सुन्दर पार है । सम्पादकपाएक-यो राजा मृवाक्यः स्यात्सदानपि विद्विषः । स निहन्ति न सन्देवो मयूरो भुजगानिय ॥१॥
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१६६
नीतियाक्यामृत
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भृगु' विद्वान्ने भी कहा है कि 'सासन लोग दूसरोंके अच्छे या बुरे प्रयोजनको विना जाने या समझे अपना मानसिक अभिप्राय प्रकाशित नहीं करते ॥१॥
महापुरुषोंके वचन दूधवाले वृक्षकी तरह फलदायक होते हैं। अर्थात् जिसप्रकार दूधवाले वृक्ष उत्तम मिष्ट फल देते हैं, उसीप्रकार सजन पुरुषोंके घचन भी उत्तम २ फलदायक (ऐहिक और पारत्रिक कल्याण देनेवाले ) होते हैं ।।१३।।'
धर्ग विद्वान्ने कहा है कि 'जिसप्रकार दुधवाला वृक्ष शीघ्र उत्तम फल देता है, उसीप्रकार सज्जन पुरुषोंके वचन भी निस्सन्देह उत्तम फल देते हैं ॥१।।' नीचप्रति मनुष्य और महापुरुषका क्रमशः स्वरूप
दुरारोहपादप इव द डाभियोगेन फलप्रदो भवति नोचप्रकृतिः ॥१३२॥
स महान् यो विपत्सु धैर्यमवलम्बते ॥१३॥ अर्थ-जिसप्रकार अधिक ऊंचाई व कंटक-आदिके कारण चदनके अयोग्य वृक्ष (ग्राम-आदि) लाठी आदिके प्रहारों से साड़ित किये जानेपर फलदायक होते है, उसीप्रकार नीचप्रकृतिका मनुष्य भी दसित किये जाने पर काबू में आता है साम-दान से नहीं ॥१३२।।
भागरि विद्वान्ने भी कहा है कि जिसप्रकार शत्र और न चढ़ने योग्य वृक्ष दाहसे ताड़ित किये जानेपर फल देता है, उसीप्रकार नीच मनुष्य भी दयनीति से ही यश होता है ।।१।।
ओ आपत्तिमें धैर्य, धारण करता है वही महापुरुष है ॥१३॥
गुरु विद्वान्ने कहा है कि 'जो राजा आपत्ति-काल आनेपर धैर्य धारण करता है यह पृथिवी-तस्त्र में महत्व प्राप्त करता है। शा' समस्त कार्यों में असफल बनानेवाला दोष व कुलीन पुरुषका क्रमशः स्वरूप
उत्तापकत्वं हि सर्वकार्येषु सिद्धीनां प्रथमोऽन्तरायः ॥१३४॥ शरद घना इव न खलु घृथालापा गलगर्जित कर्षन्ति सत्क लजाताः ॥१३॥
१ सया च मृगुः-पावा परकार्य च शुभ वा यदि पाशुभं । अन्येषां म पकाशेयुः सन्तो नैव निजाशय ॥१॥ र तथा च वर्ग:-भाखापः साधुलोकानां फसादः स्यादसंशयम् | अधिरे व कालेन वीरबलो पथा तथा ॥१॥
या भागुहिवरखाइयो यथारातिराहो महीरुदः । तथा फनप्रदो जूनं गोधप्रकृतिरत्र यः ॥१॥ . ४ तथा च गुरुः-आपत्कालेऽत्र समाप्ती धैर्यमासम्बते हि यः । स महत्वमवाप्नोति पार्मिवः पृथिवीपले ॥ A 'शरद्घमा इ न तु खलु घृषा गज़गर्जितं कुर्धन्त्यकुलीनाः' इस प्रकारका पाठान्तर मु. मू. प्रतिमें है, जिसका
अर्थ यह है कि जिसप्रकार शरदकालीन वादन गरजते हैं . बरसते नहीं, उसोप्रकार नीचकमके पुरुष ध्यप बकवाद करते हैं, तव्यपासन नहीं करते।
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मन्त्रिसमुद्देश
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अर्थ-अधीरता (घबहानाम्याकुल होना) मनु यकी समस्त काय-सिद्धि में अत्यन्त वाधक है मर्थात्-जो मनुष्य कर्तव्य करते समय व्याकुल होजाता है, उसका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता; अतः कसंध्यमें उतावली करना उचित नहीं ॥१३४॥
गुरु' विद्वान्ने कहा है कि 'लोगोंका अधीरता दोष समस्त कार्योंकी सिद्धि में बाधक है और बहुत से राजकीय कार्यों में उलझे हुए राजाओंकी कार्य सिद्धि में तो वह विशेष रूपसे बाधा डालता है ||१|| ___ कुलीन पुरुष शरत्कालीन बादलोंकी सरह व्यथै बकवाद करनेवाले और गरजनेवाले नहीं होते। मर्थाम्-जिसप्रकार शरत् कालो बादल केवल गरजते हैं बरसते नहीं, उसीप्रकार कुलीन उत्तम पुरुष व्यर्थ नहीं बोलते किन्तु अच्छे २ पुण्य व यशस्य कार्य करके दिखाते हैं ।। १३५॥
गौतम विद्वान्ने भी कहा है कि 'राजाओंको जलवृष्टि-रहित व व्यर्थ गरजनेवाले शरत् कालीन बादलों के समान निरर्थक बोलनेवाले नहीं होना चाहिये ॥ १ ॥ अच्छी-बुरी वस्तु व दृष्टान्त द्वारा समर्थन
न स्वभावेन किमपि वस्तु सुन्दरमसुन्दर वा, किन्तु यदेव यस्य प्रकृतितो भाति तदेव तस्य सुन्दरम् ।। १३६ ॥
न तथा कपूररेणुना प्रीतिः केतकीनां वा, यथाऽमेध्येन ॥ १३७ ।। अर्थ-अच्छापन व चुरापन केवल पुरुषोंकी कल्पनामात्र है, क्योंकि संसारमें कोई वस्तु अच्छी और बुरी नहीं है, किन्तु जो जिसको प्रकृति अनुकूल होनेसे रुचती है, वह उसकी अपेक्षा सुन्दर है यदि वह निकृष्ट ही क्यों न हो ॥ १३६ ।।
जैमिनि विद्वाम्ने भी कहा है कि 'संसारमें कोई वस्तु प्रिय व अप्रिय नहीं है, परन्तु जो मनको प्रिय मालूम होती है वह निकृष्ट होनेपर भी सुन्दर है ॥ १॥
मक्खियाँको जिसप्रकार मल-मूत्रसे प्रीति होती है, वैसी कपूर-धूलि व केशकी पुष्पोंसे नही होती ॥१३॥ अत्यन्त क्रोधी तथा विचार-शून्य पुरुषकी और परस्परकी गुप्त दात कहनेसे हानिका कमश:
अतिक्रोधनस्प प्रभुपमग्नौ पतित' लवणमिव शतधा पिशीयते ॥१३॥
१ तथा च गुरुः-म्पाकुलत्वं हि लोकार्मा सर्वकृत्येषु विनकृत् । पार्थिवानां पिरोपेण [येषा कार्याणि भरिण:] uns
नोट-उङ्ग श्योकका पतर्थ परच संशोधित किया गया है। सम्पापक२ तया च गौतमः-वृथालापन भाई अभूमिपाः कदाचन । पपा शरधना कुयु स्तोयवृष्टिविवर्जिताः ॥१॥ संशोधित३ तथा प जैमिनिः-सुन्धरासुन्दरं सोफे म किंचिदपि वियते । निहाष्टमपि वच्छ, मनसः प्रतिभाति यत् ॥।॥
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नीतिशास्यामृत
सर्वान् गुणान् निहन्त्यनुचितज्ञः ॥ १३६ ।।
परस्पर मर्मकथनयात्मविक्रम एष All १४० ॥ अर्थ-अस्यम्त क्रोध करनेवाले मनुष्यका ऐश्वर्य अग्निमें पड़े हुए नमकके समान सैकड़ों प्रकारसे न होजाता है ।। १३८॥
अषिपुत्रक विद्वान ने भी कहा है कि 'जिसरकार अग्निमें पड़ा हुआ नमक नष्ट होजाता है, उसा प्रकार अत्यन्त क्रोधी राजाका ऐश्वर्य नष्ट होजाता है ।। १ ।।
योग्य अयोग्यके विचारसे शुन्य पुरुष अपने समस्त झानानि गुणों को नष्ट कर देता है ॥१३॥
नारद' विद्वान् ने भी कहा है जिसप्रफार नप सक पुरुषको युवती स्त्रियाँ निरर्थक हैं, उसीप्रकार समस्त गुणोंसे विभूषित पुरुष भी यदि समयानुकूल कर्त्तव्यको नहीं जानता, तो उसके समस्त गुण निरर्थक होजाते हैं ॥१॥
जो पुरुष परस्परको गुप्त बात कहते हैं, वे अपना २ पराक्रम ही दिखाते हैं। मारांश यह है कि जिसकी गुप्त बात प्रकट कीजाती है, वह भी ऐसा ही करनेको तत्पर हो जाता है। अत एव के दोनों दूसरों के समक्ष अपना पराक्रम दिखाकर अपनी हानि करते हैं ।। १४० ॥
- जैमिनि विद्वान्ने भो कहा है कि 'जो मनुष्य लड़ाई-झगड़ा करके दूसरेका गुप्त रहस्य प्रकट करदेता है, तो दूसरा भी इसके गुप्त रहस्यको प्रकट किये बिना नहीं रहता; अत एव नैतिक पुरुषको किसीका गुप्त मंत्र नहीं फोड़ना चाहिये ॥ १॥' शशुओंपर विश्वास करनेसे हानि
तदजाकपाणीयं यः परेषु विश्वासः ॥ १४१ ॥
था ऋषिकपुत्रका-अतिक्रोधो महापाबः प्रभुत्वस्य विनाशकः । सपश्चस्य यथा वहिमध्ये निरसितस्य च ॥१॥ १ सवार नारदः-गुचैः सर्वैः समेतोऽपि वेति कालोचित न च । या वस्य गुणा सर्वे यथा घरतस्य योषितः ॥१॥ A परस्य मर्मथनमात्मविक्रमः' इसप्रकार मु० म० प्रतिमें भार 'परस्परमर्मचनमारमविक्रमः' इसप्रकार पूना गबने.
मामबरीकी इ० कि.मू. प्रतियों में पाठान्तर है, इसका अर्थ यह है कि जो ममुष्य अपनी गुप्त वात दूसरेसे कह देवा है, या उसके लिये अपने आपको पेंच देता है। क्योंकि गुप्त बात कहनेवारको उससे हमेशा यह बर बना रहता है कि यषि पह मुझसे विरद होनापगा, तो मेरे मम्त्र-गुप्त रहस्य--को फोबकर म में मरमा रावेगा अथवा मुमे अधिक हानि पहबायगाप्रत एव उसे सबा उसकी माज्ञानुकूल बनना पचता है। इसलिये इसरेको अपना म बस्य प्रकट करना उसे अपनेको बेच देनेके समान है। निष्कर्षः-प्रतः नैतिक पक्ति अपने गुप्त रहस्यको सदा गुप्त रक्खे । वथा च मिति:-परस्य धम भेदं करते कलादाश्रयः । तस्य सोऽपि कोरयेव तस्माम्मन मेदवेद . .
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मन्त्रिसमुदेश
..... ........... अर्थ-शत्रुओंपर विश्वास करना 'अजाकृपाणीयके' न्यायके समान पातक है ।।१४१ ॥
नीतिकार चाणक्य' ने भी कहा है कि 'नैठिक पुरुषको अविश्वासी-धोखेबाज पर विश्वास नहीं करना चाहिए और विश्वासी भी विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि विश्वास करनेसे उत्पम हुआ भय मनुष्यको जड़मूलसे नष्ट कर देता है ।।१।।' चंचलचित्त और स्वतन्त्र पुरुषकी हानि क्रमशः
चणिकचित्तः किंचिदपि न साधयति Al|१४२॥
स्वतंत्रः सहसाकारित्वात् सर्व विनाशयति ॥१४३॥ अर्थ-जिसका चिश्त संचल है वह किसी भी कार्यको सिद्ध नहीं कर सकता ॥१४॥
हारीत' विद्वान ने भी कहा है कि 'चंचज बुद्धिवाले मनुष्यका कोई भी सूक्ष्म कार्य थोड़ासा भी सिद्ध नहीं होता, इसलिये यश चाहनेवालों को अपना चित्त स्थिर करना चाहिए ॥१॥'
जो राजा स्वतन्त्र होता है-राजकीय कार्यों में मंत्री श्रादिकी योग्य सलाह नहीं मानवा-यह बिना सोचे-समझे अनेक कार्यों को एकही काजमें आरम्भ करने के कारण अपने समस्त राज्यको नष्टकर डालता है ॥१४॥
नारद' विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो राजा स्वतन्त्र होता है, यह मंत्रियों से कुछ नहीं Jखता और स्वयं राजकीय कार्य करता रहता है, इसलिये वह निश्चय से अपने राज्यको नष्ट कर देता है ॥१॥
---. --.-... -..-........ .-- -.ॐ'प्रजापागोषका सटीकरणकिसी समय किसी भूमे च हिंसक बटोहीने उनमें विचरता हुमा कोका सुपा देवा । र स्वार्थमा बम के एक इष्ट-पुष्ट परेको बहुतसे फोमस और हरे पो खिलाने लगा। इससे पकरा रसके पीछे रहने । पूरीपर वह उसके वध करनेको इसे किसी हथियारको ने तत्पर हुमा । परबाद उसे दंब-योगसे एक बा जिसे ससने पूर्व में हो माय स्वस्खा था, मिला। परचार उसने मनसे उस कबरेको करवा कर मामविया, इसे 'प्रजापाशीया कहते हैं। सारांश यह है कि जिसरकार बरामएने श (पटोही)पर विश्वास करनेसे मार राया गया, उसी पकार जो मनुष्य शत्रुपर विश्वास करता है, वह इसके द्वारा मार दिया जाना है। अगएष नैतिक मनुषको शोर कदापि विश्वास नहीं करना चाहिये। , वथा पापिय:- बिस्वसेवविश्वस्ते विरबस्तेऽपि न पिरवसेत् । विश्वासाजयमुप बापम मिति
'पहिक किम्पिरिकमपि न साधयति ऐसा म० व १० लि. मू० प्रतियोंमें पाठ है, पान्तु अर्थमेव नहीं। २ तथा हारीत:-चनचित्तस्य नो किंचित् कार्य किंचित प्रसिद्ध्यति । सुसम्ममपि सत्तस्मात् स्थिर वा पदोऽपिभिः । तथा च नारदः- यः स्वतंत्रो भवेवामा सविधाम च पृष्यति । स्वप' कृत्यानि कुर्वाणः स राज्य माशयेद् शुभम् ॥१॥
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नाविषाक्यामृत
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मानस्य असावधानी से हानि तथा मनुष्य-कर्तव्य कमशः
अलसः सर्वकर्मणामनधिकारी ॥१४॥ प्रभादवान् भवत्यवश्य विद्विषां यशः ॥१४॥ कमप्यात्मनोऽनुक्ल प्रतिकूलन कयात् ॥१४६।।
प्राणादपि प्रत्यवायो रवितव्यः A ॥१४७॥ मर्थ-पानसी पुरुष समस्त राजकीय मादि कार्योंके अयोग्य होता है ॥१४॥
राजपुत्र' विद्वान ने कहा है कि 'जो राजा छोटे २ कार्यों में भी आलसी अधिकारियों-मंत्री-आदिको नियुक्त करता है उसके समस्त कार्य सिद्ध नहीं होते ||शा'
जो मनुष्य कर्तव्य-पालनमें सावधान वा उत्साही नहीं है, यह शत्रुओंके वश होजाता है ॥१४॥
जैमिनि पिताम् ने भी कहा है कि 'जो राजा छोटे २ कार्यों में भी शिथिलता करता है, वह महान ऐश्वर्य-युक्त होकरके भी शत्र के अधीन होजाता है ।शा'
नैतिक मनुष्यका कर्तव्य है कि किसी भी अनुकूल-मित्रको शत्र, न बनाये ११४६।।
राजपुत्र' विद्वान ने भी कहा है कि जो राजा मित्रको शत्रु बनाता है, उसे इस मूर्खताके कारण अनेक कष्ट र अपकीर्ति उठानी पड़ती है । ___ मनुष्यको प्राणोंसे भो भधिक अपने गुप्त रहस्यको रक्षा करनी चाहिए ॥१४॥ .
मारि विज्ञामने कहा है कि 'राजाको अपने जीवनसे भी अधिक अपने गुप्त रहस्य सुरक्षित रखने पाहिये, क्योंकि शत्र भोंको मालूम होजानेपर के लोग प्रविष्ट होकर उसे मार डालते हैं ।।१।।'
A 'पावावपि प्रत्यायो न सिम्प:' इसप्रकार मु.म.न.वि.म. प्रतियोंमें पालम्पर है, जिसका अर्थ यह कि अपने में दोष होनेपर भी कामासनहाना नहीं करना चाहिये। अवश्य करना चाहिये। सारास मह
समें पावरका और सं• टी• पुस्तक पाठमें अपने गुप्तरहस्यकी का मुख्य है । सम्पादकबाप रामना-मावस्मोपइसान पोन विदात्यधिकारियः। सूत्रोमपि चकत्येम सिध्येतानि तस्य हि .प्रथा मिति:-मुसून्मेष्वपि हान्येषु शैधिक्य मुले पा । स राजा रिपुरमा स्यात् [प्रभूवधिमयोऽपि सम्]m
बर्ष पर संशोधित परिवर्तित । सम्पादक. याच राजपुत्र:- मित्राने वर्तमान कानुन विपापा । स मूखों भम्पते राजा अपवाद वगति m . यामागुरि:-मात्मणिय परत जीवावपि महीपतिः । यतस्तेन प्रसान प्रविश्य नन्ति समर HAR
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शक्ति न जानकर वलिष्ठ शत्रुके साथ युद्ध करनेसे दानि व आपदूमस्त राजाका धर्म क्रमश:आत्मशक्तिमज्ञानतो विग्रहः क्षयकाले कीटिकानां पञ्चोत्थानमिव ।। १४८ ॥ कालमभमानोऽपकर्तरि साधु वर्तत ॥ १४६ ॥
-ओ राजा अपनी सैनिक व कोश- शक्तिको न जानकर वलवान् शत्रुके साथ युद्ध करता है, माकाल पतनोंके पङ्ग उठानेकी तरह अपना नाश कर डालता है। सारांश यह है कि अब नाशकात जाता है-जब वे दीपककी लोंमें जल-भुनकर मरने लगते है—उससमय अपने कार राजाका जब विनाशकाल आता है, उस समय उसकी बुद्धि बलवान् शत्रुके साथ करने पर होती है ॥ १४८ ॥ गुदाने कहा है कि 'जिसप्रकार मदोन्मत्त हाथी अचल (द) और बहुत ऊंचे पहाड़को करता है, तब उसके दाँत (खीसे) टूट जाते हैं और वापिस लोट जाता है, उसीप्रकार जो राजा पति से स्थिर, वृद्धिंगत तथा बलवान् शत्रु के साथ युद्ध करता है, उसे भी अपनी शक्ति नह सौटना पड़ता है ॥ १ ॥
विजिगीषुको जब तक अनुकूल समय प्राप्त न हो, तब तक उसे शत्रुके साथ शिष्टताका व्यबहार जाने-उससे मैत्री कर लेनी चाहिये । सारांश यह है कि बिजिगोधुको हीनशक्तिके साथ युद्ध और शकिदुकके साथ सन्धि करनी चाहिये ।। १४८ ॥
रवि कहा है कि 'विजिगीषुको वलिष्ठ शत्रु देखकर उसकी आज्ञानुसार चलना चाहिये, शक्ति-संचित होजाने पर जिसप्रकार पत्थर से घड़ा फोड़ दिया जाता है, उसीप्रकार शत्रुको कर देना चाहिये ॥ १३॥
पाका दृष्टान्त-माला द्वारा समर्थन व अभिमान से हानि क्रमशः --
किन्तु खलु लोको न वहति मूर्ध्ना दग्धुमिन्धनं ॥ १५० ॥
४. मदीयस्तरूणामंड्रीन चालयमप्युन्मूलयति ॥ १५१ ॥ उत्सेको हस्तगतमपि कार्यं विनाशयति ।। १५२ ॥
धर्य मनुष्य ईंधनको भाग में जलानेके उद्देश्य से क्या शिर पर धारण नहीं करते ? अगर करते है कि जज्ञाने योग्य ईधनको शिर बहन के समान पूर्वमें शत्रुसे शिष्ट व्यवहार करना पश्चात् अवसर पाकर शक्ति-संचय होनेपर उससे युद्ध करना चाहिये ॥ १५० ॥
गुरुः प्रोच योऽत्र हिपु' याति यथा । शीदन्तो विस स यथा मश्ववाराः १ -रिपुष्ट्रातस्य इन्दोऽनुपसंवेत् । यच्चास्यास पुनस्तं च भिम्यात् कुभमिवाश्मा ॥१॥
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POLSR 411004
नोतिया मृत
शुक' विद्वान ने भी कहा हैं कि 'जिसप्रकार मनुष्य लकड़ियोंको जलाने के उद्देश्य से पहले उन्हें अपने मस्तक पर वहन करता है, उसीप्रकार विजिगीषुको पूर्व में शत्रुको सम्मानित करके पश्चात् शक्ति-संचय करके उसका वध करना चाहिये ।। १ ।।'
नदीका वेग (प्रवाह) अपने तटके वृक्षोंके धरण - जड़ें प्रचालन करता हुआ भी उन्हें जड़ से उखाड़ देवा है । सारांश यह है कि उसीप्रकार विजिगोपका कर्तव्य है कि वह शत्रु के साथ पूर्व में शिष्ट व्यवहार करके पश्चात् उसके उन्मूलन में प्रवृत्ति करे || १५१ । ।'
शुक्र विज्ञान भी कहा है कि 'जिसप्रकार नदोका वेग-प्रवाह - घटवर्ती वृत्तोंके पाद-ज घोटा हुआ भी उनका उन्मूलन करता है, उसीप्रकार बुद्धिमानोंको पहले शत्रुओंको सन्मानित करके पश्चात् वध करना चाहिये ॥ १ ॥
अभिमानी पुरुष अपने हाथमें आये हुए कार्य -- सन्धि आदि द्वारा होनेवाले अर्थ साभादि प्रयोजन- को नष्ट कर डालता है ।। १५२ ॥
शुक्र * विद्वान् ने भी कहा है कि 'विजिगीषुको शत्रुसे प्रिय वचन बोलना चाहिये और बिलाब की तरह करनी चाहिये परन्तु जब शत्रु इसके ऊपर विश्वास करने लगे, वथ जिसप्रकार विलाब मौका पाकर चूहेका छनन कर देता है, उसीप्रकार इसे भी उसका हनन कर देना चाहिये ॥ १ ॥
- विनाशके उपायको जाननेवालेका लाभ, उसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन व नैतिक कर्तव्य
नापं महद्वापक्षेपोपायज्ञस्य A ।। १५३ ।।
नदीपूरः सममेवोन्मूलयति [ तीरजणांड्रियान् ] ॥ १५४ ॥ धुक्तमुक्त' चचो बालादपि गृह्णीयात् ।। १५५ ।।
अर्थ - शत्रु विनाशके उपाय- सन्धिविग्रहादि - ज्ञाननेवाले विजिगीवके सामने म हीनशक्ति शत्रु ठहर सकता है और न महाशक्तिशाली || १५३||
शुक्र विद्वान ने भी कहा है कि 'जो राजा शत्रु बधके उपाय भलीभाँति जानता है, उसके सामने
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1 तथा च शुक्रः- दग्धु वहसि काहानि तथापि शिरसा नरः । एवं माम्योऽपि चैरी यः परचाभ्यः स्वक्तितः ॥१॥ २ तथाच शुक्रः पालयन्नपि वृक्षांही श्रदीवेगः प्रणाशयेत् | पूजयिस्यापि महुश्च शुध्द विचकैः ॥ ॥
उतस्त ं तु निपातवेद | n
३ तथा च शुक्रः— वचनं कृपणं प्रयात् कुर्यान्मार्जारवेष्ठितम् । विश्वस्त A 'गापं महद्वाप्यकोपोपायशस्य' इसप्रकार मु० व ६० शि० म्० प्रतियों में पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो अति क्रोध शान्ति के उपाय - सरसह व नैतिकशान आदि से अनभिज्ञ है, उसे 'यह शत्रु महाबू- प्रचुरशी है अथवा लघु-मशक्ति युक्त है' इस प्रकारका विषेक नहीं होता।
७ तथा शुक्रः — वधोपायान् विजानाति शत्र खां पृथिवीपतिः । तस्याप्रे च महा शत्र, स्तिजसे न कुतो धुः ॥ १ ॥
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मन्त्रिसमुद्देश
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महाम्- प्रचुर सैनिकशक्ति सम्पन्न - शत्रु नहीं ठहर सकता पुनः हीनशक्तिवाला किसप्रकार ठहर सकता है ? नहीं ठहर सकता ॥ १ ॥
जिसप्रकार नदीका पूर वटवर्ती तृण ष वृक्षों को एक साथ उखाड़ कर फेंक देता है, उसीप्रकार शत्रु विनाश को जाननेवाला विजिगीषु भो अनेक सफल - श्रव्यर्थ - उपायोंसे महाशक्तिशाली व ही शक्तियुक्त शत्रुओं को परास्त कर देता है ।। १५४ ॥
गुरु' विद्वाने भी कहा है कि 'जिसप्रकार नदीका पूर तटवर्ती तृण च वृक्षोंको उखाड़ देता है, उसीप्रकार शत्रुओं से प्रियवादी बुद्धिमान् राजा भी शत्रुओं को नष्ट कर देता है ॥ १ ॥
नैतिक मनुष्यको न्याययुक्त योग्य वचन बच्चेसे भो ग्रहण कर लेना चाहिये || १५५ ॥
विदुर' विद्वान्ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार धान्यकी ऊबी बटोरनेवाला पुरुष उसे खेतसे संचय कर लेता है, उसीप्रकार चतुर मनुष्यको भी बच्चे की सार बात मान लेनी चाहिये, उसे छोटा सममकर उसकी न्याय युक्त बाकी अवहेलना (तिरस्कार) नहीं करनी चाहिये || १॥'
उक्त बातका दृष्टान्तमाला द्वारा समर्थन व निरर्थक वाणीसे बक्ताकी हानि
रवेरविषये किं न दीपः प्रकाशयति ॥६॥
अन्पमपि वातायनविवर' बहूनुपलम्भयति ॥१५७||
पतिंवरा इव परार्थाः खलु वाचस्ताश्च निरर्थक प्रकाश्यमानाः शपयन्त्यवश्यं जनयितार ॥ १५८ ॥
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अर्थ - अपर सूर्य प्रकाश नहीं है, वहां क्या दीपक पदार्थोंको प्रकाशित नहीं करता ? अवश्य करता है । उसीप्रकार ज्ञान के अभाव में बालक या मख पुरुषभी न्याय- युक्त बात बोल सकता है, अतः उसको कही हुई युक्तियुक्त बात शिष्ट पुरुषों को अवश्य मान लेनी चाहिये || १५६ ||
जिस प्रकार झरोखा - रोशनदान - छोटा होनेपर भी गृहवर्ती बहुत से पदार्थोंको प्रकाशित करवा है, उसीप्रकार बालक या अश भी नैतिक बात कह सकता है, अतः शिष्यों को उसकी नीति-पूर्ण बात स्वीकार करनी चाहिये || १५७ ||
हारीस" विद्वान ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार छोटासा रोशनदान दृष्टिगोचर हुआ बहुतसी बस्तुएँ प्रकाशित करता है, उसीप्रकार बालक या अशद्वारा कहूं हुए युक्तियुक्त वचन भी लाभदायक होते हैं ||१||
१ तथा गुरुः- पार्थिवो सुगा: मालापयेत् सुधीः । नाशं नयेच्च तारजान् सिन्धुपूरषत् ॥ १॥ संशोधित २ सा विदुरः लघु मत्वा मत्रापेत बाकाच्चापि विशेषतः । मत्सारं भवति तद्माच शिलाहारी शिखं यथा ॥१५ ३ तथा द्वारी गाविवरं सूक्ष्मं यद्यपि स्याद्विलोकित' प्रकाशयति यसरि बालम जस्पतम् ॥१॥७
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नीतिवाक्यामृत
जिसप्रकार अपनी इच्छानुकूल पसिको चुननेवाली कन्याए' दूसरोंको जाने पर (पिताद्वारा उनकी इच्छा-विरुद्ध दूसरोंके साथ विवाही जाने पर ) पिताको तिरस्कृत करती हैं या उसकी हँसी कराती हैं, उसीप्रकार श्रोताओंकी इष्ट प्रयोजन-सिद्धि करनेवाली बताकी वाणी भी जब निरर्थक कही जाती है, तब वह वाको तिरस्कृत करती है अथवा उसकी हँसी-मजाक कराती हैं। निष्कर्ष यह है कि नैतिक बक्ताको श्रोताओंके इष्ट प्रयोजन-साधक, सात्विक और मधुर वचन बोलना चाहिये एवं उसे निरर्थक वचन कहना छोड़ देना चाहिये, जिससे उसका तिरस्कार और हंसी-मजाक न होने पावे । श्रथवा जिसप्रकार विवाहयोग्य कन्याएं अपने पतिकी इष्ट प्रयोजन-सिद्धि करनेवाली होती हैं, उसीप्रकार वक्ताको वाणी भी श्रोताकोंकी इष्टप्रयोजन-सिद्धि करनेवाली होती है परन्तु जब बता नीति विरुद्ध और निरर्थक वाणी बोलता है, तब उससे उसका तिरस्कार या हँसी-मजाक किया जाता है || १५८६ ।।
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वर्ग' विद्वान् ने भी कहा है 'जो मनुष्य निरर्थक वाणी बोलता है उसकी हँसी होती है । जिसप्रकार स्वयं पतिको चुननेवाली कन्याएं अपने पिताका जो कि उन्हें दूसरोंके साथ विवाहना चाहता है, आदर नहीं करती ॥१॥
मूर्ख वा जिद्दीको उपदेश देनेसे हानि क्रमशः -
तत्र युक्तमप्युक्तमयुक्तसमं यो न विशेषज्ञः A ॥१४६॥
स खलु पिशाचकीB वातकी वा यः पर े ऽनर्थिनि वाचमुद्दीरयति ॥ १६० ॥
अर्थ- जो मनुष्य वक्ता कहे हुए वचनोंपर विशेष विचार ( इसने अमुक बात मेरे हितकी कही है-इत्यादि) नहीं करता - जो सूखे है, उसके सामने उचित बात कहना भी अनुचितके समान है, क्योंकि उसका कोई फल नहीं होता । सारांश यह है कि मूर्खको हितोपदेश देना व्यर्थ है ॥ १५६ ॥
वर्ग" विद्वान् ने भी कहा है कि 'मूर्खको उपदेश देना जंगलमें रोनेके समान म्यर्थे है, क्योंकि वह उससे वि अहितका विम्बार नहीं करता; इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको उससे बातचीत नहीं करनी चाहिए ||१|| जो इक्का उस भोतासे बातचीत करता है जो कि उसकी बातको सुनना नहीं चाहता, उसकी लोग इसप्रकार शिदा करते हैं कि इस बक्ताको पिशाचने जकड़ लिया है या इसे बातोल्वण सन्निपान रोग होगया है, जिससे कि यह निरर्थक प्रशांप कर रहा है ।। १६० ।।
१ वा वर्ग:सामा कुर्यात् स पुमान् दास्तां जजेत् । पतिंबरा पिता पदम्यस्थार्थे वृथात् ] ||१|| संशो० A 'वत्र शुक्रमप्युक्तममुद्रसमं वो न विशेष:' इस प्रकारका पाठान्तर मु० ० शि० मू० प्रतियोंमें विद्यमान में, जिसका अर्थ यह है कि मूर्खके समय योग्य वचन कहना भी नहीं कहने के समान है ।
B सु. ६०० मू० प्रतियोंमें 'पावकी' ऐसा पाठान्तर है जिसका अर्थ 'पापी' है।
२ तथा च वर्ग:- अरमरुदित तस्याद् यम्मूर्खस्योपदिश्यते । हिवाहिय न जानाति जल्पित म कदाचन ॥ ३४
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मन्त्रिसमुद्देश
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नीति-शून्य पुरुषकी हानि व कृतघ्न सेवकों की निन्दा क्रमश:-- विध्यायतः प्रदीपस्येव नयहीनस्य वृद्धिः ॥ १६१ ॥ जीवोत्सर्ग' : स्वामिपदमभिलषतामेव B ॥ १६२ ॥
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भागुरि विद्वान ने कहा है 'जो बक्ता उसकी बात न सुननेवाले मनुष्य के सामने बोलता है वह मूर्ख हैं, क्योंकि वह निसन्देह जंगलमें सेवा है ॥१॥
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अर्थ-नीति-विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषकी बढ़ती तत्काल बुझते हुए दीपककी बढ़तीके समान उसको जड़-मूलसे नष्ट करनेवाली होती है। अर्थात् जिसप्रकार बुझनेवाला दीपक अधिक प्रकाश करके समूल नष्ट हो जाता है, इसीप्रकार अन्यायी मनुष्य भी अन्याय-सचित धनादिसे तत्काल उन्नतिशीलमा मालूम पड़ता है, परन्तु राजदंड-भादिके खतरे से खाली न होनेके कारण अन्तमें यह बढ़-मुखसे नष्ट हो जाता है || १६१ ।।
नारद * विद्वान ने भी कहा 'च्यो को भी पग़ैरह अन्याय से बढ्यो होती है उसे चुकनेवाले दीपककी बढ़ती के समान विनाशका कारण समझनी चाहिये ।।१म "
जो सेवक – श्रमात्य आदि - कृतघ्नता के कारण अपने स्वामीके राज्यपदकी कामना करते हैं, इनका विनाश - मरण होता है। सारांश यह है कि सेवकोंको अपने स्वामी पर ( राज्यपद ) की कामना नहीं करनी चाहिए || १६२ ||
तीव्रतम अपराधियों को मृत्यु-दंड देने से लाभ व जुब्ध राज कर्मचारी क्रमशः -
चहुदोषेषु दुःखमदोऽपायोऽनुग्रह एव ॥ १६२॥
स्वामिदोषस्यदोषाभ्यामुपहतवृत्तयः क्रुद्ध-हृम्भ- मीतावमानिताः कस्याः || १६४||
१ मा च भागुरिः मोतुः पुरतो वाक्य' यो वरेविधयः । A 'विध्यायः प्रदीपस्येव ममहीनस्य बुद्धिः' ऐसा पाडार सुरु कि मिलमकार शुकनेवाले या बहुत धीमी रोडनीयाचे दीपकका पुरुषकी पूजिका कोई उपयोग प्रादि-गी है।
अर्थ — दीनतम अपराधियोंका विनाश राजाको प्रथभरके लिये कष्टदायक होता है, परन्तु यह उसका उपकार ही समझना चाहिये, क्योंकि इससे राज्यकी श्रीवृद्धि होती है ॥१६३||
चदि सोआ कुरले मात्र वाचः ॥१॥
हु०शि० सू० प्रतिबरें है, जिसका अर्थ ह कोई उपयोग नहीं है, अमर चन्यावी
'B 'ओबोत्सर्गः स्वाप्रियममिकतामेव' इस प्रकार मु० ६० शि० सू० प्रतियो पाठान्तर है। जिसका मह कि राजकों उसका बुरा चाहनेवाल विरोधियोंका नाश कर देना चाहिये।
२] च नारदः - कर्मादिभिः समुद्रियां पुरुषायां प्रभाषते । ज्योतिष्कस्येच सा विकास उपस्थिते ॥१॥
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नीतिषाक्यामृत
हारीत' विद्वानने भी कहा है कि 'राजाओंको उन पापियों-अत्यन्त भयानक अपराधियों को मार देना चाहिये, चाहे वे उनके कुटुम्बी होनेके कारण अवध्य-मृत्यु-दसके अयोग्य भी हों। क्योंकि पापियोंका नाश क्षणभरके लिये दुःखदायक होने पर भी भविष्य में पायाणकारक होता है. |१|
मंत्री, अमात्य और सेनाध्यक्ष आदि राज्याधिकारियों में से राज-दोष (क्रोध व ईया-प्रादि) और स्वयं किये हुए अपराधोंके कारण जिनकी जीविका (वेतनादि) नष्ट कर दीगई है, वे क्रोधी, जोभी, भीत
और तिरस्कृत होते हैं, उन्हें 'कृत्या के समान महाभयङ्करं जानना चाहिये। अर्थात् जिसप्रकार जारणमारद मंत्रों से अयथाविधि किया हुआ यश क्षुब्ध (अमन्तुए) होनेपर यज्ञ करनेवालेका घातक होता है, उसीप्रकार पृथक्करण (नौकरोसे हटाना) और अपमानादिसे क्षुब्ध-असन्तुष्ट हुए राज-कर्मचारी भी राज-घातक होते हैं । निष्कर्ष यह है कि नोतिम राजाको उन जुन्ध हुए अधिकारी घगसे सदा सावधान रहना चाहिये एवं पागेके सूत्रमें कहे हुए नैतिक उपायों से उन्हें वश करना चाहिये ॥१६४।।
नारद विद्वान्ने भी कहा है कि 'राजाको पूर्व में अधिकारी-पद पर नियुक्त किये हुए मंत्री प्रादि राज-कर्मचारियों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये-अपने वश में करना चाहिये, यदि वे राज-घातक नहीं हैं, तो उन्हें अपने २ पदोंपर नियुक्त कर देना चाहिये ॥शा' पूर्वोक्त इश्व राज-कर्मचारियों का वशीकरण व राजाका मंत्री-आदिके साथ वर्ताव क्रमशः
अनुत्तिरभयं त्पागः सस्कृतिश्च कृत्यानां वंशोपाया: A ॥१६॥
भयलोभविरागकारणनि प्रकृतीनां न कुर्यात ॥१६६।। मर्थ-पर्वोक्त छत्या समान राज्य क्षति करनेवाले कारण वश तुब्ध हुए. अधिकारियों (मंत्री व सनाध्यादि) को वश करनेके निम्न प्रकार उपाय हैं। १ उनकी इच्छानुकूल प्रवृत्ति करना (यदि वे पुनः अपने पदों पर नियुक्त होना चाहें, तो नियुक्त करना भावि) २ अभयदान (जीविकाके बिना पारिद्रयदोष से भयभीतोंको पुनः जीविका पर लगाना) ३ त्याग–अभिलषित धन देना और ४ सत्कार-तिरस्कतों का सम्मान करना।
विमर्शः-नीतिज्ञ राजाका कर्तव्य है कि वह कारण-वश सुब्ध हुए पर्योक्त कोधी, लोभी, भीत व विररात अधिकारियों में से क्रोधी और लोभी कर्मचारियोंको पूर्वकी तरह नौकरीसे पृथक् रक्खे क्योंकि उन्हें पुनः नियुक्त करने से उसकी तथा राज्यकी क्षति होनेकी संभावना रहती है, तथा जीविकाफे विना
___--...-... -- - -- --- ... ... ... - ----- ----- - -- १ सया च हारीतः-प्रममा अपि मारते ये तु पापा निजा थपि । तथाले च तेषां च पश्चात खूपसे भवेद ॥१॥ २ तथा नारदः-नोपेपणीयाः सचिवाः साधिकाराः कृताश्च ये । योजनायाः स्वकृत्ये ते न त् स्युषधकारिणः DIH A उक्त सूत्र सं० टी० पुस्तक में नहीं है, परन्तु मु.१० लि. मा प्रतियोंस संकलन किया गया है और
वास्तवमें प्रारयिक तवं क्रम प्राप्त भी है। संपादक--
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मन्त्रिसमुद्देश
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भयभीत हुए कर्मचारियों को पुनः उनके पपर आसीन कर देवे, क्योंकि ऐसा करने से वे कृशता के कारण बगावत नहीं कर सकते एव उसे तिरस्कृतों को वश करनेके लिये उनका सम्मान करना चाहिये || १६५||
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राजाका कर्तव्य है कि जिन कारणों से उनकी प्रकृति-मंत्री और सेनापति आदि राज्य के अङ्गनष्ट और विरक्त कर्त्तव्यच्युत होती हो, उन्हें न करे एव ं लोभके कारणों से पराङ्गमुख होकर उदारा से काम लेवे ||२६६||
वसिष्ठ' विद्वान्ने भी कहा है कि 'राजाको अमात्य आदि प्रकृतिके नष्ट और विरक्त होनेके साधनों का संग्रह तथा लोभ करना उचित नहीं है, क्योंकि प्रकृतिके दुष्टनष्ट और बिरक्त होने से राज्यकी वृद्धि किस प्रकार होसकती है ? नहीं हो सकती
।
प्रकृति-क्रोध से हानि व श्रवध्य अपराधियों के प्रति राज कर्त्तव्य क्रमश:
सर्वोपेभ्यः प्रकृतिकोपो गरीयान् ॥१६७॥
अचिकित्स्पदोपदष्टान् स्वनिदुर्गा सेतुबन्धाकरकर्मान्तरेषु क्लेशयेत् ॥ १६८ ॥
अर्थ- शत्रु आदि से होनेवाले समस्त क्रोधों की अपेक्षा मंत्री व सेनापति आदि प्रकृतिका क्रोभ राजाके लिये विशेष कायक होता है। निष्कर्ष यह है कि राज्यरूपी वृक्षका मूल अमात्यादि प्रकृति होती है, अतः उसके विरुद्ध होनेपर राज्य नष्ट होजाता है, अतः राजाको उसे सन्तुष्ट रखने में प्रयत्नशील रहना चाहिये || १६७७
राजपुत्र' विद्वान ने भी कहा है कि 'अमात्य आदि प्रकृतिके लोग सदा राजाओंके सभी विश्दोष जानते हैं, अतएष विरुद्ध हुआ प्रकृति वर्ग शत्रु चोंको राज-दोष बताकर उनसे राजाको मरमा सा है ॥ ९॥ ॥
राजाका कर्त्तव्य है कि यह जिनके अपराध कौटुम्बिक संबंध आदिके कारण दवाई करनेके अयोग्य है- दूर नहीं किये जासकते (जिन्हें वत्र बंधनादि द्वारा पंडित नहीं किया जासकता) ऐसे राज-द्रोही महान् अपराधियोंको तालाब खाई खुदवाना, किले में रखकर काम कैराना, नदियोंके पुल बंधवाना और खानियों से मोहा-प्रभूति धातुएं निकलवाना इत्यादि कार्यों में नियुक्त कर क्लेशिस करें ||१६||
शुक विद्वायने भी उक्त बातकी पुत्रि की है कि 'जो महापराधी राज-वंशज होनेसे वध करनेके
१ तथा च राजपुत्रः - राज्ञां विणि सर्वाणि विशुः प्रकृतयः : न च शुक्रः—श्रध्या ज्ञातयों ये च बहुदोषासति
१ तथा च वसिष्ठः यो लोभो विरागश्च प्रकृतीनां न शस्यते [कुतस्तासां प्रक्षेपेण] राज्यवृद्धिः प्रजायते ॥ तृतीय चरण संशोधित एम परिवर्तित सम्पादकसदा । निषेध शनि शत्रु म्यस्ततो नाशं नयन्त्रितम् ॥१॥ । कर्मानिया येन मनान्विता ॥१॥९
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नीतिवाक्यामृत
योग्य नहीं हैं, उन्हें राजाको भिन्न २ कार्यों (तालाब खुदवाना - श्रादि) में नियुक्त करके क्लेशित - दुःखी करना चाहिये ||१||
कथा-गोष्ठी योग्य व उनके साथ कथा-गोष्ठी करनेसे हानि क्रमशः -- अपराध्यैरपराधकैश्च सह गोष्ठीं न कुर्यात् ॥ १६६ ॥ A ते हि गृहप्रविष्टसर्पवत् सर्वव्यसनानामागमनद्वार ं ॥ १७० ॥
अर्थ- राजाको अपराधी व अपराध करानेवालों के साथ कथा-गोष्टी (वार्तालाप -सहवास) नहीं करनी चाहिये । सारांश यह है कि अपराध करने व करानेवाले (बैरी) उच्छू खल, छिद्राम्बेपी और भयङ्कर बैर-विरोध करनेवाले होते हैं। अतः राजाको शत्रु -कृत उपद्रवों से बचाव करनेके लिये उनके साथ कथा-गोष्टी करनेका निषेध किया गया है ॥ १६६॥
नारद' विद्वान भी कहा है कि 'जो अपने ऐश्वर्यका इच्छुक है, उसे सजा पाये हुए (बैरी) व अपराधियों के साथ कथा-गोष्ठी नहीं करनी बाहिये ॥ १॥ '
निश्चय से वे लोग - डिस व अपराधी पुरुष - गृह में प्रविष्ट हुए सर्प की तरह समस्त आपत्तियों के आने में कारण होते हैं। अर्थात् जिसप्रकार घर में घुसा हुआ सांप घातक होता है, उसीप्रकार सजा पाये हुए और अपराधी लोग भी वार्तालाप सहवासको प्राप्त हुए छिद्रान्वेषण द्वारा शत्रु श्र से मिल आते हैं; अतः राजाको अनेक कष्ट पहुंचाने में समर्थ होने से घातक होते हैं ||१७||
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शुक्र बिद्वान्ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार मकानमें प्रविष्ट हुआ साँप निरन्तर भय उत्पन्न करता है, उसीप्रकार गृह-प्राप्त इण्डित व अपराधी लोगभी सदा भय पैदा करते रहते हैं ||१||
की प्रति कर्तव्य, उससे हानि व जिसका गृहमें आगमन निष्फल है, कमशः -- न कस्यापि क्रुद्धस्य पुरतस्तिष्ठेत् ॥ १७१ ॥
क्रुद्धो हि सर्प इव यमेवाग्रे पश्यति त व रोषविषमुत्सृजति ॥ १७२ ॥ अप्रतिविधातुराम मनाइरमनागमनम् ॥१७३॥
अर्थ - नैतिक पुरुषको किसी भी क्रोधी पुरुषके सामने नहीं ठहरना चाहिये | अभिप्राय यह है कि कोसे अन्धबुद्धि-युक्त पुरुष जिस किसी (निरपराधीको ) भी अपने सामने खड़ा हुआ देखता है, उसे मार डालता है, इसलिये उसके सामने ठहरनेका निषेध किया गया है ॥ १७१ ॥
A अपरापराधर्केश्व सहवासं न कुर्यात् इसप्रकार सु० व ६० लि० सू० प्रतियों में पाठ है, परन्तु अर्थभे कुछ नहीं । 1 तथा च नारदः परिभूतर मरा ये च कृतो यैश्च पराभवः । न तैः सह क्रिया गोष्टीं य इच्छंद भूतिमात्मनः ॥२१॥ २ सभा शुक्रः -- यथादिर्मन्दराविष्टः करोति सततं भयं । अपराध्याः सदोषाश्च तथा तेऽपि गृहागताः ॥३॥
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मन्त्रिमा
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गुरु' विद्वान्ने भी कहा है कि जैसे अन्धा पुरुष कुपित होने पर जो भी उसके सामने खड़ा रहता है, उसे मार देता है, उसीप्रकार क्रोधसे अन्धा पुरुष भी अपने सामने रहनेवाले व्यक्तिको मार देवा है, अतः उससे दूर रहना चाहिये ।।१।।'
क्योंकि क्रोधी पुरुष जिस किसीको सामने देखता है, उसीके ऊपर सपके समान रोषतपी जहर फैंक देता है। अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार सांप निरपराधीको भी इस लेता है, नसीप्रकार कोधसे अन्धा पुरुष भी निपराधीको भी मार देता है, इसलिये उसके पास नहीं जाना चाहिये ।।१२।।
जो मनुष्य प्रयोजन सिद्ध करनेमें समर्थ नहीं है, उसका प्रयोजनार्थीके गृह पानेकी अपेक्षा न पाना ही उत्तम है, क्योंकि उसके निरर्थक मानेसे प्रयोजनार्थी-कार्य-सिद्धि चाहने बामेका व्यर्थ समय नष्ट होने के सिवाय कोई लाभ नहीं ।।१७३||
भारद्वाज' विद्वान्ने भी कहा है कि किसी प्रयोजन-सिद्धिके लिये बुलाया हुया मनुष्य (वैद्य. श्रादि) यदि उसकी प्रयोजनसिद्धि (रोग-निवृत्ति-आदि) नहीं कर सकता तो उसके लानेस कोई लाभ नहीं, क्योंकि वह (निरर्थक व्यक्ति) केवल प्रयोजनार्थीके समयको व्यर्थ नष्ट करता है ॥शा
इति मन्त्रिसमुहेश।
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1 सा गुरु:-धान्ध कपित्तो हग्यात् यच्च धानं व्यवस्थित । कोभान्धोऽपि तथैवाय तस्मात परतत्याने १५ • च समाज' -भगवायामीनी प्रका' नर माधन । अमीनना मन म पक्षपाfmore
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११ पुरोहित-समुद्द ेश ।
पुरोहित (राज-गुरु) का लक्षण या गुण य मंत्री- पुरोहित के प्रति राजन् कर्त्तव्य क्रमश:पुरोहितमुदितोदितकुलशील' षडंगवेदे देवे निमित्ते दडनीत्यामभिविनीतमापद दीनां मानुषीणां च प्रतिकर्तार कुर्वीत ॥ १ ॥
राज्ञो द्दि मंत्रिपुरोहितौं मातापितरौ श्रतस्तौ न के पुचिद्वाञ्छितेषु विस्तरयेत् ॥२॥
अर्थ- जो कुलीन, सदाचारी और छह वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द व ज्योतिष), चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोग), ज्योतिष, निमित्तज्ञान और दंडनीति विद्यामें प्रवीण हो एवं देवी (उल्कापात, अतिवृष्टि और अनावृष्टि आदि) तथा मानुषी आपत्तियों के दूर करने में समर्थ हो, ऐसे विद्वान् पुरुषको राजपुरोहितराज- गुरु बनाना चाहिये ॥१॥
शुक्र' विद्वान्ने भी कहा है कि गजओको देवता व आकाश से उत्पन्न हुए एवं प्रथिवीपर होनेयाले समस्त उपद्रव और सभी प्रकारको आपत्तियों (शारीरिक बुखार गलगंडादि, मानसिक, आध्यात्मिक, आधिभौतिक व्याघ्रादि-जनित पीड़ा और आधिदैविक - आकस्मिक पीड़ाएँ- आदि) को शान्तिके लिये पुरोहित नियुक्त करना चाहिये ||१||
निश्चयसे मंत्री -पुरोहित हितैषी होनेके कारण राजाके माता-पिता है, इसलिये उसे उनको किसी भी अभिलषित पदार्थ में निराश नहीं करना चाहिये ||२||
गुरू* विधाने भी कहा है कि 'मंत्री-पुरोहित राजाके माता-पिता के समान है, अतः वह उन्हें किसी भी प्रकार से मनचाहे पदार्थों में आशा-हीन (निराश) न करे ॥१॥
१ तथा च शुकः – दिव्यान्तरिच भौमानामुत्पातानां प्रशान्तये । तथा सर्वापदां चैव कार्यो भूपैः पुरोहितः ०१ ॥
A उक्त क्रियापदके स्थान में प्रायः सभी मू० प्रतियों में 'विसूश्येत् दुःखये दुर्विनयेा ऐसा उत्तम पाठान्तर वर्तमान है, जिसका अर्थ क्रमशः प्रतिकूक, दुःखी और अपमानित करना है, शेष अर्थ पूर्ववत् है ।
२ तथा च गुरुः- सी मातृपितृभ्यां च राशो मंत्री पुरोहितों। अतस्तौ वाञ्छितैरथैनं कथंचिद्विस्तरमेत् ॥१॥
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पुरोहितसमुद्देश
आपत्तियों का स्वरूप वा भेद एवं राजन्पुत्रकी शिक्षा क्रमश:
श्रमानुष्योऽग्निरवर्यमतिवर्ष मरकी दुर्भिक्ष सस्योपधातो जन्तुत्सर्गो व्याधि-भूतव्याल- मूषक - क्षोभश्चेत्यापदः ||३||
पिशाच - शाकिनी - सर्व शिक्षालापक्रियाक्षमो राजपुत्रः सर्वासु लिपिसु प्रसंख्याने पदप्रमाणप्रयोगकर्मणि नीत्यागमेषु रत्नपरीक्षायां सम्भोगमहश्योध्यायविद्यासु च साधु नेिधः ॥ ॥
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अर्थ - उल्कापात - बिजली गिरना, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी रोग, दुर्भिक्ष - अकाल, टिड्डी वगैरह से धान्य-नाश, हिंसक जीवोंके छूटने से होनेवाली पीड़ा, बुखार - गलगंडादि शारीरिक रोग, भूत, पिशाच, शाकिनी, सर्प और हिंसक जन्तुओंसे होनेवाली पीड़ा और मूषकोंकी प्रचुरतासे होनेवाला कष्टप्लेगकी बीमारी वगैरह आपत्तियाँ है । निष्कर्ष यह हैं कि प्रकरण में राज पुरोहितको उक्त प्रकारकी राष्ट्र पर होनेवाली देवी मानुषी आपत्तियों का प्रतीकार करने में समर्थ होना चाहिये ||३||
राजा अपने राजकुमारको पहले पब्लिक सभाओं के योग्य वक्तृत्व कलामें प्रवीण बनाये । पश्चात् समस्त भाषाको शिक्षा, गणितशास्त्र, साहित्य, न्याय, व्याकरण, नीतिशास्त्र, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्र शस्त्रविद्या, और हस्ती-मश्वादि वाहन विद्या में अच्छी तरह प्रवीण बनाये || ४ ||
राजपुत्र' विद्वानने भी कहा है कि 'जिसका राजकुमार विद्याओं में प्रवीण नहीं व मूर्ख है, उसका राज्य सुशिक्षित राजकुमारके विना निस्सन्देह नष्ट होजाता है ||१||
गुरु सेवाके साधन, विनयका लक्षण व उसका फल क्रमश:
अस्वातन्त्र्यमुक्तकारित्वं नियमां विनीतता च गुरूपासनकारणानि ||५|| व्रतविद्यावयोधिकेषु नीचराचरण ं विनयः ||६||
पुण्यावाप्तिः शास्त्ररहस्यपरिज्ञानं सत्पुरुषाधिगम्यत्वं च विनयफलम् ||७||
अर्थ
-- स्वच्छन्द न रहना, गुरुकी आज्ञा-पालन, इन्द्रियोंका वशीकरण, अहिंसादि सदाचार - प्रवृत्ति एवं नम्रताका व्यवहार, गुण गुरु सेवाके साधन है-शिष्य की उक्त सत्प्रवृत्तिसे गुरु प्रसन्न रहते हैं ||५||
१ तथा राजपुत्रः कुमारो यस्य मूर्खः स्याम विद्यासु विवक्षयाः । तस्य राज्यं विनश्येत्तदात्या नात्र संशयः ॥ १ ॥ A उसक स्थानमें मु० व ६० लि० मू० प्रतियों में 'विनीततार्थश्च' ऐसा पाठ है जिसका अर्थ नम्रता और धन देना है। नाका वर्ताव करना और धन देने से गुरु प्रसन्न रहते हैं बाकी अर्ध पुर्ववन् है । सम्पादक
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नीतिवाक्यामृत
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गौतम' विद्वान्ने भी कहा है कि 'जो शिष्य सदा गुरुकी आज्ञा-पालन अपनी इच्छानुकूल प्रवृशिनिरोध करता है और विरून पर: नया इस शेसा है, ओ विद्या-प्राप्तिमें सफलता होती है |॥१॥'
प्रत-पालन--महिमा, सत्य व अचौर्य-मादि समाचार प्रवृत्ति, विद्याध्ययम और प्रायुमें बड़े पुरुषों के साथ नमस्कारादि नम्रताका पात्र करना विनय गुण है। सारांश यह है कि नती, विद्वान व वयोवृद्ध (माता-पिता आदि) पुरुष जो कि क्रमशः सदाचार-प्रवृत्ति, शास्त्राध्ययन और हित चितवन आदि सद्गुणों से विभूषित होने के कारण श्रेष्ठ माने गये हैं, उनको नमस्कारादि करना विनय गुण है ॥६||
गर्ग' विदामने भी कहा है कि 'जो प्रत-पालनसे उत्कृष्ट एवं विद्याध्ययनसे महान और वयोवृद्ध है, सनकी भक्ति करना 'विनय' कहा गया है ।'
प्रतो महापुरुषोंकी विनयसे पुण्य-प्राप्ति, विद्वानोंकी विनयसे शास्त्रोंका वास्तविक स्वरूप-हान एवं माता-पिता-प्रादि वयोवृद्ध हितैषियोंकी विनयसे शिष्ट पुरुषोंके द्वारा सन्मान मिलता है |७||
विद्याभ्यासका फल
अभ्यासः कर्मसु कौशलमृत्पादयत्येव यद्यस्ति तज्ज्ञभ्यः सम्प्रदायः ।।८।। अर्थ-यदि विद्या जिजामु पुरुषों के लिये विद्वान् गुरुओंकी परम्परा चली श्रारही है तो उस क्रमसे किया हुश्रा विद्याभ्यास कर्तव्य पालनमें चतुरता उत्पन्न करता है। अभिप्राय यह है कि विद्वान गुरुयोंकी परम्परापूर्वक किये हुए विद्याभ्याससे शास्त्रोंका यथार्थ बोध होता है, जिससे मनुष्य कर्तव्य पालनमें निपुणता प्राप्त करता है ॥६॥ शिष्य कर्तव्य (गुरुकी माझा पालन, रोष करनेपर जबाब न देना व प्रश्न करना आदि) क्रमश:
गुरुवचनमनुल्लंघनीयमन्यत्राधर्मानुचिताचारात्मप्रत्यवायेभ्य:A | - -.-..- ...-. . . . . .---. .. .. . .. ...... १ तथा च गौतमः-सदादेशको यः स्यात् स्वेचना न परतते । विश्यमतांचः स शिष्यः सिदिभाग्मवेत् ॥ १५ २ वया गर्ग:-अतविचाधिका ये च समापयसाधिकाः । मतेषां क्रियते भक्तिविनयः स कदाइल: म॥ A गुरुवपनमनुसंधनीयमन्यत्राधर्मानुचिताधारात' ऐसा मु. वह क्षि८ मू. प्रतियाम पाठ है, जिसका अर्थ यह है
कि शिष्यको गुरुके वचम उल्लघन नहीं करने चाहिये, परन्तु अधम र नाति-विरुद्ध प्रवृत्ति संबंधी बकि उरूकान करने में कोई दोष नहीं है।
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पुरोहितसमुकेश
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युक्तमयुक्त वा गुस्लेव जानाति यदि न शिष्यः प्रत्यर्थवादीA॥१०॥ गुरुजनरोषेऽनुत्तरदानमभ्युपपत्तिश्चापधम् ॥१९॥ शत्रूणामभिमुखः पुरुषाश्लाघ्यो न पुनगुरूणाम् ॥१२॥ भाराध्य न प्रकोपयेद्यद्यसावाश्रितेषु कल्याणशंसी ॥१३॥ गुरुभिरुक्त नातिक्रमितन्य, यदि नैहिकामुत्रिकफलविलोपः ॥१४॥ सन्दिहानो गुरुमकोपयमापृच्छेत् ॥१५॥ गुरूणां पुरतो न यथेष्टमासितव्यम् ॥१६॥ नानभिवाद्योपाध्यायाविधामाददीस ॥१७|| अध्ययनकाले व्यासङ्ग पारिप्लवमन्यमनस्कतां च न भजेत् ॥१॥ सहाध्यायिषु वुद्ध्यतिशपेन नामिभूयेत ॥१६॥
प्रत्रयातिशयानो न गुरुमवज्ञायेत ॥२०॥ अर्थ-अधर्म, अनुचित-श्राचार-नीति-विरुद्ध प्रवृत्ति और अपने सत्कर्तव्यों में विघ्नकी बाहोंको छोड़कर बाकी सभी स्थानों में शिष्यको गुरुके वचन उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।।६॥ परि शिव गुडसे
. 'प्रत्त्वपापेभ्यो पुक्रमयुक्तं वा गुरुरेष जानाति पदि न शिघ्यः प्रत्वों पादी पा स्याव- इसमकार का पारावर मु.
प . मु. प्रतियों में वर्तमान है, जिसका अर्थ यह है कि जब आज्ञाकारी शिव गुरु से साताबाद. विचार नहीं करता, पापि गुरुजन भयोग्यता प्राविफे कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा आदि में विण-बाधाएं उपस्थित
करते हैं, ऐसे अवसर र शिष्यको उनपर श्रद्धा रखनी चाहिये, न्योंकि गुरुजन ही उस विषयमें योग्य-अयोग्यका . मिरर सकते हैं। . B'मस्याघमारांसतिर इलमकारका पाट सक्त . प्रतिमोंमें है, परन्तु अर्धमेद अन नहीं। Cr पार उक्त मू० प्रतियोंसे संकलन किया गया है। Eमुशि मू० प्रतियोंमें उक्त सूत्रके परमात 'मधुस्ति-जाति-श्रुताभ्यामाधिय समारवं पा सपकारका
अधिक पाठ वर्तमान है, जिसका अर्थ यह है कि यदि शिष्य अपने गुरुको अपेक्षा रक्तस्वकमा, जाति और विद्वत्ता 1. से अधिक मा समान है, तथापि उसे गुरुको नमस्कार किये विना विद्या प्राय नहीं करना चाहिये।
F नाभ्यसूचे' ऐसा पाठ सक्स मा प्रतियों में है, जिसका अर्थ-ईर्ष्या नहीं करनी चाहिने रोष पूर्ववत् । 1Gावयेत्। पेसा पाठ उक्त मू० प्रतियों में है जिसका अर्थ बजिस करना है, शेष पूर्ववत् ।
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नीतिवाक्यामृत
शत्रुता और वाद-विवाद करने वाला नहीं है, तो उसके योग्य-अयोग्य कर्त्तव्यको गुरु ही जानता है ||१०|| गुरुजनोंके कुपित होनेपर शिष्यको जवाब न देना और उनकी सेवा करना उनके क्रोध शान्तिको औषधि है || ११|| शत्रुओं के सामने जानेवाला – उनसे लड़ाई-झगड़ा करने वाला-पुरुष प्रशंसनीय है, किन्तु गुरु. जनों के सामने जानेकाला — उनसे शत्रुषा व वादविवाद करनेवाला शिष्य प्रशंसा के योग्य नहीं-निंग है ||१२|| यदि पूज्य (गुरु आदि) अपने अधीन रहनेवाले शिष्यादिकी कल्याण-कामना करता है, तो उमं कुपित - नाराज नहीं करना चाहिये ||१३|| जो इसलोक व परलोक सम्बन्धी सुखके नष्ट करने की इच्छा नहीं करते उन्हें गुरुजनोंकी कही हुई बात उल्लंघन नहीं करनी चाहिये ||१४|| सन्देह युक्त शिष्य गुरुको कुपित (नारा) न करके नम्रतासे प्रश्न पूछे ||१५|| शिष्यों को गुरुजनोंके सामने अपनी इच्छानुसार (उदतापूर्वक ) नहीं बैठना चाहिये ॥ १६ ॥ गुरुको नमस्कार किये बिना उससे विद्याग्रहण नहीं करना चाहिये ||१७|
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JA ELABORA¶¶¶¶
16.
afg' विद्वान् ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार शूद्र वेदश्रवण नहीं कर सकता, उसीप्रकार गुरुको नमस्कार न करनेवाले उद्दण्ड छात्र को भी विद्या प्राप्त नहीं होसकती || १ || "
शिष्यको विद्याध्ययन करनेके सिवाय दूसरा कार्य, शारीरिक व मानसिक चपलता तथा चित्तप्रवृत्तिको अन्यत्र लेजाना ये कार्य नहीं करने चाहिये ॥ १६८ ॥
atar " विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो शिष्य पठन-कालमें दूसरा कार्य चपलता और चित्तको प्रवृत्तिको अन्यत्र लेजाता है, वह मूर्ख रह जाता है |
बुद्धि छात्र को अपने सहपाठियोंका तिरस्कार नहीं करना चाहिये ||१६||
गुरु' विद्वान् ने भो कहा है कि 'जो छात्र गुरुमे विद्या पढ़ना चाहता है और यदि वह अपने सहपाठियों की अपेक्षा तीच्णबुद्धि है, तथापि उसे उनका पराभव - तिरस्कार नहीं करना चाहिए ||१|া'
शिष्यका कर्तव्य है कि वह गुरुकी अपेक्षा विशेष विद्वान् होनेपर भी उसका तिरस्कार न करे ||२६||
भृगु विद्वान् ने कहा है कि 'जो छात्र अधिक बुद्धिमान होनेपर अपने गुरुको अनादर दृष्टि से देखता है, वह मरकर नरक जाता है और संसार में अपकीर्ति प्राप्त करता है ||१||
1 तथा च वसिष्ठः - नमस्कार बिना शिष्यो यो विद्याग्रहणं क्रियात् । गुरोः सह मोति शूद्रता । २ तथा च गोतमः श्रन्यकार्ये च चापल्यं तथा वैदाम्यतितां । प्रस्तावे पठनस्थान वः करोति जड़ां भवत् ॥ ३ तथा च गुरु: न महाध्यायिनः कुर्यात् पराभवसमन्वितान् । स्वयुद्धरतिशयेनात्र यो विद्यां वा प्रभो ॥ ४श च भृगुः कुद्धयाधिकस्तु यशश्री गुरु पश्येदवशया । स प्रेत्य नरक' याति वाध्यतामिह भूतले ॥१॥
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पुरोहितममुद्देश
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माता-पितासे प्रतिकूल पुत्रको कड़ी आलोचना और पुत्रकर्त्तव्य क्रमशः
स किमभिजातो मातरि यः पुरुषः शूरो वा पितरि ।।२१॥ अननुजाता न क्वचिद ब्रजेत् ॥२२॥
मार्गमचलं जलाशयं च नकोऽवगाहयेत् A ॥२३॥ ____ अच-जो मनुष्य माता-पिताके साथ वैर-विरोध करके अपनी वीरता प्रकट करता है, क्या वर कुलीन कहा जामकता है ? नहीं कहा जासकता । अभिप्राय यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी कलीनता प्रगट करने के लिए माता पिताकी भक्ति करनी चाहिये ॥२॥
मनु' विद्वान ने भी कहा है कि 'सच्चा पुत्र वही है, जो माता-पितासे किसी प्रकारकाप नही फरता, परन्तु जो उनम द्वेष करता है, उसे दूमरेका वीयें समझना चाहिये ॥१॥
पनी माता पिताको माझाके बिना कहीं न जाना चाहिये ॥२२॥
यमिर विद्वान ने भी कहा है कि 'जो पुत्र माता पिताकी आमाके बिना सूक्ष्म कार्य भी करता है, उस कुलोन नहीं समझना चाहिये ।।१।।
पत्रका माता-पिता व माथियोंके विना-अकेला-किसो मार्गमें नहीं जाना चाहिये, व पहाड़. पर नहीं चढ़ना चाहिये और न कुत्रा-बावड़ी आदि जलाशयमें प्रविष्ट होना चाहिये ॥२३॥ . गुर विद्वान ने भी कहा है कि 'माता पितामे रहित-अकेले-पुत्रको वाबदो-कूप-मादि जलाशयम, नश्रा मार्ग और पहाड़में प्रवेश नहीं करना चाहिये ॥१॥ गुरु, गुरु पत्नी, गुरु-पुत्र व महपाठी के प्रति छात्र-कर्तव्य क्रमशः
पितरमिव गुरुभपचरत् ॥२४॥ गुरुपत्नी जननीमिय पश्येत् ।।२५|| गुरुमिव गुरुपुत्रं पश्येत् ॥२६॥ सब्रह्मचारिणि बान्धव इव स्निात।२७॥
'अवगाहेन' इमपुकार का पार मु. व इ. लि. मू. प्रतियों में उपलब्ध है परम्नु अर्ध-भेद कुछ नहीं है। , तथा च मनुः -- न पुत्र: पिनरं वेष्टि मातरं न फर्थचन ! यत्नयापसंयुक्तस्तं विन्यादन्यरेतसं ॥१॥ २ नया प वशिष्टः--पितृमानुपमादेशमगृहोला कति यः । मुसूक्ष्माण्यपि कृयानि म कुलीनो भवेन्न हि ॥३॥ ३ क्या न गुम:-पीकपादिकं पाच मागं वा यदि वायले । नैकोऽवगाहयन् पुत्रः पितृमातृविनिंगः ॥७॥
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नीतिवाक्यामृत
अर्थ - शिष्यको गुरुकी पिताके सदृश सेवा करनी चाहिये ||२४||
भारद्वाज' विद्वान् ने कहा है कि 'जो छात्र गुरुकी पिताके समान भक्ति करता है, वह समस्त विधाएं प्राप्तकर ऐहिक व परलौकिक सुख प्राप्त करता है ||१||
शिष्य गुरु-पत्नीको माताके समान पूज्य समझे ||२५||
यावल्क्य विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो छात्र गुरु-पत्नीको भोग-लालसासे देखता है, वह नरक जाता है और उसे विद्या प्राप्त नहीं होती ||१|| '
छात्र गुरु-पुत्रको गुरुके सदृश पूज्य समझे ||२६||
वादरायण' विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो शिष्य गुरु-पुत्र की गुरु के समान सेवा करता है, उसके लिये गुरु प्रसन्न होकर अपनी समस्त विद्या पढ़ा देता है || १ ||
arrant अपने सहपाठी ब्रह्मचारीसे बन्धुकी तरह स्नेह करना चाहिये ||२७||
विद्वान ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार भाईसे स्वाभाविक प्रेम किया जाता है, उसीप्रकार शिष्य को अपने सहपाठी विद्यार्थीके साथ स्वाभाषिक प्रेम करना चाहिये ||१||
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SAAN TE PE
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शिष्यकर्तव्य (ब्रह्मचर्य व विद्याभ्यास ) व अतिथियोंसे गुप्त रखने योग्य बात क्रमशः-ब्रह्मचर्य भाषोडशाद्वर्षात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म वास्य समविद्य: सहाधीत सर्वदाभ्यस्येत् ||२६|| गृहदौःस्थित्यमागन्तुकानां पुरतो न प्रकाशयेत् ॥ ३० ॥
अर्थ – छात्र सोलह वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य व धारण करें, पश्चात् इसका गो-दानपूर्वक विवाह-संस्कार होना चाहिये ||२८|| ब्रह्मचारी छात्रको सहपाठियोंके साथ पढ़े हुए शास्त्रका सदा अभ्यास करना चाहिये ||२६|| नैतिक मनुष्यको अपनी गृह-विपत्ति ( दरिद्रता आदि ) अतिथियोंके समक्ष प्रकाशित नहीं करनी चाहिये ॥३०॥
१ तथा च भारद्वाजः – योऽन्तेवासी विद्वद् गुरोर्भक्तिं समाचरेत्। स निय प्राप्य निःशेषां खोयमवाप्नुयात् ॥१॥ २ तथा च याज्ञवस्त्रयः---गुरुमाय यः पश्येद्दृष्ट्या पात्र सकामया । स शिष्यो नरकं याति न विद्यामवाप्नुयात्॥ १ ॥ ३ तथा च वादरायणः -- यथा गुरु तथा पुत्रं यः शिष्यः समुपाचरेत् । [दस्य रुष्टो गुरुः कृत्स्नां] निजां वियाँ निवेदयेत् ॥ १॥ तृतीय चरया संशोषित | संपादक-तथा मनुः यथा भ्रातुः प्रकय: [स्नेोऽत्र निनिबन्धनः । । वषा स्नेहः प्रकर्तव्यः शिष्येण मह्मचारिष्यः ॥ द्वितीय चरक संशोधित व परिवर्तित | सम्पादक
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पुरोहितसमुद्देश
प्रविष्ट हुए पुरुषोंकी प्रवृत्ति व महापुरुषका लक्षण क्रमश:परगृहे सर्वोऽपि विक्रमादित्यायते ||३१||
स खलु मद्दान् यः स्वकार्येष्विव परकार्येषूत्सहते * ||३२||
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अर्थ- सभी मनुष्य दूसरोंके गृह में आकर उसका धनादि व्यय करानेके लिये विक्रमादित्य राजाकी बहार होजाते हैं--धनाढ्योंका अनुकरण करने लगते हैं ||२१|| जो अपने कार्य समान दूसरोंके साहपूर्वक करता है, वही महापुरुष हैं ||३२||
मादीमसिंह सूरिने कहा है कि 'परोपकारी सज्जन पुरुष अपनी आपत्तिपर दृष्टि नहीं डालते ॥ ३ ॥ ' दूसरोंके कार्य साधनमें लोकप्रवृत्ति जैसी होती है
परकार्येषु को नाम न शीतलः ॥ ३३ ॥
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--कौन पुरुष दूसरोंके कार्य साधनमें ठंडा - भालसी ( उद्योग-शून्य ) नहीं होता ! सभी २३ ॥
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राज-कर्मचारी- प्रकृति, धनिक कृपणों की गुणगानसे हानि व धनाभिलाषीको संतुष्ट करना क्रमशः - राजासकाः को नाम न साधुः ॥ ३४ ॥
अर्थपरेष्वनुनयः केवल द न्याय ॥ ३५ ॥ को नामार्थार्थी प्रणामेन तुष्यति || ३६ ||
-कौनसा राज-कमचारी राजाके समीप जाकर सज्जन नहीं होता ? सभी होते हैं। द्वारा कि ये लोग दंड-भवसे कृत्रिम सज्जन होते हैं, न कि स्वाभाविक ||३४|| प्रयोजन-घरा धनाढ्य कृपअनुनय (गुण गान-व्यादि) करनेसे केवल दोनता ही प्रगट होती है, न कि अर्थ-लाभादि प्रयोजनहै। कौन घनाभिक्षाषी पुरुष केवल प्रणाम मात्रसे सन्तुष्ट होता है ? कोई नहीं ||३६||
महान् यः स्वकार्येषु उत्सहते इसप्रकार मू० प्रतियोग पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो अपने नमें उत्साह रखता है वही महापुरुष है परन्तु सं०टी० पुस्तकका पाठ उत्तम व हृदयप्रिय है । संपादकहसूरिः – स्वापद न हि पश्यन्ति सन्तः पारावत्पराः ॥३॥ छत्रचूडामणौ
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नीसिवाक्याभूत
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राज-कर्मचारियोंमें समदृष्टि, दरिद्रसे धनग्रहण और असमर्थको प्रयोजन कहना क्रमशः
आश्रितेषु कार्यतो विशेषकारणेऽपि दर्शनप्रियालापनाम्या सर्वत्र समवृत्तिस्तत्र वर्द्धयति अनुरज्जयति च ॥३७॥ तनुधनादर्थग्रहणं मतमारणमिव ॥३८॥
अप्रतिविधातरि कार्यनिवेदनमरण्यरुदितमित्र ॥३६॥ अर्थ-राजाका कर्तव्य है कि वह अपने आश्रित अमात्य-आदि प्रकृतिके साथ अनुरक्त दृष्टि और मधुरभाषा-आदि शिष्ट व्यवहार समान रक्ले। क्योंकि पक्षपात-शून्य समष्टिसे राजतंत्रकी श्रीवृद्धि होती है व समस्त प्रकृति-अमात्य-दि-उससे अनुरक्त रहती है। यदि उसमेंसे किसी कर्मचारी द्वारा उसकी विशेष प्रयोजन-सिद्धि हुई हो, तो उसे एकान्तमें पारितोषिक-प्रदान द्वारा प्रसन्न करे, परन्तु उसका पक्षपात प्रकाशित नहीं होने पावे, अन्यथा अन्य प्रकृति के लोग राजासे द्वष करने लगते हैं ॥३७॥ दरिद्र मनुष्यसे धन लेना मरे हुएको मारनेके समान कष्टदायक है। सारांश यह है कि राजा धनिकासे हो टेक्स घसूल करे, गरीबोंसे नहीं, क्योंकि उन्हें विशेष कष्ट होता है ॥३८॥ जिसप्रकार जंगलमें सदन करना व्यर्थ है, उसीप्रकार प्रयोजन-सिद्धि करनेमें असमर्थ पुरुषके लिये अपना प्रयोजन का ना निरर्थक है ।।३।।
तुलसीदास' कवि ने भी कहा है कि नैतिक पुरुषको दूसरेके गृह जाकर अपना दुःख प्रगट नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे गम्भीरता नष्ट होती है और प्रयोजन भी सिद्ध नहीं होता ॥३॥
इठीको उपदेश, कर्तव्यज्ञानःशुन्यको शिक्षा, विचार-शून्य (मूख) को योग्य बात कहना और नीच . पुरुषका उपकार करना इनकी क्रमशः निष्फलता
दुराग्रहस्य हितोपदेशो बधिरस्याग्रतो गानमिव ४ ॥४०॥ अकार्यज्ञस्य शिक्षणमन्धस्य पुरतो ननमिव+ ॥४१॥ अविचारकस्य युक्तिकथनं तुषकएडनमिव ॥१२॥ नीचेषूपकृतमुदके विशीर्ण लवणमिव ॥४३॥
* 'माश्रितेषु कार्यतो विशेषकर इत्यादि टी० पु. में पाठ है, परन्तु हमने उक्त पाठ मु.क.लि.मू.
प्रतियोंसे संकलन किया है। सम्पादक। तथा च सुखसीदासः कविः-जुन्नसी पर घर नायके दुल न दीजे रोम। भाम गमापे मारमा पात न ये
कोय ॥१॥ संगृहीतx + तक दोनों सूत्र मु०म० प्रतिमें नहीं है, परन्तु अन्य इ. लि. मू० प्रतियोर्मे पर्वमान है। सम्पादक
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पुरोहितसमुद्देश
अर्थ- प्राही पुरुषको हितका उपदेश देना बहरेके सामने गीत गानेके समान निष्फल है ॥४०॥ कर्तव्यज्ञान-शुन्य - मूर्ख पुरुषको शिक्षा देना अन्धेके सामने नाचने के समान व्यर्थ है || ४ || जिस प्रकार भूसेका कूटना निरर्थक है, उसीप्रकार विचार-शून्य - मूर्खको योग्य बात करना व्यर्थ है ॥४२॥
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विद्वानों ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार सर्पको दूध पिज्ञाना विष-वर्द्धक है, उसीप्रकार मूर्खको उपदेश देना दुःखदायक है || १ ||
नीच मनुष्य के साथ किया हुआ उपकार पानीमें फेंके हुए नमककी तरह नम्र होजाता है । सारांश यह है कि नीच मनुष्य प्रत्युपकार करने अल्टी हानि पहुँचाने तत्पर रहता है ||४३||
हरि ने भी कहा है कि जिसप्रकार सांपको पिलाया हुआ दूध विष-वर्धक होता है, उकार नीच मनुष्य के साथ किया हुआ उपकार अपकार - हानिके लिये होता है ॥१॥
मूर्खको समझाने में परिश्रम, परोक्षमें उपकार करना व विना मौकेकी बात कहना इनकी निष्फलता और उपकारको प्रगट करनेसे हानि क्रमशः -
विशेषज्ञ प्रयासः शुष्कनदीवरयमिव ||४४ || परोक्षे किलोपकृत सुप्तसंवाहनमिव ॥ ४५ ॥ काले विज्ञरे कृष्टमिव ||४६ || उपकृत्योद्घाटनं चैरकरणमित्र ॥४७॥
अर्थ- मूर्ख पुरुषको समझाने में परिश्रम करना सूखी नदी में तैरनेके समान निष्फल है ॥१४४॥ जो मनुष्य पीठ पीछे किसीका उपकार करता है, वह सोते हुए के पैर दावने के समान व्यर्थ कष्ट उठावा है। सारांश यह है कि यद्यपि पीठ पीछे उपकार करनेसे भी भलाई होती है परन्तु उसे मालूम नहीं रहता कि किसने मेरा उपकार किया है ! इसलिये वह कभी भी उपकारीका प्रत्युपकार नहीं करता, इसलिये परोचमें पकार करना निरर्थक है ||४५|| विना मौकेको बात कहना ऊपर जमीनमें बीज बोनेके समान निरर्थक है अतः अवसर पर बात कहनी चाहिये ॥१४६॥ जो पुरुष किसीकी भलाई करके उसके सामने प्रगट करता है, वह उससे वैर-विरोध करनेके समान है ॥४७॥
१ उक्तं च- उपदेशो हि मूर्खा केवलं दुःखवदनं
पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम् ||5|| संगृहीत -
२ वया च वादोभसिंह सूरिः उपकारोऽपि मौचानामपकाराय कल्पते । पन्नगेन पयः पीतं विपस्यैव हि वनम् ॥१॥
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नीतियायामृत
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उपकार करनेमें असमर्थ की प्रसमसा-प्रादि निरर्थक कार्य क्रमशः--
अफलवता प्रसादः काशकुसुमस्येव* ॥४॥ गुणदोषावनिश्चित्यानुग्रहनिग्रहविधानं ग्रहाभिनिवेश इव ||६||
उपकारापकारासमर्थस्य नरेशोतकरणमा रविसम्बनने १०॥ अर्थ-उपकार करनेमें असमर्थ पुरुषका प्रसन्न होना फास-पासविशेष-के पुष्प समान निरर्थक है । अर्थात् नदीके तटवर्ती कास (तृणविशेष) में फूल ही होते हैं, फल नहीं होते, अतः जिसप्रकार कासका फूल निष्फल-फसा-रहिव-होता है, उसीप्रकार उपकार करनेमें असमर्थ पुरुषका प्रसार होना निष्फलमर्थ-शाभावि प्रयोजन-रहित होता है।४।।
किसी विद्वान्' ने भी कहा है कि जिस मनुष्यके असन्तुष्ट-नाराज होनेपर किसी प्रकारका मष नहीं है और संतुष्ट होनेपर धन-प्राप्ति नहीं होती व जो उपकार-अपकार नहीं कर सकता, वह नाराज होनेपर भी क्या कर सकता है ? कुछ नहीं कर सकता ॥शा'
नैतिक मनुष्यको किसीके गुण-दोषका निश्चय करके उसका क्रमशः उपकार भनुपकार करना चाहिये । अर्थात् उसे गुणकान्-शिष्ट पुरुषका उपकार और दुष्ट पुरुषका भपकार करना चाहिये, परन्तु जो इससे विपरीत प्रवृत्ति करता है-गुण-दोषका निश्चय किये बिना ही किसीके अनुप्रह-निग्रह (उपकारअपकार) में प्रवृत्त होता है, वह राहु-केतु या भूत-पिशाबके द्वारा म्यात पुरुषके समान कष्ट उठाता है। अर्थात् जिसप्रकार राहु-केतु इन अशुभ ग्रहोंसे या पिशाचादिके आक्रमणसे मनुष्य पीड़ित होता है, उसी प्रकार गुण-दोषकी परीक्षा किये बिना किसीका उपकार-मनुपकार करनेवाला मनुष्य भी अनेक कष्ट भोगता है ॥४|| जो मनुष्य अपकार करने में समर्थ नहीं है, से सन्तुष्ट करनेका प्रयत्न करना और भपकार करने में असमर्थको असंतुष्ट करना अपनी हँसी कराने के सरश है। सारांश यह है कि जिसप्रकार अपनी हँसी कराना अनुचित है, उसीप्रकार उपकार करनेमें असमर्थको सन्तुष्ट करना और अपकार करनेमें मसमर्मको असन्तुष्ट करना मनुचित है, भवः नैतिक व्यक्ति अपने उपकारीको संतुष्ट भौर अपकारीको असंतुष्ट रक्खे, जिसके परिणामस्वरूप वह संतुध से सपकार प्राप्त कर सके और असंतुष्ट से अपनी हानिका बचाव कर सके ||२०||
* 'अफसरतो नृपतेः प्रसादः काशकुसुमस्येव' इसप्रकारका पाठ म० प्रत्रियों में हैं, जिसका अर्थ राज-पचमें संवत्
समझना चाहिये। सम्पादक-- । उक्त' -पस्मिन् रुष्ट भयं नास्ति मुटे नैन धनागमो| अनुमहोनिमदो नास्ति स रुमः किं करिष्यति ॥१॥संग्रही
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पुरोहितसमुदेश
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झूठी पहादुरी बतानेवालोंकी एवं सदार धनकी प्रशंसापूर्वक पण-धनकी क्रमशः कड़ी आलोचना
ग्राम्यस्त्रीविद्रावणकारि गलगर्जिनौं गाम्शूराणाम् ॥५१॥
स विभवो मनुष्याणां यः परोपभोग्यो न तु यः स्वस्यैवोपभोग्यो व्याधिरिव ॥५२॥ अर्थ-जो मनुष्य स्वयं डरपोक हैं किन्तु झूठी शुरता दिग्बाकर ऊपरो भय दिखाते हैं, उनके भयकर चिल्लाने से केवल प्रामीण स्त्रियाँ ही भयभीत होतो हैं, अन्य नागरिक मनुष्य नहीं ॥५१॥ मनुष्योंका वही धन प्रशंसनीय है, जो दूसरों द्वारा भोगा जासके, किन्तु जिसको धनी पुरुष रोग समान स्वयं भोगता है वह पण धन निन्ध है |२||
बलभदेव' विद्वान ने भी कहा है कि 'उस कुपण लक्ष्मीसे क्या नाम है ? जो कि कुलवधू-समान केवल उसीके द्वारा भोगी जाती है और जो सर्वसाधारण वेश्याकी तरह पथिकों द्वारा नहीं भागी जाती ॥१।।' ईर्ष्यालु शुरु, पिता, मित्र तथा स्वामीकी कड़ी आलोचना क्रमशः--
स किं गुरुः पिता सुद्धा थोऽभ्यस्ययाऽभं पहुदोष बहुषु या दोषप्रकाशयति न शिक्षयति च ॥५३॥
स कि प्रसूर्यश्चिरसेवकेप्लेकमध्यपराध न सहते ॥५४॥
अर्थ-पद गुरु, पिता व मित्र निन्छ वा शत्रु सदृश है, जो कि ईर्ष्यावश अपने पदोषी शिष्य, पत्र व मित्रके दोष दूसरों के समय प्रगट करता है और उसे नैतिक शिक्षण नहीं देता ||३||
गौतम विद्वान ने कहा है कि 'गुरुको ईर्ष्यावश अपने शिष्यके दोष बहुत मनुष्यों के समक्ष प्रकाशित नहीं करने चाहिये, किन्तु उसे हितको शिक्षा देनी चाहिये ॥१।।'
वह स्वामी निम्ध है, जो कि अपने पिरकालीन सेवकका एक भी अपराध तमा नहीं करता ॥४॥
शुक्र' विज्ञान ने भी कहा है कि 'स्वामीको सस सेवकका, जो कि भक्त होकर चिरकालसे उसकी सेवा कर रहा है, केवल एक दोष के कारण निग्रह नहीं करना चाहिये ।शा'
इति पुरोहित-समुरश।
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ताबखामदेव:-कितवा क्रिपते समस्या या भूमिव केवला । पान पेरपेन सामान्या पमिकरुपभुज्यते ॥१॥ . तपाच गौतमः-शिवा दधात् स्वविशम्पस्थ हो म प्रकाशयेत् । इण्यांगों भवेयरल प्रभूतस्य जनाम: in
समार-हिरकाबाचरो भृत्यो मतियुक्तः प्रसेवपेत् । न तस्य निग्रहः कार्पो दोपस्पैक्स्प कारणात् ।।१।।
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१२ सेनापति-समुद्दशसेनापतिके गुण-दोष व राज-सेवककी उन्नति क्रमशः
अभिजनाचारप्राज्ञानुरागशौचशौर्य सम्पन्नः प्रभाववान् , बहुबान्धवपरिवारो, निखिलनयोपायप्रयोगनिपुणः समभ्यस्तसमस्तवाहनायुधयुद्धलिपिमापारमपरिक्षानस्थितिः सकलतन्त्रसामन्तामिमतः, साझामिकाभिरामिकाकारशरीसे, भतु - रादेशाभ्युदयहितइत्तिषु निर्विकल्पः स्वामिनात्मवन्मानार्थप्रतिपत्तिः, राजविह सम्भावितः, सर्वक्लेशापाससहछ, इति सेनापतिगृणाः ॥१॥ स्वैः परैश्च प्रधृष्यप्रकृतिरप्रभाववान् स्त्रीजितत्वमौद्धत्य व्यसनिताऽयव्ययप्रवासोपहतत्वं तन्त्राप्रतीकारः सर्वैः सह विरोधः परपरीवादः परुषभाषित्वमनुचितशताऽसंविभागित्वं स्वातन्त्र्यात्मसम्भावनोपहतत्वं स्वामिकार्यव्यसनोपेथः सहकारिकृतकार्यविनाशो राजहितवृत्तिषु चालुत्वमिति सेनापतिदोषाः ॥२॥
स पिरजीवति राजपुरुषो यो नगरनापित इयानुवृधिपःX ॥शा मर्थ-जिसमें निम्नप्रकारके गुण वर्तमान हों, उसे सेनाध्यक्ष पदपर नियुक्त करना चाहिये । कुलीन, प्राचार-व्यवहार सम्पन्न, राज-विपाप्रवीस (विटा), स्वामी व सेवकोंसे अनुरक्त, पवित्रहृदय, पहुपरिवारयुक्त, समस्त नैतिक उपाय (साम-दानादि) के प्रयोग (भग्नि जल-स्तम्भनप्रति) करनेमें कुशल, जिसने समस्त हाथी, गोड़े भादि वाहन, खङ्गादिशस्त्र-संचालन, युद्ध और भिन्न देशबी भाषामोका
* इसके परचार स्वः परेरचामरप्पप्रकृतिः' इतना अधिक पाठातर मू० प्रतियों में है, जिसका अर्थ यह है कि
जिसकी प्रकृति बचानपुरुष---भारमीप-राष्ट्रीय और बाहरके शत्रुओं द्वारा पराजित न कोजासके। x इसके पश्चात् 'सर्गसु प्रकृतिषु' इतना अधिक पाठ मू० प्रतिपोमें है, जिसका मधं पूर्ववत् समझना चाहिये।
सम्पादक
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सेनापतिसमुद्देश
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मान मात्र किया हो, श्रात्मज्ञानी, समस्त सेना व अमात्यप्रभृति प्रधान राज-सेवकोंका प्रेमपात्र, जिसका शरीर योद्धा बोंमे लोहा लेने की शक्ति-सम्पन्न और मनोज्ञ (युद्ध करने में उत्साही) हो, स्वामीकी श्राहा-पालन, युद्ध में विजय प्राप्ति व राष्ट्र के हित-चितवनमें विकल्प रहित, जिसे स्वामीने अपने समान समझकर सन्मानित व धन देकर जनहित किया हो. छत्र चामरादि राज-चिन्होंसे युक्त और समस्त प्रकारके कष्ट व खेदोंकी सहन करनमें समर्थ ये सेनाध्यक्ष गुण है। साश यह है कि उक्त गुण विभूषित बीर पुरुषको मनाध्यक्ष पदपर नियुक्त करनेसे विजिगीषुको विजयलक्ष्मी प्राप्त होती है ।।१।।
शुक्र विद्वान्ने भी कहा है कि 'जो राजा समस्त गुगा-विभूषित सेनाध्यक्षकी नियुक्ति करता है, वह शत्रु-कृत पराभव प्राप्त नहीं करता ॥१॥
जिसकी प्रकृति (प्रधान पुरुष) प्रात्मीय व इसरे शत्र ऑसे पराजित होसके, तेज-शून्य, स्त्रीकृत उपवोमे घश किया जानेवाला (जितेन्द्रियता-शून्य), अभिमानी; व्यसनासक्त, मर्यादासे बाहर धनव्ययी, चिरकाल पर्यन्त परदेशवासी, दरिद्र, सैन्यापराधी, सबके साथ बैर-विरोध करनेवाला, अनुचित बातको जाननेवाला, अपनी आयको अकेला खाने वाला, स्वच्छन्द प्रकृति-युक्त, लामोके कार्य व आपत्तियोंका उपेक्षक, युद्ध-सहायक योद्धाओंका कार्य विघातक और राजहित चिन्तकोंसे ईष्र्यालु ये सेनापतिके दोष हैं। अभिप्राय यह है कि उक्त बोध-युक्त पुरुषको सेनाध्यक्ष बनानेसे राज्य क्षति होती है ।। २ ।।
गुरु विद्वामने कहा है कि जो मन्दबुद्धि राजा सेनापसिके दोष-युक्त पुरुषको सेनापति बनाया है, वह मेनापति प्रचुर सैनिक शक्ति युक्त होनेपर भी विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकता ॥१॥
__ जो राज-सेवक राजकीय प्रधान पुरुषोंकी माईकी तरह विनय करता है, वह चिरकाल तक सुखो रहता है । अर्थात् जिसप्रकार नाई नगरमें प्रविष्ट होकर समस्त मनुष्यों के साथ बिनयका बर्ताव करनेसे जीवन-निर्वाह करता हुआ सुखी रहता है, उसीप्रकार राजकीय पुरुषोंके साथ बिनयशील राजसेवक भी चिरकाल तक सुखी रहता है ॥३॥
शुक्र विद्वामने कहा है कि 'जो राज-सेवक राजकीय प्रकृतिकी सदा बिनय करता है वह राजाका प्रेम. पात्र होकर चिरकाल तक सुखी रहता है ॥१॥
इति सेनापति-समुद्देश।
। तथा च शुक्रः-सर्वगुणः समोपेत सेनामाचं करोति यः । भूमिपानो न चाप्नोति स शव स्मः पराभयं ॥३॥ २ तथा च गुरुः सेनापति स्वदोषाव्यं यः करोति स मन्दधीः । न जयं सभते संल्ये बहुसेनोऽपि सक्दचित् ॥ill ३ तथा घ शुक:- सेवकः प्रहतीनां यो नम्रता पाति सर्वदा । स नन्दति चिरंकालं भूपस्यापि प्रियो भवेत् ॥६॥
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१३ दूत-समुद्देश। दूतका लक्षण, गुण व भेद कमशः
अनासप्वर्थेषु दूतो मंत्री ॥१॥ स्वामिभक्तिरन्यसनिता दात्यं शुचित्वममूर्खता प्रागल्भ्यं प्रतिमानवत्वं पान्तिः परमर्मवेदित्वं जातिश्च प्रथमे दतगुणाः ॥ २ ॥ स विविधो निसृष्टार्थः परिमितार्थः शासनहरश्चेति ॥ ३ ॥
यत्कृतौ स्वामिनः सन्धिविग्रहौ प्रमाणं स निसृष्टार्थः, यथा कृष्णः पाण्डवानाम् ||४|| मर्थ-जो अधिकारी दरदेशवर्ती राजकीय कार्य-सन्धि-षिप्रहादि-का साधक या प्रदर्शक होने के कारण मंत्री समान होता है, उसे 'दूस' कहते हैं ॥१॥
राजपुत्र विद्वान ने कहा है कि 'राजाका अन्य देशसंबन्धी कार्य-सन्धि-विमहादि-दूत द्वारा हो सिद्ध होता है। अतः वह (दूत) मंत्रीतुल्य उसे सिद्ध करता है ॥१॥
___ स्वामी-भक्त, यत-कीकन-मथपानावि व्यसनोंमें अनासक, चतुर, पवित्र (निर्लोभो व निर्मल शरीर वया विशुद्ध वस्त्र-युक्त), विद्वान्, उदार, बुद्धिमाम्, सहिष्णु, शत्रहस्पका भावा और कुलीन थे दूत के मुख्य गुण है ॥२॥
एक विद्वान् ने कहा है कि 'जो राजा चतुर, कुलीन, उदार एवं अभ्य दूतोचित गुणोंसे युक्त दूतको भेजता है, उसका कार्य सिद्ध होता है।॥ १॥
* 'माप्तणय दूतो मंत्री इस प्रकारका पाटावर भू. प्रतियों में पतमाम है, जिसका अर्थ यह है कि जोषिकालो
शीत करने योग्य कार्य-सम्धिषिमहादि-का साधक, या प्रदर्शक होने के कारण मंत्री-उस्म से 'दूत' काते हैं। x इसके स्थानमें 'अमुमूर्षता ऐसा पाठ मू. प्रतियों में पाया जाता है, जिसका अर्थ यह है कि राजदूतको रोगादिक
कारय होनशक्ति नहीं होना चाहिये, शेप मर्थ पूर्ववत् है। । तथा च राजपुत्रः-देशान्तर स्थित कार्य पूतबारेश सिध्यति । तस्माद् दूतो यथा मंत्री तत्वाय हिप्रसाधयेत् ॥1॥ १ तथा च शुक्रः-दएं जास्य गम्भ च, दूतं यः प्रधवेबृपः । अन्यरच स्वगुरौयुक्तं तस्य कृत्य प्रसिद्ध यति ॥ ।।
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दृत्तसमुद्देश
दूध तीन प्रकारके होते हैं । १ निसृष्टार्थ २ परिमितार्थ ३ शासनहर | ३ || जिसके द्वारा निश्चित किये हुए सन्धि-विमको उसका स्वामी प्रमाण मानता है, वह 'निसृष्टार्थ' है, जैसे पांडवोंका कृष्ण उसे भाय यह है कि कृष्णने पांडवों की ओर से जाकर कौरवोंसे विग्रह – युद्ध - निश्चित किया था, प्रमाण मानना पड़ा; श्रतः कृष्ण पाण्डयों के 'निसृष्टार्थ' राज-दून थे। इसीप्रकार राजा द्वारा भेजे र संदेश और शासन - लेख - को जैसेका तैसा शत्र के पास कहने या देनेवालेको क्रमशः 'परिमितार्थ' व ''सांसदहर' जानना चाहिये ॥ ४ ॥
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भृगु' विद्वान् ने कहा है कि 'जिसका निश्चित वाक्य सन्धिविप्रादि-अभिलषित न होने पर भी राजाद्वारा उल्लङ्घन न किया जासके उसे नीतिज्ञोंने निसृष्टार्थ' कहा है ॥ १ ॥ जो, राजाद्वारा कहा, हुआ संदेश - वाक्य- शत्रुके प्रति यधार्थ कहता है, उससे हीनाधिक नहीं कहता, उसे 'परिमितार्थ' जानना चाहिये ॥ २ ॥ एवं जो राजाद्वारा लिखा हुआ लेख यथावत् शत्रुको प्रदान करता है, उसे नीतिज्ञोंने
कहा है ॥ ३ ॥
दूत-कक्ष्य (शत्रु स्थान में प्रवेश व मस्थानके नियम आदि) क्रमश:
विज्ञातो दृतः परस्थानं न प्रविशेनिर्गच्छेद्वा ॥ ५ ॥
मत्स्वामिनाऽसंधातुकामो रिपुर्मा विलम्पयितुमिच्छतीत्यननुज्ञातोऽपि दूतोऽपसरवू गूढपुरुषान्वाऽवसर्पयेत् ॥ ६ ॥
परेणाशु प्रेषितो दूतः कारणां विमृशेत् ॥ ७ ॥
अर्थ-दूत शत्रु द्वारा अज्ञात होकर उसकी आज्ञा के बिना न तो शत्रु स्थानमें प्रविष्ट हो और न स्थान करे | सारांश यह है कि जब दूत शत्रुकी आज्ञा-पूर्वक प्रवेश या प्रस्थान करता है, तब उसे अपने मातका भय नहीं रहता ॥ ५ ॥
गुरु' विद्वान ने कहा है कि 'जो दूत शत्रु की आज्ञा बिना हो उसके स्थान में प्रवेश वा प्रस्थान करता २, पद को प्राप्त होता है ॥ १ ॥ '
कब दूसको यह निश्चय होजाये कि यह शत्रु मेरे स्वामीसे सन्धि नहीं करेगा किन्तु युद्ध करनेका
१ सभा च भृगुः पद्वाक्यं नान्यथाभावि प्रभोर्यद्यप्यमीप्सितम् । निष्पृष्टार्थः स विज्ञ ेयो दूतो नीतिविषयः ॥ १ ॥ म प्रोक्तं प्रभुखा वाक्यं तत् प्रमाय वदेच्च यः । परिमितार्थ इति यो दृतो नान्यं यवीति यः ॥ २ ॥ प्रभुदा जैखितं यच्च यत् परस्य निवेदयेत् । यः शासनहरः सोऽपि दूतो यो नयान्वितैः ॥ ३ ॥
ई. तथा च गुरुः– शत्रु योऽपरिज्ञाती दूतस्तस्स्थानमा त्रियोत् । निर्गच्छेद्वा ततः स्थानात् स वृतां वधमाप्नुयात् ॥ १ ॥
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नीतिवाक्यामृत
--MISSIO
इच्छुक है और इसीकारण मुझे यहाँ रोक रहा है, तब उसे शत्रु की आज्ञाके विना ही वहाँसे प्रस्थान कर देना चाहिये या स्वामी के पास गुप्तदूत भेज देना चाहिये ॥ ६ ॥
हात विद्वान् ने कहा है कि 'चतुर दूत शत्रुको अपने स्वामीसे युद्ध करनेका इच्छुक जानकर शत्रुको आज्ञाके विना ही अपने स्वामी के स्थानपर पहुँच जावे या गुप्त दूत भेज देवे ।। १ ।।'
यदि शत्रुने दूतको देखकर ही वापिस लौटा दिया हो, तो दूत उसका कारण सोचे ॥ ७ ॥
गर्ग विद्वान ने भी कहा है कि 'शत्रु द्वारा शीघ्र वापिस भेजा हुआ दूत उसका कारण जानकर स्वामीका हित करे || १ |
दूतका स्वामी- हितोपयोगी कर्त्तव्य
कृत्योपग्रहाऽकृत्योत्थापनं सुतदायादा वरुद्वोपजापः स्वमण्डलप्रविष्टगूढपुरुषपरिज्ञानमन्तपालादविककोश देशतन्त्रमित्रायवधिः कन्यारत्नवाइन विनिश्रावणं स्वाभीष्टपुरुषप्रयोगात् प्रकृतिक्षोभकरणं दूतकर्म ॥ ८ ॥
मन्त्रिपुरोहित सेनापतिप्रतिबद्धपूजनोपचारविश्रम्भाभ्यां शत्रोरितकर्त्त व्यतामन्तः सारतां च विद्यात् ॥ ६ ॥
स्वयमशक्तः परेणोक्तमनिष्टं सहेत ॥ १० ॥
गुरुष स्वामिषु वा परिवादे नास्ति चान्तिः।। ११ ।।
अर्थ---दूत स्वामी - हितार्थ शत्रु- राजाके यहाँ ठहरकर निम्नप्रकार कर्त्तव्य पालन करे। १ नैतिक उपाय द्वारा शत्रु कार्य- सैनिक संगठन आदि को नष्ट करना, २ राजनैतिक उपाय द्वारा शत्रुका अनर्थ करनाशत्रु-रोबी - कुद्ध, लुम्ब, भीत और अभिमानी - पुरुषोंको सामन्दान द्वारा वशमें करना आदि, ३ शत्रु के पुत्र, कुटुम्बी व जेलखाने में वन्दीभूत मनुष्यों में द्रव्य दानादि द्वारा भेद उत्पन्न करना, ४ शत्रु द्वारा अपने देशमें भेजे हुए गुप्त पुरुषों का ज्ञान, ५ सीमाधिप, आटविक (भिल्लादि), कोश देश, सैम्प और मित्रोंको परीक्षा, ६ शत्रु राजाके यहाँ वर्तमान कन्यारत्न तथा हाथी-घोड़े बाद वाहनोंको निकालनेका प्रयत्न अथवा गुप्तचरों द्वारा स्वामीको बताना, ७ शत्रु - प्रकृति ( मंत्री- सेनाध्यक्ष - श्रादि) में गुमपरों के प्रयोग द्वारा क्षोभ उत्पन्न करना ये दूत के कार्य हैं ॥ ८ ॥
१ तथा च हारीय – सम्धानं परं शत्रु दूधो शाश्य । विश्वचणः । अनुक्तोऽपि गृहं गच्छेत् गुप्तान् वा प्रेषये ॥ १ ॥ २ तथा च गर्गः – शत्रुण। प्रेषितो तो यच्छ्रीम' प्रविचिन्तयेत् । कारणं चैव विज्ञाय कुर्यात् स्वामिहितं ततः ||१|
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दूतसमुद्देश
दूत शत्र के मंत्री, पुरोहित और सेनाध्यक्षके समीपवर्ती पुरुषों को धन-दान द्वारा अपने में विश्वास उत्पन्न कराकर शत्र बदयकी गुम बात-युद्धादि--व उसके कोश-सैन्यके प्रमाणका निश्चय करे ॥६॥
दूत शत्रु के प्रति स्वयं कठोर वचन न कहकर उसके कहे हुए कठोर वचन सहन करे ।। १०॥
शुक विद्वान् ने कहा है कि लक्ष्मी चाहनेवाला दूत शत्र से कर्कश वचन न कहकर उसके कठोर बचन सहे और उत्तर न देखे ॥१॥
जब दूत शत्र-मुखसे अपने गुरु ष स्वामीकी निन्दा सुने तब उसे शान्त नहीं रहकर उसका यथायोग्य प्रवीकार करना चाहिये ।। ११ ।।
जैमिनि विद्वान् ने कहा है कि 'जो पुरुष शत्र से की हुई अपने गुरु व स्वामीकी निन्दा सुनकर कुपित नहीं होता, वह नरक जाता है ॥१॥ निरर्थक विलम्बसे हानि
स्थित्वापि रियासतोऽवस्थान केवलमुपक्ष्यहेतुः ॥ १२ ॥ अर्थ-जो मनुष्य स्थित होकरके भी किसी प्रयोजन-अर्थ-लाभादि-सिद्धि के लिये देशान्तरमें गमन करनेका इच्छुक है, यदि वह किसी कारणवश--आलस्य-आदिके कारण-रुक जाता है या जानेमें विलम्ब कर देता है, तो इससे उसके धन-लाभादि प्रयोजन नष्ट होजाते हैं। अत एव नैतिक ग्यक्तिको गन्तव्य स्थानमें अवश्य जाना चाहिये।
भ्य विद्वानने भी कहा है कि 'नैतिक पुरुष गन्तव्य स्थानमें जानेसे विलम्ब न करे, अन्यथा उसकी धन-क्षति होती है ॥१॥ राजनैतिक-प्रकरण में अभिप्राय यह है कि जो विजिगीषु स्थित होकरके भी शक्ति-संचय-सैनिक-संगठन आदि करके शवपर चढ़ाई करनेके उद्देश्यसे शत्र -देशमें आनेका इच्छुक है, यदि वह वहाँ नहीं जाता या विलम्ब कर देता है, तो उसके धन-जन-प्रादिकी क्षति होजाती है क्योंकि शत्र उसे होनशक्ति समझकर उस पर चढ़ाई कर देता है, जिसके फलस्वरूप उसके धन-जनकी क्षति होती है ।। १२ ।। दूतोंसे सुरक्षा व उसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन
वीरपुरुषपरिचारितः शूरपुरुषान्तरितान् तान् पश्येत् ।। १३ ।। श्रूयते हि किल्ल चाणिक्यस्तीक्ष्णदूतप्रयोगेणेक नन्दं जधान ॥ १४ ॥
1 तथा च शुक्रः-असमर्थेन इतेन शत्रोर्यत् पर गया । तर सन्तान हातम्यमुसरं नियमिच्छता ॥ 1 ॥ २ सभा च जैमिनि-गुरोषो स्वामिमो वापि कृतां निन्दा परेण तु । यः श्रृणोति म कुप्येष स पुमान्नरकं प्रजेत् ॥॥ . ३ तथा च रैम्पः-अवश्यं यदि गन्तव्यं न कुर्याद्विलम्बनम् । गन्तव्यमेव नो पेखि तस्माइनपरिक्षयः ।
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नीतिवाक्यामृत
अर्थ-- विजिगीषुको स्वयं बहादुर सैनिकोंसे घिरा रहकर और शत्रु देशसे आये हुए दूतों को भी वीर सैनिकों के मध्य में रखकर उनसे वार्तालाप आदि करना चाहिये। सारांश यह है कि विजिगीषु कभी भी भरक्षित अवस्था में - पल्टन के पहरे के बिना - शत्रु देशले आये हुए दूतोंसे संभाषण आदि न करे अन्यथा वह उनके खतरे से खाली नहीं रह सकता ॥ १३ ॥
२९=
नारद' विद्वान्ने भी कहा है कि 'चिरकालीन जीवनकी कामना मैनिकोंसे घिरा रहकर शत्रु दूतों को देखे || १ || इतिहास बताता है पूर्वकालीन सम्राट् चन्द्रगुप्तका मंत्री) ने तीरणदूत - विषकन्या के
मार डाला था ।। १४ ।
14.000000
करनेवाला विजिगीषु बहुत से बोर कि श्रार्य चाणक्य ( ई० से ३३० वर्ष प्रयोगद्वारा अरक्षित नन्द राजाको
शत्रु-प्रेषित लेख उपहारके विषय में राज कर्तव्य व दृष्टान्त द्वारा स्पष्टोकरण क्रमशःशत्रु प्रहितं शासनमुपायनं च स्वैरपरीक्षितं नोपाददीत ॥ १५ ॥ श्रूयते हि किल स्पर्शविषवासिताद्भुतवस्त्रोपायनेन करहाटपतिः कैटभो
वसुनामानं राजानं जघान ॥ १६ ॥
श्राशीविषविषधरोपेतरत्नकरण्डकप्राभृतेन च करवालः करालं जघानेति ॥ १७ ॥
अर्थ - विजिगीषु राजा शत्रु द्वारा भेजे हुए लेख व उपहार आत्मीयजनों - प्रामाणिक राजवैद्यआदि-से विना परीक्षा किये हुए स्वीकार न करे ।। १५ ।।
शुक विद्वान्ने कहा है कि 'राजा को शत्रु प्रेषित पत्र व उपहार जब तक वैद्यादि प्राप्त - मासिकपुरुषों द्वारा परीक्षित न किये जायें तब तक ग्रहण नहीं करना चाहिये || १ ॥*
नोतिविद्या-विशारदों की परम्परासे सुना जाता है कि करहाट देशके राजा कैटभने वसुनामके प्रतिद्वन्दी राजाको दूतद्वारा भेजे हुए व फैलनेवाले विपसे वासित (वासना दिये गये - बार२ भिगोये हुए) बहुमूल्य वस्त्रोंके उपहार भेंट द्वारा मार डाला । सारांश यह है कि बसुराजाने विष-दूषित उन बहुमूल्य water पुरुषों द्वारा परीक्षित किये बिना ज्यों हो धारण किया, त्यों ही वह तत्काल काल-कवलिव होगया । अतः शत्रु-कृत खतरे से सुरक्षित रहने के लिये विजिगीपुको शत्रु प्रेषित उपहार श्राप्तपुरुषों द्वारा परीक्षित होनेपर ही प्रण करना चाहिये ।। १६ ।। इसी प्रकार करवाल नामके राजाने कराल नामके शत्रु राजाको दृष्टिविषयाने सर्प से व्याप्त रत्नोंके पिटारे की भेंट भेजकर मारडाला । सारांश यह है कि क्यों ही कराल राजाने शत्रु प्रेषित जल रत्न- पिटोरेको खोला त्योंही वह उसमें वर्तमान विसर्प के
१ तथा च नारदः परकृतान् नृपः पश्येद् वीरें बहुभिरावृत्तः । शूरैरन्तर्गत सोच चिरं जीवितुमिच्छ्या ॥ ५ ॥
२ तथा शुक्रः यावत् परीक्षितं न स्वलिखितं प्रानृतं तथा । शनोरभ्यागचं राज्ञा ताबा न तद्भवेत् ॥ १ ॥
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पुरोहितसमुद्देश
विषसे वस्कान दोनद्रा (मृत्यु) को प्राप्त होगया; अतः राजाको शत्रु प्रेषित उपहार श्रम-परीक्षित हुए स्वीकार करना चाहिये ॥ १७ ॥
दूतके प्रति राज कर्त्तव्य - उसका बध न करना, दूत-लक्षण व दूतवचन -श्रवण क्रमशः -
महत्यपराधेऽपि न दूतमुपहन्यात् ॥ १६ ॥
A
उद्धृतेष्वपि शस्त्रे दृतमुखा वै राजानः B ॥ १६ ॥
तेषामन्तावसायिनोऽप्यवध्याः ॥ २० ॥
कि पुनर्ब्राह्मणः ।। २१ ।।
Marrभावो 'दूतः सर्वमेव जन्पति ॥ २२ ॥
कः सुधीर्दृतवचनात् परोत्कर्षं स्वापकर्षं च मन्येतः C || २३ |
अर्थ-राजाका कर्तव्य है कि वह दूत द्वारा महान् अपराध किये जानेपर भी उसका बंध न करे १८
शुक विद्वान्ने कहा है कि 'राजा यदि अपनी भलाई चाहता है तो उसे दूतद्वारा गुरुतर अपराध जानेपर भी उसका उस समय बध नहीं करना चाहिये ॥ १ ॥
INTER
पीर सैनिकद्वारा शस्त्र संचालित किये जानेपर भी - घोर युद्ध आरम्भ होनेपर भी राजा लोग न होते हैं---दूरा-वचनों द्वारा ही अपनी कार्य सिद्धि (सन्धिविग्रहादिसे विजयलक्ष्मी प्राप्त करना) है। अभिश्राप यह है कि युद्धके पश्चात् भी दूतोंका उपयोग होता है; अतः दूत वध करनेक प्राग्य है ॥ १३ ॥
कारे दूतमपि हन्येत' इस प्रकारका पाठान्तर भुद्र व हु० बि०सू० दूध द्वारा गुरुवर अपराध या अपकार किये जानेपर राजाको उसका बध कर
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२०६
ofare का है कि 'महाभयङ्कर युद्ध श्रारम्भ होनेपर भी दूत राजाओंके समक्ष सन्धि-आदि निभिन्न विचरते रहते हैं; अत एव राजाको उनका बध नहीं कराना चाहिये ॥ १ ॥
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का 'ते' पद मू० प्रतियोंसे संकक्षित किया गया है, सं० टी०पु० में 'उद्धतेषु' ऐसा पाठ हैं,
-
नहीं।
'का सुचीमुखात श्वानात्' इत्यादि पाठान्तर मृ० प्रतियों में वर्तमान है, परन्तु अभिप्राय में कोई भेद नहीं |
सम्पादक --
- दूतं पार्थियो हन्यादपराधे गीषसि । कृतेऽपि तत्क्षणाचस्य यदीच्छेषु भूतिमात्मनः ॥ १ ॥
प्रतियों में है, जिसका अर्थ यह है कि देना चाहिये ।
गुरुः सिमामकालेऽपि वर्तमाने सुदारुये। सर्पन्ति संमुखा दूता [वधं तेषां न कारयेत् ] ॥
5 ॥ [सं०
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२०
नीतिवाक्यामृत
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यदि दूतोंके मध्यमेसे पाण्डाल भी दूत बनकर आये हों, तो ये भी पध करनेके अयोग्य है उसवर्णवाले साह्मण दुतोका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् वे तो सर्वथा बध करने अयोग्य होते हैं २०-२१
शुक्र विद्वान ने भी कहा है कि 'बूतोंमें यदि चाण्डाल भी हो तो राजाको अपनी कार्य सिद्धिके लिये जनका अध नहीं करना चाहिये ॥१॥
दूत राजा द्वारा बध करनेके अयोग्य होता है, इसलिये वह उसके समक्ष सभी प्रकारके-सत्य, असत्य, प्रिय व अप्रिय-वचन बोलता है; अतः राजाको उसके कठोर वचन सहन करना चाहिये ।।२२।।
कौन थुद्धिमान् राजा दूतके पचन सुनकर शत्रकी उन्नति और अपनी अवनति मानता है ? कोई नहीं मानता । अभिप्राय यह है कि राजाको दूत द्वारा प्रगट हुई शत्र-वृद्धि प्रामाणिक-सत्य-नहीं माननी चाहिये ॥२३॥
वसिष्ठ विद्वान्ने भी कहा कि 'बुद्धिमान् राजाको ईर्ष्या छोड़कर दुद द्वारा कहे हुए प्रिय और अप्रिय सभी प्रकारके वचन सुनने चाहिये ॥१॥ - दूतके प्रति शत्रु रहस्यज्ञानार्थ राज-कर्तव्य व शत्रु लेख--
स्वयं रहस्यज्ञानार्थ परदूतो नयायः स्त्रीभिरुभयवेतनस्तद्गुणाचारशीलानुवृत्तिभिर्वा धंचनीयः ॥ २४॥
चत्वारि वेष्टनानि खङ्गमुद्रा च प्रतिपक्षलेखानाम् ॥ २५ ।। अर्थ-राजाका कर्तव्य है कि वह शत्र राजाका गुप्त रहस्य-सैन्यशक्ति प्रादि जाननेके लिये उसके दूतको नीतिम वेश्यामों, दोनों तरफसे वेतन पानेवाले दूतों तथा दूतके गुण, आचार व स्वभाषसे परिचित रहनेवाले दूत-मित्रों द्वारा वशमें करे ॥ २५॥
शुक"विद्वान्ने कहा है कि 'राजाको शत्र-दूतका रहस्य जिसके द्वारा शत्र उन्नतिशील होरहा है, जानने के लिये वेश्याओं, दोनों तरफ वेतन पानेवाले तथा दूत-प्रकृतिसे परिचित व्यक्तियों द्वारा प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥ १॥
विजिगीषको शव राजाके पास भेजे हुए लेखों-पत्रादि में चार बेष्टन व उनके ऊपर खगको मुद्रा (मुहुर लगा देनी चाहिये, जिससे वे मार्गमें न खुलने पावें || २४ ।।
इति दूतममुद्देश। -- .---.- • -- ----- ---- - . . तमा च शुक्रः- मन्तावसायिनो वेऽपि दुताना प्रभवम्ति च । प्रवश्यास्तेऽपि भूतानां स्वकार्यपरिसिरये ॥ ॥ २ तात्र पस्तिथ:-श्रोतम्यामि महीपेन वृतवाक्या यशेषतः । विजेनेा परित्यज्य सुशभान्यगुमान्यपि ॥ ॥ ३ तथा चएक:-तस्य यदहस्यं च तद्वेश्योभयवेतनः। तमस्ट्रीलंवा परिशे बेन शत्रः प्रसिदश्यति ॥1॥
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१४ चारसमुद्देश। - गुप्तचरोंका लक्षण, गुण, वेतन व उसका फल क्रमश:--
स्वपरमण्डलकार्याकार्यावलोकने चाराः खलु चक्ष षि क्षितिपतीनाम् ॥ १॥ अलौन्यममान्दः सुराजापियामागका चारसुशाः ॥ २ ॥ तुष्टिदानमेव चाराणां वेतनम् ॥ ३॥
ते हि तल्लोभान् स्वामिकार्येषु स्वरन्ते ॥ ४ ॥ अर्थ-गुप्तचर स्वदेश-परदेशसंबंधी कार्य-अकार्यका ज्ञान करनेके लिये राजाओंके नेत्र है। भभिप्राय ा है कि राजा लोग गूढ़पुरुषों द्वारा ही अपने व दूसरे देश संबन्धी राजकीय वृत्तान्त जानते हैं, स नहीं ॥१॥ - गुरु विद्वान्ने कहा है कि राजा लोग दूरदेशवर्ती होकरके भी स्वदेश-परदेश संबंधी कार्य-अकार्य गुप्तचरों मारा जानते हैं ।। १॥ - संतोष, अस्तिस्यका न होना-उत्माह अथवा निरोगता, सत्यभाषण और विचार-शक्ति ये गुप्ता घरोंके गुण है ॥२॥ . भारि विद्वान्ने कहा है कि जिन राजाओंके गुप्तचर आलस्य-रहित-उत्साही, संतोषी, सत्यवादी जो सणाशक्ति-युक्त होते हैं, वे (गुप्तचर) अवश्य राजकीय कार्य सिद्ध करनेवाले होते हैं ॥१॥' i, कार्यसिसि होजानेपर राजाद्वारा जो संतुष्ट होकर प्रचुर धन दिया जाता है, वही गुप्तचरोंका वेतन
योकि उस धनप्राप्तिके लोमसे वे लोग अपना स्वामीकी कार्य-सिद्धि शीघ्रतासे करते हैं ।। ३-४॥ .: गौतम विज्ञानने भी कहा है कि 'जो गलचर राजासे संतुष्ट होकर दिया हुमा प्रचुर धन प्राप्त करते हैं, वे उत्कंठित होकर राजकीय कार्य शीघ्र सिद्ध करते हैं ॥१॥
मातुरः-स्वमपरके परे चैव कार्याकार्य पद्रदेव । परैः पश्यन्ति यद्भपा सदरमपि संस्थिताः ॥१॥ ही याच भागति:-प्रकाशस्यमतौल्यं च सत्यवादिस्यमेव च । जहकरवं भवेयेषां ते घराः कार्यसाधकाः ॥ 1 ॥
। गोत्रमः-स्वामिनुष्टि प्रदानं ये प्राप्नुवन्ति समुत्सुकाः। ते तत्काए सर्वाणि चराः सिदि नयन्ति
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२३२
नीतियाक्यामृत
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गुपचरके वचनोंपर विश्वास, गुप्तचर-रहितकी हानि व उसका दृष्टांत द्वारा समर्थन क्रमशः
असति संकेते त्रयाणामेकवाक्ये संप्रत्ययः +॥२॥ अनयसो हि राजा म्यै परे चालिसन्धीयने !!६!!
किमस्त्ययामिकस्य निशि कुशलम् ॥७॥ अर्थ-यदि राजाको गुप्तचर द्वारा कही हुई बातोंमें भ्रम या सन्देह उत्पन्न होजाये, तो तीन गुप्तचरों की कही हुई एकसी बात मिलनेपर उसे प्रमाण माननी चाहिये ।।५।।
__ भागुरि विद्वान ने कहा है कि 'जब गुमचरों के बाक्य निश्चित (विश्वासके योग्य) न हों, तब राजाको तीन गुप्तचरोंकी कही हुई एकसी बात सत्य मान लेनी चाहिए ॥१॥'
निश्चयसे जिस राजाके यहां गुप्तचर नहीं होते वह स्वदेश और परदेश सम्बन्धी शत्रओं द्वारा आक्रमण किया जाता है, अतः बिजीगोषको स्वदेश-परदेशमें गुप्तचर भेजना चाहिये ।।६।।
चारायण विद्वान् ने भी कहा है कि 'राजाओंको वैद्य, ज्योतिषी, विद्वान्, स्त्री, संपेरा और शराबी आदि विविध गुप्तचरों द्वारा अपनी तथा शत्रु ओंकी सैन्यक्ति जाननी चाहिये ।।१।।
क्या द्वारपालके विना धनाढ्य पुरुषका रात्रिमें कल्याण होसकता है ? नहीं होसकता। उसीप्रकार गुप्तचरोंके बिना राजाओंका कल्याण नहीं होसकता ॥७॥
वर्ग, विद्वान् ने कहा है कि जिस प्रकार रात्रिों द्वारपाल के बिना धनाढ्यका कल्याण नहीं होता, उसीप्रकार चतुर गुप्तचरोंके बिना राजाका भी कल्याण नहीं होसकता ।।१।।
----- ---. .... ... .....-.---... ....-----... - --..--.. ... .... --- + असति संकेते नयाणामेकवाश्ये युगपत् सम्प्रत्ययः' इसमकार मूल प्रतियोंमें पाटान्तर है, किन्तु अर्थ-भेद नहीं।
नोट-उक्त सूत्रका यह अभिप्राय भी है कि जब राजा परिचित स्थानमें संकेत-शक्तिग्रह करके गुप्तचर मेले, तो उसकी कही हुई यात प्रमाण मान लेनी चाहिये परन्तु जहां विना संकेत किये ही भेजे, ऐसे अवसर पर पारितो. पिक-सोमसे गुप्तचर मिथ्याभाषण भी कर सकता है, इसलिये यहां तीनोंकी एकसी बात मिनेपर उसपर
विश्वास करना चाहिये। सम्पावक, तथा च भागुरि:-प्रसंफेतेन धाराणां यया वाक्यं प्रतिष्ठितम् । अपामापि तत्सत्यं विशेष पृथिवीभुजा ॥१॥ र तथा छ धारायणः-वैद्यसंवरसराचार्यश्चारे शये निज धनम् | वामाहिएडकोन्मतः परेषामपि भूभुजाम् ॥१॥ ३ तथा व वर्गः- या प्राहरिकार रानी में न जायते । चारैर्विमा म भूपस्य तथा शेयं विचरणः ॥ ॥
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चारसमुरेश
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गुप्तचरोंके भेद और उनके अक्षण
छात्रणकापटिकोदास्थित-गृहपति-वैदेहिक-तापस-किरात X यमपट्टिकाहितुण्डिक. शौगिडक-शौमिक पाठच्चर-विट-विदूषक-पीठमई-नर्तक--गायन-वादक-वाग्जीबन-गणक शाकुनिक-भिषगन्द्रजालिक--नैमित्तिक-सदारालिक-संवादक-ती +कर-जड़-मूक-बधिरान्धछमावस्थायियायिभेदेनावसर्पवर्गः ॥८॥ परमर्मज्ञः प्रगन्भश्चात्रः ॥ यं कमपि समयमस्थाय प्रतिपमछात्रवेषकः कापाटिकः ॥१०॥ प्रभूतान्तेवासी प्रशातिशययुक्तो राज्ञा परिकल्पितविरुदास्थितः ॥११॥ गृहपतिवैदेहिको ग्रामकूटप्रेष्ठिनौ ॥१२॥ वाझव्रतविद्याभ्यां लोकदम्महेतुस्तापसः ॥१३॥ अम्पाखिलशरीरावयवः किरोतः ॥१४॥ यमरद्विको गलनोटिकः प्रतिगृहं चित्रपटदी वा ॥१॥ अहितुण्डिकः सर्पक्रीडाप्रसरः ॥१६॥ शौण्डिकः कन्यपालः ॥१७॥ शौमिका पायां पटावरणेन रूपदी ॥१८॥ पाटचरश्चौरो मन्दीकारो वा ॥१६॥ ध्यसनिनां प्रेषणानुजीयो विटः । २०॥ सर्वेषां प्रहसनपात्र विदूषकः ॥२१॥ कामशास्त्राचार्यः पीठम ॥२२॥
मा प्रतियों में 'पद नहीं है। x इसके पश्चात् 'भू० प्रतियोंमें माडियाक्षिक पद है, जिसका मध-पूत-कीका निपुण गुप्तचर है। + इसके पश्चात् मू० प्रतियों में 'रसद पाठ है जिसका अर्थ-पावसी गुतवर है।
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२३४
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नीतिवाक्यामृत
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गीताङ्गपटप्रावरणेन नृत्यवृन्याजीची नर्तको नाटकाभिनयरञ्जनको वा ||२३||
रूपाजीवावृत्युपदेष्टा गायकः ||२४||
गीतप्रबन्धगतिविशेषवादकचतुर्विधातोद्यप्रचारकुशलो वादकः ||२५||
वाग्जीवी वैतालिकः सूती बा ||२६|| गणकः संख्याविवोचा ||२७|| शाकुनिकः शकुनवक्ता ॥२८॥
भिषायुर्वेदविद्वैद्यः शस्त्रकर्मविच्च ||२६||
ऐन्द्रजालिकतन्त्रयुक्त्या मनोविस्मयकरो मायावी वा ॥ ३०॥
नैमित्तिका लक्ष्यवेधी दैवज्ञो वा ||३१||
महासाहसिकः सूदः || ३२॥
विचित्रभच्यप्रणेता आरालिकः ॥ ३३ ॥ श्रङ्गमर्दनकलाकुशलो मारवाहको वा
संवाहकः || ३४ ॥
दुव्यहेतोः कृच्छेण कर्मणा यो जीवित विक्रयी स तीक्ष्णोऽसनो वा ||३५||
बन्धुस्नेहरहिताः क्रूराः || ३६ ||अलसाश्च रसदाः | ३७ ॥
जड़ मूक-बधिरान्धाः प्रसिद्धाः ॥ ३८ ॥
अर्ध-गुरों (खुफिया पुलिस ) के निम्नप्रकार ३४ भेद हैं, उनमें कुछ अवस्थायी (जिन्हें राजा अपने ही देश में मंत्री व पुरोहित आदि की जाँच के लिये नियुक्त करता है) और कुछ यात्री (जिन्हें शत्रु - राजाके देश में भेजा जाना है) होते हैं। छात्र, कापटिक, उदास्थित, गृहपति, वैदेहिक, तापस, किरात, यमपकि, अहितुण्डिक, शौरिडक, शौभिक, पाटम्बर, विट, विदूषक, पीठमई, नर्तक, गायन, वादक, बारजोवन, गक, शाकुनिक, भिपग, ऐन्द्रजालिक, नैमित्तिक, सूद, आरालिक, संवादक, शोषण, क्रूक, रसद, जड़, मूक, बधिर, और अन्य ॥ ८ ॥
दूसरोंके गुप्त रहस्यका ज्ञाता व प्रतिभाशाली गुप्तचरको 'छात्र' कहते हैं ॥ ६ ॥ किसी भी शास्त्रको पढ़कर छात्र वेशमें रहनेवाले गुप्तचरको 'कापटिक' कहते हैं ॥ १० ॥ तभी शिष्य मण्डली सहित, तीक्ष्ण बुद्धि-युक्त (विद्वान) और जिसकी जीविका राजा द्वारा निश्चित
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चारममुरेश
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गुप्रपरको वदास्थित' कहते हैं ॥ १२ ॥ कृषक-वेशमें रहनेवाला 'गृहपति' और मैठक
गावर 'वैदेहिक' कहा जाता है ।। १२ ॥ कपट-युक्त (अमावी)त्रत विद्या द्वारा उगनेवाले वेशधारी गुपचरको तापस' कहा है ॥१३ ।। जिसके समस्त शरीरके अङ्गोपाङ्ग (हस्तमें छोटे हों, उस (बोने) गुप्रचरको 'किरात' कहते हैं ॥ १४ ॥ प्रत्येक गृह में जाकर चित्रपट
कई तस्वीर दिखानेवाला अथवा गला फाड़कर चिल्लाने वाला (कोटपाल-बेरी) गुपचर 'यम..... || सर्प-कोड़ामें चतुर-सपेरेके वेषमें वर्तमान-गुपचर 'अहिंतुण्डिक' कहा गया है
मेयनेवाले के वेषमें वर्तमान गुप्तचरको 'शौगिक' कहा है ।। १७ || जो गुप्रचर रात्रिमें ना. पर्दा लगाकर नाटकका पात्र बनकर अनेक रूप प्रदर्शन करता है, उसे 'शोभिक' कहते हैं ।। १ ।।
दीके वेषमें वर्तमान गुमश्चरको 'पाटकचर' कहते हैं ।। १६ ।। जो गुपचर व्यभिचार-आदि : कति करनेवाले व्यभिचारियों आदि को वेश्या प्रादिके यहां भेजकर अपनी जीविका करता
प्रयोजनमति करता है उसे 'विट' कहते हैं।। २० ।। सभी दर्शकों या श्रीनालों को हंसानेको मोबसवर 'विदूषक' है ।। २१ ।। कामशास्त्र(वात्स्यायनकामसूत्र प्रादि )के विद्वान गतचरको गावे ।। २२ ।। जो गुप्तचर कमनीय व स्त्रीवेष-प्रदर्शक वस्त्र-मादी-जम्फर-आदि पहनकर
विका करता हो अथवा नाटककी रङ्गभूमिमें सुन्दर देष-भूषासे अलष्कृत होकर भावप्रदर्शन रनेवाला हो उसे 'नर्तक' कहते हैं ।। २३ । जो वेश्याओंकी जीविका--पुरुष-वशीकरण द्वारा सनव संगीतकला-प्राविका उपदेश देनेदाला हो,उमे 'गायक' कहते हैं।।२४।गीत संबंधी प्रबन्धोंकी
को मानेमामा और चारों प्रकारके-तत, अवनद्ध, धन ध सुधिर (मृता-आदि) बाग बजानेसमय गुप्तपरको 'पादक' कहते हैं ॥ २५ ॥ओ स्तुति पाठक या बन्दी बनकर राजकीय प्रयोजन, इसे 'चारजीवी कहते हैं ॥२६॥ गणित शास्त्रका घेत्ता अथवा ज्योतिष विणाके विद्वान
ते हैं ॥ २७ ॥ शुभ-अशुभ लक्षणों से शुभाशुभ फल बतानेवाले को 'शानिक' कहते महापायुर्वेदका ज्ञावा व शस्वचिकित्सा-प्रवीण गुप्तचरको भिषक्' कहते हैं ॥२॥ मास्त्र में कही हुई युक्तियों द्वारा मनको ग्राश्चर्य उत्पन्न करनेवाला हो अथवा मायाचारी हो उसे कहते हैं।। ३० ॥ निशाना मारनेमें प्रवीण-धनुर्धारी अथवा निमित्तशास्त्र के विद्वान् गुमचर
हते है।। ३१ ॥ पाक-विद्या प्रवीण गुप्तचरको 'सूद' कहते है ॥३२॥ नाना प्रकारकी भोग्य
जा गुपपरको 'भारानिक' कहते हैं ।। ३३ ॥ हाय-पैर भादि प्रमोंके दापनेकी कलामें निपुकार मेवाने (कुलीके भेषमें रहनेयाने)गुप्रचारको 'संवाहक' कहते हैं । ३४ ॥ जो गुमचर धन-लोभ... ठिन कायोंसे अपनी जीविका करते हैं, यहां तक कि कभी २ अपने जीवन को भी खतरे में डा.
सा-ये लोग धन-लोभसे कभी हाथी और शेरका भी मुकाबला करने में तत्पर हा. पनी जानतक का खतरा नहीं रहता ऐसे वधा सहनशीजता न रखनवाले गुमचरों को
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नीतिवाक्यामृत
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नाक्षण' कहा गया है ॥ ३५ ॥ जो गुप्तचर अपने बंधुजनोंसे प्रेम नहीं करता, उसे 'कर' कहते है ॥ ३६ ।।
स पालन में साह रखनेवाले पालेसी गुमचरीको 'रसद' कहते हैं । ३७ ।। मूर्खको 'जद' गूगेको क' बहिरेको 'यधिर' और अंधेको 'अंध' कहते हैं परन्तु ये स्वभावसे मूर्ख, गूगे बहरे और मन्धे नहीं होते, किन्नु कपटसे अपनी प्रयोजन-मिद्धिके लिये होते हैं ।। ३८॥ ___शुक्र'विद्वानने भी कहा है कि जिस राजाके यहां स्वदेशमें 'स्थायी' और शत्र देशमें 'यायो' गुप्तचर मते रहते हैं, उसके राभ्यकी वृद्धि होती है ॥ १॥
प्रति चारसमुरेश
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१५-विचार समुदेश विचार पूर्वक कर्तव्य-प्रवृत्ति, विधार-प्रत्यक्षका लक्षण व ज्ञानमात्रसे प्रवृत्ति- निवृत्ति क्रमशः
नाविचार्य कार्य किमपि कुर्यात् ॥ १ ॥ प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथावस्थितवस्तुव्यवस्थापनहेतुविचारः ॥ २ ॥ स्वयं दृष्टं प्रत्यक्षम् ॥ ३ ॥ न ज्ञानमात्रत्वात् प्रेक्षावतां प्रवृत्तिनिवृत्तिनी ॥ ४ ।।
स्वयं दृष्टेऽपि मतिर्वि मुखति संशेते विपर्यस्यति वा किं पुनर्न परोपदिष्टे वस्तुनि ॥५॥ अर्थ-नैतिक पुरुप विना विचार-विना मोचे-समझे (प्रत्यक्ष, प्रामाणिक पुरुषों के वचन युक्ति द्वारा निर्णय किये विना) कोई भी कार्य न करे ॥१॥
जैमिनि विद्वान्ने कहा है कि 'प्रजा द्वारा प्रतिष्ठा चाहनेवाला राजा सूक्ष्म कार्य भी विना विचारे न करे ॥ १॥
___ सत्प-यथार्थ (जैसीकी देसी) वस्तु की प्रतिष्ठा (निर्णय) प्रत्यक्ष, अनुमान व भागम इन तीन प्रमाणों से होती है, न कि केवल एक प्रमाणसे । इसलिये उक्त प्रत्यज्ञादि सीनों प्रमाण द्वारा जो सस्य वस्तुकी प्रतिष्ठाका कारण है उसे 'विचार' कहते हैं ।शा
, तथा च शुक्र-स्थायिनो यायिनरचारा यस्य सर्पम्ति भूपतेः । स्वपो परपरे वा सस्य राज्य विपद्धते ।। १ ॥ २ तथा च जैमिनिः-- अपि स्वस्पतरं काय मारिचाय ममारेत् । मदीपईन् सबोकस्य रासो राग विशेषतः ॥५॥
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विचारसमुश मार्ग ...........................................................................................
: शुक विद्वान्ने भो कहा है कि 'प्रत्यक्षदर्शी, दार्शनिक व प्रामाणिक पुरुषों द्वारा किया हुमा विचार
ति-सत्य व मान्य होता है, अतः प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम प्रमाण द्वारा किये हुए निर्णयको यथार्थ SATE' कहते हैं ॥ १॥
. गढ-मादि इन्द्रियों द्वाग स्वयं देखने व जाननेको 'प्रत्यज्ञ' कहा है ॥ ३ ।। बुद्धिमान विचारक असतो दिवकारक पदार्थोंमें प्रवृत्ति और अहितकारक पदार्थोसे निवृत्ति सिर्फ ज्ञानमात्रसे नहीं करनी चाहिये । उदाहरण में जैसे किसी मनुष्यने मृगतृष्णा-सर्य-रश्मियोंसे ज्यात रालुका-पुञ्जमें जल मान लिया मात् से उस भ्रान्त विषारको दूर करने के लिये अनुमान प्रमाणसे यथार्थ निर्णय करना चाहिये कि महत्यलमें प्रीष्म ऋतुमें जन होसकता है ? नहीं होसकता । पश्चात् उसे किसी विश्वासी पुरुषसे मा चाहिये कि क्या वहां जल है ? पश्चात् उसके मनाई करनेपर वहांसे निवृत्त होना चाहिये । सारांश
कि विचारक व्यक्ति सिर्फ शान मात्रसे किसी भी पदार्थमें प्रवृत्ति या निवृत्ति न करे ॥४॥ ... गुरु विद्वान्ने भी कहा है कि 'बुद्धिमान पुरुषको सिर्फ देखनेमात्रसे किसी पदार्थमें प्रवृत्ति या उसमे निधि नहीं करनी चाहिये, जब वक कि उसने अनुमान और विश्वासी शिष्ट पुरुषों द्वारा वस्तुका यथार्थ निव न कर लिया हो ॥१॥ ३ पोंकि अब स्वयं प्रत्यक्ष किये हुए पदार्थमें बुद्धिको मोह-अहान, संशय और भ्रम होता है, तब . दूसरों के द्वारा कहे हुए पदार्थमें अज्ञान आदि नहीं होने ? अवश्य होते हैं॥५॥
गुरु विद्वान्ने भी सक्त बासको पुष्टि की है कि क्योंकि स्वयं देखी और सुनी हुई वस्तुमें मोह-अज्ञान सराप होजाता है, इसलिये सिर्फ एक हो बुद्धिसे पदार्थका निश्चय नहीं करना चाहिये ।।१।। विचारश-लक्षण, विना विचारे कार्य करनेसे हानि व राज्य-प्राप्ति के चिन्ह क्रमश:
स खलु विचारझो या प्रत्यक्षेणोपलन्धमपि साधु परीस्थानुतिष्ठति ॥ ६ ॥ प्रतिरभसाद कृतानि कार्याणि किं नामानर्थ न जनयन्ति ।। ७॥ भविचार्य कृते कर्मणि यत् पश्चात् प्रतिविधानं गतोदके सेतु बन्धनमिव ॥ ८ ॥ भाकारः शौर्यमायतिनियश्च राजपुत्राणां भाविनो राज्यस्य लिङ्गानि ॥६॥
या व एक:-शानुमानागमों विचार: प्रतिद्धितः । स विचारोऽपि विडेयस्त्रिाभिरेत रस पः कृतः ।।। २ समाच गुरु:-हमावास कव्यं गमन' वा निवर्तनम् । अनुमानेन नो पावदिष्याक्येन भाषितम् ॥ ३॥ ३ तथा व गुरुः-मोहो पा संशयो वाथ रष्टश्रुतविपर्ययः । यत: संजायते तस्मात् तामेको म विभावयेत् ॥ ३॥
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२५६
नीतिवास्थामृत
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अर्थ-जो मनुष्य प्रत्यक्ष द्वारा जानो हुई बस्तुको भी अच्छी तरह परीक्षा-संशय, भ्रम व अज्ञानरहित निश्चय-करके उसमें प्रवृत्ति करता है, उसे निश्चयसे विचारझ---विचारशास्त्रका वेत्ता कहते हैं ।।६॥
ऋषिपुत्रका विद्वानने भी कहा है कि जो व्यक्ति स्वयं देखी हुई वस्तुकी अच्छी तरह जाँच किये यिना उसका निश्चय नहीं करता-जाँच पूर्वक ही निर्णय करता है, उसे 'विचारज्ञ' जानना चाहिये ।।१।।
विना विचारे-अत्यन्त उतायलोसे किये हुए कार्य लोकमें कौन से अनर्थ-हनि (इट प्रयोजना क्षति उत्पन्न नहीं कर सभी प्रकार के अनमत्य करसे हैं !!!
भागुरि विद्वान्ने कहा है कि विद्वान् सार्थक या निरर्थक कार्य करते समय सबसे पहले उसका परिणाम-फल प्रयत्नसे निश्चय कर लेना चाहिये । क्योंकि विना विचार पुर्वक अत्यन्त उतावलीसे किये हुए कार्योका फल चारों तरफसे विपत्ति-युक्त होनेसे मृदयको संतापित करनेवाला और कीलेके समान चुभनेवाला होता है ।। १ ।।
जो मनुष्य विना विचारे उतावलीमें आकर कार्य कर बैठता है और पश्चात् उसका प्रसीकार (इलाज-अनर्थे दूर करनेका उपाय) करता है, उसका वह प्रतीकार उपयोगी जल-प्रवाहके निकल जानेपर पश्चात् उसको रोकनेके लिये पुल या बंधान बाँधनेके सदृश निरर्थक होता है, इसलिये नैसिक पुरुषको समस्त कार्य विचार पूर्वक ही करना चाहिये ॥८॥
शुक्र विद्वान्ने भी कहा है कि जो मनुष्य समस्त कार्य करने के पूर्व उनका प्रतीकार-अनर्थपरिहार नहीं सोचता और पश्चात् सोचता है, उसका ऐसा करना पानीका प्रवाह निकल जानेपर परचा बंधान बांधनेके समान निरर्थक होता है ।।१।।'
शारीरिक मनोज श्राकृति, पराक्रम, राजनैतिक-ज्ञान-सम्पत्ति, प्रभाव (सैन्य व कोशशक्तिरूप तेज) और नम्रता, राजकुमारों में वर्तमान ये सद्गुण उन्हें भविष्यमै प्राप्त होनेशानो राज्यभीके अनुमापक चिन्ह है।
राजपुर विद्वान्ने भी कहा है कि जिन राज-पुत्रों में शारीरिक सौन्दर्य, वीरता, राजनैतिक ज्ञान, सैनिक व कोश सम्बन्धी वृद्धि और विनयशीलता ये गुण पाये जायें, तो वे भविष्यमें राजा होते हैं ।'
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तथा च पाषिपुत्रका-विचारशः स विशेयः स्वयं रऽपि वस्तुनि । सावन्नो निश्चर्य कुर्याद् यावन्मो साधु वीषितम् । तथा च भामुरिः-सगुणमविगुणं दा कुर्वता कार्यमादों, परिमतिरषधार्या यत्नतः परिहतेम |
अतिरमसकृतानों कर्मणामाषिपत्तेभवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥1॥ ३ तथा च शुक्रः सर्वेषामपि कार्याणो यो विधान न चिन्तयेत् । पूर्व पश्चाद् मवेद् व्यर्थ सेतुन योदके ॥ ४ तथा च राजपूत्र:--प्राकारो विमो बुद्धिविस्तारो नम्रता तथा । वाहानामपि येषां स्युस्सं स्यु भूपर नपारममा KM
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विचारसमुद्देश
अमानका लण व फल, भवितव्यता प्रदर्शक चिह्न तथा बुद्धि प्रभाव क्रमशःकर्मसु कृतेनाकृतावेक्षणमनुमानम् ॥ १० ॥ संभाषितैकदेशो नियुक्त विद्यात् ॥ ११ ॥ प्रकृतेर्विकृतिदर्शनं हि प्राणिनां भविष्यतः शुभाशुभस्य चापि लिङ्गम् ॥ १२ ॥ य एकस्मिन् कर्मणि दृष्टबुद्धिः पुरुषकारः स कथं कर्मान्तरेषु न समर्थः ॥ १३ ॥ अर्थ- बहुत कार्यों में से किये हुए कार्य द्वारा बिना किये हुए कार्यका बुद्धिसे निश्चय करना 'अनुमान' है । सारांश यह है कि किसीसे कीहुई एकदेश कार्य सिद्धि द्वारा उसमें पूर्ण कार्य सिद्धिकी सामर्थ्य का निश्चय करना अनुमान है। क्योंकि जो मनुष्य एकदेश कार्य-सिद्धि करने में कुशल होता है, उसे अनुमान प्रमाण पूर्णकार्य सिद्धि हि ॥ ९०११ ।।
प्रकृति (शुभ-अशुभ स्वभाव) से विकृति (विकारयुक्त बदलना) दिखाई देना प्राणियों के भविष्यकातीन अच्छी-बुरी होनहारका ज्ञापक चिन्ह है। सारांश यह है कि जब कोई पुरुष नैतिक मार्ग-सदाचार से धनीति-दुराचार में प्रवृत्त हुआ दिखाई देवे तो समझ लेना चाहिये कि इसकी होनहार युरी है। इसीप्रकार जब कोई मनुष्य सत्सङ्गत्यादि द्वारा अनीति से नीति में प्रवृत्त हुआ प्रतीत हो तो उसकी होनहार अच्छी समझनी चाहिये || १२ ॥
नारद' विद्वान्ने भी कहा है कि 'जब मनुष्योंका शुभभाव पापमें प्रवृत्ति करने लगता है, तब उनका अनिष्ट (बुरा) होता है और जब उनका अशुभ भाव शुभमें प्रवृत्ति होने लगता है तब उनका कल्याण होता है ।। १ ।।'
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2001-4
जो मनुष्य अपनी बुद्धि और पौष (उद्योग) एक कार्य सिद्धि करनेमें सफल कर चुका है, वह दूसरे कार्यं सिद्ध करनेमें क्यों नहीं समर्थ होसकता ? अवश्य होसकता है । अर्थात् संभव है कि बुद्धिमान् पुरुष किसी दूसरे अपरिचित कार्य में कुशल नी हो तथापि वह अपनी बुद्धिके प्रभाव से इस कार्य को सफल कर सकता है || १३ ॥
जैमिनि विद्यामने भी कहा है कि 'जिसकी बुद्धि और पौरुष एक कार्य में सफल देखे जा चुके हैं, उसे उसी अनुमान प्रमाणसे दूसरा कार्य सिद्ध करनेमें भी समर्थ जानना चाहिये ॥ ९ ॥ ॥
आगम और आपका लक्षण, निरर्थक वारसी, वचनों की महत्ता कृपण-धनको कड़ी आलोचना और अनसाधारण की प्रवृत्ति क्रमश:
१ तथा च नारदः— शुभभावो मनुष्याणां यदा पापे प्रवर्तते । पाणे चाय शुभे तस्य तदा अनिष्टं शुभं भवेत् ॥ १ ॥ २ तथा जैमिनिः--पूर्व यस्य मतिर्दष्टा पुरुषार्थोऽपरस्तथा । पश्चासेनानुमानेन तस्य ज्ञया समर्थता ॥ १ ॥
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नीतिवाक्यामृत
प्राप्तपुरुषोपदेश आगमः ॥ १४ ॥ पथानुभूतानुमितश्रुतार्थाविसंवादिवचनः पुमानाप्तः ॥१५॥ मा नाकामयनुगास्था, गत्र नास्ति सद्य क्तिः ॥ १६ ॥ वक्तुगुणगौरवाचनगौरवम् ॥ १७ ॥ कि मितपचेषु धनेन चाण्डालसरसि वा जलेन यत्र सतामनुपभोगः ॥ १८ ॥ लोको मतानुपतिको यतः सदुपदेशिनीमपि कुहिनी तथा न प्रमाणयति यथा
गोध्नमपि प्रामणम् ॥ १६ ॥ अर्थ-प्राप्त(वीतराग, सर्वश व हितोपदेशी तीर्थकर प्रभ अथवा आगमानुकूल सत्यवक्ता शिष्टपुरुष) के उपदेशको 'भागम' कहते हैं ॥ १४॥
जो अनुभव, अनुमान एवं प्रागम प्रमाण द्वारा निश्चित किये हुए पदार्थीको तदनुकूल-विरोध शून्य-वचनों द्वारा निरूपण करता है, उस यथार्थवक्ता तीर्थकर महापुरुषको वा उक्त गुण-सहित प्रामाणिक शिष्ट पुरुषको 'प्राप्त' कहते हैं ।। १५ ॥
हारीत विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो पुरुष सत्यवक्ता, लोक-मान्य, आगमानुकूल पदार्योका निरूपण करनेवाला और मिथ्यावादी नहीं है, उसे 'प्राप्त' कहते हैं ।।१।।
पक्ता द्वारा कही हुई जिस वाणीमें प्रशस्त युक्ति-कहे हुए पदार्थको समर्थन करनेवाले पचन व शोभन अभिप्राय नहीं है, वह कही हुई भी बिना कही हुई के समान है।।१६।।
___ हारीत विद्वान् ने कहा है कि 'वक्ताकी जो वाशी युक्ति-शून्य और श्रोतामोंके अल्प या अधिक प्रयोजनको समर्थन करनेवाली नहीं है, उसे जंगल में रोनेके समान निरर्थक जाननी चाहिये ॥१॥
बताके गुणों-विद्वत्ता व नैतिक प्रवृत्ति-श्रादि-में महत्ता होनेसे उसके कहे हुए वचनों में महत्ताप्रामाणिकता व मान्यता होती है ।। १७ ॥
रेभ्य विद्वान् ने भी कहा है कि 'यदि वक्ता गुणवान होता है तो उसके वचन मी गुण युक्त होते हैं और गो सभाके मध्य निरर्थक प्रलाप करता है असकी हँसी होती है।।१॥"
-... ....- ...-- -- -- ... तथा नदारोत:-यः पुमान् सत्यवादी स्यात्तथासोकस्य सम्मतः । भूतार्थो पस्य नो पाक्यमन्यथाः स उच्यते 1. २ तथा र हारोतः-सा धाम्युक्तिपरित्यक्ता कार्यस्यापाधिकस्य वा । सा पोशापि वृथा शेया वरण्यदितं यथा ॥३॥ ३ तथा नरभ्य - Ep गणपंयुको नका वाय च यद्गुणम् । मुमो वा हास्यतां याति सभामध्ये प्रल्पितम् ।
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विचारसमुरेश
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जिसप्रकार पाएकालके सरोवरका पानो अधिक मात्रामें होने पर भी शिष्ट पुरुषों के उपयोग में न 'मा कारण या स-चन भी शजनों के उपयोग न मानेसे व्यर्थ है ॥ १८ ।।
नारद विद्वान ने कहा है कि 'सम्झनों के उपभोग-शून्य पाण्डाल-वासावके पानी समान रुपण मनसे क्या नाम है? कोई लाभ नहीं ॥१॥
जनसाधारण एक दूसरेको देखादेखी करते हैं यदि कोई मनुध्य किसी शुभ-अशुभ मार्गसे जाता है तो उसे देखकर दूसरे लोग भी बिना परीक्षा किये ही उसका अनुकरण करने लगते हैं। क्योकि यदि प्रय श्रेश्या धर्मका उपदेश देती है तो उसे कोई प्रमाण नहीं मानता और यदि गो-घातक मामण धर्मका अपदेश देता है, तो लोग उसकी बात प्रमाण मानते हैं ।। १६ ।।
गौतम farन ने भी कहा है कि विश्य धार्मिक होनेपर भी पदि धर्मोपदेश देती है तो उसे कोई नहीं पूछता और गो-हत्या करनेवाला ब्राह्मण यदि धर्मका उपदेश देता है तो उसको सब प्रमाण मानते हैं ॥१॥
किसी विवाम ने भी कहा है कि जनसमूह वास्तविक कर्तव्य-मार्गपर नहीं पलते किन्तु एक एमरेकी देखादेखी करनेवाले होते हैं। पालुका-रेतमें लिङ्गका चिन्ह बनानेसे मेरा (कमा- मायकका) तांबेका वर्तन नष्ट होगया ॥१॥
प्रति विचार समुचेरा ।
पवार नारद:-किशोनाराधनेमात्र किमन्यजतदापत्रम् । सति पनि भो भोग्य साधूना समजायते ॥1॥
या - गौतमः कहिनी धर्मापि यदि स्यादुपसिनी कोऽपि पृथ्त जनो गोप्न हिज मा . १ मा गोस्व-गतानुगतिको शोको न शोकः पारमार्मिकः । वालुकाक्षिामात्रेण गर्ने मे शानभाजनम ॥ ..
कोई डि माय हायमें जान-बम र समुद्र तत्पर हमmा गया | उसमे उसे गोपीक भयस महमतर पर मकर वोदकर उसके बीच गाव विमा चौर स्मृतिके सिपे उसकी सके पर franaन बनाकर स्मान करने रखा गया । इसी अवसर पर बहुपसे योग हा स्नान करनेक सिषे भाये मामयगचित हुए पाकचाको देखकर इस पर्व में यही कायाणकारक है। ऐसा समझाकर जमोंने वहाँपर बहुतसे बालग.
ला बना राव पेसा होनेसे यह मामण अपने बनाये हुए वालुका लिङ्गको न समझ सका; भतएव उसका तात्र. मय पर्सन न मिलनेसे नए होगया । निष्कर्ष यह रे जनसाधारण परोक नहीं होते किन्तु एक मोको देखादेखी पाते।
मंगृहीत
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१६-~व्यसन-समुददेश। न्यमन-लक्षण, भेद, सहज व्यसन-निवृत्ति, शिध-लक्षण व कृत्रिम व्यमनोग नियूनि
व्यस्यति पुरुष श्रेयमः इति व्यसनम् ॥ १ ॥ व्यसनं द्विविधं महत्रमाहार्य च ॥ २ ॥ सहज व्यसनं धोभ्युदयहेतुभिरधर्म जनितमहाप्रत्यवायप्रनिपाइनरुपाख्यानयोगपुरुषश्च प्रशमं नयेत् ॥ ३ ॥ परचित्तानुकल्येन तदभिलपितेप्पायेन विरक्तिजननहेतवा योगपुरुषाः ॥ ४ ॥ शिष्टजनसंसर्ग दुर्जनाऽसंसर्गाभ्यां पुगतनमहापुरुषचरिनान्थिनाभिः कथाभिगहाय
व्यसनं प्रतिबध्नीयात् ॥ ५॥ अर्थ-जो दुष्कर्म त-क्रीड़न व मद्यपानादि-मनुष्यको कल्याण-मार्गसे गिरात हैं, उन्हें 'क्ष्यसन' कहते हैं ।। १॥
शुक्र विद्वान् ने कहा है कि 'मनुष्य जिस असत्प्रवृत्तिम निरन्तर उत्तमस्थानस जघन्यस्थानको प्रान होता है उसे विद्वानों को 'व्यसन' जानना चाहिये ।। १ ।।"
व्यसन दो प्रकारके हैं-५ महज-स्वाभाविक (जन्मम हो उत्पन्न होनेवाले दुय) : आहाय-- कुसंगके कारण उत्पन्न होनेवाले (मद्यपान-परकलत्र-संवन-आदि) ॥ ॥ मनुन्यको स्वाभाविक व्यसनयम वम्बर्गके उत्पादक कल्याण कारक पदार्थी (विशद्ध भाव-आदि)क चितवन, पास उत्पन्न हुए महादापाका करन-श्रवण, तथा उन दोपोंक निरूपक चरित्र-(गवण-दुर्योधन आदि अशिष्ट पुरुषांक भयङ्कर चरित्र। प्रवण द्वारा एवं शिष्ट पुन्पोंकी समातिम नए करना चाहिये ।। ३ ।।
गुरु विद्वान् ने भी कहा है कि 'धर्मस सुखी व पापसे दुग्यो होनेवाले शिष्ट-दुष्ट पुरपांक चरिधश्रवण व महापुरुषांक सत्सङ्ग से स्वाभाविक व्यसन न होते है ।। १ ॥
जो व्यसनी पुरुष हत्य-प्रिय वनकर अनेक नैतिक उपाय द्वारा उस उन अभिलापन यन्त्र श्रीमद्य-पानादि-से जिनमें उस व्यग्मन (निरन्तर आसक्ति) उत्पन्न हुआ है, विनि उत्पन्न करन है-छुड़ा दते हैं---उन्हें योग (शिष्ट) पुरुष कहते हैं ॥ ४॥
। तथा च शक्रः-उन मादधमं स्थानं यदा गान मानवः । नदा तयमनं जयं दुर्धम्नस्य मिनरम् || | २ नयां नम:--रगाम्यद यो यम्य प्रन्यायवधानः । तं का यह यानि व्यसन यागिमलनः ।।
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व्यसनसमुदेश
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हारोत'विद्वान ने भी शिष्ट पुरुषोंका इसीप्रकार लक्षण किया है ॥ १॥
युद्धिमान मनुष्यको शिष्ट पुरुषों की साति और दुष्टोंकी कुमंगति के त्याग द्वारा एवं जिन उत्तम कथानकोंमें प्राचीन महापुरुषोंका अादर्श चरित्र-मित्र किया गया। जनके पाऽन्त-अवगा द्वारा अपने कृत्रिमकुसंग-अनित-व्यसनोंका नाश कर देना चाहिये ॥ ५ ॥
शुक्र विद्वान ने भी इसीप्रकार कहा है। निजस्त्री-बासक्ति, मद्य-पान, मृगया (शिकार), चव, पैशुन्य प्रभृति १८ प्रकारके व्यसनस्त्रियमतिशयेन मजमानो भवत्यवश्य तृतीया प्रकृतिः ॥६॥ सौम्यधातुक्षयेण सर्वधातुक्षयः ।। पानशौएडश्चित्तविभ्रमान मातरमपि गच्छति ॥८॥ मृगयासक्तिः स्तेनव्यालद्विषहायादानामामिपं पुरुष करोति ॥६।। बू तासक्तस्य किमप्यकृत्यं नास्ति'॥१०॥ मातर्यपि हि मृतायां दी. व्यत्येव हि कितवः ॥११॥ पिशुनः सर्वेषामविश्वासं जनयति ॥१२॥ दिवास्वापः गुप्तव्याधिव्यालानामुत्थापनदंडः सकलकार्यान्तरायश्च ॥१३॥ न परपरीवादात् परं सर्वचिद्वषणभेषजमस्ति ॥१४॥ तौर्यत्रयासक्तिः प्राणार्थमानर्वियोजयति ॥१५॥ अथाय्या नाविधाय कमप्यनथं विरमति ॥१६॥ अतीवेालु स्त्रियो अन्ति त्यजन्ति वा पुरुषम् ॥ १७ ॥ परपरिग्रहाभिगमः कन्यादूषणं वा साहसम् ॥१८॥ यत् साहसं दशमुखदण्डिकाविनाशहेतुः सुप्रसिद्धमेय ।।१६।। यत्र नाहमस्मीत्यध्यवसायस्तत् साहसम् ॥२०॥ अर्थदकः कुवेरोऽपि भवति भिक्षाभाजनम् ।।२१॥ अतिव्ययोऽपापव्ययश्चार्थदक्षणम् ॥२२॥ हर्षामर्षाभ्यामकारणं कृणाकुरमपि नोपहन्यानिकपुनर्मय॑म् ॥२३॥ श्रूयते किल निष्कारणभूतावमानिनों वातापिरिल्वलश्च द्वावसुरावगस्त्याशनाद्विनेशतुरिति ॥२४॥ यथादोष कोटिरपि गृहीता न दुःखायते । अन्यायेन पुनस्तृणशलाकापि गृहीता प्रजाः खेदयति ॥ २५ ॥ तरुच्छेदेन फलोपभोगः सकृदेव ॥२६॥ प्रजाविभवो हि स्वामिनोऽद्वितीयो भाण्डागारोऽतो
----... ...-----...-.... ...१ तथा र हातः-परचित्तानुकूल्येन विक्रि व्यसनात्मके । जनयन्तीष्टनारोम ते शेषा योगिनो नराः ।। ... २ तथा र शुक्रः-श्राहार्यम्यसनं नश्येत् [सत्सक नाहितासितम्] महापुरुषवृत्तान्तः श्रुतेश्चैव पुरातभैः ।।१।। सं०प० ३ 'नास्त्यावं यासक्तस्य' इसप्रकारका मु. प्रतियों में पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ महीं। 'तीय त्रिकासक्तिः कं नाम प्राणार्थमानेने वियोजयति' इसप्रकारका पाठ मू० प्रतियों में है, परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं।
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नीतिवाक्यामृत
युक्तितस्तमुपभुञ्जीत ||२७|| राजपरिगृहीतं तृणमपि काञ्चनीभवति [जायते पूर्वसञ्चितस्याप्यर्थस्यापहाराय '] ॥ २८ ॥ चाक्पारुष्यं शस्त्रपातापि विशिष्यते ॥ २६ ॥ जातिवयोवृचविद्यादोषाणामनुचितं वचो वाक्पारुष्यम् ||१०|| स्त्रियम्पत्यं भृत्यं च तथोक्त्या विनयं ग्राहयेद्यथा हृदयप्रविष्टाच्छत्यादिव न से दुर्गमायन्ते ॥ ३९ ॥
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वधः परिक्लेशोऽर्थहरमक्रमेण दण्डपारुष्यम् ||३२|| एकेनापि व्यसमै मोपहतश्चतुरोऽपि राजा विनश्यति, किं पुनर्नाष्टादशभिः ॥ ३३ ॥
अर्थ-अपनी स्त्रीको अधिक मात्रामें सेवन करनेवाला मनुष्य अधिक वीर्य धातुके इय होजाने से असमय वृद्ध या नपुसंक होजाया है ॥ ६ ॥
धन्वन्तरि विद्वानके उद्धरणका भी यही
है ॥ १ ॥
क्योंकि स्त्री सेवनसे पुरुषको शुक्र ( वीर्य ) धातु तय होती है, इससे शरीरमें वर्तमान वाकीको समस्थ छ घातुएँ — रस, रुधिर, मांस, मेद व अस्थि आदि नष्ट होजाती हैं। निष्कर्ष यह है कि नैठिक पुरुषको वीर्य सार्थ श्रह्मचर्य पालन करना चाहिये अथवा अपनी स्त्रीको अधिक मात्रामें सेवनका स्वाग करना चाहिये ॥ ७ ॥
वैद्यक' विद्वानने भी वीर्य-क्षयसे इसीप्रकार दानि बताकर वीरता करनेवाले शेरकी हाथीसे अधिक वा निरूपण किया है ।। १-२ ॥
मद्यपी - शराबी-पुरुष मानसिक विकार वा ( नशे में आकर ) माताको भी सेवन करने लगता है। wa: ऐसे अनर्थकारक मद्यका त्याग करना श्रेयस्कर है ॥ ८ ॥
नारद विद्वान्ने भी इसीप्रकार मद्यपानके दोष बताकर उसके त्याग करने में प्रवृत्त किया है ॥ १ ॥
• कोष्ठाति पाठ म्० प्रतियोंमें नहीं है। इसके पश्चात् 'येन बलम्वापो जायते तद्वचनं वाकूपारायऐसा मूत्र प्रतियोंमें अधिक पाठाम्वर वर्तमान है, जो कि क्रमप्राप्त एवं उपयुक्त भी है, जिसका अर्थ यह है कि जिस अभिन बचनले हृदय संतापित हो उसे 'वाक्पारुष्य' कहते हैं।
२ तथा च भवन्तरिः प्रकास जरसा युक्तः पुरुषः स्त्रीनिषेववाद । अथवा मध्मया युक्तस्तस्माद्युक्तं निषेवेत् ॥१॥
६ तथा च वैद्यकः – सौम्यधातुचये पुसां सर्वधातुक्षयो यतः । तस्मात्तं येषु नान्मूखो न कारयेत् ॥ १ ॥ सर्व बलवन्तो हि धातवः । [त रखति यतः सिंहो] लघुस्तुम सोऽधिकः ॥ ९ ॥ * तथाच नारदः - या म्यान्मद्यमनस्तु कुलीनोऽपि पुमांस्तदा । मातरं भजते मोहमायुक्तं निषेधयेत् ॥ १ ॥
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ज्यसनसमुकेश
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शिकार खेलनेमें प्रासक्त पुरुष, चोर-डाकू, मिह-व्याघ्रादि हिंसक जन्तु, शत्रु और कुटुम्बियों द्वारा मार डाला जाता है ।।।।।
भारद्वाज' विद्वान उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ।।१।।
जुआरी पुरुष लोकमें पेश कौनसा पान (पाप है जिसमें प्रवृत्ति न करता हो; क्योंकि निश्चयसे माताके मर जाने पर भी जुपारी पुरुष जया खेलता रहता है। सारांश यह है कि जुबारी कर्तव्य-बोरसे विमुख होकर अनर्थ करता रहता है । अतः जनाका त्याग ही श्रेयस्कर है ।। १०-११ ।।
शुक्रविद्वानने कहा है कि यदि जुनारी मनुष्य प्रेम-वश कभी अपनी प्रियाको प्रन्धि स्पर्श करता है सब ससफो स्त्री 'कहीं यह मेरो सुन्दर साड़ी अपहरण करके जाएके दावमें न लगा देवे इस बरसे उसे विलकुल नहीं चाहती।। १ ।।
चुगलखोर अपने ऊपर सभी पुरुषों का विश्वास उत्पन्न करता है। अर्थात् वह अपने कपट-पूर्ण बर्ताव (चुगली करने) के कारण लोकमें किसीका भी विश्वास पात्र नहीं रहता ।। १२ ।।
वसिष्ठ' विद्वानने भी राजाके समन घुगली करनेवाले को सभी का अविश्वास-पात्र कहा है ।।१।।
दिनमै शयन शरीरमें छिपे हुए अनेक रोगरूपी सोको जगानेका कारण और समस्त कार्य-सिद्धिमें बाधक है। निष्कर्ष यह है कि स्वास्थ्य व कार्य-सिद्धि चाहनेवाले व्यक्तिको प्रीष्म-अतुको छोड़कर अन्य ऋतुओंमें दिनमें नहीं सोमा पाहिये ॥ १३ ॥
धन्वन्तरि विद्वान्ने भी प्रीष्म ऋतुको छोड़कर अन्य ऋतुओंमें दिनमें सोनेवालेके रोग-वृद्धि ष मृत्यु होने का निरूपण किया है ॥१॥
लोकमें पर-निंदाको छोषकर सबसे द्वीप उत्पन्न करानेवाली कोई औषधि नहीं है। अर्थात् जो मनुष्य पर-निंदा करता है, उससे सभी लोग देष करने लगते हैं । अथवा जो मनुष्य पर-निया करता है, उस निदा-निवृत्तिकी निंदा किये जानेवाले पुरुषकी प्रशंसाको छोड़कर अन्य कोई भमोष भौषधि नहीं है
. याच मारााग-पगपाण्यसनोपेतः पुरुषो बधमानुपाए । रिम्पालारिदायापारपदिकसमस्य- ॥ २ व्या पक-सानुरागोऽपि बीवी पस्याः स्पृशति कहिंचित् । पूतविनरखते साधुबाहरणशकणा mn
बार सिड:-विवापि कुलीनोऽपि राजाने पैच पैशनम् । यः करोति नो मूलस्तस्य कोऽपि न विरमसेव ॥१॥ ५ व्या व तरित-प्रीष्मकार परित्यज्य पोऽम्याने विषा स्वपेत् । तस्य रोगा: प्रबन्ते : स पाठि
घमालपम् ॥
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नीतिवाक्यामृत
उदाहरणार्थ -- जब सोहन मोहनकी निदा हमारे सामने करता है तब हमें चाहिये कि हम उस समय मोइन
को अधिक प्रशंसा करें; ताकि यह उसकी निंदा करना छोड़ दे । १४ ॥
हारोव' विद्वानके उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
गान-श्रवण, नृत्य-दर्शन व वादित्र श्रवण में चसक्क हुआ कौन पुरुष अपने प्राण, धन और मानमर्यादा को नष्ट नहीं करता ? अर्थात् सभा नष्ट करते हैं अतः विवेकीको उक्त गान अवण भादिमें स नहीं होना चाहिये ||१५|| निरर्थक यहाँ वहाँ घूमने-फिरनेवाला व्यक्ति अपूर्ण मनर्थ (महान् पाप) वि विना विश्राम नहीं लेता । अर्थात् निष्प्रयोजन फिरनेवाला सभी पापोंमें फँस जाता है, अतः भ नाभादि प्रयोजन शून्य फिरनेका त्याग करना चाहिए || १६ ||
भृगु विद्वान ने भी निरर्थक फिरने वाले के विषय में यही कहा है ॥ १ ॥
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जो लोग अपनी स्त्रियोंसे अत्यंत ईष्या (डाइ-दूष) करते हैं, उन्हें स्त्रियां छोड़ देती हैं या मार डालती है, अतः प्रत्येक व्यक्ति स्त्रीले प्रेमका बर्ताव करे ।। १७ ।।
भृगु विद्वान्के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
दूसरोंकी स्त्रियों का सेवन और कन्याओं को दूषित (सेवन) करना 'साहस' है जिसके द्वारा रावण और दाक्षिक्यको मृत्यु-दंड प्राप्त हुआ था यह पुराणों में प्रसिद्ध ही है ॥ १८-१६ ॥
भारद्वाज विद्वान् ने भी परकलन-सेवन व कन्या-दूषण को दुःख देनेवाला निरूपण किया है ||१|| भृगु विद्वान ने भी 'साहस' का यहो लक्षण निर्देश किया है ||१||
जो मनुष्य आमदनी से अधिक खर्च व अपात्र दान करता है, वह कुबेर समान धनाढ्य होने पर भी दरिद्र होजाता है पुनः साधारण व्यक्ति का दरिद्र होना स्वाभाविक है ||२१||
दारीत विद्वान् के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है || १ ||
1 तथा च हारीतः प्रयध्याधिपरीतस्य यथा नास्त्यत्र भेषजम् । परीवादप्रयोगस्य स्तुतिं मुक्खा न भेषजम् ॥१॥
२ तथा च भृगुः पृथारनं नरो योऽत्र कुरुते बुद्धिवर्जितः । अयं प्राप्नुयात् यस्य भान्तोन लम्पते ॥ १ ॥
३ तथा भगः -- ईयधिकं त्यजन्तिम नम्ति वा पुरुष स्त्रियः । कुलोद्भूता अपि प्रस्थः किं पुनः कुकुलोद्भवाः १
४ तथा च भारद्वाजः—अम्यमार्यापद्दारो यस्तथा कम्याप्रदूषणम् । तत् साहसं परिज्ञेयं खोकडपभयप्रदम् ॥१॥ अङ्गीकृस्यारमनो मृत्यु यत् कर्म क्रियते मरे । तरसाहसं परियं रौद्रकर्मणि निर्भयम् ॥१॥ प्रतियच योऽर्थस्य कुरुते कुत्सितं सदा । दारिद्रयोपहतः स स्यानोऽपि न किं परः ॥५॥
५ तथा च भृगुः - ६ तथा च हारीतः
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आमदनीसे अधिक धन-व्यय करना व अपात्रों को धन-आदि देना अर्थदूषण है ।। २२ । नैतिक पुरुष सहकार क्रोधव नियोजन घास का अंकर भी नष्ट न करे, फिर मनुष्य के विषयमें सो कहना ही क्या है। अर्थात् उसका सताना या वध करना महाभयकर है ॥२३॥
भारशरज विद्वान् ने भो निष्कारण कष्ट देने या वर करनेके विषय में यहो कहा है ॥१॥
मुद्ध-परम्परासे पुराण मन्थोंके आधारसे सुना जाता है कि निष्प्रयोजन प्रजा को पीड़ित करने वाले 'वातापि' व 'इल्वल' नामके यो असुर अगम्य' नामक सन्यासो द्वारा नष्ट हुए ॥ २४ ।।
यदि राजा द्वारा अपराधीके अपराधानुकूल न्यायोचित जुर्माना भादि करके फरोड़ रुपए भी ले लिए गये हों, तो उससे उसे दुःख नहीं होता, परन्तु विना अपराध के-अम्यायद्वारा तृण-शनाका बराबर दंड दिया जाता हो, तो उमसे प्रजा पीड़ित होती है ।।२।।
भागुरि' विद्वान ने अन्याय-पूर्वक द्रव्य हरणके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥१॥
जिस प्रकार वृतका मूलोच्छेद करनेसे उससे फन-प्राप्ति केवल उसी समय एफ वार होती है उसी प्रकार जो गजा अन्यायके द्वारा प्रजाका सर्वस्व अपहरण करता है. उसे उसी समय केवल एक बार ही धन मिलता है, भविध्यमें नहीं ॥२६॥
बल्लभदेव' विद्वान् ने भी प्रजा का सर्वस्व अपहरण करने वाले राजाके विषयमें यही कहा है || प्रजाकी सम्पत्ति निश्चयसे राजा का विशाल खजाना है, इसलिए उसे उसका उपयोग न्यायसे करना चाहिए मनुचित उपाय-अपराध-प्रतिकूल आर्थिक दंड आदि द्वारा नहीं ॥ २७ ॥
गौतम, विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥
जो व्यक्ति राजकीय तृण भी चुरालेता है, उसे उसके बदले में सुपर्ण देना पड़ता है। क्योंकि राज. कोय साधारण बस्तुकी चोरी राज-दंड-मादिके कारण पूर्ष- संचित समस्त-धन को भो नष्ट करानेमें कारण होती है, मतः नैतिक व्यक्ति को राजकीय चोरी-क्लैक मार्केट श्रादि-द्वारा धन संचय करना छोड़ देना चाहिए ॥ २८ ॥ गर्ग' विद्वान ने भी कहा है कि राजकीय अल्प धन का भी अपहरण गृहस्थ के समस्त धनके नाश का कारण है ॥ १ ॥
- तपा र भारद्वाजः--ऋणदोपि नो कार्यों बिना कार्येण साधुभिः । येग नो सिम्यते किंचित् मकिपुनर्मानुष मा] २ तथा न मागुरिः-गृहोता मैप दुःलाय काटिरप्पपराधिमः । मायान गृहीतं यज भुजा नणमरियम् ॥१।। ३ तथा प वल्ममष- मुलच्छ यथा नास्ति तफलस्य पुनस्तरोः । सर्वस्वहरणे वान नृपस्य पदुकः ॥३॥ ४ तथा गौतमः-जानां विभवो भरच सोऽपरः कोश एप हि । नृपाणा युक्तिो प्रायः सोऽम्यान म कहिंचित् ॥१॥ ५ तथा गर्ग:- पोहरे भूप वि धमपि स्वल्पतरं हि यत् । गृहस्थस्यापि विशस्म तानाशाय मजायते ||
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नीतिवाक्यामृत
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मर्मभेदी कर्कश वचन शस्त्रके घावसे भी अधिक कष्टदायक होते हैं। इसजिए मनुष्यको किसीके लिए शस्त्र से चोट पहुंचाना अच्छा है, परन्तु कर्कश कठोर वचन बोलना अच्छा नहीं ||२६||
विदुर' विद्वान्ने भी कहा है कि 'कर्कश वचनरूपी बाण महाभयङ्कर होते हैं; क्योंकि वे दूसरोंके मर्मस्थलोंमें प्रविष्ट होकर पीड़ा पहुंचाते हैं, जिनसे ताड़ित हुआ व्यक्ति दिन-रात शोकाकुल रहता है | १| मनुष्य की जाति, आयुष्य, सदाचार, विद्या, व निर्दोषता के अयोग्य विरुद्ध (विपरीत) वचन कहना वाकू पारुष्य है, अर्थात् कुलीनको नोचकुलका वयोवृद्धको बालक, सदाचारी को दुराचारी, विद्वान् को मूर्ख और निर्दोषी को सदोषी कहना वाक्पारुष्य है ॥ ३० ॥
जैमिनि विद्वान् ने भी वाक्पारुष्यका यही लक्षण करके उसे त्याग करने को कहा है || १ || नैतिक मनुष्यको अपनी स्त्री, पुत्र व नौकरोंको वाक्पारुष्य – कर्केश वचनका त्यागपूर्वक हित, मित और प्रिय वचन बोलते हुए इसप्रकार विनयशील बनाना चाहिये, जिससे उसे हृदयमें चुभे हुए कीलेके समान कष्टदायक न होने पायें, किन्तु श्रानन्ददायक हों ।। ३१ ।।
शुक विद्वान ने भी कहा है कि जिसके कर्कश वचनों द्वारा स्त्री, पुत्र व सेवक पीड़ित रहते हैं, उसे उनके द्वारा लेशमात्र भी सुख नहीं ।। १!!
अन्यायसे किसीका वध करना, जेलखाने की सजा देना और उसका समस्त धन अपहरण करना या उसकी जीविका नष्ट करना 'दण्ड पारुष्य' है ॥
३२ ॥
गुरु विद्वान् ने भी दंडपारुष्यका यही लक्षण किया है ॥ १ ॥
जो राजा उक्त १८ प्रकार के व्यसनों में से एक भी व्यसनमें फँस जाता है, वह चतुरङ्ग सेना (हाथी, घोड़े, रथ और पदाति) से युक्त होता हुआ भी नष्ट होजाता है, फिर १८ प्रकारके व्यमनोंमें फँसा हुआ क्या नष्ट नहीं होता ? अवश्य नष्ट होता है ॥ ३३ ॥
भावार्थ – इस समुद्देशमें आचार्यश्रीने निम्नप्रकार १८ प्रकारके व्यसनोंका निर्देश किया है। १ स्त्री-आसक्ति, २ मद्यपान, ३ शिकार खेलना, ४ चव-कीवन, २ पैशुन्य (चुगलो करना), ६ दिनमें शयन,
१ तथा विदुर, वाक्सायका रौदशमा भवन्ति चैराहतः शोचति राम्यहामि । परस्य मस्वापि ते पतति छान् पथिवो मैच चिपेत् परेषु ॥१॥
२ तथा
मिनिः-- [जातिविद्यासुवृत्तायान्] निर्दोषाम् यस्तु भर्त्सयेत् । सद्गुरोर्शमयां नीतैः पारुष्यं त
३ तथा च शुकः -- भार्याभृत्यता यस्य वाक्पारुष्यसुदुःखिताः । भवन्ति तस्य मो सोधयं तेषां पाश्चोद प्रजापते ॥1॥
४ तथा च गुरुः- [व] क्शापहारं सः ] प्रजानां कुहले नृपः । अन्यायेन हि वद प्रोक्स दंडपावप्यमेव च ॥१॥ संको
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भ्यसनसमुरेश
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७ पर-निन्दा, ८ गीत-श्रवणमें आसक्ति, ५ नृत्यदर्शनमें भासक्ति, १० वादिन-श्रवणमें भासक्ति ११ वृथागमन, १२ ईयो १३ साहस (परस्त्री-संकन व कन्या-दुषण), १४ अर्थदूषण, १५ भकारणवध, १६ इम्प-हरण, १७ कर्फशवश्चन और भौर १८ पगडपारुष्य । नैतिक व्यक्तिको इनका त्याग करना चाहिये ।
इसि व्यसनसमुश।
११ स्वामी-समुद्देश। राज्ञाका लक्षण, अमात्य-श्रावि प्रकृति-स्वरूप, असत्य व धोखा देनेसे हानि
धार्मिकः कुलाचाराभिजनविशुद्धः प्रतापवाणयानुगतवृत्तिश्च स्वामी ॥ १ ॥ कोपप्रसादयोः स्वतन्त्रः ।। २ ।। आत्मातिशयं धनं या यस्यास्ति स स्वामी ॥ ३ ॥ स्वामिमूलाः सर्वाः प्रकृतयोऽभिप्रेतार्थयोजनाय भवन्ति नास्वामिकाः ॥ ४ ॥ 'उच्छिन्नमूलेषु तरुषु किं कुर्याद पुरुषप्रयत्नः ॥ ५ ॥ असत्यवादिनो नश्यन्ति सबै
गुणाः ॥ ६ ॥ पञ्चकेषु न परिजनो नापि चिरायुः ॥ ७ ॥ अर्थ-जो धर्मात्मा, कुलापार व कुलोनशाके कारण विशुद्ध, भाग्यशाली, नैतिक, दुष्टोंसे हुपित व शिष्ट्रसे अनुरक्त होने में स्वाधीन और प्रात्म-गौरव-युक्त तथा प्रचुर सम्पत्तिशाली हो उसे 'राजा कहते हैं ।। १-३ ॥
शुक्र गर्ग', व गुरु' विद्वानों ने भी राआका इसीप्रकार शक्षणनिर्देश किया है॥१३॥
'मामातिएयजन मा पस्पाति स स्वामी' इसप्रकार भू० प्रवियोंमे पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो अन्य
से अतिशयमान हो पा स्वामी है, रोष पूर्ववत् । । पथा र एक-धार्मिको वः कुलाचारविनद्धः पुषयपासपी । स स्वामी कुरुते राज्य विशुष्वं साम्परा ॥ २ समाप गर्गः-स्वामतः करसे यश्स निग्रहानुमही जने । पापे साधुसमाचार स स्वामी नेतरः स्मृतः ॥ .. ३ तथा गुरु:-श्रामा विद्यते पस्य धनं घा विद्यते बहु । स स्वामी प्रोच्यते लोकनेतरोन थंचन ॥१॥
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नीतिवाक्यामृत
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समस्त प्रकृति के लोग (मंत्रो-आदि) राजाके कारणसे ही अपने अभिलषित अधिकार प्राप्त करनेमें समर्थ होते हैं, राजाके बिना नहीं ॥४॥
गर्ग' विद्वान्ने भी कहा है कि 'समस्त प्रतिवर्ग राजाके रहनेपर ही अपने अधिकार प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं ।। १॥
जिन वृच्चोंकी जड़ें उखड़ चुकी हों, उनसे पुष्प-फलाविकी प्राप्तिके लिये किया हुमा प्रयत्न क्या सफल होसकता है। नहीं होसकता, उसीप्रकार राजाके नष्ट होजानेपर प्रकृतिवर्ग द्वारा अपने अधिकारप्राप्ति के लिये किया हुआ प्रयल भी निष्फल होता है ।। ५ ।।
भागुरि* विद्वान्ने भी राज-शून्य प्रकृतिको अभिलषित अधिकार प्राप्त न होनेके विषय इसीप्रकार कहा है ।।१।।
झूठ बोलनेवाले मनुष्यके सभी गुण (झान-सदाचार-आदि) नष्ट हो जाते हैं॥६॥
भ्य विद्वान्ने भी कहा है कि 'मिध्याभाषी मनुष्यों के कुलीनता, शील ष विद्या प्रभृति समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं ॥१॥
__ धोखेबाजोंके पास न सेवक ठहरते हैं और न वे चिरकाल तक जीवित रह सकते है ; क्योंकि धोखेबाजों द्वारा सेवकों को वेतन नहीं मिलता, इससे उनके पास सेवक नहीं ठहरते एवं जनसाधारण उनसे द्वेष करते हैं, अतः ये असमयमें मार दिये जाते हैं; अतः वे दीर्घजीवी भी नहीं होते मनः शिष्ट पुरुषोंको धोखा देना छोड़ देना चाहिये ॥ ७॥
मागुरि विद्वान्ने भो धोखेबाजों के विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥१॥
लोक-प्रिय पुरुष, उत्कृष्टदाता, प्रत्युपकारसे लाभ पूर्वक सपा परोपकार, प्रत्युपकार-शून्यकी कड़ी आनोपना व स्वामीको निरर्थक प्रसन्नता--
स प्रियो लोकानां योऽर्थ ददाति ।। ८॥
१व्या न गा-स्वामिना विद्यमानेम स्वाधिकारानवाप्नुयात् । सः प्रहसयो मेव विना हेन समानुः ॥ ॥ १ तथा च भाग:-विनमूषु पहेषु यथा मो पल्लवादिकम् । प्रथा स्वामिविहीमाना प्रकृतीनां न पामिनवम् ।। ३ तथा प रैम्पा कुलातीजोजवा ये व गुया विधादमोऽपराः । से सर्वे नाशमायाम्ति ये मिभ्यागमामकाः ॥1॥ १ तथा च मागुरिः-या पुमान् पंचनासस्तिस्य न स्थात् परिग्रहः । म चिर मीवित तस्मात् सन्निस्त्याव्य हिचनम्
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स्वामी समुद्देश
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स दाता महान् यस्य नास्ति प्रत्याशोपहतं चेतः * ॥ ६ ॥ प्रत्युपकतु रूपकारः सष्टद्धिकोऽर्थन्यास इव तज्जन्मान्तरेषु च न केपामृणं येषामप्रत्युपकारमनुभवनम् ॥१०॥ किं तया गवा या न चरति चीरं न गर्भिणी वा ॥ ११ ॥ किं तेन स्वामि प्रसादेन यो न पूरयत्याशाम् || १२ ||
अर्थ- जो धन या अभिलषित वस्तु देकर दूसरोंकी भलाई करता है, वही उदार पुरुष लोगोंका प्यारा होता है ॥ ६ ॥
त्रिविद्वान् ने भी कहा है कि 'जो मनुष्य अपना धन देता है, वह चाण्डाल, पापी, समाज-वहिकृत व निदेबी होनेपर भी जनताका प्रेमपात्र होता है ॥ १ ॥'
संसार में वही दावा श्रेष्ठ है, जिसका मन पात्र ( याचक) से प्रत्युपकार या धनादिक लाभकी इच्छा से दूषित नहीं है; क्योंकि प्रत्युपकारकी इच्छा से पात्रदान करना वणिक वृत्ति ही है । सारांश यह है कि आत्महितैषी उद्दार पुरुष प्रत्युपकारकी कामना शून्य होकर दान धर्ममें प्रवृत्ति करे ॥ ६ ॥
कहीं प्रत्युपकार न कर देवे ।
३ तथा च प्रत्रिः--अन्त्योऽपि
ऋषिविज्ञाने भी कहा है कि 'जो व्यक्ति लोकमें दान देकर याच कसे मनादि चाहता है, उसका दान व्यर्थ है ॥ १ ॥
प्रत्युपकार करनेवालेका उपकार बढ़नेवाली धरोहर समान है। सारांश यह है कि यद्यपि विश्वासपात्र शिष्ट पुरुषके यहाँ रक्खी हुई धरोहर ( सुवों आदि बढ़ती नहीं है, केवल रखनेवालेको जैसी को तैसी वापिस मिल जाती है परन्तु प्रत्युपकारीके साथ किया हुआ उपकार (अर्थ-दानादि) उपकारीको विशेष फलदायक होनेसे - उसके बदले विशेष धनादि-लाभ होनेके कारण बदनेवाली धरोहर के समान समझना चाहिये; अतः प्रत्युपकारीका उपकार विशेष लाभप्रद है। इसीप्रकार जो लोग बिना प्रत्युप
* इयमुच्चभियानीकिको महतो कापि कठोरता (च), मपकृत्य भवन्ति निः स्पृहाः परतः प्रस्युपकार मोहवश्च, इसमक्कारका जक्त सूजके पश्चाद मू० अपियोंमें अधिक शह है, जिसका अर्थ यह है कि उच्च शानबान्, महापुरुषोंकी ऐसी कोई विष्ठकृति (स्वभाव) और चित्र-पूति होती है, जिससे में दूसरोंका उपकार करके उनसे निःस्पृहः- कुछ मत
न रखनेवाले होते हैं एवं उन्हें इस का भय रहता है कि उपकृत पुरुष मेरा
पापोऽपि लोकोऽपि निर्दमः । लोकानां वलभः सोऽत्र यो ददाति निजं धनम् ||१ वेद ॥२
२ तथा च ऋषिपुत्रकः -- दादा पुरुषोत्र तस्मालानं भवाम्कृति | मरहीतुः सकाशाच्या
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नीतिवाक्यामृत
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कार किये ही परोपकारका उपभोग करते हैं वे जन्मान्तरमें किन उपकारियों दाताओंके ऋणी नहीं होते ? सीके होते हैं। निष्कर्ष यह है कि शिष्ट पुरुषको कृतज्ञता - प्रकाश-पूर्वक उपकारीका प्रत्युपकार करना चाहिये ॥ १० ॥
ऋषिपुत्रक विद्वान्ले भी इसीप्रकार कहा है ।। १ ।
उस गायसे क्या लाभ है, जो कि दूध नहीं देती और न गर्भवती है ? कोई लाभ नहीं। इसी प्रकार उस मनुष्य के उपकार करनेसे क्या लाभ है, जोकि वर्तमान या भविष्य में प्रत्युकार नहीं कर सकता ? कोई लाभ नहीं ॥ ११ ॥
उस स्वामीकी प्रसन्नवासे क्या लाभ है, जो कि सेवकोंके न्याय-युक्त मनोरथ पूर्ण नहीं कर सकता ? कोई लाभ नहीं। क्योंकि सेवकों के मनोरथ पूर्ण करनाही स्वामी प्रसादका फल है ॥ १२ ॥
- अधिकारी-युक्त राजा, कृतघ्नता, मूर्खता, लोभ, भालस्यसे हानिक्षुद्रपरिषत्कः : सर्पाश्रय इव न कस्यापि सेव्यः ।। १३ ।।
अकृतज्ञस्य व्यसनेषु न सहन्ते सहायाः || १४ || अविशेषज्ञो विशिष्ट नीयते ॥ १५ ॥ आत्मम्भरिः परित्यज्यते कलत्रेणापि ||१६|| अनुत्साहः सर्वेव्यसनानामागमनद्वारम् ॥ १७ ॥
अर्थ — जिसकी सभा में श्रमात्य आदि प्रकृति दुष्ट होती है, वह राजा सर्प-युक्त गृह समान महाभयङ्कर होता है, इसलिये वह किसीके द्वारा सेवन करने के योग्य नहीं ॥ १३ ॥
गुरु विद्वान ने कहा है कि 'यदि राजा इस समान शुद्धचित्त व सौम्य प्रकृति-युक्त भी हो, परन्तु यदि वह गृद्ध पहियों की तरह दुष्ट और घातक मंत्री आदि सभासदों से युक्त है, तो सपें-युक्त गृह समान अजा द्वारा सेवन करने योग्य महीं ॥ १ ॥
जो कृतघ्न है - दूसरों की भलाईको नहीं मानता, उसकी आपति कालमें सेवक लोग सहायता नहीं करते, अवयव प्रत्येक व्यक्तिको कृतज्ञ होना चाहिये || १४ ||
जैमिनि विज्ञानने भी कृतघ्नके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥
मूर्ख पुरुष शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवन नहीं किया जाता ॥ १५ ॥
१ तथा च ऋषिपुत्रकः— उपकारं गृहीत्वा यः करोति पुरुषा । जन्मान्तरेषु तस्य वृद्धिं याति कुसीदवत् ॥ १ ॥
२ तथा गुरुः--ईसाकारोऽपि भेाजा गुप्राकारैः सभासदः प्रसेयः स्यात् स लोकस्थ ससर्प इव संयः ||१ ३ मा जैमिनिः 1:- प्रकृतस्य भूपस्य समे समुपस्थिते । साहाय्यं न करोत्येव करिचराप्तोऽपि मानवः ॥ १०
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शुरू विद्वान ने कहा है कि 'कांचको मणि और मसिको कांच समझनेवाले भूर्ख राजाकी जब साधारण मनुष्य भी सेवा नहीं करता, फिर क्या विद्वान् पुरुष उसकी सेवा कर सकता है ? नहीं कर सकता ।। १ ।।'
कुटुम्ब आदि के संरक्षण में असमर्थ केवल अपनी उदर-पूर्ति करनेवाले अत्यन्त जोभी पुरुषको जब उसकी स्त्री भी छोड़ देती है, फिर दूसरे सेवकों आदि द्वारा छोड़े जानेके विषयमें दो कहना ही क्या है। अर्थात् वे वो उसे अवश्य छोड़ देते हैं ॥ १६ ॥
गुरु विद्वान्ने भो आत्मम्भरि-पेटूके विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
आलस्य सभी आपतियोंका द्वार है- आलसी समस्त प्रकार के कष्ट भोगता है ॥ १७ ॥ बादरायण विद्वानने भी कहा है कि आलसीको आपत्तियां कहीं पर भी किसी प्रकार नहीं छोड़वों ॥। १॥
उद्योग, अन्यायी, स्वेच्छाचारी, ऐश्वय-फल व राजाज्ञा---
शौर्यममर्षः शीघ्रकारिता सत्कर्मप्रवीण ॥ १८ ॥
अन्यायप्रवृत्तस्य न चिरं सम्पदो भवन्ति ||१३|| यत्किञ्चनकारी स्वैः परैर्वामिहन्यते ॥२० माझा फलमैश्वर्यम् ॥ २१ ॥ राजाज्ञा हि सर्वेषामलभ्यः प्राकारः ||२२||
अर्थ - उत्साही पुरुषों शूरता, दूसरे व्यक्तियों द्वारा अनिष्ट किये जाने पर क्रुद्ध होना, कर्तव्यशीघ्रता, व प्रशस्त कार्य चतुराई से करना ये गुण होते हैं ॥ १८ ॥ ॥
शौकन विद्वानने भी उत्साहीके उक्त सभी गुण निर्दिष्ट किये हैं ॥ १ ॥
अभ्यायी पुरुषकी सम्पत्तियां चिरकालीन नहीं होती - नष्ट हो जाती हैं ॥ १६ ॥
* विद्वान्ने भी अन्यायी सम्पत्तियोंके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥
1- काममा कार्य यो बेशि पृथिवीपतिः । सामान्योऽपि न सेवेत् किं पुनः ॥१॥ गुरु-उपार्जित पो भो याद कस्यचिचयेत् स्वयम् । चात्ममरिः स विश्वस्त्यस्यते भवपि॥१॥ पादरायणः- सास्वोपहतो यस्तु पुरुषः संप्रजायते । न्यसनानि न त स्यापि सत्य कथं ॥१॥
३ तथा
४ तवा च शौनकः— खोद कार्याकोपश्च श्रीप्रवा सर्वकर्मसु । तत्कर्मकः प्रयोगात्वमुत्साहम्य गुयाः स्मृताः ॥१u २६ अनि अन्यत्वेन प्रदुधस्य न चिरं सन्ति सम्पदः । अपि श्रोसमेतस्य प्रभूतविभवस्य च ॥१॥
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नीविनाक्यामृत
स्वेच्छाचारी-अपनी इच्छानुकूल प्रवृत्ति करनेवाला-प्रात्मीयजनों अथका शत्रुओं द्वारा मार दिया जाता है ॥२०॥
अत्रि विदामने भी कहा है कि 'झान-वृद्ध पुरुषोंसे विना पूछे ही अपनी इच्छानुकूज पलनेवाला पुरुष अकशहीन (मर्यावा-वाह) हुआ अपने कुटुम्बियों या शत्र प्रओं द्वारा वध कर दिया जाता है ॥ १॥
राजकीय ऐश्वर्य-सैन्य-कोश-शक्ति-प्रजा व प्रकृति (अमात्य-प्रभृति) द्वारा मामा-पालन से हो सफल होता है ॥२१॥
बलभदेव' विद्वान्ने भी कहा है कि "जिसकी प्राज्ञा सर्व-मान्य हो, वही राजा कहा जाता है, परन्तु जिसकी माझा नहीं मानी जाती ऐसा कोई भी व्यक्ति, केवल अभिषेक, व्यसन (अमरप्रभृतिसे हवा किया जाना) और पबंधन आदि चिन्होंस राजा नहीं हो सकता। क्योंकि उक्त अभिषेक आदि कार्य प्रण (फोदा) के भी किये जाते हैं । अर्थात् प्रण-फोड़ेका भी अभियेक (जलसे धोया जाना), वजन (पखोंसे हवा किया जाना) व पट्टबंधन (पट्टी बांधना) होता है ॥ १ ॥
राजकीय आज्ञा समस्त मनुष्योंसे उल्लङ्घन न किये जानेवाले प्राकार (कोट) के समान होती है। अर्थात् जिसप्रकार अत्यन्त विशाल व उंचा कोट उल्लकन नहीं किया जा सकता, उसीप्रकार रामकीय आशा भी किसीके द्वारा उल्लङ्घन नहीं की जाती ॥२२॥
गुरु' विद्वान्ने मी राजकीय आशाफे विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
राज- कत्र्तव्य (अपराधानुरूप दंड विधान), पाशाहीन राजाकी की मालोचना, सजाके योग्य पुरुष व मनुष्य-कर्तव्य-दूसरेका गुप्त रहस्य न कहना
आज्ञाभकारिणं पुत्रमपि न सहेत ॥२३॥ कस्तस्य चित्रगतस्य च विशेषो यस्यामा नास्ति ॥२४॥ राजाज्ञावरुद्धस्य तदाज्ञा न भजेन् *||२५॥
। तया च त्रिः-स्वेच्या वर्तते पस्नु न एराम् परियति । स परैन्मिठे नूनमारमोरी मिश: ॥५॥ २ तमाम स्वामदेव- स एवं प्रोपते राजा वस्याज्ञा सर्वतः स्थिता । अभिनेको प्रवस्थापि या परमेव च ॥ तथा गुरु:-प्रसम्मो को मोहामा प्राकार इव मानवः । पमादेशमसौ पचात् कार्य एष किस भूपम् ॥
रामाज्ञापन्दस्य पुनस्वदाज्ञाप्रतिपादन उत्तमसाहसो सम्बयामा तब्दावरचा इस प्रकारका पाठान्तर मू-तिपों में वर्तमान है, जिसका अर्थ यह है कि राजकीय माहासे जेलखानेकी सजा पाया हुमा भपराबी यदि फिरसे पाशा बस्काम करे तो उसे उत्तम साहसर (पूर्वाना विशेष कबी सजा) दिया आवे, पातु वंदेनेवासको उसका अपराध मालम न होने पर भी जसपर शक होनेसे उसे वही उत्तम साइसवंड दिया जाये।
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परमर्माकार्यमश्रद्धेयं च न भाषेत ॥ २६ ॥ अर्थ-राजा श्राझा-भंग करनेवाले पुत्रपर भी क्षमा न करे-यथोचित दंड देवे ॥ २३ ॥
नारद' विद्वानने कहा है कि 'राजाओंको आशा-भल होनेसे बिना शस्त्रके होनेवाला वध समान महाकष्ट होता है, इसलिये प्राण-रक्षाके इच्छुक पुरुषोंको किसी प्रकार भी राजकीय प्राक्षा उल्लान न करनी चाहिये ।। १॥
जिसकी प्राज्ञा प्रजाजनों द्वारा उल्लङ्घन की जाती है, उसमें और चित्र (फोटो) के राजामें क्या अन्तर है ? कोई अन्तर नहीं । अर्थात् असे मृत-प्राय समझना चाहिये ।। २४ ।
गुरुरे विद्वान उद्धरणका भी यहो अभिप्राय है ॥ १॥
जिसे राजकीय पक्षासे जेलखाने पानिको सजा मिल चुकी है, उस दरित पुरुषका पच नही करना पाहिये । अन्यथा पज्ञ करनेवाला सज्ञाका पात्र होता है ।। २५ ।।
भारद्वाज' विद्वानने भी सजा पाए हुए की पक्ष करनेवाले के विषयमें इसी प्रकार कहा है ।।१।। नैतिक पुरुष निरर्थक व विश्वास करनेके अयोग्य दूसरेकी गुप्त बात न कहे ॥२६ ।। भागुरि विद्वान के उद्धरणरोगी ही बात पनी होती!१॥ अज्ञात वेष-आधार, राज-क्रोध व पापी राजासे हानि, राजा द्वारा अपमानित म पूजित पुरुषवेषमाचारं पानभिज्ञातं न भजेत् ४ ॥२७॥ विकारिणि प्रमो को नाम न विरज्यते ॥२८॥ अधर्मपरे राशि को नाम नाधर्मपरः ॥२९ राज्ञायज्ञातो यः स सरवज्ञायते ॥३०॥ पजित पूजयन्ति लोकाः ॥३१॥
'परमर्मस्पर्शकामभरोषमसरयमतिमान व भाषेत इस प्रकारका पाठान्तर मू० प्रतियों में है, जिसका अर्थ है कि पिछी मनुष्य इसरोक हथको चोट पहुंचानेवासे, बिरखासके भयोम्प, अधिक मा-कोर हे पचन
। थाप नारदः-शाहामको नरेलाबामसस्त्रोच रमते । प्राणार्षिभिर्म व्यस्तस्मात् सोडाचन ५ सबा गुरु-पस्याहा बन्ति भूमौ स्पस्व मागणः । पाल्पगः स मनायो । मनः संचव ॥ । पा र मारदान:-विदो पलते पस्त पते: सामानमः । वस्ताव पते पस्नुस दोर्हो भोबरः ॥m बाप भागुरिः-पामर्म पत्ताय कापवाद' कथंचन । प्रबर विवादितमात्मकः ॥
x समाचार वाऽनभिजालन्न भनेव' इस प्रकार मू. प्रतियों में पाठ है, परन्तु ममेद पुष नहीं।
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नोविंवाक्यामृत
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अर्थ--विजिगीष ऐसे वेष (बहुमूल्य वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत कमनीय कान्ता-आदिके सुन्दर भेष) व व्यवहार-वोव-पर विश्वास न करे और न उन्हें काममें लावे जो कि अज्ञात-बिना जाने हुए वा माप्त पुरुषों द्वारा बिना परीक्षा किये हुए हों, क्योंकि शत्र लोग भी नाना प्रकार के छलकपट-पूर्ण वेश्याभों मादिके वेष व मायाचार-युक्त वर्ताव द्वारा विजिगीषको धोखा देकर भयङ्कर खतरेमें डाल देते हैं॥२७॥ जिस मनुष्यसे राजा कुपित होगया है, उसपर कौन कुपित नहीं होता है ? सभी कुपित होते हैं ॥२०॥
हारीत विद्वानके उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १॥ राजाके पापी होनेसे कौन पुरुष पापमें प्रवृत्त नहीं होता ? सभी होते हैं ॥ २६ ॥
न्यास' विद्वान्ने भी कहा है कि 'प्रजा. राजाका अनुकरण करती है । अर्थात् जैसा राजा वैसी प्रजा हो जाती है। वह राजाके धर्मात्मा होनेसे धर्मात्मा, पापी होनेसे पापी व दुष्ट होनेसे दुष्ट होजाती है ॥ १॥
जो व्यक्ति राजा द्वारा तिरस्कृत-अपमानित किया जाता है, उसका सभो लोग अपमान करने लगते है और राज-सन्मानित पुरुषकी सभी पूजा करते हैं ॥ ३०-३१ ।।
नारद विद्वान्ने भी राजा द्वारा तिरस्कृत व सन्मानितके विषयमें यही कहा है ॥१॥
राज-कर्तव्य ( प्रजा-कार्यका स्वयं विचार, प्रजासे मिलने से लाभ, न मिलने से हानि) व अधिकारियों की अनुचित जीविका
प्रजाकार्य स्वयमेव पश्येत् ॥३२॥ यथावसरमसङ्ग द्वारं कारयेत् ॥३३॥ दुर्दशी हिं राजा कार्याकार्य विपर्यासमासन्नैः कायंते द्विषतामतिसन्धानीयश्च भवति ३४
वैद्य'षु श्रीमतां व्याधिवर्द्धनादिव नियोगिषु भत् व्यसनादपरो नास्ति जीवनोपाय ३५ अर्थः-राजा प्रजा कार्य- शिष्टपालन व दुष्टनिग्रह आदि स्वयं ही विचारे व अमात्य आदिके मरोसे पर न छोदे, अन्यथा रिश्वतखोरी और पक्षपात घगैरहके कारण प्रजा पीड़ित होती है । ३२॥
देवल विद्वान्ने भो प्रजा कार्य को अधिकारियोंके भरोसे पर छोड़ देनेसे प्रजा-पीड़ा-आदि हानि बताई है ॥२॥
१ या हारीत:-विकाशन फुरुले योऽत्र प्रकृल्या नैव विति । प्रभोस्तस्य विरम्पेत निजा मपि प पन्धवः १ज्या च म्यास:-राशि धर्मिणि धर्मियाः पापे पापाः खले स्खलाः । राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा: un ३ वयान नारदः-अवज्ञातस्तु यो सशा स विद्वानपि मानवैः । अवज्ञायेत मूखोऽपि पल्यते नृपपूजितः ॥१॥ • प्रथा च देवलः- स्युर्विधारका राशामुस्कोचा प्राप्य वेऽन्यथा | विचारयन्ति कार्याणि तत् पापं नृपतेर्यतः
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राजा मोकेर परअपना राज-द्वार खुला रखे, जिससे प्रजा उसका दर्शन सुलभतासे कर सका।
गर्ग किम ने सो बाहादेवि वा एक मौका छोड़कर बाकी समयोंमें राजा अपना द्वार सदा सुरक्षित रखेप अवसर आनेपर भी प्रजाको अपना दर्शन न देवे निश्चयसे प्रजाको दर्शन न देने पाणे राजा का कार्य अधिकारी वर्ग स्वार्थ-वश बिगाड़ देते हैं और शत्रुलोग भी उससे बगावत करने तत्पर होजाते हैं, अतः प्रजाको राजकीय दर्शन सरलतासे होना चाहिए ।३४॥
राजपुत्र और गर्ग' विद्वान ने भी क्रमशः कहा है कि जो राजा अपने द्वार पर भाप हुए विद्वान् भनाध्य, दीन (गरीब) साधु व पीड़ित पुरुष की उपेक्षा करता है उसे अरमी छोड़ देती है ॥॥ स्त्रियों में पासक्त रहने वाले राजा का कार्य मंत्रियों द्वारा विगाड़ दिया जाता है और शत्र भी उससे युद्ध करने सत्पर होजाते हैं ॥२॥
जिस प्रकार धनिकों की बीमारी बगना छोड़कर वैचों की जीविका का कोई दूसरा समाप नही उसो प्रकार राजाको व्यसनों में फंसाने के सिवाय, मंत्री आदि अधिकारियों की जीविका का भी कोई दूसरा उपाय नहीं है सारांश यह है कि अशिष्ट वैधोंकी तरह अशिष्ट अधिकारी वर्गकी पूणित सारा लोक में देसी अनुचित प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः राजा को उनसे सावधान रहना चाहिये, जिससे वे उसे बसमों में फंसकर स्वयं रिश्वतखोर आदि न होने पावें ॥३५॥
रैप' विद्वान्ने कहा है कि जिस प्रकार धनिकों की बीमारी के इलाज करने से क्यों को विशेष सम्पचि प्राप्त होती है उसीप्रकार स्वामीको व्यसनमें कंसा देनेसे नौकरोंको सम्पत्ति मिलती है ॥ राज-कर्तव्य (रिश्वतखोरोंसे प्रजा-रक्षा) और रिश्वतसे मजा व राजकीय हानिः
कार्यार्थिनः पुरुषान् लम्चलञ्चानिशाचराणां भूतबलीम कुर्यात् ॥२६॥ लन्चलुच्चा हि सर्वपातकानामागमनद्वारम् ॥३७॥
६
मार गर्ग:-मुवावसरगुजारद । प्रस्थापि परिकले मोधना ) मा राजपुत्रः- शानिनं धमिनं धोनं योगिनं पासिंधु त । द्वारस्थं च सपोत स जिचा समुच्ये Hen काम गर्नः-सीसमासकरितो बहितिपः सप्रजायते । बाम सर्वहारा सविनीयोऽसमि
रैम्पः पराण पणा म्याधिषेचाना निधिकत्तमः । नियोगिनां क्या पा स्वामित्वसन सम्मका 'अर्विनः पुरुषाम् सम्या खुन्धान्ति, सम्स मूवार्षिक दि इस प्रकारका पाठान्तर मूवियों अमेव का नहीं।
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नीतियाक्यामृत
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मातुः स्तनमपि लुञ्चन्ति लञ्चोपजीविनः ॥३८॥
लञ्चेन कार्यकारिभिरूनः स्वामी विक्रीयते ॥३६॥ अर्थ-राजा पाये हुए प्रयोजनार्थी पुरुषोंको, बलात्कार-पूर्वक रिश्वत लेनेवाले (रिश्वतखोर) अमात्य आदि अधिकारियोंके लिये अपने प्राणों की बलि देनेवाले (रिश्वत देनेवाले) न बनावे । सारांश यह है कि रिश्वतखोरीसे प्रजा-पीड़ा, अन्याय-वृद्धि व राज-कोश-क्षति होती है, अतः राजाको प्रयोजनार्थी पुरुषोंका रिश्वतखोरोंसे बचाव करना चाहिये ।।३६||
शुक्र' विद्वान्ने भो प्रयोजनार्थियोंका रिश्वतखोरोंसे बचाव न करनेवाले राजाकी आर्थिक क्षतिका निरूपण किया है ॥ १॥
बलात्कार पूर्वक रिश्वत लेना समस्त पापों (हिंसा-श्रादि) का द्वार है ।।३जा
वशिष्ट विद्वानने ही पलूस: वियोर प्रधिकारियोंसे युक्त राजाको समस्त पापोडा माश्रय बतलाया है॥१॥
रिश्वतखोरीमे जीविका करनेवाले अन्यायी रिश्वतखोर अपनी माताका स्तन भी भक्षण कर लेते हैं-अपने हितैषियों से भी रिश्वत ले लेते हैं फिर दूसरोंसे रिश्वत लेना तो साधारण बात है ।।३।।
भारद्वाज' विद्वान्ने भी रिश्वतखोरोंकी निर्दयता व विश्वास घातके विषयमें इसी प्रकार मन किया है। रिश्वतखोर अपने उन्नतिशील स्वामीको बेच देते हैं। क्योंकि जिस प्रयोजनार्थीसे रिश्वत जी जाती है, उसका अन्याय-युक्त कार्य भी न्याय-युक्त बताकर रिश्वतखोरोंको सिद्ध करना पड़ता है, जिससे स्वामीकी मार्थिक वृद्धि होती है यहो रिश्वतखोरों द्वारा स्वामीका बेचना-पराधीन करना समझना पाहिये ॥ ३६॥
भृगु विज्ञान के जबरणका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
A 'सम्ोन कार्वामिल्छः स्वामी विक्रीयते' इस प्रकारका पाठ म० प्रतिमों में है, जिसमें कार्याभिः परका
'कार्यो कसा हुआ है, शेषार्थ पूर्ववत् है। ५ व्या च धुक्र:-कार्यार्थिनः समायातान् परर भूगो न पश्यति । स चाय पते तेषां दस कोरी न गाने १ तथा बशिष्ठ:--सम्लुम्पानको यस्य चाटुकभैरतो नरः । तस्मिन् सर्वाणि पापानि संघमन्ती सहा II । तथा च भारद्वाजः- सम्योपजीषिमो येऽन्न जनम्या अपि पस्तनम् । भन्यम्ति सुनिल भन्मबोकस का कमा ४ तथा / भृगुः-लश्वन कर्मण पत्र कार्य कुर्वन्ति भूपतेः । विक्रीतमपि भात्मानं नो जानाति स महधोः ॥
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स्वामीसमुद्देश
बलात्कारपूर्वक प्रजासे धन-महण करनेवाले राजा व प्रजाकी हानि, व राजकीय अन्याय की दृष्टान्तमाझा द्वारा कड़ी आलोचना
प्रासादध्वंसने लोहकीलकलाभ इव लञ्चेन राज्ञोऽर्थलाभः ||४०|| राज्ञो लञ्वेन कार्यकरणे कस्य नाम कल्याणम् ||४१ ॥
देवतापि यदि चौरेषु मिलति कुतः प्रजानां कुशलम् ॥४२॥ लुनाथपाश्रयं दर्शयन् देश कोश मित्रं तन्त्र ं च भक्षयति ||४३||
राक्षोsन्यायकरणं समुद्रस्य मर्यादालङ्घनमादित्यस्य तमः पोषयमिव मातुश्चापत्यभचणमित्र कलिकालविजृम्भितानि ॥ ४४ ॥
श्रर्थ- जो राजा बलात्कारपूर्वक प्रजासे घन प्रहण करता है, उसका वह अन्यायपूर्ण आर्थिक लाभ महलको नष्ट करके लोह कोलेके लाभ समान हानिकारक हैं । अर्थात् जिस प्रकार जरासे - साधारण लोह-कीले के लाभार्थ अपने बहुमूल्य प्रासाद (महल) का गिराना स्वार्थ- नाशके कारण महामूर्खता है, उसी प्रकार छुद्र स्वार्थके लिये लूट-मार करके प्रजासे धन-प्रहण करना भी भविष्य में राज्य क्षतिका कारण होनेसे राजकीय महामूर्खता है। क्योंकि ऐसा घोर अन्याय करनेसे प्रजा पोड़ित व संत्रस्त होकर बगावत कर देती है, जिसके फलस्वरूप राज्य क्षति होती है। अभिप्राय यह है कि राज्य सत्ता बहुमूल्य प्रासाद- तुल्य है, उसे चोर समान नष्ट करके तुच्छ क्षय ( लूटमार या रिश्वत ) रूप कीलेका प्रहण करनेवाला राजा हंसी का पात्र होता है, क्योंकि वह ऐसा महाभयङ्कर अन्याय करके अपने पैरोंपर कुल्हाड़ी पटकता है ॥ ४० ॥
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के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
जो राजा बलात्कार करके प्रजासे धनादिका अपहरण करता है, उसके राज्यमें किसका कल्याण हो सकता है ? किसीका नहीं ॥ ४१ ॥
भागुरि विहान भी अम्बानी राजाके विषय में इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
क्योंकि यदि देवता भी चोरोंकी सहायता करने लगे, तो फिर किस प्रकार प्रजाका कल्याय हो सकता है ? नहीं हो सकता । उसी प्रकार रक्षक ही जब भक्षक होजाय - राजा ही जब रिश्वतखोरों व ट मार करनेवालोंकी सहायता करने लगे, तब प्रजाका कल्याण किस प्रकार हो सकता है? नहीं हो सकता ॥४२॥
1:-द्वारेव यो हाम्रो मूमिवानांस की
लोककलामस्तु वः प्रासादध्वंसने ॥ ॥
२ तथा च भागुरिः समारमाथि यो राजोत्यधनं हरेत् । न तस्य किंचिद स्वार्थ कदाचिद संभाग प्र
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नोतिषाक्यामृत
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अनि ' विधामने भी अन्यायी लूट-मार करनेवाले राजाके विषयमें इसीप्रकार कथन किया है। रिश्चत षा सूट-मार आदि पहन पाय द्वार! पाक धन अपहरण करनेवाला राजा अपने देश (राज्य) खजाना, मित्र व पन्य नष्ट कर देता है ।। ४३ ।।
भागुरि विद्वामने भी रिश्वत व लूट-मार करके धन बटोरनेवाले अन्यायो राजाके विषयमें इसी प्रकार कहा है।
राजाका प्रजाके साथ अन्याय (लूट-मार धादि) करना, समुद्रकी मर्याता उल्लङ्गन, सूर्यको धेर। फैलाना व माताको अपने बच्चेका भक्षण करने के समान किसीके द्वारा निवारण न किया जाने वाजा महाभयङ्कर अनर्थ है, जिसे कलिकाल का हो प्रभाव समझना चाहिये । सारांश यह है कि जिसप्रकार समुद्र ही अपनी मर्यादा-सीमाका उल्लङ्घन करने लगे और सूर्य अपना प्रकाशधर्म छोड़कर लोकमें अंधकार का प्रसार करने तत्पर होजाय एवं माता भी अपने बच्चेका पालनरूप धर्म छोड़कर यदि उसे भक्षण करने लगजाय, तो इन्हें कौन रोक सकता है ? कोई नहीं रोक सकता, इसीप्रकार राजा भी अपना शिष्ट-पालन व दुनिग्रह रूप धर्म छोड़कर प्रजा के साथ अन्याय करनेको तत्पर हो जाय, तो उसे दर देनेवाला कौन हो सकता है ? कोई नहीं हो सकता और इसे कलि-दोष ही समझना चाहिये; असएवं राजाको प्रजाके साथ भन्याय करना उचित नहीं ॥ ४४ ॥ न्यायसे प्रजापालनका परिणाम, न्यायवान् राजाको प्रशंसा व राजकत्र्तव्य
न्यायतः पारपालके राशि प्रजानां कामदुघा भवन्ति सर्वा दिशः॥ ४५ ॥ काले वर्षति मघवान्, सर्वाश्चंतयः प्रशाम्पन्ति, राजानमनुवर्तन्ते सर्वेऽपि लोकपाला: तेन मध्यममप्य चमं लोकपालं राजानमाहुः।। ४७॥ भव्यसनेन चीलाधनान् मूलधनप्रदानेन सम्भावयेत् ।। ४८॥
राको हि समुद्रावधिर्मही कुटुम्ब, कलत्राणि च वंशवर्द्धनक्षेत्राथि ॥ ४६ ।। मर्थ-जब राजा न्यायपूर्वक प्रजा-पालन करता है, तब समग दिशाएँ प्रजाको अभिलषित बस्तु देनेवाली होती है, क्योंकि ललितकला, कृषि वाणिज्य-श्रादि की प्रगति न्याय-युक्त शासनके अधीन है ४५
नीतिकारों ने कहा है कि जब राजा प्रजा-पालनमें पिस्तित रहता है तब देशकी स्वार्थ सिद्धि होती है क्योंकि न्याय-युक्त शासनमें कृषक क्षेमसे धान्य भार धनाडा, ज्यापार द्वारा धन प्राप्त करते हैं ॥१॥
ज्या - अनिःश तुम्चामयुत्तस्य कोरकू स्याज्जनतासुखम् । यथा दुर्गाप्रसादेन चौरोपरि कृतेन च ॥ २ तथा भारत-दर्शनं लुम्चनास्प यः करोति महीपतिः । स देशकोशमित्राणां तन्त्रस्य च संकरः ॥ तमा धोक्वं-बाशा चिन्तापरे देशे स्वार्थसिद्धि : मजायते । रमेण कर्षका सस्यं प्राप्नुयु निमोधनम् ॥ 1 ॥
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स्वामीसमुश
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न्यायी राजाके प्रभावसे मेघोंसे यथासमय जल-वृष्टि होती है और प्रजाके सभी उपद्रव शान्त होते है तथा समस्त लोकपाल राजाका अनुकरण करते हैं-न्याययुक्त कर्त्तव्य पालन करने हैं ॥ ४६ ।।
गुरु विद्वान् ने भी न्याययुक्त शासनकी इसीप्रकार प्रशंसा की है ॥ १॥
इसी कारण विद्वान् पुरुष राजाको मध्यमलोकपाल-मध्यलोकका रक्षक-होनेपर भी उत्तम नोकपाल स्वर्गलोकका रक्षक कहते हैं ॥४॥
रैभ्या विद्वान् के अहागाका भी खड़ी अपाय है।
राजा प्रजाके उन कुटुम्बियोंको जो कि यत-क्रीड़न प्रभृति व्यसनोंके बिना ही केवल म्यापारआदिमें नुकसान (घाटा) लगजरनेसे दरिद्र हुए हैं, मूल धन (व्यापारियोंके लिये कर्जामें दिया जाकर उनसे वापिस लिया जानेवाला स्याई धन) देकर संतुष्ट करे ॥ १ ॥
शुक्र विद्वान् भी कहा है कि राजा जुवा-श्रादि व्यसनोंके कारण दरिद्र होनेवालोंको छोड़कर दूसरे दरिद्रता वश टुःस्त्री कुटुम्बियोंके लिये सौ सौ रुपये व्याजूना-कर्जा देदेवे ॥ १॥'
समुद्रपर्यन्त पृथ्वी (उसमें वर्तमान प्रजा) राजाका कुटुम्ब ई और अन्न-प्रदान द्वारा प्रजाका संरक्षण-संवर्द्धन करनेवाले खेत उसकी स्त्रियाँ है । अभिप्राय यह है कि धार्मिक राजाको प्रजाका जीवन-निर्वाह करनेवाली कृषिकी उन्नति करते हुए समस्त प्रजाको अपने कुटुम्ब समान समझ कर पालन करना चाहिये ।। ४६॥
राज-कर्त्तव्य व मनुष्यकर्त्तव्य स्वीकार न करने योग्य भेट, हंसी-मजाककी सीमा, वाद-विवादका निषेध व निरर्थक श्राशा न देना--
भर्थिनामुपायनमप्रतिकुर्वाणो न गृखीयात् ॥ ५० ॥ आगन्तुकरसहनैश्य सह नर्म न कुर्यात् ।। ५१ ।। पूज्य सह नाधिकं वदेवः ॥ ५२ ॥
१ तथा च गुरु:-इन्धादिलोकपाला ये पाथिये परिपालके । पालयन्ति च तद्राष्टं पामे चामं च ते॥॥ २ तथा च भ्या-[लम्चादिक्षिकमो राजा] मध्यमोऽपथ मानषैः । श्लाम्यते यस्तु सोकामा सम्पन्न स्थात् परिपायक
[संशोधित र परिवर्तित ३ तथा च शुर:-प्रतिकं च शतं अव्या देय राज्ञा कुटुम्बिने । सौवमानाप नो देष पूननिधनाय च ॥1॥ A 'पूज्य : सहाधिरुझ न पदत्' इस मकार मू० प्रहियोंमें पाठ है, जिसका अर्थ है शिप्ट पुरुषको मासम वगैरहपर ग.
