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________________ * नीतिवाक्यामन * सत्वार्थश्लोकवानिक (धक ५० कारिका २४५-२४६) में प्राचार्यश्री विधानन्दि लिम्बने हैं कि जिम प्रकार आरके निदान-प्रतिनियतकारणों (वात, पित्त और कफकी विषमता आदि) का ध्वंस उसको नए करने वाली औषधिके सेवनसे होजाता है उसीप्रकार मुमुनु प्राणीमें भी मामारिक व्याधियोंके कारणों (मिथ्यात्य, अहान और असंयम) का ध्वस भी उनकी औषधि सेवनसे-अर्थान सम्यग्दर्शनझानचारित्रकी सामथ्र्यसे होजाता है । ऐसा होनेसे कोई भामा समान दलोंगी नियतिर मोनणय कर लेता है। इसलिये जिन सत्कर्तव्यों ( उक्त सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ) के अनुष्ठानसे मनुष्यको स्वर्गश्री और मुनिश्रीकी प्राप्ति होती है उसे धर्म कहा गया है ।। १ ॥ अब अधर्मका निर्देश करते हैं : अधर्मः पुनरेतद्विपरीतफलः ॥२१॥ अर्थ :-जो दुष्कर्म (मिथ्यात्व, प्रज्ञान और अर्सयम-मद्यपानादि ) पारियों को स्वर्ग और मोहम विपरीत फल-नरफ और तिर्यञ्चगतिके भयानक दुःख उत्पन्न करते हैं उन्हें अधर्म कहा है। नारदने' भी उक्त बातका समर्थन किया है : कौलों (नास्तिकों ) ने मद्यपान, मांसभक्षण और परस्त्रोमेवन आदि दुम्कोको धर्म माना है: परन्तु उनसे प्राणियोंको नरकोंके भयानक दुःख होते हैं अतएव विक्रियोंको उनसे दूर रहना चाहिये ।।२।। विशद विवेचन : शास्त्रकारोंने' मिध्यात्य, अज्ञान और मसंयमरूप असत्प्रवृनिको ममस्त दुम्बाका मुलकारमा बताया है और यही अधर्म है; अतः उससे निवृत्त होनेके लिये उक्त मिथ्यात्वादिका क्रमशः विवेचन किया जाता है। (१) मिथ्यात्वका निरूपण: भात, मागम और मोक्षोपयोगी तत्वों में श्रद्धान न करना सो मिथ्यात्व है। अथवा बानाय श्री यशस्सिलक में लिखते है-जिन रागी, द्वेषी, मोही और अज्ञानी अक्तियों में सत्यार्थ ईस्वर होनं शेय सद्गुण (सर्वज्ञता और वीतरागता आदि ) नहीं हैं उनको देव -श्वर मानना तथा मापान १ तथा च नारद :-- मयमांसाशनासँगैर्यो धर्मः कौशसम्मतः । केवल नरकाय नस कार्यों विवेकिभिः ॥२॥ १ देखो रहनकरण श्लोक। २ देवे देवताइद्धिमत्रते बतभावनाम् । श्रतत्वे तत्वविज्ञानमतो मिथ्यात्वमसूजेत् ।।शा तथापि यदि मुहवं न त्यजेत् कोऽपि सर्वथा। मिन्यात्वेनानुमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दर माशा -पशस्तितके मोमदेवसरिः ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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