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________________ १०६ अब दुःखका लक्षण निर्देश करते हैं: * नीतिवाक्यामृत तमुखमप्यसुखं यत्र नास्ति मनोनिवृत्तिः ॥ ११ ॥ अर्थ:- जिस पदार्थ पुत्र कलादि में मन संतुष्ट न हो किन्तु उल्टा वैराग्य उत्पन्न हो यह सुख भी दुःख समझना चाहिये ।। ११ ।। 4 ' ने कहा है कि 'मनकेसन्तुष्ट रहनेसे सुख मिलता है, अतः जिस धनान्य पुरुषका भी बॉलष्ट-यों स्त्री-पुषमै धारण करवा हो उनको नीतिबिरुद्ध प्रभुतिको देखकर उदास-खेद-विन रहता हो उसे दुःखी समझना चाहिये || १ || ' अब सुख प्रामिके उपायों का निर्देश करते हैं: endodoor ch अभ्यासाभिमान संप्रत्ययविषयाः सुखस्य कारणानि ॥ १२ ॥ अर्थः- अभ्यास ( शास्त्रोका अध्ययन और शास्त्रविहित कर्तव्योंके पालनमें परिश्रम करना ), अभिमान ( समाजसे अथवा राजा आदिके द्वारा भावर-सम्मानका मिलना ), संप्रत्यय ( व्यवहारज्ञानसे अपनी इन्द्रियादिककी सामर्थ्य से वाद्य - ( वीणा आदि ) आदिके शब्दों में प्रिय और अप्रिय का निर्णय करना) और विषय - ( इन्द्रिय और मनको संतुष्ट करनेवाले विषयों की प्राप्ति) ये चार सुखके कारण हैं ॥१॥ विद्वानों ने कहा है कि 'मनुष्यको शास्त्रोंके अभ्याससे विद्या प्राप्त होती है तथा अपने कर्तव्यों का reat afa परिश्रमपूर्वक पालन करनेसे वह धतुर समझा आता है, उससे उसका सरकार होता है, अतः वह सदा सुखी रहता है ॥ १ ॥ श्रावर के साथ होनेवाला थोड़ा भी धनादिकका लाभ, सुखका कारण है । परन्तु जहाँपर मनुष्यका श्रवर न हो वहाँपर अधिक धनाश्किका लाभ भी सज्जनोंसे प्रशंसा योग्य नहीं-- वह दुःखका कारण है। न fare हीन मनुष्य भी किसी चतुराई आदि गुण विशेषके कारण अपनी शक्तिसे प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेखा है ऐसा होने से उसको सुख मिलता है ॥ ३ ॥ sarai (शादि) का सेवन थोड़ी मात्रा में किये आनेपर सुखका कारण है परन्तु अधिक rain feasts सेवनसे दरिद्रता उत्पन्न होती है ॥ ४ ॥ १ तथा च वर्ग:-- समृद्धस्यापि मयस्य मनो यदि विरागकृत् । दुःखी परिशेो मनस्तुमुखं यतः ॥ १ ॥ : अभ्यासविषये अभ्यासाच्च भवेद्रिया तथा च निजकर्मणः । तथा पूजामा नोति तस्याः स्यात् सर्वदा सुखी ॥ १४ मानविषये -- सम्मानपूर्वको नामः सुतोकोऽपि सुखावहः । मानहीनः प्रभूतोऽपि साधुभिर्न प्रशस्यते ॥ २ ॥ 4 ३ ॥ संप्रत्ययविषये - हारीत - श्रविश्रपि गुणाम्मार्थ: स्वस्था यः प्रतियेत् । रमुख जायते तस्य स्वयम् विषये सेवन विषयाणां यत्तमितं सुखकारणम् । श्रमितं च पुनस्तेषां वद्रिकारणं वरं ॥। ४०
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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