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________________ 1 जनपद समुद्देश अनुरागी बनाकर उसे वहांसे लाकर अपने देश में बसावे । सारांश यह है कि अपने देशवासी, शिष्ट व उद्योगशील पुरुषको परदेशसे लाकर बसानेसे राष्ट्रकी जन-संख्या वृद्धि, व्यापारिक उन्नति, राजकोषकी वृद्धि एवं गुप्त रहस्य -संरक्षण आदि अनेक लाभ होते हैं, जिसके फल स्वरूप राज्य की श्रीवृद्धि होती है ॥ १३ ॥ शुक' विद्वान्ने भी परदेशमें प्राप्त हुए स्वदेशवासी मनुष्यके विषय में इसीप्रकार कहा है ॥१॥ शुल्कस्थानवर्ती अन्यायसे हानि, कच्ची धान्य फसल कटाने व पकी हुई धान्यमेंसे सेना निकाखनेका परिणाम - MS-DO400 199 1140000000 २८२ स्वम्पोऽप्यादायेषु प्रजोपद्रवो महान्तमर्थ नाशयति ॥ १४॥ श्रीरिषु कणिशेषु सिद्धादायो जनपदमुद्वासयति ||१५|| लवनकाले सेनाप्रचारो दुर्भिचमावहति ||१६| अर्थ- जो राजा धनकी आमदनी के स्थानों (चुंगीघर आदि) में व्यापारियोंसे थोड़ासा भी अन्याय का धन या करता है - अधिक टैक्स लेता है उसे मदान आर्थिक हानि होता है, क्योंकि व्यापारियोंके क्रय-विक्रयके माक पर अधिक टैक्स लगानेसे वे लोग उसके भयसे क्षुब्ध होकर व्यापार बंद कर देते है या छल-कपट पूर्ण वशोष करते हैं जिसके फलस्वरूप राजाकी अधिक हानि होती है ॥१४॥ गुरु विज्ञानने भी शुल्कस्थानोंमें प्रवृत्त होनेवाली अन्यायन्प्रवृत्ति के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥ जो राजा सगान न देने कारण किसानों की अपरिपक्व (बिना पकी हुई) बाम्य मन्जरी — गेहूँ आदि की कच्ची फसलकर महया कर लेना है, वह उन्हें दूसरे देशमें भगा देता है, जिससे राजा व कृषक आर्थिक संकट भोगते हैं, अतः राजाको कृषकोंके प्रति ऐसा अन्याय करना उचित नहीं है ॥१३५॥ शुक विद्वानके संग्रहीत श्लोकका भी यही अभिप्राय है ॥१॥ ओ राजा पकी हुई धान्यकी फसल काटते समय अपने राष्ट्रके लेसों में से निकालता है उसका देश अकाल पीड़ित हो जाता है। क्योंकि सेना धाम्य बाकी है, जिससे उसके अभावले देशमें अकाल हो जाता है ||१६|| हामी घोड़े भाविकी सेना फसलका सत्यानाश कर १] शुक्र परदेश' बोकं विमदेशे समान वेद । भुक्तपूर्वममुक्त वा सर्वदेव महीपतिः॥१॥ स्वल्पोऽपि राष्ट्रषु परप्रओपी महानाति पेक्षा पाठान्तर सू० प्रतियोगे वर्तमान है, जो कि पूर्वोक 12 में सूत्रान्वरका समर्थक है, जिसका अर्थ है कि जिन देशोंकी प्रजा परदेशकी दुष्ट प्रथा द्वारा मराठी भीतिकी आधी है, यहाँ पर राजाको महान् वार्षिक-हानि होती है, क्योंकि परदेसी भाठठाधियों गुटों द्वारा साई हुई या राजासे एकदम हो जाती है, जिससे राजकीय धार्मिक कृति अधिक होती है। २ वा च गुरुः--सुक्यस्यामेषु कन्यायः स्वक्पोऽप्रमते पत्र मागच्या कण ॥ निम्न यो अति महीपतिः । यांकन विदेह सः ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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