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________________ नीतिवाक्यामृत वृतिः ||१४|| तत्किमाचरणं यत्र वाच्यता मायाव्यवहारो वा ॥ १५ ॥ तत्किमपत्यं यत्र नाध्ययनं विनयो वा ||१६|| तत्किं ज्ञानं यत्र मदेनान्धता चित्तस्य ||१७|| तत्किं सौजन्यं यत्र परोक्षे पिशुनभावः ॥ १८ ॥ सा कि श्रीर्यया न सन्तोषः सत्पुरुषाणां ॥ १६ ॥ अर्थ-वह भाई निद्य - शत्रु के समान है, जो आपत्तिकालमें भाईकी सहायता नहीं करता ॥६ चाणक्य ने भी कहा है कि 'जिस प्रकार बीमारी शरीर में पैदा होने पर भी अनिष्ट समभी जावी है, जब कि दूरदेशवर्ती जगलमें पैदा होने वाली औषधि इष्ट समझी जाती है, उसी प्रकार अनिष्ट चितवन करने वाला भी कहायता देने वाला दूसरा व्यक्ति और बन्धुसे भी बढ़कर समझा जाता है || १|| ३४८ *********** * ELE+ वह मित्र निन्द्य है जो अपने मित्रके धन, धान्य व कलत्र (स्त्री) की रक्षा करने में विश्वासघात करता है; अतः मित्र द्वारा सौंपे हुये धन-धान्यादि को सुरक्षित रखे ||१०|| * ने भी मिश्र द्वारा अर्पित धन-धान्यादिकी रक्षा करने वालेको सच्चा मित्र कहा है ||१|| वह गृहस्थ किस काम का, जिसके यहाँ पतिव्रता व रूपवठी कुलवधूरूप सम्पति नहीं है ॥। ११॥ शुक्र ने भी कुरूप, शील भ्रष्ट (चरित्रहीन ) बांझ व कलहकारिणी स्त्री वाले गृहस्थको नाटकी बताया है ||१|| वह दाता निदनीय है, जो दान लेने योग्य (पात्र) का यथाविधि सत्कार ( विनय ) नहीं करता। क्योंकि यथाविधि सत्कार के विना दाता वानका पारत्रिक फल प्राप्त नहीं करता ||१२|| दशि ने भी योग्यकाल में योग्य पात्रको यथाविधि दिये जानेवाले दानका अक्षय फल बताया है || भोजनकी बेला में अतिथियोंको आहार दान न देने वाले व्यक्तिका चाहार निन्य है- पशुकी पेश मात्र है। अर्थात् जिस प्रकार पशु जीवन रक्षार्थं तृणादि भक्षण करके मल-मूत्रादि क्षेपण करता है, सी प्रकार वह मनुष्य भी जीवन रक्षार्थ भोजन करके मल-मूत्रादि क्षेपण करता है व न धर्म को नहीं जानता। अतः मनुष्य को अतिथियोंको आहार यानके पश्चात् भोजन करना चाहिये ||१३|| नारद ने भी अतिथिको आहार दान दिये बिना भोजन करनेवाले गृहस्थको दो पैर वाला विना सींगों का पशु कहा है ॥१२॥ वह प्रेम निन्द्य है जो किसीसे स्वार्थ सिद्धिके आधार पर जब कभी किया जाता है, सदा नहीं, अतः निःश्वाथभाव से स्थायी प्रेम करना विशेष महत्वपूर्ण है || १४ || I १ तथा शिक्यः परोऽपि हितवान् बन्धुर्वन्धुरयहितः परः । अहियो देहओ व्याधितिमारण्यमौषधम् ॥१॥ २ तथा गर्ग:धन धान्यं कक्षा निर्विकल्पेन बेवस्ता । श्रर्पित रहने तन्मित्रं कथितं बुधैः ॥ ३ तथा शुरु — कुरूपा गतशीलं च बंध्या युद्धपरा सास गृहस्थो न भवति स नरकस्थः कथ्यते ॥ १॥ ४ वा वशिष्ठः कामे पास सीधे शास्त्रविधिना सह। यह चाश्वं तद्विशेषं स्मादेक जन्मजम् ॥१॥3 ५ तथाच नारदः प्रत्ययो मरोऽप्यत्र स्वयं भुक्ते गृहाश्रभी सनस्सिम्देो द्विपदः ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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