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* नीतिवाक्यामृत
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६ दण्डनीति-समझेश । में माहात्म्य * चिकित्सागम इन दोपविशद्धिहेतुदण्डः ॥ १ ॥
निसमकार आयुर्वेद-शास्त्रके अनफूल औषधि सेवनसे रोगीके समस्त विश्वत दोष-वात, मादिका विकार एवं उससे होनेवाले बुखारभालगण्डादि समस्त रोग-विशुद्ध-शाम्त (नष्ट)
सीप्रकार अपराधियोंको दंड देनेसे उनके समस्त अपराध विशुद्ध नष्ट होजाते हैं। रहा विवानने भी कहा है कि 'अपराधियोंको दंड देनेसे राष्ट्र विशुद्ध-अन्यायके प्रचारमे जाता है, परन्तु दंड-विधानके विना देशमें मास्यम्याय--पड़ी मछलीके द्वारा छोटी मछलीका
वनमाम् व्यक्तियों द्वारा निर्वलोका सताया जाना-श्रादि भम्यायका प्रचार)की प्रचि हाने सगती है ॥१॥ म:-समस्त राजतंत्र-राज्यशासन-दंडनीतिके आश्रयसे संचालित होता है । इसका भकटक-प्रजापीक अन्यायो-माततायियों (दुधौ) को संशोधन-निग्रह करना है। प्रायः योग पंरके भयसे ही अपने ९ कर्तव्यों में प्रवृत्त और अकर्तव्यों से निवृत्त होते हैं। इससे प्रजामें मालपम्बायका प्रचार नहीं होपाता और इसके परिणामस्वरुप अमातराज्य-बादिकी प्राप्ति,
या संरक्षितको घृद्धि और वृद्धिंगत इष्ट पदार्थोको समुचित स्थानमें लगाना होता है। निक:-अतः राष्ट्रको प्रजा-कराटकोंसे सुरक्षित रखना, प्रजाको धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थीका की साधारहित पालन कराना, उसे कर्तव्यमें प्रवृत्त और अकर्शव्यसे निवृत्त करना, विशाल गान द्वारा समाप्त राज्यादि की प्राप्ति, प्राप्तकी रक्षा, रक्षितकी वृद्धि-प्रादि देखनीतिका प्रधान नीतिकार चाणक्य ने भी उक्त बातको स्वीकार किया है ।। १ ।।
रूपनिर्देरा:: पपादोष दयामायने दंडनीतिः ॥२॥ -अपराधीको उसके अपराध के अनुकूल दगा देना दण्डनीति है--जिस व्यक्तिने जैसा अफ
से उसके अनुकूल दण्ड देना वही दंडनीति है । उदाहरण में-जैसे जुर्माना योग्य अपराधीको रापानल अर्माना करना न्यायोचित दंडनीति है और इसके विपरीत काराबास-जेलखाने-की मन पायापयुक्ततोरण देर है इत्यादि।
पराधिधु यो दण्ड स राष्ट्रस्य विशुदये । विना येन न सन्देदो] मास्यो न्यायः प्रत्रतते ॥" करलोकका तीसरा चरण "विना येन च सन्देहो ऐसा सं. टी० पुस्तक में संकलित था जिसका अर्थ
ही होती थी, अतः इमगे उक्र संशोधन करके भर्थ-समन्वय किया है । सम्पादक:-- त्रिस्य अर्थशास्त्र दंदनीति प्रकरण ११ १२-९३ अ. मित्र ६-१४