रडता पूर्वक बैठकर पूज्य पुरुषोंके साथ बातचीत महों करनी चाहिये ।'
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मर्नु मशक्यप्रयोजनं च जन नाशया परिक्लेशयेत् A ॥ ५३ ॥ अर्थ-यदि गजा प्रयोजनाथियोंका इष्ट प्रयोजन सिद्ध न कर सके, तो उसे उनको भेंट स्वीकार न करनी चाहिये किन्तु षापिस भेज देनी चाहिये । क्योंकि प्रत्युपकार न किये जानेवाले मनुष्यकी भेंट स्वीकार करनेमे लोकमें हँसी व निन्याके सिवाय कोई लाभ नहीं होता !! ५० ॥
नारद विद्वान् ने भी इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
नैतिक मनुष्यको अपरिचित और सहन न करनेवाले व्यक्तियोंसे हँसी-मजाक न करनी चाहिये । क्योकि इसका परिणाम महाभयकर होता है, पुराण प्रन्थों में लिखा है कि रुक्मीने जुआ खेजते समय पसदेवकी हँसी की थी, परन्तु वे उसे सहन न कर सके; इसलिये उन्होंने क्रुद्ध होकर रुक्मीपर गदा-प्रहार द्वारा घात कर डाला || ५१ ॥
शौनक विद्वान्ने भी अपरिचित व सहन करनेमें असमर्थ पुरुषोंके साथ हास्य-क्रीड़ा करनेका निषेध किया है॥१॥
नैतिक व्यक्ति पूज्य पुरुषोंके साथ वाद-विवाद न करे ।। ५२ ।।
शुक्र विद्याम ने भी कहा है कि 'जो मूर्ख व्यक्ति पूज्यपुरुषोंके साथ वाद-विवाद करता है, वह लोकमें निन्दा और परलोकमें नरकके दुःख भोगता है ।।१।।
विषेकी पुरुष ऐसे व्यक्तिको धनादि देनेको श्राश्शसे क्लेशित न करे, जिसका उसके द्वारा भरणपोषण नहीं किया जा सकता अथवा जिससे उसको कोई प्रयोजन-सिद्धि नहीं होसकती ॥ ५३ ।।
शुक्र विद्वान् ने भी उक्त बावको इसीप्रकार कहा है ॥१॥
A 'भृत्यमशस्थप्रयोजन नाशया बोराये। इसप्रकार मू० प्रवियों में पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि स्वामीको प्रयोजन
सिवि में असमर्थ सेवकको पारितोषिक-माविका पोभ देकर स्लेशित नहीं करना चाहिये । , या नावा-बपापन न गृहणीपादि कार्य न साधयेत् । पर्थिना पृथ्वोपालो मो याति स ।। २ तथा च शौनकः-पायोनिति भूपः साई समागतः । ये चापि न सहन्तेस्म दोषोऽय पतोse:..|| । तथा च यः- सा विवाद यः कुरुले मतिवर्जितः । स गिन्दा समते लोके परत्र नरक बजेत् ॥1॥ ५ तथा यक:--विमेनुगशक्त यो जमः पृथ्वीमुना। स्थाशया म संवरमो विशेषायोजनः ।
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स्वामीसमुश mammana.................. .. मनुष्य जिसका सेवक है, दरिद्र व्यक्तिको लघुता व विद्या माहात्म्य
पुरुषस्य पुरुषो न दासः किन्तु धनस्य ॥५४॥ को नामधनहीनो न भवेन्ला A५५॥ सर्वधनेषु विद्य व धनं प्रधानमहार्यत्वात् सहानुयायित्वाच्च ॥ ५६ ॥ सरित्समुद्रमिय नीचोपगतापि विद्या दुर्दर्शमपि राजानं संगमयति ॥ १७ ॥ परन्तु भाग्यानां व्यापारः ॥ ५८ ॥सा खलु विधा विदुषां कामधेनुर्यतो भवति समस्त
जगत्स्थितिझानम् ॥ ५ ॥ अर्थ-लोकमें मनुष्य केवल हाथ-पाँववाले मनुष्यका सेवक नहीं होता, किन्तु इसके पनका सेवक होता है, क्योंकि जीवन-निर्वाह घनाधीन है ।। ५४ ।।.
शुरु विद्वान् ने भी इसीप्रकार कहा है ।। १ ।।
म्यास' विद्वान् ने भी महाभारतके भीष्मपर्यमें लिखा है कि 'महारमा भीष्मपितामहने युधिचिरसे कहा कि हे महाराज मनुष्य धनका दास है, परन्तु धन किसीफा दास नहीं। भवः मनके कारण ही में कौरवोंके अधीन हुआ हूँ ॥ १ ॥
लोकमें कौनसा दरिद्र मनुष्य लघु-छोटा-नहीं होता १ सभी होते हैं ॥५४॥ महाकवि कालिदास ने भी मेघदुत काव्यमें कहा है कि 'लोकमें सभी मनुष्य निर्धनता- दरिद्रतासे छोटे भौर पनसे बड़े होते हैं ।। १ ॥
सुषर्ण-मादि समस्त पनों में विद्याही प्रधान धन है, क्योंकि वह चोरों द्वारा पुराई नहीं जाती व जन्मान्तरमें भी जीवात्माके साथ जाती है ।। ५६ ॥
नारद विद्या ने भी इसीप्रकार विद्याकी महत्ता निर्देश की है॥१॥ जिसप्रकार नीचे मार्गसे बहनेवाली नदी अपने प्रवाह-वर्वी पदार्थो-तृणादिकोंको दरवर्ती समुरके
A. 'पराधीने मास्ति शर्मसम्पत्तिः इसप्रकारका विशेष (११२) सके पश्चातू पूर्व पुस्तकों -
मान है, जिसका अर्थ यह है कि पराधीन पुल्योको पुलपति प्राप्त नहीं होती। तपास गुरुः-पुमान सामान्यगावोऽपि न चासम्म स कर्मकृत् । वा बोलि पुनः कर्म बासरचला . रथा पम्पासः-अर्थस्थ पुरुषो पासो दासस्स्पों मस्यचित् । इति सत्य महाराज सोमपन . पाच महाकविः पालिदासः-रिक सर्पो भवति हिजपुः पूर्वता गौरवा . तथा च मारदः-बनानम्मेव सपा विधापनमनुत्तमम् । रिस्ते यम्म केनापि प्रस्थितेन सम प्रजेत् ।।
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नीतिवाक्यामृत
साथ मिला देती है, उसीप्रकार नीच पुरुषकी विद्या भी उसे बड़ी कठिनाईसे दर्शन होनेयोग्य राजासे
मिक्षा देवी है ॥ ५७ ॥
गुरुविद्वान् के उद्धरण से भी यही आशय प्रकट होता है ॥ १ ॥
परन्तु ऐसा होजानेपर भी राजा से अर्थ-लाभादि प्रयोजन सिद्धि उसके भाग्याधीन है, क्योंकि भाग्य के प्रतिकूल होनेपर विद्या प्रभाव नहीं होसकता ॥ ५८ ॥
गुरु विद्वान् ने भी इसीप्रकार विद्या प्रभाव निर्देश किया है ॥ १ ॥
विद्या निश्चयसे कामयेतु समान विद्वानोरथ पूर्ण करनेवाली है, क्योंकि उससे उन्हें समस् संसार में प्रतिष्ठा व कर्तव्य-बोध प्राप्त होता है ॥ ५६ ॥
शुक्र ' विद्वान् ने इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
लोक व्यवहार-निपुण की प्रशंसा, बुद्धि के पारदर्शी व कर्त्तव्यबोधन कराने वालों को आलोचनाःलोकव्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यवज्ञायक एव ॥ ६० ॥
ते खलु प्रज्ञापारमिताः पुरुषा ये कुर्वन्ति परेषां प्रतित्रोधनम् ॥ ६१ ॥
अनुपयोगिना महतापि किं जलधिजलेन ॥६२॥
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अर्थ - निश्चय से लोक व्यवहार जानने वाला मनुष्य सर्वज्ञ समान और लोक व्यवहार-शून्य विद्वान् होकर भी लोक द्वारा तिरस्कृत समझा जाता है ||६०॥१
नारद * विद्वान् ने भी व्यवहार चतुर की इसी प्रकार प्रशंसा की है ॥ १ ॥
जो मनुष्य सदुपदेश आदि द्वारा दूसरों को कर्त्तव्य बोध कराते हैं, वे निश्चयसे ज्ञान-समुद्र पारदर्शी हैं ॥६५॥
जैमिनि विद्वान् ने भी कहा है कि जो विद्वान् दूसरों को कर्तव्य-बोध कराने की कक्षा में प्रवीख है,
१ तथा च गुरुः– नीचानि च यो विद्यमानुसार बुद्धिमाचरः दुर्वमपि राजानं तत्प्रभावात् स पश्यति ॥18
३ तथा च गुरु- दुर्दर्शमपि राजान' विद्या दर्शपति भुवम् । आत्मप्रभावतो बोके तस्य मान्याणि केवलम् ॥ १ ॥ शुक्रः - विद्या कामदुधा धेनुर्विज्ञान संप्रजायते । यतस्तस्याः प्रभावेन पूज्याः स्युः सवतो दिशः ॥
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४ तथा नारदः -- लोकानां व्यवहारं यो विजानाति स पचिवसः । मूर्खोऽपि योऽयवान्यस्तु स विशेोऽपि मचा अहः ॥१
4 यथा च जैमिनिः--अथ विशाः प्रकुर्वन्ति येऽन्येषां प्रतिबोधनम् । सर्वज्ञास्ते परे पूर्खा बधे स्युर्घटदीपवत् ||११|
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अमात्यसमुरेश
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वे सर्वज्ञ हैं, परन्तु इसके विपरीत-कर्त्तव्यबोध न कराने वाले–घड़े में वर्तमान दीपक की तरह चल स्वयं विद्वत्ता युक्त हैं। वे मूर्ख है ॥शा'
जिस प्रकार उपयोग-शून्य पीने के अयोग्य (वारे) बहुत समुद्रजख से क्या लाभ १ कोई गम नहीं, उसी प्रकार विद्वान के कर्तव्य ज्ञान कराने में असमर्थ प्रचुर झान से भी कोई लाभ नहीं ॥६॥ शुक्र' विद्वान ने भी इसी प्रकार कहा है ॥११॥
इति स्वामि-समुद्देशः।
१८ अमात्य-समुद्देश सचिव-(मन्त्री) माहात्म्य, मंत्री के बिना राजकार्य हानि प रष्टान्तमाता द्वारा समर्थनचतुराऽस्ति यू ते नानमात्योऽपि राजा किं पुनरन्यः ॥ १॥
कस्य कार्यसिद्धिरस्ति ॥ २॥ नाकं चक्रं परिभ्रमति ॥३॥ किमयातः सेन्धनोऽपि पहिचलतिः ॥ ४ ॥ . अर्प-जब शतरम्ज का बादशाह मन्त्री के बिना चतुरङ्ग सेना (शतरब्ज के हाथी, प्यादे, भावि) सहित होकर भी उसका बादशाह नहीं हो सकता-अर्थात् उस खेल के पादशाहमादि प्रतिदियों ने परास्त कर विजय-श्री प्राप्त नहीं कर सकता, क्ष क्या पृथ्वीपति (राजा) हस्ति, भरव भादि पतुरङ्ग सैन्ययुक्त होकर के भी बिना मन्त्री के राजा हो सकता है । अर्थात् नहीं हो सकता ॥शा
या :-कितया विषया काप मा र बोधयते पराम् । भूतरचापि कि सोवन्य चा गः ॥॥ A चतुरनुवोऽपि मानमात्यो राजास्ति, कमरेका' इसप्रकारका पाठातर मु० प्रतियों में वर्तमान है, परन्त इसमें
रावर वादगाह कप स्पा द्वारा प्राविषयों का समर्थन नहीं है, पार्य पूर्ववत है। B'प्रात: सेजनोऽपि इत्यादि पाान्तर मु. म. प्रतिमें है, जिसका अर्थ यह है कि जिसप्रकार प्रति प्रबर पारंग युज प्रालिको शुभा देवी सीप्रकार प्रतिस-बिरुद मंत्री भी राज्य-विन पेवा है-सम्पादक
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नीतिवाक्यामृत
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गुरु' विद्वान् का उद्धरण भी उक्त यातका इसी प्रकार समर्थन करता है ॥१॥
जिसप्रकार रथ आदि का एक पहिया दूसरे पहियेकी सहायताके बिना नहीं घूम सकता, उमी प्रकार अकेला राजा भी मंत्री आदि सहायकोंके बिना राजकीय कार्य (मन्धि विग्रह प्रभृति) में सफलना प्राप्त नहीं कर सकता ॥ २-३ ॥ एवं जिस प्रकार अग्नि ईन्धन युक्त होनपर भी बाके विना प्रचलित नहीं हो सकसी उसीप्रकार बलिष्ठ व सुयोग्य राजा भी राज्यशासन करने में समर्थ नहीं होसकता ॥ ४॥
बलभदेव विद्वान् के उद्धरणसे भी उक्त बातकी इसी प्रकार पुष्टि होती है ॥ १ ॥ मन्त्री-लक्षण, कर्तव्य, व श्राय-व्ययका दृष्टान्त--
स्नकर्मोत्कर्षापकर्षयोर्दानमानाभ्यां सहोत्पत्तिविपत्नी येषां तऽमात्याः ॥ ५॥ श्रायो ध्यय: स्वाभिरक्षा तन्त्रपोपणं चामात्यानामधिकारः ।। ६ ॥
आयव्ययमुखयामु निकमण्डलुनिंदर्शनम् ॥ ७ ॥ अर्थ:-जो राजा द्वारा दिये हुए, दान-सन्मान प्राप्त कर अपने कर्तव्य पालनमें उत्साह व पालम्य करनेसे क्रमशः राजाके साथ सुखी-दु:खी होते हैं, उन्हें 'अमात्य' कहते हैं।। ४ ।
शुक्र' विद्वानने भी कहा है कि 'जो राजाके सुख-दुःखमें समता-युक्त-सुखो-दुःखी होते हो, उन्हें राज्य-मान्य 'अमात्य' जानना चाहिये ॥१॥
मन्त्रियोंके निम्न प्रकार चार मुख्य कर्तव्य है । १ आय-सम्पत्तिको उपस करनेवाले उपायों (समुचित टेक्स प्रभृति) का प्रयोग, २ व्यय-स्वामी की आज्ञानुसार मामदनी के अनुकूल प्रजा-मरक्षणार्थ सैनिक विभाग-प्रादि में उचित खर्च, ३ स्वामी रक्षा (राजा व उसके कुटुम्बका संरक्षण), हार्थी-घोड़ा प्रभृति चतुरग सेनाका पालन-पोषण ॥ ६ ॥
शुक्र' विद्वानके उद्धरणका भी यही अभिप्राय है॥१॥
सम्पत्तिकी श्रामदनी घ खर्च करनेमें मुनियोंका कमरहलु स्वान्त सममाना चाहिये । अर्थात् जिम प्रकार मुनिराजका कमण्डलु जल-प्रहण अधिक परिमाणमें व शीघ्रतासे करता है, परन्तु उसका खर्च
-- - १ सदा र गुरु-चतुरऽपि नोच से मन्त्रिणा परिवर्जितः । स्वयक मोशः स्यात् किं पुनः पृथिवीपतिः ।।१।। २ तथा च बहसमदेषः-किं करोति समर्थोऽपि राजा मन्त्रिपर्जितः । प्रदीप्तोऽपि यथा वहि: समीस्वविना झवः ॥
या शुक्र:-प्रसादे प्रसादे व येषां च समवास्थितिः । प्रभात्यास्ते हि विजया भूमिपासस्य संमना: ॥ ४ तया च शुक्रः-- भागतिव्ययसंयुक्ता तथा स्वामीरपणम् । तन्त्रस्म पोषणं काय मन्त्रिभिः सर्वदेव हि ॥
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अमात्यसमुदंश ........................ प्रास निष्कासन (निकालना) सूक्ष्म नलोके अप्रभाग द्वारा धीरे २ करता है, उसीप्रकार नैतिक पुरुष व राज-मन्त्रीको क्रमशः म्यापारादि द्वारा और टेक्स द्वारा सम्पचिकी आमदनी अधिक परिमाणमें करते परमाप सर्च करना चाहिये ।।४।।
. गुरु विद्वाम्ने भो कहा है कि 'मन्त्रियोंको खर्चकी अपेक्षा घनकी आमदनी अधिक परिमाणमें अनी चाहिये, अन्यथा राज्य-इति होती है ॥ १॥ भाय-व्ययका साक्षण, बामदनीसे अधिक खर्चका निषेध, स्वामी शब्द का अर्थ और तन्त्रका लक्षण
आयो द्रव्यस्योत्पत्तिमुखम् ।।८ पथास्वामिशासनमर्थस्य विनियोगो व्ययः|६।। भायमनालोच्य व्ययमानो वैश्रमणोऽप्यवश्यं श्रमणायने ॥१०॥ रामः शरीरं पर कसत्र मास्यामि मा सामिशब्दाः ॥१६॥ तन्त्रं चतुरावलम्॥१२॥
भर्ध-सम्पति उत्पन्न करनेवाले न्यायोषित साधन उपाय कृषि, व्यापार व राज पचमें उचित कर-टेक्स लगाना-भाविको 'माय' (भामदनी) कहा है ॥८॥ स्वामीकी आज्ञानुसार धन खर्च करना 'इयर' १ सारांश यह है कि राजनैतिक प्रकरण में मंत्रीको राजाकी अशापूर्वक राजकोश से सैन्य-रका मावि में धन खर्ष करना चाहिए ॥६॥ जो मनुष्य भामदनी को न विचार कर अधिक खर्च करता है, वह कोर समान असव धन का स्वामी होकर भी मिलुक समान भाषरण करता है-दरिद्र होजाता है, फिर अपनी मनुष्य जाहिरोमा को लाभाविक राजा का सीर, धर्म, रानियां - पामार इनका स्वामी शबसे बोध होता है। सारांश यह है कि मंत्री को इन सबकी रथा करनी चाहिये म्योकि इनमें से किसीके साथ और विरोध करनेसे गला रुष्ट होजाता है ॥१६॥ चतुरङ्ग (हावी, पोदे भरणा गेही व पैदल इन पारी बापासी) सेनाको 'तन्त्र' कहा है ॥१२॥ मंत्री के दोष और उनका विवेचन एवं अपने पेशका मंत्री--
वीरगनवस्वमशुचि व्यसनिनमशुदाभिजनमशक्यप्रत्यावर्तनमतिष्पयशीलमन्यात देशापात्रमविधिका धामात्यं न कुर्वीत ॥१३॥ तीयोऽभियुक्तो प्रियते मारपति का
पुरु-पापोयलाकारों बालित्पन्न मनिलमि।। विपरीतो वयो यस्य स राज्यस्य विmam Aइसके पश्चात 'पल्पाग' पब म.प्रतियों में है, जिसका अर्थ योकी पाप करनेवाला है।
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नीतिवाक्यामृत
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स्वामिनम् ।।१४गबलवत्पदो नियोगाभियुक्तः कन्लोलइय समूल नृपांघ्रिपमुन्मूलयति ॥१५॥ अल्पायतिर्महाव्ययो भक्षयति राजार्थम् ॥१६॥ अल्पायमुखो जनपदपरिग्रही पीड़यति ॥१७। नागन्तुकेष्वर्थाधिकारः प्राणाऽधिकारो वास्ति यतस्ते स्थित्वापि गन्तारो ऽपकर्तारो वाB ॥१८॥ स्वदेशजेष्वर्थः कूपपतित इव कालान्तरादपि लन्धु
शक्यते ॥१६॥ चिक्कणादर्थलामः पाषाणादन्कलोत्पाटनमिव । २०॥ अर्थ-रामा या प्रजा को निम्न प्रकार दोषन्दूषित व्यक्ति के शिव मंत्री पद पर नियुक्त नहीं करना पाहिये ।१ अत्यंत क्रोधी, २ जिसके पछमें बहुतसे शक्तिशाली पुरुष हों, ३ वाम-अभ्यन्तर संबंधी मलिनता से दूषित, ४ व्यसनीयत-क्रोक्न मद्यपान आदि व्यसनोंसे दूषित, ४ नीचकुलवाला, ६६ठी-जो उपदेश द्वारा मसत् कार्य करने से न रोका जासके, ७ आमदनी सेभी अधिक खर्च करने वाला, 5 परदेशी और
रुपण (लोभी) अभिप्राय यह है कि ये मंत्रीमें वर्तमान दोष राज्य-क्षतिके कारण हैं। क्योंकि क्रोधी पुरुष मंत्री होनेसे जब कभी भपराधवश दण्डित किया जाता है, तो वह अपनी करप्रकृति के कारण या तो स्वयं मर जाता है अथवा अपने स्वामी को मार डालता है इसी प्रकार जिसका पक्ष-माता-पिता-आदि वशिष्ठ होता है, वह अपने पक्षकी सहायता से राजा को नष्ट कर देता है। इसी तरह अपवित्र मंत्री प्रभाव होन व राजाको अपने स्पर्शसे दूषित करता है । एवं व्यसनी कर्तव्य-अकत्तव्य के ज्ञान रहित,नीष कुल्लका थोड़ासा वैभव पाकर मदोन्मत, हठी दुराग्रह-वश हितकारक उपदेशकी अवहेलना करनेवाला, अधिक खपीला स्वाप-शति होनेपर राजकीय सम्पचि कोभी हदप करनेवाला, परवेशी मंत्री प्रजाकी भलाई करने में असमर्थ स्थिरतासे अपना कर्तव्य पालन न करनेवाला एवं लोभी मंत्री भो कर्तव्य-पराम्मुःख होता है । पहा दोष-क्षिप्त पुरुषको मंत्री नहीं बनाना चाहिए ॥१३॥ एक विद्वान उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
क्रोधीमंत्री होनेसे अपराध-वरा दखित किए जाने पर अपनी कर प्रकृति-वश विचार-शून्य होकर वा तो स्वयं अपना या अपने स्वामीका घात कर डालता है ॥१४॥
प्रबल पाचाला व्यक्ति मंत्रीपद पर नियुक्त हुआ महान् नदी पर समान राजारूपी पृथको जासे प्रसाद देता है। अर्थात् जिसप्रकार नदीका शक्तिशाली अल-प्रवाह अपने सटवी वृहों को जड़से पसार
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A इसके पश्चात् 'मतगव इए यह पद सू० प्रतियों में है, जिसका अर्थ मदोन्मत हाबी प्रामदनीकेसमान आमना साहस
शेष पूर्ववत् | B'सस्ते पद से खेकर अखीर वकका पाठ म०प्रतियों से समान किया गया है। प्यार एक- तीजकुर दुरापारमकुणीनं विदेशजम् । एकमाई म्मयप्रायं कृपय मन्त्रि त्यजेत् ॥१॥
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अमात्य समुद्देश
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देता है, उसीप्रकार शक्तिशाली कुटुम्ब युक्त मंत्री भी राज-रूपी वृद्धको जड़से उखाड़कर फेंक देता है ॥१५॥
शुक्र + विद्वानने भी बलिष्ठ पक्षवाले मंत्रीके विषय में इसी प्रकार कहा है ||१||
जो मंत्री राज कोशमें आमदनी कम करता हुआ खा जाता है- नष्ट कर डालता है । १६ N
अधिक खर्च करता है, वह राजकीय मूलघन
गुरु विज्ञानके उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ||१||
थोड़ी आमदनी करनेवाला मंत्री दरिद्रवाके कारण देश व राजकुटुम्ब को पीड़ित करता है ॥१ गर्ग * विद्वान्के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ||१||
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राजाका कर्तव्य है कि वह विदेशी पुरुषोंको धनके माय व्ययका अधिकार एवं प्राण-रक्षा करनेका अधिकार न देवे । अर्थात् उन्हें धर्म-सचिव व सेना सचिव के उत्तर दायित्व पूर्ण पदों पर नियुक्त न करे । क्योंकि वे उसके राज्यमें कुछ समय ठहर करके भी अपने देश को प्रस्थान कर जाते हैं एवं मौका पाकर राजद्रोह करने लगते हैं। अतः अर्थसचिव व सेना सचिव अपने देशका योग्य व्यक्ति होना चाहिए ॥१८॥ शुक्र विज्ञानने भी कहा है कि जो राजा अम्यदेश से आये हुए पुरुषोंको धनके आय व्ययका व शरीर रक्षा अधिकार देता है वह अपना धन व प्राण खो बैठता है ॥१॥
अपने देशवासी पुरुषों को अर्थ सचिव आदि पदों पर नियुक्त करनेसे उनके द्वारा लोभवरा महब किया हुआ धनकुमें गिरो हुई धनादि वस्तु के समान कुछ समबके बाद भी मिल सकता है । भर्वात् जिसप्रकार कुएं में गिरी हुई धनादि वस्तु कालान्तर में प्राप्त की जासकती है, उसीप्रकार अपने देशसे अि कारियों— अर्थ सचिव आदि द्वारा कारणवश ग्रहण किया हुआ धन भी कालान्तर में मिल सकता है, परन्तु विदेशी अधिकारियों द्वारा गृहीत धन कदापि नहीं मिल सकता, मदः धर्म-सचिव मादि मंत्री मक्ष अपने देशका ही होना चाहिये ।। १६ ।।
नारद 'विद्वान्ने भी स्वदेशवासी अर्थ-सचिवके विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥ अत्यन्त कृपया मन्त्री जब राजकीय मन महस कर सेवा है, वथ उससे पुनः मन वापिस मिलन
- भामन्त्री संगति पार्थिवद् कस्योयो पारध
१ सया च गुरु- मन्त्रियं कुते वस्तु वा महाव्ययम् । धात्मविचस्य भसक होति गायमुखमेमात्र मन्त्रिचं प्रकरोतिषः तस्य राष्ट्रवादिपाचैव॥1॥
३
८ तथा च शुक्रः- अम्बरेच पोविकार भोवद ददाति माधर का सोऽर्थान्यते ॥१॥
५ व्या च नारदः—अधिकार राज्य यः करोति स्वदेश । तेन गृही बदन मृग १ ॥
मह ॥१॥
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नोतिवाक्यामृत
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पाषाणले बक्कल छोलने समान असंभव है। अर्थात जिसप्रकार पत्थरसे वकाल निकालना असंभव है, उसीप्रकार अत्यन्त लुब्ध मंत्रीसे गृहीत धनकी प्राप्ति भी असम्भव है, अतः कृपण पुरुषको कदापि अर्थमंत्री मादि पदोंपर नियुक्त नहीं करना चाहिये ।। २० ।।
अत्रि विद्वान्के उद्धरणका भो यही अभिप्राय है ॥ १ ॥ योग्य-अयोग्य अधिकारी, अयोग्योंसे हानि, बंधु सम्बन्धके भेद व लक्षण- सोऽधिकारी य: स्वामिना सति दोषे मुखेन निगृहीतुं शक्यते ॥ २१ ।।
माझण-पत्रिय-सम्बन्धिनो न कुर्यादधिकारिणः ॥ २२ ॥ प्रामणो जातिवशासिमप्यर्थ कच्छूण प्रयच्छति, न प्रयच्छति वा ।। २३ ।। पत्रियोऽमियुक्तः स्वड्ग दर्शयति ॥ २४ ॥ सम्बन्धी ज्ञातिमावेनाक्रम्य सामवायिकान् सर्वमप्यर्थ ग्रसते ॥ २५ ॥ सम्पन्धस्त्रिविधा श्रौतो मौख्यो यौनश्च ॥ २६ ।। सहदीक्षितः सहाध्यायी वा श्रोतःB ॥ २७ ॥ मुखेन परिक्षातो मौख्यः ॥२८॥ यौनेर्जातो यौनः ॥ २६ ॥ वाचिकसम्बन्धे नास्ति सम्बन्धान्तरानुवृतिः ॥ ३० ॥
भई-वही व्यक्ति मन्त्री आदि अधिकारी परके योग्य है, जो अपराध करनेपर राजा बारा सरखतासे दखित किया जा सके ॥२१॥
किसी नीति विद्वान उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १॥ राजाके मामण, सत्रिय व बन्धु आदि सम्बन्धियोंको अमात्य आदि अधिकारी नहीं बनाना
याशि :-mवं पदो पात् कपणेन हरा एनम् । यतस्ता प्रश्न येत् तस्मात्तं दुरवस्त्यजेत् ॥ १॥ इसके स्थान में 'मैत्री' ऐसा पाठान्तर मूल प्रतियों में वर्तमान है जिसका अर्थ राजाका मित्र रूप अमात्य है। B पितामहापागतः वः इसप्रकारका पाठान्तर मूल प्रवियों में है, जिसका अर्थ यह है कि पंह परम्परासे को
जाने बाई चमात्यको और पाते हैं cात्ममा प्रतिपको मैत्रः समकारका प्रतियों में पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो राजाके पास में बोके
लिए पापा हो और उसने उसे मित्र मान बिया हो। नया पोत- सोविकारी सदा स्मः कृत्वा पोषं महोदने । ददाति याचितो व साम्नाय समयमामा ॥३॥
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अमास्यसमुरेश
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पाहिये ॥ २२ ॥क्योंकि प्राह्मण अधिकारी होने पर अपनी जाति स्वभावके कारण प्रहण किया हुभा धन पड़ी कठिनाईसे देता है अथवा नहीं देता ।।२३।। ___ सारांश यह है कि धन-लम्पटता व कातरता ब्राह्मण जातिका स्वाभाविक दोष है, अतः उससे गृहीत राज-धनकी प्राप्ति दुर्लभ है, इसलिये ब्राह्मण अधिकारी पदके योग्य नहीं ।। २३ ॥
इत्रिय अधिकारी विरुद्ध हुआ तलवार दिखलाता है । सारांश यह है कि क्षत्रिय अधिकारी द्वारा महण किया हुआ धन शस्त्र प्रहारके विना नहीं प्राप्त होसकता, अतएव उसे मंत्री आदि पदपर नियुक्त नहीं करना पाहिये ।। २४ ॥ जब राजा द्वारा अपना कुटुम्बी या सहपाठी गन्धु आदि मंत्री आदि अधिकारी बनाया जाता है, तो वह 'मैं राजाका बन्धुहुँ' इस गर्वसे दूसरे अधिकारियोंको तुच्छ समझ कर स्वयं समस्त राजकीय धन इड़प कर लेता है। अर्थात् सब अधिकारियोंको तिरस्कृत करके स्वयं अत्यन्त प्रबल स्त्रियामो होजाता है ॥ २५ ॥
बन्धु तीन प्रकारके हैं-(१) श्रीन, (२) मौख्य और (३) यौन ॥२६॥
जो सहकान्य-लहसो सम्पनी दोहा के साथ ही अमान्य-पदकी दीक्षासे दीक्षित हुमा हो। अर्थात् जिसप्रकार रानाका राज्य लक्ष्मी वंशपरम्परासे-पिता व पितामह के राजा होने से प्राप्त हुई है, इसीप्रकार जिसे अमात्य पद भी वंश परम्परासे प्राप्त हुआ हो । अर्थात् जिसके पितामह व पिता भी इसी
समें पहले श्रमात्य पद पर आसीन हो चुके हों, पश्चात् इसे भो कुल क्रम-वंशपरम्परासे अमास्य पदश्री प्राप्त हुइ हो, उसे अथवा राजाके सहपाठोको श्रोत बन्धु कहते हैं ॥२७॥ जो मौखिक वार्तालाप व सह
बास प्रादि के कारण राजाका मित्र रह चुकी है, वह 'मौख्या है॥ २६ ।। राजाके भाई व पपा वगैरह । यौन बन्धु हैं ॥ २६॥ E वार्वाजाप क सहवास आदिके कारण जिसके साथ मित्रता संबंध स्थापित हो चुका है जो राजा
का मित्र बन चुका है-उसे दूसरे अमात्य आदिके पदोंपर नियुक्त नहीं करना चाहिये । क्योंकि ऐसा करनेसे वह राजकीय आज्ञाका उल्लकन करेगा, जिससे राजाके वचनोंको प्रतिष्ठा नहीं रह सकती, अतः मित्रको भी मंत्री पदपर नियुक्त नहीं करना चाहिये ॥ ३० ॥
अधिकारी (अर्थ सचिव व सेनासचिव -आदि) होनेके अयोग्य व्यक्तिन तं कमप्यधिकुर्यात् सत्यपराधे यमुपहत्यानुशयीत ॥ ३१ ॥ मान्योऽधिकारी राजाज्ञामवनाय निरवग्रहश्चरति ॥ ३२॥ चिरसेवको नियोगी नापराधेश्याशकते ॥ ३३ ॥
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नीतिवाक्यामुव
उपकर्माधिकारस्य उपकारमेव ध्वजांकृत्य सर्वमवलुम्पति ॥ ३४ ॥ सहपाशुक्रीरितोऽमात्योऽतिपरिचयात् स्वयमेव राजायते ॥ ३५ ॥ अन्तर्दुष्टो नियुक्तः सर्वमनर्थनुत्पादयति ॥ ३६ ॥ शकुनि शकटालापत्र दृष्टान्तौ ॥ ३७ ॥ सुहृदि नियोगिन्यवश्यं भवति घनमित्रनाशः ॥३८॥ मूर्खस्य नियोगे भतु धर्मार्थयशसा संदेहो निश्चिती चानर्थ-नरकपातौ ॥ ३६॥
मर्थ-राजा पूर्वोक्त तीनों प्रकार के बन्धुनों में से किसी बन्धुकी भावना ऐसे किसी पुरुषको पर्व मंत्री भादि अधिकारी-पद पर नियुक्त न करे, जिसे अपराभ-वस की सजा देनेपर पश्चाताप करना पड़े ॥३॥
गुरु'विद्वान् ने भी अ-सचिवके विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥१॥
राजाको पूज्य पुरुषके लिये अधिकारी नहीं बनाना चाहिये, क्योंकि वह अपने को राजा द्वारा पूम्म समझकर निबर व माल होता हुमा राजाकी माझा उम्मान करता है व राजीव-पनका अपहरण मावि मनमानी प्रवृत्ति करता है, जिससे राजकीय अर्थ पति होती है ॥३२॥
नारद विद्वान् ने भी राध-पूज्य पुरुषको अधिकारी बनाने से वही हानि निरूपण की है ॥१॥
चिरकालीन-पुराना-सेवक भषि. . ... हुमा भविपरिचयके कारय चोरी-बारि अपराध कर लेनेपर भी निडर रहता है, जो पुराने सेबसको भधिकारी न बनाये ॥ ३३॥
वेवल विद्वान ने भी चिरकालीन सेवकको-मर्च-सचिव बनाने विस्वमें इसीप्रकार निशेष लिया॥१॥
जो राजा अपने उपकारी पुरुषको अधिकारी पदपर नियुक्त करता है, तो यह (अधिकारी) पूर्वत्र पकार राजाके घमा प्रकट करके समन्व राजकीय पनप कर जाता है, मका उपकारीको परिकारी महीपनामा चाहिये ॥३४॥
पनि विद्या के बारणका मी पही अभिमान है ॥ रावा पेसे बाल मित्र म्यक्तिको समविषादि प्रक्रीिन बनाये, बो किवा सो
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वा- गुरु-सम्मान माया गरियोजनाकार रहा रव्या मार-मासोकसी मान्योममिति मात्रामा मार दिनमा पनि
वाव देसामवंदो राजा विका मोसमापन शाबमो •पाच पवि-परिव मूषो माविका मिलोबत मामला
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अमात्य समुदेश
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साप धूलिमें खेख चुका हो; क्योंकि वह अति-परिचयके कारण अभिमान-वश अपनेको राजा समान सममता ॥
मिनि विद्वान् के संगृहीत श्लोकका भी यही आशय है ॥ १॥ कर हृदयवाला पुरुष अधिकारी बनकर समस्त अनर्थ उत्पन्न करता है ॥ ३६ ।। गर्ग विद्वान ने भी दुष्ट हृदयवाले व्यक्तिको अमात्य बनानेसे राज्य-चति होनेका निर्देश किया है।
राज द्वेषी कर हृदयवाने पुरुषको मंत्री बनानेस जो हानि होती है उसके समर्थक शकुनिक दुर्योधनका भामा जिसे उसने कोरवोंका राज-मंत्री बनाया था) और शम्टाल (नन्द राजाका मंत्री) ये दो ऐतिहासिक उदाह्मण जानने चाहिये । अर्थात् उक्त दोनों दुष्ट हृदयवाले मंत्रियोंने अपने स्वामियों ने द्वेष कर राज्य में अनेक अनर्थ उत्पन्न किये, जिसके फल स्वरूप राज्य-क्षति हुई ॥ ३७॥
मित्रको अमात्य आनि अधिकारी बनानेसे राजकीय-धन व मित्रताको क्षति होती है । अथोत् मित्र अधिकारी गजाको अपना मित्र समझकर निभयदा-पूर्वक उन होकर उसका धन खा लेता है, जिससे राजा उसका बध कर डालता है, इस प्रकार मित्रको अधिकारी बनानेसे राजकीय धन व मित्रता दोनधि नाश होता है, अत: मित्रको अधिकारी नहीं बनाना चाहिये ॥३८॥
रैभ्य' विद्वान्ने भी मित्रको अधिकारी बनानेसे यही हानि निर्दिष्ट की है, १॥
मूर्खको मन्त्री-आदिका अधिकार देनेसे स्वामीको धर्म, धन व यश प्राति कठिनाईसे होती है अथवा निश्चित नहीं होती। क्योंकि मूर्ख अधिकारीसे स्वामीको धर्मका निश्चय नहीं होता और न धन प्राप्ति
--. -.--.-....-. -..--..- -- - - - - - - -- - मिनि:-पाल्यातप्रभूति यःसार्च कोषितो मभुजा सदा । स च स्यान्मानिलयः स्थाने सन्मन पार्विचारते २ वथा व गर्ग:-अन्तयममात्य था कुरुते पूर्थिवीपतिः । सोऽमर्थानित्यवः कृत्वा सय विनायवेत् ।। . गनिमा पसात- गान्धार देश के राजा सुपसका पुत्र । दुर्योधनका मामा पा, मोकि कोष (वार
पुन पुर्पोधन द्वारा राज-मंत्री पदपर नियुद्ध किया गया था। याबदामापय था, इसखिये व पावकि सवाल अपशावासकी अवधि पूर्वाईप महात्मा फस मीखि निपुर विवरणीने इसे बहुत समझाया कि कार पापडयोका बाप-मात राज्य दुर्योधमसे वापिस दिखा दो, परन्तु इसने न मानी और पासों से पैरविरोध रस्सा और दुर्योधनको उस मे सन्धि करने दी । जिसके फवासमा महाभारत या, जिमें
इसने अपने स्वामी दुर्गोपनका पण बापापा और स्वयं मारा गया। x शामका चान्द-बह से ११० वर्ष पूर्व राजा नन्दा मंत्री था, जोकि परा बुथ क्या।
अपाण-परा अहवासाने हो की सजा दी गई हो । छ दिनोके परचात् माने इसे खानेसे : राम-मंत्री पवपर अभिहित ाि , परम्न बह साले उदया, इसलिये यह उसके पातकी प्रवीशमहापा, अतः अक्सर पाकर यह हाट बाम प्रधान-अमाव पाविश्वसे मिक्षा गवार उसकी सहायताले इसी
अपने स्वामी रामानन्दको मरवा सका। पारेबा-नियोगे संलिपुत्रस्त सहवित्तमायेन् । स्नेहाधिरेन नि:शस्तयो कमवाप्नुयात् ॥1॥
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नोतियाक्यामृत
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होती है। एवं यश-प्रामिभी नहीं होती। परन्तु दो बातें निश्चित होती है, (१) स्वामोको आपतिमें फंसना भौर (२ उसे नरक लेजाना । अर्थात् मूर्ख अधिकारी ऐसे दुष्कृत्य कर बैठता है, जिससे उसका स्वामी भापग्रस्त हो जाता है एवं ऐसे दुष्कम कर डालता है, जिससे प्रजा पोदित होती है, जिसके फलस्वरूप स्वामी नरक जाता है ॥३६॥
नारद' विद्वान्ने भी मूर्खको अधिकारी बनानेसे उक्त हानि निरूपण की है ॥१॥
अधिकारियों को उन्नति, उनको निष्फलता, अधिकारी शून्य राजाकी हानि, स्वेच्छाचारी अधिकारियों का स्वरूप व उनकी देख-रेख रखना
सोऽधिकारी चिरं नन्दति स्वामिप्रसादो नोत्सेकयति ॥४०॥ किं तेन परिच्छदेन यत्रात्म• क्लेशेन कार्य सुखं वा स्वामिनः ॥४१॥ का नाम नितिः स्वयमूदतणमोजिनो गजस्य ॥४२॥ अश्वसर्धाणः पुरुषाः कर्मसु नियुक्ता विकुर्वते तस्मादइन्यहनि तान् परीक्षेत् ॥४३॥
अर्थ-जो मन्त्री-श्रादि अधिकारी स्वामोके प्रसत्र होने परभी किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता बड़ी चिरकाल तक उन्नतिशील रहता है । अर्थात् कभी पदच्युत न होकर कार्तिव-अर्थ-लाभ आदि द्वारा उन्नति करता है ॥४०॥
शुक' विद्वान्ने भो गर्व शून्य अधिकारोके विषयमें यही कहा है ।।१।।
राजाको उन मन्त्री श्रादि अधिकारियों से क्या लाभ ? कोई लाभ नहीं, जिनके होने परभी उसे स्वयं कष्ट उठाकर अपने-बाप राजकीय कार्य करना पड़े। अथवा स्वयं कसंख्य पूरा करके सुखप्राप्त करना पड़े। सारांश यह है कि मन्त्री-श्रादि अधिकारियोंका यही गुण है कि वे स्वयं राजकीय कार्य पूर्ण करके दिखाते है, जिससे स्वामीको कुछ कष्ट न हो और वह सुखी रहे । अन्यथा उनका होना व्यर्थ है । जिस प्रकार घास का बोमा वहनकर उसका भक्षण करने वाला हाथी सुखो नहीं हो सकवा उसी प्रकार मन्त्री आदि सहायकोंके विना स्वयं राजकीय काये-भारको वहन करने वाला राजाभी सुखी नहीं हो सकता। अत एव विजिगीषु राजाको योग्य अधिकारियों व सेवकों की सहायतासे राजकीय कार्य सुसम्पन्न करना चाहिये, तभी वह मुखी हो सकता है अन्यथा नहीं ||४||||४२॥
. नारद' विज्ञामने भी मन्त्री श्रादि सहायकों के विना स्वयं राजकीय कार्य-भारको वहन करने वाले राजाके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥१॥
अन प्रकृति वाले मन्त्री श्रादि अधिकारी अपने २ अधिकारों में नियुक्त किये हुए सैन्धव जातिके घोड़ों के समान विकस-मदोन्मत्त हो जाते हैं । अर्थात जिस प्रकार संग्धव जातिके घोड़े योग्यता प्राप्त कर लेने
१ या समार:-मूल नियोगयुक्ते तु धर्मार्थयशाली सदा । सन्देहोछ पुन नममों नरके गतिः ॥ २ तथा पुरु-स्वामिमसादमाखाय न गई कुरखेऽत्र यः । स नम्मति कि कावं अस्थत भाविकात: 11 ३वमानारद:-.-स्वपमाहत्य मु'जाना बसिनोऽपि स्वमावत: । मरेन्द्रनारच गजेन्द्र प्रायः सीवरेचना:
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अमात्य समुद्देश
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पर (पाद श्रादि सीख लेने पर) दमन करनेसे उन्मत्त होकर सवारको जमीन पर पटकना आदि विकार-युक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार अधिकारी गणभी तुद्रप्रकृति-यश गर्च युक्त होकर राज्य क्षति करने तत्पर रहते हैं, मसः राजाको सदा उनकी परीक्षा-जांच करने रहना चाहिये ।।४३||
बादरायण' और भृगु विद्वानोंने भी क्षुद्र पति-युक्त अधिकारियों के विषयमें यही कहा है ।।१२।। उक्त बातका दृष्टान्त द्वारा समर्थन, अधिकारियों को लक्ष्मो, समृद्ध अधिकारी व अमात्य दोष-- मारिषु दुग्धरक्षणमिव नियोगिषु विश्वास-करणम् ॥४४॥ ऋद्धिश्चित्तविकारिखी नियोगिनामिति सिद्धानामादेशः ॥४५॥ सर्वोऽप्यति समृद्धोऽधिकारी भवस्यायत्यामसाभ्यः कच्छताभ्यः स्वामिपदाभिलाषी वा ॥४६॥ भक्षणमुपेचणं प्रज्ञाहोनत्वमुपरोधः प्राप्तार्थाप्रवेशा ध्यावनिमयश्चेत्यभात्यदोषाः ॥१७॥
अर्थ-वामीका मन्त्री आदि अधिकारियों पर विश्वास करना दूधकी रक्षार्थ रक्खे हुए विजावोंक समान है । अर्थात् जिस प्रकार विलावोंसे दूधको रक्षा नहीं हो सकती, उसी प्रकार मन्त्र आदि अधिकारियोंसे भी राजकोषकी रक्षा नहीं हो सकती, अतः राजाको उनकी परीक्षा करते रहना चाहिये ॥४॥
भारद्वाज विद्वानने भी अधिकारियोंके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥शा
'सम्पत्ति अधिकारियोंका चित्त विकार-युक्त (गर्व युक्त) करती है। यह प्रामाणिक नीतिज्ञ पुरुओंका वचन है ॥४५॥
नारद' विद्वान्ने भी कहा है कि 'पृथ्योपर कुलीन पुरुषभी धनाढ्य होनेपर गर्ष करने लगता है ॥१॥
सभी अधिकारी अत्यन्त धनाड्य होनेपर भविष्य में स्वामीके वशवती नहीं होते अथवा कठिनाईसे वशमें होते हैं अथवा उसको पद प्राप्तिके इच्छुक होते हैं ।।४।।
नारद विद्वामने भी कहा है कि अत्यन्त धनाड्य अधिकारीका राजाके वशमें रहना असम्भव है, क्योंकि वह इससे विपरीत राज-पदका इच्छुक हो जाता है ।।शा
गुरु' विद्वान्ने भो कहा है कि 'जो राज-सेवक कत्तप्र-पटु, धनाढ्य व आलसी होते हैं उनका जोंकोंके समान पूर्ण सम्पत्तिशाली होना न्याय-युक नहीं । अर्थात् उनका दरिद्र रहना ही उत्सम है।
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, सपा व भादरामयः--परवा पमा विन्ति दान्ता अपि च सैन्धवाः । आमाप्यपुरुषा ह या पंधिकार नियोजिताः ॥ सपा भूगुः-परीक्षा भूभुजा कार्या नित्यमेवाधिकारिगाम् । यस्मा विकृति मास्ति प्राच्य सम्पदमुचमार ॥७॥
तमा च भारद्वाजः-माजोरेखिन विरपासो यमा नो दुग्धरक्षणे । नियोगिमा नियोगेड तवा बायों न भूभुजा • या च मारदः-सायन विकृति याति पुरुषोऽपि असोजणः । यावत्सरिसंयुक्तो न भवेवत्र भूतको in ५ मा चना:-अविसमृद्धिसंयुक्तो नियोगी यस्य जायते । पसायो भूपते: स स्पातस्यापि पवाम्बकः ॥ ६ तथा प गुरु:- मेवाः कर्मसुपटवः पूर्ण प्रवासा मवन्ति ये भृत्याः । सेपो जलोकसामिष पूणों वाव पदना न्याया।
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सारांश यह है कि जिस प्रकार जो पूर्ण (भरपेट दूषित खून पोने साली होने पर फट जाती हैं, उमी प्रकार क्षुद्र प्रकृति वाले सेवकभो अत्यन्त धनाढ्य होनेपर मदोन्मत्त होकर अपने स्वामीका अनर्थ करने तत्पर रहते हैं, अतः उन्हें दरिद्र रखनाही न्याय-युक्त है ।।१॥
जिस सचिव-अमात्यमें निम्न प्रकार छह दोष पाये जायें, इसे अमात्य पदपर निशक्त नहीं करना पाहिये । १ भक्षण-राजकीय धन खानेवाला, २ उपेक्षण राजकीय सम्पत्ति नष्ट करनेवाला, अथया धन प्राधिमें अनादर करनेवाला ३ प्रवाहानत्व-जिसको बुद्धि नष्ट हो गई हो, या जो राजनैतिक शान-शून्य (मूख) है, ४ उपरोध-प्रभावहीन (उदाहरणार्थ-राजकीय द्रव्य हड़प करनेवाले दूसरे अधिकारियोंको देखते हुये जिसके द्वारा रोके जाने परभी वे लोग अनर्थ करनेसे न चूकें ऐसा प्रभावहीन व्यक्ति) ५ प्राप्वार्या प्रवेश-जो टेक्स आधि उपायों द्वारा प्रान इभा धन राज-कोषमें जमा नहीं करता हो. तुम्य विनिमयओराजकीय बहमल्य द्रव्य मल्पमूल्यमें निकाल लेता हो। अर्थात जो बहमस्यं सिक्कों (असर्फी मादि) को स्वयं ग्रहण करके और उनके बदले में अल्प मुल्य वाखे सिक्के (रुपये आदि) राजकीय नजाने में जमा कर देवा हो अथवा चलाने में प्रयत्नशील हो ! सारांश यह है कि जो गाना या प्रजा उक्त दोष-युक्त पुरुषको मर्म सचिव बनाता है, उसका राज्य नष्ट हो जाता है ।।४७||
शुक' विद्वान्ने भी कहा है कि जो अमात्य दुष्ट प्रकृति-धरा राजकीय धन अनेक प्रकारसे नष्ट कर डालता हो, वह राजा द्वारा त्यागने योग्य है ॥१॥
राजतन्त्र, स्वयं देख रेखके योग्य, अधिकार, राजतन्त्र ध नीवी-लक्षण, आयव्यय-शुद्धि और उसके विवादमें राज-कर्तव्य
पहुमख्यमनित्यं च करणं स्थापयेत् ॥४८॥ स्त्रीष्वर्थेष च मनागप्यधिकारे न आतिसम्बन्धः ॥४६॥ स्वपरदेशजावनपेक्ष्यानित्यश्चाधिकारः ॥५०॥ मादायकनिबन्धक प्रतिबन्धकनीवीग्राइक राजाध्यक्षाः करणानि ॥५०॥ प्रायव्ययविशुद्ध द्रध्यं नीवी ॥५२॥ नीवीनिवन्धकपुस्तकग्रहणपूर्वकमायव्ययौ विशेषवेद १५ मायव्ययविप्रतिपत्ती कुशलकरणकार्य पुरुष म्पस्तद्विनिश्चयः ॥५४॥
अर्थ-राजा या प्रजा द्वारा ऐसे राज्यतंत्रकी स्थापना होनी चाहिए, जो बहवसे शिष्ट अधिकारियों कीविसे संचालित हो एवं जिसमें अधिकारियों की नियुक्ति स्थायी न हो क्योंकि असा अधिकारी स्वेच्छासे अनर्थ भी कर सकता है एवं स्थायी नियुक्तिवाले अधिकारी राज-कोषकी पति करने वाले भी होसकते हैं मत: मंत्री सेनाध्या पावि करश की नियुक्ति भनेक सीविय शिष्ट पुरुषों सहित सपा प्रमानुसार बदलनेवाली होनी चाहिये ॥४८॥
गुन बिहान् के सदरणका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
- -. .. . .... . . . . . ... - ... . . . . ..- -.--.---... .... 1वचा शुरु:-यो मात्यो राजकीय संगापिप्रकारचेत् । सदेव टमावेन स त्याज्यो साचो पैः ॥ २ बबा गुरु:-प्रशाश्व प्रकतम्य' भवं चिसिपानकः । बहुशिष्ट' यस्माचदम्बा वित्तमम् ॥
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मास्य समुद्देश
राजा या नैतिक पुरुष अपनी स्त्रियों व धन का रक्षक किसी को न बनाये ||४०||
!
गुरुविन भी स्त्रियों व घन-रक्षा के विषयमें यही कहा है ॥१॥
मंत्री भाषि अधिकारियों की नियुक्ति स्वदेश व परदेश को विचार न करें अस्थायी रूपसे करको चाहिए
अधिकारियों की स्थायी नियुक्तिका परिणाम हानिकर होता है अर्थात् षे राजकीय धन-अपहरण द्वारा राज्य-पति कर डालते हैं। परदेशवासी व्यक्ति जिस अधिकारीके कर्त्तम्य में कुशल हो, उसे स पर पर अस्थायी तौर पर नियुक्त कर देना चाहिये ||४०||
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२७७
SAMJAME
राजाके राज्यतन्त्र संचालनार्थ निम्नप्रकार पांच करण-- पंचकुल होते हैं । । १ आदायक क्यावक्कों से चुगी टैक्स के जरिये द्रभ्य वसूल कर राज-कोष में जमा करनेवाला कोषाध्य निबंधक-एक उपाय द्वारा प्राप्त इब्ध व माल का हिसाब बही - आदिमें लिखनेवाला । ३ प्रतिबन्धक मी मादिके जालपर या खजाने में जमा होने अली वस्तुओं पर राजकीय मुहर लगाने बाक्षा । ४ नीवीमाइकजकीय इसको राज कोचमें सभा करने वाला (खजानची) । ४ राजाध्यक्ष – एक चारों अधिकारियों की देख-रेख रखनेवाला प्रमान पुरुष १५११
चाम नीमेंसे उपयुक्त खचे करनेके पश्चात् बची हुई और जाँच पड़वाल-पूर्वक खजाने में जमा श्री हुई सम्पति को 'नीवी' कहते हैं ||१२||
राजा तक नीवी प्राहक खजानची से उस बद्दी को जिसमें राजकीय द्रष्य के आय-व्यय का हिसाब लिखा है, बेकरी तरह जांच-पड़ताल करके आय-व्यय को विशुद्ध करे ॥ ५३ ॥
१
१:
4
किसी नीतिकार ने भी राजकीय सम्पत्ति की आय ब्यय शुद्धिके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥ जब सम्पत्तिका आप-यव करनेवाले अधिकारियों में आमदनी व खर्च के विषय में विवाद - मानवाला विरोध - चपस्थित होजाय तब राजाको जितेन्द्रिय व राजनीतिज्ञ प्रधान पुरुषों मंत्री यादि से विचार-परामर्श करके उसका निश्चय कर लेना चाहिये। अभिप्राय यह है कि किसो अवसर
कारवश राज्य में टेक्से आदि द्वारा होने वाली सम्पत्ति की आय - आमदनी बिलकुल रुक गई हो और मन का व्यय अधिक होरहा हो, ओ कि अवश्य करने योग्य प्रतीत हो जैसे शत्रु कृत हमसेके समय सैनिक शक्ति के बढ़ानेमें अधिक और आवश्यक खर्च । ऐसे अवसर पर यदि अधिकारियों
मैं भाव-व्यय संबंधी विवाद उपस्थित होजाये, तो राजाको सदाचारी व राजनीतिज्ञ शिष्ट पुरुषोंका कमीशन बैठाकर छ विश्वका निश्चय करलेना चाहिये । अर्थात् यदि महान् प्रयोजन सिद्ध (विजय) होती हो तो आमदनी अधिक सर्च करने का निश्चय करलेना चाहिये अन्यया नहीं ||१४॥
शुविज्ञान ने भी सम्पचिके नाम-व्यय संबंधी विवाद के विषय में इसी प्रकार कहा है ||१||
विवो वियोग जातिसम्बर 19
इस्तेमद पुस्तकं समवस्थितम् । श्रभम्यच च तत्रस्थो वीवो
१॥
विपथ प्रभाते [प्रवे निश्कने वापि ] साधुभ्यो नित्यदा ॥१॥
संशोषित व परिवर्ति ।
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२७५
नीतिवाक्यामृत
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_ रिश्वतसे संचित धनका अपायपूर्वक ग्रहण व अधिकारियोंको धन व प्रतिष्ठाको प्राप्तिनित्यपरीचणं कर्मविपर्ययः प्रतिपत्तिदान नियोगिष्वर्थोपाया||१५|| नापीडिता नियोगिनो दश्वथा इवान्तःसारमहमन्ति ॥५६॥ पुनः पुनभियोग नियोग भपंतीनी वसधाराः।।५७॥ सभिष्पीडितं हि स्नानवस्त्रं किं जहाति स्निग्धताम् ॥५८|| देशमपीड़यन् बुद्धिपुरुषकारा. भ्यो पनिवन्धमधिकं कुदमर्थमानो लभते ॥५६॥
अर्थ:-राजा अधिकारियोंसे रिश्वत द्वारा संचित धन निम्नप्रकार तीन स्पायर्यास प्राप्त कर सकता है । निस्य परीक्षणा-सदा अधिकारियों की जांच-पड़ताल करना। अर्थात् गुप्तचरों द्वारा उनके दोष जानकर कड़ी सजा देना। कम विपयेय उन्हें उच्च पदोंसे पृथक कर साधारण पदों पर नियुक्त करना, जिसमें वे भयभीत होकर रिश्वत से संचित धन बताने में बाध्य होसके।३ प्रतिपत्तिदान-अधिकारियों के लिये छप. यमर आदि बहुमूल्य वस्तुएं भेंट देना; से वे ही रो रितगत द्वारा गृहीत गुप्त धन दे देखें ।।
गुरु विद्वान्' ने भी रिश्वत द्वारा गृहोत-धन प्राप्तिके उपायोंके बिषयमें इमी प्रकार कहा है।
अधिकारी लोग दुष्ट व्रण (पके हुए दृषित फोहे) समान विना साइन-बंधन आदि किये गृहमें रक्खा हुआ रिश्वतका धन नहीं बताते अर्थात् जिस प्रकार पके हुए दूषित फोड़े शस्त्रादिद्वारा छेदन भेदन किये बिना भीतर का दूषित रक्त नहीं निकालते उसी प्रकार अधिकारी-गणभी कड़ी सजा पाये बिना रिश्वतका धन नहीं बताते ॥६|
नीतिकार बाणिक्य ने भी अधिकारियोंद्वारा अप इत धन प्राप्त करनेके विषयमें इसीप्रकार कहा है ।।।।
अधिकारियों को बार बार ऊंचे पदोसे पृथक करके साधारण पदोंमें नियुक्त करनेसे राजाओंको उनके द्वारा गृहीत रिश्वतका प्रपर धन मिल जाता है। क्योंकि वे पदच्युत आदि होनेके भयसे रिश्वत धन दे देते हैं ।
केवल एक बार धोया हुआ स्नान-वस्त्र (धोती वगैरह) क्या अपनी मलीनता छोड़ सकता है ? नहीं बोद सकता। अयोत् जिस प्रकार नहानेका कपड़ा पार २ पछाड़कर धोनेसे साफ होता है उमी प्रकार अधिकारी बगेमी वार र दखित किये जानेसे संचिव रिश्वत मादिका गृहीत धन दे देता है |
शा' विद्वानके उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ।।
जो अधिकारी (ममात्य आदि) देशको पीड़ित नहीं करता (अधिक चुगी व टैक्स द्वारा प्रजाको कष्ट नहीं देता) : अपनी बुद्धि एटुता व सद्योगशीलता द्वारा राष्ट्रके पूर्व व्यवहारको विशेष उन्नतिशील
Man
समा. गुरु-बिदाम्पत्तो बाभो मिपोणिजनसम्भवः । अधिकारविपर्वासार प्रतिपस्यापरः ॥1॥
बाबाक्य:-शान्याधिकारियो विचमन्त:सार पम्ति नो । निपीतेनवे यादगाछनचा इ॥॥ ३ तथा च पक:-यपाहि स्मानज वस्त्र सकर प्रचालित महि । मिर्म सान्नियोगी व सकद्दण्ड न एकति ॥
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अमात्य समुहेश
२७६
बनाता है । अर्थात् राष्ट्र संबंधी कृषि व वाणिस्य आदिको पूर्वापेक्षा विशेष उमति करके दिखाता है उसे स्वामी द्वारा धन व प्रतिष्ठा मिलता है ।।६।।
शुक' विद्वान् के संगृहीत श्लोक का भी यही भाशय है ॥११॥ योग्यतानुसार नियुक्ति, कायोसदि में उपयोगी गुण तथा समर्थन व भधिकारी का कर्तव्ययो यत्र कर्मणि कुशलस्तं तत्र विनियोजयेत् ।।६०॥ न खलु स्वामिप्रसादा सेवकेषु कार्यसिदिनिबन्धन किन्तु बद्धिपुरुषकारावेव ॥६१ शास्त्रविदग्यदृष्टकर्मा कर्मस विषादं गच्छेत् ।।६२॥
निषेधभतुने किचिदारम्भं कुर्यादन्यत्रापत्प्रतीकारेभ्यः ॥६३॥
अर्थः-जो अधिकारी जिस पदके कतव्य पालन में फशल हो, उसे उस पद पर नियुक्त कर देना चाहिये ।।६०॥ निश्चय से स्वामीके प्रसन्न रहनेसे ही सेवक लोग कार्यमें सफलता प्राप्त नहीं कर सकते किन्तु जब उनमें कार्योपयोगी बुद्धि व पुरुषार्थ (उद्योग) गुण होंगे तभी वे कतव्यमें सफलता प्राप्त कर सकते हैं ॥६॥ शास्त्रवेन विद्वान पुरुष भी जिन कतव्योंसे परिचित नहीं है, उनमें मोह (महान) प्राप्त करता है ॥६२||
मृगु विवान ने भी कतन्य कुशलतासे शून्य अधिकारीके विषय में इसी प्रकार कहा है ।।१।।
असस संकट दूर करनेके सिवाय दूसरा कोई भी कार्य सेवक को स्वामीसे निवेदन किये बिना नहीं करना चाहिये । अर्थात् युद्ध-कालीन शत्र-कृत उपद्रवों का नाश सषकको स्वामीसे बिना पूछे कर देना चाहिये इसके सिवाय उसे कोई भी कार्य स्वामी की आझा विना नहीं करना चाहिये ।।१३।।
भागुरि विद्वान के उद्धरणसे भी इसी प्रकार अधिकारी का कर्तव्य प्रतीत होता है ||१||
भचानक धन मिलने पर राज-कतन्य अधिक मुनाफासोर व्यापारियों के प्रति कर्तव्य व अधिकारियों में परास्परिक कलइसे लाभ--
सहसोपचितार्थो मूलधनमात्र णावशेषयितव्यः ।।६४ मूलधना विगुणाधिको लामो भाण्डोत्यो यो भवति स राक्षः ॥६५||परस्परकलहो नियोगिषु भूभुजा निधिः ॥६६॥
मथः-राजा अचानक मिला हुआ धन (लावारिस मरे हुए धनाड्य व्यक्तियों को भाग्याधीन मिली हुई सम्पत्ति) खजाने में स्थापित कर उसकी वृद्धि करे ॥६४||
अति पिहान् ने भी अधिकारियोंसे प्राप्त हुई भाग्यायोन सम्पत्ति विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥१॥ - ... .
..-.... . - . - . --.. --- १ तथा :-पो दरं स्पयन् यानात् स्वनु या पौषेय । विधान बरवाज्ञः सविच मागमानुपाए । २ मा च :-पेन पम्मकृतं कर्म त सस्मिन बोमिठो पूर्व । नियोगो मोहमायाति पयपि स्वामिनः ॥1॥ ३ था - भागरिः-न स्वामियचनाद गाम कर्म कार्यनियोगिमा | अपि वपन बल मुबाला शत्रुसमागमम् ।। vayा अत्रि:-अचिन्तितस्तु पामो पो नियोगावस्तु जायते । स कोशे संनियोम्परच बेन सच्चाधिक भवेत् ॥१॥
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नीतिवाक्यामृत
जब व्यापारी लोग बर्तनों आदिके व्यापार में भूलधन से दूनेसे भी अधिक धन कमाते हों तथ राजा को व्यापारियोंके लिये सूक्ष घनसे दूना धन देकर अधिक धन जब्त कर लेना चाहिये। क्योंकि व्यापारी गए इतना अधिक मुनाफा छल-कपट व चोरी भादि कुमार्गका अनुसरण किये बिना नहीं कर सकते ||६||
ང་
शुक' विद्वान् के स गृहीत श्लोक का भी यही अभिप्राय है ॥२॥
अधिकारियों में आपसी फूट -- लड़ाई झगड़ा होनेसे राजाओं को खजाने के मिलने समान महा लाभ होता है, ऐसा होनेले वर्ग के एक दूसरे का अपराध प्रकट कर देते हैं, जिसके फलस्वरूप दडित किये जाने पर वे लोग रिश्वत द्वारा हड़प किया हुआ वन बता देते हैं ॥६६॥ गुरु विद्वान ने भी अधिकारियोंके पारस्परिक विरोधसे राजाओंको महान आर्थिक लाभ निर्दिष्ट किया है ॥१॥
धनाढ्य अधिकारियों से लाभ, संग्रह करने योग्य मुख्य वस्तु घान्य सवयका माहात्म्य व जिरस्थायी धान्य
नियोगिषु लक्ष्मीः चितीश्वरायां द्वितीयः कोशः ॥ ६७॥ सर्वसंग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान्, यतस्वभिबन्धनं जीवितं सकलप्रयासश्च ॥ ६८ ॥ न खलु मुखे प्रक्षिप्त: खरोऽपि द्रम्मः प्राणत्राणाय यथा धान्यं ॥६६॥ सर्वधान्येषु चिरजीविनः कोद्रवाः ||७०||
अर्थ:- अधिकारियों की सम्पत्ति राजाओं का दूसरा खजाना है क्योंकि उनके ऊपर संकट पड़ने पर अधिकारियोंकी सम्पत्ति उनके काम भाजावी है ॥६७॥
नारद' विद्वान् ने भी इसी प्रकार कह | है ||१॥
समस्त हाथी-घोड़े आदिके समद में से अन-स मह उसम माना गया है क्योंकि वह प्राणियोंके ater-निर्वाह का साधन है, एवं जिसके कारण मनुष्यों को कृषि आदि जीविकोपयोगी कार्यों में कष्ट उठाना पड़ता है ||६||
भृगु* विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है || १ ||
जिस प्रकार भक्षण किया हुआ धान्य प्राण-रक्षा कर सकता है, उस प्रकार निश्चय से बहु मुख्य सुबका सिक्का मुखमें रक्खा हुआ प्राणरक्षा नहीं कर सकता ॥ ६६॥
१ तथा च शुक्रः – यदि मूलधनाव कश्चिद् द्विगुणाभ्यधिकं लभेत्। ततस्थ मूलाद्विगुणं दस्वा ऐषं नृपस्य हि ॥१॥ २ तथा च गुरुः- जियोगिनां मियो पायो राज्ञां पुचयः प्रजायते । यतस्तेषां विवादे च नाभः स्वादुभूपतेः ॥ ३ तथा च नारदः — येथ त्यात संपत् संव सपम्महीपतेः । यतः कार्ये समुत्पत्रे निःशेषस्य समानयेत् ॥१॥ ४ तथा च भृगुः सर्वेषाँ स महायां च शस्योऽवस्य सप्रहः । यतः सर्वाणि भूतानि विश्वन्ति च ततः !
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अमात्य समुद्देश
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गर्ग' विद्वान् ने भी धान्यके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
समस्त धान्यों में कोदो चिरस्थायी (घुण न लगने वाले ) होते हैं, अतः उनका संग्रह करना चाहिये |orl
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भारद्वाज' विद्वान ने भी शिक्षकों वाले धान्य व कोदों को चिरस्थायी बताया है ॥१॥ सचित धन का उपयोग, प्रधान व समह करने योग्य रस व क्षपया का माहात्म्य-अनर्थं नवेन वर्द्धयितव्यं ष्पयितम्यं च । ७१ । लवणसंग्रहः सर्वरसानामुत्तमः ॥७२॥ सर्वरस - मयमप्यचमलवणं गोमयायते ॥ ७३ ॥
अर्थ :- पुरानी स ंचित धान्य व्याजूना (फसलके मौके पर कपकोंको बादी में देना) देकर बहनें नवोन धान्य के काय द्वारा बढ़ानी चाहिये और ब्याज द्वारा प्राप्त हुयी धान्य खर्च करते रहना चाहिये, ताकि धन की हानि न हो सके ||७१ ||
वशिष्ठ विद्वान् ने भी पुरानी संचित धान्यको व्याजूना देने के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
समस्त घृत व तेल प्रभृति रसोंके संमहमें नमक संग्रह उत्तम है अतः विवेकी पुरुष उसका संग करे क्योंकि नमक के बिना सब रखोंसे युक्त अन्न भी गोबर समान अवचिकर लगता है ॥७२-७३ ।। विद्वान उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥१॥
हा
छवि अमात्य समुद्देश ।
1
जम्मै मात्रा विचीयते । मुझे किसे बनावेन स्वनेनापि विधीयते ॥१॥
२
महाजवान्यानि सर्वाणि कोप्रभृतीनि च । चिरजीवील वन्यायेन युक्तः समः ॥१४
-
१ तथा च मशिन बस मेन विचसा प्राप्तो भवेधस्तुत्यभावः ७ तथा चारीतः स्वानः भिगो यदि सिगोमथास्वाद [गृहीत्वा चि] 199
को
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--
___१६-जनपद-समुद्देश देशके नामों- राष्ट्र, देश, विषय, मण्डल, जनपद, वारक व निर्गम शब्दोंकी सार्थक व्याख्यापशुधान्यहिरण्यसंपदा राजते इति राष्ट्रम् ॥१||मा दण्डकोशद्धिं दिशतीति देशः ॥२॥ विविधवस्तुप्रदानेन स्वामिनः सबनि गजान शजिनश्च विषियोति बनातीति विषयः ||३|| सर्वकामधुक्त्वेन नरपतिहृदयं मण्डयति भूषयतीति मण्डलम् ॥॥ जनस्य वर्णाश्रमलक्षणस्य द्रव्योत्पत्तेर्वा पद स्थानमिति जनपदः॥५॥ निजापतेरुत्कप जनकत्वेन शत्र हृदयानि दारयति मिनत्तीति दारकम् ।।६॥ आत्मसमद्ध्या स्वामिनं सबभ्यसनेम्यो निर्गमयतीति निर्गमः ॥७॥
अर्थ-क्योंकि देश गाय भैंस आदि पशु गेहूँ-चांवल प्रभृति अन्न व सुवर्ण-आदि सम्पत्तिसे शोभायमान होता है, इससे इसकी 'राष्ट्र संशा है॥शा
भागुरि विद्वान् ने भी देश को पशु, धान्य, तावा लोहा प्रभृति धातु य वर्तनोंसे सुशोभित होने के कारण राष्ट्र' कहा है ॥१॥
यह स्वामी को सैन्य-कोषकी वृद्धि देता है, अतः इसकी 'देश' संशा है ॥२॥ शुक्र विद्वान् ने भी देश शन्दकी यही सार्थक व्याख्या की है ॥१॥
क्योंकि यह नाना प्रकारको सुवर्णधान्यादि वस्तुए प्रदान कर राज-महल में हाथी घोड़े बांधता है, अतः इसे 'विषय' कहते है ।
शक्र विद्वानने भी विषय' शब्दकी यही ब्याख्या की है ।।१।।
क्योंकि यह समस्त मनोरथोंकी पूर्ति द्वारा राजाके हृदयको अलंकृत करता है, इसलिये इसे मरडन कहते हैं ॥४॥
शुक विद्वानके उद्धरणसे भी 'मण्डल' शब्द का यही अर्थ प्रतीत होता है ||
क्योंकि श षर्ण प्राशक क्षत्रिय,वैश्य व शूद्र) और भाश्रमों (ब्रह्मचारी,गृहस्थ,पानप्रस्थ और यति) में वर्षमान प्रजाजनोंका निवासस्थान अथवा पनका उत्पत्ति-स्थान है अत: इसे 'जनपद' कहते है ।शा । वमा भागुरि :- पशुभिर्विविधांम्प कृप्यमा पृथग्विधः । राजते पेन लोकेऽत्र तबाट मिति कोवे १ मा च एक:-स्वामिनः कोराइविं पसन्यदि तथा पाम् । यस्मादिति नित्य स तस्मादेश उपाहता 10 । प्रथा - शुक्र:- विविधान् वाजिमो गाश्च स्वामिसममि नित्यशः । सिमोतिर यस्माषयः प्रोच्यते सुभैः । ४सया र शुक:-सर्वकामसमृदा च नृपतेहप पतः । मण्डनेन समा युक्त कुरतेऽनेन मण्डलम् ॥१॥
--.-
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जनपद समुद्देश
शुक्र' विद्वानने भी 'जनपद' शब्द की यही व्याख्या को है ॥ १ ॥
क्योंकि देश अपने स्वामी की उन्नति करके शत्रु हृदयोंको विदीर्ण करता है अतः इसे 'दारक' कहा है ||६||
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कहा है कि 'देश बहुत से ऊंटों द्वारा अपने स्वामीकी उन्नति करके शत्रु हृदयों को विदीर्ण करता है अतः उसे दारक' कहते हैं ||१||
क्योंकि यह अपने घनादि वैभव द्वारा स्वामीको समस्त श्राप्तियोंसे छुड़ावा है अतः इसे विद्वानों ने 'निर्गम' कहा है ||
शुक्र विद्वानने भी निर्गम शब्द की यही सार्थक व्याख्या की है ||१||
देशके गुण व दोष.....
श्रन्योऽन्यरक्षकः स्वन्याक (द्रव्यनागधनवान् नातिवृद्धनातिहीनग्रामो बहुसार विचित्रघान्यहिरण्यपण्योत्पत्तिरदेयमातृकः पशुमनुष्यहितः श्रेणिशूद्ररूष केंद्राय इति जनपदस्य गुखाः ||८ विषतु योदकोषरपाषाण कटक गिरिंग गहरप्रायभूमिभूरिश्वर्षा जीवनो व्याल- लुब्धकम्लेच्छवहुल: स्वल्पसस्योत्पत्तिस्तरुफलाधार इति देशदाषाः ||
तत्र सदा दुर्मिचमेव, यत्र जलदजलेन सस्योत्पत्तिरकृष्टभूमिरचारम्भः ||१०||
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अर्थ - देशके निम्नप्रकार गुण होते हैं । १ परस्परकी रक्षा करने बाला --- जहांपर राजा देशकी और देश की रक्षा करता हो । २ जो सुवर्ण, रत्न चांदी, चांदा, व लोहा आदि धातुओंकी तथा 1, गन्धक - नमक आदि खनिज द्रव्यों की खानियोंसे यत एवं रुपया असर्फी आदि धन और हाथी-रूप धन से परिपूर्ण हो ।, ३ जिसके प्रामोंकी वन संख्या न बहुत बढ़ो हुई और न बहुत कम हो 1 ४ पर बहुतसे उम पदार्थ, नाना भांतिके अन्न, सुबर्ण, और व्यापारियोंके खरीदने व बेचने योग्य बस्तु पाई जावी हों । ५ जो मेघ अलकी अपेक्षा से रहित हो--जहां रट व बरसोंके जलसे खेती होती हो ।, ६ जो मनुष्य व पशुओं को सुख देने वाला हो ।
७ जहां पर बढ़ई जुलाहा, नाई घोवी, व चमार आदि शिल्प-शुद्र तथा किसान बहुलता से वर्तमान हो सारांश यह है कि जिस देशमें उक्त गुण पाए जाते हैं, वह सुखी रहता है ||८||
देश के निम्न प्रकार दोष होते हैं जिनसे वह निंदनीय समझा जाता है । १ जिसका घास पानी रोगजनक होनेसे विष समान हानिकारक हो, र जहाँकी जमीन ऊपर घास अन्नको उपजसे शून्य हो, ३ की अमोन विशेष पथरीजी, अधिक कंटकाकीर्ण तथा बहुत पहाड़, गड्ढे और गुफाओं में व्याप्त हो ४ न
१ तया च शुकः पार्था सर्वेषां द्रच्योत्पतेश्च वा पुनः बस्मात् स्थान ं भवेत् सोऽच तस्माज्जनपदः स्युः asil
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२ तथा च ज ैमिनि:----मतु स्नेव
हृदय यतः । द्वारका दारवन्तिस्म प्रभूता दारकं ववः ॥॥ – मोचापवति यो विज स्वाभिमानवः । यसनेम्बः प्रभूतेभ्यो नमः स इद्दोच्यसे ॥१॥
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नीसिषाक्यामुन
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पर पहुरासी जन-नाष्टिकरा प्रजाजनों का जीवन (धाम्पको सपज) होता हो । जहॉपर बहुलतासे सपे, भीत और मेच्छों का निवास हो ।, ६ जिसमें चोड़ोसी धाम्य (अन्न) उत्पन्न होती हो।, . जहां के लोग। धान्य पजाम होने के कारण पके फलों द्वारा अपना जीवन-नियोह करते हो l
जिस देशमें मेषोंके जल द्वारा भान्य सत्पन्न होती है और खेती कर्षण-क्रियाके बिना होती है, अर्यात् जाहा छदारों की पथरीली जमीन में विना इस जोसे हो वीज वखेर दिये जाते हैं, वहां सदा अकाल रावा है।योंकि मेपो बरा अन वृष्टिका यथासमग पचपिस परिमाणमें होना निश्चित नहीं रहता एवं कस कियाकी अपेक्षा शम्ब पपरोली जमीनभी उपर जमीन समान सुपज-शून्य अथवा बिलकुल कम सपना होती है, मा पेसे देशमें सदा मकान होना निश्चित ही है ॥शा
गुरु' विधानले स्वरणका मी यही अभिप्राय है ॥१॥
इत्रिय व प्रामणोंकी अधिक संस्था-युक्त ग्रामोंसे हानि व परदेश-प्राप्त स्वदेशवासी के प्रति पद
पत्रियप्रापा हि ग्रामाः स्वम्पास्वपि पापास प्रतियुध्यन्ते ॥१॥ नियमाणोऽपि द्विजलोको न सस सान्नेन सिहमागाई प्रहरी सभरि सतपूर्णमाक' का जनपदं स्वदेशाभिमुख दानमानाम्पा परदेशादाबहेत् वासयेषक ॥१३॥
पर्व-जिन ग्रामों में त्रिव यूएबोर पुरुष अधिक संख्या में निवास करते हैं वहापर वे लोग पोती सी पीड़ामो-पापसी तिरस्कार बादिसे होने वाले कटोंके होने पर आपसमें सब मरते है-मन र
या विधाने भी बत्रियों की बाहुल्यवा-युक्त प्रामोंके विषय में इसीप्रकार कहा है ॥१॥
आपण लोग अधिका-होमी दोनेके कारय राजा लिये देनेयोग्य टेक्स माविका धन प्राय बामे परमीना पहले शान्तिसे नही देते ॥१२॥
विद्वापरयच मी ही अमिताव है राजाम है कि यह परदेशमें प्राप्त हुए अपने देशवासो मनुष्यको, जिससे कि इसने पर्वमें करनक्स प्राव किया हो अथवा न भी किया हो, दान सम्मानसे परामें करे और अपने देशके प्रति
गुलामासमिन । सव का दुर्मिनारमोन का
गाई मदेवामिन पागमानाम्या जोपचाने का पासवे इस प्रकार मान्य. महिनामा निमोकि राजा प्रदेवयासी पारी मनुष्यको गे कइलो देखने सस भागापामा एक पूलो देखने मेज दे। क्योंकि ऐसा करनेसे प्रजा परदेशवासी प्रजाके उपायोंसे सुरक्षित
रा :-पाय पत्रिका मानवातिनिरगंजापानरावोऽन्वेष पुरन शाम्यति ।।।। ३ मारियो मोमोस सान्न सम्यते । म पाहमा चकते नृ॥
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जनपद समुद्देश
अनुरागी बनाकर उसे वहांसे लाकर अपने देश में बसावे । सारांश यह है कि अपने देशवासी, शिष्ट व उद्योगशील पुरुषको परदेशसे लाकर बसानेसे राष्ट्रकी जन-संख्या वृद्धि, व्यापारिक उन्नति, राजकोषकी वृद्धि एवं गुप्त रहस्य -संरक्षण आदि अनेक लाभ होते हैं, जिसके फल स्वरूप राज्य की श्रीवृद्धि होती है ॥ १३ ॥
शुक' विद्वान्ने भी परदेशमें प्राप्त हुए स्वदेशवासी मनुष्यके विषय में इसीप्रकार कहा है ॥१॥
शुल्कस्थानवर्ती अन्यायसे हानि, कच्ची धान्य फसल कटाने व पकी हुई धान्यमेंसे सेना निकाखनेका परिणाम -
MS-DO400 199
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स्वम्पोऽप्यादायेषु प्रजोपद्रवो महान्तमर्थ नाशयति ॥ १४॥ श्रीरिषु कणिशेषु सिद्धादायो जनपदमुद्वासयति ||१५|| लवनकाले सेनाप्रचारो दुर्भिचमावहति ||१६|
अर्थ- जो राजा धनकी आमदनी के स्थानों (चुंगीघर आदि) में व्यापारियोंसे थोड़ासा भी अन्याय का धन या करता है - अधिक टैक्स लेता है उसे मदान आर्थिक हानि होता है, क्योंकि व्यापारियोंके क्रय-विक्रयके माक पर अधिक टैक्स लगानेसे वे लोग उसके भयसे क्षुब्ध होकर व्यापार बंद कर देते है या छल-कपट पूर्ण वशोष करते हैं जिसके फलस्वरूप राजाकी अधिक हानि होती है ॥१४॥
गुरु विज्ञानने भी शुल्कस्थानोंमें प्रवृत्त होनेवाली अन्यायन्प्रवृत्ति के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
जो राजा सगान न देने कारण किसानों की अपरिपक्व (बिना पकी हुई) बाम्य मन्जरी — गेहूँ आदि की कच्ची फसलकर महया कर लेना है, वह उन्हें दूसरे देशमें भगा देता है, जिससे राजा व कृषक आर्थिक संकट भोगते हैं, अतः राजाको कृषकोंके प्रति ऐसा अन्याय करना उचित नहीं है ॥१३५॥
शुक विद्वानके संग्रहीत श्लोकका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
ओ राजा पकी हुई धान्यकी फसल काटते समय अपने राष्ट्रके लेसों में से निकालता है उसका देश अकाल पीड़ित हो जाता है। क्योंकि सेना धाम्य बाकी है, जिससे उसके अभावले देशमें अकाल हो जाता है ||१६||
हामी घोड़े भाविकी सेना फसलका सत्यानाश कर
१] शुक्र परदेश' बोकं विमदेशे समान वेद । भुक्तपूर्वममुक्त वा सर्वदेव महीपतिः॥१॥
स्वल्पोऽपि राष्ट्रषु परप्रओपी महानाति पेक्षा पाठान्तर सू० प्रतियोगे वर्तमान है, जो कि पूर्वोक 12 में सूत्रान्वरका समर्थक है, जिसका अर्थ है कि जिन देशोंकी प्रजा परदेशकी दुष्ट प्रथा द्वारा मराठी भीतिकी आधी है, यहाँ पर राजाको महान् वार्षिक-हानि होती है, क्योंकि परदेसी भाठठाधियों गुटों द्वारा साई हुई या राजासे एकदम हो जाती है, जिससे राजकीय धार्मिक कृति अधिक होती है। २ वा च गुरुः--सुक्यस्यामेषु कन्यायः स्वक्पोऽप्रमते पत्र मागच्या कण ॥ निम्न यो अति महीपतिः ।
यांकन विदेह सः ॥
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२८६
नोतियाक्यामृत
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जैमिनि विद्वान उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥१॥
प्रजाको पीडित करनेसे हानि, पहिलेसे टेक्ससे मुक्त मनुष्यों के प्रति राजकसंख्य, मर्यादा उन्लंघन से हानि, प्रजाकी रक्षा के उपाय व न्यायसे सुरक्षित राष्ट्र के शुल्कस्थानोंसे लाभ
सर्ववाघा प्रजाना कोशं पीडयति ॥१७॥ दत्तपरिहारमनुगृह्णीयात् ॥१८॥ मर्यादातिक्रमेण फलवत्यपि भूमिभवत्यरण्यानी ॥१६॥ क्षीण जनसम्भावनं तृणशलाकाया अपि स्वयमग्रहः कदाचित्किचिदुपजोवनामांत परमः प्रजानां वधनोपायः ॥२०॥ न्यायेन रचिता पण्यपुटभेदिनी पिष्ठा राज्ञां कामधेनु:४॥२१॥
अर्थ-जो राजा अपनी प्रजाको समस्त प्रकारके कष्ट देखा है-अधिक टेक्स आदि लगाकर प्रजाको पीड़ित करता है, उसका खजाना नष्ट हो जाता है । क्योंकि पीड़ित प्रजा असंतुष्ट होकर एकदम राजास यगायत कर देती है जिसके फलस्वरूप राजकीय खजाना खालो हो जाता है ||१||
गर्ग' विद्वान्ने भी टेक्स द्वारा प्रजाको पीड़ित करनेवाले, राजाकी इसीप्रकार हानि निर्दिष्ट की है।
राजाने जिनको पयमें टेक्स लेनेसे मुक्त कर दिया है, उनसे वह फिरसे टेक्स न लेकर उनका अनुग्रह करे, क्योंकि इससे उसकी वचन-प्रतिष्ठा व कीर्ति होती है ॥१८॥
नारद विद्वान्के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
मर्यादा-लोकव्यवहारका उल्लंघन करनेसे धन-धान्यादिसे समृद्धिशासी भूमिभो जंगल समान फल-शून्य हो जाती है। अतः विवेकी मनुष्य व राजाको मर्यादा (नैतिक प्रवृत्ति) का उल्लंघन नहीं करना पाहिये ||१ १ तथा जैमिनिः-सस्यामा परिपक्वानां समये यो महीपतिः । सैम्यं प्रचारशच दुर्भिस प्रकरोति सः ॥१॥
सर्थ चापाः प्रजानां को कति ऐसा पाठान्तर मू० प्रतियों में है, जिसका अर्थ यह है कि पूर्व में कही (पकॉक खेतों मेंसे सेना निकासमा-मादि) व म कही दुई पापाचों-प्रजाको दी गई पोदामों-से प्रजाकी सम्पत्ति मह होती है ।१॥
षय संप्रहः ऐसा पद म प्रतियों में है जिससे उक्त सूत्रका पह भय होता है, कि जिस प्रकार तासंग्रह मो कभी उपयोगी होता है, उसी प्रकार परिव म्यक्ति भी कभी उपयोगी होता है, प्र०एव राजाको दरिम (मिर्धम) प्राको भनसे सहापणा करनी चाहिये, शेपार्थ पूर्ववत् समझना चाहिये । xमायेच सरिता पपमपुटमेदिनी राह कामधेनुः इस प्रकारका पाठ भू० प्रतिशे में है, जिसका अर्थ यह है कि बार सरषित महायोग्य टेक्स-मादि लिया जाता है और म्यापारियोंके क्रय-विक्रय योग्य वस्तु से म्याप्त नगरी काम अनु समान राजामोंके ममोरप पूर्ण करती ॥२१॥
या पग:-प्रजामा पोवनाहि न प्रभूतं प्रजायते । भूपसीना तो माघ मसं येन तडवेत् ॥१५ । सथा र नारवः-प्रकस ये कवा पूर्व वा मासो न हि । निझवाक्यप्रतिधार्थ भभुजा कीर्तिमगाता ॥
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minentarnak
जनपद समुश गुरु' विद्वान्ने भी मर्यादा उल्लंघन न करनेवाले राजाके विषमें इसाप्रकार कहा है ॥१॥
मजाकी रक्षा करने के निम्न प्रकार हैं। (१) धन नष्ट हो जानेसे विपत्सिमें फंसे हुये (रिख) कुटुम्बी. जनोंकी द्रव्यसे सहायता करना । (२) प्रजासे अन्याय पर्वक्र तृणमात्रमी अधिक टेक्स वसूल न करनान्यायपूर्वक उचित टेक्स लेना अथवा दरिद्रतावश-आपत्तिमें फसो हुई प्रजासे तृणमात्रभी टेक्स न ना । (३) किसी समय (अपराध करने पर)-अपराधानुकूल दंड-विधान करना ।।२०।
नारद विद्वान ने भी लोकरक्षाके विषयमें इसी प्रकार कहा है ||१||
राष्ट्रक शुल्क-स्थान (प्रधान शहर और बड़े २ कृषिप्रधान प्राम), जो कि पायसे सुरक्षित होते हैं (महापर अधिक टेक्स न लेकर न्यायोचित टेक्स लिया जाता दो तथा चोरों-श्रादि द्वारा चुगई हुई प्रजाकी धनादि वस्तु वापिस दे दी जाती हा) और जहां पर व्यापारियोंको खरीदने और बेचने योग्य वस्तुओं (केसर, हींग वस्त्रादि) की अधिक संख्यामें दुकानें हों, वे राजाको कामधेनु समान अमिलपित वस्तु देने वाले होते हैं। क्योंकि शुरुषस्थानोंसे राजा टेक्सके जरिये प्रचुरसम्पत्ति नय कर शिष्टपालन व दुनिग्रहमें उपयोगी सैनिक विभाग, शिक्षा वि..ाग व स्वास्थ्य विभाग आदिको उमति करने में समर्थ होता है, एवं राष्ट्रको शत्र-कृत उपद्रवोंसे सुरक्षित हुआ स्वजानेको वृद्धि करता है । परन्तु शुल्कस्थान न्यायसे सुरक्षत होने चाहिये, अन्यथा प्रजा असंतुष्ट और सुब्ध हो जाती है, जिसका परिणाम भयकर होता है-मायके द्वार रुक जानेसे कोष-क्षति व शक्त उपद्रवों द्वारा राम्प नष्ट होता है |शा
शुक्र : विद्वान्ने भी शुज्कस्थानोंको न्यायसे सुरक्षित रखनेके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥१॥
सेना व राजकोषको द्धिके कारण, विद्वान् व प्रामणों को देने योग्य भूमि, भूमि-धान सालाप दान आदिमें विशेषता अथवा पादविधायके उपरान्त न्यायोचित निणय
राशा चतुरंगबलामिवृद्धये भूयांसो भक्तानामा: ॥२२॥ सुमहच्च गोमण्डल हिरएपाय युक्त शुल्क कोशवृद्धिहेतुः ॥२३॥ देवद्विजप्रदेया गोरुतप्रमाणा भूमितरादातर लनिर्वाहा ॥२४॥ क्षेत्रवप्रखण्डधृमायतनानामुत्तरः पूर्व वाधते न पुनहसर पूर्वः ॥२५॥
१ तथा च गुरुः- मर्यादातिकमो यस्मा भूमौ राशः प्रजापते । समृदापि साइजायतेऽरयवसतिभा ॥२॥ २ व्याप मारवः-[चिम्मन क्षीण वित्तानो] स्वप्राइस्य विपर्जम् । युकदरच लोकानां परमं परिकार
शो० परि०। ३ तथा च :-मा नैवाधिक शुरुकं चौराहत मवेत । पिण्ठा भूभुजा वेगं बायो तत् सोश Im * इसके पश्चात् मू० प्रतियों में मामबहस्तो भूयते हि किलावटकसाल इन तीनों सूत्रोंग सम्बची कि० टी० पुस्तकके जुर्म-समुद्रदेशमें वर्तमान है, उनका अनुवाद वहां किया जायेगा। इसके सिपाचन प्रतियोंमें 'न हि ममियोगात परः प्रपंजनविविवरस्ति इस प्रकारका अधिक पाठ बर्षमाग; मिला अर्थ यह है कि राजा द्वारा दिये जाने वाले अपराधानुकक्ष वंध-विधान रूप न्यायसे राष्ट्रको समस्त प्रा मित्र रहती है-नीति मार्ग पर मारूक रहती है, इसके सिवाय प्रजाकी विशुद्धिका दूसरा कोई उपाय नहीं।
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नीतिवाक्यामृत
अर्थात्ः– राजा ज्यादा धान्यकी उपजाले बहवसे प्राम जो कि उसकी चतुरंग सेना (हाथी, घोड़ा, रथ और पैदन) की वृद्धिके कारण हैं, उन्हें किसी को न देखे ||२२||
RAR
शुक' विद्वानके उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥५॥
बहुतसा गोमण्डल - गाय-बैलोंका समूह, सुषएं और दुगी-टेक्स (सान) आदि द्वारा शप्त हुआ धन राजकोषकी वृद्धिका कारण है ||२||
गुरु विद्वान्ने भी राजकोषको वृद्धि उक्त कारा निरूपण किये हैं ॥१॥
राजा द्वारा विद्वान् और ब्राह्मणोंके लिये इतनी थोड़ी भूमि दानमें दी जानी चाहिये, जिसमें गायके रहानेका शब्द सुनाई पड़े; क्योंकि इतनी थोड़ी भूमि देनेसे दाता और पात्र (महण करने वाला) को सुख मिलता है। अर्थात दावा भी दरिद्र नहीं होने पाता एवं कोई राजकीय अधिकारी उतनी थोड़ीसी जमीन पर कब्जा नहीं कर सकता ||२४||
गौतम
विद्वामके उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ||१||
क्षेत्र, तालाब, कोट, गृह और मन्दिरका दान इन पांच चीजोंके दानोंमें आगे आगेकी चीजोंका दान पूर्वके दानको वाधित कर देता है । अर्थात् हीन- (गौण) समझा जाता है । परन्तु पहिली वस्तुका पाद आगेकी वस्तु दानको डीन नहीं करता । अर्थात् क्षेत्र (खेत) के दानकी अपेक्षा बालाबका दान उत्तम है, इसी प्रकार निन्दानसे कोट-दान, कोट-दानसे गृह-दान और गृह-दानसे मन्दिरशन उत्तम और मुरुष है। परन्तु की वस्तुओंके दानकी अपेक्षा पूर्वं वस्तुका दान उच्चम वा सुक्ख नहीं है; क्योंकि आगे २ वस्तुओं का दान विशेष पुष्यगंधका कारण है ।
(२) अर्थ - विशाल खाली पड़ी हुई किसी जमीन पर भिन्न २ पुरुषोंने मित्र ६ समयोंमें बेठे, कोट, घर और मन्दिर बनवाये पश्चात् इनमें अपने स्वामित्व के विषय में वाद-विवाद हो गया। उनमें से धर्माध्यक्ष (न्यायाधीश) किसको अधिकारी (स्वामी) निश्चित करे ? अर्थात् सबसे ब किसी एक पुरुषने किसी त्वानको भूमिको खाली पड़ी हुई देखकर वहां खेत बना लिये। पश्चात् दूसरेने उस पर कोट खड़ा कर दिया और तीसरेने उस पर मकान बनवा जिया, और चौथेने मन्दिर निर्माण करा दिया वत्पश्चात् उन सबका आपस में वाद-विवाद प्रारम्भ हो गया। ऐसे अवसर पर आगे २ की ब बनाने वाले मनुष्य न्यायोचित मुख्य अधिकारी समझे जांयेंगे । अर्थात् खेत बनाने वाले की अपेक्षा फोट बनाने वाला, कोट बनाने वालेकी अपेक्षा गृह बनाने खाना, और गृह बनाने वालेकी अपेक्षा मन्दिर बनाने वाला बलवाद और प्रधान अधिकारी समझा जावेगा । परन्तु पूर्व २ की चीजें बनाने वाला नहीं भावार्थ:--- उनमें से मन्दिर बनाने वाला व्यक्तिका उस जमीन पर पूर्ण अधिकार सममध जायेगा। पूर्व वस्तु बनाने वाले का नहीं
इति जनपन समुद्देश ।
१ तमाशुकः- चतुरंग बेडुमष्टप्रामेषु तुष्यति । बुद्धिं याति म देवास्ते कस्वभिद सरवदा पदः ॥1॥ गुरुः- प्रभूखा पेयो बस्न राष्ट्र भूपस्थ धर्वदा । हिरणबाब तथा पशुपुकोशामि गवः- देवद्विजमा भूः प्रभा खोप नाम्पाद । दातुरच बाह्मवस्यापि सुमा मोराच्य माना ॥१॥
॥1॥
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२० दुर्ग-समुद्देश राज्या व उसके भेद• पस्याभियोगात्परे दुःखं गच्छन्ति दुर्जनोयोगविषया व स्वस्यापदो गमयतीति दुर्गम् ॥१॥ तद्धिविष स्वामाविकमार्य च ॥२॥
अर्थ:-क्योंकि जिसके पास प्राप्त होकर या जिसके सामने युद्ध के लिये मुलाये गये शत्रु क्षोग, दुःख अनुभव करते हैं। पयवा यह दुधों योग द्वार। मुम्न होने पाली जिगी फी भापतियां मह करता है, इसलिये इसे "दुर्ग कहते हैं । सारांश यह है कि जब विजिगीषु राजा अपने राज्य में शत्रु
मना होने के अयोग्य विकट स्थान (किला, वाई आदि) बनवाता है, तब शत्र लोग उन विष्ट सानों से दुःखी होते हैं. क्योंकि सनके हमले सफल नहीं हो पाते एवं तुष्टों द्वारा होने वाले मात्रामा संबन्धी विजिगीषु के कष्ट-नाशक होने से भी इसे "दुर्ग" कहते हैं |शा
शुक' विहान ने कहा है कि जिसके समीप प्राप्त होकर शत्र दु:खी होवे हैं जो संकट पड़ने पर अपने स्वामी की रक्षा करता है, उसे 'दुर्ग' कहते हैं जिस प्रकार दत-शुन्य सर्प, मद-शून्य हामी वश कर लिम आता है, उसी प्रकार दुर्ग-रान्य राजा भो शत्रुओं द्वारा हमला करके परा कर लिया जाता है ॥२॥
जो दुर्ग देश के मध्य की सीमामों पर मनाया जाता है उसकी निशान लोग प्रशंसा करते है। परन्तु देश के मान्त भाग में पना हुमा दुर्गा नही कहा जाता, क्योंकि यह मनुष्यों द्वारा पूर्णरूप से सावित नहीं होता |शा
प्रर्ष:-गुग दो तरह के होते हैं-१) स्वाभाविक () माहा।
सामाविक दुर्ग-स्वयं उत्पन्न हुए, युखोपयोगी प शत्रुओं द्वारा माक्रमण करने के प्रयोग पर्व-साई धादि विकट स्थानों को स्वाभाविक दुर्ग कहते हैं।
अर्मशास्त्र येचा विद्वान् चाणक्य ने इसके चार भेद निरूपण किये है।
(१) प्रौर-आमदुर्ग, (२)पार्वत-पर्वतदुर्ग, (३) धान्यन (४) वनदुर्ग-स्वमदुर्ग। बाल दुर्गल बायो दुःखमाप्नुयुः । स्वामिमं रणवत्र बसने दुर्गमेव स ॥
पोंगामागो नवयुवः । दुर्गव रहितो राजा वा गम्पो मोरियो । देखगर्ने मार्ग दुर्ग' सलले । ऐसमान्तगतं दुर्गन सर्व पितो बनैः ॥३
मामा- ला मिनापदमोदर प्रस्तर गुर्वा का पाव, निरुवासम्बनिस्विंग पाल्प,
नामदुर्ग । कौटिलीय अर्थशास्त्र प्र. १, स्त्र । दीपूर्ण जनपदारला नदुर्गमम्मोलान', भापत्रपसारो पा । नेटिक अर्थ ॥ प्र.
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२६.
