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________________ * नीतिवाक्यामृत मनुष्य क्षमारूप स्त्रीमें आसक्त, सम्यज्ञान और अतिथियों-- दान देने योग्य त्यागी और घनी में अनुरागयुक्त और मनरूपीदेवताका साधक - दशमें करनेवाला - जितेन्द्रिय है वह है ||२|| माम्य-प्रामीण पुरुषों की अश्लीलता — नीतिविरुद्ध सत् प्रवृत्ति, वाह्य - धन धान्यादि परिग्रह - कामक्रोधादि कषायका त्यागकर संयम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और आदि परित्र धर्मको धारण किया है उसे 'वानप्रस्थ' समझना चाहिये परन्तु इसके विपरीत टुम्बयुक्त होकर वनमें निवास करता है उसे वानप्रस्थ नहीं कहा जासकता ॥ ३ ॥ महात्माने सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिसे अपनी मानसिकचिशुद्धि, चरित्रपालनद्वारा शारीरिक दीति, पालनद्वारा जितेन्द्रियता प्राप्त की है उसे 'तपस्वी' कहते हैं, किन्तु केवल बाह्यभेष धारण तपस्वी नहीं कहा जा सकता ॥ ४ ॥ बोकी ११ प्रतिमाओं — चारित्रपालनकी श्रेणियों में से प्रारम्भसे ६ प्रतिमाओंके चारित्रको गृहस्थाश्रमी, सातमी से नवमी तकके चरित्रपालक 'ब्रह्मचारी' और दशमी और ग्यारहवी कि 'ataver' कहे गये हैं और उनसे आगे सर्वोत्तमचरित्र के धारक महात्मा 'मुनि' - ५॥ मचारीका लक्षण कहते हैं : स उपकुर्वाणको ब्रह्मचारी यो वेदमधीत्य स्नायात् ॥ ८ ॥ जो वेद-हिसाधर्मका निरूपण करनेवाले निर्दोष शास्त्र - पढ़कर विवाहसंस्कार करता ब्रह्मचारी कहते हैं ॥ ८ ॥ वि वर्तमान स्नान शब्दका अर्थ क्रिया जाता है : स्नानं विवाहदीक्षाभिषेकः ॥६॥ विवाहसंस्काररूप दीक्षा से अभिषिक होना स्नान है ॥ ६ ॥ ફ तयोः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । भवेन्नूनं मनोदेवतसाधकः ५२॥ सारान्तर्यः परित्यज्य संयमी । विशेयो न धनस्थ कुटुम्बवान् ॥ ३॥ सैनिथमेरिन्द्रियाणि च । मानिस तपस्वी न वेपत्रान् ॥ ४ ॥ सो शेवालयः स्यु' प्रचारिणः । हीरा निर्दिष्ट ततः स्यात् धर्मतो यतिः ॥ ५ ॥ -पशस्तिलक श्र० ८ सोमदेव सू विद्याविशेष:' इस प्रकार मु० मू० पुस्तक में पाठ है परन्तु अर्थमेव कुछ नहीं है।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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