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________________ नीसिवाक्याभूत M M . .. ..... . राज-कर्मचारियोंमें समदृष्टि, दरिद्रसे धनग्रहण और असमर्थको प्रयोजन कहना क्रमशः आश्रितेषु कार्यतो विशेषकारणेऽपि दर्शनप्रियालापनाम्या सर्वत्र समवृत्तिस्तत्र वर्द्धयति अनुरज्जयति च ॥३७॥ तनुधनादर्थग्रहणं मतमारणमिव ॥३८॥ अप्रतिविधातरि कार्यनिवेदनमरण्यरुदितमित्र ॥३६॥ अर्थ-राजाका कर्तव्य है कि वह अपने आश्रित अमात्य-आदि प्रकृतिके साथ अनुरक्त दृष्टि और मधुरभाषा-आदि शिष्ट व्यवहार समान रक्ले। क्योंकि पक्षपात-शून्य समष्टिसे राजतंत्रकी श्रीवृद्धि होती है व समस्त प्रकृति-अमात्य-दि-उससे अनुरक्त रहती है। यदि उसमेंसे किसी कर्मचारी द्वारा उसकी विशेष प्रयोजन-सिद्धि हुई हो, तो उसे एकान्तमें पारितोषिक-प्रदान द्वारा प्रसन्न करे, परन्तु उसका पक्षपात प्रकाशित नहीं होने पावे, अन्यथा अन्य प्रकृति के लोग राजासे द्वष करने लगते हैं ॥३७॥ दरिद्र मनुष्यसे धन लेना मरे हुएको मारनेके समान कष्टदायक है। सारांश यह है कि राजा धनिकासे हो टेक्स घसूल करे, गरीबोंसे नहीं, क्योंकि उन्हें विशेष कष्ट होता है ॥३८॥ जिसप्रकार जंगलमें सदन करना व्यर्थ है, उसीप्रकार प्रयोजन-सिद्धि करनेमें असमर्थ पुरुषके लिये अपना प्रयोजन का ना निरर्थक है ।।३।। तुलसीदास' कवि ने भी कहा है कि नैतिक पुरुषको दूसरेके गृह जाकर अपना दुःख प्रगट नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे गम्भीरता नष्ट होती है और प्रयोजन भी सिद्ध नहीं होता ॥३॥ इठीको उपदेश, कर्तव्यज्ञानःशुन्यको शिक्षा, विचार-शून्य (मूख) को योग्य बात कहना और नीच . पुरुषका उपकार करना इनकी क्रमशः निष्फलता दुराग्रहस्य हितोपदेशो बधिरस्याग्रतो गानमिव ४ ॥४०॥ अकार्यज्ञस्य शिक्षणमन्धस्य पुरतो ननमिव+ ॥४१॥ अविचारकस्य युक्तिकथनं तुषकएडनमिव ॥१२॥ नीचेषूपकृतमुदके विशीर्ण लवणमिव ॥४३॥ * 'माश्रितेषु कार्यतो विशेषकर इत्यादि टी० पु. में पाठ है, परन्तु हमने उक्त पाठ मु.क.लि.मू. प्रतियोंसे संकलन किया है। सम्पादक। तथा च सुखसीदासः कविः-जुन्नसी पर घर नायके दुल न दीजे रोम। भाम गमापे मारमा पात न ये कोय ॥१॥ संगृहीतx + तक दोनों सूत्र मु०म० प्रतिमें नहीं है, परन्तु अन्य इ. लि. मू० प्रतियोर्मे पर्वमान है। सम्पादक
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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