नीतिवाम्यामृत
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मोदक-चारों ओर नदियों से वेष्टित व मध्य में टापु समान विकट स्थान अथवा बड़े बड़े तालाबों से वेष्टित मध्य स्थान को 'श्रीदक' कहते हैं।
पार्यतः-बड़े पत्थरों या महान चट्टानों से घिरे हुए अश्या स्वयं गुफाओ' के प्राकार बने हुए विकट स्थान 'पावत दुर्ग' हैं।
धान्वनः-जल व घास-शून्य भूमि या ऊपर जमीन में बने हुए विकट स्थान को 'भाम्बन दुर्ग' कहते हैं।
धन दुर्गः-चारों ओर घनी कोचड़ से अथवा कांटेदार मादियों से घिरे हुये स्थान को 'वनदुर्ग' कहते हैं।
- और पर्दा दुर्गा नो एवं धाम्बन और वन-दुर्ग आददिको की रक्षा के स्थान है और राजा भी शत्रु कृत हमलों आदि आपत्ति के समय भागकर इन दुर्गों में श्राश्रय ले सकता है।
(२) आहार्यदुर्ग-कृत्रिम उपायों द्वारा बनाये हुए शत्रुओं द्वारा आक्रमण न किये जाने वाले, युद्धोपयोगी वाई-कोट धादि विकट स्थानो' को 'माहार्य दुर्ग' कहते हैं।
दुर्ग:विभूति व दुर्ग शून्य देश तथा राजा की हानिवैषम्यं पर्याप्तावकाशो यवसेन्धनोदकम्यस्त्वं स्वस्य परेषामभाषो बहुधान्यरससंग्रहः प्रवेशापसारीक वीरपुरुषा इति x दुर्गसम्पत् अन्यद्वन्दिशासावत् ॥३।। अदुर्गो देशः कस्य नाम न परिभवास्पदं ॥४॥ प्रदुर्गस्य राक्षः पयोधिमध्ये पोतच्युतपक्षिवदापदि नास्त्याश्रयः ॥५॥
अर्थ:-निम्नप्रकार दुर्ग की विभूति-गुण है जिससे विजिगीषु रावत उपद्रवों से अपना राष्ट्र सुरक्षित कर विजयश्री प्राप्त कर सकता है।
१-दुर्ग की जमीन-पर्वत आदि के कारण विषम-पीनीचो व विस्तीर्ण (विस्तार युज) हो। २-जहाँपर अपने स्वामी के लिये ही धाम, धन और जल बहुतापससे प्रामोसा पर हमला करने पाने शत्रों के लिये नहीं।३-जहां पर गेहूँ-पावन-भादि माद नमक; घी बगैर रसोंग प्रचुर संग्रह हो । ४-जिसके पहिले दरवाजे से प्रचुर धाम्य और रसों का प्रबेश एवं दूसरे से निकासो होतो हो।५-जहां पर बहादुर सैनिकों का पहरा हो । यह दुर्ग को सम्पचि जाननी चाहिये, बहां पर 1 सम्पत्ति नहीं है, उसे दुर्ग न समझ कर जेलखाने का सामान भपने स्वामी का पात समझना चाहिये क्षा
के प्रवेशासाहो' इसमकार भू० प्रवियोंमें पा जिसका अर्थ यह दुर्ग इवना मन से पास से जिसमें अनुमों का प्रदेशमा सके।
x माचार 'प्रत्येक प्राकारगिरिसमागम दुर्गवर्य स्ववि' हया पिर मूत्रपितों में जिसन पर्व पर है कि प्रत्येक परकोटा में रक्त चीप मान हो एवं दो को सिरों पोवा चाहिये।
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दुर्ग समुद्देश
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शुक्र' विद्वान ने कहा है कि जिसमें एक द्वार से वस्तु-प्रवेश और दूसरे से निकासी न हो, वह दुर्गे नहीं जेलखाना है ॥१॥
दुर्गविहीन देश किसके पराजय का स्थान नही ? सभी के पराजय का स्थान है ॥४|आपतिकालमें-शत्रुत आक्रमणों के समय दुर्गशून्य राजाका समुद्र के मध्य में नौका से गिरे हुए पीके समान कोई रतफ नहीं। अर्थात् जिस प्रकार नौका से समुत्र में गिरे हुए पक्षी का कोई रक्षक नहीं, उसी प्रकार शत्रु कत माक्रमण द्वारा संकट में फंसे हुए वर्ग-शून्य राजा का भी कोई रक्षक नहीं है ||
शुक्र विद्वान ने भी दुर्ग-शून्य राजा के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥ शत्र, के दुर्ग को नष्ट करने का उपाय, दुर्ग के विषय में राज कर्तव्य व ऐतिहासिक दृष्टान्तउपायतोऽधिगमनमुपजापश्चिरानुवन्धोऽत्रस्कन्दतीक्ष्णपुरुषोपयोगश्चेति परदुर्गलभोपायाः।।६।। नामुद्रहस्तोऽशोधितो वा दुर्गमध्ये कश्चित् प्रविशेभिर्यच्छेद्वा ।।७।। श्रूयते किल हूणाधिपतिः पष्यपुटवाहिभिः सुभटैः चित्रकूट जग्राह ॥८॥ खेटखङ्गधरैः सेवार्थ शत्र णा भद्रारूप कांचीपतिमिति
अथे-विजिगीषु को शत्र दुर्ग का नाश या उसपर अपना अधिकार करने के लिये निम्नप्रकार पाय काम में लाने चाहिये।
१--अधिगमन-सामादि उपायपूर्वक शत्रदुर्ग पर शस्त्रादि से सुसज्जित सैन्य प्रषिष्ट करना ।२उपजाप-विविध उपाय (सामादि) द्वारा शास्त्र के अमात्य आदि अधिकारियों में भेद करके शत्र के प्रतिद्वन्दी पनाना।३-चिरानबन्ध-रात्र के दुर्ग पर सैनिकों का चिरकालतक घेरा डानना। ४-अयस्कन्द-शत्र दुर्ग के अधिकारियों को प्रचुर सम्पत्ति और मान देकर पश करना । ५-तीक्ष्णपुरुषप्रयोग-मातक गुप्तचरों को, शत्र राजा के पास भेजना |६||
शुक विद्वान ने कहा है कि विजिगीषु शत्र वर्ग को केवल युद्ध द्वारा ही नष्ट नहीं कर सकता, अतएव उसे उसके अधिकारियों में भेद आदि उपायों का प्रयोग करना चाहिये १।। दुर्ग में स्थित केवल एक धनुघोरी सैकड़ों शक्तिशाली शत्रों को अपने वादों का निशान बना सकता है, इसलिये दुर्ग में रहकर युद्ध किया जाता है।
तथा शुभ-निगमः प्रकारचा दुर्ग प्रविद्यते । अम्पद्वारेच परत मान दुर्ग पदि गुम्सिद | २ प्यार शुकः-दुर्गम रहियो राजा पोतमसो पचा बराः । समुद्रमध्ये स्थान न समते गरेप सः | * 'सेट-सहावरच भद्रः कांचीपतिमिति' इसप्रकार का पाठान्तम प्रतियों में पर्वमान है, जिसका अपह
कि भन्न नामक राजा ने मापारी सैनिकोको शिकार्मयों के मेष में काली देश के दुर्ग में महिमाकर पहा के
परेश को मार गया। ३षा - शुका-पुन प्रशस्वं ला पापुगेन । मुल्ला मेवाकु गाय स्माताल नियोने ॥१॥
शबनेकोअपि सम्बचे प्रास्मो अनुभः । परेषामपि पोचाय स्माद् हुन पुष्यते ॥२॥
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नीतिवाक्यामृत
विजिगीषु को, जिसके हाथ में राजमुद्रा नहीं दी गई हो ऐसे अज्ञात वा अपरीक्षित (जिसके निदा सब गन्तव्य स्थान एवं उद्देश्य आदि की जांच पड़ताल नहीं की गई हो ) व्यक्ति को अपने दुर्ग में प्रथि नहीं होने देना चाहिये और न दुर्ग से बाहिर निकलने देना चाहिये ||७||
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शुका ने भी कहा है कि 'जिसके शासनकाल में दुर्ग में राजमुद्रा-विहीन व अपरीक्षित पु प्रविष्ट हो जाते है अथवा वहां से बाहिर निकल आते हैं, उसका दुर्ग नष्ट हो जाता है ||१|| "
इतिहास में लिखा है कि हुए देश के नरेश ने अपने सैनिकों को विक्रय योग्य वस्तुओं को भार करने वाले व्यापारियों के वेश में दुर्ग में प्रविद्ध कराया और उनके द्वारा। दुर्ग के स्वामी को मरवाकर चिक कूट देशपर अपना अधिकार कर लिया ||
इतिहास बताता है कि किसी शत्रु राजा ने कांची नरेश की सेवा के बहाने भेजे हुए शिकार खेलने में प्रवीण होने से खड़वारण में अभ्यस्त सैनिकों को उसके देश में भेजा; जिन्होंने युग में प्रविष्ट होकर भद्रनाम के राजा को मारकर अपने स्वामी को कांची देश का अधिपति बनाया ॥६॥
जैमिनि विद्वान ने कहा है कि 'जो राजा अपने देश में प्रविष्ट हुए सेवकों पर विश्वास करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाया है ||२१||
इवि दुर्गेसमुद्देश |
२१ कोश - समुद्देश
की शब्द की व्याख्या, एस के गुण व उसके विषय में राजकर्तव्य - यो विपदि सम्पदि च स्वामिनतंत्राभ्युदयं कोशयतीति कोशः ॥ १ ॥ सातिशयहिरएपरजतप्रायो व्यावहारिकनायकबहुलो महापदि व्ययसइश्वेति कोशगुणाः ||२|| कोशं वर्धयन्तुनमर्थमुपयुञ्जीत ॥३॥
अर्थ- ओ विपत्ति और संपत्ति के समय राजा के तंत्र ( हाथी, घोड़े, रथ और प्यादे सुरत सेना ), को वृद्धि करता है एवं उस को सुसंगठित करने के लिये धन-वृद्धि करता है, उसे कोरा (खाना) कहते है ॥१०
शुक्र विद्वान ने भी कोश शब्द की यहो व्याख्या की है ॥१॥
1 याच कः प्रविशन्ति नरा पत्र दुर्ग मुद्राबिबर्जिताः । अग्रदा वित्सरन्ति स्म युगे तस्य नश्यति ||१|| जैमिनिः स्ववेशजेषु भृत्येषु विश्वास यो मृयो प्रजेत् । स द्वषं मारामामावि नं मिमिरिस्वद्मजश्रीत् ||1||
३ शुक्रः भ्रापत्काले च सम्प्राप्ते सम्पत्कान्ने विशेषतः । तन्त्रं विवध मते राक्षां स कोशः परिकोर्तितः ||१||
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कोश समुरेश
२३३
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र अधिक तादाद में सोना व चांदी से युक्त जिसमें व्यवहार में चलने वाले रूपयों और
-मादि सिक्कों का प्राधिक संबह पाया जाये और जो सष्ट समय, अधिक खर्च में समर्थ हो, ये कोषके गुण है। अर्थात् ऐसे खजानेसे राजा व राष्ट्र दोनोंका कल्याण होवा है ।२॥
गुरु' विद्वान् ने भी इसी प्रकार कोश-सुमिपण किये हैं ॥५ । भीतिकार कामदक ने भी कहा है, कि 'जो मोती सुवर्ण और रत्नों से भरपूर, पिता तामह से रक्षा श्राने वाला न्याय से संचय किया हुआ व पुष्कल खर्च सहन करने वाला श्री से सम्पत्ति शास्त्र के विद्वानों ने 'कोश' कहा है ॥१॥ कोषधान्-धनान्य पुरुष को धर्म और धन सखा के निमित्त एवं भत्यों के भरण पोषणार्थ तथा आपसिसे बचाव करने के लिये मदा कोश की सा करनी चाहिये ||२| . राजा अपना कोश बढाता दुपा टेक्स-आदि न्यायोचित उपायों द्वारा प्राप्त किये हुए धन में से सब धन उपयोग में लावे ॥३॥
पशिष्ठ विद्वान ने कहा है कि बुद्धिमान नरेशों को आपत्तिकाल को छोडकर राय रक कोष की सदा पद्धि करनी चाहिये, न कि हानि ॥१॥
कोशद्धि न करने वाले राजा का भविष्य, कोश का माहाल्य घ कोशविहीन राजा के पुत्रस्य पविजयलक्षमी का स्वामी
इतस्तस्यायस्या श्रेयांसि यः प्रत्यह काकिण्यापि कोश' न वर्धयति ॥४॥ कोशो हि भूपतीनां जीवनं न प्राणाः ॥५॥ चीणकोशा हि राजा पोरजनपदानन्यायेन ब्रसवे ततो राष्ट्रशून्यता स्यात् ॥६॥ कोशो राजेपुष्पवे न भूपतीनां शरीरं ॥७॥ यस्य हस्ते प्रम्य स जपति ।।
भ:- जो राजा सदा कौढ़ी कौड़ी जोड़ कर भी, अपने कोश की वृद्धि नहीं करता, समका . भविष्य में किस प्रकार कल्याण हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥४॥
गुरु भी कोषवृद्धि के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
निश्चयसे कोपही राजामौका जीवन-माण रक्षाका साधन है। प्राण नहीं 1 सारांश यह है कि राजतन्त्र कोषाश्रित है, इसके विना वह नष्ट हो जाता है । १ व्या व गुणा-भावाने सु सम्प्राक्षे बहुमयसामः | हिमपादिभिः सयुक्तः स कोशो गुबवाल सक याच कामन्दक:- मक्ताकमकरस्ताव्यः पितृपलाहमहोचित पार्जितो म्ययसहा कोषः कोपसम्भवः ॥
धर्मवोस्ववार्थाप अस्थानो भावाव। भापवर्षमय सरच्या कोपः कोपवा सपा ॥२॥ । सवा च पशिष्टः- कोगपति सदा कार्या में मानिः कयरन । मापस्कावाटते प्रायोयो रायसः ॥९॥ ४व्या व गुरु:-काकिस्यापि म रवि यः को मयति भूमिमा मापकाने तु सम्प्रासे शान मिः पीयते सि ॥
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नोतिवाक्यामृत
भागुरि । विद्वानने लिखा है कि जिस प्रकार पक्षीगण कुलीन (पृथ्वीमें लीन) और ऊंचेभी पेड़को . सूखा-फल-पुष्प विहीन देखकर दूसरे फल-पुष्पयुक्त पेड़ पर चले जाते हैं, उसी प्रकार राजकीय सेवक बोग-पदाधिकारी कुलीन और उन्नतिशील राजाको छोड़कर दूसरे (धनाट्य) की सेवा करने लगते हैं ॥१॥
कोषविहीन राजा देशवासियों के निर्दोष होने पर भी उन्हें अन्यायसे दण्डित कर जुर्माना आदि द्वारा ग्नसे प्रचुर धनराशि प्रहण करनेको सतत प्रयत्नशील रहता है। जिसके फलस्वरूप अन्यायसे पोदित प्रजा वसे भग जाती है, जिससे राष्ट्रमें शून्यताहो जाती है। सारांश यह है कि राजाको न्यायोचित उपायों से कोष सि करते रहना चाहिये ॥६॥
गौतम विद्वान्ने भी उपरोक्त कथनकी पुष्टि की है ॥१॥
नीतिक पुरुष राज-कोशको ही राजा मानते हैं, न कि उसके शरीरको। क्योंकि कोशःशून्य होनेसे बह शत्रु ओं द्वारा पीड़ित किया जाता है ॥७॥
रैभ्य- विद्वन्ने भी इसी प्रकार कहा है ॥१॥ जिसके पास धन-राशि है वही विजयलक्ष्मी प्राप्त करता है ।।
निर्धनकी कड़ी आलोचना, कुलीन होने पर भी सेवाके योग्य न माने जाने वाले राजाका वर्णन, धनका माहास्य, और मनुष्यको कुलीनता और बड़प्पन व्यथ होने के कारण
धनहीना कला गापि परित्यज्यते किं पुनर्नान्यः।।६॥ न खलु कुलाचाराम्यां पुरुषः सरों. ऽपि सेव्यतामेति किन्तु वित्तेनै। ॥१०॥ स खलु महान् कुलीनश्च यस्यास्ति धनमनूनं ॥११॥ किं तया कुलीनतया महत्वया वा या न सन्तयति परान् ॥१२
भर्म-निर्धनको, जबकि उसे स्वयं नसकी पत्नी भी छोड़ देती है, वो फिर सेवकों द्वारा उसे छोरे जाने में विशेषता ही क्या है ? सारांश यह है कि संकट पड़ने पर निर्धनकी कोई सहायता नहीं करता । भवः विवेको पुरुषको न्यायोचित उपायों द्वारा धन-संचय करनेमें प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥६॥
सेवक लोग कुलीन और सदाचारी होनेसे ही मनुष्यको श्रेष्ठ या सेवा-योग्य नहीं समझने गति पनाम्य होनेसे ही से श्रेष्ठ मानते हैं। संसारमें दरिद्र व्यक्ति के कितनेही कुलीन और सदाचारी होने पर
की सेवार्य कोई प्रस्तुत नहीं होता, क्योंकि वहां जीविकोपार्जनका साधन (धन) नहीं है, जबकि नोच. कुनमें सपा और चारित्रप्रष्ट होनेपर भी धनाढ्य व्यक्तिकी जीविका हेतु सभी लोग सेवा करते हैं। निष्कर्ष यह किकुलीन भौर सपापारी होने पर भी राजाके लिये राज-सत्रको नियमित र व्यवस्थित रूपस चलाने के लिये म्पायोचित उपायों द्वारा धन संग्रह कर कोष-वृद्धि करते रहना चाहिये ॥१०॥ । तथा भाग:-कोराहीनं नृपं भस्पा चीनममि रोधलं । संत्यज्याम्पत्र गन्ति राकामिवावाजा: m.
प्पा-गोवमा-कोण्हीनो मनो खोका निभानपि पीडयेत् | sपदेशं वो यान्ति ततः सं प्रकार तिवारमा- राजा गन्दोs कोयल शीरे नृपस्म । कोशहीनो नृपो परमायाभिः परिपीस ..
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कोश समुरेश व्यास' विद्वानने लिम्बा है कि संसारमें मनुष्य धन का नौकर है, धन किसीका नहीं क्योंकि धनार्थ कुलीन व्यक्तिमी धनाड्यकी सेवा करते हैं ।।१।।
जिसके पास प्रचुर धन विद्यमान है, वही महान् और कुज्ञीन कहलाता है ॥११॥
जैमिनि विद्वानने लिखा है कि संसारमें जुपच होनेपर भी धनहीन नीचकुलमें, और धनवान् नीचकुलका होने परभी उच्चकुलमें गिना जाता है ।।
____ जो आश्रितोंको सन्तुष्ट नहीं करपासा, उसकी निरर्थक फुलीनता और बड़प्पनसे कोई लाभ नहीं है। निष्कर्ष यह है कि पुरुष लोकमें अपनी कुलीनता व बड़प्पन धन द्वारा भाभितों को रक्षा करने के उपरान्नही कायम रख सकता है, अतएव धन-संग्रह अनिवार्य है। धनाड्य पर कंजस मनुष्यका बड़प्पन स्पर्ष है क्योंकि उसके आश्रित उससे मंतुष्ट नहीं रह पाते ॥१२॥
गर्ग' विद्वानने भी ऊपण के विषय पी कर कहा है । उक्त बातका दृष्टान्त द्वारा समर्थन, व खाली खजाने की वृद्धिका उपाय
सस्य किं सरसो महस्वेन यत्र न जलानि ॥ १३ ॥ देवद्विजवाणा धर्माधरपरिजनानुपयोगिद्रव्यमागैरास्यविधवानियोगिग्रामकटगणिकासंघपाखशिखविभवप्रत्यादानः समापौरजानपदद्रविण संविभागप्रार्थनैरनुपक्षयश्रीकामंत्रिपुरोहितसामन्तभूपालानुनयग्रहागमनाम्यां वीवकोशः कोश यदि ॥१४॥
भई-स वालाब के विस्तीर्ण होनेसे क्या लाभ है? जिसमें पर्याप्त उल नहीं परन्तु जबसे परिपूर्ण छोटा तालाव भी इससे कहीं अधिक प्रशंसनीय है । उसो प्रकार मनुष्य अनीनवा भाषि से बना होने पर भी यदि परिद्र है तो उसका बड़प्पन व्यर्थ है। अतः न्यायोचित साधनों हारा धन-संचय महत्वपूर्ण होता है ॥१५॥
खासी खजानेको भरने के लिये राजा निम्नलिसिव पार उपाय उपयोगमें सावे
(१) विद्वान् प्रामण और व्यापारियोंसे इनके द्वारा संचित किये हुए धनमें से क्रमशः धर्मानुशाम . यशानुटान और कौटुम्बिक पालनके अतिरिक्त जो धनराशि शेष बचे, उसे लेकर अपनी कोपपति करे।
(२) धनान्यपुरुष, सन्तान-हीन पनाव्य, विधषा, धर्माप्पा मादि प्रामाण्ठ अधिकारीवर्ग, बेरमा भौका समूह मौर कापालिक भावि पानी लोगोंके धनपर टेक्स लगाकर पनी सम्पत्तिका का अंश कर अपने कोशको पुति करे।
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बारपास:-प्रबंस पुरुषो दासो माझे पासोऽत्र कस्यचित् । पर्याय येन सेम्पन्न मोचा पिसोजः | १व्या मिनि:ोषोऽपि सुपीचोऽत्र पस्व मो विधते धनम् । ममीकोऽपि पारयो पल सन्धि पार्दिकाः ।।
यार गग':-गानिमा वित्त वा पुस्मिसरा । तीमोन असा लावा .
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मीसिवाक्यामृत
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(३) सम्पतिशाली देशवासियोंकी प्रचुर धन राशिका विभाजन करके उनके मलो भांति निर्वाह योग्य छोडकर, अपशिष्ट धनको उनसे प्रार्थना पूर्वक शान्तिके साथ लेकर अपने कोषकी वृद्धि करे।
(४) अचल सम्पत्तिशाली, मंत्री, पुरोहित और अधीनस्थ राजा लोगोंका भनुनय पौर विनय के उनके पर जाकर उनसे धन-याचना करे और उस धनसे अपनी कोष वृद्धि करे ॥१४॥ एक विद्वामने भी राजकीय कोष वृद्धि के विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥१॥
इति कोश समुरेश।
२२ बल-समुद्देश बम शम्प की व्याख्या, प्रधान सैन्य, इस्तियों का माहात्म्य व उनकी युखोपयोगी प्रधान राक्तिद्रविणदानप्रियभाषणाम्यामरातिनिवारखेन यदि हित स्वामिन सर्वावस्थासु बलते संबसोतीति पलम् ॥१॥ बलेषु हस्तिनः प्रधानमंग स्वैरवयङ्करप्टायुषा हस्तिनो भवन्ति ॥२॥हस्तिप्रधागो विजयो रामा यदेकोऽपि इस्ती सहस्र योधयति न सीदति प्रहारसहस्र खापि ॥३॥ जाति कुल वन प्रचाररच वन इस्तिनां प्रधानं किन्तु शरार पलं शौर्य शिक्षा च तदुषिता च सामग्री सम्मतिः ॥ ४॥
अर्थ-जो शत्रुओं का निवारण करके मन-पान व मधुरभाषण द्वारा अपने स्वामी के सभी प्रयोजन सिद्ध करके उसका कल्याण करता है एवं उसे आपत्तियोंसे सुरक्षित रखकर शक्तिप्रदान करता है अतः इसे बम-सैन्य हाथी, घोडे, रथ, पैदल रूप चतुरङ्ग सेना) कहते हैं ॥१॥
शुक' विद्वान ने भी 'बम' शब्दकी यही ज्यास्था की है ॥१॥
चतुरज सेनामें हाथी प्रधान माने जाते हैं, क्योंकि वे अष्टायध हैं। अर्थात् वे अपने चारों पैरों, दो दाँत, पंच और सूज रूप शस्त्रोंसे युद्ध में शत्रुओं का विनाश करते हुए विजय-भी प्रास करते हैं। जबकि मम्य पैदल आदि सैनिक दूसरे खग भावि हथियारोंके धारण करनेसे मायुषवान् त्रिभारी) कहे जाते हैं।
पालकि विद्वान ने भी मष्टायुध हाथियों की प्रशंसा की है ।।१० . ..--.--.-..-... ... .. . .. . ... ...- .
देखोमीति बी .पृ०२१। .पा -मेन प्रियसभामाश्चर्य पुराजिलम् । मापनयः स्वामिन संत को बलमिति स्पतम् ॥॥ ३ क्या च पाखाकि:-पाष्टामुमो मोदन्ती रम्या पररपि । तथा च पुरवायाम्या संख्ये तेन स शस्यते ।
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बा समुद्देश
राजाओं की विजयके प्रधान कारण हाथोही होते हैं; क्योंकि युद्धभूमिमें वह शत्रुकृत हजारों प्रहारों से ताड़ित किये जाने पर भी व्यधित न होकर अकेलाही हजारों सैनिकोंसे युद्ध करता रहता है |गशा ' विद्वान्ने युद्ध में विजय प्राप्तिका कारण हामीही माना है ||१||
शुरू"
प्रचारकेही कारण प्रधान नहीं माने जाये परन्तु निम्नलिखित चार
हामी जाति, इल, वन और गुणों से मुक्य माने जाते हैं
19
२६७
31+4 शाम
(१) उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट व शक्तिशाली होना चाहिये; क्योंकि यदि वे बलिष्ठ नहीं हैं पौर नमें अन्य मन्द व मृग आदि जति, ऐरावत आदि कुल, प्राच्य आदि मन, पर्वत व नव-यादि प्रचार के पाये जाने परभी वे युद्ध-भूमिमें विजयी नहीं होसकते । (२) शीर्ष, पराक्रम- दायियों का पराक्रमी होना अत्यावश्यक है क्योंकि इसके बिना भाजली हाथी अपने ऊपर मारूद महाबतके साथ २ युद्धभूमि में शत्रुओं द्वारा मारडाले जाते हैं । (३) उनमें युद्धोपयोगी शिक्षाका होनाभी अनिवार्य है, क्योंकि शिक्षित हाथी सुद्धमें विजयी होतेहैं, जबकि अशिक्षित भरने भाग २ महाबलको भी ले भदा है और बिगड़ जाने पर बलटकर अपने स्वामीकी सेना कोभी रौंद डालता है । (४) युद्धोपयोगी कारण सामग्री रूप कश्मी:- हाथियोंमें युद्धोपयोगी कसंव्यशीलता आदि सामग्री (कठिन स्थानोंमें गमन करना, शत्रुसेना का उम्मुलन करना आदि) का होनाभी प्रधान है; क्योंकि इसके बिना के विजय भी प्राप्त कराने में समर्थ होते हैं ||४||
मल्लभदेव" विद्वान् ने भी हाथी के शक्तिशाली होनेके विषय में इसी प्रकार कहा है ।
अशिक्षित हाथी व उनके गुण
अशिचिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहराः ||२|| सुखेन यानमारभरका परपुरावमर्दनमरिष्यूहविघातो जज्ञेषु सेतुबन्धो वचनादन्यत्र सर्वं विनोद हेतवश्चेति हस्तियाः ||६||
अर्थ – युद्धोपयोगी शिक्षा शून्य हाथी केवल अपने स्वामीका मन व महावत आादिके भाव न कर देते हैं। क्योंकि बनके द्वारा विजय-लाभ रूप प्रयोजन-सिद्धि नहीं होता, इससे वे निरर्थक वास द आदि भक्षण द्वारा अपने स्वामीको आर्थिक दृष्टि करके अपने ऊपर चारूद महाबतके मी माया से ले है एवं विगड़ जाने पर उलट कर अपने स्वामीकी सेनाको भीद डाळवे हैं || ||
नारद' विद्वान्ने भी अशिक्षित हाथियोंके विषय में इसी प्रकार कहा है ||१||
हाथियोंमें निम्न प्रकार गुण होते हैं । १ कठिन मार्गको सरलता पूर्वक पार कर जाना। २-शत्रु-य हारोंसे अपनी तथा महावत की रक्षा करना। ३- शत्रु नगरका कोट व प्रवेश द्वार
कर उसमें
१ सया च शुकः--पहल योधयत्वको मतो याति न च स्वयं महारै पंडुभिस्तस्मादस्तिको
I
२ वथा च वामदेवः- मातिशयनमारेर चतुर्विधेः । युक्तोऽपि वा
५ वा भारदः -- शहला राजा रस्म प्रभवन्ति महीभृतः । कुर्वन्ति भगवन् ॥१४
॥१॥
॥१॥
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नोतिवाक्यामृत
होकर नेस्तनाबूद करना। ४-शत्रु के सैन्य-समूहको कुचलकर नष्ट करना । नदीके जलमें एकसाथ कतार. बार खड़ेहो कर पुल बांधना । ६-केवल वचनालाप-चोलना छोड़कर अपने स्वामोके लिये समो प्रकारके भानन्द उत्पन्न करना ॥६॥
भागुरि' विद्वान्ने भी हाथियों के उक्त गुण निरूपण किये हैं ।।। घोड़ोंकी सेना, उसका माहात्म्य व जास्यश्वका माहात्म्यअश्ववले सैन्यस्य जंगम प्रकारः ॥७॥ अश्वबलप्रधानस्य हि रानः कदनकन्दुकक्रीड़ा: प्रसीदन्ति श्रियः, भवन्ति दूरस्था अपि शत्रवः करस्थाः । भापत्सु सर्वमनोरय-सिदिस्तुरंने एव, सरणमपसरणमवस्कन्दः परानीकभेदनं च तुरामसाध्यमेतत् ।। आत्यालो विजिगीषुः शत्रोर्भवति तत्तस्य गमनं नारातिददाति ॥६॥ तजिंका, (स्व) स्थलाणा करोखरा माजिगाणा केकाणा पुष्टाहारा गम्हारा सादयारा सिन्धुपारा जात्याश्वानां नवोत्पचिस्थानानि ॥१॥
मर्य-घोड़ोंकी सेना चतुरङ्ग सेनाका चलता फिरता भेद है, क्योंकि वे भवन्त अपलक वेगसे गमन करने वाले होते हैं।
नारद विद्वानले भी आश्व सैन्यके विषयमें इसी प्रकार कहा है॥१॥
जिस राजाके पास अश्व-सेना प्रधानतासे विद्यमान है, उस पर युद्ध रूपी गदसे कीड़ा करने वाली बश्मी-विजयश्री प्रसन्न होती है जिसके फलस्वरूप उसे प्रचुर सम्पत्ति मिलती है। और दूरवीं शत्रु लोग भी निकटवर्ती हो जाते हैं। इसके द्वारा विजिरोषु आपत्तिकालमें अभिलषित पदार्थ प्राप्त करता है। शत्र। भों के सामने जाना और मौका पाकर वहांसे भाग जाना, छजसे उन पर हमला करना व शत्र सेनाको छिन्न-भिम कर देना, ये कार्य अश्व-सेना द्वाराही सिद्ध होते हैं रथादिसे नहीं।
शुक्र, विद्यानने भी कहा है कि 'राजा लोग अश्व-सैन्य द्वारा देखने वालोंके समय शव ओं पर हमला करने प्रस्थान कर दूरवर्ती शत्रु को मार डालते हैं ॥१॥
जो विजिगीषु जात्यश्व पर आरूढ़ होकर शत्रु पर हमला करता है, इससे उसकी विजय शेती है भौर शत्रु विजयगीषु पर प्रहार नहीं कर सकता ॥
जास-प्रश्वके । उत्पत्ति स्थान-जातियां हैं। सर्जिका, २ बस्थलाणा, ३ करोखरा,४ गाजि. गाणा, ५ केकाणा, ६ पुष्टाहारा, गाम्हारा, सादुयारा व ६ सिन्धुपारा॥१०॥
--- -- तया च भागरिः-सुखपानं सुरवा च शत्रोः पुरविमेदनम् । शनुम्यूहविधातश्च सेतुबन्धो गजैःस्मनः॥1॥ २ तथा नाका-तुरंगमय यच्च तरकारो स्मृहं । सन्मस्व भूमुजा काय तस्मातगवत्तरम् | ३ तथा च शुक्रः-प्रेचतामपि शन्न सो यतो यान्ति तुरंगमैः । भूपाला येन मिमम्ति रानु दोऽनि सस्थितम् ॥
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बल समुद्देश
शालिहोत्र' विज्ञानने भी अश्वोंकी उक्त जातियों का उल्लेख किया है ॥१॥ रथ- सैम्यका माहात्म्य, व सप्तम उत्साहीसेना एवं उसके गुणसमा भूमिधनुर्वेदविदो रथारूढाः प्रहर्तारो यदा तदा किमसाध्यं नाम नृपाणाम् ॥ ११ ॥ रथैरवमर्दितं परबलं सुखेन जीयते मोल-मृत्यकभृत्यश्रेणी मित्राटविकेषु पूर्व पूर्व बलं यतेत १२ अथान्यत्सप्तममौत्साहिकं बलं यद्विजिगीपोविजय यात्राकाले परराष्ट्र बिलोडनार्थमेव मिलष्टि छत्रसारख्यं शस्त्रज्ञत्वं शौर्य सारत्वमनरक्तत्वं चेत्यौत्सादिकस्य गुणाः ||१३||
अर्थ- - जब धनुर्विद्या में प्रवीण धनुर्धारी योद्धा गया रथारूढ़ होकर समतल युद्धभूमिमें शत्रुओं पर प्रहार करते हैं, तब विजिगीषु राजाओं को कोई भी बीज - विजय-लाभादि-प्रसाध्य नहीं । सारांश यह है, किसमतल भूमि गर्त पाषाणादिरहित जमीन व प्रवीण योद्धाओं के होनेसे ही युद्ध में विजिगीषुको विजय श्री प्राप्त होती है। क्योंकि ऊबड़-सायद भूमि और अकुशल योद्धाओंके कारमा रथ-संचालन व युद्धादि भली भांति न होनेसे निश्चय ही हार होती है ॥१॥
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शुक्र विद्वान्के उद्धरणका भी यही आशय है ।।१।।
विजिगीषूके रथों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट हुई शत्रु सेना आसानी से जीती जाती है, परन्तु उसे मौल (वंशपरपरा से चली आई, प्रामाणिक विश्वास पात्र व युद्ध विद्या- विशारद पैदल सेना) अधिकारी सैन्य, सा माम्यसेवक, भरेणी सेना, मित्र सेना व आटविक सैम्य इन छह प्रकारकी सेनामेंसे सबसे पहिले सारभूत सैम्य को युद्धमें सुसज्जित करनेका प्रयत्न करना चाहिये । क्योंकि फल्गुसैन्य ( कमजोर, अविश्वासी, व युद्ध करनेमें कुशल निस्सार सैम्य) द्वारा हार होना निश्चित रहता है ||१२|
विमर्श -- नीतिकार चाणक्य ने कहा है कि 'वंशपरम्परासे चली आने वाली, नित्य वशमें रहने वाली प्रामाणिक व विश्वास पात्र पैदल सेना को 'सारबल' कहते हैं एवं गुणनिष्पन्न हाथियों व घोड़ोंको सेना मी 'सारभूत सैन्य' है। अर्थात् कुल, जाति, धीरता, कार्य करने योग्य आयु, शारीरिक बल, आवश्यक ऊंचाई-चौड़ाई आदि, वेग, पराक्रम, युद्धोपयोगी शिक्षा, स्थिरता, सदा ऊपर मुंह उठाकर रहना, सवारकी शामें रहना व अन्य शुभलक्षण और शुभ चेष्टाएं, इत्यादि गुण युक्त हाथी व घोड़ो का सैम्य भी 'सारबल' है। अतः विजिगीषु एक सारभूत सैन्य द्वारा शत्रुओं को सुखपूर्वक आसानीसे नष्ट करे ।
१ तथा चामित्रम्:- वर्जिका स्वस्वाचा सुतोरास्पोरामा हयाः | गाजिनामा सकेकायाः पुष्टाहाराच मध्यमाः। १ गाव्हारा सादुष्णरारच सिन्धुपास कनोयस्थाः । श्रश्वान शक्षिोत्र जात्तयो नव कोर्तिताः ॥ २३॥ ईमाचक:- स्वाहा: सुधानुष्का भूमिभागे समे स्थिताः । युध्यन्ते यस्य भुपस्य तस्यासाय किंवन ॥१२॥ ३ दिन्यः दंडसंपत्सारवलं पुसाम् हस्त्यश्वयोर्विशेषः कुखं जाविः सत्वं त्रयस्तथा शव नमस्तेजः शिल्पं स्थेय मुदमता विधेयत्वं सम्यसमा चारतेति । कौटिन्होको अशास्त्र सांग्रामिक प्रका
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नीतिवाक्यामृत
नारद' विद्वाने मी सारभूत सेना को ही युद्धमें विजय प्राप्त करने का कारण माना है ॥१॥ तक छह प्रकारकी सेनाओं के सिवाय एक सातवीं उत्साही सेनाभी होती है । जब विजिगीषु शब् को जीतने के लिये उसपर चतुरङ्ग सेना द्वारा प्रबल आक्रमण करता है, तब वह शत्रु राष्ट्रको नष्ट-भ्रष्ट मेस्तनाबूद करने व मन छूटनेके लिये इसकी सेनामें मिल जाती है। इसमें छात्र तेज-बुत शस्त्र-विद्याप्रवीण व इसमें अनुराग युक्त कवि वीर पुरुष सैनिक होते है || १३|
नारद विद्वान्ने भी एक गुणसम्पन्न सैन्य को सेना कहा है ॥१॥
साहिक सैन्यके प्रति राज कर्त्तव्य, प्रधान सेनाका माहात्म्य व स्वामि द्वारा सेवकों को दिये हुवे
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सम्मानका प्रभाव
मौसम साविरोधेनान्यद्यलमर्थमानाभ्यामनुगृणीयात् दण्डितमपि न द्र क्षति भवति चापरेषामभेद्यम् ॥ १५ ॥
स्वाभिमम्मानः ॥ १६ ॥
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तथार्थः
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वशिष्ठ बिहान्ने भो मौत सन्य की यही विशेषता बताई है ।। १॥
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मौलारूपमापद्यनुगच्छति
पुरुषान् योधयति पगा
अर्थ-राजा अपने मौसैन्यप्रधान सैना का अपमान न करके-धन-मानादि झरा अनुरक करके उसके साथ २ उत्साही सैन्य (शत्रु पर आक्रमणार्थ अपनी ओर प्रविष्ट हुई अन्य राजकीयसेना) को भी धन व मान देकर प्रसन्न रखे || १४|
बादरायण विद्वान्ने भी मौल व औत्साहिक सैम्पको सन्तुष्ट रखनेके लिये इसी प्रकार कहा है ॥१॥ विजिगीषुका मौसैन्य आपत्ति काल में भी उसका साथ देता है और दवित किये जाने पर भी द्रोह नहीं करता, एवं शत्रुओं द्वारा फोड़ा नहीं जाता। अत: विजिगीषु उसे धन-मानादि देकर सदा सन्तु रो ॥१४॥
जिस प्रकार राजासे दिया गया सम्मान सैनिकोंको युद्ध करनेमें प्रेरित करता है इस प्रकार दिवा हुआ धन प्रेरित नहीं करता । अर्थात सैनिकोंके लिये धन देनेकी अपेक्षा सम्मान देना कहीं ज्यादा
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श्रहै ॥१६॥
नाराय* विद्वान्ने की सैनिकोंको अनुरक्त रखनेका बही उपाय बताया है ॥१॥
१:: रथैरम
परसवं बचेन्नृपः । पचमिर्चकैः समादि मौका
॥१॥
१. असा च पादुत्थनः—अन्ययुक्तं समायामोहपा परभावान ं दानमानेन ततो मोकलयाविरोधः ॥१॥ किमपि स्वयं कुर्याद कांचन मोर्चा न मेघवर्गेव * तथा अमात्ययःथा पुरुषार्थः प्रभूतोऽपि महादयं कारापयति
॥1
। स्वामिस नाचमा वर्षा ||१॥
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पल समुद्देश
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Praar..Dearinaam
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सेना के राज विरुद्ध होने के कारण, स्वयं सैन्य की देखरेख न करने से हानि और दूसरों के द्वारा नराने योग्य काये
सपमनवेषवं देयांशहरवं कालयापना व्यसनाप्रतीकारो विशेषविधावसंभावनं १ तंत्रस्य विरक्तिकारणानि ॥१७॥ स्वयमवेचणीय सैन्य परवेक्ष यमर्थतंत्राभ्यां परिहीयते ॥१८॥ माभितभरणे स्वामिसेवार्या धर्मानुष्ठाने पुत्रोत्पादने च खलु न सन्ति प्रतिहस्ताः ॥१६॥ अर्थ-राजा के निम्न लिखित कार्यों से, उसकी सेना उसके विरुद्ध हो जाती है।
स्वयं अपनी सेनाकी देख रेख न करना, उनके देने योग्य वेहन मेंसे कुछ भाग हड़प कर लेना, मा. जीविका के योग्य बेवन को यथासमय ने रेकर विसम्म से देना, उन्हें विपत्तिमस्त देखकर भी सहायता न भरना और मिष अवसरों (प्रोत्पत्ति, विवाह व स्यौहार भादि खुशो के मौकों) पर उन्हें धनादि से सम्मानिधम कामा ॥१७) इसलिये राजाको समस्त प्रयलों से अपनी सेना को सन्तुष्ट रखना चाहिये।
मायाज ' विद्वान ने भी राजा से संभाविरुद्ध होने के उपरोक्त कारण बताये हैं ॥१॥
बोराजा माणस्थाश स्वयं अपने से रेखरेख न करके दूसरे भूतों से राजा है, वह निःसवे. धन और सैन्य से रहित हो जाता है ॥१८॥
औमिनि' विधान का भी यही अभिप्राय ॥२॥
नैविक व्यक्ति को निरपव से सेवकों का भरणापोषण, स्वामी की सेवा,धार्मिक कार्यों का अनुश्खन और पुत्रों ने सत्पन्न करना, ये पार बा किसी दूसरे पुरुष से न कराकर स्वयं करना चाहिये |१||
एक विज्ञान ने भी उपरोक कार्य पूसरों से न कराने के लिये मिला है ॥१॥
सेपहिये देने योग्य धन, वेतन प्राप्त न होने पर भी सेवकों का फतेभ्य और सात बात का हायपरा समर्थन :
सावडेयं यावदामिता सम्पूर्सवामाप्नुवन्ति ॥२०॥ न हि स्वं द्रम्पमध्ययमानो राजा दण्डनीषः ॥२१॥को नाम सचेताः स्वगुरुचौर्यात्सादेत् ॥२२॥
पर्व-स्वामीको अपने अधीन सेवकों के लिये इतना पर्याप्त धन देना चाहिये, जिससे वे सन्तु ते मारणा
या विद्या ने भी सेवकों को भार्षिक करने से राजा की हानि बताई है ॥३॥ • नीजिगवायच..यो
- नि:-वर्ष मायोको प्रभादग्यो महीपतिः । तदम्प ओश्विनश्यति ॥ -पाय-अत्याला पोपले स्वामिसेरामबोजनम् । धर्मकृत्य सु तोमनि परपारवाण कारयेत् ॥ * मामा-माभिवायरस सम्बन्ले का हाल म स सपनो लोके अस्थाका पदस्वितः ॥१॥
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नीतिवाक्यामृत
राजा, बाद सेवकों को अपना मन (वेतन आदि) नहीं देता, तोभी उन्हें उससे झगड़ा नहीं करना चाहिये ||२०||
शुक्र' विद्वान् काभी यही अभिप्राय है || १ ||
जिस प्रकार स्वाभिमानी पुरुष अपने गुड़ को चोरी से नहीं खाता उसी प्रकार वह राजासे क्रोधित होकर अपनी हानि भी नहीं करवाना चाहता ||२||
पण राजा के विषय में दृष्टान्य, कड़ी आलोचना योग्य स्वामी और योग्य भयोभ्य के विचारसे शुन्य राजा की हानि
किं तेन जलदेन यः काले न वर्षति ||२३|| स किं स्वामी य आश्रितेषु व्यसने न प्रविराशि को नाम तस्यार्थे प्रायच्यये नोत्सहेत || १५ ॥
घये ॥ २४ ॥ अविशेष अस मेघसे क्या लाभ है ? जो समय पर पानी नहीं वर्षा इसी प्रकार जो समय पर अपने सेवकों की सहायता नहीं करता, वह स्वामी भी व्यर्थ हैं ||२३||
ओ स्वामी संकटकालीन समयमे अपने श्राधीन सेवकों की सहायता नहीं करता वह निद्य है ॥२४॥८ जो राजा सेवकों के गुणों और दोषोंको परखने में शून्य है, अर्थात् जो विश्वासी और अविश्वासी (मणि और कांच में फर्क न जान कर दोनों के साथ समान व्यवहार करता है, उसके लिये कौन सेबक मों का बलिदान करने के लिये युद्धभूमि में शत्रु से खड़ेगा ? अर्थात् कोई नहीं ||२५||
गिर" विद्वान्ने भी मणि और कांच फर्क न जानने वाले राजाकी उपरोक हानि निर्दिष्ट की है।
इति बलसमुदेशः ।
३०२
२३ मित्र - समुद्देश
मित्र का बच व उसके भेद
यः सम्पदीन विपद्यपि मेघति तन्मित्रम् ॥ १॥ यः कारणमन्तरेथ रथपो रथको वा भवति चित्य मित्रम् ॥२॥ वत्सहवं मित्रं यत्पूर्व पुरुषपरम्परायातः सम्बन्धः ||३|| यद्बुधिजीवित
देवोराभितं वत्कुत्रिमं मित्रम् ||४||
11ब
वाचकः कः कात्यूँ मुख्य समं । यदिच्छतिनो मिस्कृत्य पर २व्या मिरचोदिमणि काचो सम्भावनेशी | स्वस्थ भूपसेर सप्रामे निवर्ण मजे 1
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मित्र समुरेश अर्थ-जो पुरुष सम्पत्तिकालकी वरह विपत्तिकाल में भी स्नेह करता है उसे "मित्र' कहते है। सारांश यह है कि जो लोग सम्पत्तिकालमें स्वाधं-वश स्नेह करते हैं और विपत्तिकालमें धोखा देते हैं मित्र नहीं किन्तु शत्र हैं ॥११॥
जैमिनि विद्वान्ने भी सम्पत्ति व विपत्तिकालमें स्नेह करनेवाले व्यक्तिको 'मित्र' कहा है।शा
वे दोनों व्यक्ति परस्परमें नित्यमित्र होसकते हैं जो शत्रकत-पीड़ा-आनि मापत्तिकालमें परस्पर एक दूसरेके द्वारा बचाये जाते हैं या बचाने वाले हैं ।।२।।
नारद विद्वामने भी नित्यमित्रका यही लक्षण बताया है ।।१।। वंशपरम्परा के सम्बन्धसे युक्त, भाई-मादि सहज मित्र हैं ॥३॥ भागुरि विद्वान्न भी सहमित्रका यही लक्षण किया है ।।१।।
जो व्यक्ति अपनी उखरपूर्ति और प्राणरक्षाके लिये अपने स्वामीसे वेवनचादि लेकर स्नेह करता है, वह 'कृत्रिम मित्र' है। क्योंकि वह स्वार्थ-सिविवश मित्रता करता है और जीविकोपयोगी वेतन न मिलने पर अपने स्वामीसे मित्रता करना छोड़ देता है ॥४॥
भारद्वाज' विद्वान्ने भी 'त्रिम मित्र' का यही लक्षण किया।शा मित्र के गुण व उसके दोष, मित्रता-नाशक कार्य व निष्कपट मैत्रीका सायात एष्टान्तव्यसनेषुपस्थानमर्थेम्वविकल्पः स्त्रीषु परमें शौच कोपप्रसादविषये वाप्रतिपयस्वमिति मित्र. गुणाः ॥५॥ दानेन प्रख्या स्वार्थपरत्वं पिपधु पेषणमहितसम्प्रयोगो विप्रलम्भनगर्भप्रथ परचेति मित्रदोषाः ॥६॥ स्त्रीसंगतिविवादोऽभीचमायाचनमप्रदानमर्थसम्बन्धः परीषदोषग्रहां
शल्याकर्णन प मैत्रीभेदकारणानि ॥७॥ न पीराद पर महदस्ति यस्संगविमाण करोति नीरमात्मसमें 10 मित्र के निम्नप्रकार गुण है
मर्थ-जो संकट पड़ने पर मित्र के रक्षार्थ बिना बुलाये अपस्थित होता हो, ओ मित्रसेवा-मिति म पाहताहो अथवा जो उसके धनको बल-कपटसे हाप करनेवाला नरो, जिसकी मित्रकी स्त्रीके.प्रति दुर्भावमा न हो, और मित्रके कुछ प्रसन्न होने पर भी उससे ईर्णा न रखे ॥१॥ 1 या जैमिनिा-पत्समको किवात्स्नेह वाहनापति | सम्मित्रं प्रोयते सविपरीवेन रिया ॥१॥ २ - नारपते पम्बमानमा प्रमिबार नरा | रापमान पत्तरिय मित्रमुदते । ५ व्या भाषिः-सम्मानः पूर्वजाना पस्तेज पोज समापौ । मित्रत्वं कपि स सहज मित्रमेव हि ॥१॥ " तबार भारद्वाज:-ति गुमावि प: स्नेहं नास्म कुर मर । तन्मिात्रिमं मानातिनाथपियो जनाः ॥१॥
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नीतिवाक्यामृत
नारद' विद्वान् ने भी संकटमें सहायता करना आदि मित्रके गुण बताये हैं |
मित्र द्वारा धनादि प्राप्त होने पर स्नेह करना, स्वार्थ सिद्धिमें लीन रहना, विपचिकालमें सहायता न करना, मिश्रके शत्रुओंसे जा मिलना, छल-कपट और धोखेबाजी से युक्त ऊपरी नम्रता प्रदर्शित करना और मित्रके गुणोंकी प्रशंसा न करना, ये मिश्रके दोष हैं ||६||
रैभ्य विद्वान् ने भी इसी प्रकार मिश्र के दोष प्रगट किये हैं ||१||
३०४
मित्रकी स्त्री पर कुदृष्टि रखना, मिश्र से वाद-विवाद करना, सदा उससे धनादि मांगना, पर अपना कभी न देना, आपसमें लेन-देनका सम्बन्ध रखना, मित्रको निन्दा व चुगली करना, इन बातोंसे मित्रता भंग ( नष्ट हो जाती है ॥७॥
शुक* विद्वानने भी मित्रता- नाशक यही कार्य बताये हैं ||१||
पानीका दूधको छोड़कर दूसरा कोई पदार्थ उत्तम मित्र नहीं, क्योंकि वह अपनी संगतिमात्रसे पानीको अपने समान गुग-युक्त बना देता है। उसी प्रकार मनुष्यको ऐसे उत्तम पुरुषकी संगति करनी चाहिये जो उसे अपने समान गुणयुक्त बना सके ||८||
गौतम विज्ञान का भी यही अभिप्राय है || १||
मैत्रीकी आदर्श परीक्षा, प्रत्युपकारकी दुर्लभता व दृष्टान्त द्वारा समर्थन
न नीरास्परं मद्ददस्ति यन्मिलितमेव संवर्धयति रचति च स्वक्ष्येण श्रीरम् ||६|| येन केनाप्यपकारण तिर्यचोऽपि प्रत्युपकारिणोऽव्यभिचारिणश्च न पुनः प्रायेण मनुष्याः ॥ १० ॥ तथा चोपाख्यानकं श्रटव्यां किलान्धकूपे पतितेषु कपिसर्पसिंहापशालिक सौवर्णिकेषु कृतोपकारः कंकायननामा कश्चित्पान्थो विशालायां पुरि तस्मादचशालिकाच्यापादनमवाप eratives गोतमादिति ॥११॥
अर्थ - प्रश्नीको छोड़कर दूसरा कोई पदार्थ दूधका सच्चा मित्र नहीं, जो मिलने मात्र से ही उसकी वृद्धि कर देता है और अग्निपरीक्षा के समय अपना नाश करके भी दूधकी रक्षा करता है ॥६॥
भागुरि विद्वान्ने भी पानीको दूधका सच्चा मित्र बताया है ॥१॥
संसार में पशुगणभो उपकारीके प्रति कृतन व विरुद्ध न चलनेवाले होते हैं, न कि कृतघ्न पर
1 तथा च नारदः - आपत्काले च सम्माने कार्ये च महति स्थिते । कोपे प्रसादनं नेच्लेम्मिनंस्मेति गुणाः स्मृताः ॥१॥
२ तथा चभ्यः --दानस्नेहो निजार्थत्वमुपेक्षा व्यसनेषु च । चैरिसंगो प्रशंसा च मित्रदोषाः प्रकीर्तिताः ॥७१॥
३. ४ तथा
शुक्रः स्त्रीसंगतिदिधादोऽय सार्थित्ममदागता । स्वसम्बन्धस्तचा निन्दा पैशुन्य मित्रमेरिया 1 गौतमः --होनोऽपि चेत्संगं करोति गुणिमिः सह । गथवान् मन्यते खोकेंदु वाढ्य कं समाः ॥१२॥
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गजरसा समुद्देश
२०४
........................... मनुष्य प्रायः इसके विपरीत चलनेवाले भी देखे जाते हैं-वे उपकारी के पति भी कभी-कभी FIRST कर सलते हैं ॥१०॥
इतिहास बताता है कि एक समय किमी अटवी (बनी) के पास वगैरहसे पाच्छादित अम्पकूप में भाग्यसे प्रेरितहुए पन्दर, सर्प और शेर ये तीनों जीवजन्तु व श्राक्षशालिक-एक जुझारो व सुनार ये दोनों पुरुष गिर पड़े। परचात् किसो का सायन नामके पान्थने उन्हें उस अन्धक्षसे बाहिर निकाला। उपत हुए उन पात्रों से बम्बर, सर्प, शेर सुनार उसका अनिष्ट न कर ससको अझोपरान्त अपने निति स्थानको चले गए । जुपारी कृतघ्नो होनेके कारण उस पान्यसे कपटपूर्ण व्यवहारांसे मित्रता कर उसक धनको हरया करनेकी इच्छा उसके साथ हो लिया और अनेक प्रामों प नगरोंमें भ्रमण करता रहा। पश्चात् एक समय विशाला नामकी नगगेके शुन्य मन्दिर में जा पाथ सो रहा था, तब इस जुधारोने मौका पाकर उसके धनको हरण कर लिया। इससे सिद्ध होता है कि तिर्यच मो कता होते हैं पर मनुष कभी इसके विपरीत फतनी भी होते देखे गये है।।
इसी प्रकार गौतम नामके किसो तपस्वी ने नादीजंघ नामक अपकारोको स्वार्थवश मार राना। (बह कथानक अन्य प्रन्यों से जान लेना चाहिये) ॥११॥
इवि मित्रसमुद्देश।
२४ राजरक्षा-समुद्देश
* राजा की रक्षा, उसका उपाय,अपनी रणार्थ पासमें रखने के योग्य व अयोग्ब पुरुषराशि रक्षिते सर्व रहित' भवस्यतास्वेभ्यः परेभ्यश्च नित्यं राजा रचितम्यः ॥१॥ भतएवोत' नयषिद्रः-पितृपैतामह महासम्पन्धानुबद्ध शिक्षितमनुरक्त सतकर्मण घ उनं भासन्न कुर्वीत ॥२॥ भन्यदेशीपमकृतार्थमान स्वदेशीयं चापकृत्योपगृहीमासन्न न हरी ॥३॥ चित्तविकतास्स्यविषयः किन्न भवति मातापि रापसी ॥॥
भये-जा की रक्षा होमेसे समस्त राष्ट्र सुरक्षित रहता है, इसलिये इसे अपने पुटुम्पियों तक सत्रुओं से सदा ममनो रक्षा करनी चाहिये ॥१॥
भ्य' विद्वान ने भी राबरवा के विषय में इसी प्रकार कहा है |शा इसलिये नीतिहोंने कहा है कि राजा अपनी रणार्थ ऐसे पुकाको नियुक्त करे, जो राम राम सभ्यः-किने भूमिकाये नुसार गयेयः पौबहिन पोम्बरमा बस्न सारंग आवते ।।
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३०६
नीतिवाक्यामृत
(आई-वगैरह ) हो अथवा वैवाहिक सम्बन्धसे बंधा हुआ-साला वगैरह हो, और वह नीतिशास्त्र का बेता राजा से अनुराग रखनेवाला और राजकीय कर्तव्यों में कुशल हो ||२||
10- 100.0
गुरु' विद्वान ने भी राजाकी शरीर रक्षार्थ यही कहा है || १||
राजा, विदेशी पुरुष को, जिसे धन व मान देकर सम्मानित न किया गया हो और पूर्व में सजा पाये हुए स्वदेशवासी व्यक्तिको जो कि बाद में अधिकारी बनाया गया हो, अपनी रक्षार्थ नियुक्त न करे; क्योंकि सन्मानित व दण्डित व्यक्ति द्वेषयुक्त होकर उससे बदला लेनेकी कुचेष्टा करेगा ||३|| शुक्र विद्वान् के संग्रहीत श्लोकों का भी यही अभिप्राय है ॥१-२॥
२
चिकृत – दुष्ट -- चित्तवाला पापीपुरुष कौन से अनथों में प्रवृत्ति नहीं करता ? अर्थात् सभी में प्रवृत्ति करता है, अत्यन्त स्नेहमयी माता भी विकृत-द्वेषयुक्त हो जाने पर क्या राक्षसी ( हत्यारो) नहीं होती ? अवश्य होती है
शुक्र * विद्वान् ने भी विकृत चित्र वाले पुरुषके विषय में इसीप्रकार कहा है || श
स्वामीसं रहित श्रमात्य आदिकी हानि, आयु- शून्य पुरुष, राज- कर्तव्य ( श्रात्मरक्षा) व स्त्रीसुखार्थ प्रवृत्ति व जिसका धन-संग्रह निष्फल है:
अस्वामिकाः प्रकृतयः समृद्धा अपि निस्तरीतु न शक्नुवन्ति || ५|| देहिनि गतायुषि सकलांगे किं करोति धन्वन्तरिरपि वैद्यः || ६ || राज्ञस्तावदासन्ना स्त्रिय आसन्नतरा दायादा आसन्नतमाश्च पुत्रास्ततो राज्ञः प्रथमं स्त्रम्य रक्षणं ततो दायादेभ्यस्ततः पुत्रेभ्यः ||७|| आवष्ठादा चक्रवर्तिनः सर्वोऽपि स्त्रीमुखाय क्लिश्यति ||८|| निवृतस्त्रीसंगस्य घनपरिग्रहो मण्डनम || ||
अर्थ:- प्रकृतिवर्ग (मंत्री व सेनापति आदि राजकर्मचारी) समृद्धिशाली होकर के भी जब राजा से रहित होते हैं, तब आपति को पार नहीं कर सकते – शत्रुओं द्वारा होनेवाले संकटोंसे राष्ट्र का बचाव नहीं कर सकते ||५||
वशिष्ठ विज्ञामने भी उक्त बात का समर्थन किया है ॥ १ ॥
जिसकी आयु बाकी नहीं है, वह सकल अङ्गोपांगों, या ७२ कथाओं से युक्त होने पर भी धन्य
१
मीच गुरुः वंश च सुसम्बन्ध शिक्षित रामसंयुतं । कृतकर्म जनं शर्खे रचायें धारयेन्नृपः ॥ १॥
२ तथा शुक्र-नियोगिनः समीपस्थं दंडविया न धारयेत् । प्रयढको बरे न वित्तस्य बाधा विशस्य जायते ५१|| अन्यदेवं लोक-समीपस्थं न धारयेत्। अपूति स्वद ेशी वा विरुद्ध्य प्रपूजित ||२|| ३ तथा शुक्रः – यस्य चि विकारः स्यात् सर्वे पापं करोति सः । जात इन्ति सुखं भाषा ग्रामि मार्गमाश्रिता ॥१॥
४ तदा च बहिः राजप्रकृतयो ने स्वामिना रहिताः सदा । गन्तु ं निर्वाह यहूद स्त्रियः कान्तविवर्जिताः ||१||
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राजरक्षा समुरेश
३०० सरि समान प्रति निपुण वैद्य के द्वारा भी नहीं बचाया जा सकता । सारांश यह है कि जिसप्रकार जीवन रक्षामें आयु मुख्य है, उसीप्रकार राष्ट्र के सात अगों (स्वामी, मंत्री, राज्य, किला, खजाना, सेना व मित्रवर्गमें राजाकी प्रधानता है, अत: सबसे प्रथम उसे अपनी रक्षा करनी चाहिये ॥६॥
व्यास' ने भी कहा है कि काल-पीड़ित पुरुष मंत्र, तप, दान, वैद्य व औषधि द्वारा नहीं बचाया जासकता।
राजाके पाम रहनेवाली स्त्रियां होती हैं और विशेष तौर से पास रहनेवाले कुटुम्बीजन व पुत्र होते हैं। इसलिये उसे सबसे पहिले स्त्रियोंसे पश्चास कुटुम्बियों और पुधोसे अपनी रक्षा करनी चाहिये ॥७
संसार में निकृष-लकहद्वारा-आदि जघन्य-पुरुषसे लेकर चक्रवती पर्यन्त सभी मनुष्य स्त्रीमुस्ख प्राप्त करने के लिये, कृषि व व्यापार आदि जीविकोपयोगी कार्य करके क्लेश बठाते हैं, पश्चात् धनमंचय द्वारा स्त्री-सुख प्राप्त करते हैं ।।
गर्ग विद्वान का भी यही अभिप्राय है ॥१॥
जिस प्रकार मुर्दे को वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत करना व्यर्थ है, उसीप्रकार स्त्री-हित पुरुषका धनसंचय करना व्यर्थ है ।।५।
बल्लभदेव' विद्वान परश का पही पkिin स्त्रियों की प्रकृति का स्वरूपःसर्वाः स्त्रियः क्षीरोदवेला इव विषामृतस्थानम् ॥१०॥ मकरदंष्ट्रा इव स्त्रियः स्वभावादेष पक्रशीलाः ॥११॥ स्त्रीणां नशोपायो देवानामपि दुर्लभः ।।१२।। कलत्र रूपवस्समगमनवशचारमपत्यदिति महतः पुण्यस्य फलम् ॥१३॥ कामदेषोत्संगस्थापि स्त्री पुरुषान्तामभिलादि च ॥१४॥ न मोहो लज्जा भयं स्त्रीणां रवणं किन्तु परपुरलादर्शन संमोगः सर्वसाधारणताच ॥१५॥
मर्ष-जिस प्रकार शोर समुहकी लहरों में विष व अमृत दोनों पाये जाते हैं इसी प्रकार खिमों में भविष (पुस पेना) और अमृस (मख देना) या करवा एवं मदता ये दोनों दोषप गुण पाये जाते, योकि प्रतिकक्ष स्त्री हानिकारक एवं अनुकूल सुख देने वाली होती है ॥१०॥
बल्लभव" ने भी स्त्रियों को इसीप्रकार विष व अमूठ-तुल्य बताया है ॥१॥
बास-मानसपो दान मोर मा । ति परिबात का बक पीवितम् ॥ बाग:-कृर्षि वा विपेय पुस्पाविषमेव | सखीचा मुखाबाय सलो अरुले मनः २ मा बामदेव:-प्रमूतमपि देहितं पुरुषस्य त्रिम विना । मूल्सा मबडन गार तलव ने । तथा च बामदेव:-गाएत नजिकिविको मुक्त्वा निम्तिीम् । विरसा
म लायमाणिती ।
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नीतिवाक्यामृत
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जिसप्रकार मगरफी डा स्वभावतः कुटिल होती है; असीप्रकार स्त्रियां भी स्वभावतः कुटिया होती है ॥शा
पल्लमदेव' विदामने भी स्त्रियोंको स्वभावतः कुटिल व भयंकर बताया है ॥२॥ विरुद्ध हुई स्त्रियों को वशीभत करनेका उपाय देवता भी नहीं जानते ॥१५॥ बल्लभदेव' विद्वानने भी इसीप्रकार कहा है ॥१॥
रूपवती, सौभाग्यवती, पवित्रता, मदाचारिणी एवं पुत्रवती स्त्रो पूर्वजन्म-कृत महान पुण्य प्राप्त होती है ॥शा
पारायणा । विद्वान के लदरा का भी यही अभिप्राय है ।।१।।
चंचल प्रकृति वाली स्त्री कामदेवके समान सुन्दर पति के पास रहकर भी दूसरे पुरुषको कामना करवी है ॥२॥
नारद ' विहान्ने भी पंचल प्रकृति वाली स्त्री को कुपथगामिनी बताया है।
पर पुरुषसे सम्पर्क न रखने वाली, पतिद्वारा काम सेवन-सुख व अभिलषित वस्तुएं राप्त करने पाली और ईडयोहीन पतिवाली स्त्री सदाचारिणी (पतिव्रता) रह सकती है, पर स्नेह, लज्जा और बर रखने बाली नहीं ॥१शा
जैमिनि ' विद्वान् का भी यही अभिप्राय है ॥२॥
स्त्रियों को अनुकूल रखने का उपाय, विवाहित व कुरूप स्त्रियों के साथ पति-कर्तव्य, स्त्रीमेवन का निरिक्षस समय, अनु कालमें स्त्रियों की उपेक्षामे हानि, व स्त्री रक्षा
दानदर्शनाभ्यां समवृत्तौ हि पुंसि नापराध्यन्ते स्त्रियः ॥१६॥ परिगृहीतासु स्त्रीषु प्रियाप्रियवन मन्येत ॥१७॥ कारणवशान्नियोऽप्यनुभूयते एवं ॥१८॥ चतुर्थदिवसस्नाता स्त्री तीर्थ तीर्थापराधी महानधर्मानुबन्धः ॥१६॥ ऋतावपि स्त्रियमुपेक्षमाणः पितृणामशभाजन ॥२०॥ अवरुद्धाः स्त्रियः स्वर्य नश्यन्ति स्वामिन वा नाशयन्ति ॥२१॥ न श्रीणामकर्तव्य मर्यादास्ति वरमविधाहो नोटापेक्षरणं ॥२२॥ अकृतरक्षस्य कि कलत्रेणाकृषतः किं क्षेत्रेण ॥२३॥
अर्थ-पिन स्त्रियों का पति दान (धम्त्राभूपण-प्रादि का दना) घ दर्शन-प्रेम पूर्ण दृष्टि द्वारा , नपा च बामदेव:-स्त्रियोऽतिमायुक्ता प्रथा दंष्ट्रा मवानवाः । ऋजस्व नागिरकान्त तायवाद
भीषयाः२ तथा मामयः-- चातुरः सृजता पूर्वमभायास्तम वसा । म सपांचमः कोऽपि गृशम्त येम योचितः ॥ । तथा च चारायसः-मुरूष सुभगं यदा सुचविघ्नं सुखाबिलं । यस्पेशं कसत्र' स्यात्पर्मपुपयफ हिवत् ॥॥ • सपा मारवा-कामदघोष त्यहरवा मुखप्रेमि पति चापम्पादाम्यते मारी विरूपांगमपीतरम् ॥
मा.मिनि:-अयस्वादककोपाथ प्रसारकामसंभवः । सर्चासामेल मालीगामेणार्यमवर ॥३॥
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राजरक्षा समुद्देश
३.
सबके साथ पक्षपात रहित एकसा धर्ताव करता है, उससे वे चैर-विरोध नहीं करती- उसके वशमें
रहती हैं ||१६||
1444.
नारद' विद्वान्ने भी स्त्रियोंको अनुकूल रखनेके यही उपाय बढाये हैं ||१||
नैतिक पुरुष अपनी विवाहित सुन्दर पत्नियों से प्रेम व रूप स्त्रियों से ईर्ष्या न करे - प पातरहित एक सा व्यवहार रक्खे, अन्यथा रूप स्त्रियां विरुद्ध होकर उसका अनिष्ट-चिन्वषन करने नदी है ।।१७११
भागुरि विद्वान ने भी विवाहित स्त्रियोंके साथ पक्षपात रहित (एक्स) बर्ताव करने के लिये लिखा है |११||
जिसप्रकार रोग - निवृत्तिके लिये कडवो नीम औषधि के रूपमें सेवन की जाती है, उसी प्रकार अपनी रक्षा आदि प्रयोजनवश कुरूप स्त्री भी उपभोग की जाती हैं ||१८||
भारद्वाज' विद्वान्का भी इस विषय में यही मत है ५||
रजःस्रावके पश्चात् चौथे दिन स्नान की हुई स्त्री तीर्थ- शुद्ध (उपभोग करने योग्य) मानी गई है, उस समय जो व्यक्ति उसका स्याग कर देता है— सेवन नहीं करता वह अधर्मी है। क्योंकि उसने गर्भधारण में बाधा उपस्थित कर धर्मपरम्पराको अनुरूप चलानेवाली एवं वंश- वृद्धि में सहायक सम्जावि (कुलीन) संतानोत्पशि में बाधा उपस्थित की, श्रतएष चौथे दिन स्नान की हुई स्त्री की उपेक्षा न करनी चाहिये ||१६||
ऋतुस्नाव- चौथे दिन स्नान हुई अपनी स्त्रीकी उपेक्षा करने वाला व्यक्ति सन्तानोत्पत्ति में बाधक होने से अपने पूर्वजों का ऋणी है ||२०||
ऋतुकाल में भी सेवन न की जाने वाली स्त्रियां अपना वा अपने पतिका अनि कर बैठती हैं ॥२१ गर्न विज्ञान ने भी यही कहा है || १ ||
rea स्त्रियां अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर अनर्थ कर बैठती है, भष्म ऋतुकालमें दिवाहित स्त्रियों का त्याग करने की अपेक्षा उनसे विवाह न करना ही कहीं अधिक श्रेष्ठ है ||२२||
भार्गव विद्वान के संगृहीत श्लोकका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
जिसमकार बिना जोतने-बोनेवाले कृषक के लिये खेत व्यर्थ है, उसी प्रकार ऋतुकास में स्त्रीका
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१ तथा च भारत:- दानदर्शनसंभोग समं स्त्रीषु करोति यः । प्रभावेन विशेषं न विकम्बन्ति तस्याः ॥11॥ ९ तथा च भागरिः - समस्येने भ्यायाः स्त्रियोऽत्र विवाहिताः । विशेषो नैव कर्तव्यो मरे विमिता ॥१॥ ३ तथा च भारद्वाज:- दुभंगापि विरूपापि लेण्या कान्तेन कामिनी । वर्षौषधकृते निषः कोऽपि प्रदोषते ॥१॥ ●था चार्गाने च सम्प्राप्ते न भजेयस्तु कामिनी व खात्मा प्रस्वत स्वयं वा माराय पविम् ॥ १॥ भार्गवः— माहस्य वियते स्वीयामपमाने कृते सति । श्रविवाहो परस्वस्मान्न तूडानां विवर्तनम १||
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३१०
नीतिमाक्यामृत
उपभोग न करने वाले मनुष्य के लिये भी स्त्री निरर्थक है, क्योंकि उससे उसका कोई इष्टप्रयोजन (धार्मिक सन्सान-मादि) सिद्ध नहीं होता ॥२३||
स्त्रियों के प्रतिकूल होने के कारण, समको प्रकृत्ति, दूतापन रक्षाका ६श्यसपत्नीविधानं पत्युरसमंजसं च विमाननमपत्याभावश्च चिरविरहश्च स्त्रीणां विरक्तकारपानि ॥२४॥ न स्त्रीणां सहजो गुणो दोषो वास्ति किंतु नद्यः समुद्रमिव याहरां पतिमाप्नुवन्ति तादृश्यो भवन्ति स्त्रियः ।।२५।। स्त्रीणां दौत्यं स्त्रिय एव कुयु स्वैररचोऽपि पुयोगः स्त्रियं पयति किं पुननिव्यः ॥२६॥ वंशविशुद्ध्यर्थमनर्थपरिहारार्थ स्त्रियो रक्यन्से न भोगार्थ ॥२७॥
अर्थ-निम्नलिखित बातोंसे स्त्रियाँ अपने पतिसे विरक्त (प्रतिकूल) होजाती हैं
सपत्नीविधान (पतिद्वारा सौतका रखना), पतिका मनोमालिन्य (मुर्गा वध-दि) अपमान, अपत्याभाष सन्तान का प्रभाव ) व चिरविरह (पति का चिराल तक विदेश में रहना) अतः नैतिक पुरुष स्त्रियोंको अनुकूल रखने के लिये उक्त पांचों बातोंका त्याग करे ॥२४॥
जैमिनि विद्वान्ने भी स्त्रियों की प्रतिकूलता के विषय में यही कहा है ॥१॥
स्त्रियों में स्वाभाविक गुण या दोष नहीं होते। किंतु उनमें समुदमें प्रविष्ट हुए नदी के समान पविके गुणोंसे गुण या दोषोंसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं। जिस प्रकार नदियां समुइ मिनेसे बारी होजाती है, उसी प्रकार स्त्रियाँ पतिके गुणोंसे गुणवती और दोषोंसे दोष-युक्त होजाती है ।।२।।
शुक र विद्वान्ने भी स्त्रियों के गुण व दोपके विषयमें इसीप्रकार कहा है ।।शा
स्त्रियोंको सन्देश लेजानेका कार्य दूसनी स्त्रियों द्वारा ही करना चाहिये, पुरुषोंसे नहीं, क्योंकि जब पशुजातिका पुरुष भी उन्हें दूषित कर देता है तब फिर मनुष्योंसे दूषित होने में कोई विषेषता नहीं पा॥
गुरु' विद्वामने भी स्त्रियों के दूतीपन के विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥१॥
नैतिक मनुष्य अपनी वंश-विद्धि और अनर्थोसे बचने के लिये स्त्रियोंकी रक्षा करते हैं, केरल विषय-वासना की नक्षिके लिये नहीं ॥२७॥
गुरु' विद्वान का भी यही अभिप्राय है ।।।
, तदा चोमिनिः-सपरमी वा समानत्वमपमानमानपत्पता । देशाम्तरगतिः परपुः स्त्री राग हस्पी १ तथा शुभ-गृहो या अदि वा छोपो न स्त्रीया सहजो भवेत् । भतु: सध्या याति समस्याषगा यथा ।।१।। । तथा च गुरु:-स्त्रीचा दोत्म मरेन्द्रमा प्रप्या नायर्यो नरो न था। ति योऽपि च पुयोगोटो दूषपति स्त्रियम् ॥1॥ ४ तथा च गुरु:-शस्य र विगुभ्यर्थ तथानमाय । रचितम्याः स्त्रियो विजनं भोगाय व केवलम ॥१॥
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३११
राजरक्षा समुद्देश
1555-44444444 241-444444
वेश्या सेवनका त्याग, स्त्रियोंके गृहमें प्रविष्ट होने का निषेध व उनके विषय में राज कर्तव्यभोजनवत्सर्व समानाः पण्याङ्गनाः कस्तासु हर्षमष पोरवसरः ||२८|| यथाकामं कामिनीनां संग्रह: पश्मनी वानक न्यायावहः प्रक्रमोऽदौवारिकं द्वारि को नाम न प्रविशति ॥ २६ ॥ मातृयजनविशुद्धा राजवसत्युपरिस्थायिन्यः स्त्रियः संभवतव्याः ||३०|| दर्दुरस्य सर्पगृहप्रवेश इष स्त्रीगृहप्रवेशो गज्ञः ||३१|| न हि स्त्री गृहादायात किंचित्स्वयमनुभवनीयम् ||३२|| नापि स्वयमनभवनीयेष स्त्रियो नियोक्तव्याः ||३३||
अर्थ --- वेश्याएं बाजार के भोजन की तरह सर्वसाधारण होती है, इसलिये कौन नैतिक पुरुष उन्हें देखकर सन्तुष्ट होगा ? कोई नहीं ||२८|| विजिगीषु राजा अभिलषित स्वार्थसिद्धि ( शत्रुओंसे विजययादि) के लिये वेश्याओंका संग्रह करता है, परन्तु उसका ये कार्य निरबैंक और कल्याणनाशक है। क्योंकि जिसप्रकार द्वारपाल - शून्य दरवाजे में सभी प्रविष्ट होते हैं, उसीप्रकार सर्वसाधारणद्वारा भोगी जाने बाकी वेश्याओंके यहां भी सभी प्रविष्ट होते हैं, इसलिये वे शत्रुपक्ष में मिलकर विजिगोषुको मार डालती हैं। tara शत्रु-विजय अन्य उपाय ( सामादि) द्वारा करनी चाहिए; न कि वेश्याओंके द्वारा ||२६|| विजिगीष शत्रु- विजय आदि आवश्यक प्रयोजनवश मातृपक्षसे विशुद्ध (व्यभिचार शून्य ) व राजद्वार पर निवास करने वाली वेश्याओं का संग्रह करे ||३०|| जिसप्रकार सौंपकी वामीमें प्रविष्ट हुआ मेंढक नष्ट होजाता है; सीप्रकार जो राजा लोग स्त्रियोंके गृहमें प्रविष्ट होते हैं, वे अपने प्राणों को खो बैठते हैं, क्योंकि स्त्रियाँ पंच प्रकृति वश शत्रु पक्ष से मिलकर इसे मार डालती हैं या मरवा देती हैं ||३१||
गौतम' विद्वान् ने भी राजाको स्त्री- गृहमें प्रविष्ट होनेका निषेध किया है ॥२॥
राजा अपने प्राणोंकी रक्षा के लिये स्त्रियोंके गृहसे आई हुई कोई भी वस्तु भक्षण न करे ||३२|| बादरायण ने भी इसी धातकी पुष्टि की है ॥१॥
राजा स्वयं भक्षण करने योग्य भोजनादि के कार्य में स्त्रियों को नियुक्त न करें, क्योंकि वे पंचा वश अनर्थ कर डालती है ||३३||
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भृगु विज्ञान का भी इस विषय में यहो अभिप्राय है ||३३||
स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंके अनर्थ, दुष्ट स्त्रियोंका घृणित इतिहास, व स्त्रियों का माहात्म्यसंवननं स्वातंत्र्यं चाभिलषन्स्यः स्त्रियः किं नाम न कुर्यन्ति ||३४|| भूयते हि किसआत्मनः स्वच्छन्दवृत्तिमिच्छन्ती विषविदूषितगण्डूषेय मणिकुण्डला महादेवी यवनेषु
१ सालमा प्रविशे हि यथा को विसर्पस्य मृत्युमा । तथा संजायते राजा प्रभो वेश्मनि स्विचः ॥४१॥ २ तथा बारावा - स्त्रीयां गृहात् समायातं मदीय' न भूभुजा । किंचित्स्यश्पमपि प्राणान् रचितुं योऽमिचा
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३ तथा च सुगुः -- भोजमादिषु सर्वेषु आत्मीयेषु नियोजये। स्त्रियो भूमिपतिः सारयन्ति श्रवश्यः ॥
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नीतिवाक्यामृत
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निजतनुज राज्यार्थं जघान राजानमङ्गराजम् ||३५|| विषालक्तक दिग्धेनाघरेण वसन्तमतिः शूरसेनेषु सुरतविलास, विषोपलिप्तेन मेखलामणिना घृकोदरी दशार्थेषु मदनावं, निशितनेमिना मुकुरे मदराक्षी मगधेषु मन्मथविनोद कवरीनिगूढेनासित्रेण चन्द्ररसा पाएका षु पुण्डरीकमिति ||३६|| अमृतरसवाप्य व श्रीजसुखोपकरणं स्त्रियः ||३७|| कस्तान कार्याकार्यविलीकनेऽधिकारः ||३८||
अर्थ- वशीकरण, उच्चाटन और स्वेच्छाचार चाहने वाली स्त्रियां कौन से अनर्थ नहीं करती ? सभी अनर्थ कर डालती है ||२४|| भारद्वाज' विद्वान ने भी स्त्रियों पर विश्वास न करने के लिये लिखा है || || इतिहास बताता है; कि यवनदेश में स्वच्छन्द वृत्ति चाहनेवाली मणिकुण्डला नामकी बहूरानी ने अपने पुत्र के राज्यार्थं अपने पति अक्षरा नामक राजाको विष-पि शराब के करलेसे मार वाला ||३|| इसीप्रकार शूरसेन (मथुरा) में बसन्तमवि नामकी स्त्रीने विषके आलतेसे रंगे हुए अधरोंसे सुरतविलास नामके राजाको वृकोदरीने दशार्ण ( भेलसा) में विषलिप्त करधनीके मणि द्वारा मदनाद राजाको, मदिराक्षीने मगधदेशमें तीखे दर्पण से मन्मथविनोदको और पांड्यदेश में चण्डर सा रानीने रुबरी ( केशपाश) में छिपी हुई छुरीसे पुण्डरीक नामके राजाको मार डाला ||३६||
स्त्रियां लक्ष्मीसे उत्पन्न होनेवाले सुखकी स्थान ( आधार ) हैं । अर्थात् जिसप्रकार लक्ष्मीके समागमसे मनुष्योंको विशेष सुख प्राप्त होता है; उसीप्रकार स्त्रियोंके समागम से भी विशेष सुख मिलता है एवं अमृत रससे भरी हुई वादियों के समान, मनुष्यों के विश्वमें आनन्द उत्पन्न करती हैं। अर्थात् जिसप्रकार अमृत रस से भरी हुई वादियां दर्शनमात्र से मनुष्यों के चित्तमें विशेष आनन्द उन्न कर देती हैं; उसीप्रकार स्त्रियांभी दर्शनादि से मनुष्योंक वित्तमें विशेष आनन्द उत्पन्न कर देती हैं
शुक विद्वान् ने भी इसी प्रकार स्त्रियोंका माहात्म्य बताया है ||२||
मनुष्यों को उनके कर्तव्य व अकर्तव्य देखने से क्या प्रयोजन ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं। सारांश यह है कि स्त्रियां स्वाभाविक कोमल व सरलहृदय होती है, अतः बुद्धिमान् मनुष्यों को उनके साधारण दोषपर दृष्टिपात न करते हुए उन्हें नैतिक शिक्षा द्वारा सन्मार्ग में प्रवृत्त करना चाहिये ||३८|| स्त्रियोंकी सीमित स्वाधीनता, उनमें अत्यंत आसक्त पुरुष, उनके अधीन रहने वाले की हानि पवित्रताका माहात्म्य व उनके प्रति पुरुष का कर्तव्य
अपत्यपोषण गृहकर्मणि शरीरसंस्कारे शयनावसरे स्त्रीयां स्वातंत्र्यं नान्यत्र ||३६|| अविप्रसक्तेः स्त्रीषु स्वातंत्र्यं करपत्रमित्र पत्युर्नाविदार्यं हृदयं विश्राम्यति ||४०|| स्त्रीवशपुरुषो नदीप्रवाहपतितपादप इव न चिरं नन्दति ॥४१॥ पुरुषट्पुष्टिस्या स्त्री लक्ष्यष्टिरिव फमुत्सर्व न
1 तथा च भारद्वाजः कार्म स्वेच्छाचार सदा वाम्कृति योषितः । तस्मातासु म विश्वासः प्रकर्तव्यः कथंचन ॥१ २ तथा शुक्रः---सोमस्य कवियात्रामयोचनाः । यथा पीघूववारच मगच हादसा ॥१३
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राजरक्षा समुहेश
............ जनयति ॥४२॥ नातीच स्त्रिया व्युत्पादनीयाः स्वभावसुभगोऽपि शास्त्रोपदेशः स्त्रीषु, शस्त्रीप पयोलप इव विषमता प्रतिपद्यते ।।४।।
अर्थ-स्त्रियोंको सम्मान-पालन, गृहकार्य, शरीर-संस्कार और पतिके साथ शयन इन चार पानां में स्वतन्त्रता देनी चाहिये, दूसर कायों में नहीं ॥३६॥
भागरि' विद्वान् ने भी उक्त चार बातोंमें स्त्रियोंको स्वतन्त्र रखने को कहा है ।।६
अपकि कामी लोग स्त्रियों में अत्यधिक आसक्त होनेके कारण उन्हें सभी कार्यों में स्वतन्त्रता दे देते हैं, वो वे स्वच्छन्द होकर पति के हृदयको उसी प्रकार कष्टीने विदीर्ण किये बिना नहीं रहती जैसे कि हत्यमें प्रविष्ट हुई सलबार उसे वेध करही बाहर निकला करतो है ॥४०॥ जिस प्रकार नदोके प्रवाह में पड़ा था वृक्ष चिरकाल तक अपनी वृद्धि नहीं कर पाता, बल्कि नष्ट हो जाता है, इसीप्रकार श्रीके परामें रहनेवाजा पुरुष भी माथिक क्षति द्वारा नष्ट हो जाता है, अतः स्त्रियों के अधीन नहीं रहना चाहिये ॥४१॥
शुक* विद्वान ने भी स्त्रियोंके अधीन रहने का निषेध किया है ॥१॥
जितप्रकार मुष्टीमें धारण की हुई वङ्गाष्टि-तलवार-विजिगीषका मनोरथ (विजय-सामादि) पूर्ण करती है, इसीप्रकार पुरुषकी प्रामानुकूल चलने वाली (पतिव्रता) स्त्री भी अपने पतिका मनोरम पर
करती है ॥४२॥
किसी विद्वान् ने भी पतिव्रता स्त्रोको पतिका मनोरथ पूर्ण करने वाली कहा है ॥१॥
नैतिक पुरुष स्त्रियों को कामशास्त्रकी शिक्षामें प्रवीण न बनावे, क्योंकि स्वभाव से उत्तम कामशास्त्रका ज्ञान स्त्रियोंको खुरीमें पड़े हुए पानीकी व समान नष्ट कर देता है। अर्थात जिप्सप्रकार पानी की दछुरी पर पड़नेसे एकदम नह होजाती है, उसीमकार कामशास्त्र की शिक्षा भी स्त्रियों को कुन-धर्मचारित्रधर्म से गिराकर नष्ट भष्ट कर देती है, अतः स्त्रियों को कामशास्त्र की शिक्षा छोड़कर अन्य लौकिक व धार्मिक शिक्षा देनी चाहिये ॥४३।।
भाराज विहान ने भी स्त्रियों को कामशास्त्री शिक्षा देनेका निषेध किया है। वेश्यागमन के दुम्परिणाममधु येणाधिकेनाप्यर्थेन घेश्यामनुभवन्पुरुषो न पिरमनुभवनि सुखम् ॥४४॥ विसर्जना. कारयाम्पा तदनुमचे महाननः ॥४५॥ वेश्यासक्तिः प्राणार्थहानि कस्य न करोति ॥४६॥ या मागुरि-मास'चे माहित नाहीशा मुक्त्वा कर्मचतुष्टयम् । बाथाना पोषरा को शयन कागभूषवं ॥१॥ याच गुरु:-गरि विमानोति का स्त्रीची बागो मवेत् । महोबाइपतितो पचा भूमिसमुषः ।।१।।
या मोक्वं—पा मारी बागा पत्युः पतिप्रतपरायवर । सा स्पस्युः करोत्येष मनोराज्य दि स्थितम् ॥३॥ • वयर - भारद्वाज कामशास्तत्वशाः स्त्रियः कार्याः कुलोद्धवाः। यतो स्प्यमायान्ति बया कर
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नीतिवाक्यामृत
धनमनुभवन्ति वेश्या न पुरुषं ॥४७॥ धनहीन कामदेवेऽपि न प्रीति बध्नन्ति वेश्याः ४॥ स पुमान् न भवति सुखी, यस्यातिशयं वेश्यासु दान H४॥ स पशाप पशः यः स्वधनेन परेषामर्थवन्तीं करोति वेश्यां ॥५०॥ भाचित्तविश्रान्ते वेश्यापरिग्रहः श्रेयान् ॥५१॥ सुचितापि वेश्या न स्वां प्रकृति परपुरुषसेवनलक्षणां त्यजति ॥५२॥
अर्थ-जब विवेक-हीन पुरुष वेश्याओंको प्रचुर धन देकर भी उनका सुपभोग करता हुधा अधिक समय बक सुस्थी नही होपात, सब थोरासा धन मेधाज्ञा कैसे सुखो होमकता है। नहीं होसकता। बिना कारण छोड़ी हुई वेश्याओंके यहाँ पुन: जानेसे वे ग्यमनीका महान् अनर्थ (पाणपाठ) कर रामवी है वेश्यागामी पुरुष अपने प्राण-धन और मानमर्यादाको खोथैठते हैं ।।४४-४६॥
नारद' ने भी वेश्यासकको अपने प्राण म धनका नाशक कहा है ।।१।।
वेश्याए केवल म्यसनी पुरुष द्वारा दिये हुए धनका ही उपभोग करती है, पुरुषका नहीं; क्योंकि निर्धन व्यक्ति ६४ कलाओंका पारगामी (महाविद्वान् ) व कामदेव सदृश अत्यन्त रूपवान भी क्यों न हो, उसे के तत्काल ठुकरा देती हैं, जबकि कुन-आदि भयानक व्याधियोंसे पीडित व कुरूप धनाढय व्यक्तिले अनुराग करती है ॥४७॥
भारद्वाज ' विहानके उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥१॥
वेश्याणे कामदेव समान अत्यन्त रूपवान पर दरिद्र व्यक्ति से कभी भी अनुराग नही करती तो फिर भला कुरूप व दरिद्र व्यक्तिसे फेसे प्रेम कर सकती है ? नहीं कर सकतीं ॥४॥
भागुरि' विद्वान्ने भी वेश्याओं के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
वेश्याओमें आसक्त पुरुष उन्हें प्रचुर धन देने पर भी कभी सुखी नहीं हो ममता जो मूर्स के श्याको अपना प्रचुर धन देता है वह दूसरों को भी धन देनेके लिये प्रोत्साहित कर उसे और भी धनाच बनाता है, वह पशुसे भी पढकर पशु है, क्योंकि वह अपने साथ साथ दूसरोंकी मी आर्थिक पति कावा है 4-५॥
बल्लभदेव ' विद्वानने भी वेश्यासककी इसी प्रकार कड़ी प्राखोपना की है ॥१॥
विजिगीषु अपने चिरा को शान्ति पर्यन्त (श-विजन पर्यन्त) गुप्तचर-मादिक कार्या परवासंद करे, इससे वह शत्रत उपद्रवोंसे पंश को सुरक्षित करता है ॥५॥ . साप नारदः-प्राकाहानिरेष स्याडेश्वार्या प्रतिको नृवाम् । परमातस्यास्परित्याग्या वेरणा पुमिग
विभिः॥॥ १ तथा व भारद्वाज:--- सेवभो नर वेरपाः सेवन केस धनम् । धमहीनं यतो मत्वं संत्वमसि - उत्तवान् ॥१॥ । तपा च भागुरिः-- सेम्पते बीनः कामदेवोऽपि चेतास्वर्ष । मेरमामिर्चगाम्बामिः श्री चापि निम ॥॥ ४ सपा पखामदेवः-प्रारमदितव को मेरा महा रुने कुधीः । सम्पाविसमाचारपाना पाह सर्वका ॥१॥
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राजरचा समुरेश
३१५ परछी तरह रखवाली की हुई वेश्या दूसरे पुरुषका उपभोग करने रूप अपना स्वभाव नहीं कोड़ती ॥५॥
गुरु' विद्वानने भी इसी प्रकार कहा है ॥१॥ प्रकृति-निर्देशया यस्य प्रकृतिः सा तस्य देवेनापि नापनेतु शक्येत ॥५३॥ सभोजितोऽपि श्वा किमशुचीन्यस्थीनि परिहरति ॥५४॥ न खलु कपिः शिक्षाशतेनापि चापन्यं परिहरति ॥५५॥ इचुरसेनापि सिक्तो निम्बः कटुरेव ॥५६॥
अर्थ-जिसकी जैसो प्रकृति होती है उसे विधाता भी दर करने में असमर्थ है ॥३॥ नार' ने भी ज्यान-श्रादि की प्रकृति का निर्देश किया है ।।१।।
अच्छी तरह भोजनादि द्वारा सृप्त हुआ मी कुत्ता क्या इड़ियां चबाना छोड़ सकता है ? नहीं छोड़ सकता ॥४॥
भूगु विद्वान् ने भी प्रकृति न बदलने के विषय में यहो कहा है ॥१॥
धैर्य-धारण की सैंकड़ों शिक्षामों द्वारा समझाया गया भी बंदर क्या कभी अपनी बल प्रकृति बोब सकता है ? नहीं छोड़ सकता II
अनि विहान ने भी बंदर की चंचन प्रकृति न बदलनेके विषयमें कहा है ॥१॥ गन्नेके मीठे रससे सींचा गया नीमका पेड़ कडुमा ही रहता है ।।६।। गर्ग' विद्वान्ने भी दुष्ट व शिष्टकी प्रकृति के विषयमें लिखा है ॥१॥
प्रकृति, कुरुम्न कुटुम्बियोंका पोषण व उनके विकृति होने का कारण, शारिरिक सौन्दर्य व कुडथियों का संरक्षण
पोराभितशर्करापानभोजितरचाहिम कदाविद् परित्यजति विषम् ॥५७॥ सन्मानदिवसा
दायुः कुल्यानामपग्रहहेतुः ॥५८॥ तंत्रकोशवर्धिनी कृतियादान् विकारयति ॥५६॥ दारुण्य। तथा च गुरु: यहोया क्षोभरोसा स्पीकवापि नरोत्तमैः । सेपरपुरुषानम्मान स्वभागो दुरूपजो मश: 14 २ तथा नार:-या सेवति भानन सुगहन सिंहो गुहा सेवते । इंसा सेवति पत्रिनों सुमिया ग्रा: साताग
स्थती । साइ: सेति साधुमेव सत्सं नीयोऽपि नौ जन । मा बस्य प्रकृति स्वभावनिता दुषमा स्या । तया - -स्वभावो नापाक शमः केनापि कुत्रचिन् । वेव सरसा मुक्या बिया मेव्याच
सृष्यति || " या अत्रिः-मोकः शिवायतेनापि न वापर त्यस्कपिः । समावो नोपदेशेन सय स्तं मयन्या ग ५ सया बगा:-पिशु दानमाधु संप्रयापि कथंचन । सिक्तपरसेनापि दुरुस्यमा प्रातिनि । A-उक्त सूत्र मु.म. पुस्तक से संकलन किया गया है, सं. टी. पु. मैं नहीं है।
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नीतिवाक्यामृत
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मधिकृत्यसंस्कारसाराहितोपयोगाच्च शरीरस्य रमणीयत्वं न पुनः स्वभाव:B |॥६०॥ भक्तिविश्रम्भादव्यभिचारिणं कुन्यं पुत्र वा संवर्धयेत् ॥११॥ विनियुजीत उचितेष कर्मसु ॥३२॥
अर्थ:-जिसप्रकार सांपको मीठा दूध पिलाने पर भी वह अपनी विषली प्रकृति नहीं छोड़सकता उसीप्रकार जिसकी जैसी प्रकृति होती है, उसे वह कदापि नहीं छोड़ सकता। सारांश यह है कि इसी तरह वेश्याए भी व्यभिचार-प्रकृतिका घणाम नहीं छोड़ सकता, इसलिये नैतिक विचारवान मनुष्यको शारी. रिक भयंकर बीमारियों (गर्मी-सुजाक आदि ) को उत्पन्न करनेवाली एवं धन, धर्म, प्राण व मानमर्यादा नष्ट करनेवाली वेश्याओंसे सदा दूर रहना चाहिये ॥५०॥
जब राजा अपने निकटवर्ती कुटुम्बीजनोंको उच्च अधिकारी पदों पर नियुक्त करके जीवनपर्यन्त प्रचुर धन-आदि देकर उनका संरक्षण करता है, तब वे अभिमान-वश राज्यलोभसे राजा के घातक हो बाते हैं ॥४॥
शुक' विद्वानने भी निकटवर्ती कुटुम्बीजनोंका संरत्रण गजाके विनाशका कारण बताया है ॥१॥
राजा द्वारा जब सजातीय कुटुम्बियोंके लिये सैन्य व कोश बढानेवाली जीविका दीजाती है, हब वे विकार-युक्त अभिमानी होजाते हैं, जिसका परिणाम महाभयंकर होता है- वे शक्ति सम्पन्न होकर अभिमान व राज्य-लोभ-वश राजाका वध-बंधनादि चिन्तवन करने लगते हैं, अतः उन्हें ऐसी जीविका न देनी चाहिये ॥५६॥
गुरु विद्वानने भी सजातीय फुटुम्पियों के लिये सेभ्य व कोश बढानेपाली जीविका देने का निषेध किया है ॥२॥
शरीर में कृत्रिम (बनावटी) सौन्दर्य होता है, न कि स्वाभाविक, क्योंकि युवावस्था को प्राप्त होकर उत्तम वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत होने के कारण वह सुन्दर प्रतीत होता है ॥३०॥
राजाको अपने पर श्रद्धा (भक्ति) रखनेवाले, भक्ति के बहाने से कभी विरन होनेवाले नत्र, विश्वसनीय व मासकारी सजातीय कुटुम्बी व पत्रों का संरक्षण करते हुए उन्हें योग्ष पदों पर नियुक्त करना चाहिये ॥६१-६२
नारद 'पल्लामदेव ' विद्वानने भी इसीप्रकार कहा है ॥१॥
B-- रक्त सूत्र म. म. पुस्तक से संकलन किया गया है. टी. पू. में नहीं है।
सवायकः-स्पाचा पोषण यच निपते मठपार्थिः।मात्मनाशाप तगोपं तस्मास्यास्य सुदूरतः||१॥ २ तथा - गुरु:-तिः कार्या , मुल्याचं यथा सैन्य विवर्धते । सैन्यपृढचा तु से नन्ति स्वामिन
राज्यशोमतः || ३ मा मारकः--वर्धनीयोऽपि दायापः पुत्रो वा भक्तिभादि । न विकार करोति स्म शाला साइतका
पर। ५ स्या व मलमदेवःस्थामदेव नियोजन भृत्या भाभरपामि । म बामविः गाये प्रमयामीति
बव्य॥॥
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राजरक्षा समुश
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स्वामीका आझापालन, शक्तिशाली व वैर-विरोध करनेवाले पुत्रों व कुटुम्धियोंका वशीकरण, तिसके साथ कवघ्नता करनेका दुष्परिणाम व अकुलीन माता-पिताका सन्तान पर कुप्रभाव
मतुरादेश न विकम्पयेत् ॥६३। अन्यत्र प्राणवाधाबहुजनविरोधपातकेभ्यः ॥६४i चलवत्पक्षपग्रिहेषु दायित्राप्तपुरुषपुरःसरो विश्वासो वशीकरर्स गूढपुरुषनिक्षेपः प्रणिधिर्वा ॥६॥ दुर्बोधे सुते दायादे पा सम्यग्युक्तिभिरभिनिवेशमवतारयेत् ॥६६॥ साधुखूपचर्यमाणेषु विकृतिभजनं स्वहस्ताकाराकर्षणमिव ॥६७॥ क्षेत्रबीजयोर्वेकृत्यमपत्यानि विकारयति ॥६॥
अर्थ-सेवककी प्राणनाशिनी तथा लोगोंसे वैर-विरोध उत्पन्न कराने वाली एवं पापमें प्रवृत्ति करानेवाली स्वामीकी आज्ञाको छोड़कर (उसे उल्लंघन करते हुए) दूसरे सभी स्थानों में सेवकको अपने स्वामीकी माझाका उलंपन नहीं करना चाहिये ।।६३-६४॥
अब राजाके सजातीय कुटुम्बी लोग सन्त्र (सैन्य) व कोशशक्तिसे बलिष्ठ होजायें, उस समय उनके वश करनेका पहला उपाय यह है कि वह अपने शुभचिन्तक व प्रामाणिक पुरुषोंको भम्र सर नियुक कर उनके द्वारा कुटुम्बियोंको अपने में विश्वास अस्पन करावे और दूसरा उपाय यह है कि उनके पास गुमचरोंको गिग करे, कहि न लसरत पनिार राहगो विदित होसकें। सारांश यह है कि उक्त उपायों द्वारा उनकी सारो चेष्टाए' विदित होने पर उनके वशीकरणार्य प्रयोगकी हुई साम-दान-पादि उपायोंकी योजनाए' सफल होंगी ।।६।।
शुक्र' विद्वान ने भी शक्तिशाली कुटुम्पियोंको अधीन करने के लिये उक्त दोनों उपाय पवाये हैं॥॥
नैविक मनुष्यको पुत्र व भार्या वगैरह फुटुम्बी जनोंका मूर्खतापूर्ण दुरामह मच्छी बस्तियों (पश्चि-युक्त पानों) द्वारा नष्ट कर देना चाहिये ॥६६॥
रेभ्य विद्वान् ने भी इसी प्रकार कहा है ॥
सपकार करनेवाले शिष्ट पुरुषों के साथ अन्यायका वर्ताव करनेवाला अपने हाथोंसे भंगारे खींचने समान अपनी हानि करता है। भर्यात् जिसप्रकार अपने हाथो से अग्निके अंगारों को खोबने से बन जाते है, इसीप्रकार आपकार करनेवाले शिष्ट पुरुषों के साथ अन्याय करनेसे अधिक हानि (मार्थिक पतिभावि) होती है ॥३॥
भागुरि विहानके वारणका भी यही अभिप्राय है ॥शा बाप शुर:-सपायादो भाप्तद्वारे वपाः। भवन्ति पातिगुप्तर परैः सम्बग्विशोषिताः ॥ ज्यामः -पुत्रो वा बायको पारि दिक्दो जागते यदा। पया सम्योपयुक्तस्तु सकायो तिमिच्नका ॥ ३ व्या व मागुमिरा-साना वियवात्यानां विधानि करोति यः । सोखिन सम्हा वाहस्तेनाग्निकावर 11
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नीतिवाक्यामृत
F÷÷÷4-11GAALPROTNYEL
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माता पिता की अकुलीनता उनके पुत्रों को विकार-युक्त नीचकुलका बना देती है एवं सन्तान के जघन्य आचरण से माता पिताकी अकुलीनता जानी जाती है ॥ ६८ ॥
सम पुत्रकी उत्पत्तिका उपाय --
कुलविशुद्धिरुभयतः प्रीतिर्मनः प्रसादोऽनुपहतकालस मयश्च श्रीसरस्वत्यावाहन मंत्रपूतपरमा श्रीपयोगश्च गर्भाधाने पुरुषोत्तममवतारयति ॥६६॥
अर्थ- दम्पति निम्नप्रकार कारण सामग्री से उत्तम, कुलीन व भाग्यशाली पुत्र उत्पन्न करते हैं । १- कुलविशुद्धि - दम्पतिके माता पिताका वंश परम्परा से चली आने वाली पिंड-शुद्धि से शुद्ध ( सजाति) वंश होना चाहिये ।
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भजनसेनाचार्य' ने भी कहा है कि वंश-परम्परासे चली आई पिता की वंश-शुद्धि 'कुल' और माता को वंश शुद्धि 'जाति' है एवं दोनों (कुल व जाति) की शुद्धिको 'सज्जाति' कहते हैं। अभिप्राव यह है कि जिन दम्पतियों के बीज-वृक्ष समान परम्परासे चले आये हुए वंशमें समान गोत्रमें विवाह आदि द्वारा पिंडमें अशुद्धि न हुई हो, किंतु एक जाति में भिन्न गोत्रज कन्या के साथ विवाहसंस्कार द्वारा प्रवाह रूप से चला आया हुआ वंश विशुद्ध हो, उसे 'सज्जाति' कहते हैं। उसकी प्राप्ति होने से कुलीन पुरुष को बिना प्रयत्न किये प्राप्त होने वाले सद्गुणों (शिक्षा व सदाचार आदि) के साथ साथ मोचके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यम्चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभता से होजाती है ।
उक्त सज्जाति का सुरक्षार्थं आचार्य श्रीने गर्भाधानादि संस्कारों से उत्पन्न होने वाली दूसरो सज्जाति का निरूपण किया है, जिसके द्वारा कुलीन भव्य पुरुष द्विजम्मा – वो जन्म वाला ( १ शरीर जम्म २ संस्कारों से होने वाला श्रहम-जन्म) कहा जाता है, जिसके फल स्वरूप उसमें नैतिक व धार्मिक सत्कर्तव्य-पालन की योग्यता उत्पन्न होती है। जिसप्रकार विशुद्ध खानिले उत्पन्न हुई मणि संस्कार से अत्यन्त उज्ज्वल हो जाती है, उसी प्रकार यह आत्मा भी क्रिया (गर्भाधानावि) व मंत्रोंके संस्कार से अस्पत निर्मल- विशुद्ध होजाती है एवं जिसप्रकार सुवर्णपाषाण उत्तम संस्कार क्रिया (छेदन, मेदन व पुटपाक आदि) ले शुद्ध होजाता है, उसीप्रकार भव्य पुरुष भी उत्तम क्रियाओं (संस्कारों) को प्राप्त हुन्छ विशुद्ध हो जाता है।
वह संस्कार धार्मिक ज्ञानसे उत्पन्न होता है, और सम्मान सर्वोत्तम है, इसलिये अब यह पुण्य वान् पुरुष साक्षात् सर्वशदेव के मुखचन्द्र से सम् ज्ञानामृत पान करता है तब वह सम्मज्ञानरूपगर्भसे
१ तथाच सावधि जनसेना चार्थः पितुरन्यशुद्धियां तत् परिभाष्यते । मातुरम्यशुद्धिस्तु जातिरित्ययि ॥३६॥ विशुद्धियभवस्यास्य सज्जातिरनुचर्षिता । पस्प्राप्ती सुखभा वोधिरयत्नोपन यौः ॥ २॥
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हसंस्कारजन्मना चान्या सज्जातिरनुकोरर्थव । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भध्यात्मा समुपाश्नुते ॥३॥ विशुद्धभूतो मयि संस्कारयोगतः । कर्षं वमात्मैव क्रियामन्त्रैः सुसंस्कृतः ||५|| सुमखभ्रातुरभवा शुद्धदासाय संक्किम । यथा तथैव व्यात्मा शुश्रूयत्यासादकियः ॥५॥ शानयः स तु संस्कारः सम्यग्ज्ञानमन्तर ं । मयि समयं साक्षात् सर्वदिन्मुखतः कृती ||५||
तदैव परमज्ञानगर्भात् संस्कारजन्मना | जातो मदेव द्विजम्मेति वयं शीरच भूषितः ||७|| भाषि पशव से
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राजरका समुश ........................................................................................................... संस्काररूप जन्ममे उत्थान होकर पांच अणुव्रतों (हिमाणुनस सस्थाणुनत-श्रादि तथा ७ शीलों (दिग्बात
आदि) से विभूषित होकर 'द्विजन्मा' कहलाता है ॥ १-७॥ सारांश यह है कि कुलीन दम्पति की मतान कुलीन होती है और गर्भाधान आदि संस्कारों से संस्कृत होने पर उसमें मोच-साधन सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करनेकी योग्यता होती है।
२–दम्पतियों का पारस्परिक प्रेम ३-मनः प्रसाद (दम्पवियों के हदय कमल का विकास-प्रमान चित रहना) ४-मन्द्रपलमा मावि दोष रहित गभाधान वेला (समय). लपी (मनन्त दरोन, अनंतमान, अनंत सुख अनंतबीये रूप अन्तरङ्ग लक्ष्मी व समवसरण विभूति कप बहिया समी) और सरस्वती (बादशाहतझान)का पायाइन करने वाले मन्त्रों (पीठिका मंत्रानि) से पवित्र किये हुए (वाविधि हवन पूर्वक ) उत्तर-प्राचार शास्त्र व प्रकृति ऋतुके अनुकूल-मन का भवन ॥६॥
निरोगी व दोपजीवी संतान होनेका कारण, राज्य व दीक्षा अयोग्य पुरुष, पाहीनोंको राज्याधिकारको सीमा, स्नियका प्रभाव, व अभिमानी राजकुमारोंकी हानि
गर्भशर्मजन्मकर्मापत्येषु देहलाभात्मलामयोः कारखं परमम् ॥७०॥ स्वजातियोग्यसंस्कार. हीनानां राज्ये प्रव्रज्यायां व नास्त्यधिकारः ॥७१॥ मसति योम्पेऽन्यस्मिन्नाविहीनोऽपि पितृपदमर्हत्यापुत्रोत्पत्तः ॥७२॥ साधुसम्पादितो हि राजपुत्राचा विनयोऽन्वयमभ्युदयं न च दृश्यति ॥७३॥ पुणजग्धं काप्रमिवाविनीत राजपुत्र राजसमभियुक्तमात्र अज्येत् ॥७४||
अर्थ--जो स्त्री गर्भवती अवस्था में निरोगी व सुखी रहती है, उसकी मसा मी सुखी होती है एवं जिस बच्चे का जन्म शुभग्रहों में होता है, वह दोपजीवी (विरायु) होता है ।
गुरु' विद्वाम्ने मी संतान के निरोगी और दोर्षजीची होनेके विषयमें इसी प्रकार कहा है।
अपनी जातिके योग्य गर्भाधान-श्रादि संस्कारोंसे हीन पुरुगेको समाप्ति पारण करनेका अधिकार नहीं है ०१॥ राजाके कामकाजत होबाने पर उसका पाहीम पुत्रनी उस समय अपने पिताका पद (राज्याधिकार प्राप्त कर सकता है, अपककि रस (मान)की कोई दूसरी योग्य सन्तान न होजाये ||७२
शुक' विहान का भी यही अभिप्राय ||शा
जिन राजकुमारोंको शिष्ट पुरुषों द्वारा विनव-सदाचार-बादि की नैतिक शिक्षा वाई-नम सर विंगत राज्य दूषित नहीं होवा
पादरायण' विद्वान् के ग्रह का भी वही मित्राव है॥शा
जिसप्रकार पुष-कीदोंसे खाई बड़ी न होजाती है, इसीप्रपर दुराचारी बनवं .. मा गुरू-गर्भस्थानमपमान रवि सोम प्रसाद रिमोतो कीरिक-मावि .
. बाराक-रामामा तुसंजाते योग्यः पुरोगा। रामोऽपिलायो पाप . . ज्या नादरावक:-निकः साधुभिर्वतो रामपालो भरोसारिसलपव०
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नीतिमामात .......................... ................................................................ राजमारका वंश नष्ट हो जाता है। इसलिये दुरापारी व नगर व्यक्ति को राज्यपदपर नियुक्त नहीं करना पाहिये val
भागुरि विद्वान् ने भी दुराचारी म्पत्तिको रापपद पर नियुक्त करनेका निषेध किया है।
पिवासे दोहन करनेवाले राजकुमार, उनके माता-पिता, उनसे लाभ, माता-पिता के अनादरसे हानि, उससे प्रात राज्यकी निरर्थकता व पुत्रकर्तव्य
माप्तवियोगदोपदाः मुखोपरूवारच राजपुत्राः पितर नामिबन्ति ॥ मातृषितरो राजपुत्राणां परम देव ॥७६॥ यत्प्रसादादात्मलामो राज्यलाभश्च ॥७७|| माषितम्या मनसायपमानवनिमुखा मपि पियो विमुस्खा भवन्ति ॥७॥ किं तेन राज्येन पत्र दुरपवादोपहत जन्म | ७६। स्वचिदपि कखि पितुरानो नो रुपयेत् ।।०॥
मर्थ-जो सबकुमार वंशपरम्परासे पो पाये निजी विद्वानों द्वारा विनय प सदापारमारि . की मैतिक शिक्षासे सुशिक्षित और सुसंस्कृत किये जाकर पढ़ाये गये हैं जिनका लालन-पालन मुखपूर्वक कियागया है, ये कभी भी अपने पितासे द्रोह नहीं करते (उसका अनिष्ट मितवन नहीं करते )
गौतम विदाम् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥१॥
सचम माता-पिता का मिशना राजकुमारों के सम भाग्यका घोतक है। अर्थात् यदि इन्होंने पूर्व जन्ममें पुण्य-संचय किया है तो वे माता-पिता द्वारा राज्यश्री मात करते हैं, अन्यथा नहीं nor
__ गर्ग विहान ने भी राजकुमारों के अनुइन व प्रतिकूल भाम्बसे उन्हें इस अनिष्ट फारेनेवाले माता-पिता की प्राप्तिका निर्देश किया है ॥१॥
__माता-पिवाकी प्रसनतासे ही राजमारोंको शरीर पराम्पाएमी प्राप्ति होती है। सारांसह है कि माता-पिताका पुत्रों के प्रति मनन्त उपकार है, इसलिये मुखामिक्षाको पुत्रों को उनकी पन, मन और घमसे सेवामा करनी चाहिये !
रम्स' विधान के संगृहीत श्लोक सभी यही अभिप्राय है ॥१॥ यो पुत्र माता-पिवाका मनसे भी तिरस्कार-अनादर करते है, उनके पाससे प्रसन्न होकर समीपमें मामेवाती समी भी कह होकर दर माग जाती है। अभिप्राय पहा कि सुख-सम्पत्तिक पुत्रों अपने माता-पिताका मनसे मी तिरस्कार नहीं करना चाहिये। फिर प्रवृत्ति रूपसे तिरस्कार करना हो महामानवका कारण है I
पाषराम विद्वान के सरसका भी यही अभिप्राय है ॥शा . , लाभानि:- कालो दुराचारी बदि सालियोनिमः ।गानामावाति प दावर ॥१॥ . चारीतम:-विधाविया राबताः सुरक्षित गरि गाय सोलन दिसे ॥ पा:-समयदेवी
माणिजे। सभी बचा राभाइम . न्या-भव हिलिनी मनपीजी देव' चाम्या प्रसादेन करीब रायमा + पावरापा-ममतापमानबोरामासमारेषा सपा मापरितम्यासमोसार मासुला।
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राजरज्ञा समुदंश
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पस निरर्थक राज्य से क्या नाम है जिसकी प्राप्तिाने भावजीवन अत्यन्त लोकनिन्नासे दूषित होता हो ७
शुक' विद्वान ने भो लोकनिन्दायुक्त राज्य प्राप्ति को निरर्थक बताया है ।।१।। पत्रको किसीभी कार्यमें पिताकी प्राज्ञा उल्लंघन नहीं करनी चाहिये । 2014 लोक प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा उक्त बातका समर्थन, पुत्रके प्रति पिताका कर्तव्य और मशुभकर्म करने
किन्तु खलु रामः क्रमेण विक्रमेण वा हीनो यः पितुराज्ञया वनमाविवेश ॥१॥ यः खनु पुत्री मनसितपरम्परया लम्यते स कथमपकर्तव्यः ॥२॥ कर्तव्यमेवाशुभ कर्म यदि हन्य. मानस्य विपद्विधानमात्मनो न भवेत् ।।३।।
अर्थ-क्या निश्चयसे महात्मा रामचन्द्र राजनैतिक-शान अथवा अधिकारीकम तथा शूरवीरता से ही थे जिन्होंने अपने पिता ( राजा दशरथ ) की आज्ञानुमार वनवास को प्रस्थान किया। सारांश यह है कि लोकमें यह राजपुत्र अपनी पैतृक राज-गहीका अधिकारी नहीं समझाजाता जोकि क्रम (राजनैतिकजान, सदाचार व लोक व्यवहार पटुता-आदि) एवं शरवीरसासे हीन हो अथवा उक्त गुण होने पर भी ज्येष्ठ न हो, परन्तु राजा दशरथके ज्येष्ठ पुत्र महात्मा रामचन्द्रमें पेक राज्यश्रीकी शप्ति के लिये यथेष्ट पाजनेतिक-झान, लोकव्यवहार-पटुता राज्य शासन-प्रवीणता एवं लोकप्रियक्षा-मादि सद्गुण थे। वे पराक्रगशाला थे और ज्येष्ठ होने के नाते कानूनन राजगही के अधिकारी थे। पदि बेचाहते तो अपने पराक्रमी भाई लरमणकी सहायतासे अपनी सौतेली मा ( कैकयों) को कैदकरके उसके फैदे में फंसे हुए अपने पिताको नीचा दिखाकर स्वयं राजगहो पर बैठ जाते। परन्तु उन्होंने ऐसा अनर्थ कहीं किया और अपने पिताको कठोरतम आक्षा का पालन कर १५ वर्षे तक बमधाम के कष्ट सहे। अतएवं सम्यक्त्व और सदाचारको सुरक्षित रखसे हुए पुओंको अपने पिताको कठोरतम भी साझाका पालन करना पाहिये ||शा
मओ पुत्र माता-पिता द्वारा भनेक प्रकारके मनोरयों या ईश्वर-भादिसे की हुई पावनाओं द्वारा बड़ी कठिनाई से मिलता है, ऐसे दुर्लभ पुत्र के विषय में उसके माता-पिता किसमकार अनि चितवन र सकते हैं ? नहीं सकते ॥२॥
गुरु' विद्वान के उद्धरणका भी पुत्र रक्षा के विषय में यही अभिप्राय है ॥१॥
क्योंकि निरपराध मारे जानेवाले पुरुषके वध-धनादि स्वयं हिसकको भोगने पड़ते हैं, इसलिये क्या बुद्धिमान पुरुषों को ऐसा भनिध सोहा-काये करमा चाहिने नहीं करना चाहिये ॥३॥
, तथा शुक्र:-जनापायसहित' यग्राम्यमिद कीस्वते । प्रभूतमपि सम्मिया तापापाव राजसंस्थिते ॥१॥ । तथा च गुरु:-अपवाचितसंचालैः कृषी व प्रखम्वत । तस्मादायमस्य नो पाप चिन्तनीयं न .
