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________________ * नीतिवाक्यामृत * ७७ जो गाँधोंमें एकरात और शहरों में तीनरात तक निवास करता हो और धूप और 'अग्निसे शून्य ब्राह्मणों के मकानों में जाकर थाली आदिमें या हस्तपुट में स्थापित किये हुए श्राहारको ग्रहण करता हो एवं जिसे शरीर और इन्द्रियादि प्रकृतिसे भिन्न पुरुषतत्व-- आत्मतत्व-का बोध उत्पन्न हुआ हो उसे 'हंस' समझना चाहिये ॥३॥ जो अपनी इच्छासे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णोका गोचरीत्तिसे आहार ग्रहण करता हो, दंड विशेषका धारक, समस्त कृषि और व्यापार आदि प्रारंभका त्यागी और वृक्षोंके मूलमें बैठकर भिक्षा द्वारा लाये हुए आहारको प्रहण करता हो उसे 'परमहंस' कहते है ।। २६ ।' अब राज्यका मूल बताते हैं: राज्यस्य मूले क्रमो विक्रमश्च ॥ २७॥ अर्थः-पैतृक-वंश परम्परासे चला पाया राज्य या सदाचार और विक्रम-मैन्य और खजानेकी शक्ति-ये दोनों गुण राज्यरूपी वृक्षके मूल हैं. इन दोनों गुणोंसे राज्यको श्रीवृद्धि होती है। ___ भावार्थ:--जिसप्रकार जलसहित वृक्ष शास्त्रा, पुष्प और फलादिसे वृद्धिको प्राप्त होता है उसीप्रकार राज्य भी क्रम सदाचार तथा पराक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होता है-हस्ति, अश्वादि तथा धनधान्यादिसे समृद्धिशाली होजाता है ॥२७॥ शुक्र विद्वान्ने' भी लिखा है कि 'जिसप्रकार जसहित होनेसे वृक्षकी वृद्धि होती है उसीप्रकार क्रम--सदाचार और विक्रम गुणोंसे राज्यकी वृद्धि-उन्नति होती है और उनके विना नष्ट होजाता है ।। निष्कपः- राजाका कर्तव्य है कि वह अपने राज्य (चाहे वह वंशपरम्परासे प्राप्त हुआ हो या अपने पुरुषार्थसे प्राप्त किया गया हो) को सुरक्षित, वृद्धिंगत और स्थायी बनानेके लये कम-सदाचारलक्ष्मीसे अलंकृत होकर अपनी सैनिक और खजानेकी शक्तिका संचय करवा रहे, अन्यथा दुरापारी और सैन्यहीन होनेसे राज्य नए हो जाता है ।। २७ ॥. १ नोट:--उक्त सूत्रमें जो चार प्रकारके यतियों का निर्देश किया गया है उसका जैनसिद्धान्तसे समन्वय नहीं होता,यो. कि जैनाचार्यों ने 'पुलाकवकुशकुशीलनियस्मातकाः निम्रन्थाः' श्राचार्य उमास्वामीकृत मोक्षशास्त्र अा-अर्थात् एलाक, वकुश, कुशील, निर्गन्ध और स्नातक इसप्रकार यतियों के ५ भेद निर्दिष्ट किये है और उनके कर्तव्योंका भी पृथक् २ निर्देश किया है। एवं स्वई इन्ही प्राचार्यश्री ने यशस्तिलको यतियोंके जितेन्द्रिय,क्षरएक, भूषि, यति श्रादि गुण निष्पन-सार्थक न मौकी विशव्याख्या की है, अतएव इनको अन्य सांख्य योग श्रादि दार्शनिकों की मान्यताओं का संग्रह समझना चाहिये । इसमें प्राचार्यश्री की राजनैतिक उदारदृष्टि या संस्कृत टीकाकारके अजैन होनेसे उसके द्वारा की हुई अपने मतकी अपेक्षा नवीन रचना हो कारण है। सम्पादक:२ राज्यमूलं क्रमो विक्रमश्च' इस प्रकार मु. मूळ पुस्तकमें पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ३ तथा च शुक्र:-- कमविक्रममृजस्थ राज्यस्य तु यथा तरोः। समूलस्य मवेदृद्धिस्ताभ्यां हीनस्य संक्षयः ॥ १॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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