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________________ १६-~व्यसन-समुददेश। न्यमन-लक्षण, भेद, सहज व्यसन-निवृत्ति, शिध-लक्षण व कृत्रिम व्यमनोग नियूनि व्यस्यति पुरुष श्रेयमः इति व्यसनम् ॥ १ ॥ व्यसनं द्विविधं महत्रमाहार्य च ॥ २ ॥ सहज व्यसनं धोभ्युदयहेतुभिरधर्म जनितमहाप्रत्यवायप्रनिपाइनरुपाख्यानयोगपुरुषश्च प्रशमं नयेत् ॥ ३ ॥ परचित्तानुकल्येन तदभिलपितेप्पायेन विरक्तिजननहेतवा योगपुरुषाः ॥ ४ ॥ शिष्टजनसंसर्ग दुर्जनाऽसंसर्गाभ्यां पुगतनमहापुरुषचरिनान्थिनाभिः कथाभिगहाय व्यसनं प्रतिबध्नीयात् ॥ ५॥ अर्थ-जो दुष्कर्म त-क्रीड़न व मद्यपानादि-मनुष्यको कल्याण-मार्गसे गिरात हैं, उन्हें 'क्ष्यसन' कहते हैं ।। १॥ शुक्र विद्वान् ने कहा है कि 'मनुष्य जिस असत्प्रवृत्तिम निरन्तर उत्तमस्थानस जघन्यस्थानको प्रान होता है उसे विद्वानों को 'व्यसन' जानना चाहिये ।। १ ।।" व्यसन दो प्रकारके हैं-५ महज-स्वाभाविक (जन्मम हो उत्पन्न होनेवाले दुय) : आहाय-- कुसंगके कारण उत्पन्न होनेवाले (मद्यपान-परकलत्र-संवन-आदि) ॥ ॥ मनुन्यको स्वाभाविक व्यसनयम वम्बर्गके उत्पादक कल्याण कारक पदार्थी (विशद्ध भाव-आदि)क चितवन, पास उत्पन्न हुए महादापाका करन-श्रवण, तथा उन दोपोंक निरूपक चरित्र-(गवण-दुर्योधन आदि अशिष्ट पुरुषांक भयङ्कर चरित्र। प्रवण द्वारा एवं शिष्ट पुन्पोंकी समातिम नए करना चाहिये ।। ३ ।। गुरु विद्वान् ने भी कहा है कि 'धर्मस सुखी व पापसे दुग्यो होनेवाले शिष्ट-दुष्ट पुरपांक चरिधश्रवण व महापुरुषांक सत्सङ्ग से स्वाभाविक व्यसन न होते है ।। १ ॥ जो व्यसनी पुरुष हत्य-प्रिय वनकर अनेक नैतिक उपाय द्वारा उस उन अभिलापन यन्त्र श्रीमद्य-पानादि-से जिनमें उस व्यग्मन (निरन्तर आसक्ति) उत्पन्न हुआ है, विनि उत्पन्न करन है-छुड़ा दते हैं---उन्हें योग (शिष्ट) पुरुष कहते हैं ॥ ४॥ । तथा च शक्रः-उन मादधमं स्थानं यदा गान मानवः । नदा तयमनं जयं दुर्धम्नस्य मिनरम् || | २ नयां नम:--रगाम्यद यो यम्य प्रन्यायवधानः । तं का यह यानि व्यसन यागिमलनः ।।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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