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नीतिवाक्यामृत
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गर्ग' विद्वान् ने भी उक्त दुष्कृत्य (निरपराधी का बध) करनेका निषेध किया है ॥१॥
राजपुत्रोंके सुखी होनेका कारण, दूषित राज-नरमी, निष्प्रयोजन कार्यासे हानि व उसका दृष्टान्त द्वारा सर्मथन, राज्य के योग्य उत्तराधिकारी व अपराधोकी पहिचान
ते खलु राजपुत्राः सखिनो येषां पितरि राजभारः ॥८४।। अलं तया श्रिया या हियपि सुख जनयन्ती व्यासंगपरंपराभिः शतशो दुःखमनुमावयति ॥५॥ निष्फलो पारम्भः कस्य नामोदर्केण सुखात्रहः ॥८६॥ परक्ष' स्वयं कषतः कर्षापयतो वा फलं पुनस्तस्यैव यस्य तरत्रम् ॥८७॥ सुतसोदरसपत्नपितृव्यकुल्पदौहित्रागन्तुकेषु पूर्वपूर्वाभावे भवस्युत्तरस्य राज्यपदावाप्ति:AJEE|| शुष्कश्याममुखता वास्तम्भः स्लेदो विजम्भणमतिमा वेपयुः प्रस्खलनमास्यप्रेचणमावेगः कर्मणि भूमौ वानवस्थानमिति दुष्कृतं कुतः करिष्यतो वा लिंगानि ८६ ॥
अर्थ-वे राजपत्र निश्चयसे सुखी माने गये हैं, जिनके पिता राज्यकी पार अपने हाथ में लिये हो; क्योंकि वे (राजपुत्र) राज्य-शासम के कठिन कार्यभारको संभालने आदिसे निश्चिन्त रहते हैं ।
अत्रि विद्वान के श्लोक का भो यही अभिप्राय है ॥२॥
राआको उस राजनवमीसे कोई काम नहीं, जो उसे थोडासा सुखी करनेके उपरान्त अनेक चिन्ताओं द्वारा सेकड़ो कष्टोको उत्पन्न कर देवी हो ॥२५॥
कौशिक विद्वानने भी सुखकी अपेक्षा अधिक कष्ट देने वाली राजमानीको व्यर्थ बताया है ॥१॥
फलश न्य-निष्प्रयोजन (उद्देश्य व लाय-हीन) काये का प्रारम्भ भविष्यमें किसे सुखी पना सकता है ? किसी को नहीं । अाएव विवेकी मनुष्यको सोच-समझ कर कार्य करना चाहिये ताकि भवि. ध्यमें वह उससे सुखी होसके ॥८॥ जो मनुष्य इसरेके खेतको स्वयं ओवना है था मम्ब किसीसे जुवष। सा है, उसका परिश्रम व्यय है, क्योंकि ऐसा करने से उसे कुछमी नाम नहीं होता, क्योंकि उसमें जो कछभी धान्य-आदि को उपज होगी, वह इसे न मिलकर उस खेतके स्वामीको ही मिलेगो !!२७॥
कौशिक ' विद्वानके उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥शा १–राजपत्र, २-राजाका भाई, ३--पटरानीको छोड़कर दूसरी रानीका पुत्र, ४-राजाका पाचा ५- राजाके वंशका पुत्र, ६-राजकुमारीका पुत्र और ७-बाहरसे श्राकर राजाके पास रहनेवाला-त्सक । तथा च गर्ग:-प्रनिष्टमपि कर्तव्य कर्म मिचिषण । तस्य जन्यमानस्य पञ्जात वत्स्वप' मा A 'सुव-सोदर-सापत्म-पितृष्य-कुम्य-चौहित्रागम्तुकेषु पूर्वपूर्वाभाषे प्रलोत्तम दायम्माप्ति इस प्रकार का पायार
भु० प्रतियों में है, जिसका अर्थ यह है कि सात सात व्यक्ति क्रमशः वायभागके अधिकारी है। १ तथा अनि:-येष। पिता पहेदत्र राज्यभार सुदुषहस | राजपुत्रा सुलान्यारच से भवन्ति सदैव हि ॥ ३ तथा च कौशिकः-अपसौम्पकना या च बहुसेगमवा भवेत् । पूषा सात्र परिक्षया समस्या सोक्ष यतः ॥ vaौशिक:-परमेसु यो बीज पविधिपति मन्वनीः । परिपत्रको वापि त्या जम्म हि. .
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दिवसानुष्ठान समुरेश
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पुत्र-आदि इन सात प्रकारके राज्याधिकारियो मेंसे सबसे पहिले राजपत्रको और उसके न रहने पर भाई-श्रादिको यथाक्रमसे राजा बनाना चाहिये ॥८॥
शुक्र' विद्वानका भी राजाके बाद रायके उत्तराधिकारी बनाने के विषय में यही मत है ॥१॥
जो पुरुष पूर्णमें पाप कर चुका हो, वर्तमानमें कर रहा हो और भविष्य में करेगा, उसके निम्नप्रकारके लक्षणों को देखकर भ्यायाधीशों को उसके पापी (अपराधी) होनेके विषयमें पहिचान करनी चाहिये।
१-जिसका चेहरा उदास (म्लान) और काला दिखाई पड़ता हो, २-जिसके मुख से स्पष्ट वचन न निकलते हो-न्यायालय में प्रश्न पूछे जाने पर जो उत्तर देनेमें असमर्धा हो, ३-जिसे लोगोंके समक्ष पसीमा पाता हो, ४-आधार-मार भाई जेधा हो, .... जो अत्यन्त कांप रहा हो ६-जो लड़खहरते पैरों से चलता हो, ७--ओवसरोंके मखोकी भोर बारबार देखता हो -जो अत्यन्त जल्दबाज हो और है जो स्थिरतासे कार्य न करता हो या जो स्थिर भावसे जमीन पर या एक स्थान पर न बैठता हो ।।६॥ शक विधान का भी अपराधी-पुरुषोंकी पहिचानके विषय में यही मत है ॥१॥
इति राजरक्षा समुश।
२५ दिवसानुष्ठान-समुद्देश। नित्यकर्तब्य, सुखपूर्वक निद्रासे लाभ, सूर्योदय व सूर्यास्त की बेला में शयनसे हानि-दिधाम महर्स उपयायेति कर्तध्यतायां समाधिमुपेयात् ॥१॥ सुखनिद्राप्रसन्ने हि मनसि प्रतिफलन्ति यथार्थवाहिका बुद्धयः ॥२॥ उदयास्तमनशायिषु धर्मकालातिक्रमः ॥३॥ पारमवक्त्रमाज्ये दर्षणे पा निरीक्षेत ॥४॥ न प्रातवर्षपर विकलाङ्ग या पश्येत् ॥५॥ सन्ध्यासुधोतमुखं जप्त्वा देवतोऽनुगृहातिः ॥६॥ नित्यमदन्तधावनस्य नास्ति मुखशुद्धिः ॥७॥न कार्यध्यासङ्गेन शारीर कर्मोपहन्यात् ॥॥ न खलु पुगैरपि तरङ्गविगमात् सागर स्नान 18|| वेग-व्यापाम-स्वाप-स्नान-भोजन स्वच्छन्दति कालान्नोपहन्यात् ॥१०॥
भर्ष-मनुष्यको नाममुहूर्त में उठकर स्थिर वित्तसे इस समुद्देश में कहे आनेवाले सत्यकर्तव्यों का पालन करना चाहिये ॥१॥ जिस मनुष्यका वित्त सुखपूर्षक गाद निद्रा लेनेसे स्वस्थ रहता है, उसमें ताएक--सुनः सोदरसापरमपितृप्या गोत्रिणस्ता । बोहित्रागमतुच योग्या पवे राज्ञो यामम् ॥१॥ . सवा च शुक-मायाति स्वखितः पादै भाया पापकर्मवत् । प्रस्पेदनेन संयुक्तो भयोरष्टि: सुम्ममाः ॥ ६ मु.मू. प्रति में इसके पश्चात् 'रजस्वला ऐसा अधिक पाठ है, जिसका अर्थ यह कि मनुष्य प्रात:काल अस्वस्खा
स्त्री को भी न देखें। ___A उक्त पार म. म. प्रतिसे सकलन किया गया है। .
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नीतियाक्यामृत
समस्त बुद्धियां यथार्थ होकर प्रतिविम्बित होजाती हैं ।।२।। सूर्योदय र सूर्यास्तके समय सोनेवासे पुरुष सामायिक प्रावि धार्मिक अनुष्ठान नहीं कर पाते; अतएव उन्हें यह समय सोने में खराब नहीं करना चाहिये ।।३॥ प्रातःकाल उठकर मनुष्य को अपना मुख घृत अथवा शोशा-दपेशामें देखना चाहिये ॥४॥ मनुष्य सुबह नपुंसक व अंगोपांग-हीन (सूले-लंग-प्रादि ) को न देखे ॥२
तीनों सन्ध्यायों में मुख शुस करके जप करनेखाले भ्यक्तिका अधमादि तीर्थंकर देव अनुप्रह करते हैं ।।६।।
जो पुरुष हमेशा दांतोन नहीं करता-उसकी मुख-शुद्धि नहीं हो पाती। अतः सुन्दर स्वास्थ्य को कामना करनेवाले मनुष्य को सुबह-शाम विधिपूर्वक दांतोन करते हुए इस बावका ध्यान रखना चाहिये कि मसूड़ों को तकलीफ न हो और दांतोन भी नीम जैसी तितरसवाली हो। ऐसा करनेसे फफादिक से उत्पमहुई मुखको दुर्गन्धि नष्ट होजाती है और दांत भी सुन्दर व चमकीले दिखाई पड़ने लगते हैं |
मनुष्यको किसी कार्यमें मासक्त होकर शारीरिक क्रियाभों ( मल-मूत्रादि का यथासमय च पथआदि ) को न रोकना चाहिये ।।८। नैतिक मनुष्यको कदापि समुद्र में स्नान नहीं करना चाहिये, पाहे समुद्र में चिरकालसे तरंगों का उठना बन्द हो गया हो ।।।। शारीरिक स्वास्थ्यके इच्छुक व्यक्तिको मतमूत्रादिका वेग, कसरत, नींद, स्नान, भोजन और ताजी हवा में घूमना-आदि की यथासमय प्रवृत्ति नहीं रोकनी चाहिये । अर्थात सतत कार्य यथासमय करने चाहिये ।।१।
वीर्य व मल-मूत्रादिके वेगोंको रोकने से हानि, शौच सभा गृह प्रवेशकी विधि व व्यायामशुक्रमलमूत्रमरुद्वेगसंरोधोऽश्मरीभगन्दर-गुल्मार्शसा हेतुः ॥११॥ गन्धलेपावसानं शौचमाचरेत ॥१२॥ बहिरागतो नानाचाम्य गृहं प्रविशेत् ॥१३॥ गोसर्गे व्यायामो रसायनमन्यत्र पीखा. . जीर्णवद्धवातफिरूपभोजिभ्यः ॥१शा शरीरायासजननी क्रिया व्यायामः ॥१५॥ शस्त्रयाहनाभासेन व्यायाम सफलयेत् ॥१६॥ मादेहस्वेदं व्यायामकालमुशन्त्याचार्याः ॥१७॥ पलातिक्रमेण व्यायामः का नाम नापदं जनयति ॥१८॥ मव्यायामशीलेषु सतो. ऽग्निदीपनमुरसाहो देहदाय च ॥१६॥
मर्थ-जो व्यक्ति अपने वीर्य, मल, मूत्र और पायुके अंगोंको रोकता है ससे पथरी, भगंदर, गुल्म व यमासीर मावि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
घरक' विधाम ने लिखा कि बुद्धिमान पुरुषको मल-मूत्र, वीर्य वायु, वमन, बीक, बद्गार हमा परक:-मगार चारवेदीमाजासान मूत्रपुरुषयो। म रेसो नपातस्पर्णः सवयो । गोगारस्पन गम्भाषामगार पिपासमो। म बापस्त निधारा गिरवासस्म अमेबसपस्विमेहमयोः एवं मत्रा विरोरुजा | बिनामो समयानाः स्थास्थामुनिपरे । पस्चारायशिरएन पाव! प्रबलमम् । पिपिडकोष्टनामा परीने पारिपारित ॥ मेरे सहयोः शूमामदों हर व्यथा। भवेद मटिइने के विवई मत्रमेव
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दिवसानुशन समुरेश
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अभाई, भूख प्यास, वाष्प, नीद और परिश्रमसे होनेवाले श्वासोच्छवास के वेगों को नहीं रोकना चाहिये । क्योंकि मूत्रका धेग रोकने से गुदा और जननेन्द्रियमें पीस, पेशाब करने में कष्ट व शरीरमें पीड़ा होती है एवं शरीर झुक जाता है तथा अंडकोषोंकी वृद्धि होजाती है। मलका वेग रोकने से पायाशय और शिरमें पीड़ा-प्रापि होते हैं। बीके बाकी रीफन अनधि सामगोषों में पीड़ा और पेशाषका ककजाना आदि उपद्रव होजाते हैं-त्यादि । मतः साध्य पाहनेवालेको उक्त बेग नहीं रोकना पाहिये ॥१॥
शौचके पश्चात् गुशा और हरत-पाद आदिकी शुद्धि मुल्तानी मिट्टी और जलसे करनी चाहिये व अन्त में उन अंगों में सुगन्धित द्रष्य का लेप करना चाहिये, वाकिफ दुर्गन्धि नष्ट होकर पिच प्रसन रहे ॥१२॥ बाहरसे भाया हुषा व्यक्ति पाचमन (करखा) किरे बिना अपने गृहमें प्रवेश न करे ॥१॥
जिनकी शारीरिक शक्ति त्रीण होगई हो-जिनके शरीरमें खून की कमी हो, ऐसे दुर्वल मनुष्य अजीखे रोग-युक्त, शरीरसे वृद्ध, लक्षा-श्रादि वात-रोगी और सह-भोगी मनुष्यों को छोड़कर दूसरे स्वस्थ बालक और नायुवकों के लिये प्रातःकाल व्यायाम करना रसावन के समान लाभदायक है ॥१४॥
परक' विम ने भी उक्तबाव का समर्थन किया है। - शरीरमें परिभम उत्पन्न करनेवाली किया (, बैठक बहिन भावि) 'भ्यायाम' कहते हैं ॥१५॥
परक विद्वान् ने भी कहा है कि शरीरको स्थिर रखनेवासी शस्तिवर्षिनी 4 मनको प्रिय . सगनेवाली सा संचालन प्रादि शारीरिक क्रिया को न्यायाम करते हैं, इसे उचित मात्रामें करना पाहिये ॥१॥
साभारि शस्त्र संचालन तथा हावी और मोदे भादिकी सबारीसे म्यायामको सफल बनाना पाहिये ॥१॥
मायुर्वेद के विद्वान माचा शरीरमें पसीना माने व व्यायाम का समय मानते हैं ॥१५॥
परक विद्वान्ने भी मति मात्रामें न्यायाम करनेसे अत्यन्त पकावट, मनमें महानि बारभादि भनेक रोगों के होने का निर्देश किया है ॥१॥
जो मनुष्य शारीरिक शक्तिको गलपन कर अधिक मात्रामें व्यायाम करता है, उसे कौन-कौन मी शारीरिक व्याधियां नहीं होती ? सभी होती है ॥१८॥
जो कोण व्यायाम नहीं करते उनको अठराग्निका दीपन, शरीर में उत्साह और पता किसमकार मा सकती है। नही हो सकती
. वारक-परवाताव पोलीभाषकाः। वर्षपेयुाषामं बुधितास्कृषिवार
कार:-रीमा काष्टा स्पेयर्याय पारिनी देहव्यायामसम्यादा मात्रा का समाचरेत् ॥ पा :-अमः समः पपस्युम्यारपितं प्रणामकाप्रतिव्यायामतः सो स्वरमणि मापते ॥
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नीतिवाक्यामृत
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परक' विद्वान ने भी कमाई कि समान भरने शासीरिक मधुर, तम्म करने में उत्साह. शारीरिक रहता, दुःखोंको सहन करने की शक्ति, पात पित मादि दोषोंका चय व जठराग्नि प्रवीण होती है ॥१॥
निद्राका लक्षण उससे साम, दृष्टान्तद्वारा समर्थन, मायु-राक कार्य, स्नानका रेश्वर बाभ, स्नानकी निरर्थकता, स्नान-विधि व निषिद्ध स्नान
इन्द्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्माषस्था स्थापः ॥२०॥ यथासात्म्यं स्वपातामपाको भवति प्रसीदन्ति चेन्द्रियाणि ॥२१॥ सुघटितमपि हितं च भाजन साधयत्यमानि ||२२|| निस्थ. स्नानं द्वितीयमुत्सादनं तृतीयकमायुष्यं चतुर्थक प्रत्यायुष्यमित्यहीन सेवेत ॥२६॥ धर्मार्षकामशुद्धिदुर्जनस्पर्शाः स्नानस्य कारमानि ॥२४॥ श्रमस्वेदालस्यविगमः स्नानस्य फलाम् ।।२।। जलचरस्पेव तत्स्नानं यत्र न सन्ति देवगुरुवर्मोपासनानि ॥२६॥ प्रादुर्मवरण त्पिपासोऽभ्यास्नान कुर्यात् ॥२७॥ भातपसंतप्तस्य अलावगाहो एमान्य शिरोप व फरोति ॥२८॥ . सर्व स्पर्शन, रसना आदि इन्द्रियां, प्रामा, मन और श्वासोच्छवासको सूरमावस्था 'निद्रा' है ॥२०॥ प्रकृति के अनुकूल यथेष्ट निद्रा नेनेसे खाये हुए भोजन का परिपाक होजाता है और समस्त इन्द्रियां प्रसन्न रहती है ॥२१॥ जिस प्रकार साबित व खुला हुमा वर्तन अन्न पकाने में समय होवा, इसीप्रकार यथेष्ठ निद्वासे स्वस्थ शरीर भी कर्तव्य पालनमें समर्थ होता है ।
निस्यस्लान, स्निग्ध पदार्थोसे उबटन करना, आयुरभक प्रकृति-पतके प्रडका प्राहार-विहार प्रत्यायुष्य (शरीर और इन्द्रियों को सुरक्षित और शक्तिशाली बनाने वाले कार्य-पूगोल मल-मूत्रारिक
गों को न रोकना, मायाम व मालिश मावि ) कार्य करने में न्यूनता (कमो)मरनी चाहिये। भर्वान् उक्त कार्यों को यथाविधि बधापति सम्पन्न करना चाहिये ॥२३॥
मनुष्यको धर्म, अर्थ और काम-शुद्धि रखने के लिये एवं 'दुष्टोंका स्पर्श होजाने पर प्लान कर पाहिये ॥२४ा स्नान करनेसे शीरकी पकावर भाव और पसीना मोजावे है ||Rit
, पाच परका-बाप कर्मसामय स्पै दुखसहिन्यण । दोषयोऽग्विादिस्य पालामाबापते १ A सत पण मु०म० प्रविसे संकलन किया गया है, ० ० पुस्तक टिकमपि विज - मा .
बत्यम्मानि' ऐसा पाst, परन्तु विशेष अर्थ मेद नहीं। इसके पश्चात हस्तपापम मुलायमानुन निगु रातकर्म हत्या (१) पुषसी पुरोमावहरवं पयामेऽस्मिा ' या मालिक भाब होनेसे डोक वर्ष प्रचीत महों होता । किन्तु प्रमावानुसार वर्ष पहले किसानों और पैरोंच मन भाब, उत्साहमर पायुषीया रजसका स्त्रीका सेवन बहीमा चाहिने पूर्व प्रणा स्त्रीको दस दिन स्लाम करना चाहिये परन्तु मे माइके परचा ही उसका उपभोग करना चाहिये।
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दिवसानुष्ठान समुद्देश
चरक' विद्वान् ने भी कहा है कि स्नान शरीरको पवित्र करनेवाला, कामोद्दीपक, श्रायुषसँ परिश्रम, पसीना व शरीर के मलको दूर करनेवाला, शारीरिक शक्ति वर्द्धक और शरीरको तेजस्वी बनाने बाला है ||५||
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जो व्यक्ति देव, गुरु और धर्मकी उपासना के उद्देश्य से स्नान नहीं करता उसका स्नान पक्षियों की तरह निरर्थक है ||२६|| भूखे और प्यासे मनुष्यकी मालिश करने के बाद स्नान करना चाहिये ||२७|| जो व्यक्ति सूर्य आदि की गर्मी से संतप्त होकर जनमें प्रविष्ट होता है ( स्नान करता है ), उसके नेत्रोंको रोशनी मंद पड़ जाती है और शिरमें पीड़ा होजाती है, अतः गर्मी से पीड़ित व्यक्ति तरकाल स्नान न करे ||२८||
चाहार सम्बन्धी स्वास्थ्योपयोगी सिद्धा
बुभुक्षाकालो मोजनकालः ॥ २६ ॥ श्रक्षु धितेनामृतप्युपभुक्त' च भवति विषं ॥३०॥ जठराग्नि चाग्नि कुर्वभादारादौ सदैव वज्रकं वलयेव ||३१|| निरन्नस्य सर्व द्रवद्रव्यमग्नि नाशयति ||३२|| अतिश्रमपिषा सोपशान्तौ पेयायाः पर कारणमस्ति ||३३|| घृताधरोत्तर भुजानोऽग्नि दृष्टि न लभते ||३४|| सक्रुद्ध रि नीरोपयोगो वन्हिमवसादयति ॥ ३४|| कालातिक्रमादभद्वेषो देहसादश्च भवति | ३६ || विध्याते बन्दौ किं नामेन्धनं कुर्यात् ||३७|| यो मितं ते स पहुंचते || १८ || प्रमितमसुखं विरुद्धमपरीक्षितम साधपाकमतीवर समकालं श्वान्नं नानुभवेत् ||३६|| फम्गुडजमननुकूलं चुधितमतिक्रूर च न मुक्तिसमये सन्निघा पयेत् ॥ ४० ॥ गृहीतसेषु सहभोजिष्वात्मनः परिवेषयेत् ॥४१॥ तथा भुञ्जीत यथासायमन्येधश्च न विपद्यते वन्हिः ||१२|| न भुक्तिपरिमाणं सिद्धान्तोऽस्ति ||४३|| वन्द्य मिशानायस हि भोजन || ४४ || अतिमात्र भोजी देहमग्निं च विधुरयति ||४५ || दीप्तो वन्हिर्लघुभोजाना चपयति ॥ ४६ ॥ श्रत्यशिदु:खेनान्नपरिणामः || ४७|| श्रमार्तस्य पानं मोजन च ज्वराय येवा ||४८ || न जित्सूर्न प्रस्त्रोतुमिच्कुर्ना समञ्जसमनाश्च नानपनीय पिपासोद्र कमश्नीयात् ॥४६॥ भुक्त्वा व्यायामव्यवायौ सद्यो व्यापत्तिकारणं ॥५०॥ आजन्म सात्म्यं विषमपि पथ्यं ||३१|| असात्म्यमपि पथ्यं सेवेत न पुनः सात्म्यमप्यपर्थ्य ||१२|| सर्व बलवतः पथ्यमिति न कालकूटं सेवेत ॥ ५३ ॥ सुशिचितोऽपि विक्तंत्रज्ञो नियत एव कदाचित्रिषत् ||१४|| संविभज्यातिथिष्याश्रितेषु च स्वयमाहरेत् ॥ ५५ ॥
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अर्थ- भूख लगने का समय ही भोजन का समय है । सारांश यह है कि विवेकी पुरुष साधर्म की रक्षार्थ रात्रि भोजन का त्यागकर दिनमें भूख लगने पर प्रकृति-ऋतु के अनुकूल भोजन करे, बिना भूख कदापि भोजन न करे HRE
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तथा च चरकः—पवित्र हृष्यमायुष्य अमस्वेदमापहम् । शरीरका सन्धानं स्नानमो अस्कन पर
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नोविवाक्यामृत
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घरका विद्वान ने भी देश, काल, अग्नि, मात्रा, प्रकृति, संस्कार, वीर्य कोष्ठ, अवस्था व क्रमआदि से विरुद्ध आहार को अहितकारक-अनेक रोग पैदा करनेवाला कहा है। उसमें जो व्यक्ति भूम्दा न होने पर भी किसी कार्य विशेषसे मल-मूत्र का वेग रोककर बाहार करता है, उसके आहार को क्रमविरुद्ध कहा है । अज्ञानवश ऐसा (क्रम-विरुद्ध) माहार-करनेवाला अनेक रोगोंसे पीड़ित होजाता है, अतः भूख लगनेपर ही भोजन करना चाहिये।
योगि टिमा नाम शाल मुबारगृ भी विष होजाता है, अतः ज्ञधा ( भख ) लगने परही मोजन करना चाहिये ॥३०॥ जो मनुष्य सदा आहार के प्रारम्भ में अपनी जठराग्नि को वजकी अग्नि समान प्रदीप्त करता है, वह वनके समान शक्तिशाली होजाता है ।शा बमुशित-भूखा मनुष्य यदि भन्न न खाकर केवल बी-दृध मादि तरल पदार्थं पीता रहे, तो वह अपनी जठराग्निको नष्ट कर सकता है, अत: तरल पदार्थों के साथ २ अन्न-भक्षण भी करना चाहिये ॥३२॥ अत्यंत थकावट के कारण उत्पन्न हुई प्यासको शान्त करने में दूध सहायक होता है ॥३३॥ पृत-पान पूर्वक भोजन करनेवाले मनुष्यकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है और मेत्रों की रोशनी भी बढ़ जाती है ॥३४॥ जो एकमार में अधिक परिमाणमें पानी पीता है, इसकी जठराग्नि मन्द होजाती है ।।३। भूख का समय उस्मान करनेसे प्रश्न में अरुचि व शरीर में शता-कमजोरी होजाती है। अतः भूखके समयका उपसान नहीं करना पाहिये ।।३६॥
जिसप्रकार अग्निके बुझ जानेपर उसमें ईधन डालनेसे कोई लाभ नहीं, इसीप्रकार सुभुजाकाल के स्नान करनेसे जठराग्निके बुझजाने पर भोजन करनेसे भी कोई लाभ लाभ नहीं। अतः उसके प्रदीप्त होनेपर भोजन करना चाहिये ॥३७॥ अठराग्नि के अमुकूल खानेवाला ही स्वस्थता के कारण अधिक खाता है ॥३८॥ स्वास्थ्य रक्षा चाहने वाले को प्रदान व लोभ-वरा जठराग्निसे भषिक, हितकर (दुग्लादेनेवाला), अपरीचित भलीभांति परिपाक न होनेवाला, रसहीन व भूखका समय सम्मान करके
भोजन नहीं खाना पारिये। मोत-स्वास्थ्य चाहनेवाला ज्या हुमा मौनपूर्वक सध्या, स्निग्ध, जठराग्निके अनुकूल, पूर्व भोजनके पनजानेपर किया हुमा, छदेशमें वर्तमान व काम-क्रोधादि दुर्भागों को उत्पन्न न करनेवाला पाहार न अस्यत शीघ्रता से और न अत्यंत विलम्ब से करे। परक विद्वान् ने इस विषय की पिशव व्याख्या की है, परन्तु विस्तार के भवसे हम हिलना नहीं चाहते ॥३॥
नैतिक पुरुष ब्राहारको बेलामें अल्प-भोजन करनेवाला, अपने से बैर-विरोध रखनेवाला, बुभुक्षित व दुष्ट व्यक्ति को अपने पास न बैठाये; क्योंकि इनकी उपस्थिति भोजन को प्रषिकर बना देती
सी-मजाकन करता
, अयाचक:-प्राहारजात तत् सर्गमहिलापोपविरते ।।
मायापि पेशाकाबग्निमात्रासाम्बानिमादिभिरिरमादि । मचानुत्सप विमत्र भुक्ते पश्चाभुषितः ।। 'ताप कमविक्षस्यात् । घरकस दिवा सूचम्पान 40 २६ ।
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दिवसानुष्ठान समुहेश
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है ॥४॥ भोजन करने वाला व्यक्ति आहारको बेला ( ममय ) में अपनी थाली भोजन करनेवाले सहभोजियोंसे बेष्ठित रक्खे ॥४शा मनुष्य इसप्रकार-अपही जठराग्निकी शक्ति के अनुकूल-भोजन करे जिससे उसकी अग्नि शाम को वा दूसरे दिन भी मन्द न होने पावे ॥४२॥
भोजन की मात्रा-परिमाण के विषय में कोई निश्चित सिखाम्त नहीं है ।।४।।
निश्चय से मनुष्य जठराग्निकी कष्ट, मध्यम व अल्प शक्ति के अनुकूल उत्कृष्ट, मम्बम व सम्प-भोजन करे। अर्थात् भूखके अनुसार भोजन फरे।
चरक संहिता में भी आहारको मात्राके विषय में लिखा है कि माहारमात्रा पुनरग्निवलापेक्षिणी' अथात पाहारकी मात्रा मनुष्यकी जठराग्निकी उत्कृष्ट, मध्यम व अल्प शक्तिकी अपेक्षा करती है (उसके अनकूल होती है), भतः जठराग्नि की शक्ति के अनुकूल पाहार करना चाहिये ॥४४॥
भूखसे अधिक खानेवाला व्यक्ति अपना शरीर व जठराग्निको शोण करता है ४४ प्रदीन हुई अठराग्नि मुख्से थोड़ा भोजन करने से क
श क तो मिससे निक लानेवाले के भन्नका परिपाक बड़ी कठिनाई से होता है ॥४॥
परिश्रम से पीड़ित ग्यक्ति द्वारा सत्काल पिया हुमा बल व माण किया हुभा मनावर वा चमन पैदा करता है ।४.
मल-मूत्रका धेग व प्यासको रोकनेवाले व सम्वस्थ बिसवावे व्यक्तिको ससममय भोजन नहीं करना चाहिये क्योंकि इससे अनेक रोग उत्पन्न होजाते हैं; मतः शौचादिसे निवृत्त होकर सचित्तसे भोजन करे ॥४॥ भोजन करके तत्काल म्यायाम मषवा मैथुन करना चाचिजनक है I जीवन के शुल्से सेवन किया जानसे प्रकृति के अनुकूल हुमा विष भी सेवन करने पर पथ्य माना गया है ॥५॥ मनुष्याहों पूर्वकालीन अभ्यास न होनेपर भी पध्य-हितकारक-वस्तु का सेवन करना चाहिये, परन्तु पूर्वका अभ्यासी होने पर भी अपथ्य वस्तु का सेवन नहीं करना चाहिये || बापान ममुम्ब ऐसी पमझकर कि मुझे सभी वस्तुए' पथ्य हैं, विष का कदापि सेवन न करे |
क्योंकि विपकी शोधनादि विपिको जाननेवाला सुशिक्षित मनुष्य भी विषयसे मर ही जाता है इसलिये कदापि विषमण न करे ॥४॥
___ मनुष्य को अपने यहां गाये हुए अतिथियों और नौकरों के लिये राहार रेस मोमब भाना नाहिये
सुख-माप्तिका उपाय, इन्द्रियोंको शकिहीम करने वाला कार्य, पाजी हवामें घूमना न समर्थन, सदा सेवन-योग्य वस्तु, बैठने के विषय में, शोकसे हानि, शरीर-गृहकी शोमा, अविश्वसनीय मचि, ईश्वरस्वरूप बरसकी नाममाता
देवान् गुरून धर्म चोपचान्न व्याालमतिः स्यात् ॥६॥ व्यापथमनोनिरोपो मन्दयति सर्वाण्यपीन्द्रियाणि ॥७॥ स्वच्छन्दधिः पुनाया परम रसायनम् ॥८il पाकासमी
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मीतिवाम्यामृत
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हानाः किल काननेषु करिणो न भवन्त्यास्पद व्याधीनाम् ||६|| सततं सेव्यमाने ई एव पस्तुनी सुखाय, सरसः स्वैरालापः ताम्बूलभपणं चेति ॥६॥ चिरायोर्ध्वानुनाइयति रसवाहिनी नसाः ॥६१॥ सततमुपविष्टो जठरमा-मापयति प्रतिपद्यते च तुन्दिलता चाचि मनसि शरीरे च ॥६२॥ अतिमात्र खेदः पुरुषमकालेऽपि जरया योजयति ॥६३॥ नादेवं देहप्रासाद कुर्यात् ॥६॥ देवगुरुधर्मरहिते पुसि नास्ति सम्प्रत्ययः ॥६५॥ पलेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषो देवः ॥६६॥ तस्यैवैतानि खल विशेषनामान्यांनाऽनन्तः शहदरतमोऽन्तक इति ॥६॥
अर्थ-देव, गुरु ध धर्मकी भक्ति करनेवाला कभी भ्रान्तबुद्धि (कर्तव्य पक्षसे विचलित करने हाती पुडि युक्त.)नहीं होता॥५६॥ ठिरस्कार कराने वाली भूमिमें स्थित होकर मानसिक-निमेष (भ्यान) करनेसे समस्त इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं, अतः विषेकी पुरुष ऐसी जगह बैठकर धर्मभ्यान न करे, वहां उसका अनादर होता हो ॥४ा जिसप्रकार उत्सम रसायनके सेवनसे शरीर निरोगो व अलिट होता है, इसीप्रकार शीतल, मंद, सुगंध वायु से संचार करने (घूमने) से भी मनुष्यों का शरीर निरोगी व बलशाली मेजाता है II निश्चयसे वनों में अपनी इच्छानुज्ञ भ्रमण करने वाले हाथी कभी बीमार नहीं होवे ॥॥ हितपो भारमीय शिष्ट पुरुषों के साथ सरस (मधुर) वार्तालाप व पानका भक्षण इन दोनों पशुओका मनुष्यको निरन्तर सेवन करना चाहिये, क्योंकि इनसे सुख प्राप्त होता है ।।६०
जो मनुष्य चिरकालता घुटनों के बल बैठा रहता है, उसकी रस धारण करने वालो मसे कमजोर पपजाती है ।।६१॥ निरन्तर बैठे रहनेसे मनुष्यकी जठगग्नि मन्द, शरीर स्थूल, भावाज मोटी व मानसिक विचार-शक्ति स्थून होजाती है ।शा अत्यन्त शोक करनेसे भी जवानी में भी मनुष्यका शरीर प इन्द्रियो नियम व शिषित हो जाती हैं अतः शोक करना उचित नहीं ॥६३।। मनुष्य अपने शरीर रूप गृह को ईश्वर-शून्स न करे-उसमें ईश्वरको स्थापित करे ॥६४ ईश्वर, गुरु व अहिंसाधर्मकी अवहेलना म. नेवासो व्यक्ति नैतिक और सदाचारी होने में किमीको विश्वास नहीं होता, अस: विधेफी पुरुषको शा. पत्र कल्याण बलोक में विश्वासपात्र होने के लिये बीतगग, सर्वज्ञ व हितोपदेशी अपमानि वीर्थर व मिर्म गुरू तथा महिमाधर्मका भवास होना चाहिये ॥६५॥ ऐसे पुरुष श्रेष्ठको ईशवर कहते हैं, जोकि जन्म, जरा व मरण-प्रादि दुःख, भानावरण दर्शनावरगा, मोहनीय भौर अन्तराय इन चार पातिया कर्म पया इनके स्वयसे होने वाले राग, पव मोह-त्रादि भाषफर्म एवं पापकर्म कपकालिमासे रहित होजो बीसराग सर्वा व हितोपदेशो हो ६६||
यशस्तिखको भी आचार्यश्रीने' मर्ष सवलोकका ईश्वर-संसारका दुःख-समुइसे उबार करने पाने, शुधादि दोषोंसे रहित व समस्त प्राणियोंको मोहमार्गको प्रत्यक्ष अपरेश करने वाले प्रभारि वीर्यवरों को सत्यार्थ ईश्वर कहा है ॥११॥
या कि सोमदेवलपि:- a योनिवि मdि Eमामोचित
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दिवसानुष्ठान समुद्देश
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मी ईश्वर के अर्हन, अज, अनन्त शंभु, बुद्ध व तमोऽन्तक ये विशेष नाम है । सारांश यह है कि उसे त्रिलोक पूज्पतासे 'ईन्' जन्मरहित होनेसे 'अज' मृत्यु-शूभ्यवास 'अनन्त' आत्मिक सुख-शान्तिको प्राप्त होने में 'शंभु' केवल ज्ञानीके कारण 'चंद्र' अज्ञानांधकार का विध्वंसक होनेसे 'तमोऽन्त कहा गया है ।। ६७||
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कर्तव्य पालन, अनियमित समयका कार्य कर्तव्य में विलम्ब करनेसे हानि, आत्मरक्षा राज कर्तव्य, गज्ञ-मभार्मे प्रवेश के अयोग्य, विनय, स्वयं देखरेख करने योग्य कार्य, कुलंगत का त्याग, हिंसाप्रधान कामकोका निषेध
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श्रात्मसुखानवरोधेन कार्याय नक्तमहश्च विभजेत् ॥ ६८ ॥ कालानियमेन कार्यानुष्ठानं हि मरणसमं ॥ ६६ ॥ आत्यन्तिके फायें नास्त्यत्रसरः ॥ ७० ॥ अवश्यं कर्तव्ये कालं न यापयेत् ॥७१|| श्रात्मरक्षार्या कदाचिदपि न प्रमाद्येत ॥७२॥ सवत्सां धेनु' प्रदक्षिणीकृत्य धर्मासनं यायाव ||७३ || अनधिकृतोऽनभिमतश्च न राजसभां प्रविशेत् ॥१७४ | भाराभ्यमुत्थायाभिवादयेत् ॥ ७५॥ देवगुरुधर्मकार्याणि स्वयं पश्येत् ॥७६॥ कुहकामिचारकर्मकारिभिः सह न सङ्गच्छेत् ॥७७॥ प्राणयुपघातेन कामक्रीड़ा न प्रवर्तयेत् ॥७८॥
अर्थ- प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक सुख में बाधा न डालता हुआ दिनरात कर्तव्यपालन करता रहे ||६|| निश्चित समय उपरान्त किया हुआ कार्य मृत्युके समान हानिकारक है, अवश्य नैतिक व्यक्तिको अपने कार्य निश्चित समय पर ही करने चाहिये, अन्यथा समय ही उसके फलको पी लेता है ६ वादी सिंह भाचार्यने भी कहा है कि जिस प्रकार फल लगने पर अनार आदिके पुलोंमें से उन के पुरुष तोड़ने की अभिलाषा करना व्यर्थ हैं, उसी प्रकार समय थूकनेपर कार्य करनेसे सफलता प्राप्ति की आशा अर्थ है ॥१॥
नैतिक व्यक्ति शाश्वत् कम्याण करनेवाले सरफर्तव्योंके पालन में मौका न चूके ||७०१ मनुभाको नैतिक, धार्मिक और आर्थिक लाभ आदिकं कारण अवश्य करने योग्य कार्यों में बिलम्ब नहीं करना चाहिये, अम्बथा उसका कोई इष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो पाता ||* १ || मनुष्य को शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक कष्टों को दूर कर अपनी रक्षा करनेमें श्रावस्य नहीं करना चाहिये ॥७२॥ राजा को बड़े सहित गावकी -
'कान्तिके कार्ये मास्स्यो धर्मक्ष्य' ऐसा सुत्र मु. पुस्तक में पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि का करने चाडे सत्कर्णम्यों में धर्म शुरु है,
नहीं, योंकि यह
B एक सूत्र मु. ब. पुस्तक का किया गया है। ऐसा पाठ है, जिसका धर्म यह है कि राजा तथाचारः
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है।
सं. टी. पुस्तक 'सबस्तु प्राधिकरण दाबान् सहित मायकी प्रक्षिका देकर धर्मकी उपासना करे । संपुति ममी किया
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लिए देकर न्याययुक्त राज्य-सिहासन पर बैठना चाहिये ॥७३॥ राजकीय अधिकारोंसे होनत्र राजा द्वारा नबुलाये गये राज-मभ में प्रविष्ट नहीं होना चाहिये ११७४|| मनुष्य को अपने पूज्य माता, पिता और गुरुजनको खड़े होकर नमस्कार करना चाहिये ॥७५॥
मनुष्यों को देवकार्य — देवस्थान ( मन्दिर आदि), गुरू कार्य व धर्म-कार्यकी स्वयं देखरेख करनी चाहिये ॥७६॥ विवेक मनुष्यको कपटी, कारण मारण व उच्चाटन आदि करने वाले दुष्ट पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिये ॥७७
मनुष्य को ऐसे अन्याय के भोगों में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये, जहाँ पर प्राणियोंका घाव हो । परस्त्री के साथ मातृ-भगिनी माथ पृथ्यों के प्रति कर्तव्य, शत्रु के स्थान में प्रविष्ट होनेका निषेध, रथ आदि सवारी, अपरीक्षित स्थान आदि में आनेका निषेध, अगन्तव्य स्थान, उपासना के अयोग्य पदार्थ, कंठस्थ करने लायक विद्या, राजकीय प्रस्थान, भोजन व वस्त्रादिकी परीक्षाविध कर्त्त-काल भोजन आदिका समय, प्रिय लगने वाले व्यक्तिका विशेष गुण, भविष्य कार्य सिद्धिके प्रतीक, गमन व प्रस्थान के विषय में, ईश्वरोपासना का समय व राजाका जाप्य मन्त्र -
जनन्यापि परस्त्रिया सह रहसि न तिष्ठेत् ॥ ७६ ॥ नातिक्रुद्धोऽपि मान्यमतिक्रामेदवमन्येश वा ||८०|| नाप्ताशोधित परस्थानमुपेयात् ॥ ८१ ॥ नाप्तजनैरनारूढं वाइनमध्यासीत् ॥८२॥ न स्टेपरीक्षितं तीर्थं साथै सपस्विनं वामिगच्छेत् ||८३|| न याष्टिकैरविविक्त मार्ग भजेत् ॥ ८४ ॥ न विषापहारोपधिमणीन् चणमप्युपासीत || दश सदैव जाङ्गलिकीं विद्यां कण्ठे न घारयेत् ||८६|| मंत्रिभिषग्नैमिलिकरहितः कदाचिदपि न प्रविष्टेत् ||८७|| बहावन्यचक्षुष च भोज्यमुपभोग्यं च परीक्षेत ||८|| अमृते मरुति प्रविशति सर्वदा चेष्टेत ॥८६॥ भक्तिसुरतसमरार्थी दक्षिणे मरुति स्यात् ॥ ६०॥ परमात्मना समीकुर्वन् न कस्यापि भवति द्वेष्यः ॥१॥ मनः परिजनशकुनपवनानुलोम्यं भविष्यतः कार्यस्य सिद्धेलिङ्गम् ॥६२॥ नैकोनक्क दिन वा हिंडे ||३|| नियमितमनोवाक्काय: प्रतिष्ठेत ॥६४॥ अहने संध्यामुपासीताऽनचत्रदर्शनात ॥६५॥ चतुः पयोधिपयोधरां धर्मवत्सवतीमुत्साहबालधिं वर्णाश्रमखुरां कामार्थश्रवणां नयप्रतापविषायां सत्यशौचचचुषं न्यायमुखीमियां गां गोपयामि, भ्रतस्तम मनसापि न सहे योऽपराज्येतस्यै, इसीमं मंत्रं समाधिस्थो अपेत् ॥ ६६ ॥
अर्थ - नैतिक पुरुष दूसरेकी स्त्रीके साथ एकान्त में न बैठे, चाहे वह उसकी माता भी क्यों न हो क्योंकि इन्द्रियों को काबू में रखना निश्चित नहीं, इसलिये मे विद्वान् को भी अनीविके मार्ग की ओर कर देती है ॥७५॥ मनुष्यको अस्थत कुपित होनेपर भी अपने माननीय मावा -पिता आदि हितैषी पुरुषोंके साथ अशिष्ट व्यवहार में अनादर नहीं करना चाहिये ॥८०॥
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दिवसानुष्ठान समुरेश
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मनुष्यको अपने हितेपी पुरुषों द्वारा अपरीक्षित के स्थानमें न प्रविष्ट होना चाहिये और न जाना पारिये, क्योंकि उपद्रव-युक्त स्थान में जाने से संकटोंका सामना करना पड़ता है | इसीप्रकार अपने विश्वासपात्र व हितेषी पुरुषों द्वारा बिना सपारी किये हुए पोड़े व रब-मादि वाहनों पर सबारी नहीं करनी चाहिये ॥६॥
___ मनुष्य ऐसे सालार-धादि जलाशय, व्यापारी व तपस्वी के पास न जाबे, जो कि उसके भात पुरुषों द्वारा परीक्षित न हो ॥८३ । राजाको पुलिस द्वारा संशोधन न किये हुए मार्गपर नहीं बनना चाहिये, क्योंकि सापित मागमें कोई खतरा नहीं रहता ।,८४|| विषकी पुरुष विष को दूर करनवालो औषिक । मणिकी अशा भर भी उपासना न करे । इमीप्रकार हर उतारने की विद्या का अभ्यास करे, परन्तु उसे कंठस्थ न करे । ८६॥ गजाको मंत्री, बैंप व ज्योतिषी के बिना कभी भी दूसरी जगह प्रस्थान नहीं करना चारिये ||२७|राजा या विवेकी पुरुषका कर्तव्य है कि वह अपनी भोजन साममो को भषय करने से पूर्व भाग्नमें डालकर परीषा करने और पावखने कि कहीं अग्नि में से नीले रंगकी लपटें न निकलने लगी हो, अगर ऐमा हो, सो समझ लेना चाहिये, कि यह सामग्री जहर मिश्रित - भक्षणके भयोग्य है। इसीप्रकार पत्रादिक की जांच भी अपने अन्न पुरुषों से कराते रहना चाहिये, ताकि उसको सदैव इन विघ्नबाधाओं से रक्षा हो ॥८॥ मनुष्यको समृप्तिद्धि के योग सदा समस्त कार्य करना चाहिये, इससे कार्य-सिद्धि होती है ।
जब दक्षिण दिशा की भोर अनुकल बायुका संचार हो रहा हो, उस समय मनुष्यको भोजन मैथुन व युद्ध में प्रवृत्ति करनी चाहिये, ऐसा करने से उसे सक्त कार्यों में सफलता मिलती है 10 वर से अनुराग करनेवाला अथवा दूसरे को अपने समान समझनेवाला व्यक्ति किसीका रेप-पात्र नहीं होता ॥३१॥ मन, सेवक, शकुन वायुकी अनुकूलता भविष्य में किये जानेवाले कार्यकी सफलवा केशाएक चिन्ह है। अर्थात-हदय प्रफुल्लित होना, सेवकोंका प्रसन्न रहना व दाहिनी आंख फाकना-मादि शुभ शकुन इस बात के प्रतीक है, कि भविष्य में उस मनुष्यको सफलता मिलेगी ॥२॥ अकेला व्यक्ति दिन । रात्रि में गमन न करे ॥३॥ मनध्यको अपना मन, बचन व शरीर काबू में रखते हुव-जिवविध होकर प्रस्थान करना चाहिये ॥४॥
प्रयेक व्यक्ति दिनमें सुबह दुपहर और शाम-सीनों संध्यामों में नपत्र देखने तक रिवर सपासना करे ॥३५राजाणे ध्यान में स्थित होकर निम्न प्रकार के मंत्रका जाप करना चाहिये कि 'मैं इस प्रविधी रूपी गायकी रक्षा करता हूँ, जिसके चार समुद्र ही धन है, धर्म (शिव-पालन व दुष्टनिप्रह) ही जिसका पछाहै, जो उत्साह रूप धमाली है, वर्ण (मामा-मावि बचानम (माचार-पादि) ही जिसके सुर है जो काम और अर्थ र कानों वाली, नय व प्रताप ही जिसके मांग है जो सस्वर शोर रूप नेत्रों से युक्त हैं एवं जो म्याच रूप मुख से एक है।
. इसप्रकार की मेरी पृथिवी कपी गाव का ओ अपराब करे (ो इसपर भाकमय-मादि करेगा) से मैं ममसे भी सदन महीगा
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भोजनका समय, शक्तिहोन के योग्य बाहार, त्याज्य स्त्री, यथाप्रतिवाले बम्पति, प्रसग्नमित, वशीकरण, मल-मत्रादि वेगोंको रोकने से हानि, विषय भोगके अयोग्य काल व क्षेत्र, परस्त्री त्याग, नैतिक पेषभूषा व पाचरण, आयात और निर्यात व दृष्टान्त द्वारा समर्थन, अविश्वाससे हानि
कोकवदिवाकामो निशि स्निग्धं सुजीत ॥९७१ चकोरपन्नत कामो दिवा च । ६८॥ पारावतकामो वृप्यान्नयोगान् चरेत् ॥६६॥ चष्कयचीनां सुरमीा पयःसिद्ध माषदलपरमान्न परो योगः स्मरसंवर्द्धने ॥१००|| नायषस्यन्ती स्त्रीममियायात् ॥१.१॥ उत्तरः प्रवर्षवान् देशा परमरहस्यमनुरागे प्रथम-प्रकृतीनाम् ॥१०२॥ द्वितीयप्रकृतिः सशावलमदूपवनप्रदेशः ।।१०३। तृतीयप्रकृतिः सुरतोत्सवाय स्यात् ॥१०४॥ धर्मार्थस्थाने लिङ्गोत्सवं लभते ।।१०५॥ स्त्रीपु. सयोर्न समसमायोगात्पर वशीकरणमस्ति ॥१०६॥ प्रकृतिरूपदेशः स्वाभाविकं च प्रयोगपैदग्ध्यमिति समसमायोगकारणानि ॥१०७|| जुत्तर्णपुरीषाभिष्यन्दार्तस्याभिगमो नापत्यमनवैध करोति ॥१०४ाम अधाशुभ दिशा मान देवायतने मैथुन कुर्वीत ।।१०६॥ पर्वणि पर्वणि संधौ टपहते वादि कुलस्त्रियं न गच्छेव ॥११०॥ न तद् गृहाभिगमने कामपि स्त्रियमधिशयीत ॥१११॥ वंशवयोवृत्तविद्याविभवानुरूपो वेष: समाचारो वा केन विडम्बयति ॥११२॥ अपरीक्षितमशोधितं च राजकुले न किंचित्प्रवेशयेन्निकासयेद्वा ॥११३।। भूयते हि स्त्रीदेवधारी कुम्तलनरेन्द्रप्रयुक्तो गूढपुरुषः कर्णनिहितेनासिपत्रेश पन्हवनरेन्द्र हयपतिश्च मेषविषाणनिहितेन विषेण कुशस्थलेश्वर जघानेति ॥१४॥ सर्वत्राविरवासे नास्ति काचिक्रिया ॥११॥
भर्य-पकवावकवीके समान दिनमें मैथुन करनेवाला रात्रिमें सचिकच्या वस्तुका मरण करे और चकोर पक्षीकी तरह गत्रिमें मैथुन करने वाला दिन में भोजन करे। सारांश यह है कि मनुष्य मी पलीकी तरह रात्रिमें मैथुन-कामसेवन करते हैं, अतः उन्हें दिनमें ही भोजन करना चाहिये, इससे बर्हिसाधर्म व स्वास्थ्य पुरक्षित रहमा है ।।१७-१८
ओ कबूतरकी तरह होनशक्ति होनेपर भी काम सेवन में प्रवृत्त होते हैं, उन्हें वीर्य-पक मन्न --त-शर्करा-मिश्रित मालपुभा-मादि:-मण करना चाहिये ।।एक बार ब्याई हुई गायके दूधसे सिर की हुई जपकी खीर खानेसे विशेष कामोहोपन होता है ।।१०।।
विषय-भोगसे परामुख-विरक-स्त्रीसे काम-सेवन नहीं करना चाहिये ॥१०शा जल-वृष्टिवाने उत्तर देश में रहनेवाला व वष प्रकृतिवाला पुरुष पशिनी स्त्रियों द्वारा विशेष प्यार किया जाता है। सारास यह है कि कामशास्त्र में वृष, शश व अश्व इस प्रकार वीन प्रकृविवाले पुरुष एवं पणिनी शंखिनी और हस्तिनी इस प्रकार बीन प्रतिवासी लक्षनामोंका उल्लेख है, इनमें प्रथमप्रकविदाने (एष) पुरुषसे प्रथम प्रतिमासी (पणिनी) विशेष अनुरा करती है एवं द्वितीय प्रकर्तिमानी शंखिनी स्त्रियां पसी प्रकाठिवावे
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दिवसानुष्ठान समुईश शराप्रकृति- पुरुषको हरी दूब युक्त व कोमल बगीचे के रमणीक प्रदेशकी तरह सुखपूर्षक सेवन करती है। तीसरी अश्वप्रकृति पुरुष अत्यंत वीर्ययुक्त होनेसे मैथन के समय स्त्रियोंको विशेष संतोष देनेवाला होता है।॥१०-१०४
धर्मस्थान--जिनन्दिर आदि और अर्थस्थानों (व्यापार-आदि की जगहों) में मनुष्यकी इन्द्रियाँ प्रसन्न रहती हैं ॥१॥स्त्री व पुरुषों के समसमायोग (एकान्स स्थान में मिलना जुलना बाजार मादि) को छोड़कर दूसरा कोई वशीकरण नहीं है ॥२०६॥
निम्न चार पार्योसे स्त्री पुरुषों का एकान्स स्थानमें मिलना रूप मशीकरण सफल होता है। १-प्रकृति (स्वभाव) अर्थात् एकान्त में सथित बातालाप-प्रादि द्वारा परस्पर स्वभावका शान करना, २सपदेश-अनुफूज करने वाली समुचित शिक्षा, ३-प्रयोग बैदरभ्य-एकाम्समें की जाने वाली प्रयोग की चतुराई-ईसी-मजाक-मादि ॥१०७॥
भूख, प्यास व मल-मूत्रादिके श्रेगको रोकनेसे पीड़ित हुआ मनुष्य जब स्त्री-सेवन करता है, तो एससे निर्दोष (निरोग) संसान सत्पन्न नहीं होती ॥१०॥
विवेकी मनुष्यको प्रातः काल, मध्यान्दकाल व सांयकाल संबंधी तीनों संभ्याभोंमें, दिनमें, पानीमें और मन्दिरमें मैथुन नहीं करना चाहिये ॥१॥ मनुष्यको पर्व (पक्षण-मादि) दिनोंमें, सीनों संध्यामों में, सूर्य-ग्रहण-आदि भयकर उपद्रवोंसे भ्याप्त दिनों में अपनी इसव (धर्मपत्नी) का सेवन नहीं करना चाहिये ॥१५॥ किसी स्त्रीके गृह बाकर उसके साथ शबन न करे ॥१११॥ कुटुम्ब, उम्र, सदाचार-कुल-धर्म-मान-विद्या और धनावि ऐश्वर्वके भनुन कोजाने पानी वेषभूषा और साधरण किसीकोभी दुःखी नहीं बनावा - सभी को सुखी बनावा है। क्योकि एक कुटुम्ब आदि के अनुकूल वेष व नैविक प्रवृत्ति करने वालेकी समाज व राष्ट्र में पढ़ाई की और पह सबका प्रेमपात्र बन जाता है ।।११२॥ राजाको अपने महलों में ऐसी वस्तु प्रविष्ट नहीं होने देनी चाहिये और न वहांसे बाहर निकलने देनी चाहिये, जोकि उसके प्रामाणिक हितेषी पुनरों द्वारा परीक्षित और निवर्वोष साबित की हुई न हो ॥११॥
इतिहासप्रमाण साक्षी है कि कुन्तला देशके राजाद्वारा भेजे हुए स्त्री-भेषधारी गुप्तपरने अपने कानों के पास छिपाये हुए खग द्वारा पल्लव या पल्हव नरेशको मार डाला। इसी प्रकार हम देश राज्य हारा भेजे हुए गद्ध पुरुषने मेदेके सींगमें रमले हुए विष द्वारा रास्थलदेशविरोष-के नरेश को मार सला । अतः अपरीक्षित व असंशोधित वस्तु राज-गृह में प्रविष्ट न होनी चाहिये और न यहाँसे बाहिर निकामनी चाहिये ॥१४॥ लोकमै सभी पर विश्वास न करनेवाले व्यक्तिका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो पाता ||११||
उवि विषयानुष्ठान समुरेश।
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নবিৰাসূল -
२६ सदाचार-समुद्दश। अत्यधिक लोभ आलस्य व विश्वाससे हानि, वलिष्ट शत्रु-कृत आक्रमण से बचाव परदेशके दोष, पापप्रवृत्ति के कारण प्रतिष्ठा-शून्यकी हानि, व्याधि-पीड़ित व्यक्तिका कार्य, धार्मिक व्यक्तिका महल, बीमारकी औषधि व भाग्यशालो पुरुष
लोभप्रमाद विश्वास वृहस्पतिपि पुरुषो वक्ष्यते वञ्चयते याशा बलवताधिष्ठितस्य गमन तदनुप्रवेशो वा श्रेयानन्यथा नास्ति मोपायः ॥२॥ विदेशवासोपहतस्य पुरुपकारः विदेशको नाम येनाविज्ञातस्वरूपः पुमान् स तस्य महानपि लघुरेव ॥३॥ अलब्धप्रतिष्ठस्य निजान्वयेनाहङ्कारः कस्य न लावच करोति ॥४|| आर्तः सर्वोऽपि भवति धर्मबुद्धिः ॥५॥ स नीरोगो यः स्वयं धर्माय समीहते ॥६॥ व्याधिनस्तस्य ते धैर्यान्न परमौषधमस्ति ।।७।। स महाभागो यस्य न दुरपयादोपहत जन्म ॥८॥
__अथे-बृहस्पतिके समान बुद्धिमान पुरुष भी अधिक लोभ, मालस्य व विश्वास करने से मारा जाता है अथवा ठगा जाता है ||१|| बलिष्ठ शत्रु द्वारा प्राकमण किये जाने पर मनुष्यको पा तो अन्यत्र चले जाना चाहिये अथवा उससे सन्धि कर लेनी चाहिये, अन्यथा उसकी रक्षाका कोई उपाय नहीं ।।२।।
शुक्र । विद्वान्ने भी पलिष्ठ शस्त्र कृत आक्रमण से बचने के विषय में इसीप्रकार कहा है ।।
परदेश-गमनसे दूषित व्यक्तिका अपनी विद्वत्ता-पादिके परिचय करानेका पुरुषार्थ (वक्तस्वकला मादि) म्यर्थ है, क्योंकि जिसके द्वारा उसका स्वरूप (विद्वत्ता-आदि) नहीं जाना गया है, वह पुरुष उसके महान् होने पर भी इसे छोट। समझ लेता है ।।३।।
अत्रि- विद्वान् के सद्धरण का भी यही अभिप्राय है ।।।
जो पाप-वश समाज व राष्ट्र द्वारा प्रतिष्ठा नहीं पासका और केवल अपने बंशका अभिमान करता है, ऐसे अभिमानीको लोकमें कौन लघु नहीं मानता ? सभी लघु मानते हैं ।।४|| सभी पुरुष म्याधिसे पीमित होनेपर मृत्यु के भयसे अपनी बुद्धि धर्म में लगाते हैं, निरोगी अवस्था नहीं |
शौनक' ने भी व्याधि-पीड़ित मजबूर व्यक्ति को मन्युके भय से धर्मानुरक्त बताया है ॥१॥
जो मनुष्य स्वयं-विना किसीकी प्रेरणाके-धर्म करनेकी चेष्टा करता है, यह निरोगी समस जाता है व पापी निरोगी होने पर भी बीमार माना गया है ॥६॥
हाराहान्ने भी इसी प्रकार कहा है ॥१॥
1 वषा व शुक्रा-सवान् स्याक्वा शसस्वदा देश परित्यजेत् । तेनैव सह सचिवा याच स्पोबते ऽपया २ तयार अनिः-महानपि पिदंशस्थः स परैः परिभ्यते । पशाबमानस्ताशमाहात्म्य तस्य पूर्वकं ॥१॥
तमाशौनक:-पधिप्रस्तस्म बुदिः स्मादमस्योपरि सर्वतः । मयेन मराजस्म स्वभावान * तथा हारीत:--जीरोग सपरियो यः स्वमं धर्मपायक: । प्याशितोऽपि पारमा मोरोगोऽपि म रोगया I
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सदाचार समुद्देश
धैको छोड़कर रोग पीड़ित मनुष्यकी दूसरी कोई उत्तम औषधि नहीं है, क्योंकि सैकड़ों मूल्यम् ओषधियाँका सेवन भी उमस बीमाको निरोग नहीं एक कि वह धैर्य वरन करे ||७||
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३३५
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धन्वन्तरि' विद्वान्ने भी व्याधिपीडित पुरुषके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥ जिस मनुष्य का जीवन कुत्सित (निन्ध) दोषों (हिसा झूठ चोरी, कुशोक्ष व परिग्रह-आदि) से नहीं हुआ उसे महा भाग्यशाला' कहा जाता है ।
विज्ञान भी जीवन निश्ति न होने वाले व्यक्ति को महानाग्यशाली कहा है ॥ १॥ मुर्खता, भयकालीन कर्तव्य, धनुर्धारी व तपस्त्री का कर्तव्य, कृतघ्नतासे हानि, हितकारक बचन, दुर्जन व सज्जनां वचन, लक्ष्मी त्रिमुख व वंशवृद्धिमें असमर्थ पुरुष
पराधीनेष्वर्थेषु स्त्रोत्कर्ष संभावनं मन्दमतीनाम् ||६|| न भयेषु विषादः प्रतीकारः किंतु धैर्याविलम्बनं ॥ १० ॥ स किं धन्वी तपस्वी वा यो रणे रणे शरसन्धाने मन:- समाधाने च सुझति । ११ । कृते प्रतिकृतमकुर्वतो मैहिकफ जमस्ति नामुत्रिकं च ||१२|| शत्रुणापि सूक्तमुक्त न दूषयितव्यम् ||१३|| कलहजननमप्रीत्युत्पादनं च दुर्जनानां धर्मः न सज्जनानाम् ॥१४॥ श्रीनें तस्याभिमुखी यां लब्धार्थमात्रेण सन्तुष्टः ॥ १५ ॥ तस्य कुतो वंशदृद्धियों न प्रशमयति वैरानुबन्धम् ।। १६ ।।
अर्थ- मूर्ख लोग पराधीन (दूसरों के द्वारा की गई) इष्ट प्रयोजन-सिद्धिको स्वदः की हुई समा आनन्द प्रगट किया करते हैं ॥ e ॥
कौशिक' विज्ञानने भी मूर्खोंके विषय में यही लिखा है ॥१॥
मनुष्यको भयके स्थानों में चबढ़ाना उपकारक नहीं, किन्तु धैर्य धारण करना ही उपकारक है ॥१००
*
भृगु विद्यामने भी मयस्थानोंमें धैर्य रखना लाभ-नायक बताया है ||१||
वह धनुर्धारी निन्द्य है, जो युद्धभूमिमें कमान पर तीर बढ़ाकर एकाग्रचित्तसे सचयभेद करने प्रज्ञान करता है इसीप्रकार वह तपस्वी भी निम्ध है, जिसकी बिसवृति मृत्युके समग्र अस्मदर्शन, श्रवण, मनन व निदिध्यासन (ध्यान में प्रवृत न होकर जीवन, आरोग्य व इन्द्रियोंके भोगोपभोगों प्रेसर होती है | ११वा
। तथा च कन्वन्तरि—ज्याभिस्तस्म पर दंव परमौषधं । मत्स्य धैर्यहीनस्थ किमोथ
२ तथा च गणेः श्राजन्ममरकान्तं वा यस्य न जायते । सुचलं महाभागो विहेः
कौशिकः कार्येषु विमानेषु परस्य वशमेषु च। आत्मीबेध्विद भृगुः भ्राने विधार्थ वः कुरुते न विनश्यति । [तस्थ वजनदं
द भाटि स मन्दधीः ||१||
॥
संशोधित परिवर्तित सम्बाद
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नीतिवाक्यामृत
नारद' विद्वान् के उद्धरणका भी यही आशय हैं ॥ १ ॥
उपकारक
गाथा न करनेसे एवं किसी के द्वारा अपकृत होने पर अपकार द्वारा इसका प्रतीकार (शोधन) न करने से ऐहिक व पारलौकिक इष्टफल नहीं मिलता ॥ १५॥
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हारीत विद्वान्ने भी कृतघ्न के विषय में इसी प्रकार कहा है ||१शा
नैतिक पुरुष शत्रु द्वारा भो कहे हुए न्याय युक्त व हितकारक वचनों का दोष युक्त न बतावे
उनपर सदा अमल करवा रहे ||१३५
नारद के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है || १॥
दुष्टोंके वचन कलह (गैर-विरोध ) व द्वेष उत्पन्न करने वाले होते है जब कि सज्जन महापुरुत्रांक बचन ऐसे नहीं होते किंतु कल्याणकारक होते हैं ॥ १४ ॥
भारवि विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है || १||
खो मनुष्य प्राप्त किये हुए साधारण धन मे ही संतुष्ट रहता है, उसके पास लक्ष्मी नहीं जाती. अतः भ्यायोचित साधनों द्वारा धन संचय करने में प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥१४॥
भागुरि विद्वान्ने भी लक्ष्मी के विमुख रहने का यही कारण बताया है ॥१॥
जो पुरुष शत्रुओं द्वारा की जाने वाली वैर-विरोध की परम्परा को साम, दान, ड व भेद-आदि नैतिक उपायोंसे नष्ट नहीं करता उसकी वंश-वृद्धि किस प्रकार हो सकती है ? नहीं हो सकती ||१६|| शुक्र' विद्वान्ने भी शक्तिशाली वंश के ह्रासके विषय में यही कहा है ॥१६॥
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उच्चमदान, उत्साह से लाभ, सेवक के पाप कर्मका फल, दुःखका कारण, कुसंग का स्थान, चित्त वालेका प्रेम, उठावले का पराक्रम व शत्र - निम का उपाय - भीतेष्वभयदानात्पर' 'न दानमस्ति ||१७|| स्वस्यासंपत्तौ न चिन्ता किंचित्कां चितमर्थ [ प्रसूते ] दुग्धे किन्तुत्साहः ||१८|| स खलु स्वस्यैवापुण्योदयोऽपराधो वा सर्वेषु कम्प फलप्रदोऽपि स्वामी भवत्यात्मनि बन्ध्यः ||१६|| स सदैव दुःखितो यो मूलधनमसंवर्धयन्ननुभवति ||२०|| मूर्ख दुर्जन घायढाल पतितैः सह संगतिं न कुर्यात् ॥ २१ ॥ किं तेन तुष्टेन
"सचा नारदः स्वर्षा यान्ति शरा यस्य युद्धं स्वान् वा योगिनोऽथकान स्मृति (१) योगान् ॥३॥
२
हात ते प्रतिकृतं नैव शुभं या यदि वाशुः करोति च सूात्मा ग्रस्य लोक महि ३ तथाच नारदः– शत्रु वापि हि यत् प्रोक्तं साद्वारे सुभाषित | संघ आणि खोदतः संखाबले । सजतो धर्ममाचष्टे याच भारि : अपेनापि प्रवेश व मेव प्रतुष्यवि । पराङ्मुखो भवेत्तस्य ६ः -सासादने प्रशामयेत्। भवानपि शोमा
ग्राम बुद्धिमता सदा ॥१॥ किया तथा ॥१॥ बधमानात्र संशयः ॥ ३ ॥ ॥ बाति शनैः शनैः॥
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सदाचार समुद्देश
यस्य हरिद्वाराग व चित्तानुरागः ||२२|| स्वात्मानमविज्ञायं पराक्रमः कस्य न परिभवं करोति || २३ || नाकान्तिः पराभियोगम्योत्तर किन्तु युक्ते रुपन्यासः ||२४|| राज्ञोऽस्थाने कुपितस्य कुतः परिजनः ||२५||
अर्थ - भूख प्यास और शत्रुकृत उपद्रव आदि से व्याकुल हुए प्राणियोंको अभवदान ( उनकी रक्षा ) देनेके सिवाय संसारमें कोई उत्तम दान नहीं है ||१||
जैमिनि विन्ने भी सभी दानोंसे अभयदान को ही उत्तम बताया है ॥१॥
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धन न होनेपर उसकी प्राप्तिके लिये मनुष्यों द्वारा की हुई चिन्ता अभिलषित और अपूर्व चन स्पन्न नहीं करती, किन्तु उत्साह ( उद्योग ) ही मनुष्योंके लिये इoga और पुष्कल धन पैस करता है ||१३||
शुक्र विद्वान्ने भी योग करनेके लिये प्रेरित किया है ॥ १ ॥
जो स्वामी किसी एक सेवकको छोड़कर अन्य सभी सेवकों के कल्पक्ष समान मनोरथ पूर्ण करता है किन्तु उसो अकेलेको धन नहीं देता, इससे समझना चाहिये कि उसके पापकर्मका उदय है उसके अपराधी होनेके कारण स्वामी उससे रुष्ट है || १६ ||
भागुरि विद्वान ने भी सेवकका मनोरथ पूर्ण न होनेके विषय में बड़ी कहा है ।१११
जो मनुष्य अपने मूलधन ( पैतुक या पूर्व-संचित धन ) की व्यापार आदि द्वारा वृद्धि नहीं करता और उसे स्वर्च करता रहता है, वह सदा दरिद्रता वश दुःखी रहता है, इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को अपना मुलवन मंदाते हुए मायानुकूल खर्च करना चाहिये, ताकि भविष्यति होने पावे ॥२०॥
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गौसम विज्ञान मे भी अपना मूलधन भक्षण करनेवाले को दुःखो बसाया है ॥ १ बुद्धिमान मनुष्यको मूर्ख, दुध, चावडाल व पतित (अंति और धर्म से ere मिश्रा नहीं करनी चाहिये ॥२॥
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युत) मनुष्योंके
किसी विद्वान् के उद्धरण का भी यही आशय है !! २॥
जिसके वित्तका प्रेम रूंदी के रंगकी तरह क्षणिक होता है; उसके मन होनेसे क्या लाभ है ! कोई लाभ नहीं
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तथा जैमिनिः मदभीतेषु मद्दानं दानं परमं भरदारादिमः ॥१ २ सभा इकः-स्लादि पुरुपैति मोयेन देयमिति का
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देवमित्य कुछ पौरुषमाशिक्त्या वस्ने कृते यदि न संपति को दोषः ॥१७
. तथा च भारिपचति मामी सेवितोऽप्यपर्क
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गौः यो मदेहि विद्यामहं कुषीः समाः॥ तथाच पोड संगतिं कुरुतेऽचः । स्वयेरि
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नीतिवाक्यामृत
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जै-िनि विद्वाम्ने भी इसी प्रकार कहा है ॥१॥
अपनी शक्ति को बिना सोचे समझे पराक्रम करनेसे किसकी हार नहीं होतो ! सभीको होती है ॥३॥
पलभदेव' विद्वमने भी सैन्य व कोण्होन राजाके पराक्रमका पराजयका कारण बताया है ||
शत्रु पर आक्रमण करने से ही उसका निमह नहीं होता, किन्तु युक्तियों-साम-दाम-श्रानि . प्रयोगहारा ही वह वश में किया जामकता है॥२४॥
गविहान के सगृहीत श्लोक का भी यही अभिप्राय है ॥२॥
मिष्कारण मागबज्ञा { कुपित । होनेवाले राजाके पास सेवक लोग नहीं ठहरते, अतः अपने सेवकोंके साथ स्वामोको प्रेमका बतोष करना चाहिये ॥२४॥
कदन व शोक से हानि, निन्ध पुरुष, स्वर्ग-फयुतका प्रतोक. जीवित पुरुष, पृथ्वीतहका भारकप, सुख-प्राप्तिका उपाय, (परोपकार) शरणागत के प्रति कर्तव्य व स्वार्थ युक्त परोपकारका दुष्परिणाम
न मृतेषु रोदितम्यमश्रुपातसमा हि किल पतन्ति तेषां हृदयेवकाराः ॥२६॥ अतीजे च वस्तुनि शोकः श्रेयानेच यस्ति तत्समागमः ॥२७|| शोकमात्मनि चिरमवासस्त्रिवर्गमिनु शोष. यति ॥२८॥ स किं पुरुषो योऽकिंचनः सन् करोति विषयाभिलाष ॥रह। अपूर्वेषु प्रियपूर्व सम्भाषणं स्वगच्युताना लिङ्गम् ॥३०। न ते मता येषामिहास्ति शाश्वती कीनिः ॥३॥ स केवलं भूभाराय जातो येन न यशोभिर्धेचलितानि भुवनानि ॥३२॥ परोपकारो योगिना महान् भवति श्रेयोबन्ध इति ॥३३॥ का नाम शरणागताना परीक्षा ॥३४॥ अभिभवनमत्रेसा परोपकारो महापातकिना न महासत्वानाम् ।।३५॥
मर्थ-मधुओं के स्वर्गवास होने पर विवेकी मनुष्यको करन छोड़कर सबसे पहले उनका देहिक मस्कार करना चाहिये, इसके विपरीत जो रोते हैं, वे उनके अग्नि-संस्कार में विलम्ब करने से उल्टा समें कष्ट पहुंचाते हैं। अतः रोनेवालोंके नेवसे निकलने वाला अभ-प्रवाह मानों मृत-पुरुषों के हदयपर गिरने बाये पहारे ही है२६॥
गर्ग" विदामने भी मृतधाधुओंके अग्निसंस्कार करने का विधान व गेनेका निषेध किया है ॥१॥
यदि शोक करने से मरा हुमा व्यक्ति या नष्ट हुई इष्टवस्तु पुनः प्राप्त हो सकती हो, तब उसके विषयमें शोक करना उचित है अन्यथा व्यर्थ है ।२५|| । बावजैमिनि:-मानाममायान्ते.प. स्नेहा स स्नेह अन्मते । साना सानासानाच हरिद्वारागसन्त्रिमः ।।। . पपा समय:- पर मो फाति मोन्नत मदमाश्रितः । विमः स निबन्न योदम्तो गजो यथा ॥१॥ । -सपा गई-नाकानया गृपते का यदि स्थात् सुदुर्लभः । थुक्तिद्वारेष संग्राको मद्यपि स्थावोत्कटः ।।m । समा गर्म:--मास्त पाप का प्रमो भुदक्ते पतो .याशः। तस्मान रोदित स्थाए डिया कायो
प्रयासः ॥
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नोतिवाक्यामृत
शुक' ने भी स्वार्थ-वश परोपकार करनेवालोंकी कड़ी आलोचना की है ।।१॥
[मु०म० पुस्तक में 'अभिचारेश परोपपातो' इत्यादि पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो लोग धोखा देकर दूसरोका यात कारण है। थे महापायी है, बार की नदी]
गुणगान-शून्य नरेश, कुटुम्य-संरक्षण, परस्त्रीव पर-ब्यके संरक्षणका दुष्परिणाम, अनुरन मषकके प्रति स्वामी-कर्तव्य, त्यायसेवक, न्यायोचित दंड विधान व राज-क संव्य
तस्य भूपतेः कुतोऽभ्युदयो जयो वा यस्य द्विषत्समासु नास्ति गुणग्रहणप्रागम्यं ॥३६॥ तस्य गृहे बुटुम्ब घरगीय यत्र न भवात परेषामिषम् । ३७॥ परस्त्रीद्रध्यरक्षणेन नात्मनः किमपि फल विप्लवेन महाननर्थसम्बन्धः ॥३८॥ आत्मानुरक्त कथमपि न त्यजेन यद्यस्ति तदन्ते तस्य सन्तोषः ॥३६॥ आत्मसंभावितः परेषां भृत्यानामसहमानश्च भृत्यो हि बहुपरिजनमपि करोत्येकाकिन स्वामिन' ॥४०॥ अपराधानुरूपो दण्डः पुत्रेऽपि प्रणेतव्या ॥४१॥ देशानुरूपः करो प्रायः ॥४सा
अर्थ-जिस राजाका गुणगान शत्र ओंकी समामें विशेषतासे नहीं किया जाना, उसकी उन्लान ११ विजय किसप्रकार होसकती है ? नहीं हो सकती। भवः विजिगीषु को शूरवीरता व नीतिमत्ता-भावि मद्गुणोंसे अलंकृत होना चाहिये ॥३६॥
शुकर ने भी कीलिंगान-शून्य राजा के विषय में इसीप्रकार कहा है ॥२॥
मनुष्यको अग्ना कुटुम्ब ऐसे व्यक्तिके मकान पर रखना चाहिये, जहाँपर बह शत्रु-कृत उपद्रवों द्वारा नष्ट न होसके ॥१७॥
जैमिनि' ने भी कुटुम्ब-संरक्षण का यही उपाय बताया है ॥१॥
मनष्य को दूसरे की स्त्री व धन के संरक्षण से कोई लाभ नहीं क्योकि कभी २ उसका परिणाम भयङ्कर होता है अर्थात यदि दुर्भाग्य-वश उसके शत्रु श्रादि द्वारा अपहरण या नष्ट किये जाने पर पल्ला उसका स्वामी संरक्षण करने वाले से बैर-विरोध करने लगता है।३०।।
अत्रि विद्वान ने भी पर स्त्री व परधन की रक्षा करमेका यही दुष्परिणाम स्वावा है ॥१॥
स्वामीको अपनी दरिद्धावस्था में भी ऐसे सेषकको नहीं छोड़ना चाहिये जो उसपर अनरसव मनुष्ट रहता है ॥३६
। तवा च बुक:- महापातकस्ताः स्युस्ते निर्वास्ति पर पक्षान् । अभिभवनमंत्रक सद्वार वचन ॥1॥ . तया :- स्पादिजस्तस्य तथैवाभ्युदयः पुनः । भूपतेर्वस्य नो कीर्ति कीर्यतेऽरिसमासु ॥ । 'पया मिनि:-मामिव मन्गिरे परव विप्न वा प्रपद्यते । कुटुम्म चारपेत्ता समान: - या प्रकि:-पराये परनारी वारलाई योऽगृहाति । विप्लव' याति दिन तत्काों वैरसम्म !"
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३४॥
सदाचार समुरेश ...........................................
भारद्वाज ने भी शोकको शरीर-शोषण करनेवाला बताया है ॥१॥
चिरकाल पयन्त शोक करनेवाला व्यक्ति अपने धर्म, अर्थ व काम पुरुषायों को नष्ट कर देता है. अतः इष्ट वस्तु के वियोगमें कदापि शोक नहीं प.रना चाहिये ॥२८।।
कौशिक ने भो शोकको धर्म-प्रादि त्रिवर्ग का नाशक बताया है ॥१॥
जो पुरुष दरिद्र होकरके भी इन्द्रिय-जन्य सुखों की कामना करता है, वह निम्य का पशु-सुक्ष्य है।
नारद ने भी विषय-लम्पटी दरिद्र पुरुष का जन्म निरर्थक बताया है ॥१॥
अपरिचित व्यकियोंसे प्रेमपूर्वक मधुर भाषण करना स्वर्गसे पाये हुए जन पुरुषोकर प्रतीक है ॥३०॥
गुरु" विद्वान ने भी मधुरभाषो पुनरको देवता बताया है ।क्षा
जिन पुरुषोंकी नोक परोपकार-आहिवारा स्थायी कीर्ति व्याप्त है उनके स्वर्गारोहण होजानेपर भी उन्हें जीवित समझना चाहिये ॥३५॥
नारद विद्वान् ने भी कीर्तिशाली दिवंगत पुरुषांको जीवित बाया है ॥१॥
जिस पुरुषने, शुरता, विद्वत्ता व परोपकार-मादि द्वारा उत्पन्न होनेवाली कीर्तिसे समस्त प्रक्षित तमको शुभ नहीं किया, उसका जन्म पृथिवी में भाररूप ही है ॥३२॥
गौतम ने भी यश-शून्य व्यक्ति को पृथिवीतलका भार बताया है | लोकमें शिष्ट पुरुषों द्वारा किया हुआ उपकार उनके महाकल्याण का कारण है ।।३।। जैमिनि विशामके सदरणका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
अपनी रक्षा करानेकेलिये शरण में आये हुए (शरणार्थी) पुरुषोंको परीक्षार ( सम्जनता हुनता की जाँच) करना व्यर्थ है। अर्थात् उनकी परीक्षाके प्रपंच में न पड़कर सहसयता से बनकी सेवा मी चाहिये ।
जो लोग स्वार्थसिद्धि-पश इसरोकी भनाई करते हैं, ये महापापी है, महापुरुष नहीं ।
। काच भारद्वाजः-पत' या यदि बा मा परि शोकन सम्यते। तालाचाबका पर्याय नायकोषहता। • या कौखिक:-4: बोकारो त्रिवर्ग गादेखि सः । किपमा चिरकाल सस्माल दूरसास्वमेव ।। । चार मारदः परियो पो भवेन्मत्यों होमो विषयसेक्ने | वस्त्र जम्म भवेदम्पर्ष प्राडेर मारदा वर्ष ॥१॥ • या गुरु:-भपूर्वमपि यो रा सभापति बन्न । सहयः पुरुषस्ततोऽभावागतो दियः । . व नारकः-पवा अपि परिज या जीपम्बहोऊन भूतये । औषा सम्दिश्यते श्रीविदागाकर्षित । सपा . मोठमः-भुवनानि यगोभियों मस एमडीडवानि । भूमिभाव न स पुमानित पद ॥ • पाच मिनिअपकारो भो माया महाश्मना । सम्पाचाय प्रभूखा सो जाच भषय ॥m
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सदाचार समुद्देश
गुरु' विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिपाय है || १ ||
अभिमानी से ईर्ष्या वश दूसरे सेवकोंको उन्नति सहन नहीं करता, इसलिये वे लोग स्वामी से रुष्ट होकर उसे छोड़ देते हैं। इसप्रकार घमंडी सेवक अन्य सेवकों के रहनेपर भी अपने स्वामीको अकेला कर देता है, अत: अभिमानी सेवक नहीं रखना चाहिये ||४०||
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राजपुत्र ने भी दुष्टबुद्धि व अभिमान सेवक से इसीप्रकार हानि बताई है ॥१॥
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राजा को अपने पुत्र के लिये भी अपराधानुकूल दंड देना चाहिये फिर प्रज्ञा-पीड़क अन्याथियोंका दंड देना को न्याय संगत ही है ||४||
शुक्र ने भी अपराधानुकूल दंडविधान को न्याय संगत बताया है ॥ १॥
राजा प्रजा से अपने देशानुकूल कर (टेक्स ) वसूल करें | अभ्यथा अच्छी फसल आदि न होनेके कारण एवं अधिक कर-टेक्स से दबी हुई प्रजा राजा से विद्रोह करने तत्पर हो जाती है ॥४॥
वक्त के वचन, ध्यय, बेष-भूषा, त्याग, कार्यका आरम्भ, सुख, अधम पुरुष, मर्यादा-पालन, बुराचार से हानि, सदाचार से लाभ, संदिग्ध, उत्तम भोज्य रसायन, पापियों की वृति, पराधीन भोजन निवासयोग्य देश
प्रतिपाद्यानुरूपं वचनमुदाहर्तव्यं ॥ ४३ ॥ भायानुरूप व्ययः कार्यः ॥४४॥ ऐश्वर्यानुरूपाविलासो विधातव्यः ॥४५॥ धनश्रद्धानुरूपस्त्यागोऽनुसर्तव्यः || ४६ || सद्दायानुरूपं फर्म आरब्धव्यम् ॥४७॥ स पुमान् सुखी यस्यास्ति सन्तोषः ॥ ४८ ॥ रजस्वलाभिगामी 'चाण्डालादप्यधमः ॥४६॥॥ सलज्जं निर्लज्ज न कुर्यात् ॥ ५० ॥ स पुमान् पटावृतोऽपि नग्न एव यस्य नास्ति सच्चारित्रमा वरण६ ॥ ५१ ॥ स नग्नोऽप्यनग्न एग यो भूषितः सच्चरित्रेण ||५२ || सर्वत्र संशयानेषु नास्ति कार्यसिद्धिः ॥५३॥ न चीरघृताभ्यामन्यत परं रसायनमस्ति ||५४|| परोपघातेन वृतिर्निर्भाग्यानाम् ||१५|| वरमुपवासो, न पुनः पराधीनं भोजनम ||२६|| स देशोऽनुसर्तव्यो यत्र नास्ति वर्णसङ्करः ||२७||
अर्थ- बता श्रोता अनुकूल वचन बोले ||४३|| मनुष्य को अपनी आमदनीके अनुकूल खर्च करना चाहिये क्योंकि बिना सोचे-समझे अधिक खर्च करने वाला कुबेर के समान धनाढच होने पर भी दरिद्र हो जाता है ॥४४॥ अपने धनादि वैभवके अनुकूल विलास - देश-भूषा करना चाहिये ॥४५॥ धन औ श्रानुकूल पाशदान करना चाहिये, ऐसा करनेमे उसे अधिक कष्ट नहीं दोपाते ॥ ४६ ॥
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'गुरुः-- अभियुक्त
नस्तद्विवेकिना । घोषधीय प्रयत्नेन यदि तस्य शुभाता ॥१॥ ३] राजपुत्रः प्रसादयो भवेद्यः स्वामिनी पस्य दुष्टधीः । स स्वश्यतेऽन्यनृत्येच[कोंढवा ] [ ] ॥१॥ [सं० प०
A
खमा च गुरुः– अपराधानुरूपोऽथ दमः कार्यो महीभुजा । पुनस्थापि किमन्येषां वे स् पापचयः ॥१३
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नीतिवाक्यामृत
पुरुषमा
अनुकूल कार्य आरम्भ करे क्योंकि उनको अनुकूलता के बिना कार्यसिद्धि संदिग्ध रहती है । वही मनुष्य सुधो हैं, जो संतोषो है, क्योंकि तीन लोककी सम्पत्ति मिल जाने पर भी तृष्णा नष्ट नहीं होती, अतः उसके ध्याग करने से ही सुख प्राप्त हो सकता है; अन्यथा नहीं ॥४८॥
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रजःस्या छीको सेवन करनेवाला चाण्डाल से भी अधिक नोच है ||४६ ॥ नैतिक पुरुष लज्जाशील वक्तको निर्लज्ज न बनावे। सारांश यह है कि कुसंस्कारवश नीति-विरुद्ध प्रति करनेवाला जा-वहितैषियोंके भय से अन्य नहीं करता, परन्तु उसके कार्यकी स्वयं देखकर उसे निर्लज्ञ बनाने से वह उनके मम अनर्गल प्रवृत्ति करनेसे नहीं चूकता ||२०|| जो सदाचाररूप वस्त्र से अलंकृत नहीं है, बह सुन्दर वस्त्रों से वेष्टित होने पर भी नग्न ही है ॥ ५८ ॥ सदाचारसे विभूषित शिष्ट पुरुष नग्न होने पर भी नग्न नहीं गिने जाते, अतएव लोकप्रिय होनेके लिये श्राधारण विशुद्ध रखना चाहिये १.५० ॥ सभो स्थानोंमें मन्देह करने वालों के कार्य होते और धी से बढ़कर दूसरी कोई समं रसायन (आयु व शक्तिवर्धक नहीं है ||५४ |
दूसरे प्राणियोंको पीड़ित करके जीविका करना पापियों का कार्य है, अतस्य नैतिक पुरुष यायोचित सावन द्वारा जीवन यह करे || ५५ || पराधीन भोजनकी अपेक्षा उपपास करना भद्रा है, क्योंकि पराक्षित भोजन अनिश्चित व अनियमित होनेसे विशेष कष्टदायक होता है ||२६|| उस देशमें निवास करना चाहिये जिसमें वसंकर लोग नहीं है ।
अम्मान्ध, ब्राह्मण, निःस्पृह, दुःखका कारण, उच्चपदको प्राप्ति, सदा आभूषण, राजाकी मित्रता, दुष्ट व याचकके प्रति कर्त्तव्य, निरर्थक स्वामी, सार्थक यज्ञ व सैन्य शक्ति का उपयोग —
स जात्यन्धो यः परलोकं न पश्यति ||५८ || मतं विद्या सत्यमानृशस्यमतौन्यता च श्राह्मपर्य न पुनर्जातिमात्र ॥५६॥ निःस्पृहानां का नाम परापेक्षा ॥ ६०॥ के पुरुषमांशा न मलेशयति ॥ ६१॥ संयमी गृहाश्रमी वा यस्य विधातृ ष्णाभ्यामनुपहतं चेतः ॥६२॥ शीलमलकारः पुरुषाणां न देहखेदावहो बहिरा कन्पः | ६३ ॥ कस्य नाम नृपतिर्मिश्र ॥६४॥ अप्रियकर्स ुर्न प्रियकरणात्तरममाचरणं ॥ ६५ ॥ श्रप्रयच्छमथिनो न परुषं प्रयात ||६६ || स स्वामी मरुभूमिर्यत्रार्थिनो न भवन्तीष्टकामाश्च ॥ ६७ || प्रजापालनं हि राज्ञो यज्ञो न पुनभूतानामालम्भः ||६८ || प्रभूतमपि नानपराधसत्व व्यापचयं नृपायां बलं धनुर्वा किन्तु शरखागतरंचणाय ।।६६॥
अर्थ- जो व्यक्ति अपने सत्कर्तव्यों द्वारा परलोक सुधारने में प्रयत्नशीक नहीं रहता, नही अमान्य है ॥५८॥ मनुष्य केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेनेसे ही प्राण नहीं गिना जाता, परन्तु अर्को (ईसा, सत्य, अभी आदि) का पालन, हानाभ्यास, सत्यभाषणा, क्रूरता का स्वाग व संतोष यादि सद्गुणों को धारण करनेसे वास्तविक माझा माना गया है ॥५६॥
A. B. सु. प्रति सेकसि।
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सदाचार समुद्दश
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भगजिनसेनाचार्य' ने भी तप, आगमज्ञान और ब्राह्मण कुझमें जन्मधारण करने वालको सच्चा प्रामण एयं तप और भागमज्ञानसे शुन्य को जाति ब्राह्मण कहा है ॥१॥
नि:स्पृह (धनादिकी नालसा-हित) व्यक्ति परमुखापेक्षी नहीं होत ॥६०|| तृष्णासे कौन मनुष्य दुःखी नहीं होता ? सभी होते हैं ।।६॥
सुन्दर कपिने भी नृष्णाको दुःखका और संतोषको सुखका कारण बताया है ॥१
लोकमें वही बुद्धिमान् मनुष्य, चाहे वह यति-पाश्रम वा गृहस्थ माश्रम में प्रविष्ट हो, वभी र पद प्राप्त कर सकता है जब या चित आम और हरदा दूषित न हो !शीन (नैतिक प्रवृति) ही पुरुषों का प्राभूषण है, ऊपरी कटक-इसलादि शरीरको कष्ट पहुंचाने वाले हैं। मत: ये वास्तविक भाभूषण नहीं ॥६३।।
नीतिकार भर्तृहरिने भी कहा है कि कानोंकी शोभा शास्त्र सुननेसे है, न कि फण्डल पहननेसे, हाथोंको शोभा पात्रदानसे है, न कि ककरण धारण करनेसे एवं दयालु पुरुषों के शरीर की शोभा परोपशवसे है, न कि चन्दनादिक मेप से || राजा किसका मित्र होता है ? किसीका नहीं, क्योंकि अपराध करने पर वह मित्रको भी दण्ड देनेसे नहीं चूकता ॥६५॥ दुर्जनके साथ भी सजनताका पर्वाव करना चाहिये, इसको छोड़कर नसके प्रति भौर कोई करीन्य नहीं; क्योंकि भलाई का वर्भाव करनेसे प्रायः वे अपनी दुष्टता छोड़ देत ॥६॥ किसी कारणवश याचक को कुछ देने में असमर्थ होने पर भी मनुष्यका कर्तव्य है कि वह उसके साथ कठोर वचन कमी न बोने, क्योंकि इनका प्रयोग उसकी प्रतिष्ठा व मर्याराको नष्ट कानक माथस याचक को भी असंतुष्ट कर डालता है. जिसके फलस्वरूप वह उसका अनिष्ट चिन्तन करने लगता है ।।६६|| उस स्वामीको याचक जोग मरुभूमिके समान निष्फल समझते हैं, जिसके पास पाकर वे लोग इपिछत वस्तु प्राप्त कर अपना मनोरथ पूर्ण नहीं कर पाते ॥६॥ प्राणियों की रक्षा करनाही राजाका यज्ञ (पूजन) है, न कि प्राणियों की बलि देना ॥८|राजाको अपनी प्रचुर तीरन्दाज 4 सैनिक शक्ति का उपयोग शरणागतों की रक्षार्थ करना चाहिये न कि निरपराध प्राणियों की इत्यामें।
पनि सदाचार-ममुद्देश।
. नया च मगजिनसेनाग:-तपः श्रुतं च जातिरस प्रय ब्रामसकारयं ।
नप: ताभ्यो यो हीनो जातिमामा एक सः ॥ शादिपुगार । २ तथा स सुनदर कविः-जो इस बोस पास भये शत पर करोर की बाह सगेगी, भाव सारव को अब भयो जे
धरापति होने को चाह जगेगी। उदय अस्त तक सम्म भयो पर तृष्णा और तो और बढ़ेगी, सुन्दर एक मंतोष विना नर वेसे तो भूख कभी व मिटेगी ।।१ तथा च भर्तृहरिः-श्रोत्र' श्रुतेनैव म कुरटेन, दानेन पानि तु रोग। रिमाति काय: करुवालाना, परोपकारेण न तु पादनेन ॥
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२७-व्यवहार समुद्दश। मनुष्योहा हद बन्धन, अनिवार्य पालन-पोषण, तीर्थ सेवाका फल, तीर्थस्थानों में रहनेवालों की प्रकृति, निवा स्वामी, सेवक, मित्र, स्त्री व देश---
कलत्रं नाम नराणामनिगड़मपि दृढे बन्धनमाहुः ॥१॥ श्रीएयवश्यं भर्तव्यानि माता कलत्रमप्राप्तव्यवहाराणि चापत्यानि ॥२॥ दान सपः प्रायोपवेशनं तीर्थोपासनफलम् ॥३॥ तीर्थोपवासिषु देवस्वापरिहरणं कव्यादेषु कारुण्यमिव, स्वाचारच्युतेषु पापभीरुत्वमिव प्रारधार्मिकत्वमतिनिष्ठुरत्वं वञ्चकत्वं प्रायेण तीर्थबासिना प्रकृतिः ॥४॥ स कि प्रभुयः कार्यकाले एव न सम्भावयति भृत्यान् ॥५॥ स किं भृत्यः सखा वा यः कार्यमहिश्यार्थ याचते ॥६।। यार्थेनप्रणयिनी करोति चाङ्गाष्टिं सा कि भार्या ॥७॥ स कि देशा यत्र नास्त्यात्मनो वृत्तिः ॥
अर्थ - विद्वानों ने कहा है, कि पुरुषों को स्त्री रूप बन्धन सांकलों का न होकरके भी उससे कहीं अधिक हद ( मजबूत ) है क्योंकि स्त्रीके प्रम-पाशमें फंसे हुए मनुष्यका उसमे छुटकारा पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है और इमीकारण वह आत्म-कल्याण के उपयोगी नैतिक व धार्मिक सस्कर्तव्यों से विमुन्न रहता है । शा
शुक विद्वान ने भी स्त्रीको दृढ़ इन्धन स्वीकार किया है। शा मनुष्यको माता, स्त्री और प्रौढ़ न होने से जीवन-निर्वाह करने में असमर्थ पुत्रोंका पालन-पोषगा अवश्य करना चाहिए ॥ २॥
गुरु विद्वान ने भी उक्त माता प्रादि का आवश्यकीय संरक्षण बताया है ॥ १॥
पात्र-दान, तप व अनशन (उपवास) अथवा जीवन पर्यन्त तीर्थ भूमिमें रहने का दृढ़ संकल्प करना, या प्रायोपगमन सन्यास धारणा यह तीर्थ स्थान की सेवा का फल है। अर्थात-विवेकी पुरुष इन सत्कव्यों के अनुष्ठान से तीर्थ सेवा का फल (स्थायी चास्मिक सुख) प्राप्त कर सकता है। और
A मु० म०प्रति में 'इतरेषां पर विशेष है, जिसका अर्थ यह है कि नैतिक पुरुष वूसरोंके बयोंका भी जो
जीविकायोग्य नहीं है, पालन पोषण करे । B उक्त पत्र मु० मू० प्रति से संकलम किया गया है क्योकि टी. पु. का पाठ अशुन्द था। -सम्पादक , तथा च शुकः-- न कस्लमात् परं किंचिवन्धनं विवाते नृणो। यस्मात्तस्नेहनिमंजो न करोति शुमानि बत् ॥ २ तथा च गुरु:-मातर' च कलनच गर्भरूपाणि यानि च। अमाप्तम्यवहारणि सदा पुष्टिं न वेद् बुधः ।।
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व्यवहार समुदश
इसके विपरीत नोति-विरुद्ध असत् प्रवृत्ति करने वाला पापी है, उसकी तीर्थ सेवा हाथी के स्नान की तरह (नफल है।३॥
गगं' विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
जिस प्रकार व्यायादि हिंसक जन्तुओं में दयालुता और प्राचार-भ्रष्ट (पापी) पुरुषों में पाप से वरना प्राश्चर्यकारक होता है, लसी प्रकार तीर्थस्थानों में रहने वाले ब्राह्मणों में भी देवता पर चढ़ाई हुई अन्यका त्याग करना भाश्चर्यकारक होता है। विद्वानोंने कहा है कि तीर्थस्थानों में रहने वाले मनुष्यों की प्रकृति अधार्मिक, निर्दयी (फर) और छल कपटपूर्ण होती है ॥४॥
जो स्वामी अपनी प्रयोजनसिद्धि हो आनेपर सेवकोको नियुक्त नहीं करता अथवा नियुक्त कर प्रयोजन सिद्ध होने पर भी उन्हें वेतन नहीं देता वह निन्ध है ॥५॥
भृगुने' भी प्रयोजन सिद्ध होजाने पर सेवकों की नियुक्ति न करने वाले स्वामीको निन्ध कहा है ॥५॥
जो सेषक अपने द्वारा स्वामी की प्रयोजन-सिद्धि समझ कर उससे धनकी याचना करता है, एवं जो मित्र अपने द्वारा मित्र की प्रयोजन-सिद्धि समझकर उससे धन पाहता या मांगता है वे दोनों (सेवक व मित्र) दुष्ट है ॥ ६॥
भारद्वाज ने भी ऐसे स्वाथोन्ध सेवक व मित्र की कड़ी आलोचना की है ॥ १॥
वह स्त्री निन्य है जो धनके कारण पति से प्रेम करती हुई उसका गादालिशान करती है। सारांश यह है पतित्रता स्त्री को पति के सुख-दुख में उसके साथ एकसा (प्रेमपूर्ण) बसाव करना चाहिये ।।७॥
नारद ने भी संपत्ति काल में ही पतिसे अनुराग करने वाली स्त्री की कड़ी मालोचना की है ॥६॥
वह देश निन्ध है, जहॉपर मनुष्य के लिये जीवन-निर्वाह के साधन (कृषि व न्यापार -मादि) नहीं है, अतः विवेकी पुरुषको जीविका-योग्य देश में निवास करना चाहिये ॥६॥
गौतम विद्वान ने भी जीपिका-शून्य देशको छोड़ देने का संकेच किया है ॥१॥ निंद्य बन्धु, मित्र, गृहस्थ, दान, माहार, प्रेम, भाचरण, पुत्र, मान, सौजन्य व नश्मीस कि वन्धुर्यो व्यसनए नोतिष्ठते ।। तम्कि मित्र यत्र नास्ति विश्वासः ।१०॥ स किं गृहस्था यस्प नास्ति सत्कलनसम्पत्तिः ॥११॥ तत्किं दानं यत्र नास्ति सत्कारः
॥१२॥ तत्कि भुक्त यत्र नास्त्यतिथिसंविभागः ॥१३॥ · तत्किं प्रेम यत्रकार्यवशात प्रत्या३ तथा गर्गः-मुक्या पानं पो वाथ तथा प्रायोपवेशन | करोति यश्चतुर्थ यत्तीय कर्म से पापमा । २ तथा च भृगुः-कार्यकाने तु. सम्प्राप्ने संभावयति न प्रभुः। यो भृत्यं सर्वकानेषु स रखाग्यो दूरतो पुरैः ॥ ३ तथा भारद्वाजः-कायें जाते न यो भ्रायः सखा पार्थ प्रयासते । न भृत्य स ससा मैक दो द्वावपि हि पुर्जनौ । ४ तथा च नारदः-मोहने सतानि पार्थेन विमयं मजेत । न सा भार्या परिशमा परयस्त्री साम संब: १॥ ५ तथा च गीतमा स्वदेशेऽपि न निर्वाहो भवेत् स्वल्पोऽपि पत्र । विशेषः परदेशः स त्याज्यो दूरेण परिखत: ॥
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नीतिवाक्यामृत
वृतिः ||१४|| तत्किमाचरणं यत्र
वाच्यता मायाव्यवहारो वा ॥ १५ ॥
तत्किमपत्यं
यत्र नाध्ययनं विनयो वा ||१६|| तत्किं ज्ञानं यत्र मदेनान्धता चित्तस्य ||१७|| तत्किं सौजन्यं यत्र परोक्षे पिशुनभावः ॥ १८ ॥ सा कि श्रीर्यया न सन्तोषः सत्पुरुषाणां ॥ १६ ॥ अर्थ-वह भाई निद्य - शत्रु के समान है, जो आपत्तिकालमें भाईकी सहायता नहीं करता ॥६
चाणक्य ने भी कहा है कि 'जिस प्रकार बीमारी शरीर में पैदा होने पर भी अनिष्ट समभी जावी है, जब कि दूरदेशवर्ती जगलमें पैदा होने वाली औषधि इष्ट समझी जाती है, उसी प्रकार अनिष्ट चितवन करने वाला भी कहायता देने वाला दूसरा व्यक्ति
और
बन्धुसे भी बढ़कर समझा जाता है || १||
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***********
* ELE+
वह मित्र निन्द्य है जो अपने मित्रके धन, धान्य व कलत्र (स्त्री) की रक्षा करने में विश्वासघात करता है; अतः मित्र द्वारा सौंपे हुये धन-धान्यादि को सुरक्षित रखे ||१०||
* ने भी मिश्र द्वारा अर्पित धन-धान्यादिकी रक्षा करने वालेको सच्चा मित्र कहा है ||१|| वह गृहस्थ किस काम का, जिसके यहाँ पतिव्रता व रूपवठी कुलवधूरूप सम्पति नहीं है ॥। ११॥ शुक्र ने भी कुरूप, शील भ्रष्ट (चरित्रहीन ) बांझ व कलहकारिणी स्त्री वाले गृहस्थको नाटकी
बताया है ||१||
वह दाता निदनीय है, जो दान लेने योग्य (पात्र) का यथाविधि सत्कार ( विनय ) नहीं करता। क्योंकि यथाविधि सत्कार के विना दाता वानका पारत्रिक फल प्राप्त नहीं करता ||१२||
दशि ने भी योग्यकाल में योग्य पात्रको यथाविधि दिये जानेवाले दानका अक्षय फल बताया है ||
भोजनकी बेला में अतिथियोंको आहार दान न देने वाले व्यक्तिका चाहार निन्य है- पशुकी पेश मात्र है। अर्थात् जिस प्रकार पशु जीवन रक्षार्थं तृणादि भक्षण करके मल-मूत्रादि क्षेपण करता है, सी प्रकार वह मनुष्य भी जीवन रक्षार्थ भोजन करके मल-मूत्रादि क्षेपण करता है व न धर्म को नहीं जानता। अतः मनुष्य को अतिथियोंको आहार यानके पश्चात् भोजन करना चाहिये ||१३||
नारद ने भी अतिथिको आहार दान दिये बिना भोजन करनेवाले गृहस्थको दो पैर वाला विना सींगों का पशु कहा है ॥१२॥
वह प्रेम निन्द्य है जो किसीसे स्वार्थ सिद्धिके आधार पर जब कभी किया जाता है, सदा नहीं, अतः निःश्वाथभाव से स्थायी प्रेम करना विशेष महत्वपूर्ण है || १४ ||
I
१ तथा शिक्यः परोऽपि हितवान् बन्धुर्वन्धुरयहितः परः । अहियो देहओ व्याधितिमारण्यमौषधम् ॥१॥ २ तथा गर्ग:धन धान्यं कक्षा निर्विकल्पेन बेवस्ता । श्रर्पित रहने तन्मित्रं कथितं बुधैः ॥ ३ तथा शुरु — कुरूपा गतशीलं च बंध्या युद्धपरा सास गृहस्थो न भवति स नरकस्थः कथ्यते ॥ १॥ ४ वा वशिष्ठः कामे पास सीधे शास्त्रविधिना सह। यह चाश्वं तद्विशेषं स्मादेक जन्मजम् ॥१॥3 ५ तथाच नारदः प्रत्ययो मरोऽप्यत्र स्वयं भुक्ते गृहाश्रभी सनस्सिम्देो द्विपदः
॥
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5यवहार ममुरेश
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गाजपुत्र' ने भी अधिक पादर-दिसे प्राप्त हुए क्षणिक स्वार्थ युक्त प्रेमको परिचय मात्र बताया है ।।१ __ वादीमसिंह' सूरि ने इकतरफी प्रेमको मूखों की चधा बताई है। मनुष्य का वह व्यवहार निंद. नीय है, जिसमें पाप प्रवृत्ति (परस्त्री संवन व चोरी-आदि) द्वारा उसकी लोक-निन्दा होती हो, अथवा जो छल-कपट-पुणे हो, क्योंकि ऐसे लोक-निन्दित दुष्ट आचरणसे पहिक व पारलौकिक कप होन है ॥१४॥
जैमिनि' भो लोक निन्दित विद्वान का विद्वान नहीं मानता ||१
विशा-विहीन (शिक्षा शून्य) और माता-पिता अादि शभचिन्तकों को बिनय न करने वाला पुत्र निय है। अर्थात-उसे पुत्र न समझकर गृह में उत्पन्न हुआ शत्रु समझना चाहिये ॥ १६ ॥
बल्लभदेव ने गर्भ रहित व दूध न देने वाली गाय के ममान अशिक्षित व अमिक पुत्र को निक बताया है।॥३॥
नस मनुष्य का ज्ञान निंग है-वह ज्ञानी है, जिसकी चित्त-युति बिया के गव स दूषित होचुकी है ॥१७॥
शक विद्वान ने भी ज्ञान का मद करने वाले की कड़ी मालोचना की है ॥ १ ॥
मोटरय दूसरे की निन्दः कुली करनेवाला और समन में प्रिय वचन योजनेवाले की सजनता निन्ध है। अधांत ऐसे व्यक्ति को दुष्ट जानना चाहिये ।। १८ ॥
गुरु' ने भी पर निन्दक व चुगलवारकी सजनता विषमण समान हानिकारक बताई है ॥१६॥
अपनो विद्यमान सम्पत्ति से संतुष्प न रहनेवाले शिष्टपुरुषों की सम्पत्ति लिंग है, क्योंकि वे लोग मृष्णाश दुःखी रहते हैं; अतः संतोष धारण करना चाहिये ।।१६ ॥
निंग उपकार, नियुक्ति के अयोग्य, दान दी हुई वस्तु, सत्पुरुषों का कर्तव्य, सस्थर, धर्मरक्षा व दोषशुद्धिका मापन
तरिक कृत्यं यत्राक्तिरुपकृतस्य ॥२०॥ तयोः को नाम निहि। यो दापि प्रभूनमानिनी पंडितो लुब्धो मूखी चासहनी वा । २१०६ बान्त इव स्वदत्त नाभिलाष कुर्यात् ।।२२।। उपकृत्य मूकमात्राऽभिजातीनाम् ॥२३॥ परदोपत्रणे बधिरमावः सत्पुरुषाणां
॥२४|| परकलत्रदर्शनेऽन्धभावो महाभाम्पानाम् ॥२शा शत्रावपि गृहायाते संभ्रमः , तथा च राजपुत्र:-पद्गग्यं गुरुपौरवस्य सुखदो परिक्षामन्तेऽन्तर। पापियवशात्रयाच सहसा गर्मोपहा__सार यान् । बल्लरनं न रुणद्धि यत्र रापधरूपाने प्रत्ययः । सरिक प्रेम स उच्यते परिचयस्तत्रापि कोपेन f m
तथा व वा मसिंहः-एककोटिगतस्नेहो जमानां खलु पेष्टितम् । । तथा च जैमिनिः-जाबने वाच्यता यस्य श्रोत्रियस्य वृथा हि तस् | अनाचारात्मदादिष्ट श्रोत्रियत्वं वदन्ति मा! • तथा बल्लभदेवः-कोऽर्थः पुत्र व जतन यो न विद्धान पार्मिकः । किं तमा क्रियते भेन्या या न सो म दुग्धदा १ स्पा शुक:-विधामदो मवेशीचः पश्यपि न पश्यति । पुरस्थं पूज्यज्ञोक र नाविनास गायतः til
ता व गुरु-प्रत्यारेऽपि प्रिथं भने परामु विभागते । सौजन्यं तस्य विशेष पथा किंपाच ॥३॥
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३५०
नीतिवाक्यामृत
कत्तव्यः किं पुनर्न मइति ॥२६॥ मन्तःसारधनमिव स्वधर्मो न प्रकाशनीयः ॥२७॥ मदप्रमादर्जेदी गुरुपु निवेदनमनुशयः प्रायश्चि प्रतीकारः ॥२८॥
अर्थ-किसी मनुष्यका रूपकार करके उसके समक्ष प्रकट करना निम्य है, क्योंकि इससे वह प्रत्युपकारके पहले सपकारीसे वैर विरोध करने लगता है।।२०||
भागुरि' ने प्रत्युपकारकी भभिलाषासे किये जाने वाले उपकारको निष्फल बताया है ॥१॥
बुद्धिमानोंको विद्वान् होकर अभिमानी व कपण प्रथा होकर लोभी, घमण्डी, अमाहिष्णु व पारस्परिक कलह सत्पन कराने-बालोंको किमी भी कामे नियुक्त करना चाहिये, क्योक ससे कार्य सिद्धि नहीं होती और उक्त दोनोंका निर्वाह होना भी ममम्मद है ॥ २१ ॥
हारीत' का भी नियुक्ति के विषय में यही मत है ॥२॥
बुद्धिमान को वमन की हुई बस्तुकी तरह स्वयं दिया हुया दान ग्रहण करनेकी अभिलाषा नहीं करनी चाहिये ॥२॥
जैमिनि विद्वान ने भी दान की हुई वस्तुके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥ कुलीन पुरुष किसीका उपकार करके ससका दिग्दर्शन न करते हुये मौन ही रखते हैं ।। २३ ॥ बल्ममदेव विहान के संगृहीत श्लोक का भी यही अभिप्राय है ॥५॥
सरपुरुष दुसरेकी बुराई व दोष सुनकर ऐसे अनसुने बन जाते हैं मानो कि पे पहरे ही हो ॥२४॥ गर्ग' विज्ञान ने भी 'इसरों के दोष न सुनना' महापुरुषों का कर्तब्य बताया है ।। नापीमासिद सूरिने भी अपने दोनों पर दृष्टि रखने वाले को मोषमार्गी बनाया है॥॥
पर स्त्रियोंकी सरफ दृष्टिपास करने में भाग्यशामो पुरुष पन्धे होते है-जनपर कुदृष्टि नहीं रखते। अभिप्राय यह है कि उनका अपनी पत्नी के मिवाय अन्य स्त्रीजाति पर मातृ-भगिनी भाव होता ॥२६॥
हारीदने भी परकलबकी और कुहनि न रस्यनेवालेको भाग्यशाली कहा है ५ ॥
बुद्धिमान्को अपने गृहमें पदापण किये हुए राजा भी सम्मान करना चाहिये। फिर म्या महपुरुषका नहीं करना चाहिये ? अवश्य करना चाहिये ॥२६॥ , सभा - भाविः-बोन्यस्य करते कृत्य प्रतिकृत्पतिवाम्मा । न त कस्य मवेत्तस्य परमात्फबापदायकम् ॥ । तवा हारीत:-समर्थी मानसंयुक्ती पशिस्ती मलमयो । मियोपदेशपरी महतो मियो क बोजवेत् ।। ३ व्या . जैमिनि:-सायं समरान प्राय पुनरेव तत् । पमा सवाम् गाय दूरस: परिवर्जयेत् ।। • तमा काममदेव:-इसमपरा काचिद्राएयते महवां महतो बा भावविहा। पहला मन्ति पूरसः परसः
प्रत्युपकारमा ॥ १ वा गर्ग:परदोवान एवम्ति येऽपि स्युनरपुयाः । शृपवतामपि शेषः स्वायतो दोषाम्बसम्भवात् १०
मारवादीभसिंहः-अन्यीकमिपास्मीयमपि दोष प्रपश्पता। समः क्तु मुत्तोऽमपुक्तः कायेन वेदपि । • वा हारोवामपदेशान्तरे धर्मों पः इतरच सुपुरमः ३१ पनि तेऽश्यस्य पीचन्ते विवाविनीम् ||AI
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३५१
व्यवहार समुहेश
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भागुरिने भी गृहागत व्यक्ति के विषय में इसी प्रकार कहा है।॥१॥
विवेकी मनुष्यको गृहके मध्य में रक्खे हुए उत्तम धनके समान अपना धर्म (दानपुण्यादि) प्रकाशित नहीं करना चाहिये । अर्थात् जिसमकार गृहमें रखा हुआ धन नष्टहोने के भयसे चौर-बादिके सामने अगट नहीं किया जाता, उसी प्रकार अपना धर्म भी नष्ट होनेके भयसे किसी के समक्ष प्रगट नहीं किया. जाता ॥१७॥
न्यास ने भी अपना धर्म प्रगट करनेवाले को मूर्ख कहा है ॥१।।
गर्ष व कामक्रोधादि कषायवश होने वाले दोषोंकी यक्षिके लिये निम्न प्रकार तीन उपाय है। १-अपने दोषोंको गुरुजनों के समक्ष प्रकट करना, किये हुए दोषो' पर परमात्ताप करना, ३–प्रायश्चित्त करना ॥२८॥
भारद्वाज' का भी दोष-शुद्धिक विषयमें यही अभिप्राय है ||
धनार्जन सम्बन्धी कष्टकी सार्थकता, नीच पुरुषोंका स्वरूप, वन्य चरित्रवान, पीडाजनक कार्य ष पंचमहापातकी -
श्रीमतोऽर्थार्जने कायक्लेशो धन्यो यो देवद्विजान् प्रीणाति ॥२६॥ चणका इव नीचा उदरस्थापिता अपि नाविकुर्वाणास्तिष्ठन्ति ॥३०॥ स पुमान् वन्यचरितो यः प्रत्युपकारमनपेक्ष्य परोपकारं करोति ॥३१॥ अज्ञानस्य वैराग्यं मिचोटित्वमधनस्य विलासो चेश्यारतस्य शौचमविदितवेदितव्यस्थ सम्बाग्रह इति पंच न कस्य मस्तकशूलानि ॥३२॥ सहि पंचमहापातकी योऽशस्त्रमशास्त्र वा पुरुषमभियुजीत ॥३॥
भर्ष- ओ धनाड्य पुरुष अपने धन द्वारा देव, विज भोर बारकों को सन्तुष्ट करता है, उसका भोपार्जनके लिये शारीरिक कष्ट उठाना प्रशंसनीय है ।।२।।
अषिपुत्रका विद्वानके मद्धरण का भी यही अभिप्राय है ।। १ ।।
नीच पुरुषों का चाहे कितना ही उपनगर किया जावे, तथापि पनोंके भषण, ममान बिना अपकार किये विभाम नहीं लेते। अर्थात जिसप्रकार चने खाये जाने पर विकार (अधोवायु निस्मारण्य शरा जनसाधारससे हसी मजाक कराना) पपा कर देते हैं, उसीरकार सपत हुएभी नीच पुरुष अपकार कर सकते हैं ॥३०॥
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। पर च भागरि:-प्रमादरो न म्यः शोपि विकिमा । स्वगृहे भागतस्मात्र किं पुनमंहतोऽपि ॥१॥
तथा पम्पासा-साकीव कीवरम को अभाभी स मम्मी । ' गत: समानाति पापस्य कवितस्य च १ । तथा च भावामः-मप्रमाव बाई या पासपोरमे। गुरुभ्यो थुक्तिमाप्नोति ममस्वायो ग भारत ॥१॥ • तथा ऋषिपुत्रका-कापक्लेशो भवस्तु धनार्जनसमुनयः । तस्यो भनिनो योनं सबिभागो हिमाविंधु १
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नीतिवाक्यामृत
भागुरि विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
प्रत्युपकार की आशा न करके दूसरोंका उपकार करनेवाले का चरित्र नमसंहार करने योग्य है ॥ ३१ ॥ भागुरि व महात्मा भर्तृहरि ने भी तक सिद्धान्त का समर्थन किया है ।। "
मूर्ख मनुष्य का वैराश्य धारण, तपस्वी का काम सेवन, हरिद्र का शृंगार विधान, बेश्यास को पवित्रता और आत्मज्ञान- शून्य का वस्तु स्वरूपके विचारने का भामह, ये पांच कार्य किसके मस्तकशुभ( पीड़ाजनक ) नहीं है ? अर्थात समको पोहाजनक है। सारांश यह है कि वैराइको ज्ञानी, साधुको कामसेवन से विरक श्रृंगार चाहनेवाले को धनाढ्य, पवित्रता चाहनेवाले को बेश्या सेवन का स्यागी व वस्तु स्वरूप के विचारक को श्रात्मज्ञानी होना चाहिये || ३२ ॥ गदरपाद विद्वान् ने भी मूर्ख को वैराग्य धारण करना पाया है |
आदि तक पाँच बातों को पीड़ाजन
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जो मनुष्य निहत्थे व्यक्तिपर शस्त्र प्रहार और मुर्ख से शास्त्रार्थं करता है वह पंच महापाठकों (स्त्री-वच गोन्बध, माह्मणन्वभव स्वामी-बाद) के कटुक फल भोगता है, चत: बुद्धिमान् पुरुषको निहत्थे पर शस्त्रप्रहार और मूर्ख से बाद-विवाद नहीं करना चाहिये ॥
३३ ॥
विद्वानकेपा का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
प्रयोजन गए भी पुरुषका संसर्ग, स्वार्थ सिद्धिका इच्छुक, गृह-दासीसे अनुराग, वेश्या-संग्रह से हानि द दुराचारियोंकी चित्तवृति
उपाश्रुतिं श्रोतुमिव कार्यवशान्नीचमपि स्वयमुपसर्पेत् ||२४|| अर्थी दोषं न पश्यति ॥३४॥ गृहदास्पमिगमो गृहं गृहियां गृहपति व अस्थवसादयति ||३६|| वेश्या संब्रदो देव-द्विजगृहिणी- बन्धूनामुपाटनमंत्रः ॥ ३७॥ यहो लोकस्य पायें, यन्निजा स्त्री रतिरपि मनत निम्पसमा परगृहीता शुन्यपि भवति समासमा ||३८|
अर्थ- जिस प्रकार प्रयोजनवशं शुभ या अशुभ शकुना सुना जाता है, यदि शुभसूचक होता है तो वह कार्य किया जाता है, अन्यथा छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्यको स्वार्थसिद्धि
१ तथा मागुतिः
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समस्या सामवेद अस्थामध्ये प्रति विम्॥१० ९ सया च भाहिः उपकारको यस्तु मामले में स्वयं पुनः उपकारः स भन्यो १० ३ तथा च भर्तृहरिः
स्वार्थान पर 12
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सुवस्थितः निर्वस्व विद्यासित्वं कौश्वारस्य ॥१॥ महावि]12
स्थानियकारकः । वदि
शासन
A २०० प्रविसे संचित
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व्यवहार समुदेश
के लिये नोच पुरुष के भी पास जाकर उसके वचन सुनने चाहिए और अनुकूज होने पर मानना चाहा! अन्यथा नहीं ।। ३४ ।।
गुरु ' विद्वान् ने भी नीच पुरुष के विषय में यही कहा है॥१॥ स्वार्थी मनुष्य अपने दोषों पर दृष्टि नहीं डालता ॥ ३५ ।। गृहसासी से अनुराग करनेवाला अपने गृह, पल्ली व गृह के स्वामी को नष्ट करदेता है ।। ३६ ।।
वेश्या-संग्रह देव, माया, स्त्री बन्धुजनों से पृथक कराने वाला उच्चाटन -मंत्र है मतः उक्त हानि व धार्मिक क्षतिसे बचने के लिए विवेकी मनुष्यको बेश्या संग्रह का त्याग करना चाहिये ॥ ३७ ।।
गुरु'- विद्वान् ने भी वेश्यासंग्रह से उक्त हानि बताई है ॥३॥
लोगों का पाप जानकर आश्चर्य होता है कि जिसके कारण वे लोग अपनी रति के समान सुन्दर स्त्री को भी नीम सदृश अप्रिय और दूसरे की कुरूप स्त्रीको देवाङ्गनासम प्रिय मान बैठते हैं ।३८)
एक स्त्री से लाभ, पास्त्रो व वेश्यासेवन का त्याग, सुखके कारण, गृह-प्रवेश, जोम व याचना से हानि, दारिद्र-दोष ५ धनाढ्य को प्रशंमा
स सुखी यस्य एक एव दारपरिग्रहः ।। ३६ ।। व्यसनिनो यथासस्वमिसारिकास न तथाथेवतीषु ॥ ४०॥ महा काययस्तादिन्यानात देर नापती ४१॥ मस्तरणं कम्बलो जीवधन गर्दभः परिग्रहो बोढा सर्वकर्माणश्च भृत्या इति कस्य नाम न सखाबहानिA || ४२ ।। लोभवति भवन्ति विफला। सर्वं गुणा:B॥ १३ ॥ प्रार्थना के नाम न लषयति ॥४४॥ न दारिद्रयात्पर पुरुषस्य लाञ्छनमस्ति यत्संगेन सवें गुणा निष्फलता यान्ति ॥ ४५ ॥ अलब्धार्थोपि लोको धनिनो भाण्डो भवति ॥ ४६ ॥ धनिनो पतयोऽपि चाटुकाराः ॥ ४७॥ अर्थ-वही सुखी है जिसके एक स्त्रो है ॥ ३ ॥ धाणिक्य ने भी दो पत्नियों को कलह का बीज बताया है ॥ १॥
जिस प्रकार व्यभिचारी पुरुष को ग्यभिचारिणी स्त्रियों से सुद प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार घेश्यामों से भी उसे कदापि सुख प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि वेश्यामों में अनुराग करने से
सथा च गुरु:-अपि नाचोऽपि गन्तम्यः कार्ये महति संस्यिते । यदि स्मासानोमा तरकाय मया त्यजेन्द ५ तथा प गुरु:-- पेश्या विस्तयेरपुरेसा किमप्यस्ति मन्दिरे। स्वकार्यमेव कुर्वाणा नरः सोऽपि च तासात ||
करवा शोबपरित्यागं तस्वा बाम्बो भरपेत् । ततश्च मुख्यते सर्वार्यावाम्भवपूर्णः ॥ २ ॥ ६ था चचाणिक्य:-अपि साधुसनोत्पने माय या संस्थिते । परस्पन भो परति गृहाम्नव ापन |
A,B,C, रस चिम्हाशित सून मु. म. प्रति से संकलम किये गये हैं।
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नीतिवाक्यामृत
Premat......
