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________________ on a -.. . ....... ... विचारसमुश मार्ग ........................................................................................... : शुक विद्वान्ने भो कहा है कि 'प्रत्यक्षदर्शी, दार्शनिक व प्रामाणिक पुरुषों द्वारा किया हुमा विचार ति-सत्य व मान्य होता है, अतः प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम प्रमाण द्वारा किये हुए निर्णयको यथार्थ SATE' कहते हैं ॥ १॥ . गढ-मादि इन्द्रियों द्वाग स्वयं देखने व जाननेको 'प्रत्यज्ञ' कहा है ॥ ३ ।। बुद्धिमान विचारक असतो दिवकारक पदार्थोंमें प्रवृत्ति और अहितकारक पदार्थोसे निवृत्ति सिर्फ ज्ञानमात्रसे नहीं करनी चाहिये । उदाहरण में जैसे किसी मनुष्यने मृगतृष्णा-सर्य-रश्मियोंसे ज्यात रालुका-पुञ्जमें जल मान लिया मात् से उस भ्रान्त विषारको दूर करने के लिये अनुमान प्रमाणसे यथार्थ निर्णय करना चाहिये कि महत्यलमें प्रीष्म ऋतुमें जन होसकता है ? नहीं होसकता । पश्चात् उसे किसी विश्वासी पुरुषसे मा चाहिये कि क्या वहां जल है ? पश्चात् उसके मनाई करनेपर वहांसे निवृत्त होना चाहिये । सारांश कि विचारक व्यक्ति सिर्फ शान मात्रसे किसी भी पदार्थमें प्रवृत्ति या निवृत्ति न करे ॥४॥ ... गुरु विद्वान्ने भी कहा है कि 'बुद्धिमान पुरुषको सिर्फ देखनेमात्रसे किसी पदार्थमें प्रवृत्ति या उसमे निधि नहीं करनी चाहिये, जब वक कि उसने अनुमान और विश्वासी शिष्ट पुरुषों द्वारा वस्तुका यथार्थ निव न कर लिया हो ॥१॥ ३ पोंकि अब स्वयं प्रत्यक्ष किये हुए पदार्थमें बुद्धिको मोह-अहान, संशय और भ्रम होता है, तब . दूसरों के द्वारा कहे हुए पदार्थमें अज्ञान आदि नहीं होने ? अवश्य होते हैं॥५॥ गुरु विद्वान्ने भी सक्त बासको पुष्टि की है कि क्योंकि स्वयं देखी और सुनी हुई वस्तुमें मोह-अज्ञान सराप होजाता है, इसलिये सिर्फ एक हो बुद्धिसे पदार्थका निश्चय नहीं करना चाहिये ।।१।। विचारश-लक्षण, विना विचारे कार्य करनेसे हानि व राज्य-प्राप्ति के चिन्ह क्रमश: स खलु विचारझो या प्रत्यक्षेणोपलन्धमपि साधु परीस्थानुतिष्ठति ॥ ६ ॥ प्रतिरभसाद कृतानि कार्याणि किं नामानर्थ न जनयन्ति ।। ७॥ भविचार्य कृते कर्मणि यत् पश्चात् प्रतिविधानं गतोदके सेतु बन्धनमिव ॥ ८ ॥ भाकारः शौर्यमायतिनियश्च राजपुत्राणां भाविनो राज्यस्य लिङ्गानि ॥६॥ या व एक:-शानुमानागमों विचार: प्रतिद्धितः । स विचारोऽपि विडेयस्त्रिाभिरेत रस पः कृतः ।।। २ समाच गुरु:-हमावास कव्यं गमन' वा निवर्तनम् । अनुमानेन नो पावदिष्याक्येन भाषितम् ॥ ३॥ ३ तथा व गुरुः-मोहो पा संशयो वाथ रष्टश्रुतविपर्ययः । यत: संजायते तस्मात् तामेको म विभावयेत् ॥ ३॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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