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________________ २०७ मन्त्रिसमुद्देश ---------- ------- -- भयभीत हुए कर्मचारियों को पुनः उनके पपर आसीन कर देवे, क्योंकि ऐसा करने से वे कृशता के कारण बगावत नहीं कर सकते एव उसे तिरस्कृतों को वश करनेके लिये उनका सम्मान करना चाहिये || १६५|| ******** राजाका कर्तव्य है कि जिन कारणों से उनकी प्रकृति-मंत्री और सेनापति आदि राज्य के अङ्गनष्ट और विरक्त कर्त्तव्यच्युत होती हो, उन्हें न करे एव ं लोभके कारणों से पराङ्गमुख होकर उदारा से काम लेवे ||२६६|| वसिष्ठ' विद्वान्ने भी कहा है कि 'राजाको अमात्य आदि प्रकृतिके नष्ट और विरक्त होनेके साधनों का संग्रह तथा लोभ करना उचित नहीं है, क्योंकि प्रकृतिके दुष्टनष्ट और बिरक्त होने से राज्यकी वृद्धि किस प्रकार होसकती है ? नहीं हो सकती । प्रकृति-क्रोध से हानि व श्रवध्य अपराधियों के प्रति राज कर्त्तव्य क्रमश: सर्वोपेभ्यः प्रकृतिकोपो गरीयान् ॥१६७॥ अचिकित्स्पदोपदष्टान् स्वनिदुर्गा सेतुबन्धाकरकर्मान्तरेषु क्लेशयेत् ॥ १६८ ॥ अर्थ- शत्रु आदि से होनेवाले समस्त क्रोधों की अपेक्षा मंत्री व सेनापति आदि प्रकृतिका क्रोभ राजाके लिये विशेष कायक होता है। निष्कर्ष यह है कि राज्यरूपी वृक्षका मूल अमात्यादि प्रकृति होती है, अतः उसके विरुद्ध होनेपर राज्य नष्ट होजाता है, अतः राजाको उसे सन्तुष्ट रखने में प्रयत्नशील रहना चाहिये || १६७७ राजपुत्र' विद्वान ने भी कहा है कि 'अमात्य आदि प्रकृतिके लोग सदा राजाओंके सभी विश्दोष जानते हैं, अतएष विरुद्ध हुआ प्रकृति वर्ग शत्रु चोंको राज-दोष बताकर उनसे राजाको मरमा सा है ॥ ९॥ ॥ राजाका कर्त्तव्य है कि यह जिनके अपराध कौटुम्बिक संबंध आदिके कारण दवाई करनेके अयोग्य है- दूर नहीं किये जासकते (जिन्हें वत्र बंधनादि द्वारा पंडित नहीं किया जासकता) ऐसे राज-द्रोही महान् अपराधियोंको तालाब खाई खुदवाना, किले में रखकर काम कैराना, नदियोंके पुल बंधवाना और खानियों से मोहा-प्रभूति धातुएं निकलवाना इत्यादि कार्यों में नियुक्त कर क्लेशिस करें ||१६|| शुक विद्वायने भी उक्त बातकी पुत्रि की है कि 'जो महापराधी राज-वंशज होनेसे वध करनेके १ तथा च राजपुत्रः - राज्ञां विणि सर्वाणि विशुः प्रकृतयः : न च शुक्रः—श्रध्या ज्ञातयों ये च बहुदोषासति १ तथा च वसिष्ठः यो लोभो विरागश्च प्रकृतीनां न शस्यते [कुतस्तासां प्रक्षेपेण] राज्यवृद्धिः प्रजायते ॥ तृतीय चरण संशोधित एम परिवर्तित सम्पादकसदा । निषेध शनि शत्रु म्यस्ततो नाशं नयन्त्रितम् ॥१॥ । कर्मानिया येन मनान्विता ॥१॥९
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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