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________________ নীষিকামূৰ . antan पंचतन्त्र ' में भी यूशिल को प्रधान बल बताया है । जिस विजिगीषु के पास विशाल खजाना यहाथी, घोड़े, रथ व पैदल रूप चतुरंग सेना है,षद उसकी प्रभुत्वशक्ति है, जो कि उसे युद्ध भूमिमें शत्र को परास्त कर विजयश्री प्राप्त करानेमें सहायक होती है ॥३॥ शक्षक व शक्तिकुमार के दृष्टान्स इस कथन को समर्थन करने वाले उज्वल प्रमाण है। अर्थात् शाम के विजिगीष राजा ने अपनी खजाने की शक्ति से सुपरिजत व संगठन संघ द्वारा शक्तिकुमार नाम के शत्र राजा को युद्ध में परास्त किया था. यह उसकी प्रभुत्व राति का हो माहास्य था।॥ ४०॥ विजिगोष की पराक्रम व सैम्यशक्ति को 'उत्साह शक्ति' कहते हैं, उसके ज्वलन्त उदाहरण मोवा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र है, जिन्होंने अपने पराक्रम व वानरपंशीय हनुमान-प्रादि सैनिकों की सहायता से रावया को युद्ध में परास्त किया था ।। ४१ ॥ गर्ग ने भी पक सदाहरण देकर विक्रम व सैन्यशक्ति को 'बत्माहराक्सि' कहा है ॥ १॥ जो विजिगीषु शत्रु की अपेक्षा सक्त तीनों प्रकार की (प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति व पुत्साहशक्ति) शक्तियों से अधिक ( शक्तिशाली) होता है वह श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी दुद्ध में विजय होती है, और जो उक्त शक्तिमय से शन्य है, वह अधन्य है, क्योंकि वह शत्रु से हार जाता है एवं जो उक्त तीनों शक्तियों में शत्रु के समान है, वह सम है, उसे भी शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिये ॥ ४२ ॥ गुरु ने भी समान शक्ति-युक्त विजिगोषु को यद्ध करने का निषेध किया है॥१॥ पाइगुण्य (सन्धि विग्रह-शादि) का निरूपणसन्धिविग्रहयानासनसंश्रयद धीभावाः पाडगुण्यं ॥४३॥ पणबन्धः सन्धिः ॥४४॥ पपराधो विग्रहः ॥४५॥ अभ्यदयो यानं ।।४६।। उपेक्षणमासनं ॥४७॥ परस्यात्मार्पणं संश्रयः ॥४८॥ एकेन सह सन्यायान्येन सह विग्रहकरणमेका वा शत्रौ सन्धानपूर्व विग्रहो द्वैधीभावः ॥४६॥ प्रथमपक्षे सन्धीयमानो विगृह्यमाणो विजिगीषुरिति वैधीभावो ऽध्यायः ॥५०॥ अर्थ-सन्धि (मंत्री करना) विग्रह- युद्ध करना, पान-शत्रु पर पढ़ाई करना, बासन-शत्रुकी अपेछा करना व संभय-मात्म समर्पण करना ये राजाओं के पद गम है ।। १३ ॥ विजिगोषु अपनी दुखेसाठा वश बलिष्ठ शत्रु राजा के लिये धनादि देकर उससे मित्रता करता है, उसे 'बि' कहते है । शुक ने सन्धिके विषय में इसी प्रकार कहा है ।। १॥ विमिगी किसी के द्वारा किये हुए अपराध-वश युद्ध करता है वह विग्रह है l विजिगीषु द्वारा शत्रु पराक्रमण किया जाना उसे 'यान' कहते है अथवा शत्रु को बग्ने से ज्यादा बलिष्ठ समझ कर किसी दूसरे स्थान पर बने जाना भो ‘यान' है।४६|| सबज शत्रु को माक्रमण करते सस्पा देखा तयाक्त'- परम बुद्धि तस्प निश्च कुतो बसम् । बमे सिंहो मदोन्मत्सः शाशन निपातितः ।। २ तथा च :- सहजो विक्रमो यस्य सैन्य बहुसरं भवेष । तस्योसाहो तपुरमा ?......"दाशरः पुरा ॥ तथा • गुरु- सममापि न योदय यचुपायत्रर्य भवेत् । अन्योन्याति ? यो संगो द्वामा सजायते यत: Man तथा व शुक्रः लो बसिनं यश्र पदानेन तोषये सावधिर्भवेतस्थ पावन्मात्रः प्रल्पितः ॥5॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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