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व्यसनी का अधुर वन-व्यय होगा इनका अत्ति करने से निर्धनता-वश उसे धनान्यों के समक्ष धन के लिये दीनता प्रगट करनी पड़ती है अत: नैतिक पुरुष को व्यभिचारिणी स्त्रिों व वेश्याओं से दूर रहना चाहिए ॥ ४०-४१॥
मिछाने की गद्दी व ओदने को कम्बल,कृषि-आदि में उपयोगी गो-बैल आदि जोग, धन, विवाहित स्त्री रूप परिग्रह एष समस्त कार्य करने में निपुण सेवक, ये वस्तुयें किसे सुखदायक नहीं होती १ सभी को होती हैं ।। ४२ ॥
लोभी के समस्त विद्या भादि गुण निष्फल होते हैं, क्योंकि उनका यह सहुपयोग नहीं करता ॥ ४३ ॥ याचना करने वाला कौन मनुष्य लघु नहीं गिना जाता ? सभी लघु गिने जाते हैं ।।४।। लोक में दरिद्रता से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु मनुष्यको दृषित ( दोषयुक्त) नहीं बनाती, दरिद्रता ही सबसे बड़ा दोष है जिसके कारण मनुष्य के समस्त गुण निष्फल हो जाते हैं ॥१५॥
किसी विद्वान ने भी गुणवान दरिद्र व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले उपकार को शङ्कायुक्त कहा है।
धनाढ्य से धन न मिलने पर भी याचक लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, पुनः धन मिलने पर तो उसकी प्रशंसा के पुल बांधना कोई बड़ी बात नहीं ॥ ४ ॥
वल्लभदेव ने भी नीच कुल के कुरूप धनाड्य पुरुष की यायकों द्वारा स्तुदि यताई है ।१॥
जबकि साधु पुरुष भी धनाढ्य पुरुष की प्रशंसा करते फिर साधारण लोगों का तो कहना ही क्या है ?.वे तो उसकी प्रशंसा करते ही हैं। ४७ ।
वल्लभदेव ने भो धनाढ्य पुरुष को कुलीन, पंडित, अतधर, गुणा, वक्ता व दर्शनीय कहा है ॥१॥ पवित्रवस्तु, उत्सव, पर्व, तिथि व यात्राका माहात्म्य, पांडित्य, चातुर्य व लोकव्यवहारन रत्नहिरण्यपूताज्जलात्परं पावनमस्ति ।४८ ॥ स्वयं मेध्या पापो षन्हितप्ता विशेषतः४६ स एवोत्सवो यत्र वन्दिमोक्षो दोनोदणं च ॥ ५० ॥ तानि पर्वाणि येवतिथिपरिजनयो: प्रकामं सन्तर्पणं ॥ ५१॥ तास्तिथयो यास नाघमाचरणं ।। ५२ ॥ सा तीर्थयात्रा यस्या. मकृत्यनिवृत्तिः ॥ ५३ ।। तत्पाण्डित्यं यत्र वयोनियोचितमनुष्ठानम् ।। ५४ ॥ तचातुर्य यत्परप्रीत्या स्वकार्यसाधनम् ॥ ५५॥ तन्लोकोचितत्वं यत्सर्वजनादेयत्वम् ॥५६॥
मर्थ-मरकत आदि रत्न व सुवर्ण से पवित्र किये हुए जमको बोरकर दूसरा कोई पदार्थ पवित्र नहीं है । सारांश यह है कि ऐसा जल स्नान करने व पीने के लायक है ॥४८ ॥ जल स्वयं पवित्र है । तथा चोकसं-उपकारपणे पाति:, निर्धन स्पषिगृहे । पारपियति मात्र पान्यो मन्यते गृहो । २ तया च वरजभवेषः- स्वया सरयो दाना लीनो स्पवाद सोनोऽपि विपिपोऽपि गोषते .
धमाधिभिः ॥ ॥ १ तथा सपनामदेवः- पक्ष्मास्ति दिस नरः कुशीना, स पपिंडवः स भवान् गुमशः।
स एम पता सपर्शनीय सगुणाः काम्चममाभयन्ति ॥१॥
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व गर्भजल विशेष पवित्र है ॥ ४६ ॥
व्हान समुद्देश
६४५
MPS
मनु' के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
उत्सव मनाने की सार्थ या कभी है जब कि इस अवसर पर बन्दियों कैदियों का छुटकारा और अनाथोंकी रक्षा की जायें, पर्व ( रक्षाबंधन आदि ) मनाने की भी सार्थकता तभी है, जबकि इस अवसर पर अतिथियों और फुटुम्बीजनों को दान-सम्मान द्वारा अत्यन्त संतुष्ट किया जाये ।। ५०-५१ ॥
भारद्वाज ने भी पर्व के दिनों में अतिथिसत्कार व कुटुम्ब-पोषण का संकेत किया है ॥ १ ॥
तीस तिथियों में से वे ही तिथियां सार्थक हैं जिनमें मनुष्य पापाचरण से हटकर धर्माचा की मोर असर होता है ॥ ४२ ॥
जैमिनि ने भी पाप युक्त तिथियों को निरर्थक व धर्मयुक्त को सार्थक कहा है ॥ १ ॥
जहां जाकर लोग पाप में प्रवृत्ति नहीं करते, वही उनकी वास्तविक तीर्थयात्रा है सारांश यह कि तीर्थस्थान का पाप वाजेप की तरह अमिट होता है, श्रवः वहां पर पाक्रियाओं को त्याग करना चाहिए ।। ५३ ।।
किसी नीतिकार के उद्धरण से भी यही बात प्रतीत होवो है ॥ १ ॥
अपनी आयु और विधानुकून सत्कर्त्तव्य का पालन करनेवाले विद्वान् की विद्वत्ता सकती है ॥४॥ गुरु ने भी विद्या व आयु के योग्य सत्कर्त्तव्य-परात व योग्य बेपवारण करनेवालेको विद्वान
माना है ॥ १॥
दूसरे से प्रीति उत्पन्न करके उससे अपना प्रयोजन सिद्ध करना 'चातुर्थ' नामक सद्गुण है ॥५५ ॥ शुक्र ' ने भी सामनोति द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करनेवाले को चतुर और दंड-भेद-आदि द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करने वालेको 'मूर्ख' कहा है ॥ १ ॥
विवेकी मनुष्यका वही लोकोपयोगी नैतिक सरकसंध्य है जिसके अनुष्ठान से वह लोकप्रिय ( सबका प्यारा ) हो जाया है ॥ ५६ ॥
सज्जनता व वीरताका माहात्म्य, सौभाग्य, सभा-दोष, हृदय-हीन के अनुरागकी निष्फलता, निन्द्य स्वामी, लेखका स्वरूप व उसका अप्रामाण्य, तरकाल अनिष्टकारी पाप, बलिके साथ विमइसे हानि, धनवान् का आश्रय पाकर उससे उदवडता करने से हानि, प्रवासका स्वरूप व उसका सुख
१ तथा मनुःआपः स्वभावतोमेयाः किं पुनर्वहिताः । तस्मात् सम्यस्वदिच्छन्ति स्मानमुष्येन पारिया ॥१॥ २ तथा च भारद्वाजः - प्रतिथिः पूज्यते यत्र पोषयेत् स्वपरिग्रहं । तस्मिम्नहनि सर्वाणि पर्वाहि मनुरवीत् ॥ २ ॥ ● तथा च जैमिनिः— पासुन क्रियते पाता एव विषयः स्मृताः । शेषा वंधत्रास्तुविज्ञेया इस्वेवं मनुरवीत् ॥१॥ ४ तथा श्रोक्तः— प्रयत्र यत् कृतं पापं तीर्थस्थाने प्रभावि तत् । क्रियते सीधगच्च बसले तु जायसे ॥ ५ ॥ २ तथा गुरुः-- विद्याया वबलश्चापि या योग्या किया इ४ । तथा वेषश्च योग्यः स्यात् स शेषः परिज ६ तथा च शुक्रः—पः शास्त्रात्साधयेद कार्यचतुरः स प्रकीर्तितः । साधर्मान्ति मेदाय में से अतिविष विशः ॥ १ ॥
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नीविवाक्यामृत
तत्सौजन्यं यत्र नास्ति पराद्वगः ॥५७॥ तद्धीरत्वं यत्र यौवन नानपवादः ॥५८|| तत्सोभाग्यं यत्रादानेन वशीकरणं ॥५६ सा सभाण्यानी यस्यां न सति विद्वांसः ॥ ६० ।। कि नेनात्मनः प्रियेण यस्य न भवति स्त्रय' नियः ॥६॥स कि प्रभुयों न सहते परिजनसम्बाधम् ॥६२। न लेखाचन प्रमाण ६३॥अनभिज्ञाते लेखेऽपि नास्ति सम्प्रत्ययः ॥६॥ श्रीणि पातकानि सद्यः फलन्ति स्वामिद्रोहः स्त्रीत्रधा बालवधश्चेति ॥६५॥ अजयस्य समुद्रावगाहनमिवायलस्य बलवत्ता सह विग्रहाय टिरिटिल्लितं ॥६६॥ पलवन्तमाश्रित्य विकृतिभंजनं समो मरजक सं १ का पकनिनामपि सन्तापयति कि पुनर्नान्यं ॥६८|| बहुपाथेयं मनोनुकूल: परिजनः सुविहितश्चोपस्करः प्रवासे दुःखोतरण तरएडको वर्गः ॥६६॥ अर्थ-यही समनसा है, जिससे दूसरों के हृदय-सरोवरमें भय व उदग न होकर प्रसमा महराये
वावरायण' ने भी जनसमुदाय को प्रसन्न रखनेवाले कार्यों को सजनता और इससे विपरीत भयोत्पादक कार्योको पुजैनसा कहा है ॥१॥
मो शिष्ट पुरुष युवावस्थाको प्राप्त करके अपने जीवनको परस्त्री व वेश्यासेवन श्रादि दोषोंसे दुषित नहीं होने देते अर्थात- अपनी स्त्रीमें हो सन्तुष्ट रहते हैं उनका यह धोरवा गुण है ॥५८||
शौनक ने भी युद्ध में प्रवीर पुरुषको धीर न कहकर युवावस्थामें परस्त्री व वेश्या सेवन के स्वागीको 'धीर' कहा है ।।५।।
दान न देने पर भी जम-समुपाय को वशीभूत रखने वामा मनुष्य भाग्यशाली है ।।५।। गौतम भी पैसे के बजपर दूसरोंको वश करने वाले को भाग्यशाली नही मानता l जिस सभामें विद्वाम् पुरुष नहीं है। उसे जंगल समझना चाहिये, क्योंकि कि-मगडोरे बिना सम्भो को धर्म-अधर्म कर्त्तव्य-भकर्तव्य का बोध नहीं होता ।।६०॥
वह मनुष्य शत्रु समान है, जो अपनी हरयाहीनता परा दुसरे मनुष्य द्वारा प्रेम करने पर भी उसका प्रत्युत्तर प्रेमसे न देकर रुष्टतासे देता है ॥६॥
राजपुत्र के संगृहीत श्लोकका भी यही अभिप्राय है ॥शा
जो स्वामी अपने सेवको द्वारा वेतन मादि मांगने पर उनको वेपन प्रादि देने में रिलकिषावा है उनके वर्चका धमका सहन नहीं कर पाता वह निन्दनीय है।सा . , तथा च पारायण-पस्व इत्पैन कास्नेन सामन्यासाश्मनो fam: । सौजन्य स त तिमोजण २ स्था च शौनक:--परवादियोषण रहित पस बोवन । बाविया पुमा पीरो, पीरो परम्मति ॥ ३ सया च गौतम:--वानहीनोऽपि परागो जनो यस प्रमावते । समनः स परिशेगो यो पाबादिमिरः ॥m । तया च राजपुत्रः- वाहवामस्थ यो भूयो बस्यामः स्वाबिखेरतः । सपनामा पनि यो पो बैरो समवे.
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व्यवहार समुहेश
गौतम भी मृत्यधके रक्षण में असमर्थ पुरुष को स्वामी ने मानकर सम्यासी माना है ॥१॥ लेख व वचनमें से जेख की ही विशेष प्रतिष्ठा व अत्यधिक प्रामाणिकता होती है और वनोंक चाहे थे पदस्पति द्वारा ही क्यों न कहे गये हो', प्रतिष्ठा नहीं होती ।।६।। राजपुत्र'ने भी जेन को ही विशेष महत्वपूर्ण व प्रामाणिक माना है |शा
अनिश्चित लेख प्रामाणिक नहीं गिने जाते । सा यह है कि मनुष्यको किसीकी किस्ती हुई बात पर सहमा-विना सोचे समझे विश्वास नहीं करना चाहिये और प्रत्यक्ष व साहियों द्वारा उसका निर्णय करना चाहिये ॥६॥
गुक'ने भी कहा है कि 'भूते जोग झूठे लेख लिलाने के बहाने से साजन पुरुषों को धोखा देते हैं; अवः विद्वानों को बिना निश्चय किये किसी को लिखो हुई बात पर विश्वास नहीं करना चाहिये ||
स्वामी, स्त्रो और यकचेका मध ये वोन महा पाप है, जिनका कुशल मनुष्यको इसी लोकमें तत्काल भोगना पड़ता है ||६||
नारदने ने भी ऐनृशंस हत्यारेको उभयज्ञोकमें दुःख भोगने वाला कहा है।
जिस प्रकार विना नौका कंवल भुजा मोसे ममुद्र पार करने वाला मनुष्य शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है, “सी प्रकार कमजोर पुरुष बलिष्ठ पुरुष के साथ युद्ध करनेसे शीघ नष्ट हो जाता है, भवः निलको बांसडके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये ॥६६|
गुरुप ने भी कमजोरको शक्तिशाली के साथ यह करनेका निषेध किया है ॥ ' जो मनुष्य पाषाणका लाभयसहारा या उपकार-पाकर उससे उदाता का ववि करता है, इसको तत्काल मृत्यु होती है ॥६॥
परदेशकी यात्रा पक्रवती को भी कष्ट देती है, पुनः साधारण व्यक्तिको उससे कट होना स्वाभाविक है ॥८॥
पारायण' ने भी परदेश यात्राको विशेष कष्ट देने वाली कहा है ॥१॥ मनष्यको परदेशको यात्रा पर्याय भोजन सामयी श्राक्षाकारी सेवक व उचप धन व वस्त्रादि सामग्रो दुखः रूप समुद्रसे पार करने के लिये जहाजके समान है ॥
इति व्यवहार-समुहेश ।
.पा-गतमः-मस्ववाजे जाते पो या कुल्वे प्रभुः । स स्वामी - परिशय हासीमः सह .वागमपुरा-विलितहाधिक प्रतिष्ठा पाति चिन् । बिस्पतेरपि प्राय:नि स्वापि स्यचित् ।
तथा शुक्रा-कुरलेखप्रपंचेन पूर्वरार्थसमा नराः । मेला कम्यः सामिज्ञान विमा : "तपाल नारदा-स्वामिन्त्रीबाबइन्तयां समा फलति पातक । इह बोकेऽपि च तापमोपभुज्यते । ५ व्या पुरु:-बाखिना सहपुर य: प्रकोसि सुदुर्षयः । रुणं कृत्वात्मनः शकल्या युवं स्व विकारामम् ।। तथा चारापमः-बसे सीति प्रापरकरस्यपि यो भवेता किं पुनस्थ पाथेय मर्यात गवसतः ॥1
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२८ विवाद-समुद्देश गजा का स्वरूप, उसकी समदृष्टि, विधान परिषत् के अधिकारी या सभासद, भयोग्य सभासद, व उन से हानि व न्यायाधीश की पक्षपात दृष्टि से हानि--
गुणदोषयोस्तुलादण्डसमो राजा स्वगुणदोषाभ्यां जन्तुप गौरवलायवे ॥१॥ राजा त्वपराधालिंगितानां समवर्ती तत्फलमनुभावयति ।। २ ।। आदित्पवद्ययावस्थितार्थ-प्रकाशन प्रतिभाः सम्याः॥३॥ अदृष्टाश्रतव्यवहाराः परिपन्थिनः सामिषा न सम्याः ॥ ४ ॥ लोम पक्षपाताभ्यामयथार्थवादिनः सम्याः सभापतेः सद्योमानार्थहानि लभेग्न् ॥ ५॥ तत्राल विवादेन यत्र स्वयमेव सभापतिः प्रत्यर्थीसभ्यसभापत्योरसामंजस्येन कुता जयः किं बहुभि. श्छगलैः श्वा न क्रियते ॥ ६ ॥
अर्थ-गाजाका कर्तव्य है कि प्रजाजनों के गुणों क दोषों को जांच तराजू को दरहो तरह नि भाव से करने के उपरान्त ही उन्हें गुण व दोष के कारण क्रमशः गुरु (महाम) और लघु समझे और उनके साथ योग्य-अयोग्य व्यवहार करे। अर्थात् शिष्टों का पालन व दुष्टां का निग्रह करे।॥ १॥ समस प्रजाजनों को एक नजर से देखने वाला राजा अपराधियों को अपरावानुकून दण्ड देने को सोचता है ॥२॥
गुरु ने भी अपराधी के अपराध की सत्य व झूठ जाँच करने के उपरान्त दण्ड देने को कहा है ॥१॥
राज सभा ( विधान परिषत् ) के समापद-एक्जीक्याटष कौन्सिल या पार्मिट के अधिकारी गगा (गवर्नरजनरल, प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, तथा सेना अर्थ काय न्याययातायात शिवाके सविध भादि) सूर्य के समान पहाय को जैसे का तैसा प्रकाश करने वाली प्रतिभा से युक्त होने चाहिए। अर्थात् उन्हें समस्त राज्य शासन सम्बन्धी व्यवहार को यथार्थ सिद्ध करने में प्रवीण होना चाहिये ॥३॥
गुरु ने भी राजसभा के सभासद राम्पशासन सम्बन्धी समस्त व्यवहारोंके जानने वाले कहा है ॥१॥
जिन्होंने राज्यशासन सम्बन्धी व्यवहारों (शिष्ट पालन व दुध निमा प्रादि अपने २ उत्तरदायित्वपूर्ण कर्तव्यों) का शास्त्र द्वारा अनुभव प्राप्त नहीं किया हो और न राजनीतिक शिष्ट पुरुषों के सत्संग से उन व्यवहारोको श्रवण किया हो एवं जो राजा से ईष्यो वा बाव-विवार करते हों ऐसे पुरुष राजाके शत्रु हैं, वे कदापि विधान परिषन् के मेंबर (मभासद) होने लायक नहीं हैं, अब पव विधान परिषत् में सभासद के पदपर उन्हीं को नियुक्त करना चाहिये, जो राज्य-संचालन या. अपने ससर दायित्व-पूणे कर्तव्य पालन की पूर्ण योग्यता रखते हों, अनुभत्री व वाद-विवाद न करने वाले हों; , तथा च गुरु:-विजानीयात् स्वयं वाथ भूभुमा अपराधिताम् । मषा किंवाथा सत्य घराष्ट्रपरिसद्धये १॥ • तथा च गुरुः-प्रथादित्योऽपि सर्वार्थात् प्रकरणम् प्रकरोति च । तमा च म्यवहारापोन संपास्तेऽमी सभासदः ॥
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विवाह-समुशि
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अपनी काय प्रणाली को उचित व्यवस्था पूर्वक कार्य रूप में परिमात कर सकने की समता रखते हों, तथा पक्के राजनीतिज्ञ एवं अपने उत्तरदायित्वपर्ण राज्य-शासन-आदि कार्य भार को पूर्ण रूप से संभाज सकते हों ॥४॥
शुक्र' विद्वान के संगृहीत श्लोक का भी सभासदों के विषय में यही अभिप्राय है ॥१||
जिम राजा की सभा में लोभ व पक्षपात के कारण झूठ बोलने वाले सभासद होंगे, वे निःसम्मेह हमके मान द धन को क्षति करेंगे ॥५॥
गर्ग ने भी भिष्याभाषी सभासदों द्वारा राजकीय मान व सम्पत्ति की पति बताई है॥1॥ जिस सभा में समापति (म्यायाधोश) पक्षपाती वादी(मुद्दई) हो वहाँ वाद-विवाद करने से कोई काम नहीं, क्योंकि वाद-विवाह करने वाले सभासद व सभापति इनमें एकमत न होने से वादी की विजय कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि अन्य लोग राजा काही पक्ष लेंगे, अतः ऐसी जगह बादी की रिजब असम्भव है ।क्योंकि क्या बहुत से बकरे मिल कर कुचे को पराजित नहीं कर सकते ? अवश्ष कर सकते हैं । अर्थात् जिम प्रकार बलिष्ठ कुत्ताभी अनेक बारो द्वार। परास्त कर दिया जाता है उसी प्रकार प्रभावशाली वादी विरोधी रामा बाधि द्वारा परिणत है ॥
शुक' ने भी कहा है कि जहां पर राजा स्वयं विरोधो हो वहां वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि अन्य सभी सभासद राजा का ही पक अनुसरण करते हैं ॥१॥
वाद विवाद में पराजिसके ममण, अधम सभासद, वादविवाद में प्रमाण, प्रमाणोंकी निरर्थकसा व वेश्या और जुबारोकी बात जिस मौके पर प्रामाण्य समझी जामके--
विवादमास्थाय यः सभायां नोपतिष्ठेत,समाहृतोऽ पसरति, पूर्वोक्तेमुत्तरोक्तेन पाते,निरुचरः पूर्वोक्तेषु पुक्तेषु युक्तमुक्तं न प्रतिपद्यते, स्वदोषमनुष्कृत्य परदोषमुपालभते, यथार्थवादेऽपि वष्टि समामिति पराजितलिङ्गानि ॥७॥ छलेनाप्रतिमासेन वचनाकौशलेन चाहानिः ।। - ॥ भुक्तिः साक्षी शासन प्रमाणे ॥ ६ ॥ भुक्तिः सापवादा, साकाशाः साधिणः शासनं च कुटलिखितमिति न विवाद समापयन्ति'. अलोत्कृतमन्यायकृतं राजोपधिकृतं च न प्रमाणे ॥ ११॥ पाकितवयोरुक्त प्रहलानुसा. रितया प्रमाणयितव्यं ॥ १२ ॥
मर्थ-जो वाद विवाद करके समामें नहीं पाये; आपापूर्वक मुलाये जाने पर भो ओ सभामें उपस्थित नहीं होता, जो अपने द्वारा कहे हुए वचनोंको झूठा बनाकर-बाव बदलकर-नई बात कहता हो, १ तथा शुक्र:-
म म श्रुतो पापि म्यवहारः सभासः । म ते सभ्वारबस्ते - विशेषा प्रयोपतेः॥ २ तवा र गर्ग:-अयमाप्रबस्तारः सभ्या यस्य महीपतेः । मानार्थहानिन्ति तस्म सपो न संशयः॥ बधा शुक्र:- प्रत्प पत्र भूपः स्यात् तन्त्र पार्षक कारयेत् । यो भूमिपते: परसप्रोस्सपायुगा ॥
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नीतिवाक्यामृत
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पूर्वमें कहे हुए अपने वचनों पर सभ्य मनुष्यों द्वारा प्रश्न थिये जाने पर जो यथोमिस उत्तर न देसकता हो, जो कही हुई बासको सस्य प्रमाणित न कर सके, अपनी गतियों पर ध्यान न देकर जो उल्टा प्रतिवादोको ही दोषी बताता हो, एवं सजनों द्वारा कहे हुए उचित शन्दों पर ध्यान न देकर सभा से ही द्वेष करना हो उपरोक्त बिन्हों-सवर्णोखे जान लेना चाहिए कि यह वादी. प्रतिवादी, या साक्षी, (गवाही) वाद विवाद में बार गया है॥७॥
जो मभासद छलकपट, बलात्कार व वाकचातुर्य द्वारा बादोकी स्वाथ-दानि करते हैं, वे अधम है .
भारद्वाज ने भी प्रत उपार्योसे वादी की प्रयोजन-सिद्धिमें बाधा पहुंचाने वाले सभासदोंकी कटु आलोचना का है ॥शा
पथार्थ अनुभव, सच्चे गवाही और सपा लेस इन प्रमाणोंने याद विवादमें सत्यवाका निर्णय
होता है।
मिनि ने भी वाद विवादमें प्रस्य अनुभषके प्रभाव में सादी और साक्षो न होने पर लेख को प्रमाण माना है ।
जहां पर सदोष अनुभव व भूले गवाहो मोर मुटे लेख ववमान होते हैं, पहा पर यथार्थे निय न होने से बार विवाद समाप्त न होकर उष्टा बढ़ता ही है ॥१०॥
रैभ्य ने भी अक बाते वाद विवादको समाप्त न कर पन्दी बढ़ाने वाली बताई है ॥३॥
पूर्वोक अनुभव व माझी मादि अब सभाषदों द्वारा बजारकार व अन्याय पूर्वक एवं राजकीय शक्ति की सामध्येसे उपयोगमें क्षाये जाते हैं. सम प्रमाउनही माने जाते ॥११॥
भागुरि'ने भी मनाकार, अभ्याय व राजकीय शक्तिसे किये जाने वाले अनुभव आदि को प्रसस्य कहा है ॥२॥
यपि धेश्या और शुभारी झूठे हुमा करते हैं, परन्तु न्यायालय में उनके द्वारा कही हुई बास भी । उत भनुभव व सासी माविहारा निणेय की आने पर प्रमाण मानो जाती है ॥१२॥
वैभ्य ने भी उक्त बावका समर्थन किया है ||
विवाद की निष्पक्षता, धरोहर सम्बन्धी विवाद-नियोय, गयाही को सार्थकता, शपथके योग्य अपराधी व इसका निर्णय होने पर पंड विधान--
असत्यकारे व्यवहारे नास्ति विवादः ॥ १३ ॥ नीवीविनाशेषु विवादः पुरुषप्रामाण्यात , तथा च भाशाज:--लेनापि पोनापि वपन समावादिनः स्वाहानि से प्रकुर्वन्ति च सेऽभमाः |
तया च जैमिणिः-संबादेव । सबैष शासन भुक्तिप्यते । भुक्शेरमन्तर साक्षी भावे व समम् ||१॥ ३ तथा नरभ्यः-बारबारेण मा भुक्ति साकोणाः साक्षियोऽत्र थे। शासन कमिखितामयानि पीएपपि ॥१॥ । तथा च मागुरि:-बमारकारेख यत् कुर्यः सम्पाश्चान्यायतस्तथा । राजोपभिकत सस्प्रमाणं भवेन्न हि || ॥ १ तथा चम्मा -यामेरया पश्य प्राप्य बघुमान बहु अजेन 1 सहिको युतकारश्च तो वापि ते समो॥॥
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व्यवहार समुदेश
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सत्यापयितच्यो दिव्यक्रियया वा ॥ १४ ॥ यादृशे ताशे षा साधिणि नास्ति दैवी क्रिया किं पुनरुभयसम्मते मनुष्ये नीचेऽपि ।। १५ ।। यः परद्रव्यममियुजीवाभिलम्भते वा तस्य शपथः क्राश। दिव्यं वा ।। १६ । अभिचारयोगविशुद्धस्याभियुक्ताधेसम्भावनायां प्राणावशेषोऽर्थापहारः ॥१७॥
अर्थ-जहां पर मिध्याव्यबहार-झूला विवाद-खड़ा होजाता है वो यथार्य निर्णय करने के लिये शिष्ट पुरुष को विवाद नहीं करना चाहिये, क्योंकि जिस मुकदमे में वादो व प्रतिवादो ( मुदई और मुद्दायन ) दोन झूठे होते हैं अथवा मुदई के स्वाम-वगैरह झूठे होते हैं वहां विवाद ( मुकदमा) खड़ा हो नहीं हो सकता, तब निराधार निर्णय की खाशा करना व्यर्थ है ।। १३ ॥
प्राषिपुत्रक' ने भो भूठे व्यवहार वाले विधादको निरर्थक कहा है ॥१॥
किसो पुरुषने किसी मनुष्य को अपना सुवर्ण-पादि धन संरक्षण करने के लिये धरोहर रूपसे सोपाही और उस धन के नष्ट हो जाने पर (यापिस मांगने पर यदि वह मनाई कर बेठे) उस समय म्यायाधीशका कर्तव्य है कि मुसका प्रमाक धरोहर रखने वाले पररणमाणिकता--(सचाई) द्वारा करे, और यदि ऐसा न हो धरोहर रखने वाला (विश्वासपात्र व सच्चा न हो) सो उससे शपथ करावे या उसे देशका भय दिखा कर इस प्रकार सत्य का निर्णय करे कि मुई का धन मुद्दालय के यहां से जो नष्ट हुभा है. यह पोरों द्वारा अपहरण किया गया है ? अथवा मुहायम स्वयं मुद्दई के धन को इरफ कर गया है।
नारव ने भी धरोहर के धन सम्बन्धी विवाद का इन्साफ करने के लिये उक्त दोनों गाय बताये हैं ॥१॥
जब मकामे में जिस किसी प्रकारका पक्ति साची( गवाही) होता है तब न्यायाधीश द्वारा महई महायले को शपथ कराकर सत्यका निणेब करना व्यर्थ है। फिर दोनों मुदईमुद्दाबले द्वारा मानेहुये मेष्ठपुरुषके स्त्री होने पर सत्य की जांच के लिये शग्य का प्रयोग करना यो बिलकुल निरर्थक हैही ॥१५॥
भार्गव ने भी गवाही द्वारा विवाद सम्बन्धी सस्यता का निर्णय हो जाने पर शपब - क्रिया को निरर्थक बताया है ॥ १॥
दूसरे का धन अपहरण या नष्ट करने वाले अपराधो का निर्णय करने के लिये साक्षी के प्रभाव में न्यायाधीश को दिय क्रिया (शपथ कराना मादि) उपाय काम में जाना चाहिये ।। १६ ।।
गर्ग ने भी ऐसे अपराधी की जाँच के लिये शपथ कराने का संकेत किया है ॥१॥ सो अपराधी शपथ-प्रादि कूटिनीति से अपने लिये निॉप साबित कर चुका हो, परमात चोरी
१ तथा च मविपुत्रका-सत्यकारसंधुस्तो व्यवहारो नराधिए 1 विवादो वादिना तत्र मेव युक्ता कचन | AR २ तथा च नारा-मिलेपो पदि नष्टः स्यात् प्रमाणः पुरुषार्षिक: । तपमा सकायों परिग्वे वा नियोजयेत् ॥ ३ तथा च भार्गव:-धर्मापि भवेत् साती विवाद पर्व वरियते । यथा यो किया न स्यात् tक पुनः पुरुषोत्तम ।।। " तया च गर्गः-अभयुजीत चन्मयः परार्थे वा विलुम्पते । शपथस्तस्य कोशो वा योग्यो वा दिल्यमुच्यते ॥१॥
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नीतियाक्यामृत
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के कारण उसके अपराधी साबित हो जानेपर न्यायाधीश द्वारा उसे प्राण दान देकर उसका सर्वस्व (तमाम धन) हरण कर लेना चाहिये ॥ १७ ॥
शुक' विद्वान ने भी ऐसे अपराधी के विपय में इसी प्रकार दहित करने का संकेत किया है।। १ ।।
शपथके अयोग्य अपराधी व उनकी शुद्धि का उपाय, लेख प पत्र के संदिग्ध होने पर फैसला, न्यायाधीश के विना निएं यकी निरर्थकता, प्राम व नगर संबन्धी मुकदमा, राजकीय निणेय एवं उसको न मानने वालेको कड़ी सजा -
लिंगिनास्तिकस्वाचारच्युतपतितानां दैवी क्रिया नास्ति १८ तेषां युक्तितोऽर्थसिद्धिरसिद्धिर्वा १६ संदिग्धे पत्रे साक्षे या विचार्य परिच्छिन्यात् ॥ २० ॥ परस्परविवादे न युगैरपि विवाद. परिसमाप्तिरानन्स्याद्विपरीतप्रत्युक्तीनां ॥ २१ ॥ प्रामे पुरे वा घृतो व्यवहारस्तस्य विवादे तथा राजानमुपेयात् ।। २२ ।। सज्ञा दृष्टे व्यवहारे नास्त्यनुवन्धः ॥२३ ।। राजाज्ञां मर्यादा वाऽतिक्रामन् । कलेन इल्डेनोहताज्य।। २४ ॥
अर्थ-सन्यासी के भेषमें रहनेवाले, नास्विक, परिम-भ्रष्ट व जाविसे मयत मनुष्योंके अपराध यदि गवाही आदि उपाय द्वारा सावित न होसकें, क्यापि धर्माध्यक्ष (पायाधीरा) को शपथ खिलाकरी उनके अपराध सावित नहीं करना चाहिये, क्योंकि ये लोग अक्सर झूठी शपथ खाकर अपने को निर्दोषो प्रमाणित करनेका प्रयत्न करते हैं, इसलिये न्यायाधोश को युक्तियों द्वारा उनको प्रोतन-सिद्धि करनी चाहिये अर्थात् अनेक यक्ति-पणे उपायों द्वारा उन्हें अपराधी साबित कर इंडित करना चाहिये अथवा निर्दोषो सावित होने पर उन्हें छोड़ देना चाहिये ॥ १८-१६ ॥
पादरायण' ने भी सन्यासियों की शुद्धिके विषय में बही कहा है ॥१॥
यदि वादी (मुदई) के स्टाम्प वगैरह लेख वा साक्षी संदिग्ध-संदेह युक्त हो, सोन्यायाधीश अच्छी सरह सोच-समझार निर्णय (फैसला) देवे ।। २० ॥
शुक्र ने भी सदिग्ध पत्र के विषय में इसी प्रकार का इन्साफ करना बताया है ॥ १ ॥
मुरी मुद्दायतो के मुकदमे का फैसला विना धर्माध्यक्ष के स्वयं उनके द्वारा वारवर्ष में भी नहीं किया जासकता,क्योंकि परस्पर अपने २ पक्षको समर्थन आदि करने वाली युक्तियां अनन्त होती है इसलिये दोनों को न्यायालय में जाकर न्यायाधीरा द्वारा अपना फैसला कराना चाहिये, वहां पर सत्यासत्य का निर्णय किया जासकता है।॥२१॥ 1 मा च शुक्र:-यदि धादी मोsपि दिमाः कट जैः कृतः । पश्चातस्य च विशान. सर्वस्वहरण स्मृतं ॥ १॥ . २ तथा च चादरायपः-युनाया वितिय सर्वेशी सिंगिनां तपसः किया। दया पवनवा एसिरसंगल्या विवर्जनम् । तथा च शुकः--स दिग्धे लिखिते जाते साये वाथ सभासदैः । विचाय निर्णयः कार्यो धो भास्नसुनिश्चयः ॥ १ ॥ A उमस पाट मु०म० प्रति से संकलन किया गया है।
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ध्यवहार समुद्देश
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किसी' विद्वान ने कहा है कि राजा को न्यायाधीश के फैसले को न माननेवालेका समस्वधन जन्त कर लेना चाहिये ॥ १॥
ग्राम व शहर संबधी मुकदमों का फैसला कराने के लिये वहां के महई-मुदायकों को राजा के पास जाना चाहिये ।। २२॥
गौतम विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
राजा द्वारा किया हुआ फैसला निर्शेष होता है, इसलिये जो मई-महायल राजकीय प्राहा या मर्यादा का वचन करे (स निर्णय को न माने) उसे मृत्यु बरिया जावे ।। २३-२४॥
यक' ने भी राजकीय निर्णय को न मानने वाले के लिये मृत्यु- देने का संकेत किया है॥१॥
तुष्ट निग्रह, सरलता से हानि, धर्माध्यक्ष का राजमभामें कर्तव्य, कलह के वीज व प्राणों के साथ आर्थिक-कृतिका कारण
न हि सताना नालाम्योऽपित लिनयोपायोऽग्निसंयोग एवं वक्र काठ सरलपति ॥२५॥ ऋजु सऽपि परिभवन्ति न हि सथा पक्रतरुश्विद्यते यथा सरलः ॥ २६ ।। स्वोपलम्मपरिहारेण परभुपालभेत स्वामिनमुत्कर्ष यन् गोष्ठीमवतारयेत् ।। २७ ॥ न हि भतु भियागात् परं सत्यमसत्यं वा वदन्तमवगृहीया३ ।। २८ ॥ अर्थसम्पन्धः सहवासश्च नाकलाः सम्भवति ॥ २६ ॥ निधिराकस्मिको बार्थलाभः प्राणैः सह संचितमप्यर्थमपहारयति ॥ ३० ॥
प्रथे-अन्यायी दुष्टों को वश करने के लिये दण्डनीति को बोरकर और दुसरा कोई उपाय नहीं, क्योंकि जिस प्रकार टेडो व तिरछी लकड़ी भाग लगाने से ही सीधी होती है. इसी प्रकार पापी लोग भी हगल से ही सीधे (म्याप मार्ग में चलने वाले ) होते हैं ॥ २५ ॥
शुक्र विद्वान ने भी दुष्टों को सोधा करनेका यही उपाय बताया है॥१॥
जिस प्रकार अंगल में वर्तमान टेदा वृत्त न काटा जाकर सीधा हो काटा जाता है, उसी प्रकार सरल स्वभाव पाला मनुष्य ही सर्व मनुष्यों द्वारा परास्त किया जाता ॥२६॥
गुरु' विद्वान के उद्धरण का भी यही मषिप्राय है ॥१॥
धर्माबक्ष (न्यायाधीश) को राज-सभा में राजा को प्रसन्न करते हुये मुर्ग-मुहखानों का विवर (मकहमा ) इस परोके से विस्तार पूर्वक करना चाहिये, जिससे उसके ऊपर उलाहना न पाये और एक दोनों में से कोई एक कानूनन पोषी ठहराया जाये ।। २७॥
14 चोक्त'-प्रमाधिकारिभिः प्रोक्तं यो बार पापथा किवात सर्वस्वहरणं तस्य व्या कार्य महीशा । २ तथा गौतमः-पो वा पवित्रामामे यो विषादस्म निभः कृतः स्वाभावि भव : स्पा पार्म निदेदयेत् ॥१॥ वाए:-चावपक्षिमियी योऽन्यषा करते हठाद विषयाचपणास्थान विकार्य समाचार ॥१॥
बाश-यात्र शिक्षा पहियोगारमशः । दुबमोऽपि वा दबारर्भवति सार।। १ वा गुदा-माससमते पपकोऽप परामर्ष । पथा सरस: सुख निचले सके..॥
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नीतिवाक्यामृत
गौतम' ने भी धर्माध्यक्ष का यही गींग निर्देश किया है ।।१।
धर्माध्यक्ष पपने स्मो का पक्ष लेकर सत्य असत्य बोलने वाले वादो के साथ लड़ाई-झगड़ा न करे |॥ २८ ॥
भागरि' ने भी बादी के साथ लड़ाई-झगड़ा करने का निषेध किया है ॥१॥
मापस में रुपये पैसे का लेन देन घ एक मकान में निवास करना ये दोनों कार्य कलह सत्पन्न करते हैं ॥ २६ ॥
गुरु' ने भी उक्त दोनों कार्य काहजनक बसाये हैं ॥१॥
अकस्मात मिला हुचा खजाना व अन्याय से प्राप्त हुआ धन ये दोनों वस्तुएं प्राणों के साथ साथ । पूर्व संचित धन को भी नष्ट कर डालती हैं ॥ ३० ॥
वापषियादमें ब्राह्मण भाविके योग्य शपथ-- बामणानां हिरण्ययज्ञोपवीतस्पर्शनं च शपथः ॥ ३१ ॥ शस्त्रात्नभूमिवाहनपल्याणानां तु चत्रियाणाम् ॥ ३२॥ श्रवणेपोतस्पर्शनात् काकिणीहिरण्ययोर्वा वैश्यानाम् ॥ ३३ ॥ शुद्राणां वीरवीजयोल्मीकस्य या ॥३४॥ कारूणां यो येन कर्मणा जीवति तस्य सत्कमोपकरणानां ॥ ३५ ॥ वतिनामन्येषां चेष्टदेवतापादस्पर्शनात् प्रदक्षिणादिव्यकोशात्तन्दुलतुजारोहणौविशुद्धिः ॥ ३६ ।। व्याधानां तु धनुर्लेघनं ॥ २७ ॥ अन्त्यवर्णावसायिनामाद्रचर्मावरोहणाम् ॥ ३८॥
अर्थ-वाद विवाद के निणयार्थ प्राक्षणों को सुवर्या व जनेक के छूने की, जत्रियों को शस्त्र, रत्न, पृथ्वी, हाथी, घोड़े आदि वाहन और पलाणकी, वैश्यों को कर्ण, बच्चा, कौड़ी, रुपया पैसा सुवर्ण के स्पर्श करने की, शद्रों को दृध, बीज 4 साप की बामी छूने की तथा धोबीचमार भादि कार घद्रों को उनके जीविकोपयोगी उपकरणों की थपथ ( कसम) करानी चाहिए ॥ ३१-३५॥
गुरु" विद्वान ने भी ब्राह्मण आदि में होने वाले वाद-विवाद के निर्णयार्थ उन्हें सपरोक्त शपय कराना अनिवार्य बताया है ॥ १५ ॥
इसी प्रकार प्रती व अन्य पुरुषों की शुद्धि उनके इष्ट देवता के चरणस्पर्श से प प्रदक्षिणा करानेसे ज्या गौतमः-धर्माधिकृतमान मिवेद्यः स्वामिनोऽखितः । विषादो न पया दोषः स्वस्म स्थान मादिनः रतमा भागरि-यो म कुर्वा न भयो म कार्पस्तेन विग्रहः । विप्रहेण यतो दोषो महतामपि जायते ।। । तथा च गुरु:- कुर्यादयसम्बन्ध तथैकगृहसस्थिति । तस्य युख विना कालः कश्चिदपि म प्रजेत् ।। ।। । तथा च गुरु:-हिरण्यस्पर्शन परप ब्रह्मसूत्रस्य वापरं । शपभोष मिर्दियो विजातीनां न चायः॥ ॥
शस्त्रामापानपल्यापपईनामवेत् । शपथः सनिपाणपंचाना या पथक् ॥ ५ ॥ रोपपो वैश्यजस्तीला स्पर्शभार वर्णवासपीः । काकिनीषांपोवापि भवति नाम्पा ॥ दुग्यस्यान्मस्प संस्पोरमीकस्म क म्यः शपषः यस विवाद निरपे ॥४॥ पो पेव कर्ममा जीवदानस्वरूप वधुन । कमोपकरण किंचित् पापांच्य ते हि सः॥५॥
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व्यवहार समुएश
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तथा धन, चावल व तगजू को जांध से होती है । एवं व्याधों से धनुष सांधने की भोर चांडाल कंजर और धमार आदि से गीने चमड़े पर चढ़ने की शपथ खिसानी चाहिये ॥ ५६, ३८ ॥
शुरु ' ने भी प्रती, व्याध व चांडालादि से इस प्रकार शपथ कराने की विधि बताई है ॥ १-३॥
चणिक वस्तुए, वेश्यात्याग, परिप्रइसे हानि, उसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन, मूखे का आग्रह, मूसं के प्रति विवेको का कर्तव्य, मूर्ख को समझाने से सानि व निर्गुण वस्तु
वेश्यामहिला, मृत्यो भएडा, क्रीणिनियोगो, नियोगिमित्र, चत्वार्यशाश्वतानि ॥ ३ ॥ क्रीतेष्वाहारेत्रिय पएयस्त्रीषु क मास्वादः॥ ४० ॥ यस्य यावानेव परिग्रहस्तस्य नावानेव सन्तापः ॥ ४१ ॥ गजे गर्दभे च राजरजकयोः सम एव चिन्ताभारः ॥ ४२ ॥ मूर्खस्याग्रहो नापायमनवाप्य निवर्तते ।। ४३ ॥ कर्पासाग्नेरिव मूर्खस्य शांताधुपेषणमौषधं ॥४॥ मूर्खस्याभ्युपपत्तिकरणमदीपनपिण्डः ॥ ४५ ॥ कोपानिप्रज्वलितेषु मूर्खेषु तरक्षणप्रशमनं धृताहुतिनिनेप इव ॥ ४६ ॥ अनस्तितोऽनड्वानिव ध्रियमाणो मूर्खः परमाकर्षति ॥४७॥ स्वयमगुण वस्तु न खलु पक्षपाताद्गुणववति न गोपालस्नेहादुक्षा क्षरति चीरम् ॥ ४८॥
अर्थ-धेश्यारूप स्त्री, अण्ड या क्रोधी नौकर, अभियन नाकारी दि इनकी सैन्नी या संसर्गचिरस्थायी नहीं है ॥ ॥
शुक' विद्वान ने भी उक्त चारों बातों को क्षणिक कहा है। १॥
जिस प्रकार बाजार से लदा हुआ भोजन सुखकारक नहीं होता, उसी प्रकार याबारूयश्याओंसे : भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता, अत: विवेकी पुरुषों को सदा के लिये वेश्याओं का स्या करना चाहिये।
शुक्र विद्वान ने भी वेश्याओं के विषय में इसी प्रकार कहा है ।। १ ॥
संसारमें जिस पुरुषके पास जितना परिग्रह (गाय भैंस, रुपया, पैसा प्रावि) होता है उसे उतनाहो संताप दुःख) होता है अर्थात् जिसके पास अधिक परिपद है उसे अधिक श्रीर जिसके पास थोड़ा परिग्रह है, उसे थोड़ा ससाप होता है ॥४१॥
नारद' ने भी परिग्रह को संतापजनक बताकर उसके त्यागने की भोर संकेत किया है ।। १॥
राजा को जैसी पिसा हाथी के पालन पोषण की रहती है, सो धोषीको गधे के पालन पोषणको 1 तथा च गुरु-तिमोऽन्ये च ये बोकासषा अधिः प्रकीर्तिता । इलेवस्य संपात विम्बर्वा शास्त्रकीर्तितः ॥॥
पुसिन्दाना विवादे क पापलंघनो भवेद | विराखि वन सेवा यस वर्ष प्रकीर्तिवा ।।१।।
अन्त्यजाना सामाचारोहण । शपषः दियः प्रोको यथान्येषादिकः ॥॥ तदान शुकः-रपा पत्नी तथा भएक: सेबक इससंग्रहः ।मिनियोगिन'
प र मजेद - ।। । समा शुरु-पकौतेन मोजोन बारभुक्तेन सा मवेद । सारा मन परवाः सन्तोपो आयते ॥५॥ स्या नरक-निरोप संसारे गम्मानः परिग्रहः । गन्माजस्तु समापस्वस्माचा परिमहा ।।।
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नीतिवाक्यामृत
नारद के उद्धरण से भी यहो थात प्रतीत होती है ॥ ॥
मूर्ख मनुष्य का हठ उमका नारा किये बिना शान्त नहीं होता । अर्थात् वह हानि होने के पश्वास ही अपनी जिद छोड़ता है ॥४३॥
जैमिनि ने भी मूर्ख की हठ उसका विनाश करने वाली बताते हुये विद्वानों को हठ न करने का उपदेश दिया है ॥१॥
• जिस प्रकार कपास में तीन आग लग जाने पर उसे बुझाने का प्रयत्न करना निष्फल है उसी प्रकार मुखे के हठ पकड़ लेनेपर उसकी हठ छानेका मान भी निष्फल है क्योकि पानी ही छा अतः ऐसे अवसर पर इसकी उपेक्षा करना हो औषधि है (इससे भाषण न करना हो उत्तम)॥४४ ॥
भागरि' ने भी मुखको हलके अवसर में विवेकी को उसकी उपेक्षा करना बताया है ।१॥
मूर्ख को हितका उपदेश उसके अनथे बढ़ाने में सहायक होता है, अतः शिष्ट पुरुष मूख के लिये उपदेश न देखें ।। ४ ।।
गौतम ने भी कहा है कि जैसे २ विद्वान पुरुष मूर्ख को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करता है, वैसे २ ससकी जस्सा बनी जाती है ।। १ ।।
क्रोघहती अग्निसे प्रज्वलित होने वाले मूर्योको तत्काल समझाना जलती हुई आग में घीकी माहुति बने के समान है। अथोत्-जिस प्रकार से प्रचलित अग्नि घी की आहुति देने से शान्त न होकर उल्टी बढ़ती है, उसी प्रकार मुर्ख का क्रोध भी समझानेसे शाम्त न होकर सन्टा बढ़ता चला जाता है, मसः भूखे को क्रोध के अवसर पर समझाना निरर्थक हैं ॥ ४ ॥
जिस प्रकार नथुनेर हित थैल खीचनेवाले पुरुष को अपनी भोर तेजी से वोचता जाता है, मी प्रकार मर्यावाहीन ५ हठो मुझे मनुष्य भी उपदेश देने वाले शिष पुरुष को अपनी ओर खीचता हैउससे अत्यन्त शत्रु का करने जगता है, अतः विवेकी पुरुष मूर्ख को हित का उपदेश न देखे ॥४७॥
भागुरि' के उद्धरण का भी यो अभिशय है ॥१॥
जिस प्रकार ग्याले द्वारा अधिक स्नेह किया हुआ बैल दूध नही दे सकता, उसी प्रकार स्वयं निर्गुण वस्तु पक्षपात-पश किसी के द्वारा प्रसंशा की जाने पर भी गुणयुक्त नहीं हो सकती ॥१८॥ नारद ने भी निर्गुण वस्तु के गुण-युक्त न होने के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
इति विवाद समुदेश ।
या मारव:-गजस्म पोषये पाहाश: चिन्ता प्रमायते । रमप च मजेथे तारमा गाधिका भवेत् ।।. तथा मिनिः-एकामहोप भूखांयां म नरबति गिमा परतम्मादेकारहो विमें कम्पः पंचन यथा - मागुति-पासे दशमाने पुपमा धुक्तमुपेशव । एकमहपरे मूस ससम्बवविधते.."
गौतमः-सपा पथा जो जोकोभियोग्यते । तथा तथा सामान तणप्रिपति॥ साभार:-मस्तपा रहितो बदनियमायोऽपि गति । यस्ता मावि पता कोपान विधि ।।। (समानारपः-स्वपमेयरम यत् तम्ब स्पारासिव शुभ। पोशलिन पीर गोपाल पवादियोm
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२६ षाड्गुण्य-समुद्देश । राम व उद्योग का परिणाम, कक्षण, भाग्य व पुरुषार्थ के विषय में
शमव्यायामौ योगक्षेमयोर्योनिः ॥ १॥ कर्मफनोपभागानां क्षेमसाधनः शमः कर्मण पागाराधनो व्यायामः ॥२॥ धर्माधी ॥३॥ मानुष' नयानयों ॥४॥ मानुषञ्च कम लोकं यापयति ॥ ५॥ तच्चिन्त्यमचिन्त्य वा देयं ।।६॥ अचिन्तितोपस्थितोऽथसम्बन्धो देवायत्तः ॥ ७ ॥ बुद्धिपूर्वहिताहितप्राप्तिपरिहारसम्बन्धी मानुपापत्तः॥८॥ सत्यपि दैवेऽनुकले न निष्कर्मणो भद्रमस्ति ॥ ६ ॥ न खलु देवमीहमानस्य कसमप्यम मुखे स्वयं प्रविशति ॥ १० ॥ न हि दैत्रमयलम्बमानस्य धनुः स्वयमेव शरान संधत्ते ॥११॥ पौरुपमवलम्बमानस्यार्थानर्थयो: सन्देहः ॥ १२॥ निश्चित एवानों देवपरस्य ।। १३॥ आयुरोषयोरिय दैवपुरुषकारयोः परस्परसंयोगः समीहित्तमर्थ साधयति ॥ १४ ॥
मर्थ-शम (फर्मों के फत्तापभोग में कुशजता उत्पन्न करने वाला गुण ) य व्यापाम (नैतिक पुरुषार्य ) कार्य की प्राप्ति और उनमें सफलता प्राप्त कराते हैं । सारांश यह है कि शिव पुरुष लौकिक एवं धार्मिक कार्यों में तभी सफलता प्राप्त कर सकता है, जब यह पुण्य कर्म के फलोपभोग (पष्ट बसु की प्राप्ति ) में कुशल-गई-शून्य और पाप कमें के फजोपभोग { भनिष्ट वस्तु को पालि) में घोरवीर हो ॥ १॥
पुण्य पाप कमो के फल.इष्ट-मनिष्ट मस्तु के उपभोग के समय कुशलता का उत्पादक गुण { संपत्ति में गर्व-शून्यता और विपत्तियों में धैर्य धारण करना) 'शम' एवं कार्यारंभ किये जाने वाला उपोग 'व्यायाम' कहा जाता है ॥२॥
प्राणियों द्वारा पूर्वजन्म में किये हुये पुण्य व पाप कर्म को 'देव' ( भाग्य ) कहते हैं ॥३॥
व्यास ने कहा है कि जिसने पूर्व जन्ममें दान, मध्ययन व तप किया है, वह पूर्वकालीन अभ्यास वश इस जन्म में भी उसी प्रकार पुण्य कर्म में प्रकृति करता है ॥ १ ॥
नीतिपूर्ण (हिंसा व सत्य-आदि ) व अनीति पूर्ण (विश्वासघात आदि) कार्यो में किये जानेवाले उद्योग को 'पुरुषार्थ' कहते हैं, परन्तु कर्तव्य दृष्टि से विवेकी पुरुषों को श्रेय प्राप्ति के लिये नीतिपूर्ण सप्त. कार्य करने में ही प्रयत्नशील होना चाहिये ॥ १ ॥
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। तथा
पास:-येन यमचात पूर्व दाममध्ययन वः । सेनैवाभ्यासयोगेन सत्ययाम्पत्यवे पुनः ॥
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३६८
नीतियाक्यामृत
गर्ग ने नीतिपूर्ण सत्कार्य करने का उल्लेख करते हुये अनीति-यक्त असहकार्य करने का निषेध किया है ॥ १ ॥
भाग्य पुरुषाधं दोनों से ही प्राणियों की प्रयोजन सिद्धि होती है,एक से नहीं । सारांश यह है कि लोक में मनुष्यों को अनुकून भाग्य नीसि-पुर्ण पुरुषार्थ से इष्ट-सिद्धि और प्रतिकूल भाग्य व अनीतियत पुरुषार्थसे अनिष्टसिद्धि होती है, केवल भाग्य व पुरुषार्थ से नहीं ।। ५ ॥
समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि जो लोग अनुकूल व प्रतिक्त्त भाग्य द्वारा ही इष्ट व अनिष्ट पदार्थ की सिद्धि मानते हैं, उनके यहां जब उद्योग नगण्य है, तब नीति-पूर्ण पुरुषार्थ द्वारा अनुकून भाग्य
और मनीति-धक्त पुरुषार्थ द्वारा प्रतिकूल भाग्य का सम्पादन नहीं हो सकेगा । इसी प्रकार भाग्य द्वारा पपरा भनुरण चालू रहने से सांसारिक व्याधियों के कारण कर्मों का नैतिक पुरुषार्थ द्वारा स न होने से सुमित्री की प्राप्ति होता जोतिषिव्यापारादि व धार्मिक दान शील-दि कार्यो को सिद्धि के लिये किया जाने वाला पुरुषार्थ (व्योग ) निरर्थक हो जायगा .
इसी प्रकार जो लोग पुरुषार्थ से ही अय-सिद्धि मानते हैं, उनके यहां देव प्रामाण्य से पुलमा निष्फल नहीं होना चाहिये और समस्त प्राणियों का पुरुषार्थ सफज होना चाहिये । असः प्रसिद्धि में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों की उपयोगिता है, एक की नहीं । माथ में यह ध्यान देने योग्य है कि जिस समग मनुष्यों को इष्ट (सुखादि ) प पनिष्ट ( दुःखादि) पदार्थ विना उयोग किये अचानक प्राप्त होते हैं, वहाँ उनका अनुकूल व प्रतिकूल भाग्य हो कारण समझना चाहिये. वहाँ पुरुषार्थ गोल। इसी प्रकार पुरुषाप के जरिये होने वाले सुख दुखादि में नोति-मनीतिपूर्ण पुरुषार्थ कारण पर गौम है। अभिधाय यह है कि इष्ट अनिष्ट पदार्थ की सिद्धि में अनुकूल प्रतिफूज भाग्य व नीवि-मनोक्पिक्छ पुरुषार्थ इन दोनों की उपयोगिता है, केवल एक की नहीं ॥१३॥
गुरु' ने भी भाग्य व पुरुषार्थ वागअर्थ सिदि होने का निर्देश किया है ॥१॥
विवेकी मनुष्य को भाग्य के भरोसे ही बैठकर लौकिक (कपि व्यापागादि) था धार्मिक (दाम शीनादि) कार्यो में नीति-गणे पुरुषार्थ करना चाहिये ॥ ६॥
बल्लभदेव ने भी उद्योग वा प्रार्षिक लाभ का विवेचन करतेहुये भाग्य भरोसे न बेठार पुरुषार्थ करने का संकेत किया है॥१॥ पणच गर्गः -- नयो वायगयो वापि पाषेश प्रजापते । वस्माम्नः प्रकको भानपर विपरिता २ तथा समन्वभप्राचार्य:-गादेवार्थसिदिश्वर पौरुषसः कसा वैचवरदवियोगः पोहण पिफ वेत् ॥
पौरुषादेव सिरिसवेत् पौष देतः कथं । पौवादमो स्वात्समावि भदोपवावामिच्यानिट स्वदेवतः । बुटिपूर्णम्पपेशापामिनि स्पोवार १२॥
(मीमांसावा) या व गुरु-पथा मैकेन हस्तेम साखा संजायते मृणाम् । सपा मयते सिदिरेकरमा .. ३ तथा वसभ देष:-उबोगिनं पुरुषसिधमुपैति समीपन देवमितिकापुरमा बदन्ति ।
दैवं निहम कुरुपौलमात्मणवा; लेते बदिव सिपालिको दोषः ।
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व्यवहार समुद्देश
दुसरे कार्य को सिद्धि के विषय में सोचने बाले व्यक्ति को विना विचारे अचानक ही अगर किसो इष्ट अनिष्ट पदार्थ को प्राप्ति हो जाती है, तो उसे भाग्याधीन समझना चाहिये ॥ ७ ॥
शुक्र' ने भी अचानक प्राप्त हुईष्ट मानष्ठ अर्थ सिद्धि को भाग्याधीन कहा है॥१॥
मनुष्य बुद्धिपूर्वक सुखदायक पदार्थों की प्राप्ति व कष्टदायक पदार्थों से निवृत्ति करता है, वह एसके नौवक पुरुषार्थ पर निर्भर रे ॥ ८ ॥
शुक्र* ने भी बुद्धिपूर्वक सम्पन्न किये हुये कार्यों को पुरुषाय के अधीन बताया है ॥ ५ ॥
भाग्य अनुकूल होने पर भी यदि मनुष्य धाग-हीन (श्रालसी)है तो इसका कश्याण नही हो सकता, सारांश यह है कि विवेकी पुरुष भन्मभरोसे न धैठ कर सदा मौकिक व धार्मिक कार्यों में पुरुशर्ष करता रहे, इससे उसका कल्याण हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥1॥
वक्षभदेव ने भी समाग द्वारा कार्यानदि होने का समर्थन किया है १.
जिस प्रकार भाग्य-यश प्राप्त हुमा अन्न भाग्य के भरोसे रहने वाला व्यक्ति के मुख में स्वयं प्रविष्ट नहीं होता, किन्तुहस्व-संचालन आदि पुरुषार्थ द्वारा हो प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार केवा भाव भरोसे रहने वाले मनुष्य को कार्य में सफलता नहीं मिलती, किन पुरुषार्य करने से ही मिलती है ॥१०५
भागुरि' ने भी भाग्यवश प्राप्त हुये अन्न का दृष्टान्त दे कर उद्यम करने का समर्थन किया है ।।।
जिस प्रकार धनुष अपनो डोरो परवाणों को स्वयं पुरुष प्रयत्न के विना स्थापन नही कर सकता, उसो प्रकार भाग्याधीन पुरुष भो उद्योग के बिना किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ॥११॥
जैमिनि' के उद्धरण से भी वक्त दृष्टान्त द्वारा योग करने का समर्थन होता है ॥ १॥
पुरुषार्थ का सहारा लेकर कार्यारम् करने वाले मनुष्य को इष्ट-सिद्धि (मार्थिक लाभ पारि) भनय (भार्थिक हानि श्रादि) होने में संबह रहता है । सारांश यह है कि उपमा पुरुष पापारादि कार्य भारम्भ करता है, परन्तु इसमें मुझे प्रार्षिकझाम (मुनाफा होगा या नहीं ? अथवा इसमें मुझे हानि (पाटा) at नही हो जायगो ? इस प्रकार शकित रहता है । फर्सथ्य ष्टि से अभिप्राय यह है कि पुरुषार्थी ( उद्योगाशीय) पुरुष की मर्थ सिद्धि भाग्य का अनुकूलता पर ही निर्भर है, परन्तु भाप की प्रमुखाता व सिनता का निश्चय पुस्वार्थ किये बिना नहीं होता थप विपकी पुरुषको नात पुरुषाथ द्वारा सदा कचशील होना चाहिये - १२॥
पशिष्ठ' से भी पुरुषायों को शक्ति बताते हुये पुरुषार्थ को भोर प्रवृत्ति कराया ॥१॥ । तया -मम्पम्पिमानस्य यम्मपि जायते । शुमचा दिगपाई मान सत् ।।। याएक:हिपूर्ष तु पत्कर्म विपत्तेऽत्र शुभाशुभ | नरायतं प समशेय' सिव' पालिरमेव बमापक्षभदेष:-उधमेन हि सिदाचारित कार्याय मनोरयः । न हि सुप्तस्य सिंहस्प प्रविशन्त्रि मुखे सम्मः । तया मागुरिप्राप्त' देवववादन्न भासंस्थापि धेच्छुभं । हात्र प्रविशेद् वपन्ने पारप्रति मो . ...जैमिनि:-मांचमेन बिना सिविं कार्य गच्छति विचमा यथा पाप न गम्ति उपमेम विमा शराः । तपासवरिष्ठ:-पौरुषमाक्षितसोकस्य नुनमेकतम' भवेत् । धन' वा मरमवाय वशिष्ठए यो यथा...
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३७०
नीतिवाक्यामृत
जो मनुष्य भाग्य के भरोसे रहता है, उसका अकर्मण्यता के कारण अनर्थ होना निश्चित की है १३ नारद' ने भी देव को प्रमाण मानने वाले उद्योग-शून्य मनुष्य का अनर्थ होना बताया है ॥ १ ॥
जिस प्रकार आयु और योग्य और का मिलाप जीवन-रक्षा करता है, उसी प्रकार भाग्य व पुरुषार्थ दोनों का संयोग भी मनोवांछित वस्तु उत्पन्न करता है। अर्थात् जिस प्रकार आयु रहने पर ही श्रीष बीमार को स्वास्थ्य प्रदान करती है, आयु के त्रिना नहीं, उसी प्रकार भाग्य की अनुकूलता होने पर किया हुआ पुरुषार्थ मनुष्य को इष्ट-सिद्धि प्रदान करता है, भाग्य की प्रतिकूलता में नहीं ॥ १४ ॥ भारद्वाज ने भी आयु के बिना सैकड़ों औषधियों का सेवन निरर्थक बताया है ॥ १ । धर्मका परिणाम व धार्मिक राजा की प्रशंसा
अनुष्ठीयमानः स्वफलमनुभावयन्न कश्चिद्धर्मोऽधर्ममनुबध्नाति ||१५|| त्रिपुरुषमूर्तित्वान्न भ्रूज: प्रत्यक्ष देवमस्ति ।। १६ ।। प्रतिपन्न प्रथमाश्रमः परे ब्रह्मणि निष्णातमतिरुपासितगुरुकुलः सम्यग्विद्यायामधीती कौमारवयाऽलंकुर्वन् क्षत्रपुत्रा भवति ब्रह्मा । १७ संजातराज्यबुलक्ष्मीदीक्षाभिषेकं स्वगुणै: प्रजास्वनुराग' जनवन्तं राजानं नारायणमाहुः ||१८|| प्रवृद्धप्रताप तृतीयलोचनानलः परमैश्वर्यमातिष्ठमानो राष्ट्रकण्टकान् द्विद्दानवान् छेन यततं विजिगीषुभूपतिर्भवति पिनाकपाणिः ||१६||
- जब मनुष्यों द्वारा धर्म (अहिंसा व सत्य आदि) पालन किया जाता है तब वह (घ) उन्हें अपना फल देता है उनके पाप ध्वस करता है और अधम (पाप) उत्पन्न नहीं करता। अर्थात्धर्मानुष्ठान करने वाले को अब नहीं होता, क्योंकि धर्म रूपां सूर्य के उदय होने पर पापरूपी अंधेरान तो रह सकता है और न उत्पन्न ही हो सकता है। अतः प्रत्येक प्राणी को सांसारिक व्याधियों के कार पापों की निवृत्ति के लिये धर्मानुष्ठान करना चाहिये ||१५||
भगजिनसेन चायें ने भी अहिंसा, सत्य, क्षमा, शीख, तृष्णाका त्याग, सम्यग्ज्ञान व वैराग्य सम्पतिको धर्म और इनसे विपरीत हिंसा व झूठ आदि को अधर्म बताते हुए बुद्धिमानों को अनर्थपरिहार (दुःखों से छूटना) की इच्छा से धर्मानुष्ठान करने का उपदेश दिया है ||१||
राजा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति है, अतः इससे दूसरा कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है | ११६ ॥ मनु ने भी शुभाशुभ कर्मों का फन देने के कारण राजा को सर्वदेवतामय माना है ||१|| जिसने प्रथमा श्रम (ब्रह्मचयाश्रम को स्वःकार किया है, जिसकी बुद्धि परम ईश्वर या ब्रह्मचर्यव्रत )
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१ तास नावंद: – प्रभाकीत्य यो देवं नोथम कुरुते नरः । स नूनं नाशमायाति नारदस्य यो यथा ॥ १ ॥ २ तथा भारद्वाजः - विमायुषं न जीवेत मेषज्ञानां शतैरपि । न भेषजैर्विना रोगः कथम्बिनि शाम्यति ॥ १ ॥ ३ तथा च मगवजिन नार्थ :- धर्मः प्राणिदया सत्यं शान्तिः शौच दिसृप्तता । शामवै रा संपशिरधर्मस्वद्वियः धर्मैक पर छत्ते बुद्धोऽमर्थजिहासया । आणि पुराय पर्व १० तथाच मनुः सर्वदेवमयो राजा सर्वेभ्योऽप्यधिकोऽथवा । शुभाशुभफलं सोऽत्र देवाह घरे अवान्तरे ॥ १ ॥
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व्यवहार समुद्द
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३७१
में आसक्त है, गुरुकुल की उपासना करने वाला एवं समस्त राज-त्रिद्याओं (भान्जीक्षिकी, श्री, वातो व नीति का बत्ता विद्वान तथा युवराज पद व अलकत्र ऐसा क्षत्रिय का पुत्र राजा ब्रह्मा के समान माता गया है ।।
राज्य जन्मी की दोक्षा से अभिषिक्त, अपने शिष्टगखन व दुष्टनिमह आदि मद्गुणों के कारण प्रजा में अपने प्रति अनुराग उत्पन्न करने वाला राजा विष्णु के समान नीतिकारों द्वारा कहा गया है। रा व्यास ने भी राजा को विष्णु माना है ॥१॥
बढ़ी हुई है प्रताप रूपी तृतीय नेत्र को अग्नि जिसकी, परमैश्वर्य को प्राप्त होनेवाला, राष्ट्र के कटक शत्रु रूप दानत्रों के संहार करने में प्रयत्नशाल ऐसा विरंजा राजा महेश के समन यांना गया है । १६ ।
राज कव्य (उदासीन आदि राजमण्डल की देख रेख ) उदासीन, मध्यस्थ, विजिगोपु, अरि, पाहि असार अन्यद्धि का लक्षण --
उदासीन मध्यम चिजगीषु अमित्रमित्रपाणिग्राहाक्रन्द सारान्तद्ध यो यथासम्भव गुण गणविभ वतारतम्यान्मण्डलानामधिष्ठातारः ॥ २० ॥ ग्रतः पृष्ठतः को वा सन्निकृष्टे वा मण्डले स्थितमध्यमादीनां विग्रहीतानां निग्रह संहितानामनुग्रहे समर्थोऽपि केनचित् कारणं नान्यस्मिन् भूपती विजिगीषुमाणां य उदास्ते स उदासीनः||२१|| उदासीनवद निपत मण्डलोऽपर भूपापेक्षया समधिकचलोऽपि कुतश्चित् कारणादन्यस्मिन् नृपतौ विजिगीघुमायो मध्यस्थभावमवलम्बते स मध्यस्थः ।। २२ ।। राजात्मदेवद्रव्यप्रकृतिसम्पन्नो नयविक्रमयोरधिष्ठान शिंजगीषुः॥ २३ ॥ यत्र स्वस्याहितानुष्ठानेन प्रतिकूल्यमियति स एवारिः ॥ २४ ॥ मित्रलचणमुक्तमेव पुरस्तात् || २५ ।। यो विजिगीपी प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात् कोषं जनयति स पाणिग्राहः ।। २६ ।। पाणिग्राहाद्यः पश्चिमः स आक्रन्दः ||२७|| पाणिग्राहा मिश्रमा सार चान्द मिश्र च ॥ २८ ॥ अरि विजिगीपोर्मण्डलान्तविहितवृत्तिरुभयचेतनः पर्वताटकी कृताश्रयश्चान्तर्द्धिः || २६ ।।
अर्थ - राजमण्डन के अधिष्ठाता उदासीन, मध्यम, विजिगीषु, अरि, मित्र, वार्षिकमा आक्रन्द, आसार व अन्तर्हि है, जो कि यथायोग्य गुग्गुलमूह और ऐश्वर्य के तारतम्य से युक्त होते हैं। सारांश ह है कि विजिगीषु इन को अपने अनुकूल रखने का प्रयत्न करे || २० || अपने देश में वर्तमान जो राजा किसी अन्य विजिगीषु राजाके श्रागे पीछे या पार्श्वभाग में स्थित हो और मध्यम आदि युद्ध करने वाओं के नियह करने में और उन्हें युद्ध से उन्हें रोकने में सामर्थ्यवान् होनेपर भो किसी कारण से या किसी
१ तथा
सः नाविष्णुः पृथिवीपतिः
A पाठ मु० पुस्तक से संकलन किया गया है, सं०टी० पुस्तक में पाणिमाह मित्रमित्यादिपाठ है
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नीलिवाक्यामृत
अपेक्षा वश दुसरे विजिगीष राजाके विषय में जो उपेक्षा करता है उससे यु नहीं करता-से 'उदासीन' कहते हैं ॥ २१ जो पदासीन की तरह मर्यादानीत मंडल का रक्षक होने से अन्य राजा को अपेक्षा प्रबल सैन्यसे शक्तिशाली होनेपर भी किसी कारण वश (यदि मैं एककी सहायता करूगा तो दूसरा मुझसे वैर बाप लेगा-इत्यादि) विजय की कामना करने वाले अन्य राजा के विषय में मध्यस्थ बना रहता हैइससे युद्ध नहीं करता-वह 'मध्यस्थ' कहा गया है ॥ २२ ॥ जो राज्याभिषेक से अभिषित हो चुका हो,
और भाग्यशाली, ता, दिनलिमा हो एवं राजनीति में निपुण व शूरवीर हो, इसे "विजिवीष' कहते हैं ॥ २३ ॥ जो अपने निकट सम्बाम्धयों का अपराध करता हुआ कभी भी दुष्टता करने से धाज नहीं पाता उसे 'अरि' (शत्र) कहते हैं ॥ २४ ॥ पिछले मित्रसमुद्देश में जो मित्र' का लक्षण निरूपण किया गया है उस मशवाले को मित्र समझना चाहिये ।२५ विजिगीष के शत्र मत राजा के साथ युस के लिये प्रस्थान करने पर बाद में जो क.द्ध होकर उसके देश को नष्ट भ्रष्ट कर डालता है। उसे 'पाणिग्राह, कहते हैं ।। २६ । जो पाक्षिामाह से बिलकुल विपरीत चलता है--विजिगीष को विजय यात्रा में जो हर तरहसे सहायता पहुँचाता है, उसे 'आक्रन्द, कहते हैं। क्योंकि प्रायः समस्त मीमाधिपति मित्रता रखते है, अत: वे सब श्राक्रन्द है।। २७ । जो पाणिपाद का विरोधी और प्राकमसे मैत्री रखता है.. बापासार' है ॥ २८ ।। शत्र राजा का प विजिगीष गजा इन दोनों के देश में है जोविका सिमो-दोनौतरफ से वेतन पाने वाला १क्त व अदमी में रहने वाला 'बि' है ।। Re ||'
युद्ध करने योग्य शत्रु व उसके प्रति राजकतम, शत्र पोके भेद, शत्रता मित्राका कारण व मन्त्रशक्ति, प्रभुशस्ति और सरसाहशक्ति का कथन, व उत्त शक्तित्रय को अधिकता आदि से विजिगीष की श्रेष्ठता भादि
मराजचीजी लुब्धः क्षुद्रो विरक्तप्रतिरन्यायपरो व्यानी विप्रतिपमित्रामात्यमामन्तसेनापतिः शत्रु भियोक्तव्यः ॥ ३० ॥ अनाश्रयो दुवैलाश्रयो वा शत्रु रुच्छेदनीयः ॥ ३१ ॥ विपर्ययो निष्पीडनीयः कर्ण यद्वा ॥३२॥ सभामिजनः सहजशत्र: ॥३३॥ विरोधो विरोधयिता वा कृत्रिमः शत्र: ।। ३४ ॥ अनन्तरः शत्रु रेकान्तर मित्रमिति नैषः एकान्तः कार्य हि मित्रत्वामित्रत्ययोः कारणं न पुनधिप्रकर्षसन्निकर्षी ॥ ३५ ॥ ज्ञानबल मंत्रशक्ति A॥ ३६॥ घुद्विशक्तिरात्मशकोरपि गरीयसी ।। ३७ ॥ शशकेनेव सिंहव्यापादनमत्र दृष्टान्तः ॥ ३८॥ कोशदण्डबलं प्रशक्तिः ॥ ३९ ॥ शूद्रकशक्तिकुमागै दृष्टान्तो ॥४०॥ विक्रमो पलं चोत्सा. हशक्तिस्तत्र रामो दृष्टान्तः ॥४१॥ शक्तित्रयोपवितो ज्यायान शक्तित्रयापचितो हीन: समानशक्तित्रयः समः॥४२॥
अ-जो मार से उत्पन्न हो अथवा जिसके देश का पता मालम न हो, जोभी, दुष्टहरय-युक्त जिससे प्रजा ऊब गई हो, अन्यायी, कुमागंगामो, जुत्रा व प्रधान प्रादि व्यसनों में फंसा था, मित्र, अमात्य, सामन्त व सेनापति आदि राजकीय कर्मचारीगण जिमसे विरुद्ध हों. इस प्रकार के शत्र भूत राजा पर विजिगीष को प्राक्रमगार विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये ॥३०॥ A उक्त पारिणिक होने के कारण मु. ५० प्रति से संरखन किया गया है। सम्पादक
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व्यवहार समुरेश
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शुक्र विद्वान ने भी उक्त दोष वाले शत्र राजा को विजिगीषु द्वारा हमला करने योग्य बताया है।।१॥
विजिगीषु को प्राश्यहोन ( सहायकों से रहित ) व दुधैल पायवाले शत्र से युद्ध करके उसे नष्ट कर देना चाहिये ।। ३ ।।
शुक'ने भी उक्त प्रकार से शत्र को नष्ट करने के विषय में लिखा है । यदि कारणवश शत्र से संधि (मित्रता हो जावे. तो भी विजिगीष भविपके लिये अपना मार्ग निष्कपटक बनाने के लिये इसका समस्त छीनले या खसे संतरह दलित व शक्तिहीन करडाले, जिससे वह पुनः अपना सिर न उठासके॥३२॥ गुरु' ने भी सन्धिप्राप्त शत्रु राजा के प्रति विजिगीष का यही कर्तव्य निर्देश किया है।॥ १॥
अपने ही कुश का ( कुटुम्बी ) पुरुष राजा का स्वामाधिक शत्र है क्यों कि वह ईविश उसका नत्थान कभी न देख कर हमेशा पतन क विषय में उसी प्रकार सोया करता है, जिस प्रकार विलाय चूहे की कभी भी भलाई न सोचकर उसे अपना श्राहार बना डालता है ।। ३३ ।।
नारद ने विजिगीषु के गोत्रज पुरुषों को उसका स्वाभाविक शत्रु बताया है ॥ १॥
जिसके साथ पूर्व में विजिगीष बारा वैर विरोध उत्पन्न किया गया है तथा जो स्वयं आकर विजिगीष से वैर विरोध करता है-ये दोनों उसके कृत्रिम शत्र है। यदि ये बलहीन हैं, तो इनके साथ विजिगीषु को युद्ध करना चाहिये और, यदि प्रवल सैन्य-शक्ति-सम्पन्न हैं तो उन्हें सामनीति द्वारा सन्तुष्ट करना चाहिये || ३४॥
गर्ग' विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
दूरवर्ती ( मीमाधिपति--आदि ) शत्रु व निकटवतो मित्र होता है यह शत्रु मित्र का सर्वथा लक्षण . नहीं माना जासकता, क्योंकि शत्र ता व मित्रता के अन्य ही कारण हुश्रा करते है, दूरवर्तीपन व निकटवीपन नही। क्योंकि दूरवर्ती सीमाधीपति भी कार्यवश निकटवर्ती के समान शत्रु व मित्र होसकते हैं ।३५
शुक्र विद्वाम ने भी शत्रता व मित्रता के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
हानबल को मंत्र-शक्ति कहते हैं। शारीरिक बल से बुद्धिबल महान व श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि इसके समर्थन में अष्टान्त है कि बुद्धि पल में प्रवीण अल्प शारीरिक शक्तियुक्त किसी स्वरगोश ने प्रचंड शारीरिक शक्तिशाली शेरको भी बुद्धियल से मार डाला । सारांश यह है कि विजिगीष मंत्रशक्ति, प्रभुस्वशक्ति व उत्साहशक्ति से सम्पन्न होकर शत्र से विजयश्री प्राप्त कर सकता है अन्यथा नहीं। उसमें शारिक बल को अपेदा बुद्धिबम को प्रधानता है ।। ३६-३८ ।।
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। तथा च शुक्रः-विरक्तप्रकृतिवरो व्यसनी लोमसंयुतः । शुद्रोऽमास्यादिभिमुक्तः स गम्यो विजिगीषुणा ॥ १॥ २ तथा पराक्रः-समाश्रयो भदेरछत्रयों का स्याह बलाश्रयः । तेनैव सहित: सोऽत्र निहन्तव्यो जिगीषुणा ॥ १ ॥ ३ तथा च गुरु:-शामिनत्वमापको यदि मो चिन्तयेस्छिवम् | उत्कृर्षाद्विभवहीन युद्ध वा तं नियोजयेत् ॥ १॥ ४ तथा समान! - गोत्रा:शत्रः लवा..."तत्पदवाटकः । रोगस्येव न ताहिर कदाचिरफारसुधीः ।।
सयाच गर्ग:-यदि होनबल:शः कृत्रिमः संग्रजायते । तदा वण्डोऽधिको वा स्याह यो एस्पशक्तितः ।। ६ तथा च शुफ:- कार्यात्सीमाधिपो मित्रं भवेतपरजो रिपुः । विजिगोपुणा प्रकर्तव्यः शमित्रोपकार्यतः ||
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নীষিকামূৰ
. antan
पंचतन्त्र ' में भी यूशिल को प्रधान बल बताया है ।
जिस विजिगीषु के पास विशाल खजाना यहाथी, घोड़े, रथ व पैदल रूप चतुरंग सेना है,षद उसकी प्रभुत्वशक्ति है, जो कि उसे युद्ध भूमिमें शत्र को परास्त कर विजयश्री प्राप्त करानेमें सहायक होती है ॥३॥
शक्षक व शक्तिकुमार के दृष्टान्स इस कथन को समर्थन करने वाले उज्वल प्रमाण है। अर्थात् शाम के विजिगीष राजा ने अपनी खजाने की शक्ति से सुपरिजत व संगठन संघ द्वारा शक्तिकुमार नाम के शत्र राजा को युद्ध में परास्त किया था. यह उसकी प्रभुत्व राति का हो माहास्य था।॥ ४०॥
विजिगोष की पराक्रम व सैम्यशक्ति को 'उत्साह शक्ति' कहते हैं, उसके ज्वलन्त उदाहरण मोवा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र है, जिन्होंने अपने पराक्रम व वानरपंशीय हनुमान-प्रादि सैनिकों की सहायता से रावया को युद्ध में परास्त किया था ।। ४१ ॥
गर्ग ने भी पक सदाहरण देकर विक्रम व सैन्यशक्ति को 'बत्माहराक्सि' कहा है ॥ १॥
जो विजिगीषु शत्रु की अपेक्षा सक्त तीनों प्रकार की (प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति व पुत्साहशक्ति) शक्तियों से अधिक ( शक्तिशाली) होता है वह श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी दुद्ध में विजय होती है, और जो उक्त शक्तिमय से शन्य है, वह अधन्य है, क्योंकि वह शत्रु से हार जाता है एवं जो उक्त तीनों शक्तियों में शत्रु के समान है, वह सम है, उसे भी शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिये ॥ ४२ ॥
गुरु ने भी समान शक्ति-युक्त विजिगोषु को यद्ध करने का निषेध किया है॥१॥
पाइगुण्य (सन्धि विग्रह-शादि) का निरूपणसन्धिविग्रहयानासनसंश्रयद धीभावाः पाडगुण्यं ॥४३॥ पणबन्धः सन्धिः ॥४४॥ पपराधो विग्रहः ॥४५॥ अभ्यदयो यानं ।।४६।। उपेक्षणमासनं ॥४७॥ परस्यात्मार्पणं संश्रयः ॥४८॥ एकेन सह सन्यायान्येन सह विग्रहकरणमेका वा शत्रौ सन्धानपूर्व विग्रहो द्वैधीभावः ॥४६॥ प्रथमपक्षे सन्धीयमानो विगृह्यमाणो विजिगीषुरिति वैधीभावो ऽध्यायः ॥५०॥
अर्थ-सन्धि (मंत्री करना) विग्रह- युद्ध करना, पान-शत्रु पर पढ़ाई करना, बासन-शत्रुकी अपेछा करना व संभय-मात्म समर्पण करना ये राजाओं के पद गम है ।। १३ ॥ विजिगोषु अपनी दुखेसाठा वश बलिष्ठ शत्रु राजा के लिये धनादि देकर उससे मित्रता करता है, उसे 'बि' कहते है ।
शुक ने सन्धिके विषय में इसी प्रकार कहा है ।। १॥
विमिगी किसी के द्वारा किये हुए अपराध-वश युद्ध करता है वह विग्रह है l विजिगीषु द्वारा शत्रु पराक्रमण किया जाना उसे 'यान' कहते है अथवा शत्रु को बग्ने से ज्यादा बलिष्ठ समझ कर किसी दूसरे स्थान पर बने जाना भो ‘यान' है।४६|| सबज शत्रु को माक्रमण करते सस्पा देखा
तयाक्त'- परम बुद्धि तस्प निश्च कुतो बसम् । बमे सिंहो मदोन्मत्सः शाशन निपातितः ।। २ तथा च :- सहजो विक्रमो यस्य सैन्य बहुसरं भवेष । तस्योसाहो तपुरमा ?......"दाशरः पुरा ॥ तथा • गुरु- सममापि न योदय यचुपायत्रर्य भवेत् । अन्योन्याति ? यो संगो द्वामा सजायते यत: Man तथा व शुक्रः लो बसिनं यश्र पदानेन तोषये सावधिर्भवेतस्थ पावन्मात्रः प्रल्पितः ॥5॥
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व्यवहार समुदेश
ससकी उपेक्षा करना ( उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जाना ) श्रामन कहलाता है ॥४॥ बलिष्ठ शत्र हरा देशपर आक्रमण होने पर जो उसके प्रति आत्मसमर्पण किया जाता है, उसे 'श्रय' कहते हैं ॥४८ मावान और नियल दोनों शत्रुओं द्वाग अाक्रमण किये जाने पर विजिगपु को बजिष्य के साथ सम्धि और नियंस के साथ युद्ध करना चाहिये अश्या यनिष्ठ के साथ मन्यिपूर्वक जो युख किया जाता है
से धीभाव' कहते है 11५६||जब विजिगीषु अपन से यनिष्ठ शत्रुके साथ पहिले मित्रता स्थापित कर लेता है और फिर कुछ समय बाद शत्रु क होन शक्ति हो जाने पर उसीसे युद्ध छेड़ देता है उस धुद्धि-माश्रित 'वैधीभाव' कहत है, क्योंकि इस निमितीपुकी विचित बनी है !!
