SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवारण में हम बेस साधना लोक प्रसिद्ध है। अभी अभी हमारे नेता राष्ट्रपति श्री राजगोपालाचार्य ने इन-फल संभालकर एक प्रकार से प्राज से सहखों वर्ष पूर्व राज्य-धर्म का हो साक्षात् कराया था। किसी भी स्मृतिकार ने राजा को जनता से अवग करने तथा बहुत अच्न पक्तिसमझने को व्यवस्था नहीं की। यदि रामानों के सम्मान की वर्षा भी हुई है तो वे ऐसे गजा है जिनके गुण झिमी भी साधु नपस्वी से कम नहीं है। राजा के जितने गुण, कर्तव्य, विवना पाग, जनकोर का जितना सदुपयोग प जितना श्रादर्श रहन-सहन प्राचीन भारतीय विधानों में चाहा गया था, भाज तो वह सपने को बात मी लगती है। ऐसे ही भारी राम-राग्य का स्म यो 'पाप' देखते थे। ऐसी ही श्रादर्श, मधुर राजनैतिक कल्पनामों के झले में हो 'बापू' भूलते झूलते चल बसे। आज को विश्व राजनीति सधा भारतीय परंपग में सबसे बड़ा भेद है कि भारतीयपरंपरा राजनीति चारित्रियादर्श तथा मात्विकता को अपेक्षा करतो है जबकि विश्व, मिकेविनी के सिद्धान्तों (झूठ, धोखा, और गा) को Fict (मत्य) या Dipleuncy (राजनीति)कहकर राजनैतिक महत्व देता है। महाभारतकार व्यास ने कौरव-पांडव युद्ध में अधिक से भधिक संकटकालीन परिस्थिति में होते हुए भी धर्मराज युधिष्ठिर को धम-संकट में डाल दिया, जबकि उनसे पह कहा गया कि वे मिफ इतना कह दें कि 'अश्वत्थामा मारा गया। इस प्रावरण की आज के गजनैतिक प्रचार विभाग से सुलना करें, तो पाकाश-पाताल का अन्तर मालम होता है। बाज तो "Everything is fair in love and war का सिद्धान्त हो प्रत्येक राज्य का धर्म सा होगया है। यही नी, प्रत्येक देश करोड़ों रुपयों का जाय केवल इसीनिये महन करता है कि उसका देश विश्व की प्रभार दौड़ में पीछे न रह जाय | चाणक्य ने भी प्रचारको आवश्यकता का अनुभव किया था और उसने गुप्त. घर विभाग को राज्य का एक मावश्यक ग माना था 1 इससे पूर्व के शास्त्रकारी ने इस कार्य को इतना महत्व नहीं दिया मालूम होता है । 40 में समय के अनुसार राजतंत्र का रूप बिगड़ा और राजा का वह श्रादर्श न रह पाया जिसकी कल्पना स्मृतिकारी ने की थी और इसीलिये राजतंत्र सर्वत्र घृणा की वस्तु बन गया । यूरोप में तो इसके प्रति इतनी घृणा बढ़ो कि कई राजाओं को अपना सर तक देना पड़ा और उन के बाद आधुनिक जनतंत्र को भाँपो बढ़ो सका प्रसार भी हुश्रा, म्यून की नदियां भी रही, लेकिन जनता में मुख य सन्तोष भाज भी नहीं है । भनेकों प्रणालियों के प्रयोग हुए और हो रहे हैं जिन्तु कोई नुरूप राम-वाण सिद्ध नहीं हुआ। कारण यह है कि "प कुछ और है दवा कुछ और । ई विल का माजरा कुछ और" रोग के निशान में राजनीतिक को भूल मासूम पड़ती है। विश्व की प्रशांति के निराकरण का कुछ भाभास 'बापू' के निदान में मिलता है जो सौ फी सदो भारतीय नुस्खा है । प्रस्तुत शास्त्र अवश्य मार्ग प्रदर्शन करेगा, क्योंकि यह भारतीय ऋषि की भाप्तवाणी है । इसी दृष्टि से अनुवादक महोदय के परिश्रम को श्रेय है और उनकी बहन विद्वत्ता वमा प्रचुरसान का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है, कि मनुवार में मूलप्रकार की मारमा ज्योकी स्यों बनी हुईहै। भासा कि विश्व के सत्ताधारी राजनीतिज्ञ पुराने भाषायों की प्राप्तवाणी से इस माम गठाने की पेष्टा करेंगे। गंगाप्रसाद सिंहल भाद्र शु.वि. २००७ एम.ए. [ ४ ] ज्ञान
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy