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नीविवाक्यामृत
म्बार्लोकी स्त्रियोंमें, शिवजी गंगा मामकी शान्तनुकी स्त्रीमें, इन्द्र गौतमकी स्त्री अहल्या और चन्द्र शासनानी हरपतिकी श्री भासत हुए ।१६।। मनुष्योंकी धन-वाछाका दृष्टान्त द्वारा समर्थन--
अर्थेषपभोगरहितास्तर वोऽपि साभिलाषाः किं पुनर्मनुष्याः ॥११७|| अर्थ-जब कि वृक्ष अपने धन-पुष्प-फलादि का उपभोग नहीं करते, तथापि वे भी धनके इच्छुक होते हैं । अर्थात् स्वयं पुष्पं व फलशाली होनेकी इच्छा रखते हैं, पुनः धनका उपभोग करनेवाले मनुष्यों तो कहना ही क्या है ? वे तो अवश्य धनके इच्छुक होते हैं, क्योंकि उन्हें उसका उपभोग (शरीर-यात्रादि) करना पड़ता है ।।११७॥
जैमिनि विद्वानने कहा है कि 'जो वृक्ष अपने मनसे स्वयं उपभोग-रहित हैं, वे भी धनके इच्छुक देखे जाते हैं-वे भी पुष्प-फलादिकी वाञ्छा करते हैं, पुनः मनुष्योंका तो कहनाही क्या है ||शा' लोभका स्वरूप
कस्य न धनलामाल्लोभः प्रवर्तते ॥११॥ अर्थ-संसारमें धन मिलने से किसे उसका लोभ नहीं होता ? सभीको होता है ।।११।।
वर्ग' विद्वान्ने कहा है कि जब तक मनुष्योंको धनादि प्राप्त नहीं होते, सब तक उन्हें लोभ भी नहीं होता। अन्यथा-(यदि यह वात नहीं है, तो) वनमें रहनेवाला मुनि भी पान-ग्रहण न करे ॥१॥ जितेन्द्रियकी प्रशंसा
स सहप्रस्यवं देवं यस्य परस्वेष्विव परस्त्रीषु निःस्पृह चेतः ॥ ११६ ॥ अर्थ-जिस मनुष्यकी चित्तवृत्ति अन्य-धनके समान पर-स्त्रियोंके देखने पर भी लालसा-रहित है, वह प्रत्यक्ष देवता हैं मनुष्य नहीं, क्योंकि उसने असाधारण धर्म (परस्त्री परधनका स्यागरूप) का अनुष्ठान किया ॥ ११ ॥ .
वर्ग' विद्वान्ने कहा है कि जिस महापुरुषका मन पर-कलत्र व पर-धन देख लेनेपर भी विकारयुक्त नहीं होता, वह देवता है मनुष्य नहीं ॥१॥ संतोषी पुरुषोंका कार्यारम्भ
समायव्ययः कार्यारम्भो रामसिकानाम् ।। १२० ॥
उक्त कमानक भबन पुराब प्रन्थों से आगमी चाहिये । १ तथा च औमिनि:-अधै तेऽपि प पान्ति थे ना प्रारमचेतसा । उपभोगैः परित्यक्ताः किं पुनर्मभुधारक ॥१॥ २ वयाच वर्ग:-तापच जायते जोमो यावल्लाभो न विद्यते । मुनिय वि बनस्थोऽपि दानं गुरुवाति नान्यथा MM. ३सया :-परदग्थे कसनेयस्य महात्मनन मनो विकृति यातिदेवोपमानवः ॥..