सन्धि, विप्र-सादि के विषय में विजिगीर का कप्तव्यदीयमानः पणबन्धन मन्धिमुपेयान यदि नास्ति परपा विपणितेऽर्थे मर्यादोन्लंघनम् ॥५१॥ अभ्युच्चीयमानः परं विगृह्णीयायदि नास्त्यान्मबलेषु क्षोभः।।५२) न मा परा हन्तुनाई पर हन्तुशक्त इन्यासीन यद्यायल्यामस्ति कुशलम् ॥५३॥ गुणातिशययुक्तो यायाद्यदिन सन्ति राष्ट्रकण्टका मध्ये न भवनि पश्चात्त्रोधः ॥५४॥ स्वमएडलमपरिपालयतः परदेशाभियोगो विवसनस्य शिरोवेष्टनांमय ॥५॥ रज्जवलनमित्र शक्तिहीनः संश्रयं कुर्यायदि न भवति परसामामिपम् ।।५६।।
जब विजिगीष शत्र को अपेक्षा होनशक्ति वाला हो, तो उसे शत्र राजा के लिये प्रायिक दंड ( धनादि) दकर उस हालत में सम्धि कर लेनी चाहिये जबकि उसके द्वारा प्रतिज्ञा की हुई व्यवस्था में मर्यादा का उल्लंघन न हो। अर्शन शपथ-अदिग्विलाकर भविष्य में विश्वासघात न करने का निश्चय करने के उपरान्त ही सन्धि करनी चाहिये, अन्यथा नहीं ॥५१॥
शुक्र' ने भी हीन शनिवाले विजिगीषु को शत्र के लिये आर्थिक दंड देकर मन्धि करना असत्या है ॥५॥
यदि विजिगीप शत्रु राज्ञा मे मैन्य व कोप आदिमें अधिक शक्तिशाली है और यदि उसकी सेनामें क्षोभ नहीं है, तब इसे शत्र से युद्ध में देना चाहिये ।।२।।
गुर ने भी लिष्ट, विश्वासपात्र व मैन्यसहित विजिगीपुको युद्ध करने का निर्देश किया है।
यदि विजिगीष शत्र द्वारा भविष्यकालीन अपनी कुशलता का निश्चय कर ले कि शत्र मुझे न नहीं करेगा और न मैं शत्र को, तब उसके साथ विप्रहनकर मित्रता ही करनी चाहिये ||१३||
जैमिनि ने भी मामीन शत्रु गजा के प्रति युद्ध करने का निषेध किया है ||१० विजिगीपु. ५दि सर्वगुण सम्पन्न ( प्रचुर सैन्य व कोप शक्तियुक्त) है एवं उसका राज्य निष्कएक है
तथा च शुक:- होयमानेन दातम्यो दएकः शमोजिगोपुणा ।बज्ञयुकेन याकार्य है समं निधिमिनिरपषों? ॥ २ तथा च गुरुः-यदि स्यादधिका शन्नोविजिगीषु निबौ: । सोमन रहित: कार्यः शत्रणा सह विमहः ॥ . । तया च जैमिनि:- न विग्रह स्वयं यांदासोने परे स्थिते । बलात् येनापि यो न स्यादायस्यां घटितं उभं ॥ १ ॥
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३७६
नोतिवाक्यामृत
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तथा प्रजा आदि का उस पर कोप नहीं है तो उसे शत्रु के साथ युद्ध करना चाहिये। अर्थात् उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि युद्ध करने से उसके राज्य को किसी तरह की कानि तो नहीं होगी || भागुर' ने भी गुण युक्त व निष्कण्टक विजिगीषु को शत्रु से युद्ध करन को लिखा है ॥२॥
जो राजा स्वदेश की रक्षा न कर शत्रुके देशपर आक्रमण करता है, उसका यह का नगेको पगड़ी बांधने के समान निरर्थक है अर्थात् जिस प्रकार नंग की पगड़ी वाच लेन पर भी उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती, उसी प्रकार अपने राज्य की रक्षा न कर शत्रु के देश पर हमला करने वाले राजाका भी संकटों से छुटकारा नहीं हो सकता ||४||
·
विदुर ने भी विजिगोपु को शत्रु राष्ट्र को नष्ट करने के समान खराष्ट्र के पारपाचन में प्रयत्न करने को कहा है ||६|
५६ ॥
सन्य व कोष आदि की शॉक से तो हुए विजि को यदि शत्रुभूत राजा व्यती नहीं है, ती उसके प्रति आम कर देना चाहिये ऐसा करने से निल विजिग उसी प्रकार शक्तिशाली हा जाता है जिस प्रकार अनेक तन्तुओं के आश्रय से रस्सी में मजबूता आजाती है गुरु ने भी शनिद्दीन राजाको शक्तिशाली शत्रु के प्रति आप शक्तिहीन व अस्थिर के आश्रय से हानि, स्वाभिमानी का कत्तव्य प्रयोजन-वश विजिगीषु का कर्तव्य राजकीय कार्ये व श्रीभाव
करना बताया है ॥ ॥
बलवद्भयादबलवदाश्रयणं हस्तिमयादेरण्डाश्रयमिव ।। ५७ ।। स्वयमस्थिस्थिरायणं नद्यां बहमाननवमानस्याश्रयमिव ॥ ५८ ॥ वरं मानिना मरणं न परच्छानुवर्तनादात्मविक्रयः ।। ५६ ।। आयतिकल्याणं सति कस्मिश्चित्सम्बन्धे परसंश्रयः श्रेयान् ॥ ६० ॥ निधानादिव न राजकार्येषु कालनियमस्ति ॥ ६१ ॥ मेत्थानं राजकार्याणामन्यत्र च शत्रोः सन्धिविग्रहाभ्याम् || ६२ ॥ ॐ धीमा गच्छेद् यदन्यो वश्यमात्मना महात्सहते ॥ ६३॥ अर्थ - शक्तिदीन विजिगीष शक्तिशाली ही आश्रय जेबे, शक्तिहीन (निवेल) का नहीं, क्योंकि जो विजिगीषु बलिष्ठ शत्रु के आक्रमणके भयस महीनका आश्रय लेता है, उसका उसी प्रकार हाति होनी है, जिन प्रकार दाथाद्वारात वा उपद्रव के डर से पड़ पर चढ़ने दाजे मनुष्य की तत्काल हानि हाता है । अथात् जिस प्रकार हाथी के श्राक्रमण के भय से बचाव करने वाला निस्सार एण्ड के वृक्ष पर चढ़ने से परण्ड क साथ र पृथ्वी पर गिर जाता है और पश्चात् हावी द्वारा न कर दिया जाता है, उसी प्रकार बलवान् शत्र के अक्रम के डर से बचने वाला विजिगीषु शक्तिद्दानका आश्रय लेने से उस के साथ २ नष्ट कर दिया जाता है - बलिष्ठ शत्रु द्वारा मार दिया जाता है। सारांश यह है कि एरण्ड समान निस्कार ( शक्तिहीन के आश्रय से भविष्य में होने वाला अनर्थ तत्काल हो जाता है ॥ ५७ ॥
: तथा च भागुरियुक्तोऽपि भृशलोऽपि यायाद्विद्विषोपरि ? यतेन हि राष्ट्रस्य वद्रवः शत्रो ऽपरे ॥ १ ॥ २ तया च विदुरः एतयः परमः कर्तव्यः स्वराष्ट्रपरिपालने ॥ ॥ ३ तथा च गुरु – स्याय शक्तिस्तु विजिन नावान् बलात् ॥ १ ॥
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व्यवहार समुरेश
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भार' ने भी शक्तिहीन के आश्रय से विजिगीषु की इसी प्रकार हानि पवाई है ॥ १॥
शत्रु द्वारा सताया गया विजिगीषु जब अपने समान शत्रु द्वारा सखाये हुये अन्य राजा का माश्रय लेता है, तो वह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार नदी में बहने या दूबने वाला दूसरे पहने या डूबने वाले व्यक्ति का प्राश्रय लेने से नष्ट हो जाता है। अतः अस्थिर (श-परिवर-लोणशक्ति) को स्थिर का हो पाश्रय लेना चाहिये, अस्थिर का नहीं ।। ५८ ॥
नारद ने भी क्षीणशक्ति पाले का माश्रय लेने से इसी प्रकार हानि बताई है॥१॥
स्वाभिमानी को मर जाना बच्छा, परन्तु पराई इच्छापूर्वक अपने को बेचना अच्छा नहीं, अतः स्वाभिमानो को शत्र के लिये पात्मसमर्पण करना उचित नहीं । ५En
नारद ने भी शत्र को आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा स्वाभिमानी के लिये मृत्यु प्राप्त करना हो अधिक श्रेष्ठ बताया है ।। १ ।।
___ यदि विजिगीषु का भविष्य में कल्याण निश्चित हो तो उसे किसी विषय में शत्र को प्रधानता स्वीकार करना श्रेष्ठ है ॥६० ॥
हारोत' ने भी उक्त प्रयोजन-बश शत्र संश्रयको श्रेयस्कर बताया है॥१॥
जिस प्रकार खजाना मिलने पर उसी समय उसे प्रहण किया जाता है, उसमें समय का उम्सामन नहीं किया जाता उसी प्रकार राजसेवकों को भी राजकीय कार्यों के सम्पादन करने में समय नहीं चलाना चाहिये, तु तत्काल सम्पन्न करता पाये ।। ६ ।।
गौसम ने भी राजसेवकों का यही कसैन्य बताया है।॥१॥
जिस प्रकार नम मण्डल में मेष (बादल) अचानक ही उठ जाते हैं, उसी प्रकार राजकीय कार्यों की उत्पत्ति अचानक ही हुआ करती है, अतपय सन्धि व विग्रह को छोड़ कर अन्य राजकीय कार्यों को सम्पन्न करने में विलम्ब नहीं करना चाहिये ।। ६२ ।।
गुरु ने भी संधि विग्रह को छोड़कर अन्य राजकीय कार्य मेघ सरश अचानक पाप्त होने वाले व तत्काल करने योग्य बताये है ॥ १॥
___ जय विजिगीपुको यह मालूम हो जावे कि थाक्रमणकारीका शत्रु उसके साथ युव करनेको तैयार है, (दोनों शत्रु परस्परमें युद्ध कर रहे हैं ) तब इसे वैधीभाव (वशिष्ठ से सन्धि व निर्वलसे युद्ध) अवश्य करना चाहिये ।। ६३॥
तथा प मागुरि:- संघबाइ यस्य बकासोनं यो पलेन समाश्रयेत् । स तेन सह मश्वेत पौरपाया गः ॥॥ २ तथा नारदः-बलं बानिनेनैव सह मश्यति निश्चित । नीममानो मथा नया मीषमान समाश्रितः ॥१॥ ३ तथा प नारदः-वरं वनं पर मृत्युः साहकारस्य भूपतेः। म शवोः संश्रयाद्राज्य.."कार्यव्यंजन || ॥
तथा घ हारीत:-परिणाम शुभ ज्ञात्वा शत्रुनः संश्रयोऽपि । करिमश्विद्विषये कार्यः सतत चन || | ५ तथा च गीतमः-निधानदर्शने यद्वकासपो न कार्यते । राजकृत्पेषु सर्वेषु तथा कार्य: सुसेवकः॥१॥ ६ तथा गुरु:--राजस्यचिन्त्य पदकस्मादेव जायते। मेवबाह रमणकार्य मुक्दै सम्धिविग्रह ।।
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नीतिवाक्यामृत
___ग ने भी दुधीभाव करने का यही मौका बताया है ।॥ १॥
दोनों बलिष्ठ विशिदीपुत्रों के मध्यवर्ती शत्र, सीमाधिपति प्रसि विजिगोषु का कत्तव्य, भूमिफल (धान्यादि ! देने से लाभ व भूमि देने से हानि, चक्रवर्ती होने का कारण तथा वीरता से लाभ
बलद्वयमभ्यस्थितः शत्रुर भयसिंहमध्यस्थितः करीव भवति सुखसाध्यः ॥ ६४ ॥ भूम्यर्थिन भूफलप्रदानेन संध्यात् ।। ६५॥ भूफलदानमनित्यं परेषु भूमिर्गता गतैव ॥ ६६ ॥ अवज्ञयापि भूमावारोपितस्तरभवति बद्धतलः ॥६७॥ उपायोपपनधिक्रमोऽनुरक्तप्रकृतिरल्पदेशोऽपि भूपतिर्भवति सार्बभौमः ॥ ६८॥ न हि कुलागता कस्यापि भूमिः किन्तु वीरभोग्या वसुन्धरा ।। ६६ ॥
अर्थ-दोनों विजिगीषुओं के बीच में घिरा हुआ शत्रु, दो शेरों के बीच में फंसे हुये हाथी के समान सरलता से जीता जा सकता है ।। ६४ ।।।
शुक्र ने भी दोनों विजिगीषुषों से आक्रान्त शत्र को सुखसाध्य बताया है ॥१॥
जब कोई सीमाधिपति शक्तिशाली हो और वन विजिगीषु की भूमि प्रहण करने का इच्छुक हो तो इसे भूमि से पैदा होने वाली धाम्य ही देकर उससे सन्धि करलेनी चाहिये, न कि भूमि देकर ॥ ६ ॥
गुरु' ने भी शक्तिशाली सीमाधिपति के लिये भूमि न दे कर उससे उत्पन्न होने वाली धान्य वेने को कहा है ॥ १॥
क्योंकि भूमिमें उत्पन्न होने वाली धान्य विनश्वर होने के कारण शत्रु के पुत्र-पौत्रादि द्वारा नहीं भोगी जा सकती, जद कि भूमि एकवार हाथ से निकल जाने पर पुनः प्राप्त नहीं हो सकती ॥ ६६॥
गुरु ने भी बलिष्ठ शत्रुभूव राजा को भूमि को छोड़ कर उससे सत्पन्न हुई धान्याहिका देना कहा है
जिस प्रकार तिरस्कारपूर्वक भी आरोपण किया हुआ वृक्ष पृथ्वी पर अपनी जड़ों के कारण से ही फैलता है, उसी प्रकार विजिगीष द्वारा दो हुई पृथिवी को प्राप्त करने वाला सीमाधिपति भी मूल (शक्तिशाली ) हो कर पुनः उसे नहीं छोड़ता ॥ ६७ ।।
भ्य विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १॥
साम-दानादि नैतिक उपायों के प्रयोग में निपुण, पराक्रमो व जिससे अमात्य-प्रादि राज-कर्मपारीगण एवं प्रजा भनुरक्त है, ऐसा राजा पल्प देश का स्वामी होने पर भी चक्रवर्ती के समान निर्भए १ तथा च गर्ग:-पपसी सन्धिमावातु युद्धाय कुरुते क्षणं । निश्चयेन तदा तेन सह सविस्तया रपम् ॥७॥ • तथा च शुक्रः-सिंहयोर्मध्ये यो हस्ती पुखसाध्यो यथा भवेत् । तया सीमाधिपोऽन्येन विगृहीतो वो भवेत् ॥1॥ २ तथा च गुरु:-सीमाधिपो बलोपेतो यदा भूमि प्रपामते । तदा तस्मै फल देय भुमेध धरा मिजाम् ॥॥ ४ तथा व गुरु:-भूमिपम न दातव्या मिशा भूमिवीयसः | स्तोकापि वा भय क्षेत् स्या-स्मा - तरूपम् || ५ तया च रेभ्यः-लीलयापि हितौ सूतः स्थापितो वृद्धिमाप्नुयात् । तस्या गुणेन नो भूपः कस्माविहन वर्धते ॥॥
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व्यवहार समुद्देश
माना गया है ॥ ६८ ॥ कुलपरम्परा से चलो आनेवाली पृथिवी किसी राजा की नहीं होती, बल्कि वह वीर पुरुष द्वारा ही भोगने योग्य होती है, अतः राजा को पराक्रमशोल होना चाहिये ।। ६६ ।।
शुक' ने भी कहा है कि वंशपरंपरा से प्राप्त हुई पृथिवी वीरों को है, कायरों की नहीं ॥ १ ॥
રમ
¶ 14 **
सामआदि चार उपाय, सामनीतिया भेदपूर्वक लक्षण, आत्मोपसन्धान रूप सामनीतिका स्वरूप, दान, भेद और दंडनीत्रि का स्वरूप, शत्रु के दूत के प्रति कर्त्तव्य व उसका दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण एवं के निकट सम्बन्धी के गृहप्रवेश से हानि
शत्रु,
सामोपप्रदानभेददण्डा उपायाः ||७० || तत्र पंचविधं साम, गुणसंकीर्तनं सम्बन्धोपाख्यानं परोपकारदर्शनमायति प्रदर्शनमात्मोपसन्धानमिति ॥ ७१ ॥ यन्मम द्रव्यं तद्भवता स्वकृत्येषु प्रयुज्यतामित्यात्मोपसन्धानं ॥ ७२ ॥ बहर्थ संरक्षणायान्पार्थप्रदानेन परप्रसादनमुपप्रदानं।७३ यांगतीक्ष्णगूढपुरुषोभपवेतनैः परवलस्य परस्परर्शकाजननं निर्भर्त्सनं वा भेदः ॥७४॥ वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं च दण्डः ॥ ७५ ॥ शत्रोरागतं साधु परीचय कन्याण बुद्धिमनुगृहीयात् १७६ किमररायजमीपधं न भवति चेमाय ||७७ | गृहप्रविष्टकपोत व स्वल्पोऽपि शत्रु सम्बन्धो लोकतंत्र मुद्वासयति ॥७८॥
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अर्थ - शत्रुभूत राजा व प्रतिकूल व्यक्ति को वश करने के चार उपाय हैं १-साम, २- उपप्रदान, ३-भेद व ४-दंडनीदि ॥३०॥ सामनीतिके पांच भेद हैं-गुण संकीर्तन - प्रतिकूल व्यक्ति को अपने वशीभूत करने के जिये उसके गुणों का उसके समक्ष कथन द्वारा उसकी प्रशंसा करना, २-सम्बन्धोपाख्यान - जिस उपाय से प्रतिकूल दक्त की मित्रता दृढ़ होती हो, उसे उसके प्रति कहना; ३ विरुद्ध व्यक्ति की भलाई करना, ४ - आयविप्रदर्शन - हम लोगों को मैत्री का परिणाम भविष्य जीवन को सुखी बनाना है' इस प्रकार प्रयोजनार्थी को प्रतिकूल व्यक्ति के लिये प्रकट करना, और ५- आत्मोपसन्धान - 'मेरा धन आप अपने कार्य में उपयोग कर सकते हैं इस प्रकार दूसरे को वश करने के लिये कहना ||७||
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व्यास ने भी कहा है कि जिस प्रकार कर्कश वचनों द्वारा सज्जनोंके चित्त त्रिकत नहीं होते, जमी प्रकार सामनीति से प्रयोजनार्थी का कार्य विकृत न होकर सिद्ध होता है, और जिस प्रकार शक्कर द्वारा शान्त होने वाले पित्त में पटोल ( ओषधि विशेष ) का प्रयोग व्यर्थ है, उसी प्रकार सामनीति से सिद्ध होने वाले कार्य में दंडनीति का प्रयोग भी व्यर्थ है ||२||
शत्रुको वश करने के अभिप्राय से उसे अपनी सम्पत्तिका उपभोग करने के लिये विजिगीषु द्वारा इ कार का अधिकार दे दिया जाता है 'कि यह सम्पत्ति मेरी है, इसे आप अपनी इच्छानुसार कार्यों में
१ तथा शुक्रः — कातराणां न वश्या स्वाद्यद्यपि स्यात् क्रमागता । परकीयानि चात्मांचा विक्रम यस्य भूपतेः ॥ १ ॥ २ तथा च व्यासः - साम्ना यरिसद्धिदं कृत्यं तत्तो नो विकृति यजेत् । सज्जनानां यथा वित्तं कुरुक्क रवि कोसितैः ॥ १ ॥ साम्य यत्र सिद्धि दो बुधेन विनयोग्य दिशा शाम्यति तकि एटोजेन ॥ २ ॥
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नीविवाक्यामृत
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लगा सकते हैं इसे 'प्रात्मोपसन्धान नाम की सामनीति कहते हैं ॥७२॥ जहां पर विजिगीषु शत्र, से पपनी प्रचुर सम्पत्ति के संरक्षणार्थ उसे थोडासा धन देकर प्रसन्न कर लेता है इसे 'उपप्रदान' (दान) नीति कहते हैं ७३
शुक्र 'ने भो शत्र से प्रचुर धन की रक्षार्थ उसे थोड़ा सा धन देकर प्रसन्न करने को 'उपप्रदान' कहा है ॥
विजिगीषु अपने सैन्यनायक, तोषण व अन्य गुप्तचर तथा दोनों तरफसे घेतन पाने वाले गुप्तचरों द्वारा शत्रुकी सेनामें परस्पर एक दूसरे के प्रति सन्देह वा तिरस्कार उत्पन्न कराकर भेद (फूट) डालने को भेद नीति कहा है ॥४॥
गुरु' ने भी उक्त उपायद्वारा शत्रु सेना में परस्पर भेद डालने को 'भेदनीति' कहा है।
शत्र का वध करना, उसे माखत करना या उसके धन का अपहरण करना दंडनीति है ||७५३ अमिनि' विद्वान ने भी दंडनीति की इसी प्रकार व्याख्या की है ॥१॥
शत्र के पास से आये हुए मनुष्य की सूक्ष्म बुद्धि से परीक्षा करने के उपरान्ट ही विश्वस्त सिद्ध होने पर उसका अनुप्रह करना चाहिये,भपरीक्षित का नहीं ||६||
भागुरि ने भी शत्रु के यही से पाये हुप व्यक्ति की परीक्षा करने के बारे में संकेत किया है ॥
क्या अंगल में उत्पन्न हुई ओषधि शारीरिक आरोग्यता के लिये नहीं होती? अवश्य होती है उसी प्रकार शत्र के यहां से माया हुश्रा व्यक्ति भी कराण कारक हो सकता है ॥७॥
गुरू ने भी कहा है कि जिस प्रकार शरीरवर्ती व्याधि पोडाजनक और जंगल में पैदा होनेवाली भौषधि हितकारक होती है उसी प्रकार अहित-चिन्तक बन्धु भी शत्र व हितचिन्तक शत्रु भी बन्धु माना जावा है। १५
जिस प्रकार गृह में प्रविष्ट हुआ कबूतर उसे ऊजह बना देता है, उसी प्रकार शत्र पलका छोटा सा भी व्यक्ति विजिगीष के सत्र (सैन्य) को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है ।।
वादनारायण ने भी शत्रु दलके साधारण व्यक्तिका गृहप्रवेश राजतन्त्रका नाशक बताया हो।
उत्तम लाम, भूमि-लाम की श्रेष्ठता, मैत्री भाव को प्राप्त हुए शश्रुके प्रति कत्तय, जिगीषु की निशा का कारण, शत्रु चेष्टा जानने का उपाय, शत्र, निपह के उपरान्त विजिगीषु का कर्तप, प्रतिद्वन्दी के विश्वास के साधन य शत्र पर चढ़ाई न करने का अवसर
मित्रहिरण्यभूमिलाभानामुत्तरोत्तरलाभः श्रेयान् ॥७९॥ हिरण्यं भूमिलाभाद्भवति मित्रं च । तथा च का स्वामितन मद राजोः प्ररपते | परप्रसादन पत्र प्रोक्तं तस विचः ॥ १॥ तथा गुरु-सैम्प विष तथा गुप्ताः पुरुषाः सेवकारमकाः। तेश्च भेदः प्रकर्तव्यो मिथ: सैन्यस्य भूपतः ॥ १ ॥
पाच मिनि:-वधस्त क्रियते पत्र परिक्लेशोऽया रिणः । अर्थस्य प्राण भूरिदण्डः स परिकीर्तितः ॥ ॥ । तथा च भागुरिः-शत्रो: सकारातः पास सेवार्थ शिष्टसम्मत । परीक्षा तस्य कृत्याय प्रसादः क्रियते ततः ॥ १॥ १ तथा शका-पोऽपि हितवान् बन्धुरप्यहितः परः । अहियो देहलो व्याधिर्हितमारण्यमौषधं ॥ ३ ॥ तपा च भादरायणः-शत्रुपक्षभधो लोकः स्तोकोऽपि गृहमावि शेत् । यदा तदा समापते तगृहप कपोसवत् ॥1॥
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हिरण्यलाभादिति ||८०|| शत्रोमित्रत्वकारणं विमृश्य तथाचरेद्यथा न वञ्च्यते ॥ ८१ ॥ गृढोपायेन सिद्धकार्यस्यासंवित्ति करणं सर्वा शकी दुवादी च करोति ॥ ८२ ॥ गृहीतपुत्रदारानुभययेतनान् कुर्यात् ॥ ८३ ॥ शत्रु मपकृत्य भूदानेन तद्दायादानात्मनः सफलयेत् क्लेशयेद्वा ॥ ८४ ॥ परविश्वासजनने सत्यं शपथ प्रतिभूः प्रधानपुरुपपरिग्रहो बा हेतुः ॥ ८५ ॥ सहस्र कीयः पुरस्ताल्लाभः शतैकीयः पश्चात्कोप इति न यायात्॥ ८६ ॥ सूचीमुखा न भवन्त्यल्पेनापि सूचीमुखेन महान् दोरकः प्रविशति || ७ ||
व्यवहार समुद्देश
11-444*** and
अर्थ-मित्र, सुत्र व भूमि-लाभ इन लाभों में उत्तरोत्तर- आगे आगे की वस्तु का लाभ कल्याण कारक है अर्थात्-मित्र की प्राप्ति है व उसको अपेक्षा सुर को पूर्व सुत्रर्ण प्राप्ति की अपेक्षा भूमि की प्राप्ति है, अतः विजिगीषु को भूमिकी प्राप्ति करनी चाहिये ||१||
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बनाया है ||१||
गगं' ने भी मित्र लाभ से स्वर्णलाभ व स्वर्ण लाभ से भूमिलाभ का सर्वत्र क्योंकि भूमि की प्राप्ति से सुवर्ण प्राप्ति व सुत्र प्राप्ति से मित्रप्राप्ति होती है शुक्र" " ने को शरदन ( दरिद्र) राजा को भूमि व मित्रका अभाव और कोशयुक को उक्त दोनोंकी प्राप्ति बताई है ॥ ५ ॥
॥ ५० ॥
विवेकी पुरुष शत्रु की मित्रता का कारण सोच समझकर उससे ऐसा व्यवहार करे, जिससे कि वह उसके द्वारा उगाया न जा सके ॥८१॥
शुक्र ने कहा है कि बिना विचारे शत्रु से मित्रता करनेवाला निस्सन्देह उससे उगाया जाता है
संधि को प्राप्त हुए जिस शत्रु राजा द्वारा गुप्त रीति से विजिगीषु का प्रयोजन सिद्ध किया गया है उसका यदि यह उचित सन्मानादि नहीं करता तब उसके मनमें इसके प्रति अनेक प्रकार की आशंकाएँ उत्पन्न होती हैं। अर्थात् यह ऐसी श्राशा करता है कि मेरे द्वारा उपकृत यह विजिगेषु पहिले तो मुझ से अनुकूल हुआ मेरा उचित सम्मान करता था, परन्तु मात्र मुझसे प्रतिकूल रहता है, इससे मलम होता है कि इसकी मेरे शत्रु मे मैत्री हो चुकी है इत्यादि । एवं जनता में इस प्रकारकी निन्द्राका पात्र होता A इसके पश्चात् मु० म० पुस्तक में स्वयम सायश्चेत् भूमिरियला मायालं भवति तदा मित्र गरीयः ॥ १ ॥ सहानुयापि मित्र स्वयं का स्वास्तु भूमिमित्राभ्यां हिरवं गरीयः २ ॥ यह विशेष पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि सहायक से दोन राजा पृथिबी व स्वयं की प्राप्ति करने में असमर्थ होता है। अतः उक्त दोनों लाभों मित्रका लाभ श्रेष्ठ है सदा साथ देने वाला मित्र वा स्वयं स्थिरशील भूमि की प्राप्ति इव्याधीन है, अतः भूमि व मित्र-लाभ मे सुवर्ण लाभ श्रेष्ट है ॥ १.२ ॥
१ तथा गर्ग- उत्तमो मित्रलाभस्तु हेमलाभस्ततो यरः । तस्माच्छ्रेष्ठतरं चैव भूमिलाभं समाश्रयेत् ॥ १ २ तथाच शुक्रः न भूमिर्न च मिश्राणि कोशनष्टस्य सूपतेः । द्वितीयं तद्धरेत्पयो यदि कोशो भवेद्गृहे ॥ १॥ ३ तथा शुक्र पर्यालोचं विना कुर्यायो मैत्री रिपुणा सह । सबंचनामा नोति तस्य पार्श्वदमंशयः ॥ १ ॥
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नीतिवाक्यामृत
कि "मुक शत्र राजा द्वारा यह विजिगीष रक्षित व शक्तिवादित किया गया वथापि यह इसकी भक्ति सेवा श्रादि नहीं करता, इससे यह बड़ा कुतघ्न है-इत्यादि। अतः विजिगर को उसके प्रयोजन सिद्ध करने घाले की सेवा-श्रादि करनी चाहिये ।।८।।
गुरु' ने भी कहा है कि जिमको सहायता से राजा की वृद्धि हुई हो, उसको उसे सन्तुष्ट करना चाहिये, मान्यथा उसके मन में शंका उत्पन्न होती है व उसके साथ युन्न करने में निन्दाका पात्र होता है ॥शा
विजिगीप दोनों पक्ष से येशन पानेवाले गुप्तचरों के स्त्री पुत्रों को अपने यहा' सुरक्षित रखकर उन्हें शत्रु के श में भेजे, ताकि वे वापिस पाकर इसे शत्रु की प्रेमा निवेदन करें ॥३॥
जैमिनि ने भी दानों पक्षोंसे वचन पानवाल गुप्तचरों द्वारा शत्र की चेष्टा जानने का संकेत किया
विजिगीषु शव का अपकार करके उसके शक्तिहीन कुटुम्बियों के लिये उसकी भमि प्रदान कर उन्हें अपने अधीन बनाये अथवा यदि पे बलिष्ठ हों तो उन्हें क्लेशित करे ||४||
नारद ने भी शत्रु के कुटुम्पियोंके साथ ऐसाही, शाब करने का निर्देश किया है ॥२॥
घिजिगीषु अपने प्रतिद्वन्दो क । विश्वास उसो हालत में करे, जब वह शपथ स्थाये या गवाही उपस्थित कर अथवा उसके सचिव श्रादि प्रधानपुरुष उसके द्वारा अपने पक्षमें मिला लिये जावें ॥५॥
गौतम का उद्धरणभी शत्र के विश्वास करने के विपयमें उक्त साधनों का निर्देश करता है।
शव देश पर आक्रमण करतेसे वहाँ से हजार सुत्रणेमुदाओं का लाभ होने पर भी यदि अपने देशका सौ मुद्राओं का भी नुकसान होना हो तो राजाका कतवर है कि वह शत्रुवर आक्रमण न करे८६
__ भृगु ने भी हिस्सा है कि शत्रु देश पर अाक्रमण करने से बहुमूल्य लाभ हो पर साप में अपना व अपने देश का थोड़ा सा भी नुकसान हो तो शत्रु पर आक्रमण नहीं करना चाहिये ||१||
विजिगीषु के ऊपर पानेबाली अपत्तियां प्रज्ञा-प्रादि से होनेवाने पीठ पीछे के थोड़े से कोप से होतो क्योंकि जिस प्रकार सुई से वस्त्र में छिद्र होजाने के उपरान्त उसमें से बहुत सा डोरा निकल जाता है , उप्सीप्रकार देश में पीठ पीछे थोड़ा सा उपद्रय खड़ा हो जाने पर राजा को महान आपत्तियों का सामना करना पड़ता है अतः ऐसे अवसर पर विजिगीषु रात्र पर चढ़ाई करने प्रस्थान न करे ।।।
बादरायण' के श्लोक का भी यही अभिप्राय है ||१||
तथा । गुरु:-वि गरेयत: पारत्ति' प्रयत्नेन सापयेत् । अन्यथा जायते शंका रणगोपाद्धि गईमा १ ॥ २ तथा व जैमिनि:- गृहीतपुनदारांश्च करवा चोभयग्रेसनान् । प्रेषयेद्वैरिरः स्थाने प्रेम तरसेष्टित समेत् ॥ ॥ ३ तथा च नारदःसामयिया पर' युन्हे तमिस्तस्य गोत्रिणः । दातम्या मशो या स्थानान्यस्य तु कथंचन ॥१॥ ५ तथा गौतमः-शपथः कोशरानेन महापुरुषवाक्यतः । प्रतिभूरिष्टसंग्रहादिकरो विश्वयता प्रजेत् ॥ १॥ ५ तया च भृगुः पुरस्ताद्भस्लिाभेऽपि परमास्कोपोऽल्पको यदि । तद्याना नवकतच्या तस्वल्पोऽप्यधिको भवेत् । ६ सथा च बारायण:-स्वरूपेनापि न गन्त पश्चाकोपेन भूभजा। अत: स्यल्पोजसिद्वानः स वृद्धि परमायजेत् ।
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बहारसमुद्दश
विजिगीषुका सर्वोत्तम लाभ, अपराधियों के प्रति क्षमा करने से हानि, वा उनके 'निग्रह से लाभ नैतिक पुरुषका व्य, असर होने में हानि, दूषित राजसभा, गृहमें आये हुए पत्र के विषय में व धनार्जन का उपाय
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न पुण्यपुरुपापचयः यो हिरण्यस्य धान्यापचयो व्ययः शरीरस्यात्मनो लाभविच्छेद्यन सामक्रव्याद व न परवरुध्यते ॥ ८८ ॥ शतस्यापराधिषु या क्षमा सर्प तस्यात्मनस्तिरस्कारः ||८|| अतिक्रम्यवतिषु निग्रह कतु: सर्पादिव दृष्टप्रत्यवायः सोऽपि विभेति जनः || ६० || अनायकां बहुनायकां वा सभां प्रविशेत् ॥ ६१ ॥ गररिणः सिद्धे कार्ये स्वस्थ न किंचिद्भवत्यसिद्ध पुनः ध्रुवमपवादः ॥ ६२ ॥ सा गोष्ठी न प्रस्तोतव्या यत्र परेषामपश्यः ॥ ६३ ॥ गृहागतमर्थं केनापि कारथेन नावधारयेद्यदैव पार्थागमस्तदेव सर्वातिथि नक्षत्रग्रहबल || ६४ || गजेन गजबन्धनमिवार्थेनार्थोपार्जनम् ॥ ६५ ॥
+
अर्थ-विजिगीषु को इस प्रकारके लाभकी इच्छा करनी चाहिये, जिस में उसके अमात्य व सेनाध्यस आदि प्रधान पुरुष कोश, अन्न तथा उसके जीवन का नाश न होने पाये एवं जिस प्रकार मांस लण्ड को धारण करनेवाला पक्षी दूसरे मांसभक्षी पक्षियों द्वारा रोका जाता है, उस प्रकार भी भूत राज द्वारा न रोका जा सके ॥ ८६ ॥
·
शुक्र ने भी विजिगीषु को इसी प्रकार का लाभ चितवन करने के विषय में लिखा है ॥ १ ॥ जो राजा शक्तिशाली होकर अपराधियों को अपराधानुकूल वंडित न कर क्षमा धारण करता है, उसका तिरस्कार होता है, अतः राजा को अपराधियों के प्रति क्षम धारण नहीं करनी चाहिए ॥ ८ ॥ बादरायण* ने भी अपराधियों के प्रति क्षमा धारण करने वाले राजा का शत्रु कृद्र पराजय निर्देश
किया है ।। १ ।।
अपराधियों का निग्रह करने वाले राजा से सभी लोग अपने नाश की आशंका करते हुए सर्प के समान डरते हैं। अर्थात् कोई भी अपराध करने की
हम्मत नहीं करता ।। ३० ।।
से डरने के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥
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1
भगुर ने भी दुष्टनि करने वाले राज' बुद्धिमान पुरुष को ऐसी सभा में प्रवेश नहीं करना चाहिये जिस में कोई नायक (नेवा) न हो या हुसे || ६१ ।। जन समुदाय या राजसभा आदि में विवेकी पुरुष को अमसर- मुख्य होना व्यर्थ है क्योंकि प्रयोजन सिद्ध होनेपर रनुख्ययक्ति को तो कोई लाभ नहीं होता परन्तु यदि प्रयोजन सिद्ध न हुआ तो सब लोग मुख्य की हो म निश्चय से निन्दा करते हैं, कि इसी मुर्ख ने विरुद्ध बोलकर हम लोगों का प्रयोजन नष्ट कर दिया ॥ ६२ ॥
१ तथा च शुक्रः स्वतंत्रस्य यो न मं तथा संचारमनोऽपरः । येन लामेन नाम्येश्य रुपते तं विचिन्तयेत् ॥ १ ॥ २ तथा च वादरायणः - शक्तिमान तमिः कुर्यादपराधिषु च सर्मा । स पराभवमाप्नोति सावि वैरिणा ॥ १ ॥ ३ तथा च भागुरिः -- अपराधिषु 4: कुर्यानिग्रह दारुणं नृपः । तस्माद्विभेति सर्वोऽपि सर्वसंस्पर्शनादिव ॥ १ ॥
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नोतिवाक्यामृत
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नारद ने भी जन समुदाय का मुखिया होना निरर्थक बताया है ।।१।।
वह सभा प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती--निंद्य है जिसमें प्रयोजन सिद्धि के लिये आये हुए प्रयोजनार्थी पुरुष को पक्षपात आदि के कारण हानि होती है ।। ६३ ।।।
जेमिनि' ने भी पक्ष गत वश प्रयोजनार्थी का घात करने वाली सभा को स्याभ्य कहा है ॥ १ ॥
गृह में पदार्पण की हुई लक्ष्मी-सम्पत्तिका कभी भी किसी कारण से - विथि बादि अशुभ आमकर-तिरस्कार नहीं करना चाहिए, किन्तु नसे तत्काल प्रहगा कर लेना चाहिए, क्योंकि जिस समय सारनी का आगमन होता है उस समय की तिथि व नक्षत्र शुभ और R बलिष्ठ गिने जाते हैं ।। ४ ।।
गर्ग ने भी लक्ष्मी की प्राप्ति का दिवस शुभ बताया है ॥१॥ जिस प्रकार हाथों से हाथी बांधा जाता है, उसी प्रकार धन से धन कमाया जाता है | | समिनि' ते मी धनोपार्जन का यही उपाय निर्दिष्ट किया है ॥१॥
गानी नि का लिगाका, पशनाश गासीनुत्ति वाले 4 पर प्रणेय राजा का स्वरूप, स्वामो की मात्रा का पाक्त, राजा द्वारा प्राश व दुषितधन तथा धन-प्राप्ति -
न केवलाभ्यां बुद्धिपौरुषाभ्यां महतो जनस्य सम्भूयोत्थाने संघातविधातेन दण्ड प्रणयेच्छतमपज्यं सहस्रमदण्ड्यं न प्रणयेत् ॥६६॥ सा राजन्वती भूमिर्यस्यां नासुरवृत्ती राजा १६७|| परप्रणेया राजाऽपरीचितार्थमानाणहरोऽसुरवृत्तिः ॥ ६ ॥ परकोपप्रसादानुवृत्तिः परप्रणेयः ।। ६8 || सत्स्वामिच्छन्दोऽनुवर्तनं श्रेयो यम भवत्यायस्यामहिताय ॥१०० ॥ निरनुबन्धः मर्थानुबंध चार्थमनुग्रहीयात् ॥१०१ ॥ नासावर्थो धनाय यत्रायत्यो महानर्थानुबंधः ।। १०२ ॥ लाभस्त्रिविधो नवो भूतपूर्वः पत्यश्च ।। १०३॥
अर्थ-राजा को अपनी बुद्धि व पौरुष के गर्य में बाहर एकमत रखने वाले उत्तम पुरुषों के समूह को अपराधो बता कर दण्विन नहीं करना चाहिये, क्यों कि एक सी बात कहने वाले सौ आदमी बध के भयोग्य वजार आइमो दण्ड के प्रयाम्य होते हैं, अत: बन्हें दरास न देना चाहिये ॥८॥
१ तमा मार-बहूमामप्रगो भाषा यो ते न नत परः। तस्य सिद्धीमो लाभः स्यादसिद्धी बनवाव्यता ॥१॥ •ाब जैमिनिः-समाया पक्षपातन कार्याधी पत्र हन्यते । न सा सभा भवेच्छस्पा शिष्टस्माज्या सुदूरसः ।। । पता च गर्ग:-गृहातस्प पित्तस्स दिनयुद्धि मचिन्तयेत् । पागछति यदा रितं तदैव सुशुम दिन ॥१॥
तथा ममिमिः-मयों श्रय बन्यन्ते ग नेरिक महा गजः । गजा गरिना न स्युस्था प्रविना तथा ॥ १॥ A मु. मू० प्रतिमें 'महतो बनस्य सम्भूयोस्याने समात विघातेन । दर प्रणरेत् समयं सहसमवध्यमिति' इत्र प्रकार का पाठान्तर धर्वमान है जिसका अर्थ यह है कि यदि कुछ लोग संगठित होकर बगावत करने तत्पर हुए, हो, उस समय सजा को उन्हें भेद नीति द्वारा फोष फार करके पृथक र काकै सजा देनी चाहिये ।
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व्यवहार समुदेश
राक' ने भी उत्तम पुरुषों का समूह राभा द्वारा बुद्धि व पौरुष के गर्व-वश दंड देनेके अयोग्य बताया है ॥१॥
जिस भमि का अधीश्वर राक्षसी बात करने वाला (अपराध से प्रतिकूज अत्यधिक दंड देनेवाला व व्यसनी-प्रादि दोष युक्त ) नहीं है थलिक नीतिश व सदाचारी है वह (भमि ) राजन्वती (प्रशस्त राजा से युक्त) कही जाती है।
गुरु' ने भी नीतिज्ञ.व सदाचारी नरेश से युक्त पृथिवी को श्रेष्ठ व उन्नतिशील कहा है ॥१n
विना विचारे दूसरे के मतानुसार कार्य करने वाला और अपराधियों के अर्थमान प्राणमान को न जानकर विना सोचे समझे उनका प्राणघात करनेवाला-'अमुक अपराधी अपने अपराधानुकूल कानूनन किसने जुमाने, फिनी शारीरिक सजा के योग्य है ? त्यादि बिना सोचे समझे दूसरों के कहने मात्र से उनके धन, मान व प्राण लेने वाला । सौ रुपये जुर्माने के योग्य अपराधी से हजार रुपये जुर्माने में ) लेनेवाला, तुरूष दोषार फांसी देनेवालाराजा 'असुरवृत्ति (राक्षसी वर्ताव करनेवाला) कहा गया है ।।
भागुरि ने भी दूसरों के काने मात्र से निरपराधियों के लिये भी कड़ो सजा दे कर पोलिस करने वाले राजा को 'मसुरवृत्ति' कहा है ॥१॥
जो राजा दूसरों के कहने मात्र से ही बिना सोचे समझे जिस किसी के प्रति कुपित व प्रसन्न हो जाया करता है, उस परप्रणेय' कहा है ॥ ६ ॥
रामगुरु ने भी कहा है कि 'परप्रणेष राजा का राज्य चिरकालीन नहीं होता ॥ १ ॥
सेवक को स्वामी की उसो माला का पालन करना श्रेयस्कर है, जिससे उसके स्वामी का भविष्य में अहित न हो सके ॥ १० ॥
गर्ग ने भी कहा है कि मन्त्रियों को राजा के प्रति परिणाम में कष्ट न देने वाला, प्रिय प श्रेयस्कर वचन बोखाना पाहिये ॥१॥"
राजा को प्रजा से इस प्रकार धन ग्रहण करना चाहिये जिससे प्रजा को पीड़ा व उस के धन की चतिनहो। अथवा ऐसा अथ हो सकता है कि विवेकी पुरुष इस प्रकार से धन संचय करे, जिससे जनसाधारणको कह न हो एवं भविष्य में धन प्राप्ति का संबन्ध बना रहे ॥ १०१ ॥ भविष्य में महान् धनथे (रामवादि) सन करने वाला अशय-संचित धन स्पिरशाल नहीं होता । सारांश यह है कि चोरो मावि निम्ध कमे से जो धन संश्य किया जाता है, वह राजाद्वारा पूर्व संचित धन के साथ जम्स
तथा च शुक्र:-विपौरुषगर्षेण दयदेव महाज। एकानुगामि राजा पदा व शत्रुपूर्वकम् ।..... र सथा च गुरु:--पस्यां रामा सुत्तिः स्यात् सौम्परः स हि । सा भूमिः शोभते मित्र सदा रिगति ३ तथा च भागविः-परवान्पो यत्र सदा सुप्रपीड़येत् । प्रमूतेन तु पण्डेन सोऽसुरवृत्तिरुप्यते 1॥ । तया च रामगुरु:-परपणेयो भूपाक्षो न राज्य हे चिरं । पितृपैवामहं बेत स्थाहिं पुनः परसू ॥१॥ २ तयार गर्ग:-मंत्रिभिस्तस्पियं बार प्रभोः श्रेयस्करं च यत् । मावश्यां कर पर कार्य का कायम .
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कर किया जाता है, यवः नैविक पुरुष को न्यायोचित साधनों द्वारा धनसंचय करना चाहिये ।। १०२ ।। पत्रि' ने भी अन्याय संचित धन राजा द्वारा पूर्वसंचित धन के साथ २ जन्न किये जाने के विश्य में लिखा है ॥। ९ ॥
अर्थ लाभ ( धन प्राप्ति ) तीन प्रकार का है। -नवीन कृषि व व्यापार्यादि साधनों द्वारा नवीन मन की प्राप्ति २ – भूतपूर्व - पूर्व में उक साधनों द्वारा प्राप्त किया हुआ न ३ परम्परा से प्राप्त किया हुआ धन, ये उक्त दोनों साथ श्रेष्ठ हैं ।। १०३ ॥
- पिता वगैर
शुक्र* ने भी कोनों प्रकारका
बतादे ॥ १ ॥
नीतिवाक्यामृत
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३० युद्ध समुद्द ेश |
मन्त्री व मित्र का दुषख भूमि- रक्षार्थ विजिगीषु का कर्त्तव्य, शस्त्रयुद्ध का अवसर बुद्धि-युद्ध व बुद्धि का माहात्म्य
स किं मंत्री मित्र वा यः प्रथममेव युद्धोद्योगं भूमित्यागं चोपदिशति, स्वामिनः सम्पादयति
महन्तमनर्थसंशयं ॥ १ ॥ संग्रामे को नामात्मवानादादेव स्वामिनं प्राणसन्देह तुलायामारोपयति ॥ २ ॥ भूम्यर्थं नृपाणां नयो विक्रमश्च न भूमित्यांगाय ॥ ३ ॥ बुद्धियुद्ध ेन परं जेतुमशक्ता शस्त्र युद्धमुपक्रमेत् ॥ ४ ॥ न तथेषवः प्रभवन्ति यथा प्रज्ञावतां प्रज्ञाः ॥ ५॥ दृष्टेऽप्यर्थे सम्भवन्त्यपराह्न पत्रो धनुष्मतोऽष्टमर्थं साधु साधयति प्रज्ञावान् ॥ ३ ॥ भूयते हि किल दूरस्थोऽपि माधवस्तिा कामन्दकीयप्रयोगेण माधवाय मालतीं साधयामास ॥ ७ ॥ प्रज्ञा समोषं शस्त्र कुशलबुद्धीनां ॥ ८ ॥ प्रज्ञाहताः कुलिशया इत्र न प्रादुर्भवन्ति भूमिभृतः ॥ ६ ॥
अर्थ- -बह मंत्री व मित्र दोनों निद्य-रात्र के समान है, जो शत्रु द्वारा आक्रमण किये जाने पर अपने स्वामीको भविष्य कल्याण-कारक अन्य सम्धि आदि पावन बताकर पहिले हो युद्ध करने में प्रश्नशील होने का अथवा भूमिका परित्याग कर दूसरी जगह भाग जानेका उपदेश देकर उसे महान अन (प्राथ सम्देहके खतरे में बाल देते हैं ।। १ ।।
१ तथा चात्रि: प्रम्यायोपार्जितं विसं पो गृहं समुपानयेद
खाते भूभुज्य वस्त्र गृहगेन समम्बिम् ॥ १॥ शुक्रः- शिवो नयोऽर्थः स्वावपूर्णस्तथापरः । पितृपैतामहो वस्तु प्रामाः शुभावद्दा:
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द्ध समु
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गर्ग ने भी रात्र के उपस्थित होने पर राजाको युद्ध व भाग जाने की सलाह देनेवाले सचिवको शत्रु हा है ॥ ५ ॥
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कौन बुद्धिमान् सचिव अपने स्वामी को सबसे पहले पर चढ़ायगा ? कोई नहीं। सारांश यह है कि शत्रु द्वारा संधिके लिये प्रेरित करें, उसमें असफल होने पर युद्धके लिये प्रेरित करे ॥ २ ॥
गौतम ने भी अन्य उपाय असफल होने पर युद्ध करने का संकेत किया है ॥ १ ॥
युद्धमें प्रेरित कर उसे प्राण-संदेह रूप तराजू हमला कियेजाने पर पूर्व में मंत्री अपने स्वामोको
राजाओं की नोति व पराक्रमकी सार्थकता अपनी भूमि की रक्षा के लिये होती है, न कि भूमि त्याग के लिये, अतः उसका त्याग कर्तव्य-दृष्टि से किस प्रकार ग्राह्य हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥३॥
शुक्र भी कहा है कि राजाओंको भूमि - रक्षार्थं अपनो नोति व पराक्रम हा उपयोग करते हुए प्रा जाने परभी देशत्याग नहीं करना चाहिये ।। १ ॥
जब विजिगीष बुद्धि-युद्ध - सामादि उपाय के प्रयोग द्वारा शत्रु पर विजयश्री प्राप्त करनेमें असममण . हो जाय, तब उसे शस्त्र युद्ध करना चाहिये ॥ ४ ॥
गर्ग ने भी बुद्धि-युद्ध निरर्धक होने पर शत्रु के साथ शस्त्र युद्ध करनेका संकेत किया है ॥ १ ॥ जिस प्रकार बुद्धिमानों की बुद्धियां शत्र के उमूलन करने में समर्थ होती हैं उस प्रकार बीर पुरुष द्वारा प्रेषित पाण समर्थ नहीं होते ॥ ५ ॥
गौतम का उद्धरण भी तीच वाकी अपेक्षा विद्वानोंकी बुद्धिको शत्रु वधमें विशेष उपयोगो बताता है ॥ १ ॥
धनुर्धारियों के वाण निशाना साधकर चलाये जाने पर भी प्रत्यक्ष में वर्तमान मे करने में असफल हो जाते हैं परन्तु बुद्धिमान पुरुष बुद्धिबलसे त्रिना देखेहुए पदार्थ भी मलीभांति सिद्ध कर लेता है
शुक्र' का उद्धरणभी इसीप्रकार बुद्धिको अष्टकार्य में सफलता उत्पन्न करने वाली बताता है ॥ १ ॥
महाकवि श्री भवभूति विरचित मालतीमाधव नामक नाटक में लिखा है कि माधवडे पिता देवरात ने बहुत दूर रह कर के भी कामन्दकी नाम को सन्यासिनी के प्रयोग द्वारा इसे मानवी के पास भेज कर अपने पुत्र माधव के लिये 'मालती' प्राप्त की थी, यह देवरात की बद्धि-शक्ति का ही माह म्य था ॥ ७ ॥ विद्वानों की बुद्धि ही शत्रु पर विजय श्री प्राप्त करने में सफल शस्त्र मानी गयी है, क्योंकि
1 तथा च गर्गः - उपस्थिते रिषी मंत्री युद्धं बुद्धि' ददाति यः । मंत्रिरूपेण वैरीस देशत्यागं च पो भवेत् ॥ १ ॥ २ तथा च गौतमः— उपस्थिते रिपौ स्वामी पूर्व युद्धे नियोजयेत् उपाय दापयेद् व्यर्थे गते परवानियोजयेत् ॥ १ ॥ ३ तथा च शुक्रः ----भूम्यर्थे भूमिपैः कार्यो नयो विक्रम एव च । देशत्यागो न कार्यस्तु भावात्माऽपि संस्थिते ॥ 1 ॥ ४ तथा च गर्गः ---युद्धं बुद्धयात्मकं कुर्यात् प्रथमं शत्रुया सह । व्यर्थेऽस्मिन् समुध्यन्ने] ततः स्मरणं भवेत् ॥ s i
५ तथा च गौतमः न तथा शरारतीच्यणाः समर्थाः स्यू रिपो दधे । यथा बुद्धिमतां प्रज्ञा तस्माकां सन्मियोजयेत् ॥ १॥ ६ तथा च शुक्रः—धानुष्कस्य शरो पर्यो लचयेऽपि यावि छ । अष्टान्यपि कार्याणि बुद्धिमान् सम्प्रसाधयेत् ॥१॥
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नीविवाक्यामृत ........................... जिस प्रकारबका प्रहार से ताड़ित किये हुये पहाइ पुनः उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार विद्वानों की बुद्धि द्वारा जीते हुये शत्रु भी पुनः शत्रुता करने का साहस नहीं कर सकते । ८-६ ॥
गुरु' ने भी प्रज्ञा (बुद्धि ) शस्त्र को शव से विजय पाने में सफल बताते हुये उक्त बातक। समर्थन किया है ।।१॥
डरपोक, अतिक्रोध, यद्धकालीन राज-फत्तव्य, भाग्य-माहात्म्य, बलिष्ठ शत्र द्वारा अाक्रमण किए हुए राजा का कर्तव्य, भाग्य की अनुकूलता, सार असार संन्य से लाभ व हानि व यद्धार्थ राज-प्रस्थान
पर: स्यस्याभियोगमपश्यतो भयं नदीमपश्यत उपानपरित्यजनमित्र ॥ १० ॥ अतितीक्ष्णो बलवानपि शरम इव न चिर नन्दति ।। ११ ।। प्रहरतोऽपसरतो वा समे विनाशे वर प्रहारो यत्र नैकान्तिको विनाशः॥१२ ।। कुटिला हि गतिदेवस्य मुमपुमपि जीवयति जिजीविष मारयति ।। १३ ।। दीपशिखायां पतंगवदेकान्तिके विनाशेऽविचारमपसरेत् ॥ १४ ॥ जीवि. तसम्भव देवो देयात्कालबलम् ॥ १५॥ वरमल्पमपि सार वलन भूयसी मुण्डमण्डली । १६ ।। असारवलभंगः सारवलभंग करोति ।। १७ । नाप्रतिग्रहो युद्धमुयात् ॥ १८ ॥
अर्थ- जिस प्रकार नदी को बिना देखे ही पहले से जते उतारने वाला व्यक्ति हंसी का पात्र होता है, उसीप्रकार शत्र-कृत उपद्रव को जाने बिना पहले से ही भयभीत होने वाला व्यक्ति भी हंसी का पात्र होता है, अतः शत्र का श्राकमा होने पर उसका प्रतिकार सोचना चाहिये ।। १०॥
शुक्र'ने भो शत्र को बिना देखे पहले से ही भयभीत होने वाले के विषय में यही कहा है ॥ १ ॥
अत्यन्त कोधी पुरुष बलिष्ठ होने पर भी अष्टापद के समान चिरकाल तक जीवित नहीं रह सकता नष्ट हो जाता है। अर्थात्-जिस प्रकार अष्टापद मेघ की गर्जना सुनकर बसे हाथी का विवाह समझ कर सहन न करता हुआ पर्वत के शिखर से पृथिवी पर गिरकर नष्ट होजाता है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधी व्यक्ति भी क्रोध-वश अजिष्ठ शत्र से युद्ध करने पर नष्ट होजाता है अतः अत्यन्त काधी होना सचित नहीं॥ ११॥ शत्र से युद्ध करना अथवा युद्ध-भूमि से भाग जाना इन दोनों कार्यों में जब विजगीयु को अपना विनाश निश्चित हो जाय तो उसे युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें मृत्यु निश्चित नहीं होती परन्तु भागमे से अवश्य मृत्यु होती है ॥१२ ।। कम की गति-भाग्य की रेखा-घड़ी पक का जटिल होती है क्यों कि वह मरने की कामना करने वाले को दीर्घाय व जीवन की आकांक्षा करने वाले को मार मालती है ।।१३।।
कौशिक ने भी इसी प्रकार देव की वक्रगति का वर्णन किया है ॥१॥
५ तथा व गुरुः-प्रशास्त्रममोध' च विज्ञानावबुद्धि रूपिवी । तया इसा न जायन्से पता इस भूमिपाः ।।।। . २ तथा शुकः-यथा चादर्शने मना उपानत्यरिमोचनम् । तया राजाबद्दष्टेऽपि भयं हास्याय भूभुजां ॥१॥
३ तथा च कौशिकः - मतु कामोऽपि पेन्मयः कर्मणा किंडते हिस।वीर्घायु विसेच्छादयो म्रियते तद्रकोऽपि सः ।
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युद्ध समुरेश
....................... .... जब युद्ध-भूमि में विजिगीषु को बलिष्ठ शत्रु द्वारा दीपक की ज्वाला में पतंग की तरह अपना विनाश निश्चित हो जाय, तो उसे बिना सोचे विचारे वहां से हट जाना चाहिये ॥१५॥
गौतम' का उद्धरण भी इसी बात का समर्थन करता है॥१॥
जब मनुष्य दीर्घायु होता है, तब भाग्य उसे ऐसी शक्ति प्रदान करता है, जिससे वह निल होने पर भी बलिष्ठ शत्रु को मार डालता है ॥५
शुक्र' ने मा भाग्योदयसे दीर्घायु पुरुष के विषय में इसो प्रकार कहा है ॥१॥
सार हीन (शक्तिहीन व कर्तव्यविमुख ) अधिक फौजकी अपेक्षा सा-युक्त (शक्तिशाली व कतैव्य-परायण) थोड़ी सी सेना हो तो उत्तम है ।।१६।
नारद ने भी अकाट्री तैयार थोड़ी भी फौजको उत्तम व बहुत सी डरपोकको नगण्य बताया है १.
जब शत्र छत उपद्रव द्वारा विजिगी साहोन का किमडीम) सेना नष्ट होती है तब उसकी शक्तिशाली सेना भी नष्ट हो जाती है-अधीर हो जाती है अत: विपी जदुयल सैन्य न रखे ॥१७॥
कौशिक ने भी कायर सेना का भी विजिगीषु को वीर सेना के भङ्ग का कारण बताया है। राजा को कभी अकेले यद्ध में नहीं जाना चाहिये ॥ १८ ॥
गुरु' ने भी अर्जुन समान वीर राजा को अकेले ( सैन्य के विना) युद्ध में जाने से खतरा बताया है ॥ १।
प्रतिमाह का स्वरूप व फल, युद्ध कालीन पृष्ट भूमि, जल-माहात्म्य, शक्तिशाली के साथ युद्ध हानि, राज-कर्त्तव्य ( सामनीति व दृष्टान्त ) एवं मुख का कार्य व उसका दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण
राजव्यञ्जनं पुरस्कृत्य पश्चात्स्त्राम्यधिष्ठितस्य सारयलस्य निवेशनं प्रतिप्रहः ॥ १६ ॥ सप्रतिग्रहं बलं साधुयुद्धायोत्सहते ॥२०॥ पृष्ठतः सदुर्गजला भूमिबलस्य महानाश्रयः ॥२१॥ नद्या नीयमानस्य तटस्थपुरुषदर्शनमपि जीवितहेतुः॥२२॥ निरन्नमपि सप्राणमेव बलं याद जलं लभेत A ॥२३॥ आत्मशक्तिमविनायोत्सहाः शिरसा पर्वतभेदनमिव । २४॥ सामसायं
तथा च गौतमा-बलवन्तं रिपु प्राप्य यो न नश्यति दुर्बत: । स नूनं नाशमभ्येति संगो दापमाश्रितः || २ तथा व शुक्र:-पुरुषस्य यदायुः स्पायलोऽपि सदा पा । हिनरित वेलोपेतं निजकर्मप्रभावतः ॥ ॥ । तथा नारदः- स्वल्पापि च श्रेष्ठ। नास्वल्पापि च कातरा । भूपतीनां च सर्वेषां युद्ध काले पताकिनी ॥ ॥ ४सथाकौशिक-कावराया च यो भंगो संग्रामे स्पान्महीपतेः । स हि भंग करोस्येव सर्वेषां नात्र संशयः ॥1॥ ५ सपा गुरु:-एकाकी यो प्रजेवाजा संग्रामे सेम्पवर्जितः । स नूनं मृत्युमाप्नोति पथपि म्याननंजय: ॥1॥ A इसके पश्यार मु. मू० प्रतिमें 'बलवता विग्रहीतस्य तसदापावापरिग्रहः स्वमंगाले सिखिमंदर प्रवेश का ऐसा विशेष पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि अब राजा बलिड प्रतिद्वन्दी के साथ युद्ध करता है तब उसके देश में रात्र के कुटुम्बी कोग प्रविष्ट हो जाते है। जिससे शत्र की शक्ति अधिक बढ़ जाती है इसलिये उनका घुमना मयूरों के समहमें माकों के प्रवेश समान हानिकारक होता है।।1।।
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नीतिवाक्यामृत
युद्धसाध्यं न कुर्यात् ॥२५॥ गुडादभिप्रेतसिद्धो को नाम विषं भुजीत १२६।। अल्पव्यय. भयात सर्थनाशं कराति मूखः ॥१७ा का नाम तधीः शुल्कमयागाण्डं परित्यजति ।२८॥
अर्थ-राज-चिन्द-युद्ध के बाजे-आदि-आगे करके पश्चात् गजा से अधिष्ठित प्रधान सैन्य सुसज्जित करके युद्ध के लिये तैयार करना वा स्थापित करना 'प्रतिग्रह' है, ऐसो प्रतिग्रह-सहित (विजिगीषु स अधिष्ठित ) प्रधान फौज युद्ध करने में अच्छी तरह उत्साह करती है जिसका फल विजय है ।।१५-२०।।
नारद' व शुक' ने भी उक्तप्रकार प्रतिपद का लक्षण-निर्देश करते हुए उमसे विजयश्री का लाभ बताया है ॥१॥
युद्धके अवसर पर सैन्य के पीछे दुर्ग व जल-सहित पृथ्वी रहने से उसे काफो जीवन-सहारा रहता है, क्योंकि पगाजत होने पर भी वह दुर्ग में प्रविष्ट होकर जल-प्राप्ति द्वारा पानी प्रागा रक्षा उसी प्रकार कर सकता है, जिस प्रकार नदो में बहने वाले मनुष्य को तटवर्वी पुरुषका दर्शन उसकी प्राण-रक्षा का साधन होता है ॥२१-२६॥
गुरु व जैमिनि ने भी उक्त स्टान्त देकर फौज के पोछे वर्तमान जल-सहित दुग भीम सैन्य को प्राणरका करने वाली बताई है ।।१-२॥
यद्ध के समय सेना को अन्न न मिलने पर भी यदि नल मिल जाय, तो वह अपनी प्राण-रक्षा कर सकती है ॥२॥
भारद्वाज ने भी उक्त बात की पुष्टि करते हुए प्राण-रक्षक जल को सैन्य के पीछे रखकर श्रद्ध करने को कहा है ॥११॥
जो निबेल राजा अपनो सेन्य-प्रादि शक्ति को न जानकर बलिष्ठ शत्रु से युद्ध करता है, उसका यह कायं मस्तक से पहाड़ तोड़ने के समान असम्भव व घातक है ॥२४॥
कौशिक ने भी अपनी ताकत को बिना जाने युद्ध करनेवाने के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
चिजिगीषु को मामनीति द्वारा लिस् होने वाला इष्ट प्रयोजन युद्ध द्वरा सिद्ध नहीं करता चाहिये : क्योंकि जब गु-भक्षण द्वारा ही अभिलषिन प्रयोजन ( आरोग्य-लाम ) होता है, तब कौन बुद्धिमान पुरुष विष-भक्षरण में प्रवृत्त होगा ? कोई नहीं ॥२५-६॥
तथा च नारदः- स्वामिन पुरतः कृश तत्सरसादुत्तमं बलं । ध्रियते युद्धकाले यः स प्रतिग्रहसज्ञितः ।।।।। २ तथा च शुक:-राजा पुर: रिफ्नो यत्र तत्पश्चात् मंस्थितं बलं । उत्साह कुले युद्ध ततः स्याद्विजये पदं ।। १ ।। ३ तथा गुरु:-जलयुगवती भूमिवस्य सैन्यस्य पृष्ठतः । पृष्ठदेशे भरतस्य तन्महाश्वासकारण ।।। ४ तथा च जैमिनिः-मोयमानोऽत्र यो नया तटस्थं बोयते नरं । हेतु मन्यते सोऽत्र जीवितस्थ द्वितात्मनः ॥1॥ २ तथा च भारद्वाज:-बन्नाभावादपि माया जीवितं न जल बिना । तस्माशुद्ध प्रस्तम्ब जलं कृत्वा र पृष्ठतः ॥ ५॥ ६ नया च कौशिकः-श्रामशक्तिमानानो युद्धं कुर्यादलीयमा । सास कोत्येव शिरमा गिरिभेदनम् ॥३॥
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युद्ध समुश
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यल्लभदेव' व हारत ने भी सामनोनि द्वारा सिद्ध होने वाले कार्यों को दंडनोति द्वारा सिद्ध करने का निषेध किया है ॥१-२||
मूर्ख नुष्य थोड़े से खचे के डर से अपना सर्वनाश कर डालता है। प्राकालिक अभिवाब यह है कि मूर्ख राजा मे जन प्रतिद्धन्दी (शघ्र ) सामनोति से कुछ भूमि आदि मांगता है, तब वह थोड़े से खर्चे के इर से जसे कुछ नहीं देता, पश्चात् उसके द्वारा आक्रमण किये जाने पर सर्वनाश कर बैठता है. अतः नैतिक व्यक्ति या विजिगीप अल्प व्यय के डर से अपना सर्वनाश न करे ।।२७।।
बनम देव मे भी शास-दीन मुखं राजा के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥ कौन बुद्धिमान मनुध्य महसूल वेने के डर से अपना व्यापार छोड़ता है कोई नहीं ||२८||
कौशिक ने भी बद्विमान पुरुष को थोड़े से टैक्स श्रादि के भय से व्यापार न छोड़ने के विषय में कहा है ॥१॥
प्रशस्तपय त्याग, बलिष्ठ शत्र के लिये धन न देने का दु म, धन बनाता का वन देने मे आर्थिक-क्षति, शत्रु द्वारा श्राकभ किये हुए राजा की स्थिति समर्थक दृष्टान्त माला, स्थान-भ्रष्ट राजा व समष्टि का माहात्म्य -
स किं पयो यो महान्तमर्थ रक्षति ।। २६ ॥ पूर्ण सरस--सलिलस्य हि न पीबाहादपरोऽस्ति रक्षणोपायः ॥३०॥ अप्रयच्छतो बलवान् प्राणैः सहाथै गृहाति ॥३१॥ वलवति सीमाधिवेऽर्थ प्रयच्छन् विवाहोत्सवगृहगमनादिमिर्पण प्रयन्छन् ।३२ ॥ आमिपमथेमप्रयच्छताऽ. नवधिः स्यान्निवन्धः शासनम् || ३३ ॥ कृतसंघातविधानीऽरिभिविंशीणेयथा गज हव कस्य न भवति साध्यः ॥ ३४ ॥ विनि:सावितजले सरसि विषमोऽपि ग्राहो जलव्यालबत् ॥३५॥ वनविनिर्गतः सिंहाऽपि श्रृंगालायतेः ॥ ३६ ।। नास्ति संघातस्य नि:मारता किन्न स्व
३ तथा च बलभदेवः साम्नैय यन्त्र सिरिस्तन न दण्डो विनियोज्य: । पित्तं यदि शर्करया शाग्यप्ति ततः कित्तस्पटोलेन २ तथा व हारीत-- गुरास्वादनतः शनि यदि गाग्रस्य जायते । प्रारयिलक्षणा नाम तनमयति को विषं ॥ १ ॥ ३ तथा च पल्भ त्रः-होनो नपोऽऽप मइते नपाय यायाचितो नैत्र ददाति साम्ना ।
कदर्यमाणेन ददति खार सेषां स चूर्णस्य पुनर्ददाति ॥ १ ॥ ४ तथा व कौशिकः-यस्प बुद्धिर्भवेत काचित् स्वल्पापि हृदये स्थिता । न भार न्यजेत् सार स्वरूपदानकृतापात् A इसके पश्चात मुमू प्रति में 'स्वयमल्पवलः कोश-देश दुर्गभूमिरतियेदयंश्च यदि शत्रुर्वेशं न परित्यजेत्' इतना
अधिक पाठ वर्तमान है. जिसका अर्थ यह है कि अपम्य होने पर भी कोश, देश व दुर्गभूमिसे युक्त और जिसका बलिष्ठ शत्रु उक्त बातों से अपरिचित है, उस राजा को केवल शस्त्र-कृत उपद्रव के भय से अपना देश छोड़कर स्थान __ भ्रष्ट होना उचित नहीं ॥ ॥ B इसके पश्चात् विछिन्नोपान्तप्रताने वंशे फिमस्त्याकर्षस्य अलेश' ऐसा मुक मू. प्रति में अधिक पार है, जिसका अर्थ यह है कि जिसप्रकार जिसके समीपवर्ती-बगल चगजके वापों का समूह काट दिया गया है. उस बांसको खोबने
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afaaiक्यामृत
लयति मत्तमपि वारणं कुथिततृणसंघातः ||३७|| संहतै बिसतन्तुभिदिग्गजोऽपि नियम्यते ३८
अर्थ - जिस खर्च द्वारा अपने प्रचुर धन की रक्षा व महान् इष्ट प्रयोजन सिद्ध होता है क्या वह खर्च कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । प्राकरणिक अभिप्राय यह है, कि बलिष्ट शत्रु से सम्धि करने में विजिगीषु द्वारा किया जाने वाला धनादि खर्च, खर्च नहीं कहा जाता, क्योंकि उससे उसके संचित धन की रक्षा व इष्ट प्रयोजन-सिद्धि होती है । २८ ॥
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शौनक' ने भी निर्बल राजा को बलिष्ठ शत्रु की धनादि द्वारा सेवा करके अपने प्रचुर धन की रक्षा करना बताया है ।। १
जिस प्रकार जल से समूचे भरे हुए तालाब की रक्षा का बहाव ( जन के निकास ) के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं, उसी प्रकार धनाय पुरुष की धन-रक्षा का धन के सिवाय और कोई दूसरा उपाय नहीं है ।। ३० ।।
विष्णुशर्मा ने भी संचित धन की रक्षा का यही उपाय बताया है ॥ १ ॥
जो नियत मनुष्य बलिष्ठ शत्र द्वारा। प्रार्थना किये जाने पर भी उसे अज्ञान व लोभ-वश धन नहीं देता, उसकी समस्त धन-राशि बलिष्ठ द्वारा अपहरण कर ली जाती है ।।२१||
भागुरि ने भी उक्त प्रकार कहा है ||६||
शक्तिहीन राजा यदि किसी शक्तिशाली सीमाधिपति के लिये प्रयोजन-वश धन देने का इच्छुक हो, तो वह उसे विवाह आदि उत्सव के अवसर पर सम्मानपूर्वक अपने गृह बुलाकर किसी भी बद्दान द्रव्यप्रदान करे || ३ ||
शुक्र* ने भी उक्त बहाने से बलिष्ठ के लिये धन देने का संकेत किया है ॥ १ ॥
जो शक्ति-दीन राजा शक्तिशास्त्री प्रतिद्वन्दी सीमाविपति को किसी बहाने से धननहीं देखा उसे भविष्यकालीन अपरिमित प्रसंख्य धन-राशि देना व उसकी कठोर आज्ञा-पालन में बंधना पड़ता है। अर्थात्भविष्य में उसके द्वारा किये जाते वाले हमले का कटुक फल ( असख्य धनराशि का अपहरण व राष्ट्र का बद-आदि ) भोगना पड़ता है। अतः निर्भक्ष राजा लोभ को मिलाञ्जलि देकर शत्रभूत सीमाधिपति को धन-प्रदान द्वारा पहले से ही काबू में रखे ||३३||
गुरु ने भी इसी प्रकार कहा है ||५||
या उन्मूलन करने में क्या सोचनेवाले को कुछ क्लेश हो सकता है ? नहीं होसकता उसीप्रकार जिसका पर्स (सहायक लोग नष्ट कर दिया गया है, उस शत्रुको जीतने में भी कुछ क्लेश नहीं होसकता || १ || ( पृ०३३१का शेश ) १ तथा च शौनक – उपचारपरिशाणाद्दत्वा विसं सुबुन्द्रयः । बलिनो पतिस्म यच्छेषं गृहसंस्थितम् ॥ १ ॥
२ तथा च विष्णुशर्मा:- उपार्जितानां विसनो स्याग एव हि रचणं । तगोदर संस्थानों परवाह इसां ॥ ३ तथा च भागुहि: बलाढ्येन पितः समा] यो न यच्छति दुर्बद्धः । किंविद्वस्तु समं प्रास्तत्तस्यासों हरे ४] राधा व शुक्रः
युत्सवगृहातिथ्या बलाधिके। सोमाधिपे सरैया रचार्थ स्वभ्रमस्य च ॥ १ ॥
५ तथा च गुरुः - सीमाधिपे बलाश्रये तु यो न यति किंचन । स्पाजं कृत्वा स तस्याध संख्याहीम समाचरेत् ॥ १ ॥
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युद्ध समुरश
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शत्र द्वारा जिसका सन्य नष्ट कर दिया गया है व परदेश से आया हुअा एसा शक्ति-हीन गजा अपने झुण्ड से भ्रष्ट हुए अकेले हाथी के ममान किसके द्वार! वश नहीं किया जाता ? सभी के द्वारा वश कर लिया जाता है । अथात शुद्र लोग भी ससे पराजित कर देते हैं ॥३४॥
नारद' न भी शत्र द्वारा उच्चाटित, नष्ट सेना वाले राजा को अकेने हाथी समान वश करने योग्य यताया है ।
जिसकी समस्त जलराशि निकाली जा चुकी है ऐसे जल-शून्य तालाब में बतमान मगर भाद भयङ्कर जल-अन्तु भी जिस प्रकार जल सपक समान निविर्ष व क्षीण शक्ति हो जाता है, अमो प्रकार मैन्य के क्षय हो जाने से राजा का की शक्ति हो जाता है :
भ्य' ने भी स्थान-हीन राजा को इसी प्रकार शक्ति-होन सताया है ।।१।
जिम प्रकार जंगल से निकला हुआ शेर गीदड़ संमान शत्ति-हीन हो जाता है, उसी प्रकार नट-न्य वस्थान-भ्रष्ट्र राजा भो कीणशक्ति... जाता॥३६॥
शुक' ने भी स्थान-भ्रष्ट ( पदच्युत ) राजा की इसी प्रकार लघुता निर्दिष्ट की है ॥१॥
समूह निस्सार ( शक्ति-हीन) नहीं होता, क्योंकि क्या बटा हुआ नृणा-ममूह (घास का रस्सा) मदोन्मत्त हाथी के गमन को नहीं रोकता ? अवश्य रोकता है। मान् उसके द्वारा मदोन्मत्त हाबी भी , बांधा जाता है ॥३७॥
विष्णुशर्मा ने भी संपति का इसी प्रकार माहात्म्य बताया है ॥९॥
जिस प्रकार बटे हुए मृणाल-तन्तुओं से दिगाज भी वशीभूत किया जाता है (बांधा जाता है) मी प्रकार राजा भो सैन्यद्वारा शक्तिशाली शत्रु को वश कर लेता है-युद्ध में परास्त कर देता है ॥३८॥ हारीत ने भी इसी प्रकार राजा की सैन्यशक्ति का माहाल्य बठाया है ॥१॥
साध्य शत्रु व एष्टान्त, शक्ति व प्रताप-हीन शत्रु के विषय में रप्टान्तमाला, शत्र को विकनी चुपड़ी बातें, व एष्टान्स, नीतिशास्त्र अकेले विजिगीषु को युद्ध करने का निषेध व अपोचित शत्रु-भूमि
दण्डसाध्ये रिषावुपायान्तरमनाचाहुतिप्रदानमिव ।। ३६ ॥ यन्त्रशस्त्राग्निकारप्रतीकारे व्याधी किं नामान्योषधं कुर्यातAli ४०॥ उत्पाटितदंष्ट्रो भुजंगो रज्जुरिव ॥४१॥
सपा मादः-परबाटितोऽरिमी राजा परदेशसमागतः । वनहस्तोव साध्मः स्वात् परिप्रहविवर्जितः ॥ २ तथा रैम्प:-सा सखिये मई यथा ग्राहस्तुमा प्रजेन् । जबसस्य सदस्य स्थानहीनो नृपो मवेद ॥ ३ वा शुक्रः-अगामा समभ्येति यथा सिंहो यमच्युतः । स्थानभ्रष्टो मृपोऽप्येवं साधुतामेति सर्व • तथा च विलुशमा:-हमामयसारा सममायो बबाधिकः । तृपौराष्टितो रज्जुण्या मागेऽपि बम.. ५ वा च हारीत:-अपि सूचमतभृत्य बहुभिर्भश्यमामरेत् । भपि बोर्वोत्कटं शत्र पसूर्यमा गम् ॥ A इसके पश्चात् मु. भू. पुस्तक में 'अज्ञातरणमृत्त:सर्वोऽपि भवति धुरः॥ १॥ अष्टाम्पसामध्यः को नाम म भवति
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नीतिवाक्यामृत
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प्रतिहतप्रापोऽङ्गारः संपतितोऽपि किं कुर्यात् ||४२|| विद्विषां चाटुकारं न हुमन्येत | ४३ | जिह्वया लिहन् खड्गो मारस्येव ॥ ४४ ॥ तन्त्रावापो नीतिशास्त्रम् ॥ ४५ ॥ स्वमण्डलपालनाभियोगस्तंत्रम् || ४६ || परमण्डलावाप्यभियोगोऽत्रापः ॥ ४७|| बहुनेको न गृह्णीयात् सोपिस या निपीलिकाभिः || ४ || अशोधितायां परभूमो न प्रविशन्निर्गच्छेद्वा || ४६ ॥
अर्थ-जो शत्रु दण्ड द्वारा वश करने योग्य है, उसके प्रति अन्य सामदान भावि उपायों का प्रयोग, प्रज्वलित अग्नि में घृत की आहुति देने के समान उसकी कोध-वृद्धि का कारण होता है । अर्थात् जिस प्रकार प्रज्वलित व्यक्ति घृत की आहुति द्वारा अत्यधिक बढ़ती है, उसी प्रकार दंड द्वारा काय में किया जाने वाला शत्रु भी अन्य सामादि उपायों द्वारा अत्यधिक कुपित हो जाता है ॥ ३६ ॥
माघकवि' ने भी अग्निसे वपे हुए घृत में क्षेपण किये हुए जन बिन्दुओंके दृष्टान्त द्वारा उक्त बात का समर्थन किया है | १ ॥
जिस प्रकार यन्त्र, शस्त्र, अग्नि व क्षारचिकित्सा द्वारा नष्ट होने योग्य व्याधि अन्य औषधि द्वारा नष्ट नहीं की जा सकती, उसी प्रकार दगड द्वारा वश में किया जाने वाला शत्रु भी अन्य सामादि उपाय द्वारा काबू में नहीं किया जा सकता जिस प्रकार सर्प की दांदें निकाल देने पर वह रम्सां के समान शक्तिद्दीन (निर्विष) हो जाता है, उसीप्रकार जिसका धन व सैन्य नष्ट कर दिया गया है, ऐसा शत्रु भी शक्ति हीन हो जाता है ॥ ४१ ॥
नारद ने भी उक्त व उखाड़े हुए सोंगवाले बैल का दृष्टान्य देकर उक्त बादका समर्थन किया है |१| जिस प्रकार नष्ट हो गया है प्रताप जिसका ऐसा अङ्गार नहीं कर सकता, उसी प्रकार जिसका धन व सैम्य रूप प्रताप नष्ट किया गया है, वह शत्रु भी कुछ नहीं अश्म ) शरीर पर पड़ा हुआ कुछ कर सकता || ४२ ॥ नैतिक पुरुष शत्रु के कपट-1 - पूर्ण व्यवहार (विरुनी चुपड़ी बातें - मादि) पर अधिक ध्यान न देवे उसके अधीन न होवे, क्योंकि जिसप्रकार तलवार जो द्वारा चाटी जाने पर भी इसे काट डालती है, उसी प्रकार शत्रु भी मधुर वचन बोलता हुआ मार किया है ।। ४३-४ ॥ तंत्र ( अपने देश
सवर्ष ? || २ || अतिप्रवृद्धा ओ के नाम न दर्पयति ॥ ३ ॥ कृतार्था विवटितन्त्रस्थ पो रुपम्मदिक कुद ? ॥ ४ । इतना विशेष पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि जब तक बुद्ध संबंधी वृत्तान्त को नहीं जानते, तब तक सभी लोग शूरवीर होते हैं। दूसरेकी शक्तिको न जानकर कौन पुरुष अहंकार नहीं करता ? प्रायः सभी अहंकार करने लगते हैं। अत्यन्त बढी हुई लक्ष्मी किसे गर्म-युक्त नहीं बनाती ? सभरेको बनाती है जिसका धन अपहरका कर लिया गया है एवं जिसका सैम्प भी नष्ट कर दिया गया है, ऐसा शत्रु क्रुद्ध होकर मी स्पा कर सकत है ? कुछ नहीं कर सकता ॥ १-४ ॥ ( पूर्व पृष्ठ का शेषांश)
१ तथा च माधकविः -- सामवादाः सकोपस्य तस्य प्रत्युसद्दीपकाः । प्रतप्तस्येव सहसा सविस्तोयविन्दवः ॥ १ २ तथा च नारदः -- दंष्ट्राविरहितः सर्पो भग्न गोऽयवा वृषः । तथा वैरी परिज्ञेयो यस्य नार्थो न सेवकाः ॥ १ ॥
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की रक्षार्थ सैनिक संगठन की योजना) व अचाप (दूसरे देश की प्राप्ति के लिये की जाने वाली सन्धि विमहादि की योजना ) को प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को 'नीतिशास्त्र' कहते है। अपने देश की रक्षा के लिये सैन्य-संगठन आदि उपायों की योजना तंत्र' है और दूसरे देश की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले (सन्धि-विमहादि ) की योजना को 'बाप' कहते है ॥ ४५-४७॥
शुक' ने भी स्वदेश की रक्षा का उपाय 'तंत्र' और दूसरे देश की प्राप्ति के उपाय को 'अवाप' कहा है ॥ १ ॥
भकेचा व्यक्ति कभी भी बहुसंख्यक के साथ युद्ध न करे, क्योंकि मदोन्मत्त जहरोमा सांप बहुत सी चीटियोंद्वारा भक्षण कर लिया जाता है॥४॥
नारद ने भी उक्त रष्टान्त द्धारा सकेले व्यक्ति को युद्ध करने का निषेध किया है॥१॥
विजिगीषु बिना परीक्षा की हुई शत्र की भूमि में न तो प्रविष्ट हो और न वहाँ से वापिस श्रावे ।। ४६॥
युद्ध व उसके पूर्व कालीन गज-कर्त्तव्य, विजय प्राप्त कराने वाला मंत्र, शत्र के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाना, शत्रु द्वारा शत्र नाश का परिणाम व रष्टान्त, अपराधी शत्र के प्रति राजनीति व दृष्टान्त
विग्रहकाले परस्मादागतं कमपि न संगृहीयात् गृहीत्वा न संवासयेदन्यत्र तद्दायादेभ्यः, श्रयते हि निजस्वामिना कूटकलह विधायावासविश्वासः कुकलासो नामानीकपतिरात्मविपक्ष विरूपाचं जघानेनि ।। ५० ॥ बलमपीड़यन् परानभिपेणयेत् ।। ५१॥ दीर्घप्रयाणोपहतं बलं न कर्यात् स तथाविधमनायासेन भवति परेप साध्यं ॥ ५२ ॥ न दायादादपरः परवलस्याकर्षणमंत्रोऽस्ति ॥५३॥ यस्याभिमुख गच्छेत्तस्याश्य दायादानुत्थापयेत् ॥ ५४ ।। कण्टकेन कण्टकमिय परेण परमुद्धरेत् ॥५५॥ विन्येन हि विल्यं हन्यमानमुभयथाप्यात्मनो लाभाय ॥५६॥ यावत्परेणापकृतं तावताऽधिकमपकृत्य सन्धिं कुर्यात् ॥५७|| नातप्तं लोई लोहेन सन्धत्त ॥५८॥
अर्थ-भदाई के समय परचक्रसे पाये हुए किसी भी अपरीक्षित व्यक्ति को अपने पक्ष में न मिजावे, यदि मिलाना हो दो अच्छी तरह जांच-पड़ताल करके मिजावे, परन्तु उसे यहां ठहरने न देखे चौर शत्र के कुटुम्बी, जो कि उससे नाराज होकर वहां से चले आये हैं बन्हें परोक्षा-पूर्वक अपने पक्ष में मिलाकर ठहरा लेवे, अन्य किसी को नहीं। इतिहास बताता है कि कमलाम नाम के सेनापति ने अपने मालिक से झूठ मूठ कलह करके शत्र के हदय में अपना विश्वास उत्पन्न कराकर अपने स्वामी के प्रति पक्षी (शत्र) विरुपाक्ष नाम के राजा को मार डाला ॥ ५० ॥
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तथा च शुक्रः- स्वमगासस्य राय यतंत्रं परिकीर्तितं | परदेशस्य संप्रापया प्रवापो नयनस्याम् ॥ २ तथा मार:-एकाकिना न योग्यं बहुभिः सह दुर्यस्तैः । दोर्याच यापि इन्मेत यथा सर्पः पिपीक्षिः
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नीतिवाक्यामृत
विजिगीष अपनी सेना की प्रसन्नता का ख्याल रखते हुए ( उसे दानमानादि द्वारा सुखी बनाते इए) शत्र ओं से युद्ध करने अपनी सेना के साथ प्रस्थान करे ।। ५१ ।। विजिगीषु शत्रु राष्ट्र में प्रविष्ट हुआ अपनी फौज से विशेष मुसाफिरी न करावे, क्योंकि लम्बी मुसाफिरी से ताड़ित खिन्न (थकी हुई) फौज शत्रुओं द्वारा मरलता से जीती जा सकती है ॥५२॥ विजिगीष शत्र के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलावे, artfear मिलाने के सिवाय दूसरा कोई शत्रु सेना को नष्ट करने वाला मंत्र नहीं || ४३ ||
शुक्र ने भी शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाना बताया है ॥१॥
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विजिगीषु जिस शत्रु पर चढ़ाई करे, उसके कुटुम्बियों को साम-दानादि वा द्वारा अपने पक्ष में मिलाकर उन्हें शत्रु से युद्ध करने के लिये प्रेरित करे । उसे अपनी सैन्य क्षति द्वारा शत्रु को नए नहीं करना चाहिये, किन्तु कांटे से कांटा निकालने की तरह शन द्वारा शत्र को नष्ट करने में प्रयत्नशील होना चाहिये। जिस प्रकार बेल से फाड़े जाने पर दोनों में से एक अथवा दोनों फूट जाते हैं, उसी प्रकार जब विजिगोषु द्वारा शत्रु से शत्रु लड़ाया जाता है, यवनमें से एक का अथवा दोनोंका नाश निश्चित होता है जिससे विजिगोषु का दोनों प्रकार से लाभ होता है । ५४-५६ विजिगीषु का कर्तव्य है कि शत्रु ने इसका जितना नुकसान किया है उससे ज्यादा की हानि करके उससे सन्धि कर ले। ५७ ।।
गौतम ने भी इसी प्रकार उक्त बात का समर्थन किया है ॥ १ ॥
जिस प्रकार ठंडा लोहा गरम लोहे से नहीं जुड़ता, किन्तु गरम लोहे ही जुड़ते हैं, उसी प्रकार दोनों कुपित होने पर परस्पर सन्धि के सूत्र में बंधते हैं || ४= 1
शुक विद्वान के उद्धरण से भी यहां प्रतत्त होता है ॥ १ ॥
विजय प्राप्ति का उपाय, शक्तिशाली विजिगीषु का कर्तव्य व उसकी उन्नति सन्वि के योग्य शत्र पराक्रम कराने वाला तेज, लघु व शक्तिशाली विजिगीषु का बल से युद्ध करने का परिणाम व दृष्टान्त, पराजित 'शत्रु के प्रति राजनाति, व शुग्वोर शत्रु के सम्मान का दुष्परिणाम -
aat ft सन्धाकारं नापराधस्य क्षान्तिरुपेचा वा ।। ५६ ।। उपचीयमानघटेनेवारमा होनेन विग्रहं कुर्यात् || ६० ॥ त्रानुलोम्यं पुण्यपुरुषोपचयोऽप्रतिपक्षता च विजिगीषोरुदयः ॥ ६० ॥ पराक्रमकर्कशः प्रवीरानीकश्चेदीनः सन्धाय साधूपचरितव्यः ॥ ६२ ॥ दुःखामर्षजं तेजो विक्रमयति ॥ ६३ ॥ स्वजीविते हि निराशस्याचायों भवति वीर्यः ॥ ६५ ॥ लघुरपि सिंहशाम इत्येव दन्तिनम् ॥ ६४ ॥ न चातिभग्नं पीडयेत् ॥ ६६ ॥ शोकधनस्योपचारो मनसि तच्छागस्येव पूजा || ६७ ॥
1 सा च शुक्रः -- न दायादार पसे वैरी विद्यतेऽत्र कथंचन । श्रभिचारकमंश्च शत्रुसैन्यनिषूदनं ॥ १ ॥
२ तथा च गौतम :- यावन्मानोऽपराधस्य शत्रणा हि कृतो भवेत् । तावत्तस्याधिकं कृत्वा समिध: कार्यो बलान्वितैः
३ तथा च शुक्रः—द्वाभ्यामपि सहाय लोहस्य च यथा भवेत् । मूमियानां च विज्ञेयस्तथा सग्धिः परस्परं ॥
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युद्ध समुद्देश
अर्थ - अपराधी शत्रु पर विजय प्राप्त करने में क्षमा या उपेक्षा का कारण नहीं, किन्तु विजिग का कोष व सैन्यशक्तिरूप तेज ही कारण है । अर्थात् - तेज से ही शत्रु जीता जा सकता है, न कि क्षम या उपेक्षा से | ॥ ५६ ।। जिस प्रकार छोटा सा पत्थर शक्तिशाली ( वजनदार ) दोनेक कारणा बड़े घड़े को कड़ने को दमता रखता है, उसी प्रकार विजिगीषु भी सैन्य शक्ति युक्त होने के कारण महान् शत्रु को नष्ट करने की क्षमता रखता है, अतः शक्तिशाली को हीन शक्ति वाले शत्रु के साथ युद्ध करना चाहिये ॥६०॥
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विनि' ने भी शनि शाली विजिगीषु द्वारा महान शत्र नष्ट किये जाने के विषय में लिखा है ३१ ॥ भग्ग को अनुकुलता, उत्तम व कर्त्तव्यशील पुरुषों की प्राप्ति और विरोधियों का अभाव इन गुणों सेविजिगांव की उन्नति होती है ।। ६१ ।।
गुरु ने भी विजिगीषु के उक्त गुणों का निर्देश किया है ॥ १ ॥
जब विजिगीषु स्वयं शक्तिहीन हो और शत्रु विशेष पराक्रमी व प्रवल सैन्य-युक्त हो, तो उसके सन्धि कर लेनी चाहिये ।। ६७ ।।
शुक्र ने भी शक्तिहोन विजिगीषु को शनिशाली शत्र के साथ युद्ध करने का निषेध किया है १ दुःख से क्रोध और क्रोध से तेज उत्पन्न होता है, पश्चात् उस तेज द्वारा शत्रु पराक्रम करने के जिये प्रेरित किया जाता है। अर्थात् विजिगीषु द्वारा शत्रु कस्लेशित किया जाता है. तब उसके हृदय में करूरी भीषण ज्वाला धधकती है, जिसके फलस्वरूप उसमें तेज उत्पन्न होता है जो कि उसे पराक्रमो बनाने में सहायक होता है अतः वोर सैन्यशक्तिवाला व वात्र अपने भाग्य की प्रतिकूलवावश यदि एक बार विजिगीषु द्वारा हरा दिया जाता है परन्तु उसका परिणाम विजिगीषु के लिये महाभयङ्कर होता है, क्योंकि वह पुनः बार बार हमला करने तत्पर रहता है, इसलिये प्रवल सैनिकों वाले शत्र के साथ युद्ध न कर सन्चि ही करनी चाहिये ॥ ६३ ॥
किसी विद्वान ने तो दुःख व क्रोध से उत्पन्न हुये विजिगीषु के तेज को विजय का कारण बताया है ॥ १ ।
ओsay अपने जीवन की भी अभिलाषा नहीं करता मृत्यु से भी नहीं डरता - उसकी वीरता का वेग उसे शत्रु से युद्ध करने के लिये प्रेरित करता है ॥ ६४ ॥
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नारद ने भी मृत्यु से डरने वालों में कायरता और न डरने वालों में वीरता व विजय प्राप्ति का निरूपया किया है ॥ १ ॥
जिस प्रकार शेर का बच्चा छोटा होने पर भी शक्तिशाली होने के कारण बड़े भारो हाथी को मार डालता है, उसी प्रकार विजिगीषु भी प्रबल सैन्य को शक्ति से देता है ।। ६५ ।।
महान शत्र को युद्ध
१ तथा जैमिनिः- यदि स्याच्छक्तिसंयुक्त बत्रुः शत्रोश्च भूपतिः । तदा हन्ति परं २ ला गुरुः रिस्पान प्राजनं कर्म प्रतियोग्य तथा तथा प्रतिपत्वं ३ तथा च शुक्रः--यदा स्वाद्वीर्यपान शत्रुः श्रेष्ठदैन्यसमन्वितः । श्रात्मानं ४ तथा प्रोक्तम्ः दुःखाम तेजो बन् पुंसां लम्जायते ५ तथाच नारदः
वनोगं
तेवां जायते श्री
में परास्त कर
यदि स्थातिपुष्कलम् 1 विजिगीषोरिमे गुम्बाः ॥११ तदा तस्योपचर्यते ॥ 15
ममरे चैव निवर्तते ॥११॥
स्वस्वान्कान मृत्यो भने [रायुर्जयन्त्रिताः ] ॥11॥
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नातिवाक्यामृत
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जैमिनि' ने भी उक्त इवान्न द्वार। इसी बात को पुष्टि की है ॥ १।।
विजिगोषु अत्यन्त पराजित किये हुये शत्र को पीड़ित न कर-फिर उस पर चढ़ाई न करे। अन्यथा मताया हश्रा शत्र अपने नाश की आशंका से पुनः पराक्रमशनि का प्रयोग करता है ।। ६६ ।।
विदुर ने भी पराजित शत्र के बार में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥
शूरता ही है अद्वितीय धन जिसका ऐस शरबीर शम्र का जय विजिगीष दुरभिप्राय-वश मम्मान करना है तब वह शत्रु अपने मन में उसके प्रति वरेको पज के समान पत्यधिक कुपित्त हो जाता है अयोन जिस प्रकार दुरभिप्राय गश बलिदान करने के पर्व की जाने वाली वर को पजा मे छुपत करती है, उमी प्रकार दुर्गाभप्रायवश विजिगीषु द्वारा किये हुये मन्मान में भी शक्तिशाली शत्र की जोधाग्नि पर्व मे अत्यधिक उद्दीपित हो जाती है, अतः विनिर्ग:पु को शक्तिशाली शत्र का क.पर-पर्ण मन्मान करके अपने को स्वतरे में नहीं डालना चाहिये ।। ६३ ||
भागुनि ने भी सक्त दृप्रान्त द्वारा उन बात का समर्थन किया है।। ।।
समानशक्ति व अधिक शक्ति वाले के साथ युद्ध में हानि, धम, लोभ व असुर विजयो राजा का स्वरूप, असुर-विजयो के आश्रय से हानि, श्रेष्ठ पुरुष के मन्निधान में लाभ, निहत्थे शत्र पर प्रहार करने वाले की कड़ी आलोचना, युद्ध भूमि में भागने वान रात्री के प्रति राजनानि व शत्र भून राजा के अन्य वन्दी राजाओं स भेट के विषय में
समस्य समन सह विग्रह निश्चिनं मरणं जयं च मन्देहः, आम हि पात्रमामेनाभिहतमुभयतः क्षयं कराति ।। ६८ ।। ज्यायसा मह विग्रहा हस्तिना पदातियुद्धमिव ॥ ६६॥ म धर्मविजयी राजा या विधेयमात्रेण मन्तुष्टः प्राणार्थमानेषु न व्यभि वति ॥ ७० ॥ स लोमविजयी राजा यो द्रध्यण नीतिः प्राणाभिमानपु न व्यभिचानि ।। ७१॥ सोऽसुरविजयी यः प्राणायमानापघातन महीमभिलपति ॥ ७२ ।। असुरविजयिनः संश्रयः सूनागारे मृगप्रवेश इव ।। ७३ ।। यादृशम्नादृशो श यायिनः स्थायी बलवान यदि साधुचर: संचारः ॥ ७४ ।।
--.-..-... -.-- --. .. -.... - . . ... -. -- तश - जैमिनि:- यपि स्याल लघुः सिंहस्तथापि द्विपमाहवं । पुर्व राजापि वीर्यात यो महारि इम्तिन्यपुः ।। ।। स्था च पिदुर:-भग्म: शत्रुनं गन्तव्यः पृहता पिजिगोपुणः । कदाचिस्ता पाति भरले कृतनिश्चयः ॥ ३ ॥ । तथा च भागरिः उपयाचितदानेन रछागेनापि प्रहष्यति । रिका पसवान् भूपः स्वल्पयामि तपेश्यया || ॥ A मु.मू. प्रतिमें इसके स्थान में भापकरोति ऐसा पाटान्सर है, जिसके कारण उक्त सत्रका इस प्रकार का भो भई होता जो विजिगीषु पराजित सत्र के शरणागत होमेपर सन्तुष्ट होता हुथा उसके प्राथा, धन और मानमर्वात को नह करने के दुरभिवाय से उसपर पुनः प्रहार नहीं करता बहो धर्मविजयी' कहा गया है। विमर्श-रक्त दोनों भब भुसंगप है, केवल पाक्य भेद इतना हो है कि पहले अर्थ में अपनी प्रसार और दूसरे अयमें पराजित शत्रुका अम्बानने वाले को 'यमविजयी कहा गया है।-सम्मारक
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युद्ध समुद्देश
चरणेपु पतित भीतमशस्त्रं च हिंसन् ब्रह्महा भरति ॥७५ ।। संग्रामधृतेषु यायिषु सत्कृत्य विसर्गः ॥ ७६ ॥ स्थायिषु संसर्ग: सेनापत्यायत्तः ॥७७॥
अर्थ-समान शक्ति छानों का परस्पर युद्ध होने से दोनों का मरण निश्चित और विजय प्राप्ति सैविग्ध रहती है, क्योंकि बाद कच्चे घड़े परस्पर एक दुसरे से ताड़ित किये जावें तो दोनों नष्ट हो
भामुरि'ने भी उक्त दृष्टान्त देते हुए तुल्य बलवानों को युद्ध करने का निषेध किया है ।। १ ।।
जिस प्रकार पदाति (पैदल ) सैनिक हाथी के साथ युद्ध करने से नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार होन-शक्ति याला विजिगीषु भी अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु के साथ युद्ध करने से न हो जाता है ।।६६॥
भारद्वाज ने भी सक्त दृष्टान्त द्वारा उक्त बात की पुष्टि की है ॥१॥
जो राजा प्रजा पर नियत किये हुए टेक्स से ही सन्तुष्ट होकर उसके प्राण धन व मान की रक्षा करता हुश्रा अन्याय प्रवृत्ति नहीं करता-उसके प्राण व धनादि नष्ट नहीं करता, उसे 'धर्म विजयी और ओ सिर्फ धन से हो प्रम रखकर प्रजा के प्राण और मान मर्यादा की रक्षाधं उसके साथ अन्यायपणे वर्ताव नहीं करता बसे 'लोभ विजयी एवं जो प्रजाके प्राणा, धन और सम्मानका नाश पूर्वक शत्रु का वध करके उसकी भूमि चाहता है उसे 'असुर विजयी' कहत है ।। ७०-७२ ॥
शुकने भी उक्त धर्मविजयो-श्रादि राजाओं के विषय में इसी प्रकार कहा है ।।१-३॥
जिस प्रकार चाएठाम-गृह में प्रविष्ट हुए हिरण का वध होता है, उसी प्रकार असुरविजयी सजा के आश्रय से भी प्रजा का नाश होता है ।। ७३ ।।
शुक्र'ने भो प्रमुरविजयो के मामय से प्रमा की मृत्यु बताई है ॥ १ ॥
विजिगोषु जैया-वैसा-दुल व कोश-हीन क्यों न हो परन्तु यदि वह उत्तम ऋतव्य-परायण व वीर पुरुषों के समिधान से युक्त है तो इसे सच की अपेक्षा बलिष्ठ समझना चाहिये । ५४ ।।
नारद ने भी वोर पुरुषों से युक्त विजिगीषु को शक्तिशाली बताया है।॥१॥
जो व्यक्ति संग्राम भूमि में अपने पैरों पर पड़े हुए, भयभीत व शस्त्र-हीन ( निहत्थे ) रात्र का इत्या करता है, वह ब्रह्मघाती है || ७५ ॥
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तथा व भारि:-समेनापि न योडायमित्युवाच वृस्पतिः । अन्योन्याइसिना भंगो घटाभ्यां जायते यत: ॥1॥ तथा च भारद्वाज:-इस्तिमा सह संग्रामः पातीनां जयावहः । तथा बलवतानन दुर्बलस्पच्यावहः ॥ तथा च राक:-प्राणविताभिमानेष पो राजा म त प्रजाः । सधर्मविजयी बोके यथा खोमेन कोशमा 11111
प्रायोषु गाभिमानेषु यो जनेषु प्रवर्तते । स जामस्जियी प्रोतोय स्थानव तुष्यति ॥
अर्थमानोपान को महीं पाते नृपः । देवारिविजयो प्रोक्तो भूलोकेश विन्यौः ॥३. ४ तथा • शुकः.. असुरविजयिनं भूपं संभपेनन्मतिर्मितः । स भून मत्युमाप्नोति सून माय मृगो यथा ।। १ तथा च मारद:- राज्य दुर्वलो वापि स्थायी स्याद सावत्तरः । सकाशाचापिनश्चेत स्थात् सुमद्धः मुबारकः ||
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नीविषाक्यामृत
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जैमिनि' ने भी उस प्रकार का अधर्म-पुरुष अहहत्या का पात्र पसाया है ॥ १॥
संग्राम-भूमि मे भागने वाले शत्र, जो विजिगोपु द्वारा पा लिये गये हैं, उन्हें वस्त्रादि द्वारा सन्मानित करके छोड़ देना चाहिये ।। ७६ ॥
भारद्वाज ने तो गिरफ्तार किये गये, भागने वाले व स्थायो ( युद्ध करने वाले ) दोनों प्रकार के रात्रों को शाम धम से सम्मानित करके छोड़ देनके विषय में कहा है ॥ १ ॥
स्थायी शत्रुभूत राजामों की अन्य गिरफ्तार किये हुए चन्द्रो राजा घों के पास जाकर मैंट होने देना यह सेनापति के अधीन है। अर्थात यदि वह कोई खतरा न मममे सो भेंट करने के अन्यथा नही।
किसी विद्वाम् ने भी सक्त बात सेनापति की चि के अधीन बताई है ॥१॥
मनुष्य मात्र को अद्धिरूप नदी का बहाव, पत्तम पुरुषों की वचन-प्रतिष्ठा, सन-प्रसत्पुरुष के व्यवहार व लोक त्यता का साधन, नीति-यम वाशी की महत्ता, मिथ्या वचनों का दुष्परिणाम, विमामघास य विश्वासघाती की कहो पालोचना व झूठी शरथ का दुष्परिणाम--
मतिनदी नाम सर्वेषां प्राणिनामभयतो चहांत पापाय धर्माय च, तबाघ स्रोतोऽतीव सुलभ दुर्लभं तद् द्वितीयामेति ॥ ७८ ॥ सत्यना िशस्तव्यं महत्तामध्यप्रदानवचनमेष शपथ
७६ || सनामसता च वचनायत्ताः खलु सर्वेष्यपहारा: स एव सर्वलोकमहनीयो यस्य वचनमन्यमनस्कतयायायातं भवति शासनानयोदिता वाग्वदति सत्या घपा सरस्वती| व्यभिचाग्विचनप नहिकी पारलौकिकी वा क्रियास्ति ।। २ । न विश्वासघातात परं पातकमस्ति | ८३ ॥ विश्वासघातकः सर्वेषामविश्वास करोति ।। ८४ || असत्यसन्धिषु काशपानं जातान हन्ति ॥ ५॥
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सथा ममि:-मग्नशन तथा प्रससपास्मीति च वादिनं । यो इन्पारियं सस् प्रमात्मा समरखनं ॥३॥ २ ता च भारवान-मामे वेरिणो ये व यायिनः स्याधिमो पूताः । गृहोता मोचनीयास्ते सात्रधर्मेण पजिताः ।।
मोक्तम्- थायमा समर्गस्तु स्थायिनः संप्रणश्यति । यदि सेनापनश्चिते रोचते नाम्पयन ॥ ॥ A इसके पचास-- म पनि में 'असत्यवादिनो मृतस्यापि हिनदुशो बिनश्यति ॥ 1 ॥ सथिता पमिशिधपि निवायित्न शक्यते ॥ || तथाहि पुत्रः किजासत्यमभाषतापीतमयमियन्यथाप्पति
पशितिः ॥ ३ ॥ यशोवभः प्रावधानगरीयान् ॥ ॥ इसप्रकार दिशेष पाठ पर्वमान है, जिसका भाव यह है कि मिथ्यावादीका अपयश माने पर भी नष्ट नहीं होता, र जीवित अवस्था में किस प्रकार न होसकता है। एक बार असत्यभाषण भारि दुगुणों से फैलामा अपयश पंजमामों द्वारा भी निवारण नहीं किया जासकमा। जसे 'मह मात के समय पुधिष्ठिर ने अत्यधिकमद्यपान करके मिथ्या भाषण किया' यपि यह बात झूठ है, नमावि उनकी कीर्ति शमसाधारण में सुनी जाती है। गतिहासिक रात को स्पष्टीकरण
(संघ प्रिम पाक मी)
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अर्थ-भाश्चर्य है कि संसार में मनुष्य मात्र को बुद्धि रूर नदी पाप व पुण्य दोनों तरफ महा काती है। उनमें से उसका पहला पाप की ओर बहाब अत्यन्त सुलभ-सरलता से होने वाला और दूमरा धर्म की भोर बहाव महाकठिन सारांश यह है कि मनुष्यों की बुद्धि नीति विरुद्ध व स्वाज्य
असत्कार्यों-जुत्रा व मपपानादि पाप कार्यों) में स्वतः प्रकृच होती है, परन्तु दिसा सस्व भादि नैतिक शुभ कार्यों में बाबा प्रयत्न करने पर भी प्रवृत्त नहीं होती इसलिये कल्याण की कामना करने बाले नैसिक पुरुष को अपनी खुशि भनीतिसमनापार से इटा कर नीविर सदापार की भार प्रेरित करने में प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥७॥
गुह'ने भी मनुष्यों की चुदि हा नदी के पाप और पुण्य इन दोनों लोगों का लेख किया है।
बावीमसिंह सूरि ने भी प्राणियों की बुद्धि स्याश्च में स्वतः प्रश्नुत्त होने वाली और शुभ में अनेक प्रयत्नों द्वारा भी प्रवृत्त न होने वालो कहा है।
नैवक मनुष्य को दूसरों के हरर में अपना विश्वास उत्पन्न करने के लिये सच्ची शपथ-पोग (कसम) खानी चाहिये, झूठी नहीं, अभयदान देने वाले प्रामाणिक वचन बोलना ही महापुरुषों की सौगध है, अब ना ||
शक ने भी उसम पुरुषों की शपथ के बारे में इसी प्रकार कहा है ॥१॥ कायों के पायोक गुरु द्रोणाचार्य के इकलौते पुत्र का नाम 'भरवस्थामा एवं कौरवों की सेना में वर्तमान दायी का माम मो अवस्थामा था। महाभारत के युद्ध में गुरु द्रोणाचार्यकी यह प्रतिज्ञा थी कि पति मेरा इबोण पुत्र 'अवस्थामा मारा जापगा तो मैं पुर मही करूगा | नमों की तरफसे पुर करने वाले बीर गुरु योजना को जीतना पांडवों के लिये टेडी सीर पी. स्पलिये उन्होंने गुरुत्रोणाचार्य को युद्ध से मारनेको राजनैविक पास सी। एक समय जब पाण्डवों द्वारा कौरव सैम्पका भरवस्यामा मामाहापी पराशायी किया गया और विश्वुमि बनाई गई एवं 'अश्वत्थामा मृतः अश्वत्थामा मुसा इस प्रकार अरशमा नाम के गुरु द्रोबाचा पुत्र के मरनेका शोर किया गया, उसे द्रोपावाने सुना । परन्तु बन्हें सत्र की कही बात पर सहला विश्वास नहीं हुमा, इसलिये उन्होंने इसका निश्चय करने के लिये सस्पबादी धर्मराज युधिदिर से का। कन्या, मम भीमद्वारा धर्मरान युधिष्ठिर पेसे अवसर पर मिस्वाभापलिये पाच किये गये प्रतः इनकेवात विल चिणिरने 'भरवस्यामा नाम का हावी हो मारा गया , दोणाचार्यका पुत्र' यह जानते हुए भी 'परवाषामा सुतः परोपका मी 'मस्थामा मर चुका है, परन्तु वह मनुष्य है अथवा हायी इसे में नहीं जानता इस प्रकार मियाभाषनर बाला चौकी तरफ से खेले जाने वाले राजनैतिक पाप-पैचों से गुरु दोष 'प्रश्वत्थामा यः नरो-इवना की सुम सके इसलिये उम्हे धर्मराज युधिषि की बात पर विश्वास हो गया और पुत्रशोक-से या होकर स्वर्गवास को माल हुए । बारीश पद है कि एकबार मिध्वाभाषणाने से पुधिधिर की अभी भी कटु बालोचना की जाती है कि महों से मनपान करके मिथ्याभाषस किया || 1- सरेको कीर्तिका जोर करना उसके प्रावों के पास से भी भिक हानिकर है ॥ ॥
तथा च गुरु:-प्रतिनाम नही माता पायमोजमा मुखा मिश: प्रथम तस्याः पापोयमस्तवापर ॥१॥ २ सभाबादीमसिंहसहित- हेये वर्ष की विरमेनाप्यसती शुभे ।। तभा सका- नमाना gणाम याममयमई । स एव सम्मः शरवः किमन्यैः शपर्यः कृतः ॥११॥
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नौतिवाक्यामृत
लोक में सत्पुरुष व असत्पुरुषों के सभी व्यवहार उनके द्वारा कहे हुए वधनों पर निर्भर होते हैं, इसलिये नैतिक व्यक्ति को अपने कहे हुए वचनों का पालन करना चाहिये। जिसके वचन मानसिक उपयोग के विना भी कहे हुए लिखि के समारयामा एक पोते, पदी दुरुष लोक में समस्त मनुष्यों द्वारा पज्य होता है।८०||
शुक्र ' ने भी सत्यवादी को समस्त मनुष्यों द्वारा पूज्य माना है ॥ १ ॥
शिष्ट पुरुषों द्वारा कही जाने वाली नैतिक बाणी साक्षात् सरस्वती के समान प्यारी प्रतीत होती है।॥१॥
गौतम' भी सज्जनों की मासि-युक्त वाणी को साक्षास् सरस्वती के समान मानता है ॥३॥ जो प्रामाणिक (सत्य) वचन नहीं बोलते, उनकी ऐहिक वा पारलौकिक क्रियाएँ (कर्तव्य) निष्फल होती हैं ।। ८२॥
गौतम " ने भी मिध्यावादी को ऐहिक वा पारलौकिक कल्याण से वंचित कहा है ।। १ ।।
लोक में विश्वासचात से बढ़कर दूसरा कोई महान् पाप नही अतः शिष्ट पुरुष कदापि किसो के साथ विश्वासघात न करे ।।३।।
अङ्गिर' ने भी विश्वासघाव को महान् पाप पताकर उसका स्याग कराया है ।। १ ॥
विश्वासघाती अपने ऊपर सभी लोगों का अविश्वास उत्पन्न करता है अधात पस पर कोर भी विश्वास नहीं करता ॥ ८४ ॥
भ्य ' ने भी विश्वासघाती के ऊपर इसके माता-पिताका भी विश्वास न होना बसाया है॥१॥
भूती प्रतिज्ञा करने वालों द्वारा खाईजाने वाली भूलो सौगन्ध उनकी सम्मान-हानि कर डालती है || ८५ ।।
किसी विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है॥१॥
सैन्य की न्यूह -रचना के कारण व ससकी स्थिरता का समय, शिक्षा, शत्र के नगर में प्रवित होने का अवसर, कूट युद्ध व तूष्णी युद्ध का स्वरूप व अकेले सेनाध्यक्ष से हानि
बलं बुद्धिभूमिहानुलोम्य' परोद्योगश्च प्रत्येक बहुविकल्पं दण्डमण्डलाभोगा संहतव्यूह
तथा च शुत्रः-सज पूज्यो सोकानां पाक्यमपि सासनं । विस्तीर्ण प्रतिवं च लिलि शासनं यथा ॥ ॥ २ सथा च गौतमःमोत्यात्मिकात्र या पाणी प्रोम्यते साधुमिगेन। प्रस्पा मारती वा विकल्पो मास्तिरचम ॥१ ३ तथा च गौतमः-न सेपामिह जोकोऽस्ति परोऽस्ति दुरात्मना । रेष वा प्रोक्तमम्पया आवते पुमः ।। * तथा पाशिरः-विश्वासघातकावन्यः परः पावकसंयुतः । न विद्यते धराये तस्मात्तं दूरतसबमेत् ॥1॥ ५ तथा च रेभ्यः-विश्वासपासको यः स्पात्तस्य माता पिता विश्वास मोत्येव भनेम्वन्येषु का 1.4 || ६ तथा थोक्तम्-बदसत्यं जाने कोशपानं हि निश्वितंकरोतिपुर्शत्रामा पास गोत्रसमजवं॥1॥
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युद्ध समुहश
रचनाया हेतवः ॥ ८६ ॥ साधुरचिताऽपि व्यूहस्तावत्तिष्ठति यावत्र परबलदर्शनं ।। ८७ ।। न हि शास्त्रशिक्षाक्रमेण योद्धव्यं किन्तु परमहाराभिप्रायेण ॥ ८८व्यसनप प्रमादेश रा परपुरे सन्यप्रेष्यणमवस्कन्दः ||८६ ॥ अन्याभिमुखप्रयाणकमुपक्रम्यान्यापघातकरणं कटयुद्ध ॥६० ॥ विषविषमपुरुषापनिपदवाग्योगोपजापैः परोपघातानुष्ठान तूप्णीदण्डः ॥ ३१॥ एक बलस्याधिकतं न कुयात , भेदापरायनेक समय अनाति महान्तमन ।। ६२ ||
अर्थ-अनेक प्रकार का सभ्य (हाथी व घोड़े आदि) ,बुद्धि, विजिगीषु के ग्रहों की अनुकुन्ना, शत्र द्वारा की जाने वाली लड़ाई का उद्योग और सैन्य मडल का विस्तार ये स'गठित संन्य राह (विन्यास) की रचना के कारण हैं अथात् उक्त कारण सामग्री के सन्निधान से विजिगी द्वारा
यह की रचना की जाती है ।।८६ अच्छी तरह से रचा हुआ सन्य-म्यूह तब तक ठीक व स्थिर-काल रहा, जब तक कि इसके द्वारा शत्रु-संन्य दृष्टिगोचर नहीं हुमा। अभिप्राय यह है कि शासना दिखाई पड़ने पर विजिगीपु के वीर सोनिक अपना व्यह छोड़ कर शत्र की सैन्य में प्रविष्ट होकर उत्तम भयङ्कर युद्ध करने मिल जाते हैं ।
शुक्र' ने भीसभ्य फी व्यूह रचना के विषय में इसी प्रकार का उल्लेख किया है।॥ १ ॥
विजिगीष के पीर सैनिकों को युद्ध शास्त्र की शिक्षानुसार युद्ध न कर शत्रु द्वारा किए जाने वाले प्रहारों के अभिप्राय से-उन्हें ध्यान में रखते हुए-युखू करना चाहिए ।।८।।
शुक्र' ने भी लड़ाई करने का यही तरीका बताया है।॥१॥
जब शत्र मद्यपान आदि व्यसनों व आलस्म में फसा हुआ हो , तब विजिगोधुको अपना संन्य एसके नगर में भेजकर प प्रविष्ट करके उसके द्वारा शत्रु नगर का घेरा बालना चाहिए ।। ||
शुक्र' ने भी विजिगीष को फौज के प्रवेशका यही अवसर बताया है॥१॥
इसरे शत्रु पर चदाई प्रकट करके वहां से अपना सैन्य लौटा कर युद्ध द्वारा जो अन्य शत्र का घत किया जाता है उसे कूट युद्ध कहते हैं ॥ ६॥
शुक्र मे भी कूट युद्ध का इसी प्रकार लक्षण किया है।॥१॥
विध-प्रदान, घातक पुरुषों को भेजना, एकान्त में चुपचाप स्वयं शत्रु के पास जाना व भेदनोवि इन उपायों द्वारा जो शत्रु का पात किया जाता है, उसे 'नूष्णी युद्ध, कहते हैं ।। ६१ ॥
गुरु ने भी युक्त नपायों द्वारा किए जाने वाले शत्र वध को तूष्णी युद्ध कड़ा है ॥१॥ तथा शुक्रा--स्यूहस्य सपना तावसिष्ठति शास्त्रनिर्मिता । यावदन्पसं नैव दृष्टिगोचरमागतं ॥ १ ॥ • तथा व शुक्रा-शिक्षाक्रमेण नो युद्ध कर्तव्य रणसंकुले । प्रहारान् प्रेक्ष्य शत्रूणां तदह युद्धमाचरेत् ।। १ ।। ३ तथा व शुक-यसने का प्रमादे पा संसा: स्यात् पर यदि । तदायस्कन्ददानं च कर्तभूतिमिहता ।। || ५ तथा च शुकः--अम्माभिमबमागंण गावा किंचित् प्रमाणक न्यावुरफ घातः क्रियते सदैव कुटिलाध्यः ॥ १ ॥ ५ तथा च गुरु:-विपदानेन योऽयम्य हस्तेन क्रियते वधः । अभिचारस्कृत्येन रिपो मीनाहकोहि सः ॥ 52
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नीतिबाक्यामृत
___राजा किमी अकेले व्यक्ति को सैन्याधिकारी न बनाये, क्योंकि अकेला सैन्याधिकारी स्वेच्छा. पारी और सेना के कारण राजा से भी अधिक शक्तिशाली होता है, इसलिये बह शव द्वारा कोराने के भपराध-वश अपने स्वामी से प्रतिकूल होकर सेना की सहायता से किसी समय राजाका राष्ट्र का महाम् अनर्थ उत्पन्न कर सकता है ॥२॥
भागुरि' ने भी माकेले व्यक्ति को सैनाध्य बनाने से वक्त प्रकार की हानि पवाई है ॥ १ ॥
ऋणी राजा, वीरता से लाभ, युद्ध से विमुख होने वाले को हानि, युद्ध के लिये प्रस्थान करने वाले राजा का व पर्वतनिवासी गुप्तचरों का कर्तव्य, सेना के पड़ाव-योग्य स्थान, भयोग्य पदाय से हानि व शत्रुभूमि में प्रविष्ट होने के विषय में राज-कत्तव्य
राजा राजकार्येषु मृतानां सन्ततिमपोषयन्नृणभागी स्यात् साधु नोपचयते तंत्रेण ।। ६३ ॥ स्वामिनः पुरः सरग युद्ध ऽश्वमेघसमं ।'६४॥ युधि स्वामिन परित्यजतो नास्तीहासत्र च कुशलं ॥६॥ विग्रहायोच्चलितस्या बलं सर्वदा सन्नद्धमासीत्, सेनापतिः प्रयाणमावास च कुर्वीत चतुर्दिशमनीकान्यदूरेण संचरेयुस्तिष्ठेयुश्च ।। ६६ ॥ धूमाग्निरजोविणणध्वनिव्याजेनाटविकाः प्रणधयः परवलाम्यागच्छन्ति निवेदयेयुः ।।१७।। पुरुषप्रमाणोत्सेधमवहुजनविनिवेशनाचरणापसरणयुक्तमग्रतो महामण्डपाकाशं च तदंगमध्यास्य सर्वदा स्थानं दद्यान् ॥६८ || सर्वसाधारणभूमिक तिष्ठतो नास्ति शरीररक्षा | EK | भूचरो दोलाचरस्तुरंगचरो वा न कदाचित् परभूमौ प्रविति ।।१००॥ करिणं जपाशं वाप्यन्यासीन न प्रभवन्ति तुद्रोपद्रवाः ॥१.१॥
भर्थ-यदि राजा राजकीय कार्यों-युद्ध-मादि में मरे हुए सैनिक-कादि सेवकों की सन्तति-पुत्र-पौत्रादि का पालन-पोषण मही करता, तो यह उनका ऋणी रहता है और पेसा अनर्थ करने से प्रतिकुल हुए मंत्री-मादि प्रकृतिवर्ग भी इसकी भली-भांति सेवा नहीं करते। अतएव राजा को राजकोय कार्य में निधनता को प्राप्त हुए सेवकों की सम्पति का पालन-पोषण करना चाहिये ।।३।।
वशिष्ठ ने भी गुर में मारे गये सैनिकों की सम्पतिका पालन-पोषण म करने वाले सभा को निस्सन्देह उनकी हत्या का पाप होना बताया है ।।१।।
लबाई में अपने स्वामी से भागे जाकर शत्रु से युद्ध करने वाले वीर सैनिकको प्रश्वमेघ समान फल मिलता है। विमर्श यह है कि लौकिक रिसे उक्त उदाहरण समझना चाहिये, क्योंकि धार्मिक दृष्टि से अश्वमेघ यज्ञ में संकल्पी स्थल जीवहिसा होती है, पता ससा करने वाला-प्रनिष्ट फल-दुर्गव के भयानक दुख भोगता है, जिसका स्पष्टीकरण यशस्तिनक में ही पाषायें भी ने भी किया है ॥६॥
तथा भागुनि:- एक र्याक सैन्येशं सुसमर्थ विशेषत: | HITE: परे भेद माजिद स परैः क्रियात् ।।। १ तया व पशिल:- मृतानां पुरत: संख्ये पोऽपत्यानि न पोपवेत् । सेतो लहस्पाबा: पूर्व गृडते मात्र संशयः । ॥
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युस समुददेश
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वशिष्ठ' ने भी इसी प्रकार वीर सैनिकों की प्रशंसा की है ।।१।।
जड़ाई में अपने स्वामी को छोड़कर युद्ध भूमि से भाग जाने वाले सैनिक का ऐहौकिक व पारनोकिक कल्याण नही होता। अर्थान-रणेऽपसायन-युद्ध से न भागना-इस क्षात्र धर्म का त्याग करने से उसकी इस लोक में अपकीति व परलोक में दुर्गति होती है ॥४॥
भागुरि ने भी युद्ध से पर। मुख होने वाले सनिक के विषय में इसी प्रकार कहा है ।।१।।
जब विजिगीषु, शत्रु से युद्ध करने के लिये प्रस्थान करे, उस समय उसका सेनाध्यक्ष माधी फौज सदा तैयार-शस्त्रानिस सुसज्जित रक्खे, इसके पश्चात् ही विजिगीषु शत्र पर चढ़ाई करे और जब वह शत्रु-संन्य के प्रावास ( निवासस्थान) की ओर प्रस्थान करने में प्रयत्नशील होवे, तब उसके समीप चारों तरफ फौज का पहरा रहे एवं उसके पीछे डेरे में भी फोग मौजूद रहनी चाहिये । इसका कारण यह है कि विजिगीषु कितना ही शक्तिशाली हो, परन्तु वह पढ़ाई के समय व्याकुल हो जाता है और शूरवीर कोग उस पर प्रहार कर देते हैं ।।६।।
शुक' ने भो शत्रुभूमि के प्रति प्रस्थान करनेवाले राजापोंको सदा सावधान रहना वाया है।
___ जब विजिगीषु दूरवर्ती हो और शत्रकी फौज मसको ओर आ रही हो, एस अवसर पर जंगल में रहने वाले उसके गुप्तचरों को चाहिए कि वे धुषां करने, भाग जलाने, धूल उड़ाने, अथवा भेसे के सोग फूकने का मन करने के बहाने उसे शत्रु की फौज पाने का बोध करावें ताकि उनका स्वामी साबधान हो जाये ॥७॥
गुरु ने भी पर्वतों पर रहने वाले गुप्तचरों का बही कर्तव्य बताया है ।। १ ॥
विजिगीषु शत्रु के देश में पहुँच कर अपनी फौज का पड़ाव ऐसे स्थान में सले जे कि मनुष्य की ऊंचाई माफक ऊंचा हो, जिसमें थोडे भावमियों का प्रवेश, घूमना तथा निकास हो जिसके भागे विशाल सभामंडप के लिये पर्याप्त स्थान हो, इसके मध्य में स्वयं ठहर कर सममें अपनी सेना को ठहरावे । सर्वसाधारण के माने जाने योग्य स्थान में सैन्य का पड़ाव डालने व स्वयं ठहरने से विजिगीष अपनी प्रावन नही कर सकता ॥15॥
शुक' ने भी सन्म के पड़ाव के बारे में यही कहा है ।।।।
विजिगीषु पैदन, पालकी भवया घोड़े पर चढ़ा हुमा शत्र की भूमि में प्रविष्ट न होवे, क्योंकि ऐसा करने से जब इसे मचानक शत्रु कृत उपद्रवों का भय प्राप्त होगा, तब वह अन से अपनी सा नहीं कर सकता ॥ १० ॥
वाशि:-सामिन पुरतः संम्मे हम्पारमान व सेवकः । परप्रमाणानि यागानि ताम्बानोति कलानि च ॥1॥ २तथा च भागुहि-पः स्वामिन परिवम्ब युद्ध पाति परामुखः । इडाकीर्ति पर प्राप्य रतोऽपि मरबजेत् ...
