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________________ ३० अर्थात् जिसप्रकार विधवा स्त्रीका पति के बिना श्राभूषण धारण करना व्यर्थ है, उसी प्रकार नैतिक और धार्मिक सत्कर्त्तव्यों से पराङ्मुख रहनेवाले विद्वान्‌का ज्ञान भी निष्फल हैं ||२७|| नीतिकार राजपुत्रने' भी कहा है कि 'शास्त्रविहित सत्कर्त्तव्यों में प्रवृत्ति न करनेवाले विद्वान्का ज्ञान विधवा स्त्रीके आभूषण धारण करने के समान व्यर्थ है' || * नीतिवाक्यामृत we दूसरोंको धर्मोपदेश देनेवालोंकी सुलभता बताते हैं —— अर्थः- दूसरोंको धर्मोपदेश देने में कुशल पुरुष कथायाचकोंके समान सुलभ हैं। जिसप्रकार स्वयं धार्मिक अनुष्ठान न करनेवाले कथावाचक बहुत सरलता से मिलते हैं, उसी प्रकार स्वयं धार्मिक कर्त्तव्योंका पालन न करनेवाले और केवल दूसरोंको धर्मापदेश देनेवाले भी बहुत सरलता से मिलते हैं ||२८|| सुलभः खलु कथक इव परस्य धर्मोपदेशे लोकः ॥२८॥ वाल्मीकि विद्वान्ने' भी कहा है कि 'इस भूतल पर कथावाचकोंकी तरह धर्मका व्याख्यान करनेवाले बहुत पाये जाते हैं, परन्तु स्वयं धार्मिक अनुष्ठान करनेवाले सत्पुरुष विरले हैं' ||१|| अब तप और दानसे होनेवाले लाभका विवरण करते हैं : प्रत्यहं किमपि नियमेन प्रयच्छतस्तपस्यतो वा भवन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोकाः ||२६|| अर्थः- जो धार्मिक पुरुष प्रत्येक दिन नियमसे कुछ भी यथाशक्ति पात्रदान और तपश्चर्या करता है, उसे परलोक में स्वर्गकी उत्तमोत्तम सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं ||२६|| नीतिकार चारायण भी उक्त सिद्धान्तका समर्थन करता है कि 'सदा दान और रूपमें प्रवृत्त हुए पुरुषको वह पात्र ( दान देनेयोग्य त्यागी प्रती और विद्वान् आदि) और सपमें व्यतीत किया हुआ समय उसे सद्गति – स्वर्ग में प्राप्त करा देता है ||२|| संचय - वृद्धिसे होनेवाले लाभका कथन करते हैं : १ तथा च राजपुत्र : कालेन संचीयमानः परमाणुरपि जायते मेरुः ||३०|| अर्थ:- तिलतुषमात्र थोड़ी भी वस्तु ( धर्म, विद्या और धनादि ) प्रतिदिन चिरकाल तक संचय - वृद्धि की आनेसे सुमेरु पर्वत के समान महान् हो जाती है ||३०|| २ तथा च बाल्मीकि : यः शास्त्रं जानमानोऽव तदर्थं न करोति च । तद् पर्थे तस्य विशेयं दुर्भगाभरणं यथा ॥१॥ सुता धर्मवकारो यथा पुस्तकवाचकाः । ये कुर्वन्ति स्वयं धर्मे विरलास्ते महोतले ||१|| ३ तथा च चारायण : नित्यं दानप्रवृत्तस्य तपोयुक्तस्य देहिनः । बाथ कालो वा स व्याद्येन गतिर्वरा ॥ ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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