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मन्धि-समुदेश
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सम्पत्तिके समय सभी पुरुष सहायक होजाते हैं. परन्तु अब मनुष्य के ऊपर आपत्ति पड़ती है तब कोई सहा. पता नहीं करता; इसीलिये आपत्ति आनेके पूर्व ही सहायक पुरुषों का संग्रह कर लेना श्रेष्ठ है ॥८॥
वर्ग' विद्वामने भी कहा है कि 'जव गृहमें धन होता है, तब साधारण व्यक्ति भी मित्र होजाता है, परन्तु धनके नष्ट होजाने पर बन्धु जन भी तस्काल शत्रुता करने लगते हैं ॥१॥ जिसप्रकारके पुरुषको मन्त्रणा करनेका अधिकार नहीं
भाद् इवाश्रोत्रियस्य न मंत्रे मूर्खस्याधिकारीस्ति ॥ ६ ॥ भर्थ-जो मनुष्य धार्मिक क्रियाकांडोंका विद्वान् नहीं है, उसको जिसप्रकार भाकिया (श्रद्धासे किया जानेवाला दान पुण्य) करानेका अधिकार नहीं है, इसीप्रकार राजनीसि-सानसे शूम्प-मूखे-मीको भी मंत्रणा (उचित सलाह) का अधिकार नहीं है ।। ८६ ॥ मूर्ख मन्त्रीका दोष
कि नामान्धः पश्येत् ॥ १० ॥ अथ-क्या श्रधा मनुष्य कुछ देख सकता है ? नहीं देख सकता। सारांश यह है कि इसीप्रकार अंधेके समान मूर्ख मन्त्री भी मंत्रका निश्चय नहीं कर सकता ।18.॥
शौनक विद्वानने भी कहा है कि 'यदि अंधा पुरुष कुछ घट-पटादि वस्तुओं को देख सकता हो, तब कही मूर्ख मंत्री भी राजाओंके मंत्र को जान सकता है ॥१॥ मूर्ख राजा और मूर्ख मंत्रीके होनेसे हानि
किमन्धेनाकृष्यमाणोऽन्धः समें पन्थानं प्रतिपद्यते ॥११॥ भर्ष - यदि अंधे मनुष्यको दूसरा अंधा जाता है, जो भी क्या वह सममार्ग (गटे और ककर पत्थरोंसे रहित एकसे रास्ते) को देख सकता है ? नहीं देख सकता। सारांश यह है कि खसीप्रकार पदि मुख राजा भी मूर्स मंत्रीकी सहायतासे संधि-विग्रहादि राजकार्यों की मन्त्रणा करे, तोया पर उसके का (विजयलक्ष्मी व अर्ध-जाभ-आदि) प्राप्त कर सकता है। नहीं कर सकता ॥१॥ -
शुक विद्वानने भी कहा है कि यदि अन्धा मनुष्य दूसरे अन्धेके द्वारा खोपकर मार्ग में लाया जाये, पवापि यदि वह (अन्धा) ठोक रास्तेको देख मके, तब कहीं मुखे राजाभी मूखे मंत्रीकी सहायता से मंत्रराजकीय उचित सलाह---का निश्चय कर सकता है। सारांश यह है कि उस दोनों कार्य असंभव इसलिये राज-मंत्रीको राजनीतिका विद्वान होना चाहिये था।
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। तथा च मर्ग:-बदा स्यान्मदिरे क्षमीसम्मोऽपि सुहसमेत् । विताये या पास्ताचार दुर्बनापते ॥ . चार शौनक:-अन्धो मीरवते (कंविर घई ना पामेव । तदा मोऽपि यो मंत्री मंत्र परवेत् स भमृताम् ।। 'न चाम्लाकृष्यमाणोन्यः समं पंथानं प्रविपचते' एला मु. .. . मतियोंमें पार, परन्तु वर्ष-मेर
पुष नहीं । संपादक। तथा च शुर-मन्भेनाहयमाणो दन्को मागंपीपक | भवेतन्यूपोऽपि मंत्रा बायज्ञमंत्रियः ॥१॥