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________________ पुरोहितसमुद्देश विषसे वस्कान दोनद्रा (मृत्यु) को प्राप्त होगया; अतः राजाको शत्रु प्रेषित उपहार श्रम-परीक्षित हुए स्वीकार करना चाहिये ॥ १७ ॥ दूतके प्रति राज कर्त्तव्य - उसका बध न करना, दूत-लक्षण व दूतवचन -श्रवण क्रमशः - महत्यपराधेऽपि न दूतमुपहन्यात् ॥ १६ ॥ A उद्धृतेष्वपि शस्त्रे दृतमुखा वै राजानः B ॥ १६ ॥ तेषामन्तावसायिनोऽप्यवध्याः ॥ २० ॥ कि पुनर्ब्राह्मणः ।। २१ ।। Marrभावो 'दूतः सर्वमेव जन्पति ॥ २२ ॥ कः सुधीर्दृतवचनात् परोत्कर्षं स्वापकर्षं च मन्येतः C || २३ | अर्थ-राजाका कर्तव्य है कि वह दूत द्वारा महान् अपराध किये जानेपर भी उसका बंध न करे १८ शुक विद्वान्ने कहा है कि 'राजा यदि अपनी भलाई चाहता है तो उसे दूतद्वारा गुरुतर अपराध जानेपर भी उसका उस समय बध नहीं करना चाहिये ॥ १ ॥ INTER पीर सैनिकद्वारा शस्त्र संचालित किये जानेपर भी - घोर युद्ध आरम्भ होनेपर भी राजा लोग न होते हैं---दूरा-वचनों द्वारा ही अपनी कार्य सिद्धि (सन्धिविग्रहादिसे विजयलक्ष्मी प्राप्त करना) है। अभिश्राप यह है कि युद्धके पश्चात् भी दूतोंका उपयोग होता है; अतः दूत वध करनेक प्राग्य है ॥ १३ ॥ कारे दूतमपि हन्येत' इस प्रकारका पाठान्तर भुद्र व हु० बि०सू० दूध द्वारा गुरुवर अपराध या अपकार किये जानेपर राजाको उसका बध कर .p. २०६ ofare का है कि 'महाभयङ्कर युद्ध श्रारम्भ होनेपर भी दूत राजाओंके समक्ष सन्धि-आदि निभिन्न विचरते रहते हैं; अत एव राजाको उनका बध नहीं कराना चाहिये ॥ १ ॥ -:50 1h का 'ते' पद मू० प्रतियोंसे संकक्षित किया गया है, सं० टी०पु० में 'उद्धतेषु' ऐसा पाठ हैं, - नहीं। 'का सुचीमुखात श्वानात्' इत्यादि पाठान्तर मृ० प्रतियों में वर्तमान है, परन्तु अभिप्राय में कोई भेद नहीं | सम्पादक -- - दूतं पार्थियो हन्यादपराधे गीषसि । कृतेऽपि तत्क्षणाचस्य यदीच्छेषु भूतिमात्मनः ॥ १ ॥ प्रतियों में है, जिसका अर्थ यह है कि देना चाहिये । गुरुः सिमामकालेऽपि वर्तमाने सुदारुये। सर्पन्ति संमुखा दूता [वधं तेषां न कारयेत् ] ॥ 5 ॥ [सं०
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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