तथा शुक्र:-परभूमिप्रतिष्ठानां नृपतीको शुभं भवेत् । भावाप्रमाणे च यतः रात्र: परीच्यते ॥1॥ ४ तथा च गुरु:-अभी दारिपते देरी बदागरकृति सन्निधौ । धूमादिभिनिवेश: स रैरचारराषसंभवः ।।१।। र तपाप शुक-परदेश पो यः स्वार सर्वसाधारणं नृपः । मास्थ कुरुते भूदो पारास निहन्यते ॥1
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नीति ष: क्या मृत
गुरु' ने भो उक्त प्रकार विजिगीषु को शत्रुद्वारा दातेजाने का संकेत किया है ॥ १ ॥ जब विजिगीषु हाथी अथवा जंपान चाहन विशेष ) पर आरूढ़ हुआ शत्रु-भूमि में प्रविष्ट होता है, तो उसे क्षुद्र उपद्रव शत्रु द्वारा मारा जाना आदि का भय नहीं होता ॥
१०५ ॥
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भागुरि * ने भी उक्त प्रकार से शत्रु-भूमि से प्रस्थान करने वाले विजिगीषु को सुरक्षित कहा है ।। १ ।।
इति युद्ध समुददेश |
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श्रेष्
३१ - विवाहसमुद्द ेश ।
काम संत्रनको योग्यता, विवाह का परिणाम, लक्षण, ब्राह्म, देव आदि चार विवाहों का स्वरूप
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द्वादशवर्षा स्त्री पोडशः पुमान् प्राप्तव्यवहारों भवतः || १ || विवाहपूर्वी व्यवहारश्चात्कुलीनयति ॥ २ ॥ तितारामग्नदेव द्विसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः || ३|| स ब्राह्यो विवाहो यत्र वरायालेकृत्य कन्या प्रदीयते ॥ ५ ॥ स देवो यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव दक्षिणा || २ || गोमिथुनपुरःसर ं कन्यादानादाः || ६ || त्वं भवस्य महाभागस्य सहधर्मचारिणीति' विनियोगेन कन्याप्रदानात् प्राजापत्यः एते चत्वारो धर्म्या विवाहाः ॥ ८ ॥
अ - १२ वर्ष की स्त्री और १६ वर्ष का पुरुष ये दोनों काम सेवन की योग्यता वाले होते हैं ||१|| विवाहपूर्वक किये जानेवाले कामसेवन से चारों वर्ण की सन्तान में कुलीनता टन्न होती है ॥ राजपुत्र' जैमिनि* ने भी कामसेवन की योग्यता व कुलोन एवं शुद्ध सन्तानोत्पत्ति उक्त प्रकार समर्थन किया है ।। १–२॥
युक्ति से कन्या का वरण निश्चय करके अग्नि देव व ब्राह्मण को साची पूर्वक वर द्वारा कन्या का जो पाणिग्रहण किया जाता है उसे विवाह कहते हैं || ३ || विवाहके आठ भेद हैं- श्राम्य, देव अर्थ, प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर पैशाच और राक्षस विवाह । उनमें से जिसमें कन्या के पिता आदि
१ तथा च गुरुः- परभूमिं प्रविष्टो व पारदारी परिभ्रमेत् । इये स्थितो या दोन्तायां घातकैईन्यते हि सः ॥ १ ॥
२ तथा च भगुरिः - परभूमो महीपालः करियं यः समाश्रितः । भूकंपामध्यास्य तस्य कुर्वन्ति किं परे ॥१॥ ३ तथा च राजपुत्रः- यदा द्वादशवर्षा स्थानारी षोडशवार्षिकः । पुरुषः स्यात्तदा रास्ताभ्यां मैथुनजः परः ॥ १ ॥ ४ तथा जैमिनि:- सुवर्णकन्यका यस्तु विवाइयति धर्मतः । सन्तानं तस्य शुद्धं स्यान्नाकृत्येषु प्रवर्तते ॥ १॥
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युद्ध समुद्देश संरक्षक अपनी शक्ति अनुसार कन्या को वस्त्राभूषणों से अलंकृत करके चर के लिये कन्या प्रदान करते हैं, वह 'ब्राह्म्य विवाह, है ॥ ४० ॥
भारद्वाज' और किसी विद्वान् ने भी उक्तप्रकार विवाह का लक्षण एवं भेद निरुपण किये है ।। १-२ ।।
जिसमें यज्ञ ( हवन आदि) कत्तों के लिये यज्ञ के निमित्त संरक्षकों द्वारा दक्षिणारूप में कन्या दी जाती हैं, वह 'देव विवाह' है | ५ || जिसमें गौमिथुन ( गाय बैल का जोड़ा ) आदि दहेज देकर कन्या दो जाती है, वह 'आर्ष विवाह' कहते हैं ।। ६ ।।
गुरु व किसी विद्वान् ने भी 'देव और आर्ष विवाह के उक्त प्रकार लक्षणा किये हैं ।। १-२ ।। 'तु इस यशाली को सहायता पहुँचाने वाली धर्म पत्नी) हो
इस प्रकार नियोग करके जहां पर कन्या प्रदान की जाती है, वह 'प्राजापत्य विवाह, है ॥ ७ ॥ गुरु ने धनिक पुरुष द्वारा धनिक के लिये अपनो कन्या दी जाने को 'प्राजापत्य विवाह' माना है॥ १ ॥
ये पूर्वोक्त चारों विवाह धर्मरूप – न्याय संगत (श्रेष्ठ) हैं ॥ ८ ॥
गान्धर्व आदि विवाहों के लक्षण व उनकी समालोचना एवं विवाद की अयोग्यता प्रगट करने वाले कन्या-दूषण
मातुः पितुर्धन्धूनां चाप्रामाण्यात् परस्परानुरागेण मिथः समवायाद्गान्धर्वः ॥६॥ पणबन्धेन कन्याप्रदानादासुरः ।। १० ।। सुप्तप्रमत्तकन्यादानात्पशाचः || ११ || कन्यायाः प्रसह्यादानाद्राक्षसः १२ एते चत्वारोऽधमा अपि नाम यद्यस्ति वधूवरयोरनपवादं परस्परस्य भाब्यत्वं ॥ १३ ॥ उन्नतत्त्वं कनीनिकयाः, लोमशत्वं जंघयोरमांसलत्वमूर्वोरिचारुत्वं कटिनाभिजठरकुचयुगलेषु, शिरालुत्वमशुभ संस्थानत्वंच गाह्रोः कृष्यत्वं तालुजिह्वाधरहरीतकीषु, विरलविषमभावो दशनेषु, कूपस्थं कपोलयोः, गिलत्वमच्णोर्लग्नत्वपि ( चि) लिकयोः, स्थपुट ललाटे, दुःसन्निवेशत्वं श्रवणयो:, स्थूलकपिलपरुषभावः केशेषु श्रतिदीर्घातिलघुन्यूनाधिकता समकटकुञ्जवामनकिराताङ्ग स्वं जन्मदेहाभ्यां समानवाधिकत्वं चेति कन्यादोषाः सहसा तद्गृहे स्वयं दूतस्य चागतस्याग्रे अभ्यक्ता व्याधिमती रुदती पविघ्नी सुप्ता स्तोकायुष्का बहिर्गता
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१ तथा च भारद्वाजः २ तदुक्तम्
युक्तितो यच्च वशिव्यान्यसाक्षिकं । विषादः प्रोच्यते शुद्ध मोऽन्यस्य स्याच्च विप्लवः । वस्त वार्थः प्राजापत्यस्तथापरः । गन्धर्वश्वासुरयचैव पैशाको राचसस्तथा ३ तथा च गुरुः-- कृत्वा यशत्रिधानं तु यो ददाति च ऋत्विजः । समाप्तौ दक्षियां कन्यां वे वैबाहिकं हि तत् ॥ १ ॥
४ तनुकं—कन्यां दत्वा पुनर्दद्याथ गोमिथुनपरं । वराय ते सोऽत्र विवाहश्वाशितः ॥ १७ २ तथा भित्रि वि कन्यकामिह । सन्तानाय स विशेषः प्राजापत्यो मनीषिभिः ॥ १ ॥
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नीतिवाक्यामृत
कुलटाऽप्रसन्ना दुःखिसा कलहोधता परिजनोद्वासिन्यप्रियदर्शना दुर्भगेति नैतां वृणीति कन्याम् ॥ १४ ॥
अर्थ - जिसमें वर कन्या अपने माता पिता व बन्धुजनों को प्रगाया न मान कर ( उनकी उपेक्षा करके) पारस्परिक प्रेम-वश आपस में मिल जाते है- दाम्पत्य प्रेम कर लेते हैं वह 'गान्धर्व विव ॥ ३ ॥ जिस में कन्या के संरक्षक (पिता आदि ) लोभवश वर पक्ष से धनादि ले कर अयोग्य वर के लिये कन्या प्रदान करते हैं उसे 'बासुर विवाह' कहते हैं ॥ १० ॥ जिसमें मोती हुई व बेहोश कन्या का पहरा क्रिया जाता है, वह 'पैशाच विवाह' है ।। १२ ।। जिसमें कन्या बलात्कार पूर्वक ( जबरदस्ती ) लेजाई जाती है या अपहरण की जाती है, वह 'राक्षस विवाह' है ॥ १२ ॥
गुरु
' ने भी उक्त गांधर्व आदि विवाहों के जल निर्देश किये हैं ।। १ ।।
यदि वर-वधूकाम्पत्यप्रेम निर्दोष है तो उक्त चारों विवाह जघन्य श्रेणी के होनेपर भी न्हें अन्याय युक्त नहीं कहा जासकता ॥ १३ ॥
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यदि कन्या में निम्नलिखित दूषख बर्तमान हों, तो उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिये जिसकी आँखों की तारकायें उठी हुई व जंघाओं में रोम वर्तमान हों एवं उठ भाग अधिक पसल तथा कमर, नाभि, सदर और कुच कलश भई हों। जिसकी भुजाओं में अधिक नसें हांष्टगोचर हो और उस का आकार भी अशुभ प्रतीत हो। जिसके छालु, जिल्हा, व श्रेष्ठ र समान काले हों व दाँत पिरले विषम (छोटे बड़े हों। जिसके गजों में गड्ढे, चांले पोलो बंदर समान रंग वाली हो। जिसकी दोनों कटियां जुड़ी हुई, मस्तक जिसका ऊचा-नोचा और श्रोत्रों को कृसि मी व फेश मोटे, भूप रूक्ष हो । जो बहुत बड़ी व छोटी हो। जिसके कमर के पार्श्वभाग सम हो जो कुछ मौनीष भीलों के समान अङ्ग बाली हो । जो बर के बराबर आयु वाला या उससे बड़ी हो, जो पर के यहां से आये हुये दूत के समक्ष एकान्त में प्रकट होती हो। इसी प्रकार बीमार, रोती हुई, पत्रिका घात करने बाली, सोती हुई, क्षीण भायु वालो, अप्रसन्न, दुःखी, बाहर निकली हुई ( मर्यादा में न रहने वाली ) पभिचारिया, कलहप्रिय, कुटुम्बियों का जाड़ने वाली, कुरूप व जिसका भाग्य फूटा हो ॥ १४ ॥
पःकिम की शिथिलता का कुप्रभाव, नवा वधू की प्रववहता का कारण उसके द्वारा तिरस्कार और द्वेष का पात्र पुरुष एव उसके द्वारा प्राप्त होने योग्य प्रणय (प्रेम) का साधन तथा विवाह के योग्य गुण व उनके न होने से हानि-
शिथिले पाणिग्रहणे वरः कन्यया परिभूयते || १५ || मुखमपश्यतो वरस्यानमीलितलोचना कन्या भवति प्रचण्डा ॥ १६ ॥ सह शने रुष्णीं भवन् पशुक्रमभ्येत ॥ १७ ॥ बलादा१. तथा च गुरुः पितरौ समतिक्रम्यरम्य भसे पतिं । लानुरागा रंग गन्ध इति स्मृतः ॥ १ ॥ मूल्य सारं गृहोत्मा च पिता कन्यां च शोभतः सुरूपामय शुद्धाय विवाहश्यामः || २ || सुप्तां वाध प्रमता बोमा विवाहयेत् । कपोन पेशाको विवाहः परिकीर्तितः ॥ ३ ॥ हठाद्गुरुजनस्य च गृहाति यो वरो कम् स विवाहस्तु राचसः ॥ ४ ॥
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...................................... विवाह समुरा ।
क्रान्ता जन्मविष्यो भवति ॥ १८॥ धैर्य चातुर्यायसं हि कन्याविलम्भणं ॥ १६ ॥ समविभवाभिजनयारसमगोत्रयोश्च विवाइसम्बन्धः ॥२०॥ महतः पितुरश्चयोदम्पमत्रगणयति । अन्पस्प कन्या, पितुर्दावन्यान् महतावनायते ॥ २२ ॥ अन्यस्य महता सह संव्यवहारे महान् व्ययोऽपश्चायः ॥ २३ ॥ वर' वेश्यायाः परिग्रहो नाविशुद्धकन्याया परिग्रहः ॥ २४ ॥ वर जन्मनाशः कन्यायाः नाकुलीनेष्ववक्षेपः ॥ २५ ॥
अर्थ-वर-कन्या का पाणिग्रहण शिथिल हो जानेसे कन्याक्षर! वर तिरस्कृत किया जाता है॥१जनबर सजा के कारण अपनी नवा वधू के मुख की घोर दृष्टिपात नहीं करे और बधू पपने नेत्र वधाइती हुई टकटकी लगाकर उसके मुखकमल की मोर सनुष्ण दृष्टि से देखती रहे, तब यह प्रमण्ड (येशमें) हो जाती है ॥ १६ ॥
नारद व जैमिनि ने भी पाणिग्रहण की शिथिलता एवं नवा वधू की प्रचण्डता के विषय में यही बताया है ॥१॥ जो पर अपनी नवा (नई)वधू के साथ एक स्थान में शयन करताना लण्जा वश चुपचाप रहता है। अपना कर्तव्य पालन--(चतुरता पूर्वक संताप, हास्पादि) पतिधर्म का पालननहीं करवा ) उसे वह पशु समान मूर्ख समझती है ॥ १७॥ यदि वर चपनी नई बप के साथ जबर्दस्ती काम-क्रीड़ा करने वस्पर होता है, तो उसकी बधू जन्मपर्यन्त उससे तप करती रहती है॥१८॥ क्योंकि भवा बधू द्वारा प्राप्त होने वाला प्रणय ( प्रेम ) पर की धीरता व चतुराई के अधीन होता है। सारांश यह है कि यदि वर धीरताप चतुरता से अपनी नवा पधू के साथ प्रेम-पूर्ण दान-मानादि का बर्ताव करता है, तो उसे उसका प्रणय मिलता है, अन्यथा नहीं ॥ १८ ॥ समान ऐश्वर्य व कुटुम्ब-युक्त तथा विषम (भिन्न गोत्रवाले वर-कन्यामों में विवाह संबंध माना गया है॥२०॥क्योंकि ऐसा न होने पर जब धनाढ्य की कन्या दरिद्र पर प्राप्त करती है, सब वह अपने पिता के ऐश्वर्यसे उन्म शेकर अपने दरिष्ट्रपति को नीचा गिनने लगसी है। यति मिर्धन की कन्या धनाश्य पर के साथ ज्याही जाती है.तो यह.भपने पिता की दुर्बलता के कारण अपने धनाड्य पति द्वारा तिरस्कृत की जाती हैं॥२२॥ोटा (साधारण पैसे पासा) बरे (धनाय) के साथ विवाह संबंध प्रादि व्यवहार करता है,वोसमें उसका ज्यादा खर्च व प्रामदनी थोड़ी होती है॥३॥ किसी प्रकार वेश्या का बङ्गीकार करना अच्छा है, परन्तु भगत (ज्यभिचारिणी या असजातीय) कण्या के साथ विवाह करना उचित नहीं, क्योंकि इससे भविष्य में असज्जाति सन्तान उत्पन्न होने के कारण इसका मोसमार्ग बंद हो जाता है ॥ २४ ॥ न्या ---.-.. .-- ...... -. --- --- . ... इसके पश्चात् म.म. प्रतिमें श्रदारि समरेऽपि कि रूपजीविनः । एकस्मियकाः कुयु फलितेऽपि भुषिता: इस प्रकारका पपरूप पाठ विशेष पापा जाता है, जिसका अर्थ यह है कि जिसप्रकार किंक (टेट) फाशाली होनेपर भी उनसे शुक (तोते) बाम नहीं उठा सकते क्योंकि वे भूखे रहते हैं उसी प्रकार अनिल पव (सोभी) मनुष्य के धन से भी सेवकों का कोई खाम नहीं हो सकता। प्राकरविक अभिभाष यह है कि पचन
धनावच पिता के प्रचुर धन से कन्या नाम नहीं उठा सकती । । । -सम्पादक १ तथा च नारदः-शिधिलं पाणिग्रहणं स्पान् कन्यावस्योर्यदा। परिभूपते तदा भर्ता कान्तया सरमभावतः ॥ १॥ नामिनि:-मुम्ब नबीकने भनी वेदिमध्ये व्यवस्थितः । कम्पायाचीचमाणायाः प्रपरका मा भवता ।
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नीतिवाक्यामृत ................................................................. का पैदा होते ही मरजाना अच्छा है, परन्तु उसका नीष कुन्नवाले वर के साथ विवाह करना अथवा वसका नीय कुल में पैदा होना अच्छा नहीं ॥ २५ ॥
कन्या के विषय में, पुनर्विवाह में स्मृतिकारों का अभिमत, विवाह संबंध, स्त्री से लाभ, गृह का लहणा, कुन्नबधू की रक्षा के उपाय, वेश्या का त्याग व उसके कुत्लागत कार्य
सम्यग्यवृत्ता कन्या तावत्सन्देहास्पदं यान पाणिनः A ॥ २६ ॥ विकृतप्रत्पदाऽपि पुनर्विवाहमह तीति स्मृतिकाराः ॥ २७ ॥ भानुलाम्येन चतुस्त्रिाद्विवर्णाः कन्यामाजनाः ब्राह्मणक्षत्रियविशः ॥ २०॥ देशापेचो मातुलसंगन्धः ॥ २९ ॥ धर्म सन्ततिरनुपहता रतिगृहबार्तासुविहितत्वमाभिजात्याचारविशुद्धियद्विजातिथिवान्धवसत्कारानवचत्वं च दारकाण: फलं ॥ ३० ॥ गृहिणी गृहमुच्यते न पुनः कुख्यकटसंघातः ॥ ३१॥ गृहकर्मवि-- नियोगः परिपिटाभवमानात सदाचारः मातृव्यंजनस्त्रीजनाबरोध इति कुलवधूनां रक्षणापायः ॥ ३२ ॥ बकशिलाक'रवर्षरसमा हि वेश्याः फस्तास्वाभिजातोऽभिरज्येत ॥३३॥ दानीभाग्यं संस्कृती परोपभोग्यत्व भासत्तो परिभवो मरणं वा महोपकारेप्यनात्मीयत्व बहुकालसंबन्धेऽपि त्यक्तानां तदेव पुरुपान्तरगामित्वमिति वेश्यानां कुलागतो धर्मः ३४
अर्थ-जब तक कन्या का विषाह-संस्कार नहीं होता, तब तक वह सन्देह का स्थान होती है, चाहे वह सपाचारिणो हो ।॥ २६ ॥ जिसकी पहले सगाई की जा चुकी हो ऐसी कन्या का बर यदि विकृत-सूला गया या काल कणित-दो गया हो, वो उसका पुनर्विवाह-प्रम्य परके साथ विवाह करना योग्य है ऐसा स्मृतिकार मानते हैं ।। २७ ॥ प्रामण, जत्रिय और वैश्य अनुलोम (क्रम) से सरों तीनों व दोनों वर्ण को कन्यानों से विवाह करने के पात्र हैं। अर्थात् प्रामण चारों वर्ण (बामण, क्षत्रिय वैश्य व शून ) की और दनिय तीनों रस (पत्रिम, बैरव व शह) की एवं वैश्व दोनों बम (वैश्य व शूट) की कन्यामों के साथ विवाह कर सकता है ॥ १८॥ मामाका विवाह भादि संबंध देश x की अपेक्षासे योग्य समझा जाता है। अर्थात-जिस देश व कुल में मामा पुत्रीका संबंधमिव है, वहां उसे योग्य मानाजाता है, सर्वत्र नही ॥२॥धर्मपरम्पराका पाएशा पलाते रहना भयवा धार्मिक सम्जाति सन्तान का जाम होना, कामोपभोग में मापानभाना, गृह व्याथा का सुचारु रूप से संहासन,कुलीबा वाचार-विदेव, प्राण प्रतिषि और पंधुजनों का निषोप सम्मान एक प्रकार के वाम धर्मपत्नी द्वारा सम्पन्न होते है ॥३०॥जहा पर स्वीपमान है, उसे 'गृह' कहा जाता है न कि केवल सही पापा के मिट्टी के संपास से बने हुए गृह को ॥ ३८ ॥ कुसमधुषों की रक्षा कनिम्न उपाय हैं --गृह काम धन्धों में निरन्तर लगाये रखना, २इसे बर्ष लिये सीमित (पोड़ा) पन देना, ३ स्वच्छन्द न होने
A मु०म० प्रतिमें 'सम्पमाला इत्यादि प्रमतर है, जिसका पाकिब काम्बा का विवाह संस्थानों होता सब कह परी जाने पर भी (सगाई होने पर मी) संहका स्वामी है1-सम्पादक
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प्रकीर्णक समहंदेश
देना – सन्तान-संरक्षण- आदि उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यों में स्वतंत्रता देते हुए भी अपने अधीन रखना, ४ नीति एवं सदाचार की शिक्षा देना और माता के समान चिन्ह बाले स्त्रीजनोद्वारा रोकरखना - अभ्यत्रन जाने देना ( उसकी चौकसी रखना ) ।। २३ ।। वेश्याएं धोबीको शिक्षा, कुत्तोके खप्पर समान सर्वसाधारण व घृणास्पद होती हैं, उनमें कौन कुलीन पुरुष अनुराग करेगा ? कोई नहीं ।। ३३ ।। वेश्याओं के निम्नप्रकार परम्परा से चले आने वाले कार्य है --१-दान करने में 'उनका भाग्य फूटा रहता है - जो कभी भी दान करना नहीं जानती, २-अनुरक पुरुषों द्वारा सम्मानित होने पर भी दूसरे पुरुषों से काम सेवन कराना, ३- शासक्त पुरुषोंका तिरस्कार वा घात करना, ४ अनुरक पुरुषोंद्वारा महाम् उपकार किये जानेपर भी उनके प्रति अपनापन प्रगट न करना एवं ५-अनुरक्त पुरुषांके साथ बहुत समग्रतक प्रेम संबंध रहने पर भी उनके द्वारा छोड़ दी जाने पर अन्य पुरुषों से रवि कराना ॥ ३४ ॥
इति विवाह समुद्देश |
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३२ - प्रकीर्णक समुद्देश ।
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कोक व राजा का लक्षण, विरक्त एवं अनुरक्त के चिन्ह, काव्य के गुण-दोष, कवियों के भेद तथा लाभ, गीत, वाद्य तथा नृत्य-गुण
समुद्र इव प्रकीर्णक सूक्तरत्नविन्यास निबन्धनं प्रकीर्णकं ॥ १ ॥ वर्णपदवाक्यप्रमाण प्रयोगनिध्यातमतिः सुमुखः सुव्यको मधुराम्भोरध्वनिः प्रगल्भः प्रतिभावान् सम्पमूहापोहानधारणगमकशक्तिसम्पन्नः संप्रज्ञात समस्तलिपि भाषावर्णाश्रमसमय स्वपर व्यवहारस्थितिराशुलेखन वाचन समर्थश्चेति सान्धिविग्रहिकगुणाः || २ || कथाव्यवच्छेदो व्यात्तत्वं मुखे वैरस्यमन वेचणं स्थानत्यागः साध्याचरितेपि दोषोद्भावनं विज्ञतेच मौनमतमाकालयापनमदर्शनं वृथाभ्युपगमश्चेति विरक्त लगानि ||३|| दूरादेवेक्षणं, सुखप्रसादः संप्रश्नेवादरः प्रियेषु वस्तुषुस्मरणं, परांचे गुणग्रहणं तत्परिवारस्य सदानुवृत्तिरित्यनुस्ववलिंगानि ॥ ४ ॥ श्रुतिसुखत्वमपूर्वाविरुद्धार्थातिशययुक्तत्वम्रुभयालंकार सम्पन्नत्वमन्यूनाधिकवचनस्त्रमतिव्यक्तान्ययत्वमिति काव्यस्य गुणाः ॥५॥ अतिपरुषवचनविन्यासत्वमनन्त्रितगतार्थत्वं दुर्बोधानुपपन्नपदापन्यास मयथ । थै यतिविन्यासत्यमभिधानाभिधे पशून्पत्वमिति काव्यस्य दोषाः || ६ || वचनकविरथंकविरुमय कविश्चित्रकविर्वर्णकविदु' 'करक विरोचकीसतुषाभ्यवहारी चेत्यष्ट। कवयः ॥ ७ ॥ मनःप्रसादः कलासुकौशलं सुखेन चतुविषयान्पुर सिसंसार' च यश इति कवि संग्रहस्य फलं ॥ ८ ॥ श्रालवशुद्धिर्माधुर्यातिशयः प्रयोग सौन्दर्यम तीवमसूयतास्थानकम्पितकुरितादिमानो रागान्तसंक्रान्तिः परिगृहीतराग निर्वाहो हृदयग्राहिता चेति गीतस्य गुणाः ॥ ६ ॥ समस्व ताला
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नोतिवाक्यामृत
नुयायित्वं गेयामिनेयानुगतत्वं एलक्षणत्वं प्रव्यक्तयतिप्रयोगत्वं श्रुतिसुखावहत्व' चेति वाद्यगुणाः ॥ १० ॥ दृष्टिहस्तपादक्रियासु समसमायोगः संगीतकानुगतत्व मुंश्लिष्टललितामिनयांगहारप्रयोगमावो सर भावत्तिलावएपभाव इति नृत्यगुणाः ॥११॥
भर्य-जो समुद्र के समान फैले हुए सुभाषित-रूप रस्नों की रचना का स्थान है, उसे 'प्रकीक' कहते हैं। मास-जिस प्रकार समद्र में फैली हुई प्रचुर रत्नराशि बसमान होती है, उसी प्रकार प्रकीर्णक काम्य समुद्र में भी फैली हसुभाषित ग्ल राशि पाई जाती है ॥१॥ वयो पद, वाक्य और शास्त्र इन विषयों में परिपक्व है बुद्धि जिसकी, स्पष्ट व सार्थक बोलने बाला, मधुर व गम्भीर है नाणो जिमको, चतुर, प्रतिभाशाली (तेजस्वी), अपने हदय में योग्य-अयोग्य के तान के भार माने ही शासित हे सम्पन्न, समस्त देशों की लिपि, भाषा तथा पारवणे (प्राणादिक) व चार श्राश्रमों (मधारी आदि) के शास्त्र का वेत्ता, सम्पूर्ण स्व और पर का व्यवहार का जानकार तथा शीघ्र लिखने व बाँपने की कला में प्रवीण ये राजा के गुण हैं । अर्थात् जग गुणों से भलंकृत पुरुष राजा होने लायक है ॥ २॥ जो कथा को ध्यान पूर्वक न सुने व उसे सनता हुआ भी व्याकुल हो जाय, जिसकी मुखाकृति उस समय म्लान हो जाय, , पास कही जाने पर जो वक्ता के सामने दृष्टिपात न करे, जिस स्थान पर बैठा हो वहाँ से बठकर दूसरी जगह चना जाय वक्ता द्वारा अछे काय किये जाने पर भी इसे दोषी बताये, समझाने पर भी जो मौन धारण कर ले कुछ भी उचर न देवे, जो स्वयं क्षमा (वक्ता की बात को सहन करने की शक्ति) न होने के कारण अपना काम सेप करता हो-निरर्थक समय वितावा हो, जो वक्ता को अपना मुख न दिखाये और अपने वायदा को झठा करता हो ये कथा से या अपन से विरक्स रहने वाले मनुष्य के चिन्ह हैं। अर्थात्-उक्त चिन्हों से विरक्त की परीक्षा करनी चाहिये॥३॥ अपने को दूर से माता हुआ देखकर जिसका मुख कमल विकसित होजाय कुछ प्रश्न किये जाने पर जो अपना सन्मान करे अपने द्वारा पये में की हुई अभीष्ट वस्तुओं (उपकारमादि) का स्मरण करने वाला (सज्ञ) परोक्ष में गुणकीर्तन करने वाला व अपने मित्र के) परिवार से सदा लेह-वृत्ति धारण करने वाला ये अपने से अनुरक्त (अनुराग करने पामे) पुरुष के चिना हैं । अर्थात् नैतिक पुरुष उक्त लक्षणों से युक्त पुरुष को अपने में अनुरक्त समझे ॥४॥
श्रण करने से भोगिय को प्रिय लगने वाला अपूर्व (नवीन) व विरोषादि दोष शन्य (निदोष) अर्थ का निरूपणा करने के कारण अतिशय युक्त (श्रेष्ठ) शब्दामहार-अनुपास आदि
और अर्थालंकार (रुपमा उत्यक्षा-प्रभृति) से व्याप्त, हीन अधिक वचनोंसे रहित और जिसका भन्वय अति स्पष्ट हो-जो दूरान्वयो न हो ये काम्य के गुण है। अर्थात् उक्त गुण-युक्त काव्य उत्तम माना गय। है।५ ।। जिसमें भूति-कटु वचन (भोत्र को अप्रिय लगने वाले कठोर) पदोंकी रचना व अप्रसंगत बर्ष पापा जावे, दुर्बोध ( कठिन ) एवं अयोग्य शब्दों की रचना से युक्त, छन्द-भ्रष्ट होने के कारण जिसमें यथार्थ यतिविम्यास (विभाव की रचना ) न हो, जिसकी पद-रचना कोशविनख हो, जिसमें स्वचिकपित (मन गढन्त) माम्ब (असभ्य) पद रचना वर्तमान हो, ये काम्प के दोष हैं। कवि पाठ
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प्रकीर्णक समुहेश
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प्रकार के होते हैं-१ बचन कवि जो भाचार्य श्री धीरनन्दी का दाम पारिके समान नलित पदों द्वारा अम्य रचना करता हो, २ प्रकवि जो महाकवि हरिवन व भारवि कवि समान गूदार्थ बाने काव्य का रचयिता हो, ३-भय कोष जो भगवजिनसेचाय या माप कवि समान मलित शम्द युक्त और गूढाथे युक्त काध्य माला का गुम्फन करता हो, ४-चित्र कवि (चित्रालंकारयुक्त कान्य रचयिता), ५-वर्ग कवि (शम्दारम्बर युक्त) काव्य बनाने वाला, ६--दुरकरि कवि - बाणिक्य माद कवियों के समान अत्यन्त कठिन शब्द कुसुमों द्वारा काध्य माल! गुम्फित करने वाला, "-अरोपकी जिसकी काय सपना कधिकर न हो. और ८-सम्मुखाभ्यवहारी-श्रोताओं के समन तत्काल काम्यरचना करने वाला ॥७॥
मानसिक प्रसमता. सवितामा मों (पद्यरचनाकी कला आदि) में चातुर्य, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों का सरलता से सम्यग्यान होना, एवं मास्वामो प्राचार्य व व्यास भादि के समान संभार पर्यन्त स्वामी कीर्ति रहना इतनी चीजों का नाम कवि होने से होता है ।।८।। पहज, ऋषम गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद, (सा, रे, गा, मा, पा, धा, नो, इन सातों स्वरों का पालाप शुख (एक स्वग्में दूसरे स्वरका सांकर्य-संम्मिश्रण न होना हो श्रोत्रन्द्रियको मस्यन्त प्रिय मालूम हो. (जिसमें प्रत्यक्ष मिठास हो)सकोमन पद रचना- युत. अथवा अभिनय (नाट्य ) कियामें निपुपता का प्रदर्शक हो, जिसके पदोस्चारण में घनाई हो, जिसमें त्रिमात्रा वाले परज व ऋषभ श्रादि स्वरों का विस्तार (पारोहीपन )व संकोच (अवरोहीपन) वर्तमान हो, जिसमें एक राग से दूसरे गम का संक्रमण वर्तमान हो अथवा राग-ध पाया जाये, जिम राग में गीत प्रारम्भ किया गया हो उसी राम में उसका निर्वाह (समाप्ति) हो एवं जिसे सुन कर हृदय फड़क (अत्यन्त मानवादित) छठे ये गायन के गुण हैं |केशवा-शून्य, पांच प्रकार का ताज तथा व मीत व नृत्य के अनुकूल बजने वाला, वा (काजे) संबन्धी दोषों से रहित (निष) जिसमें यति (विश्रान्ति) यथोषित व प्रगट रीतिस पार्द जावे एवं जिनके सुनने से प्रोत्रन्द्रिय को सुख प्रतीत हो, ये बाजे के गुण हैं । १. ॥ जिसमें नेत्र, हाथ व पैरों की संचालन क्रिया का एक काल में मिलाए गाने व जाने के अनुकूल एवं यथोचित पाया जाये संगीत (गाने बजाने) का अनुसरण करने वाला, जिसमें गायनाचार्य द्वारा सूषित किये हुये पचन चौर अमितभिनय (नस्य ) द्वारा भा-संचालन अभिव्यक्त किया गया हो तथा हार मादि नवरस और मालम्बन भाव सहीपन भाषों के प्रदर्शन से जिसमें दर्शकों को नावण्य प्रवीत हो, ये नपके गुश हैं अर्थात् अक्त गुको वाया नृत्य श्रेष्ठ माना गया है ॥ ११ ॥
___महापुरुष, निच गृहस्थ, पत्कालीन मुख चाहने वालों के कार्य, दानविचार, कर्जा देने के कटुफल, कर्वा खेनेवाले के स्नेहादि की अवधि, सस्थासत्य निणय व पापियों के दुष्कर्म
स महान् यः खन्चार्वोऽपि न दुचनं ते ॥ १२ ॥ स किं गृहाभमी यत्रागस्याधिनो न भवन्ति कतार्थाः ॥ १३ ॥ ऋग्रहलेन धर्मः सस सेवा पक्षिज्या १ ताराविकानां नापविहितवृत्तीनां ॥१४ ।। स्वरष विषमानमर्षिम्पो देयं नाविधमान ॥ १५ ॥ अब. दाहरासन्न फल परोपास्ति। सः परिभवः प्रस्तावासाभरव॥१६॥ भदातुस्तावस्नेहा
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नीतिवाक्यामृत
सौजन्यं प्रियभाषणं वा साधुता च यावन्नार्थायाप्तिः || १७ || तदसत्यमयि नासत्यं यत्र न सम्भाष्यार्थहानिः || १८ || प्राणबधे नास्ति कश्चिदसत्यवादः || १६ | अर्थाय मातरमपि लोको हिनस्ति किं पुनरसत्यं न भाषते || २० ||
अर्थ- जो शिष्ट पुरुष दुःखी होने पर भी किसी के सामने दुवचन ( कटु शब्द ) नहीं कहता, वही महापुरुष है || १२ || जिसके पास आकर याचक लोग कृतार्थ ( संतुष्ट ) नहीं होतं, वह गृहस्थ निन्ध है ॥ १५ ॥
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शुक्र व गुरु ने उक्त प्रकार महापुरुष का एवं निर्धन गृहस्थ को भी आये हुये याचकों के लिये असल, जमीन, पानी और मीठी वाणी देने का उल्लेख किया है ।। १२ ।।
तत्कालीन क्षणिक सुख चाहने वाले पुरुष धनाढ्यों से ऋण लेकर उस धन से दान-पुण्यादि धर्म, सांसारिक सुखों (विवाह आदि) का उपभोग और राजा का सन्मान एवं व्यापार करते हैं, परन्तु भविष्य में स्थायी सुख चाहने वाले नहीं ॥ १४ ॥ दाता याचकों के लिये अपने मौजूद धनादि वस्तु देवे गैरमौजूद नहीं । अर्थात् उसे कजा लेकर दान नहीं करना चाहिये ।। १५ ।।
I
ग ने भी एक दानों विषयों का इसी प्रकार समर्थन किया है ।। १-२ | कर्जा देने वाले धनाढ्य पुरुष को निम्न प्रकार कटुफल भोगने पड़ते हैं । १-सबसे पहला निकट फळ परोपारित (ऋ लेने वाले की सेवा सुश्रूषा करना ), २ - कलह ( धन प्राप्ति न होने से कर्जा लेने वाले के साथ लड़ाई झगड़ा होना ), ३- तिरस्कार ( ऋण लेने वाले के द्वारा अम्मानित होना ), ४ असर पड़ने पर धन न सिजना | निष्कर्ष - किसी को ऋण रूप में धन देना उचित नहीं ॥ २६ ॥ धन के साथ तथा तक स्नेह, प्रिथ मात्र सज्जनता प्रकट करता है, जब तक कि उसे उससे धन प्राप्ति नहीं हुई। अर्थान् धन प्राप्त हो जाने पर वह उसके साथ उक्त शिघ्र व्यवहार ( स्नेहादिक ) नहीं करता || १७ ॥
५
* एवं शुक्र ने भी ऋण देने से हानि व ऋया लेने वाले के बारे में यही कहा है ॥१-२॥ बद्द वचन असत्य होनेपर भी सत्य नहीं माना जासकता, जिससे सम्भावना किये हुये इष्ट प्रयोजन (प्राण-रक्षा) आदि की क्षति नहीं होती- उसकी सिद्धि होती है, क्योंकि बक्ता के वचनों में सत्यता वा अस स्वता का निर्णय लौकिक प्रमाण – किसी के कहने मात्र से नहीं किया जा सकता, किन्तु नैतिक विचार द्वारा ही किया जासकता है, अतः गुरुतर इट प्रयोजन की सिद्धि के अभिप्राय से कहे हुये मिथ्या वचन
१ तथा च शुक:- दुर्वाक्यं नैव यो पार्थं कुपितोऽपि सन् । स महत्वमवाप्नोति समस्ते धरणीतले ॥ १ ॥ २ तथा च गुरुः- तृयामि भूमिरुश्कं वाचा चैव तु सूनृता । दरि रपि दातव्यं समामस्य चार्थिनः ॥ १ ॥
३ तथा गर्ग :- धर्मकृत्यं यप्राश्या सुखं सेवांवर पर ताeात्विकविनिर्दिष्ट समस्य न चापर |] १ कृष्णापि वक्ष्लभः । कुटुम्ब पीते बेम तस्य भावस्य भाग्भवेत् ॥ २ ॥ त्रयो दोषाः प्रकीर्तिताः । स्थानिय सेवा युद्धं परिभव १ ॥
यो क्या
मा र
साच अत्रि
२ तथा च शुकात वत्स्नेहस्य बन्धोऽपि ततः पश्चात साधुता । ऋणकस्य भवेथावणस्य गृह्णाति हो धनम् ॥ १ ॥
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xोक समु२३ मिश्या नहीं कहे जा सकते ॥ १८ ॥ प्राण-धात के समय उनकी रक्षार्थ कहा हुभा असत्य वनन असत्य नहीं भी ई । १६ ।।
बादरायण'ने गुरुतर प्रयोजन माधक वचनों को सत्य और व्यास ने भी प्राण वध प्रादि पांच अवसरों पर प्रयुक्त किये हुये पांच प्रकार के मिथ्या भाषण को निपाप सत्य बताया है ।। १.२॥
___ जब कि पापी पुरुष धन के लिये माता का भी घात कर डालता है, तब क्या वह उसके लिये मिध्याभाषण नहीं करता ? अवश्य करता है। अत: धन के विषय में किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिये चाहे वह अनेक प्रकार की शपथ भी ग्यावे ।।२०।।
शुक्र ने भी उक्त प्रान्त देते हुये उक्त रात का समर्थन किया है।
भाग्याघीन वस्तुए, रतिकालीन पुरुष-वचनों को मीमांसा, दाम्पत्य- की अवधि, युद्ध में पराजय का कारण, स्त्री को सुखी बनाने सलाम, लोगों को यिनयनत्रता को मामा, अनिष्ट का प्रतीकार, स्त्रियों के बारे में व साधारण मनुष्य से लाभ, एव ने व युद्ध संबन्धो नैतिक विचारधारा
सत्कलासत्योपासनं हि विवाहकर्म, देवायत्तस्तु वधूवरयानिहिः A ॥ २१॥ रतिकाल यन्नास्ति कामातों यन्न व ते पुमान न चैतत्प्रमाणं ।। २२ ।। तायतस्त्रीपुरुषयोः परस्पर प्रीतिर्यावन्न प्रातिलोम्यं कलहो रतिकतवं च ।। २३ ।। तादास्विकालस्य कुनो रणे जयः प्राणार्थः स्त्रीपु कन्याणं वा ॥ २४ ॥ सावत्सर्वः सर्वस्यानुवृत्तिपरो यावन्न भवति कृतार्थःB ॥ २५॥ अशुभस्य कालहरणमेव प्रतीकारः ।। २६ ॥ पक्वान्नादिव स्त्रीजनादाहोपशान्तिरेव प्रयोजनं किं तत्र रागविरागाम्यां ॥ २७ ॥ तृणेनापि प्रयोजनमस्ति किं पुनर्न पाणिपादवता मनुष्येण || २८ ।। न कस्यापि लेखमत्रमन्येत, लेखप्रधाना हि राजानस्तन्मूलत्वात् सन्धिविग्रहयाः सकलस्य जगद्व्यापारस्य च ।। २६ ।। पुष्पयुद्धमपि नीतिवेदिनी नेच्छन्ति कि
पुनः शस्त्रयुद्ध ।। ३०॥ १ तथा च पादरायणः-तदसत्यमपि नासत्यं यदव परिमीयते । गुरुकार्यस्य हानिक ज्ञात्वा नीतिरिति स्फुटम् ।।।। २ तथा व व्यासः-नासत्ययुक्त वचनं हिनस्ति, न स्त्रीषु राजा न विवाहकाले ।
प्राणात्यये सर्वधनापहारी, पंचानसाम्याहरपातकानि ॥ तथा स शुक्र:-अपि स्यादि मातापि तो हिनस्ति जनोऽधनः । कि पुन: कोशपाना स्मार्थे न विश्वसत् । A 'समासस्योपायनं किं ? विवाहकम' इत्यादि पाठान्ता मु. मूः प्रति में वर्तमान है जिसका अर्थ यह है कि समस्त
झूठी मैंट क्या है ? विवाहकर्म; उसमे दम्पतियों का निर्वाह (जीवन-सा) भाग्याधीन है अर्थात् भाग्य अनुकूम होने पर ही उनका निर्वाह होसकता है, अन्यथा नहीं | --संपादक । Bइसके पश्चात् मु० मू. प्रति में 'सहसम्भवो देहोऽपि नामुत्र सहानुयायी किं पुनरन्यः ऐसा विशेष पाट वर्तमान है, जिसका अर्थ मह है कि जीवके साथ उत्पन्न हुश्रा शरीर भो जब इसके साथ दूसरे मन में नहीं जाना सब क्या अन्य पदा जा सकते हैं ? नहीं जासकते || ||-सम्पादक
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नीसिवाक्यामृत ...................................... ..........................
अर्थ-पूर्व कर्मानुसार मनुष्यों को प्रशस्त कलाम, सत्य की उपासना व शिवाह संबन्ध प्राप्त होता है, परन्तु विवाह सम्बन्ध हो जाने पर भी दम्पति का निर्वाह उनके भाग्य को अनुकूलता के अधीन है ॥२१॥ काम- पीड़ित पुरूष रति ( कान सेपन के सर पर कोई वचन ( मत्य व झूठ) बाकी नहीं रखता, जिसे वह अपनी प्रियनमा (स्त्री) से नहीं बोलता-वह सभी प्रकार के सत्य असत्य वचन बोलता है, परन्तु उसके वे वचन प्रामाणिक नहीं होते अभिप्राय यह है कि विषयाभिलाषी व साजाति सन्तान के इछुक पुरुष को संतकाल के समय तात्कालिक पिय । मधुर ) वचनों द्वारा अपनी प्रिया को अनुरक्त करना चाहिये । २२॥
गुरु ' व गजपुत्र ' ने भी विद्या व विवाह आदि को भाग्याधीन व काम-पीड़ित परूष का रविकालोन उक्त कर्तव्य बताया है ।। १-२ ।।
दम्पतियों में सभी तक पारस्परिक प्रेम रहता है, जब तक कि उनमें प्रतिकूमका, कलह और विषयोपभोग संबन्धी कुटिलता नहीं पाई जाती ॥ २३ ।। जिस विजिगीषु के पास थोड़े समय तक टिकने वानी भर सभ्य वर्तमान है वह युद्ध में शत्र से विजयश्री किस प्रकार प्राप्त कर कर सकता है? नहीं कर सकता। इसी प्रकार स्त्रियों का कल्याण ( उपकार) करने से भी मनुष्य अपनी प्राण-रक्षा नहीं कर सकता अतः युद्ध में विजयश्री के लाभार्थ प्रचुर सैन्य शक्ति होनी चाहिये तथा विवेकी परुष स्त्रियों के प्रति किये हुये उपकार को प्राणा-रक्षा का साधन न समझे ॥२४॥
राजपुत्र व शुकने भी दाम्पत्यप्रेम व अल्प सैन्य वाले विजिगीपु के विषय में उक्त बात का समर्थन किया है।। १-२ ॥
जब तक लोग दूसरों के द्वारा कृतार्थ (अपनी प्रोजन-सिद्वि करने वाले नहीं होते, वभी तक सभी लोग सभी के साथ विनय शीलसा दिग्याते हैं, परन्तु प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर कौन किसे छत। है? कोई नहीं पूछता ॥ २५ || अशुभ करने वाले (विरोधी) व्यक्ति से समय पर न मिलना ही उसके शान्त करने का उपाय है । अर्थान जब शव सा करने वाला मनुष्य समय का बल्लांघन और मिष्ट्र वनों द्वारा पंचना किया जाता है, तभी वह शान्त होता है, अन्यथा नहीं ॥२६॥
व्यास व नारद ने भी कार्थ व पहुभ करने वाले पदार्थ के विषयमें उक्तबासकी पुष्टि की है
।। १-२|| जिस प्रकार बुभुक्षित (भूखे) को क्षमा की निवृत्ति सरने के लिये पके हुये मान से प्रयोजन बसा है, उसी प्रकार काम रूसो अग्नि से संतन हुये पुरुष को की शारोरिक प्राताप (मैथुनेच्छा)को
तथा च गुरु:--विद्यापस्यं विवाहच दंपरयोरगामिना रतिः । पूर्वकमानुसारेण मर्य सम्पद्यते सुखं ॥१॥
या र राजपुत्रः-नाम्पचिन्ता भोमारों पुरुष: कामपंडितः । यतो न रशयेशाचं नैवं गर्भ ददाति व ॥ तथा प राजपुत्रः-देवकाकोटिल्य दम्पत्यो यते यदा : तथा कोशविदेइंगत्वाभ्यामेव परस्परं ॥३॥ • नया स शुक:- नावन्मानं बलं यस्य भान्या सैन्यं करोति च । शनमिहीनसन्यः म लसायिरचा निपात्यते ॥ .. ५ नया र न्यासः-मस्व हि कृतार्थस्य मनिरन्या प्रवर्तते । तस्मात् सा देवकार्यम्य किमन्यः पोषित: विरैः ।। ५ नया व नारद-प्रशुमय पदारय भविष्याप प्रशान्नये। कालानिमण मुम्स्या प्रमोकान वियते ।।१।।
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प्रकीर्णक समुद्देश
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शांत करने के लिये स्त्री से प्रयोजन रहता है, अन्य कोई प्रयोजन नहीं। इसलिये उनमें अनुराग (प्रेम) ब विराग (विरोध) करने से कोई लाभ नहीं । अर्थात् उनके साथ माध्यस्थ्य भाव रखे। क्योंकि उनमें विशेष अनुरक्ता आसक्त पुरुष धार्मिक ( दान-पुण्यादि ) व आर्थिक (व्यापार आदि ) कार्यों से विमुख होने के कारण अपनी धार्मिक व आर्थिक क्षति कर डालता है एवं उनसे विरोध रखने वाला काम पुरुषार्थ से वंचित रह जाता है, अतः स्त्रियों के प्रति माध्यस्थ्य भाव ही श्रेयस्कर है ॥ २० ॥ जबकि तिनकेसे भी मनुष्य का प्रयोजन ( दव-शुद्धि आदि सिद्ध होता है तब क्या हाथ पांव वाले मनुष्य से उसका प्रयोजन सिद्ध न होगा अवश्य सिद्ध होगा ? अतः उसे उत्तम, व अधम सभी के साथ मैत्री रखनी चाहिये एवं अधम पुरुष की अवा नहीं करनी चाहिये ॥ २८ ॥
मध्यम
गौतम ' व विष्णुशर्मा ने भी उक्त दोनों बातों का समर्थन किया है ।। १०२ ॥
विजिगीषु अथवा विवेकी पुरुष किसी भी साधारण व्यक्ति के लेख ( पत्र ) की अवश
( तिरस्कार ) न करे क्योंकि राजा लोग लेख द्वारा ही शत्रु की चेष्टाका ज्ञान करते हैं, इसलिये ये लेखप्रधान कहे जाते हैं एवं सन्धि, विमह व समस्त संसार के व्यापार की स्थिति का ज्ञान मो लेख द्वारा ही होता है ॥ २६ ॥ नीति के वेत्ता पुरुष पुष्पों द्वारा भी युद्ध करना नहीं चाहते, तब शम्त्र युद्ध किस प्रकार चाहेंगे ? नहीं चाहेंगे ॥ ३० ॥
गुरु व बिदुर * ने भी लेख व युद्ध के विषय में उक्त बात की पुष्टि की है ।। १-२ ।।
3
स्वामी और दाता का स्वरूप, राजा, परदेश, बन्धु-होन दरिद्र तथा वनाढ्य के विषय में, निकट विनाश वाले की बुद्धि, पुण्यवान, भाग्य की अनुकूलता, कर्मचाण्डाल एवं पुत्रों के भेद
स प्रों बहून् बिभर्ति किमजु नतरोः फलसम्पदा या न भवति परेषामुपभोग्या ||३१|| मार्गपादप इव सत्यानी यः सहते सर्वेषां संबाध || ३२ || पर्वता इव राजानो दूरतः सुन्द रालोकाः || ३३ || वार्तारमणीयः सर्वोऽपि देशः || ३४ || भवनस्य बान्धवस्य च जनस्य मनुष्यवत्यपि भूमिर्भवति महाटवी ॥ ३५ ॥ श्रीमतो हारण्यान्यपि राजधानी ॥ ३६ ॥ सर्वस्याप्यासन्नविनाशस्य भवति प्रायेण मतिविपर्यस्ता ।। ३७ ।। पुण्यवतः पुरुषस्य न चिदप्यस्ति दौःस्थ्यं || ३८ || दैवानुकूलः कां सम्पदं न करोति विघटपति वा विपदं ॥ ३६॥ कःपिशुनः कृतघ्नो दीर्घरोष इति कर्मचाण्डालाः ||४०|| औग्स: चेत्रजोदसः कृत्रिमां
१ तथा गौतम रामो विरागो का स्वीयां कार्यों विषयः । पक्कान्नमिव तापरच शान्वये स्याच्च सर्वदा ॥ १||
२ तया च विष्णुशर्मा ः— इन्तस्य निष्कोषणकेन नित्य कर्मस्य कण्डूयनकेन चापि ।
व्हेन कार्य भवतीश्वरायां किं पादयुक्तेन नरेया न स्वात् ॥ १ ॥ ३ तथा च गुरुः- लेखमुप्रो महीपाको लेना मुख्यं च चेष्टितं । दूरस्थस्यापि सेलो हि ४ तथा च विदुरः-पैरपि न योद्धयं किं पुनः निशितैः शरैः । उपावपतया ? पूर्व सरमाद्य द्धं समाचरेत् ॥ १ ॥
खोऽयो मादमम् ॥ १ ॥
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नीतिवाक्यामृत
गढ़ोत्पन्नोऽपविद्ध एते पद पुत्रा दायादाः पिण्डदाश्च A ॥४१॥
पर्व-जो साधारमा धनवाला होकरके भी अपनी उदारता के कारण बहुत से मनष्यों का पालन-पोषण करता है. वही स्वामी है और जो स्वामी धनाय होकर कृपणता-वश ऐसा नहीं करसा वह दूसरोंके द्वारा सपमोगन पाने वाली बर्जुन वृक्षको फलम यत्तिके समान निरर्थक व निन्ध गिना जाता है।३१।। जो रास्ते में रहने वाले वृक्ष के समान समस्त अभ्यागत या याचकों के उपद्रव सहन करता हुमा समेशिव नहीं होता, बद्दी दाता है। अर्थात्- जिस प्रकार रास्ते में वर्तमान वृक्ष पान्धों द्वारा किए जाने वाजे सपद्रव (पुष्प व फल तोड़ना ) सहन करता है, उसी प्रकार भोजन व शयनादि के दान द्वारा मभ्यागतों को सम्मानित करने वाला दाता भी उनकं द्वारा दिय जान बाल कट सहन करता ह ।। २ ।।
ज्यास' और गुरु ने भी स्वामी और दाताके विषय में इसी प्रकारका मल्लेख किया है ॥१-२॥
राबा लोग पर्वतोंके समान दूर से हो सुन्दर दिखाई वत है, समीप में जाने से नहीं । अर्थात्जिस प्रकार पर्वच पाश्व भाग-आदि के कारण दूर से मनाहर और समाप में जाने पर भनेक थूहरमादि कटोने वृक्षों व बड़ो २ विशाल चट्टानों के कारण पढ़ने में कष्टदायक होते हैं, उसी प्रकार राजा लोग भी पत्र-पामरादि विभूषि-युक्त होने से दूर से रमणोक दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु पास जाने से कष्टदायकभार्थिदण्ड भावि द्वारा पीड़ित करने वाले होते हैं, अत: उनसे दूर रहना ही श्रेष्ठ है ।।३३।। सभी देश उनके पारमें कही जाने वाली लोगों की सुन्दर बातें सुननेसे रमणीक मालम पड़त है, अतः बिना परीचा किए ही किसी के कहने मात्र से परदेश को गुण युक्त जानकर स्वदेश का त्याग करना उचित नहीं ॥३४ ।।
गौतम' और रेभ्यने भी राजाओं व परदेशके विषय में इसी प्रकारका उल्लेख किया है ।।१-२॥
निधन (हरि) और बन्धुहीन पुरुष को भनेक मनुष्यों से व्याप्त पूधियो भी महान् अटवीक समान दासदायक है, क्योंकि पसे दारिद्रय व कुटुम्बहीनता के कारण वहां सांसारिक सुख नहीं मिल सकता। धनाक्ष्य पुरुष को वनस्थली भी गजधानी समान रुख देने वाली हो जातो है ॥ ३५-३६ ।।
रेभ्य ने भी दरिद्रय पाहोन व्यक्ति के बारे में इसी प्रकार का कथन किया है ।। १ ।
___A बलके पश्चात् मुम्मन्प्रति 'कानीनः सहोदः नीतः पौनकः स्वयंसः शोश्चेति षट्पना न दापादा नापि पिया.
दारवर हसना विशेष पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि कानोन (म्यासे उत्पन्न हुमा) सहोद, (दामाद) कोत. (पैसे से बिपा हुमा) पोनर्भर (विधवासे सपना हुआ) स्वयंदा और गृह स्त्री से उत्पन्न हुमा के पुत्र अधम होने
सेन पत्रिक सम्पति के अधिकारी होते हैं और न पिताजे स्मृत्यर्ष माहारादि दान ईनेवाखे । - संपादक १ तथा च प्यासः- स्वरूपवितोऽपि षस्वामो यो विभर्ति बहा सदा । प्रभूतकमायुक्तोऽपि सम्पदाप्यनस्म ॥ २ तथा गुरु:-या मागंवाइमाइते य उपद्यं । प्रन्यागतस्य खोकस्य स त्यागी नेताः स्मनः॥1॥ ३ वथा गौतमः-दुरारोहा हि राजानः पर्वता सोडताः । वन्ते पुरतो रम्पा: समीपस्पारच कदाः ॥
या भ्वः दुर्भिसाब पोऽपि दु:स्थापि रामसदितोऽपि च । स्वदेश र परिस्थम्य नावस्मिरिसकामे बजेट । सपा-रेभ्यः-मनस्य मनुष्यस्य वाम्भः रहितस्य च । प्रभूतैरपि संकीर्ण अभूमिमहावी.
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प्रकीर्णक समुरेश
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HODHAdamse.
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विनाशकाल के निकट आने पर प्रायः सभी की बुद्धि विपरीत (उल्टो) हो जाती है, क्योंकि निकट विनाश वाला व्यक्ति अपने हितषियों की निन्दा व शत्रु की प्रशसा भादि विपरीत कार्य करता है, जिससे प्रतीत होता है कि इसका विनाश निकट है ॥ ३७ ।। भाग्यशाली पुण्यवान् पुरुष को कभी भी धापत्तियां नहीं होती ॥३८॥ देव- पर्वजन्ममें किए हए कम (भाग्य) की अनुकूलता होने पर भाग्यशाली पुरुष को कोन २ मो सम्पत्तियां प्राप्त नहीं होती १ सभी सम्पत्तियां प्राप्त होता है और उसकी कौन २ सी विपत्तियां नष्ट नही होती ? सभी नष्ट हो जाती हैं ॥३६॥
गगं' व हारीत 'ने भी निकट विनाश वाले और भाग्यशाली के विषयमें उक्त बातका समर्थन किया है।॥१२॥
दूसरों की निन्दा करने वाला, चुगलखोर, कृतघ्न-सपकार को न मानने वाला (गुणमेटा) और दोघेकाल तक क्रोध करने वाला ये चारों मनुष्य मनोति के कारण कर्मचारडान हैं ॥ ४०॥
गर्ग ने भी सक्त पार प्रकार के मनुष्यों को कर्मचाण्डाल माना है .
औरस ,धर्मपत्नी से उत्पन्न हया पुत्र), क्षेत्रज ( दूसरे स्थान में धर्मपत्नी से सत्पन्न हा), इत्त (गोद लिया हया) कृत्रिम-बन्धन से मुक्त किया हमा, गूदोत्पन्न (गूढ़ गर्भ से उत्पादचा),और अपविद्ध (पति के अन्यत्र चले जाने पर या मरने के बाद उत्पन्न हुआ) यह छह प्रकार के पुत्र दायाद पैतृकसम्पत्ति के अधिकारी और पिता के स्वर्गारोहण के पश्चात् उसकी स्मृति में अनादि (पिया)का दान करने वाले हैं ॥४१॥
अन्य नीतिकारों ' नेभी उक्त छह प्रकार के पुत्र कहे है ।। १-३ ।।
दायभाग के नियम, अति परिचय, सेषक के अपराधका दुष्परिणाम, महत्ताका दुषह, रवि भादि की वेला, पशुओं के प्रति वर्माय, मतवाने हामी व घोड़े की क्रीडा, श, म्याधि-ग्रस्त शरीर, साधुजोजन युक्त महापुरुष, लरमो, राजाओं का प्रेमपात्र व नीच पुरुष
देशकालकुलापत्यस्त्रीसमापेक्षा दायादविभागोऽन्यत्र यतिराजकुलाम्पां ॥४२॥ मति परिचयः कस्यावहां न जनयति ॥४३॥ मृत्यापराधे स्वामिनी दण्डो यदि भूत्यै न मुञ्चति ।। ४४ ।। अले महत्तया समुद्रस्य यः लघु शिरसा बहत्यधस्ताच्च नयति गुरुम् ४५
रतिमंत्राहारकालेषु न कमप्युपसेवेत ॥१६॥ सुप्छुपरिधिवेबपि लिया विश्वास न गच्छेद ४७ , तथा च गर्ग:-सर्वेष्वपि हि कृत्येषु परीरथेन वर्तते । बता पुस्तिदा शेयो मृत्युना सोऽयोक्तिः .. २ तथा र हारीत:-स्व स्थान प्राक्तन कर्म गुम मनुवर्मणः। अनुदा तस्स सिवि शान्ति सपरवः ।। ३ तथा गर्ग:-पियुमो लिंगकर कतरनो दीर्घरोधात् । एते तु कर्मचाएडामा हात्वा चनः ।। ४ तथा चोकमन्मत्र:-औरसो धर्मपरनीत: संजात: पृद्धिकासुतः मात्र मात: स्वगोत्रेशतरेर वा।। ।।
मान्माता पिता बाधुः स पुत्रो दत्तसंज्ञितः हनिमो मोचितो बनधात्मनदेनमा जियागा रामप्रसन्नकोत्पमो गूडमस्तु मुतः स्मृतः । गते मतेऽषयोत्पन्नः भोऽपविरसुतः पौ।।
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नीतिवाक्यामृत
मत्तवारणारोहियां जीवितव्यं सन्देहो निश्चितश्चापायः ॥ ४८ ॥ श्रत्यर्थं इयविनादाऽङ्गभङ्गमनापाद्य न तिष्ठति ॥। ४६ || ऋणमददानों दासकर्मणा निई रेत् ॥ ५० ॥ अन्यत्र यतिब्राह्मणक्षत्रियेभ्यः ||५१|| तस्यात्मदेह एवं बैरी यस्य यथालाभमशनं शयनं च न सहते ॥ ५२|| तस्य किमसाध्यं नाम यो महामुनिरिव सः सर्वक्लेश सहः सर्वत्र सुखशायी च ॥५३॥१ स्त्रीप्रति कस्य नामेयं स्थिरा लक्ष्मीः ||५४ || परशुन्योपायेन राज्ञां वल्लभो लोकः ५५ नीचो महस्वमात्मनो मन्यते परस्य कृतेनापवादेन ॥ ५६ ॥
अर्थ - आचार्य-कुल व राजकुल को छोड़कर दायभाग (पैतृक सम्पत्ति प्राप्त करना) के अधि कारियों में देश, काल, कुल, पुत्र, स्त्री व शास्त्र की अपेक्षा भेद होता है । अर्थात् समस्त देश और सभी कुलों में दायाधिकारी एक समान नहीं होते, जैसे केरल देश में पुत्र की मौजूदगी में भी भागिनेय (भानेज) पैतृक सम्पत्ति पाने का अधिकारी होता है, दूसरा नहीं एवं किन्हीं २ कुलों में दुद्दिता-लड़कीका लड़का दायाधिकारी होता है, इत्यादि, परन्तु आचार्य कुल में उसका प्रधान शिध्य (जैन धर्मानुसार दीक्षित मुनि) ही आचार्य पदवी के योग्य होगा, अन्य नहीं इसीप्रकार राजकुल में पट्टरानी का ही ज्येष्ठ पुत्र राज्यपद का अधिकारी होगा, दूसरा नहीं ॥ ४२ ॥
गुरु
" ने भी देश-कालादि की अपेक्षा दायभाग का विश्लेषण क्रिया है ॥ १ ॥
ज्यादा परिचय (संसर्गे) से किसका अपमान नही होता ? सभी का होता हूँ ॥ ४३ ॥ यदि नौकर अपराध करे, तो उसका स्वामी दंडका पात्र है, परन्तु यदि वह (माजिक) अपने अपराधी नौकर को नहीं निकाले । अर्थात अपराधी नौकर के छुड़ा देने पर उसका स्वामी सजा का पात्र नहीं ॥ ४४ ॥ बल्लभदेव गुरु में भी अति परिचय और नौकर के अपराधी होने से स्वामी के विषय में उक्त बात की पुष्टि की हैं ।। १-२ ।।
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समुद्रका बड़प्पन किस कामका १ किसी कामका नहीं, जोकि छोटी वस्तु तृणादिको अपने शिरपर धारण करता है और भारी चढ़ी को डुबो देता है ! उस प्रकार साधारण लोगों को सम्मानित तथा बड़े पुरुषों को तिरस्कृत करने वाला स्वामी भी निभ्ध है ॥ ४४ ॥
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विष्णुशर्मा ने भी चूड़ामणि के दृष्टान्त द्वारा सेवकों व पुत्रों को यथा-योग्य स्थान में नियुक्त करने का संकेत किया है ॥ १ ॥
१ तथा च गुरुः– देश | घारान्मय चारो स्त्रियापेक्षा समन्वितौ ? । देषो दायादभागस्तु तेषां चैवानुरूपतः ॥ १ ॥ एक दोन सर्व विभवं रूपसम्भवं । यः स्यादद्भुवस्तु सर्वेषां तथा चात् समुद्रवः ॥ ९ ॥ बखदेवः प्रतिपरिचयादवज्ञा भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः । ब्रोकः प्रभानवासी कृपे स्नायं समाचति
२ तथा
३ तथा च गुहः--य: स्वामी न त्यजेद्भृत्यपराधे कृते सति । तस्य पतिको दएको दुष्टभृत्यसमुद्भवः ॥]
४ तथा विष्णुशर्मा - स्थामेच्छेष नियोज्यते भृत्याश्च निजपुत्रकाः । न हि चूडामणिं पादे कश्चिदेश संन्यसेत् ॥१
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प्रकोणक समुदश
रति (मैथुन), मंत्र व आहार में प्रवृत्त हुए किसो मी पुरुष के पास उस समय न जावे । क्यों कि पति क्रिया में प्रवृत्त पुरुष लना के कारण अपने पास पाये हुए मनुष्य से और विरोध करने लगता है । इसीप्रकार मंत्रकाल में आये हुए व्यक्ति से मंत्र-भेद की आशंका रहती है। इससे वा भीष का पात्र होता है । एवं भोजन की वेला में प्रज्ञान व जाभवश अधिक खाने वाला यदि वमन कर देता है या उसे उबर रोगजाता है तो पाने वाले का दृष्टिदोष समझाजाता है, जिसके कारग माहार करने वाला उससे घृणा व द्वंष करने लगता है। अतः नुक्त रति आदि की बेला में किसी के पास नहो जाना चाहिये ।। ४६ ।। गाय वगैरह पशुओं पर विश्वास न करे चाहे वे अच्छी तरह से परिचत (विश्वसनीय) भी कमोल ॥ ४०
शुक ने भी रति व मंत्र आदि के ममय समीप में जाने का निषेध किया है और बल्लभदेव ने पाणिनीय-मादि के घातक सिह-मादि के दृशान्त द्वारा उक्त बात की पुष्टि की है ॥ १२ ॥
मतवाजे हाथी पर भारोहण (बदना) करने वाले मनुष्य के जीवन में सन्देह रहता है और यदि वह भाग्यवश जीवित बच जाता है, तो निश्चय से उसके शारीरिक अङ्गीपान मा होजाते हैं-टूट जाते हैं। ४८ । घोड़े पर सवार होकर जो नसमे अत्यधिक बिनोद-क्रीड़ा की जाती है, वह मवार के शारीरिक भोपाल तोड़े बिना विश्राम नहीं लेती ॥ ४६॥
गौतम व रेभ्य' ने भी मतवाले हाथी पर सवारी करने से और घोड़े वार। पति कीड़ा करने से उक्त प्रकार हानि निर्दिष्ट की है ॥ १॥
____ जो ऋणी पुरुष, ऋण देने वाले धनाढ्य पुरुष का पओ विना चुकाये मर जाता है. इसे दुसरे जन्म में पास होकर उसका ऋण चुकाना पड़ता है, परन्तु साधु, ब्राह्मण अत्रियों पर उक्त नियम लाग नहीं होता क्योंकि साधु ष विद्वान हामणसे धनायोका हित साधन होता है, अत: वे ऋणी नहीं रहते, इसीप्रकार अत्रिव राजा लोग जो प्रजा से टेक्स नेते हैं वह कर्जा ही नहीं कहा जाता॥ ५१ ॥
नारद ने भी कर्जा न चुकाने वाले के विषय में वक्त बात की पुष्टि की है ॥ १ ॥
जिसका भोजन व शमन रोगादि के कारण सुखदायक नहीं है, उसे अपने शरीर को मेरी समझना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार शत्रु के भय से स्वेच्छा पूर्वक भोजन व शयन नहीं -.-- -. . - . ...- .
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. - सपा-शुक्र-निमत्रासन विधं कुर्वाणो नोपगम्पते | अभीसमर Rोकोऽपि यतो घमवाप्नुयात् ॥ ३ ॥ १ सपा-बसामदेव:-सिंहो म्माकरणस्य का रहस्त प्रासान् प्रियान् पारुपाने ।
मीमांसातमुन्ममाव वसा हस्ती मुनि जैमिनि ॥ १ ॥ बम्बोजाणनिधि जराम मरो पेवावटे पिंगलं ।
पाहानाचेतसामतिकषां कोऽस्विररचा गुण ॥१॥ ६ व्या व गौतमः-यो मोडाम्मच नागेन्द्र समारोहति दुर्मतिः । तस्य जीवितनाशः स्वागावभंगस्न निश्चित: 20 " तथा परमः-भाय' कहते मस्तु पाजिकीको सौनुको । गात्रभंगो भवेत्तस्य यस्य पवनं यथा ॥ १॥ * वा मारल:- पति को वस्तु पनिकाय कला देहान्तामनुप्राप्त स्तस्व दासत्मानुशात् ।। ।।
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नौविधाक्यामृत
किया जाता, उसी प्रकार शरीर के व्याधि-पीड़ित रहने से भी यथेष्ट भोजन ब रायन नहीं किया जा सकता ॥५२॥ जो महापुरुष महामुनि समान उत्तम-मध्यम-आदि सभी जाति के अन्न भक्षण करने की कचि रखने वाला तथा समस्त प्रकार के शीत उष्ण आदि के कष्ट सहन करने में समर्थ एवं सभी जगह (पाषाणादि) पर सुख पूर्वक निद्रा लेने की प्रकृति-युक्त है, उसे संसार में कोई काय मसाध्य (न करने योग्य नहीं ॥३॥ यह लएमा स्त्रीको प्रोति-समान अस्थिर-नाश होनेवाली है ५४ ।
जैमिनि 'बगुरु ने भी रुग्ण शरीर व माधु जीवन के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १-२॥
वही लोग राजामों के प्रेमपात्र होते हैं, जो कि उनके समक्ष दूसरों की चुगली किया करते हैं ॥ ५५ ॥ नोच पुरुए दूसरों की निन्दा करके अपने को पड़ा मानता है ॥ ५६ ॥
हारीत व जैमिनो ने भीराजामों के प्रेमपात्र और नोलपुरुष केवारेमें इसी प्रकारकहा ॥१-३॥
गुण-फत महत्व, महापुरुष, सत्-असत्संगका पसर, प्रयोजनार्थी व निर्धनका धनाव्य के प्रति कसंध्य, सत्धुनष-सेवा का परिणाम, प्रयोजनार्थी द्वारा पोष-दृष्टि का अभाव, चित्त प्रसन्न करनेवाली वस्तुप व राजा के प्रति पुरुष का कत्तव्य
न खलु परमाणोरन्पत्वेन महान् मेरुः किन्तु स्वगुणेन ॥ ५७॥ न खल निनिमित्तं महान्ता भवन्ति कलुषितमनीषाः ।। ५८ ॥ स वन्हेः प्रभावो यत्प्रकृत्या शीतलमपि जलं भवत्युष्य ।।५६|| सुचिरस्थापिने कार्यार्थी वा साधुपपरेत् ॥ ६० ॥ स्थितैः सहार्योपचारेण व्यवहार न कुर्यात् ॥६१॥ सत्पुरुषपुरश्चारितया शुभमशुभं वा कुर्चतो नास्त्यपवादः प्राणव्यापादोबा६२। सपदि सम्पदमनुबध्नाति विपञ्च विपदं ॥ ६३ ॥ गोरिव दुग्धार्थी को नाम कार्याथी परस्पर विचारयति ॥६॥ शास्त्रविदः स्त्रियश्चानुभूतगुणाः परमात्मानं रजयन्ति ॥शा चित्रगतमपि राजानं नावमन्येत पात्र हि तेजो महतीसत्पुरुषदेवतास्वरूपेण निष्ठति ॥ १६ ॥
अर्थ-जिस प्रकार सुमेरुपर्वत अपने गुण-पता आदि के कारण महाम् है न कि परमाणु की लघुता से. उसी प्रकार मनुश्य भी विद्वत्ता व सदाचार-मादि सद्गुणों के कारण महान होता है. न कि किसी के दुध होने से ।। ५७ ।। महा पुरुष बिना निमित्त के मलिन बुद्धि-युक्त नहीं होते । अर्थात-जिस प्रकार हुष्ट लोग बिना प्रयोजन पचानक कुपित हो जाते है, वैसे महापुरुष नहीं होते, वे किसी कारणवश कुषित पाते हैं ।। ५८ ||
प्पा, जैमिनिः-भोजन या नो पाति परिणाम न भवित । निदा सुनयने नैति भयो निमो रिपः ॥ सबा गुहः-मानिकपनिराम्ये सरन्तेऽपि कार्यक्षम । निद्रा पुरोहितस्पापि स समर्थः सदा भर सारीत:-क्षम्ये निरतोसोको राज्ञा भवति सभः | रोऽप्यसीमोऽपि बहुदोचारियोshan तथा जैमिनि:-प्रमान मन्यो भने परापमानतः 11 सानाति परे लोक पाने नरकसम्मवम् ॥
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प्रकोणक समुदंश
४२३ गुरु' व भारद्वाज ने भी सुमरको महत्ता व महापुरुषों के विषय में उक्त बात की पुष्टि की है । १०२
जिस प्रकार स्वभाव से शीतल जल के उष्ण होने में अग्नि का असर कारण है, इसीप्रकार स्वाभाविक शान्त पुरुष के कपित होने में दुष्टों की संगति हो कारण समझना चाहिये ।।४।
बल्लभदेव ने भी कहा है कि 'घोड़ा, शस्त्र, शास्त्र, बीणा; बाणो, मनुष्य व स्त्रो ये पहषविशेष ( उत्तम व प्रधम ) को प्राप्त कर योग्य-अयोग्य हो जाते हैं ॥१॥
प्रयो उमिद्धि चाहन वाहे मनुष्य को इस प्रकार के मनुष्य को अच्छी तरह सेवा करनी चाहिये, जो कि चिरकाल तक स्थिरशील होकर उसी प्रयोजन-सिद्धि में सहायक हो ।। ६० ॥ दुर्वख-निधन पुरुष को स्थिरशोल ( धनाढ्य ) पुरुषों के साथ धन देने का षर्माण नहीं करना चाहिये, इससे उसकी अत्यधिक माथिक-क्षति-धन व्यय- नहीं होने पाता ।। ६१॥
शुक्र व गुरु ने भी प्रयोजनार्थी एवं निधन पुरुषके विषयमै उक्त बातका समर्थन किया है ।।१-२॥
महापुरुषों का ऐसा भपूर्व माहात्म्य है कि उनकी सेवा करने से मनुष्य में ऐसा व्यक्त्वि श्रा जाता है कि यदि वह मसावधानी-वश कोई अच्छा बुरा काय कर बैठता है--कोई अपराध कर लेता हैतो लोक में उसको निन्दा नहीं हो पाती और न उसे अपने प्राणों के नष्ट होने का खतरा रहता है। इसी प्रकार सत्पुरुषों की सेवा तत्काल सम्पत्ति उत्पन्न करता है एवं विपत्ति का नाश करती है । ६२-६३ ॥
हारीत' ने भी महापुरुषों की सेवा का इसो प्रकार माहात्म्य निर्देश किया है ।। १.२ ॥
कौनसा प्रयोजनार्थी मनुष्य स्वार्थ सिद्धि के निमित्त गाय से दूध चाहने वाले मनुष्य के समान उसकी प्रयोजन सिद्धि करने वाले दुसरे मनुष्य के प्राचार का विचार करता है। गेई नहीं करता। अथो -जिस प्रकार गाय के दूध चाहने वाला उसके मापार (अपवित्र वस्तु का भक्षण करना) पर दृष्टि पान नहीं करता, उसी प्रकार प्रयोजनार्थी भी 'अर्थी दोषं न पश्यति'-स्वार्थासद्धिका इकछुक दूसरेके दोष नहीं देखता' इस नीति के अनुसार अपनी प्रयोजनासद्धि के लिये दूसरे के दोषों पर दृष्टिपात न करे ४६४।।
शुक' ने भी प्रयोजन सिद्धि के इच्छुक पुरुष का यहो कर्तव्य बताया है ।।१॥
१ तथा गुरु:-नोचन कर्महा मेहन महत्वमुपगतः । स्वभावनियतिस्तस्य यथा वाति महत्वा ॥ ॥ २ सया र भारतान- भवन्ति महात्मानो निनिमितं धान्विताः । निमित्तेऽपि संजाते यथाम्मे दुर्जनाः जनाः ॥" ३ तथा सबल्समदेवः-प्रमः शस्त्र शास्त्रं बोया वाचो मरश्च नारी च।
पुरुषविशेष अग्धवा भवन्ति योग्या अयोग्णाश्व ॥१॥ ४ तथा एक:-कार्यार्थी म मशोषों या साधु संमेपरिस्थर । सर्वारमना सत: सिदिः सर्वदा र प्रजायते ॥ . ५ तथा च गुरुः-महद्भिः सह नो कुर्यादप्यमहारं सर्वदः । गतस्य गोचर तस्य न स्पात पाप्या महान गायः ॥111 ६ तथा व हारीस:-महापुरुषसेवायामपनराधेऽपि संस्थित : मापवादो भवेत् पुसा न च प्राणवस्तथा ॥ ॥
शीघ्र समान!माथी बमोशियेण्यसनं महत् । सत्पुमरे कृता सेवा काखेनापि नाम्पमा २५ तथा च शुक्र:- कार्याधी न विचार' च कुरुतं च प्रियान्वितः 1 दुग्धार्थी च यशी धेनोरमध्यास्य प्रभावान् ॥1॥
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नीतिवाक्यामृत
जिनके पुष्कल ज्ञान व सदाचार प्रभृति सद्गुणो परिचय हो चुका है, ऐसे विद्वान और कमनी कावा' (स्त्रियां) मनुष्यको आत्माको अध्यन रायमान (सुख) करती हैं ||६५ | चित्र (फोटो) वर्तमान राजाका भी निरस्कार नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसमें ऐसा अर्व क्षात्र-तंत्र (क्षत्रियसंबंधी तेज विद्यमान रहता हैं, जो कि राज-पुरुषके शरीर में महान देवता रूप से निवास करता है ॥ ६६ ॥ शुक्र' व गर्ग ने भी विद्वानों और कमनीय फार्मिनियों तथा राजा के विषय में इसी प्रकार का उल्लेख किया है ॥ १-२ ॥
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विचारपूर्वक कार्य न करने व ऋण वाकी रखने से हानि, नया सेवक, प्रतिज्ञा, निर्धन अवस्था में उदारता, प्रयोजनार्थी व प्रथक किये हुये सेवक का कर्तव्य
कार्यमारभ्य पर्यालोचः शिरो मुण्डयित्वा नक्षत्रप्रश्न इव ।। ६७ ।। ऋणशेषाद्रिपुशेषादिवा
यं भवत्वात्यां भयं ॥ ६८ ॥ नवसेवकः को नाम न भवति विनीतः ॥ ६६ ॥ यथाप्रतिश की नामात्र निर्वाहः ॥ ७० ॥ अप्राप्तेऽर्थे भवति सर्वोऽपि त्यागी ॥ ७१ ॥ अर्थार्थी नीचैराचराणान्नाद्विजेत्, किन्नाथो व्रजति कूप जलार्थी || ७२ ।। स्वामिनोपहतस्य तदाराधनमेव निवृतिहेतु जनन्या कृतविप्रियस्य हि बालस्य जनन्येव भवति जीवितव्याकरणं ॥ ७३॥
अर्थ- जो मनुष्य कार्य-भारम्भ करने के पश्चात् उसके होने वाले लाभ का विचार करते हैं, वे शिर मुड़कर नक्षत्र प्रश्न ( शुभ-अशुभ मुहूर्त का पूछना ) करने वाले के समान मूर्ख है। अर्थात जिस प्रकार शिर मुड़ाकर शुभ-प्रशुभ मुहूर्त पूछना निरर्थक है, उसी प्रकार कार्यारम्भ करके पश्चात् समे होने वाले हानि-लाभ का विचार करना भी निरर्थक है, अतः कार्य बारम्भके पहिले उस पर विचार कर लेना उचित है, क्योंकि उतावली से किये हुये कार्य हृदय में काँटे चुभने के समान अत्यधिक पर पहुँचाते हैं ॥ ६७ ॥ जो मनुष्य शत्रु को याकी रखने की तरह ऋण ( कर्जा ) बाकी रखता है, उसे भविष्य में भय रहता है, अतः सुखाभिलाषी पुरुष अग्नि, रोग, शत्रु और ऋण इन बार कष्टदायक चोओं को बाकी न छोड़े, अन्यथा ये बढ़कर अत्यन्त पीड़ा पहुँचाती है ।। ६८ ।।
नारद ने भी विचारपूर्वक कार्य करने का एवं शुक्र ने भी अति व रोगादि उक्त चारों चीजों के उन्मूलन करने का उल्लेख किया है ।। १-२ ॥
कौनसा नया सेवक शुरू में नम्र प्रदर्शन नहीं करता ? प्रायः सभी करते हैं। अभिप्राय यह है कि नया नौकर शुरू में विश्वसनीय कार्यों द्वारा स्वामी को प्रसन्न करने में प्रयत्नशील रहता है, पश्चान
२ तथा च गग:३ तथाच नारदः
5 तथाच शुक्रः स्त्रियं वा यदि वा किञ्चिनुभूय विषयाः। श्रारमानं वापर वापि रज्जयन्ति न चान्यथा ॥ १ ॥ नावमन्येत भूपाल होनको सुदुर्दक्षं । पात्रं तेजो यतस्तस्य देवरूपं तनां वसेत् ॥ १ ॥ प्रारम्भेण कृस्पानामा कोचः क्रियते पुरा । श्रारम्भे तु कृते पश्चात् पर्याक्षोधी वृथा हि सः ||६|| शिरसो मुण्डने यद्वन् कृते मूर्खतमैर्नरैः । नचत्र एव प्रश्नान ? पयसाचस्तमः ॥ २ ॥
४ तथा च शुद्र अग्निशेषं रिपोः शेषं नृणाणांभ्यां च शेषकं । पुनः पुनः पततस्मान्निःशेषयेत् ||१||
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प्रकोणक-समुदेश
४२५ . - विका-कार्य में असावधानी करने वाला (बालसी) हो जाता है, पवः नये सेवक पर विश्वास नहीं करना चाहियं ।। ६६ ॥
यल्लभदेव ने भी लोक में प्रायः सभी मनुष्यों को नये सेवकों की बिनय द्वारा एवं प्रतिषि श्यामों व धूर्त लोगो के मिष्ट वचनों द्वारा ठगे जाने का उल्लेख किया है॥१॥
कौन पुरुष इस कलिकाल में की हुई प्रतिज्ञा का निर्वाह (पूर्ण रूपसे पालन) करता है कोई नहीं करता, अतः खूप सोच समझ कर प्रतिज्ञा लेकर उसका पालन करना चाहिये, अन्यथा प्रतिज्ञा भङ्ग होने से पुण्य क्षीण हो जाता है ।। ७० ।। जब तक धन नहीं मिलसा-निर्धन अवस्था में सभी लोग उदार होते हैं । सारांश यह है कि दरिद्रावस्था में प्रायः सभी लोग प्रचुर दान करने के मनोरथ किया करते हैं कि यदि मैं धनान्य होता तो प्रचुर दान करता ॥ ७१ ॥
नारद 'वरेभ्य ने भी प्रतिज्ञा भङ्ग से पुण्यक्षीण होनेका एवं दरिद्र के त्यागी होने का उल्लेख किया है ॥१२॥
स्वार्थी अघन्य पुरुष अपनी प्रयोजन-सिद्धि के लिये नीच श्राचरण से भयभीत नही होते, या खलाभिलाषी मनुष्य कुमा खोदने के लिये नोचे नहीं जाता ? अवश्य जाता है। मभित्राय यह है कि ष्ट प्रयोजन सिद्ध के लिये उत्तम आचरण ही श्रेयस्कर है ।। ७२ ॥
शुक्र " ने भो स्वार्थी पुरुष के विषय में उक्त बात का समर्थन किया है। १॥
जिस प्रकार अपराध के कारण माता द्वारा विरस्कृत किये हुये पये की माता ही जीवन का करती है, उसी प्रकार अपराध-वश पृथक किये हुये सेवक को जीवन रक्षा सपके द्वारा को जाने वाली स्वामी की सेवा शुश्रूषा द्वारा ही होती है। शुक - ने भी सेवक के कर्तव्य के विषय में उक बात की पुष्टि की है ॥१॥
इति प्रकीर्णक-समुद्देश । इति सोमदेवसूरि-विरचित नीतिवाक्यामृत संस्कव अन्य की सागर(सी.पी.)निषातो परवार जैनजातीय पं. सुन्दरकाज शास्त्री जैनन्यायतीर्थ, प्राचीनन्यायतीर्थ ष काध्यतीर्थ-कृत भाषा टीका
समाप्त हुई।
। व्या च पस्समदेवः-अभिनवसेव सावनयः [णि कोक्त विवाप्तिमोहवितः] । भूशनाचनान करैरिह परंपरा
चिसो नास्ति । सं. क्या च मारवः-प्रतिक्षा यः पुरा कृत्या पश्चादूर्भर करोति च। ततः स्याद्गमनिरन हसस्येव जानन्ति के ? " १ तथा च रेभ्यः-दरिद्रः कुरुते पान्छो सर्वदानसमुभवा । पावन्नाप्नोति वित्तं स विकारया मिपुशो भवे ॥१॥
क्या च गुरुः-स्वकार्यसिदये पुभिनीचमार्गोऽपि सेभ्यते । कूपस्य समने थदर पुरुपेण जलाधिना ।। ।। तथा न शुक्रा--निःसारितस्य भृत्यस्य स्वामिनितिकारणं । यथा कुपित या मात्रा बादस्थापि ध सा मतिः ।।
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( ४२६ )
प्रन्थकार की प्रशस्ति इति सफलतार्किकचक्रचूड़ामणिचुम्बितचरणस्य, पंचपंचाशन्महावादिषिजयोपार्जितकीर्तिमन्दाकिनीपविभिनत्रिभुवनस्य, परमतपश्चरणरत्नोदन्वतः श्रीमन्नेमिदेवभगवता प्रियशिष्येण वादीन्द्रकानानलश्रीमन्महेन्द्रदेव भट्टारकानुजेन, स्यावादावलसिंह-तार्किकचक्रवर्तिवाडीभपंचानन-बाकस्लोलपयोनिधिकषिकुलरामप्रभृतिप्रशस्तिप्रशस्तानवारण, षण्ापतिप्रकरणयक्तिचिन्तामणिसूत्रमहेन्द्रमातलिसंजय पशोधरमहाराजचरितमहाशास्त्रवेधसा श्रीसोमदेवसूरिणा विरचित (नातिवाक्यामृतं) समाप्तमिति ।
अर्थ- समस्त साकिन्समूह में चूड़ामणि-शिरोरत्न (श्रेष्ठ), विद्वानों द्वारा पूजे गये हैं परकमल जिनके, पचपन महावादियों पर विजयश्री पानेसे प्राप्ति की हुई कीर्ति-रूपो स्वगंगासे पवित्र किये हैं तीन भुवनों को जिन्होंने एवं परम सपश्चरणरूप रनोंके रत्नाकर (समुद्र) ऐसे श्रीमत्पूज्य नेमिक्षेत्र, उनके प्रिय शिष्य, 'वादीन्द्र कालानल' (बड़े २ वादियों के लिये प्रलयकालीन अग्नि के समान) उपाधि . विभूषित श्रीमान् महेन्द्र देव भट्टारकके अनुज, 'स्याद्वादाचलसिंह (स्याद्वादरूप विशाल पर्वतके सिंह) 'ताकिची ' 'वादामपंचानन' (वादीरूप हाथियोंके गर्वोन्मूलन करने के लिये सिंह सरश) 'वाक्क. क्लोजपयोनिधि' (सूक्ति-तरकों के समुद्र) 'कत्रिकुज़राज' इत्यादि प्रशस्तियाँ (उपाधियाँ) ही है प्रशस्त अलकार (आभूषण) जिनके तथा पराएकतिप्रकरण (६६ अध्याय बाला शास्त्र), युक्तिचिन्तामणि (दार्शनिक मन्थ), त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसं जल्प (धर्मारिपुरुषार्थत्रय-निरूपक नीतिशास्त्र) और यशोधरमहाराजचरित (यशस्तिलकचम्पू) इन महाशास्त्रोंके वृहस्पतिसमान रयिता श्रीमत्सोमदेवमूरि द्वारा रचा गया पह 'नीसिवाक्यामृत' समाप्त हुआ। अस्पेऽनुप्राहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोउपमुहासचिनचरिते श्रीसोमदेचे मयि । या सभेव तथापि दर्पदवावीविप्रगावामहस्तस्थापितगर्यपर्वतपविमेवर वान्तायते | सकलसमयतर्फे नापनक्कोऽसि बादी, न भवसि समयोक्ती इससिद्धान्तदेवः । न च पचनवितासे पूज्यपादोऽसि , पदसि कथमिदानों सोमदेवेन सार्थम् ।। २ । [दुर्जनांधिपकठोरकुटार स्त विचारससारः । सोमवेव इव राममि सूरिदिमनोरथभूरिः ॥३॥ संशोधित परिवर्तित पपॉन्वषोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, चादितिपोरखमदुधरवाम्बिकाये। श्रीसोमदेव मुनिपे वनारसाजे, बागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न पारकावे ॥ ४॥
'छोटों के साथ अनुपह, बराबरी वालों के साथ सजनता और पूज्य महापुरुषों के साथ महान भादरका वर्वाव करना' यह उच्च व चित्र (आश्चर्यजनक) चरित्र वाले मुझ सोमदेवका सिद्धान्त है तथापि जो व्यक्ति अत्यधिक गर्व वृद्धिसे दुराग्रही होकर मुझसे पर्दा करता है-ऐट दिखाता है-उसके गवरूप पर्वतको भेदन करने के लिये मेरे बचन वज-समान व काल-तुल्य माचरण करते है ।।।। हे वाद-विवाद करने वाले वादी न तोल समस्त दर्शनशास्त्रों पर सके करने के लिये अकल देवके समान है, न जैन सिद्धान्त निरूपण करने के लिये इससिद्धान्त देव है भोर न व्याकरण में पूज्यपावके समान चमका पारदर्शी है, फिर इस समय पर सोमदेव सूरिके साथ किस विरते पर बात करने तत्पर हुश्रा है ? 1 2 || श्री सोमदेव गलाके ममान गुण विपिस है, क्योंकि वे दुर्जनरूप चौक
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( ४२७ ) निग्रह करने के लिये तीषण कुठार (कुल्हाड़ी), तर्कशास्त्र (सोमदेव मूरिके पत्नमें म्यायशास्त्र और राज. पामें मुई-मुहायलोंके मुकदमेंका न्यायोचित निर्णय) के सीरण (गम्भीर) विचार करने में बलिष्ठरें तथा अपनी ललित (दारोनिक) मनोऽनुकूल प्रवृत्ति द्वारा वादियों को परास्त करने वाले (गजकीय पसमें मुद्दईके मनोरथों को पूर्ण करनेवाला-तराजू की तरह परीक्षा द्वारा मुकदमे की सस्यताका नियोयक) है॥३॥ अत्यधिक अभिमान रूप निलो गित मा लामाले लाले, वादी रूप गोंको दलित करने बाला दुधेर विवाद करनेवाले और तार्किकचूडामणि सोमदेवसूरिके सामने वादके समय वृहस्पति भी नहीं ठहा सका, शिर अन्य साधारण पंडित किस प्रकार ठहर सकते हैं ॥४॥
___ इति प्रन्थकारको प्रशस्ति समात
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अन्य माल तथा आत्म-परिचय जो है सत्यमार्गका नेता, अझ रागादि-विजेता है । जिसकी पूर्ण ज्ञान-रश्मि से, जग प्रतिभासित होता है ।। जिसकी चरणकमल-सेवा से, यह अनुवाद रचाया है।
ऐसे ऋषभदेवको हमने, शत-शत शीश नवाया है ।।१।। कोदा--सागर नगर मनोझतम, धर्म-धान्य भागार । वर्णाश्रम भाचारका, शभ्र रूप साकार ॥२॥
जेनी जन तहूँ बहु बसें, क्या धर्म निज धार । पूज्य चरण व लसें, जिनसे हों भव-पार ॥३॥ जैन आति परवारमें, जनक कनैयालाल । जननी होगवेवियों, कान्त रूप गुणमान ॥४॥ पुत्र पाँच अनसे भये, पहले पन्नालाल । दूजे कुजीलाल अरू, वीजे बोटेलाल ॥४॥ चौथे सुन्दरलाल बा, पंचम भगवतलाल | प्रायः सबही बन्धुजन, रहें मुदित खुशहाल ।।६।। पतमान में बन्धु दो, विलसत हैं अमलान । बड़े छोटेलाल का, सुन्धरसात सुजान ॥७॥ भाई छोदेलाज तो करें बणिज व्यापार। जिनसे रहती है सवा कमज्ञा मुदित अपार ॥८॥ बाल्यकाकतें मम रुचि, प्रकटी विद्या हेत । तातें हम काशी गये, ललितकला-संस।॥ चौपाई-द्वादश वर्ष साधना करी । गुरु पद-पज में चित दी।
मातृसंस्था में शिक्षा लहो । गैल सदा सम्मति की गही।।१०।। व्याकरण, काव्य, कोष, मति माना। वर्क, धर्म अक नीति वखाना ।।
वाग्मित्व आदि कला परवाना । नानाविध सिख भयो सुजाना ॥ १६ ॥ दोहा-कलकत्ता कालेज की, वीर्य उपाधि महान । जो हमने उत्तीर्ण की, मिनका कहँ बखान ॥ १२ ॥
चौपाई-पानी न्यायतीर्थ' . जानों । दूजी 'प्राचीनन्याय' प्रमानों॥
वीजी कान्यतीर्थ' को मानों। जिसमें साहित्य सकल समानों. १३ ॥ गुरुजन मेरे विद्यासागर । ललित कला के सरस सुधाकर ।। पहले शास्त्री अम्बादत्त । जो थे दर्शनशास्त्र महत ॥ १४ ॥
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दूजे श्रीमद्गुरुगणेश हैं, न्यायापार्थ मह तीर्थ समान ।
पर्णी 'बापू' हैं अति दार्शनिक सौम्य प्रकृति षा सम्त महान || १५॥ दोहा-'सरस्वती' मेरी प्रिया, मनसे हुई सन्तान । एक पुत्र पुत्री-उभय जो हैं पहुगुण खान ॥ १६ ॥
पत्नी मम दुदै वने, सचः नीनी छीन । वंश बढ़ायन हेतु है, सुत 'मनहर' परवीन ॥ १७ ॥ मेरी शिष्य परम्परा भी है अति विद्वान । जिसका आंत संक्षेपसे अब हम करें मखान ॥ १८ ॥ पहले महेन्द्रकुमार' हैं. पूजे 'पवनकुमार' । 'मनरजन' खोजे लल चौथे 'कानाकुमार' ॥ १६ ॥
चौपाई-वि० संयय बीस से अरु सात, भाद्र शुक्ल चउदश अवदात ।
पूर्व प्रकाशित जप यह हुआ, शुभ उद्यमका मम फल दुभा ॥ २०॥ दोहा-मापबुद्धि परमार, भूल चूक जो होय । सुधी सुधार पदो सदा, जानें सज्जन होय ॥२१॥
सुन्दरलाल शास्त्रो प्राचीन न्याय-माध्यतीर्थ
होता
होता है
चौरे
पोड़े
इमुजते
पीके बिना भनफे बिना
सुभुमाते भार
भार
कम्य भन्न भिन्न २ गयी गुणी. बेश्याना श्यानो
मूल्यवृद्धि
मेषु पूर्वदुष्कर
पूर्व दुध परुष
पुरुष नपुसक नपुंसक सिद्ध सिद्धि' राजा
शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति
शुद्ध
पृष्ठ पति परणित परिपात नया
जुगान् १७४ ४दि. अरष्टस्य अदुष्टस्य ५८ टि० सर्य स्वयं शुभ १५३ ६दि.
दानशकि हीनशकि १२० १५
२६१ १० १२६ १७ ऽस्वथ
पथ
पदा २दि० ऽप्यवसायकएव ऽव्यवज्ञायत एष २६४ ११ १३८ २टि० मशुचि मशुधि
६६७ २० १४५ ५ भामदनीके केसमान २६८ १० १६. २४
__ समान १६० १० नोडलम् बनोद्भवम् २६३ दिन १६१ २४ चुकी
२७४ १७ १६२ - बनाता .
२७६ १३ १६३ २टिक कुलमयमानौ कुर्वन्नर्थमानो १६७ १लिक को
२४६
मुखवृद्धि
बनाती
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अशुद्ध सपन्
संपन्
पृष्ठ पति ३४१ १५ ३४२ २ ३४३ . ३४८ २५
रुचि विसैनिः ब्बसनेभ्य; भक्ताग्रामाः
( ४२६ ) प्रष्ट
কি হয় । शुम २८० ३टि० शुभ २८१
परोपपातो परोपघातो ६१ ४टिक आथिक आर्थिक २९३ ३टि निःस्वाथ नि:स्वार्थ
३टि० सयायादि समायाति २८७ २० विपिपोऽपि विरूपोऽपि २८६ -टि० सभगः २७ टि. मन २८८ २टि- भवति भवति
ऽहथि विनिजः व्यसनेभ्यः भक्तप्रामाः
३५४ ३५६
टि. टिक
f
सुभगः
३५७
उपाय धेनबो युद्धोपयोगी संवृशोति
रुपाय धेनुयो युद्धापयोगी सवणोति वन विदान (स्त्रधारी) नश्चैवं काय दुरेऽपि विजयगीप
कुनो
विद्वान् (शस्त्रधारी) यंतश्चैव कार्य दूरेऽपि विजिगीष
स्वार्थ
र्धनु
भुपस्य नमादिष्टर विवेषता पशारवि कुल्याग सुवगधातु मातृपितरो राजभारत कपतः भासेन वायुमे श्रद्धाल वप विदेशको दिसम्बनं
कार्य
२६६ ७
विवाह-समुझेश विवाद-समुश ३४से ३६५वक २६६ १० मानाथहानि मानार्थहानि २६ १५ १६ १८ पूर्वोक्त पूर्वोक
३५ १८ ६६ २५ स्वाथ १८ टि० वतमान वर्तमान E३टि० प्रमशानि मप्रमाणानि ३६. ३टि० २८ २३ थरिथ्ये यदिव्ये ३६१ २दि०
अभयुलोत अभियजीव ३६१ ४ . २६६ ३टि० इतो
यूत्तो
३६२ । ३०. टि. खिलाकरी खिलाकर ३१० १६ कट जैः
३६२ १t. ३१४ २ क्रिया क्रिया
३६२ टि. ३१६ ३ दि० कार्य
३६३ टि. ३१८ टिक रोहणाम मेहणं धपथ
शपथ ३३२ ४ वेश्याः वेश्यायाः
३६५ ५ ३२२ ६ मूग्य
मुख
३०६ १० ३२५ २० छाड़ता छोड़ता ३६६ .
मायाहोन मर्यादाहीन ३६६ १६ नगग्य नगण्य
३६८ . पारूपेण पौरुषेया ३६% १टिक ३३६ ५. पुरुषासह पुरुषसिंह ३६६ ३३७ १३
भपस्य समादिष्ट विशेषता पशोरपि कुल्यान মুখাৰু मातृषितरी राज्यभारः कृषतः भ्यामेन
पायुमें
श्रद्धालु
वृष को
पुरुषाथ
पुरुषार्थ
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________________ हाता है विजिगीपू दषक कौमारवया अधम वत्ता व्यवहार / 373 पतनके पृष्ठ पंक्ति अशुस पृष्ठ पक्ति होता है 366 12 विगर्ग 381 11 365 दि० अदल दुर्बल 386 देवकस 366 टि० विमायोरमका: विज्ञायोत्मारः 3121 क्षम सेयर जितः सन्यजितः २५टि. फौमारययो 370 11 अनानो जानानो 36. दि. अध 370 16 कान वहाने 362 16 बेसा यर्मविजयी धर्मविजयी 318 दि० तत्र 364 29 पाहागय-समुरेश ३६६से 385 नाभ्यो नाधभ्या तथवाः नर्थवाः 407 टिक पी भदी 400 17 मानिनो श्राबुवाला माय वाली 4.6 16 सुवर्ण मामा मामाको 410 21 कुहीनता न विशेष 383 - सरभावति रममाववृत्ति 49. 3 प्रयोजन 383 यत्रागत्याथिनो गत्रात्यार्थिनो 413 म 3033 3 टि० प्रतिकूलका प्रतिकूलना 416 1. परप्रोयो 3.4 5 पम्प बावेष पष्टि पुष्टि असमर्थ मंत्राम नविभं मंत्राशनर्गव 421 4 भन्मूलन माधुपचरत माघपचरम 432 55 बुदिशक्ति यशोऽथं यशार्थी रिपोर्दधे 58. म्मेभ्याम्य मेयस्य . 423 टि. शत्रायदे 38 टि. तनो मनी 424 टि. स पसनक मानिना सुषमा वैरिपुः प्रविशेन पुयोजन मर्य परप्रणया दादेव असमय उमन्मन बांति पोषधे रात्राबरष्टे हि कुलीता